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बहिर्निवृत्तिमात्रं स्याच्चारित्राद् व्यावहारिकात् । अन्तःप्रवृत्तिसारं तु सम्यक्प्रज्ञानमेव हि ॥ २१ ॥
भावार्थ : व्यावहारिक चारित्र से केवल बाह्यपदार्थों से निवृत्ति होता है । परन्तु अन्त:करण की प्रवृत्ति की दृष्टि से श्रेष्ठफलदायक साररूप तो सम्यक्त्वसहित ज्ञान है ॥२१॥
एकान्तेन हि षट्कायश्रद्धानेऽपि न शुद्धता । सम्पूर्णपर्ययालाभाद् यन्न याथात्म्यनिश्चयः ॥२२॥
भावार्थ : एकान्तरूप से षड्जीवनिकाय पर श्रद्धा रखने से शुद्धता नहीं होती; क्योंकि सम्पूर्ण पर्यायों के लाभ के बिना यथार्थस्वरूप का निश्चय नहीं होता ॥ २२ ॥ यावन्तः पर्यया वाचां यावन्तश्चार्थपर्ययाः । साम्प्रताऽनागतातीतास्तावद् द्रव्यं किलैककम् ॥२३॥
भावार्थ : जगत् में वर्तमान, भूत और भविष्य के जितने वचन-पर्याय हैं, और जितने अर्थपर्याय हैं, वे सब मिलकर (समस्त पर्यायसहित ) एक ही द्रव्य है ||२३|| स्यात्सर्वमयमित्येवं युक्तं स्वपरपर्ययैः । अनुवृत्तिकृतं स्वत्वं परत्वं व्यतिरेकजम् ॥२४॥
भावार्थ : इसी प्रकार स्व-पर- पर्यायों से युक्त एक ही द्रव्य सर्वपदार्थमय हो जाता है और उसमें अनुवृत्ति - सहचारी गुण से स्वत्त्व और व्यतिरेक से उत्पन्न परत्व समझना चाहिए ||२४||
अधिकार छठा
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