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उसके फलों का स्वाद नरक के विस्तीर्ण व्याधिसमूहदुःखसमूह के समान है ! बुद्धिमान पुरुषों को ऐसे संसारविषवृक्ष पर आस्था रखना ठीक नहीं ॥१०॥ क्वचित्प्राज्यं राज्यं क्वचन धनलेशोऽप्यसुलभः । क्वचिज्जाति - स्फातिः क्वचिदपि च नीचत्व - कुयशः ॥ क्वचिल्लावण्य श्रीरतिशयवती क्वापि न वपुःस्वरूपं वैषम्यं रतिकरमिदं कस्य नु भवे ॥११॥
भावार्थ : इस संसार में किसी जन्म में विशाल राज्य मिल जाता है तो किसी जन्म में जरा-सा धन भी मिलना दुर्लभ हो जाता है । किसी जन्म में उच्चजाति प्राप्त होती है तो किसी जन्म में नीचकुल का अपयश मिलता है । तथा किसी जन्म में देह की अतिशय सुन्दरतारूपी श्री प्राप्त होती है तो किसी जन्म में शरीर का रूप भी नहीं मिलता। इस प्रकार इस संसार की विषमता (विचित्रता) भला किसे प्रीतिकारक हो सकती है? किसे भी नहीं ॥ ११ ॥
इहोद्दामः कामः खनति परिपंथी गुणमहीमविश्रामः पार्श्वस्थितकुपरिणामस्य कलहः ॥ बिलान्यन्तः क्रामन्मद-फणभृतां पामरमतं । वदामः किं नाम प्रकटभवधामस्थितिसुखम् ॥१२॥
भावार्थ : पामरप्राणी जिस संसाररूपी घर में निवास को अत्यन्त सुखकर मान बैठे हैं, उस सुख का हम किस मुँह से
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अध्यात्मसार