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आत्मिक स्वभाव में रमणतारूप व्यापार के कारण विषयप्रवृत्ति होने पर भी आसक्ति का ह्रास होता है। श्री वीतराग-स्तोत्र में कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने इसी प्रकार कहा है । वही श्लोक यहाँ उद्धृत करते हैं- ॥१२॥ यदा मरुन्नरेन्द्रश्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते । यत्र तत्र रतिर्नाम विरक्तत्वं तदापि ते ॥१३॥
भावार्थ : हे देवाधिदेव नाथ ! जब आप देवेन्द्र अथवा नरेन्द्र के ऐश्वर्य का उपभोग करते हैं, उस समय जहाँ तहाँ भी आपकी प्रीति दिखती है, उसमें वस्तुतः आपकी विरक्त दशा ही थी ॥१३॥ भवेच्छा यस्य विच्छिन्ना प्रवृत्तिः कर्मभावजा । रतिस्तस्य विरक्तस्य सर्वत्र शुभवेद्यतः ॥१४॥
भावार्थ : जिसकी भव (जन्ममरण) की इच्छा नष्ट हो गई है, उसकी विषयोपभोग आदि में जो प्रवृत्ति होती है, वह निकाचित कर्म के उदय से होती है, उसमें उस विरक्त की जो प्रीति (रति) दिखाई देती है, वह भी सर्वत्र सातावेदनीयकर्म के उदय से होती है । इससे उनका वैराग्य भाव नष्ट नहीं होता ॥१४॥ अतश्चाक्षेपकज्ञानात् कान्तायां भोगसन्निधौ । न शुद्धि-प्रक्षयो यस्माद्धारिभद्रमिदं वचः ॥१५॥ ४८
अध्यात्मसार