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भावार्थ : लौकिक व्यवहार में ज्ञानी की प्रवृत्तियाँ काष्ठयन्त्र में पुतली के नृत्य के समान होती हैं। फिर भी उस योगी के लिए संसारप्रवृत्ति पीडाकारक नहीं होती है ॥३३॥ इयं च योगमायेति प्रकट गीयते परैः । लोकानुग्रहहेतुत्वान्नास्यामपि च दुषणम् ॥३४॥
भावार्थ : अन्य दर्शनकारों ने पूर्वोक्त भोग-प्रवृत्ति में वैराग्यदशा को स्पष्टरूप से 'योगमाया' कहा है। वह योगमाया लोकानुग्रह का कारण होने से दोषरूप नहीं होती ॥३४॥ सिद्धान्ते श्रूयते चेयमपवादपदेष्वपि । मृगपर्षत्परित्रास-निरासफलसंगता ॥३५॥
भावार्थ : सिद्धान्त में भी सुना जाता है कि अपवादमार्ग में भी मृग के समान अज्ञ पुरुषों की पर्षदा (सभा) के खण्डन (भंग) रूप फल के साथ संगत है ॥३५॥ औदासीन्यफले ज्ञाने परिपाकमुपेयुषि । चतुर्थेऽपि गुणस्थाने तद्वैराग्यं व्यवस्थितम् ॥३६॥
भावार्थ : जब ज्ञान परिपक्व होता है, तब उसका फल उदासीनता होती है। उस समय चौथे गुणस्थानक में भी वैराग्य रहता है ॥३६॥
॥ इति वैराग्य-सम्भवाधिकारः ॥
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अध्यात्मसार