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भावार्थ : इन्द्रियों को बलपूर्वक प्रेरित करने (दबाने) से वे जंगली हाथी के समान कभी काबू (वश) में नहीं आतीं, बल्कि अनर्थ को बढाने वाली बन जाती हैं ॥२९॥ पश्यन्ति लज्जया नीचैर्दुर्ध्यानं च प्रयुञ्जते । आत्मानं धार्मिकाभासाः क्षिपन्ति नरकावटे ॥३०॥
भावार्थ : जो धार्मिकाभास धर्मध्वजी लज्जा से नीचे देखते हैं, परन्तु मन में दुर्ध्यान (बुरा चिन्तन) करते हैं, वे धूर्त अपनी आत्मा को नरक के कूप में डालते हैं ॥३०॥ वञ्चनं करणानां तद्विरक्तः कर्तुमहर्ति । सद्भावविनियोगेन सदा स्वान्यविभागवित् ॥३१॥
भावार्थ : आत्मा को शुद्धभाव में अर्पण करके निरन्तर स्व और पर के विभाग को जानने वाला उन-उन विषयों से विरक्त पुरुष इन्द्रियों को विषयों से वंचित (दूर) करने में समर्थ हो सकता है ॥३१॥ प्रवृत्तेर्वा निवृत्तेर्वा न संकल्पो न च श्रमः । विकारो हीयतेऽक्षाणामिति वैराग्यमद्भुतम् ॥३२॥
भावार्थ : जिस वैराग्य में प्रवृत्ति हो चाहे निवृत्ति, किसी का संकल्प नहीं है और श्रम भी नहीं है तथा इन्द्रिय-विकार क्षीण होता जाता है, वह अद्भुत वैराग्य कहलाता है ॥३२॥ दारूयंत्रस्थपांचालीनृत्यतुल्याः प्रवृत्तयः । योगिनां नैव बाधायै, ज्ञानिनो लोकवर्तिनः ॥३३॥ अधिकार पाँचवां