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बहुदोषनिरोधार्थमनिवृत्तिरपि क्वचित् । निवृत्तिरिव नो दुष्टा योगानुभवशालिनाम् ॥२२॥
भावार्थ : योग के अनुभवों से सम्पन्न पुरुषों के लिए निवृत्ति की तरह किसी-किसी प्राणी के बहुत-से दोषों का निरोध करने के लिए किसी समय अनिवृत्ति भी दोषरूप नहीं होती ॥२२॥ यस्मिन्निषेव्यमाणेऽपि यस्याशुद्धिः कदाचन । तेनैव तस्य शुद्धिः स्यात्कदाचिदिति हि श्रुतिः ॥ २३ ॥ भावार्थ : श्रुति में कहा है - जिन भोगों का सेवन करने से किसी समय जिसकी अशुद्धि होती है, उन्हीं भोगों का सेवन करने से उस मनुष्य की कदाचित् शुद्धि भी होती है ||२३|| विषयाणां ततो बन्धजनने नियमोऽस्ति न । अज्ञानिनां ततो बन्धो ज्ञानिनां तु न कर्हिचित् ॥२४॥
भावार्थ : इसलिए विषय कर्म का बन्धन करते ही हैं, ऐसा एकान्त नियम नहीं है । अज्ञानी का जिनसे बन्धन होता है ज्ञानी का उनसे कभी बन्धन नहीं भी होता ||२४|| सेवतेऽसेवमानोऽपि सेवमानो न सेवते ।
कोऽपि पारजनो न स्याच्छ्रयन् परजनानपि ॥ २५ ॥
हुए
भावार्थ : अज्ञानी जीव विषय का सेवन न करते भी सेवन करता है, और ज्ञानी विषयसेवन करते हुए भी सेवन
अधिकार पाँचवां
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