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भावार्थ : इसलिए आक्षेपक ज्ञान के कारण स्त्री तथा विषयभोग की सामग्री पास में होते हुए भी उनकी शुद्धि का क्षय नहीं होता, ऐसा श्रीहरिभद्रसूरि का कथन है ॥१५॥ मायाम्भस्तत्त्वतः पश्यन्ननुद्विग्नस्ततो द्रुतम् । तन्मध्ये न प्रयात्येव यथा व्याघातवर्जितः ॥१६॥
भावार्थ : सारे संसार को वह तात्त्विक दृष्टि से मृगमरीचिका के समान देखता है; इसलिए कामभोग में उद्विग्न नहीं होता तथा रागाविष्ट भी नहीं होता है, उसमें तन्मय भी नहीं होता है, ऐसी महान् आत्मा निर्विघ्नता से मोक्ष में जाती है ॥१६॥ भोगान् स्वरूपतः पश्यंस्तथा मायोदकोपमान् । भुञ्जानोऽपि ह्यसंगः सन् प्रयात्येव परं पदम् ॥१७॥
भावार्थ : विषयभोगों को स्वरूपतः इन्द्रजाल के समान जानकर विषयादि का उपभोग करते हुए भी जो उसमें आसक्त नहीं होता वह परमपद मोक्ष को प्राप्त करते हैं ॥१७॥ भोगतत्त्वस्य तु पुनर्न भवोदधिलंघनम् । मायोदकदृढावेशात्तेन यातीह कः पथा? ॥१८॥
भावार्थ : और जो भवाभिनंदी जीव संसार के भोग को तत्त्वरूप मानता है, वह आत्मा संसार-समुद्र का उल्लंघन नहीं कर सकती । यह वास्तव में मायाजल है। जैसे मृग-मरीचिका अधिकार पाँचवां
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