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बखान करें? क्योंकि इस संसाररूपी घर में कामदेवरूपी उच्छृखल शत्रु या चोर घुसा हुआ है, जो (त्रिरत्नमय) गुणरूपी पृथ्वी को खोदता है, पड़ोस में रहे हुए कुपरिणाम के साथ निरन्तर झगड़ा चलता रहता है और अन्दर (मन में) अष्टमदरूपी फणों को धारण करने वाले संचरणशील सो के बिल भी हैं। भला ऐसे संसाररूपी घर में सुख कहाँ से हो ? ॥१२॥ तृषार्ताः खिद्यन्ते विषयविवशा यत्र भविनः । करालक्रोधार्काच्छमसरसि शाषं गतवति ॥ स्मरस्वेदक्लेदग्लपितगुणमेदस्यनुदिनम् । भवग्रीष्मे भीष्मे किमिह शरणं तापहरणम् ॥१३॥
भावार्थ : जिस संसाररूपी ग्रीष्मकाल में अत्यन्त उग्रक्रोधरूपी प्रचण्ड सूर्य के कारण समतारूपी सरोवर के सूख जाने से विषयों के वशीभूत हुए प्यासे भव्यप्राणी प्यास से पीड़ित होकर खिन्न हो जाते हैं । जहाँ संसाररूपी ग्रीष्मकाल में प्रतिदिन कामरूपी पसीने से तरबतर होने से गुणरूपी चर्बी गल रही है। ऐसे संसाररूपी भयंकर ग्रीष्मकाल में तापहारी कौन सी शरण है ? ॥१३॥ पिता माता भ्राताऽप्यभिलषितसिद्धावभिमतो । गुणग्रामज्ञाता न खलु धनदाता च धनवान् ॥ जनाः स्वार्थस्फातावनिशमवदाताशयभृतः । प्रमाता कः ख्याताविह भवसुखस्यास्तु रसिकः ? ॥१४॥ अधिकार चौथा