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कारण भयंकर है । वस्तुत: यह संसार कारागृह है । इसलिए इस पर विद्वान् पुरुष कदापि प्रीति (आसक्ति) नहीं करते ॥८॥ महाक्रोधो गृध्रोऽनुपरति-शृगाली च चपला । स्मरोलूको यत्र प्रकटकटुशब्दः प्रचरति ॥ प्रदीप्तः शोकाग्निस्ततमपयशो भस्म परितः । स्मशानं संसारस्तदभिरमणीयत्वमिह किम् ॥९॥
भावार्थ : यह संसार एक स्मशान है, जहाँ विकट क्रोधरूपी भयानक गिद्ध (पक्षी) रहते हैं, अविरतिरूप चंचल सियारनी रहती है, कामदेवरूपी उल्लू स्पष्टरूप से भयंकर आवाज करता हुआ स्वच्छन्द घूम रहा है । वहाँ शोकरूपी अग्नि जल रही है, चारों ओर विस्तृत अपयशरूपी राख के ढेर पड़े हैं । अतः ऐसे संसाररूपी मरघट में रमणीयता कहाँ है ? कहीं पर भी तो नहीं ॥९॥
धनाशा यच्छायाप्यतिविषयमूर्छा - प्रणयिनी । विलासो नारीणां गुरुविकृतये यत्सुमरसः ॥ फलास्वादा यस्य प्रसरनरकव्याधिनिवहस्तदास्था नो युक्ता भवविषतरावत्र सुधियाम् ॥१०॥
भावार्थ : यह संसार विषवृक्ष के समान है; जिसकी धनाशारूपी छाया अत्यन्त विषयमूर्छा बढ़ाने वाली है; उस विषवृक्ष का महाविकारक पुष्पपराग है, - नारियों का विलास ।
अधिकार चौथा
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