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पढ़ने वाले को, दुष्ट के साथ प्रत्यक्ष ज्ञात मैत्री, सभा में अन्याय-परम्परा, विधवा स्त्री का यौवन, अकुशल पति के प्रति मृगनयनी की स्नेहलहरी उस-उस व्यक्ति के हृदय को जाती है ॥२१॥
प्रभाते संजाते भवति वितथा स्वापकलना, द्विचन्द्रज्ञानं वा तिमिरविरहे निर्मलदृशाम् ॥ तथा मिथ्यारूपः स्फुरति विदिते तत्त्वविषये, भवोऽयं साधूनामुपरत - विकल्पस्थिरधियाम् ॥२२॥
भावार्थ : जैसे प्रभातकाल होने पर स्वप्न में देखी हुई रचना निष्फल हो जाती है, अथवा रतौंधी (तिमिर रोग) नष्ट होने पर निर्मल दृष्टि वाले जीव को दो चन्द्रमा देखने की भ्रांन्ति मिथ्या प्रतीत होती है, इसी प्रकार विकल्प - रहित, शान्त और स्थिर बुद्धि वाले साधुओं को तत्त्वज्ञान होने पर यह संसार मिथ्यारूप लगता है ॥२२॥
प्रियावाणीवीणा - शयन-तनु- संबाधन-सुखै - भवोऽयं पीयूषैर्घटित इति पूर्वं मतिरभूत् ॥ अकस्मादस्माकं परिकलिततत्त्वोपनिषदामिदानीमेतस्मिन्न रतिरपि तु स्वात्मनि रतिः ॥२३॥
भावार्थ : पहले हमारी बुद्धि (मान्यता) इस प्रकार थी कि यह संसार प्रिया और उसकी मधुर वाणी, वीणानाद, शयन
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अध्यात्मसार