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पुरा प्रेमारंभे तदनु तदविच्छेदघटने । तदुच्छेदे दुःखान्यथ कठिनचेता विषहते ॥ विपाकादापाकाहितकलशवत्तापबहुलात् । जनो यस्मिन्नस्मिन् क्वचिदपि सुखं हन्त न भवे ॥ १८ ॥ भावार्थ : इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है । इस संसार में पहले प्रेम का प्रारम्भ करने में ही दुःख है, उसके बाद उस प्रेम को अखण्ड रूप से टिकाने में कष्ट है; और प्रेम (प्रेमपात्र) के नष्ट (वियोग ) हो जाने पर अनेक दुःख होते हैं । जिन्हें कठोरहृदय व्यक्ति कुम्हार के आवे में डाले हुए घड़े के समान चारों ओर से तप्त होकर सहन करता है और अन्त में, वह दुष्कर्म के विपाक के कारण, जन्मान्तर में भी नरकादि दुर्गतियों के दुःख पाता है । अत: संसाररूपी आँवे में जरा भी सुख नहीं है ॥१८॥
मृगाक्षोदृग्बाणैरिह हि निहतं धर्मकटकम् । विलिप्ता हृद्देशा इह च बहुलै रागरुधिरैः ॥ भ्रमन्त्यूर्ध्वं क्रूरा व्यसनशतगृध्राश्च तदियम् । महामोह-क्षोणीरमणरणभूमिः खलु भवः ॥१९॥
भावार्थ : संसाररूपी रणभूमि में मृनगयना ललनाओं के कटाक्ष बाणों से धर्मराजा की सेना नष्ट हो गई है, इससे इस रणभूमि में अत्यन्त गाढ़ रागरूपी रक्त से सैकड़ों धर्मसुभटों के हृदयरूपी प्रदेश लथपथ हो गए हैं । जहाँ सैंकड़ों व्यसनोंरूपी
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अध्यात्मसार