Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TROOTTER रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला. **><< अंक ११-१२ में ( संपूर्ण . ) स्याद्वादमञ्जरी भापाटीका श्री वीरनिर्वाण संवत् २४३६.] exinse [ ईसवी सन १९१०. ग्रन्थ प्रकाशक- मुम्बापुरीस्थश्री परमश्रुतप्रभावकमण्डलसत्त्वाधिकारिभिः निर्णयसाग राख्यमुद्रणालये वा. रा. घाणेकरद्वारा मुद्रापयित्वा प्राकाश्यं नीता । सन १८६७ के २५ वे राज नियमानुसार रजिस्टर करके प्रसिद्ध कर्त्ताओंने सर्व हक स्वाधीन रक्खे हैं, Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दमं. विज्ञापन विज्ञापन । १॥ विदित हो कि खर्गवासी तत्त्वज्ञाता शतावधानी कविवर श्रीरायचन्द्रजीने तत्त्वज्ञानपरिपूर्ण अतिशय उपयोगी और अलभ्य IN ऐसे श्रीउमाखाति, श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, श्रीहरिभद्रसूरी आदि आचार्योंके रचे हुए महान् शास्त्रोंका सर्वसाधारणमें प्रचार करनेके लिये श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडलकी स्थापना की थी. जिसके द्वारा आज पर्यंत रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला नामक छूटक अंक ओर 0 पुस्तक प्रकट होकर तत्त्वज्ञानाभिलाषी भव्यजीवोंको आनंदित कर रहा है। इस शास्त्रमाला द्वारा मूल और हिन्दी भाषानुवाद सहित २१०० पृष्ठ ग्राहकोंके पास भेजे गये है। जिनमें अनुमान १०५०४ पृष्ठ श्वेताम्बर सप्रदायके और १०५० पृष्ठ ही दिगम्बर संप्रदायके शास्त्ररत्नोंके है । यह योजना विज्ञ पाठकोंको दोनों सप्रदायोंके अभिप्राय विदित होनेके लिये ही की गई है । इस लिये आत्मकल्याणके इच्छक भव्यजीवोंसे प्रार्थना है कि इस पवित्र शास्त्रमालाके पुस्तकका ग्राहक बनकर अपनी चल लक्ष्मीको अचल करै और तत्त्वज्ञानपूर्ण जैनसिद्धान्तोंका पठनपाठनद्वारा प्रचारIN] कर हमारी इस परमार्थयोजनाके परिश्रमको सफल करै । प्रत्येक सरखतीभण्डार, सभा और पाठशालामें इसका संग्रह अवश्यमेव करना चाहिये। रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाद्वारा प्रकाशित पुस्तकें. १सप्तभंगितरंगिणी भा. टी. यह न्यायका अपूर्व ग्रंय है। इसमें ग्रन्थकर्ता श्रीविमलदासजीने स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, आदि भंगोका वर्णन बहुत ही अच्छा किया है। निछरावल रु.१) २ पुरुषार्थसिद्धयुपाय भा टी. यह श्रीअमृतचन्द्रखामी विरचित प्रसिद्ध शास्त्र है। इसमें आचार संवन्धी बडे २ गूढ रहस्य है। निछरावल रु० १) (हाल खलास है)। ३ पञ्चास्तिकाय भा. टी. यह श्रीकुंदकुंदखामी कृत मूल और श्रीअमृतचन्द्रसूरी कृत टीकासहित प्रसिद्ध शास्त्ररत्न है । इसमें जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, और आकाश इन पाच द्रव्योंका उत्तम रीतिसे वर्णन है। निछरावल रु. १०) ॥१ ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ज्ञानार्णव भा. टी इसमें श्रीशुभचन्द्र खामीन ध्यानका वर्णन बहुत ही उत्तमतासे किया है। इसका प्रत्येक लोक हितोपदेशी है । निछरावल रु० ४) ५ बृहद्रव्यसंग्रह भा. टी श्रीनेमिचन्द्रस्वामीकृत मूल और श्रीब्रह्मदेवजी कृत संस्कृतटीका पर अच्छी बनाई हुई वचनिका सहित है। इसकी वचनिका अब तक नही वनीं थी अत अपूर्व है । निछरावल रु०२) ६ स्याद्वादमंजरी भा. टी. इसमें छहो मतोका खंडन करके टीकाकर्ता विद्वद्वर्य श्रीमहिषेणसूरीजीने स्याद्वादको पूर्ण रूपसे सिद्ध किया गया है । अच्छी बनाई हुई भाषाटीका सहित है । ५०० ग्राहक पहिले ही हो चुके हैं। ग्राहकोंमे पत्रद्वारा शीघ्रही नाम लिखा लीजिये । निछरावल रु०४) ७ द्रव्यानुयोगतर्कणा-यह ग्रंथ मे शास्त्रकार श्रीमद् भोजसागरजीने सुगमतासे मन्दबुद्धि जीवोका द्रव्यज्ञान होनेके “अथ गुणपर्ययवद्द्रव्यम् " इस महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र के अनुकुल द्रव्य, गुण और पदार्थोंका ही विशेष वर्णन किया है और प्रसंगवश 'स्यादस्ति, ' स्यान्नास्ति आदि सप्तभंगीका और दिगंबराचार्यवर्य श्रीदेवसेनखामी विरचित नयचक्रके आधारसे नय, उपनय, तथा मूलनयांका भी विस्तारसे वर्णन किया है निछरावल रु० २ ) ८ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् - जिसका अपर नाम तत्त्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्र भी है जैनयोका यह परम मान्य और मुख्य ग्रन्थ है इसमे जैनधर्मके सम्पूर्ण सिद्धान्त आचार्यवर्य श्रीउमाखातिजीने वडे लाघवसे सग्रह किया है। ऐसा कोई भी जैनसिद्धान्त नहीं है जो इसके सूत्रोंमें संगठित न हो । सिद्धान्तसागरको एक अत्यन्त छोटेसे तत्त्वार्थरूपी घटमें भर देना यह कार्य इसके क्षमताशाली रचयिताका ही था । तत्त्वार्थके छोटे २ सूत्रोके | अर्थ गाभीर्य को देखकर विद्वानोको विस्मित होना पडता है, और उसके रचयिताकी सहस्रमुखसे प्रशंसा करनी पडती है । निछरावल रु० २ ९ छूट अंकों श्रीज्ञानार्णव ओर श्रीद्रव्यानुयोगतर्कणाका छूटक अकोभी रक्खें हैं जिस महाशयकी पाम अपूर्ण ग्रंथ होवे वे मंगालेबे दरेक छूटक अकका निछरावल २०१३) श्रीमदूराजचंद्रजी के लिखे हुये ( गुजराती भाषा हिन्दीटाइप ) ग्रन्थ और वे महोदयका विचारोंका संग्रह इत्यादि श्रीमद् राजचंद्र (खलास है ) मोक्षमाला भावनाबोध ... काव्यमाला ( खलास है ) प्रत्येक ग्रन्थ व्ही. पी. पारसलसे भेजा जाता है कृपाकरके अपना पत्ता, गाव, जीला ठीक २ लीखनाजी. ... 61015 ... ०-१२-० .... 01810 ०-३-० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालासम्बंधी सर्वप्रकारके पत्रव्यवहार करनेका पत्ता - शा. रेवाशंकर जगजीवन जोहरी. आनरेरी व्यवस्थापक- श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडल. जोहरी बाजार - बम्बई नं० २. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । आव मन स्थाद्वादम. आवश्यक सूचना रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाके अंफोको देखकर बहुतसे मुनिमहाराजी, विद्वानों और ग्रेजुएटोने ममय समयपर प्रशंसापत्र भेजे है। ॥२॥ और सज्जनोको ग्राहक बननेकी प्रेरणाये की है। जिनको हम यहा सानाभावसे मात्र एक प्रगट करते है. पोरबंदरसे मुनिश्रीचारित्र विजयजी गुजराती भाषाम लिखते हैं, जिसका मारांश यह है कि -"रायचन्द्रजैनशाम्रमाला"। के परम पूज्य ग्रन्थ हमको मिले पढनेसे परम प्रसन्नता हुई। यथार्थमं ऐसे ही अन्योंका भाषान्तर (भापा टीका) होना चाहिये। जैनतत्त्वज्ञान सम्बधी ऐसे अन्योंके सिवाय हाल जो अन्यान्य ग्रन्थ छपते हैं, उनसे कुछ लाभ नहीं होगा, परन्तु आपका प्रयानी Koi अवश्यही अभिनन्दनीय है । जैनममूहम ऐसे २ अपूर्व ग्रन्थोफा जय ज्ञान होगा, तब ही हमलोग जैनी रहलाने के योग्य होंगे, और श्रद्धा निर्मल होगी, अतः यह प्रयत्न निरन्तर जारी रखनेके लिये हम प्रेरणा करते है और प्रत्येक जैनीको भी नेहपूर्वक सूचना देते है कि, ऐसे ग्रन्थोके ग्राहक होके अपनी लक्ष्मी मफल करो, और प्रत्येक भंडारोने पसे २ ग्रन्योंका संग्रह करो. मुनिमहाराजो और सजन विद्वजनोसे प्रार्थना है कि जिन ग्रंथों का भाषानुवाद करके छपानेले जनसमाजको विशेषलाभ। होनेकी सभावना हो, उन ग्रन्थोके नाम और पतेसे हमको मूनित करे तथा जाजनक दम गानमालाद्वारा जो ग्रन्थ प्रगट दुग । है उनमें जो त्रुटिये हों उनसे भी नित करें जिससे कि उन त्रुटियों को दूर करनेके लिये आगामी कालमें यथाशक्य प्रयत किया जावे । और अग्रिम वर्षमें जिन २ शामोंका प्रगट करना अत्यावश्यक है उनके विषय में भी विचारपूर्वक संगति प्रदान करे।। स्याद्वादमञ्जरी न्यायविषयका लन्युत्तम तथा कठिन ग्रंथ है; अत. इनको विनारपूर्वक छपाने आदि लिने ही विशेष कारणोंसे : हा अत्यंत विलम्ब होगया है, मो ग्राहकमहागय ग्रंथकी उत्तमतापर ध्यान देकर विलम्बजनित अपराधको क्षमा कर १२ वा अंक स्याद्वादमन्जरीका शेषभाग (जो कि प्राय प्रथम असे दूना बड़ा हो गयाहै) एक ही बार में भेजकर रायनन्द्रजेनगाममालाका द्वितीयवर्षको पूर्ण किया है इसकारण ग्राहकगणमें जो विलम्ब हो गया है उसको भी निष्प्रयोजन न ममसकर क्षमाप्रदान कर; यह प्रार्थना है।। रायचन्द्रजैनगाममालासम्बन्धी सर्वपकारके पत्रव्यवहार करनेका पता शा. रेवाशंकर जगजीवन जोहरी. आनरेरी व्यवस्थापक-श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडल. नाहरी बाजार-बम्बई नं०२. ॥२॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीः सूचना श्रीहेमचंद्र सूरि इस कलिकालमें बड़े ही प्रभावशाली विद्वान् हुए यह बात प्राय सर्वसाधारण है । इस समय भी उनकी कीर्ति सारे भूमंडलपर फेली हुई है। उनका समय ईखी सन् १२०० के लगभगका निर्णीत हुआ है । उनके भक्तोंमेंसे कुमारपाल राजा एक प्रधान भक्त था । प्राय उसीके रक्षित भूमण्डलको वे सदा शोभित करते रहे। श्रीहेमचन्द्र सूरिने कई लक्ष श्लोकप्रमाण ग्रन्थोंकी रचना की। उनमेंसे कुछ उपलब्ध प्रधान ग्रन्थोंके नाम निम्नलिखित का है।-योगार्णव, कर्मग्रन्थ प्राकृत, अनेकार्थकोश, अनेकार्थशेष, अभिधानचिन्तामणि, अलङ्कारचूड़ामणि, उणादिसूत्रवृत्ति, काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन, छन्दोनुशासनवृत्ति, देशीनाममाला सवृत्ति, धातुपाठ सवृत्ति, धातुपारायण सवृत्ति, धातुमाला, नाममाला, नाममालाशेष, निघण्टुशेष, बलाबलसूत्रबृहद्वृत्ति, बालभाषाव्याकरणसूत्रवृत्ति, विभ्रमसूत्र, शब्दानुशासन सवृत्ति, शेपसंग्रह, शेषसंग्रहसारोद्धार इत्यादि मुख्य ग्रन्थ है। जिसपर यह स्याद्वादमञ्जरीनामक वृत्ति वनाई गई है वह यह अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक बत्तीस श्लोकोंकी मूलस्तुति भी इन्ही श्रीहेमचंद्रकी बनाई हुई है। इसमें अंतिम तीर्थकर श्रीमहावीर खामीकी स्तुति के बहानेसे अन्य दर्शनोंका युक्तिपूर्वक निराकरण किया गया है । इस स्तुतिका प्रमाण बत्तीस लोकमात्र होनेपर भी यह अत्यंत मनोज्ञ तथा रोचक है । ___ इसकी टीकाका नाम स्याद्वादमञ्जरी है और इस टीकाके कर्ता श्रीमल्लिपेण सूरि है । श्रीमल्लिघेण सूरिने अपने समयका निर्णय ग्रन्थके अंतमें खयं ही लिखा है । उनका यथासंभव परिचयभी उसी अंतकी प्रशस्तिसे हो सकता है । स्याद्वादमञ्जरीमेंT अन्य दर्शनोंकर माने हुए एकान्तरूप विषयोंका उपपादनपूर्वक निराकरण तथा जैनमतके विषयोंका मंडन किया गया है। यह ग्रन्थ न्यायकी शैलीसे परिपूर्ण है । जैसा कुछ अनुमानादि प्रमाणोंद्वारा न्याय शैलीमें खंडन मंडन होता है उसीप्रकार इसमें भी युक्तियोंका विशेष आदर किया गया है। स्थान स्थानपर सांख्य आदि अन्य दर्शनोंका मंडन भी यथाशास्त्र खूब ही किया है Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ३ ॥ तथा पीछेसे निराकरण भी बहुत ही उत्तम रीति से किया है। इसमें किन किन विषयोंका प्रण है यह बात आगे लिखी हुई विषयसूचीसे मालुम पड़ सकती है । इस ग्रन्थका हिन्दीभाषा में अनुवाद तथा संशोधन प्रारंभमे पृष्ट १०८ तक तो जयपुरनिवासी पं० जवाहिरलालजी माहित्यशास्त्रीके द्वारा हुआ परंतु कई कारणवश जब पण्डितजी साहब यहां नहीं रह सके तब बाकीका अनुवाद तथा संशोधन मैने किया । यह अनुवाद जो मैने किया है सो मेरा पहिला ही कार्य है तथा हिन्दी भाषा मेरी मातृभाषा होनेपर भी साहित्य विषयमं जितना परिचय चाहिये उतना मुझे परिचय नहीं है इसलिये मूल होना बहुधा संभव है परंतु अधूरे कार्यको पूर्ण कर देना कर्तव्य समझकर मै इसमें प्रवृत्त हुआ इसलिये विद्वान् मनुष्य मेरी त्रुटियों को अविवक्षित नयाँ के समान उदासीनतासे देखते हुए इस ग्रन्थका लाभ उठाने में मुख्यतासे ध्यान लगावें ऐसी मेरी प्रार्थना है । इसके कर्ता यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य है परंतु इसमें ऐसा एक भी विषय नहीं है जो किसी एक ही जैन सपायको मान्य हो । इसलिये आशा है कि इसका आदर दोनो सम्प्रदायोंमें एकसा ही होगा । विद्वानोंका अनुरागी, वंशीधर गुप्त. له ای شما دی मृचना ॥३॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकारका मङ्गलाचरण अवतरणिका **** विषय. .... .... २०८० मूलग्रन्थका मङ्गलाचरण वैशेषिकमत के सामान्य विशेषका निराकरण 1900 .... | सर्वथा नित्य या अनित्य मंतव्यका खण्डन तथा आकाशादि सभी पदार्थोंमें कथंचित् नित्यानित्यपना, एवं अंधकार पुद्गलद्रव्य है ऐसा मंडन .... ईश्वर जगत्का कर्ता है ऐसे मंतव्यका मण्डन | जगत्कर्तापनेका खण्डन | वेदवाक्योंकी प्रमाणता तथा नित्यताका खण्डन द्रव्य गुण आदिक सर्वथा भिन्न मानने में तथा समवायकी सिद्धि होनेमें दूषणका निरूपण ..... .... www. .... .... ..... **** .... सत्ता एक भिन्न पदार्थ है ऐसा मंडन... ज्ञानगुण आत्मासे सर्वथा जुदा है ऐसा मंडन ज्ञानादि विशेष गुणोंके नाश होजानेका नाम मोक्ष है ..... www. ऐसा मंडन सत्ताको भिन्न माननेका खंडन ज्ञान गुणको आत्मासे सर्वथा भिन्न माननेका खंडन तथा **** **** .... .... .... विषयसूची पत्र. विषय. १ एक वस्तुमें भी कर्ता करण आदि होनेकी संभवता २ मोक्ष अवस्था में ज्ञानादि विशेष गुणोंका नाश होना माननेका खंडन ..... ११ | आत्मा सर्वव्यापी होनेका तथा सर्वथा नित्य होनेका ३ .... ... 02. .... .... **** .... १२ www **** खंडन गौतम ( नैयायिक) के माने हुए छलजाति आदि पदार्थों का खडन २३ | वैदिकी हिंसा हिंसा नही है ऐसा माननेवाले पूर्व २६ मीमांसकों का खंडन ३२ | एक प्रकारके मीमांसक ( भाट्ट ) तथा यौगमतवालोंका जो ज्ञानको परोक्ष मानना है उसका खंडन .... ३७ | अद्वैतरूप वेदान्त मतका खंडन ४० शब्द तथा अर्थमें सामान्यविशेषपना किस प्रकारसे है। ऐसा उपपादन ..... .... ४५ १०७ सामान्य विशेषों को सर्वथा भिन्न माननेवालोंका खंडन १११ ४६ सांख्यमतका सार निरूपण.... ११८ ४७ सांख्यमतका खंडन १२१ **** .... **** .... 4.00 .... पत्र. ४९ ...w .... प्रमाणसे प्रमाणका फल सर्वथा भिन्न है तथा ज्ञान ५४ ५९ ६९ ७७ ९२ ९९ Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओं यथार्थवादिने श्रीवर्द्धमानाय नमः । रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायां श्रीमल्लिषेणसूरिप्रणीता स्याद्वादमञ्जरी श्रीजवाहरलालशास्त्रिविनिर्मितहिन्दीभाषानुवादसहिता (अनुवादकस्य मङ्गलाचरणम्।) यस्य श्रीमुखभूरुहात्समुदितां स्यादादगन्धान्वितां सज्ज्ञानाम्रफलप्रदां मुनिपिका आखाद्य वाङ्मञ्जरीम् । ऊचुर्यन्मधुरं जनास्तदखिलं श्रुत्वात्र मिथ्यादृशां ___ काकानां विरसं जहुः प्रलपनं तं सन्मतिं नौम्यहम् ॥ १॥ श्रीहेमचन्द्रयतिभिर्निजबुद्धिवीजादुत्पादिता स्तुतिलतातपवारिणी या॥ संवर्च युक्तिसलिलैर्मुनिमल्लिषेणः स्याद्वादमञ्जरियुतां किल तां चकार ॥२॥ गीर्वाणगीनयनहीनजनान्विलोक्य तल्लाभतो विरहितानतिखिन्नचित्तः॥ - Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाद्वादमं. ॥१॥ तेभ्योऽहमार्यजनवारपवनेन तस्या गन्धं ननोमि निजयुञ्चनुरूपमत्र ॥ ३ ॥ __(ग्रन्यकर्नुमङ्गलाचरणम् ) यम्य ज्ञानमनन्नवस्तुविपन व प्रगत देखने नित्यं यस्य वचो न दुर्नयन: कोलाहाललपत। रागडेपमुबानियां परिपक्षिसा अगागन मा म श्रीवीरविपिनकलपांना वितां मम॥१॥ निरमीममनिमाविनपरी निपजामियां पुण्यांचेन मरस्वतीसुरगुरू न्याम्प दपत् । यः स्थायादममापगारिजवारष्टान्नतः मोडल मे - मद्ध्यम्युनिभिप्रयोगविष श्रीहेमचन्द्रः प्रभुः ॥ २॥ ये हेमचन्द्र मुनिमंतदुक्तग्रन्धारमेवामिनः श्रपन्ले । सम्प्राप्य ते गौरवमयलानां गई कलानामुनिनं भजन्ति ॥ ३ ॥ मातारति मनिहिदि मे पेनेगमासन्नुते. निर्मातुं विनि प्रमिन्दपनि जयादारम्भमम्भावना। यठा चिम्मनमोठयोः स्फरनि पन्मारमनः शाधना मश्रः श्रीउदयमभनिरनारन्यो ममानिशम् ॥ ४ ॥ भावार्थ-अनन्तपम्नुभियान पगिनाय ताल, नियालेनिता ॥२॥ बचन सोटे नयवालों अर्थात यमनारम्विनी गोमोना मिट) नींना यानिमीन मरान (1) मुनिमायोमिंपाीिम for Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है आदिमें जिसके ऐसी वैरियोंकी मंडलीको क्षणमात्रमें परास्त की. अर्थात् जीती. वे श्रीवर्धमानस्वामी मेरी बुद्धिको निर्मल करै ॥१॥ * समस्त मध्यलोकवर्ती जीवोंके पुण्यके समूहकी प्रेरणासे अपार प्रतिभा ( नये नये चमत्कारोंको उत्पन्न करनेवाली बुद्धि ) रूप X|| प्राणोंके धारक सरखती और बृहस्पतिजीको अपने शरीरसे अभिन्नरूपमें धारण करते हुए जिन्होंने निज शरीररूप दृष्टान्तसे || स्याद्वादमतको सिद्ध किया अर्थात् जैसे मेरा शरीर परस्पर भिन्न ऐसे सरखती और बृहस्पतिको एक रूपतासे धारण करता उसी प्रकार समस्त पदार्थ परस्पर भिन्न अनेक धर्मोके धारक है; ऐसे अपने शरीरसे सूचित किया; वे श्रीहेमचन्द्रस्वामी मेरे सम्यग्ज्ञानरूपी समुद्रकी वृद्धिके अर्थ होवें ॥२॥ जो मनुष्य श्रीहेमचन्द्र मुनीन्द्रको इनके ( श्रीहेमचन्द्रजीके ) द्वारा कहे हुए शास्त्रोंके अर्थकी सेवाके बहानेसे सेवन करते है, वे जगत्में निर्मल कलाओंके गौरवको ( वड़प्पनको ) प्राप्त हो करके योग्य पदको प्राप्त होते है । भावार्थ-जो श्रीहेमचन्द्रजी सूरीश्वरकी सेवा करते है, वे महाबुद्धिमान् होकर सुगतिको प्राप्त होते है ॥ ३॥ हे सरखती माताजी ! आप मेरे हृदयमें विराजमान इजिये, जिससे सर्वज्ञकी स्तुतिपर विवृति ( व्याख्या ) रचनेके अर्थ जो प्रारंभ करनेकी संभावना है, वह शीघ्र ही सिद्ध होवै अर्थात् शीघ्र ही स्याद्वादमंजरीको रचनेका प्रारंभ कर दूं । अथवा नहीं नहीं | मैं भूल गया क्योंकि, मेरे होठोंके मध्यमें रात्रिदिन" श्रीउदयप्रभ" इन अक्षरोंकी रचनासे मनोहर गुरुका नामरूपी अनादि अनिधन सारखतमन्त्र तो फुर ही रहा है । भावार्थ-गुरुके स्मरणके प्रभावसे आप स्वयं मेरे हृदयमें विराजमान हो जायगे । अतः आपसे प्रार्थना करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है ॥ ४ ॥ (अवतरणिका) इह हि विषमदुःषमाररजनितिरस्कारभास्करानुकारिणा वसुधातलावतीर्णसुधासारिणीदेश्यदेशनावितानपरमाईतीकृतश्रीकुमारपालक्ष्मापालप्रवर्त्तिताभयदानाभिधानजीवातुसंजीवितनानाजीवप्रदत्ताशीर्वादमाहात्म्यकल्पाsवधिस्थायिविशदयशःशरीरेण निरवद्यचातुर्विद्यनिर्माणैकब्रह्मणा श्रीहेमचन्द्रसूरिणा जगत्प्रसिद्धश्रीसिद्धसेनदिवा(१)ख-पुस्तके 'स्थिरीकृत' इति पाठः । २ लक्षणागमसाहित्यतर्काश्चातुर्विद्यम् । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद्वादमं. ॥२॥ करविरचितद्वात्रिंशद्वात्रिंशिकानुसारि श्रीवर्द्धमान जिन स्तुतिरूपमयोगव्यवच्छेदाऽन्ययोगव्यवच्छेदाऽभिधानं द्वात्रिंशिकाद्वितयं विद्वज्जनमनस्तत्त्वाऽवबोधनिबन्धनं विदधे । तत्र च प्रथमद्वात्रिंशिकायाः सुखोन्नेयत्वाद्व्याख्यानमुपेक्ष्य द्वितीयस्यास्तस्या निःशेषदुर्वादिपरिषदधिक्षेपदक्षायाः कतिपयपदार्थविवरणकरणेन स्वस्मृतिबीजप्रबोधविधिर्विधीयते । तस्याश्चेदमादिकाव्यम् ॥ अवतरणिका । इस लोकमें भयंकर पचमकालरूपी रात्रिको दूर करनेके लिये सूर्य समान तथा स्वर्गसे पृथ्वीतलमें उतर कर आई हुई जो अमृतकी नहर उस जैसा जो उपदेशोंका समूह उसके द्वारा परम जैनी किया हुआ जो श्रीकुमारपाल महाराज उसकरके प्रवर्त्ताया हुआ जो अभयदान नामक जीवनौषधि उससे जीवनको प्राप्त हुए जो बहुतसे जीव उन करके दिये हुए जो आशीर्वाद उनके प्रभावसे कल्पकालपर्यन्त रहने वाला है निर्मल यशरूपी शरीर जिनका ऐसे, और दोषरहित जो व्याकरण, आगम, साहित्य और तर्क ( न्याय ) नामक चार विद्या है, उनको रचनेके लिये ब्रह्माके समान ऐसे, श्रीहेमचन्द्रजी सूरीनें जगत्प्रसिद्ध श्रीसिद्धसेनजी दिवाकरकी बनाई हुई ' द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ' का अनुसरण करके श्रीवर्द्धमान जिनेन्द्रकी स्तुतिरूप और ज्ञानी जनोंके मनमें तत्त्वज्ञान उत्पन्न करनेको कारणभूत ऐसे अयोगव्यवच्छेद तथा अन्ययोगव्यवच्छेद नाम द्वात्रिंशिकायुगलको किया । भावार्थ - 'श्री जिनेन्द्र यथार्थवादी ही है' इस प्रकार जहांपर विशेषणके साथ एव ( ही ) पद लगाया जावे वह तो अयोगव्यवच्छेद है, और ' श्रीजिनेन्द्र ही यथार्थवादी है' इस प्रकारसे जहां विशेष्यके साथ ' एव ' लगाया जावे वह अन्ययोगव्यवच्छेद है । उनमें पहली जो अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका है वह सुखसे समझमें आनेवाली है, इसलिये उसके व्याख्यानको उपेक्षित करके अर्थात् न करके, समस्त एकान्तवादियोंकी सभाका खंडन करनेमें समर्थ जो दूसरी अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका है, उसके कितने ही पदार्थोंका विस्तारसे वर्णन करके मै ( मल्लिषेण ) मेरा जो स्मृति (धारणा) रूप चीज है उसके उदयका विधान करता हूं । और उस अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तोत्रका प्रथम काव्य यह है— १ विशेषणसङ्गतैवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधक' यथा— शङ्ग पाण्डुर एवेति । अयोगव्यवच्छेदस्य लक्षण चोद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्र तियोगित्वम् । २ विशेष्य सङ्गतैवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधक. यथा पार्थ एव धनुर्धर । अन्ययोगव्यवच्छेदो नाम विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेदः । रा. जै.शा. ॥ २ ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्यसिद्धान्तममर्त्यपूज्यम् । श्रीवर्धमानं जिनमाप्तमुख्यं स्वयम्भुवं स्तोतुमहं यतिष्ये ॥ १॥ काव्यार्थः-अनन्तज्ञानके धारक, दोषोंसे रहित, बाधारहित सिद्धान्तवाले, देवोंकरके पूज्य, यथार्थवक्ता ओंमें प्रधान और स्वयमेव ज्ञानको प्राप्त हुए ऐसे श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्रकी स्तुति करनेके लिये मैं प्रयत्न करूंगा ॥१॥ व्याख्या। श्रीवर्द्धमानं जिनमहं स्तोतुं यतिष्य इति क्रियासंवन्धः। किविशिष्टमनन्तमप्रतिपाति वि-विशिष्टं सर्वद्रव्यपर्यायविषयत्वेनोत्कृष्टं ज्ञानं केवलाख्यं विज्ञानं ततोऽनन्तं विज्ञानं यस्य सोऽनन्तविज्ञानस्तम् । तथा अतीता निःसत्ताकीभूतत्वेनाऽतिक्रान्ता दोषा रागादयो यस्मात्स तथा तम् । तथा अबाध्यः परैर्बाधितुमशक्यः सिद्धान्तः स्याद्वादश्रुतलक्षणो यस्य स तथा तम् । अमर्त्या देवास्तेषामपि पूज्यमाराध्यम् ॥ __व्याख्यार्थः- मै ( हेमचन्द्र सूरी ) श्रीवर्धमानजिनेन्द्रको स्तुतिगोचर करनेके लिये प्रयत्न करूंगा' इस प्रकार क्रियाका || || सम्बन्ध अर्थात् अन्वय है। कैसे विशेषणोंके धारक श्रीवर्धमानजिनको स्तुतिगोचर करनेके लिये यत्न करूंगा 2 अनन्त अन्तरहित अर्थात् || पतन(नाश) स्वभावसे रहित और विशिष्ट अर्थात् जीव अजीव आदि समस्त द्रव्य और उनके खभाव विभाव रूप भूत, भविष्यत् तथा IN| वर्तमान कालसंबन्धी जो अनन्त पर्याय है उनको विषयकरनेसे ( जाननेसे ) उत्कृष्ट ऐसा ज्ञान अर्थात् केवलनामक ज्ञान है| |जिनके उनको तथा अतीत अर्थात् जिनकी फिर कभी उत्पत्ति न हो ऐसे रूपसे दूर होगये हैं राग, द्वेष आदि अठारह दोष जिनसे || उनको और अबाध्य अर्थात् अन्य एकान्तवादियोंसे नहीं बाधा जा सकता है स्याद्वादशास्त्ररूप सिद्धान्त जिनका उनको तथा अमर्त्य | जो देव उनके भी पूज्य अर्थात् आराधने योग्य है उनको । भावार्थ-मै ( हेमचन्द्रसूरी ) केवलज्ञानके धारक, दोषोंसे रहित, बाधारहितशास्त्रवाले और देवोंसे पूज्य ऐसे श्रीमहावीरस्वामीको स्तुतिमें लानेके लिये उद्यम करूंगा ॥ | अत्र च श्रीवर्द्धमानस्वामिनो विशेषणद्वारेण चत्वारो मूलातिशयाः प्रतिपादिताः। तनाऽनन्तविज्ञानमित्यनेन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यादाट राजै.शा. ॥३॥ भगवतः केवलज्ञानलक्षणविशिष्टज्ञानाऽनन्त्यप्रतिपादनाजज्ञानाऽतिशयः । अतीतदोपमित्यनेनाऽष्टादशदोषV संक्षयाऽभिधानादपायापगमाऽतिशयः । अवाध्यसिद्धान्तमित्यनेन कुतीर्थिकोपन्यस्तकुहेतुसमूहाऽशक्यबाधस्या द्वादरूपसिद्धान्तप्रणयनभणनाद्वचनाऽतिशयः । अमर्त्यपूज्यमित्यनेनाऽकृत्रिमभक्तिभरनिर्भरसुराऽसुरनिकायनायकनिर्मितमहापातिहार्यसपर्यापरिज्ञापनात्पूजाऽतिशयः॥ इस श्लोकके पूर्वार्धमें आचार्यने विशेषणों द्वारा श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्रके चार मूल अतिशयोंका कथन किया है। उनमें 'अनन्त विज्ञान' यह जो विशेषण है इससे भगवान्के केवलज्ञानरूप लक्षणके धारक ज्ञानकी अनन्तता कही गई है, इस कारण पहिला ज्ञानातिशय कहा गया । और 'अतीतदोप' इस विशेषणसे अठारह दोपोंका नाश कहे जानेसे भगवान्के दूसरा अपायापगम नामक अतिशय कहा गया ॥१॥ तथा 'अबाध्यसिद्धान्त ' इस विशेषण द्वारा अन्य कुमतावलम्बियोंकरके दिये हुए ॐ जो बुरे हेतु उनके समूहसे वाधाको प्राप्त नहीं हो सकनेवाले स्याद्वादस्वरूप आगमको भगवानने रचा है इस प्रकारके अर्थको M कहनेसे तीसरा वचनातिशय सूचित किया ॥ ३॥ एवं 'अमर्त्यपूज्य ' इस विशेषणसे सच्ची भक्तिके भारसे निर्भर अर्थात् । * अन्तरगसे उत्पन्न हुई जो भक्ति है उसके बोझेसे दबे हुए (नीचे हुए ऐसे जो देव तथा असुरोंके समूह उनके जो सामी (इन्द्र) उन करके की हुई जो महाप्रातिहार्य पूजा उसको जनानेसे चोथे पूजातिशयको कहा ॥ ४ ॥ ___अत्राह परः। अनन्तविज्ञानमित्येतावदेवास्तु नाऽतीतदोषमिति गतार्थत्वात् । दोषाऽत्ययं विनाऽनन्तविज्ञानत्वस्यानुपपत्तेः। अत्रोच्यते-कुनयमताऽनुसारिपरिकल्पिताप्तव्यवच्छेदार्थमिदम् । तथा चाहुराजीविकनयानुसारिणः-"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः।" इति। तन्नूनं न ते अतीतदोपाः । कथमन्यथा तेषां तीर्थनिकारदर्शनेऽपि भवावतारः॥ ॥३॥ १ अन्तरायदानलाभवीर्यभोगोपभोगगा.। हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥१॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञान निद्रा चाविरतिस्तथा । y रागो द्वेषश्च नो दोषानेपामष्टादशाध्यमी॥२॥ इत्यष्टादश दोषा.। २आजीविको बौद्धः। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब यहांपर वादी शंका करता है कि, श्रीवर्द्धमानखामीके 'अनन्तविज्ञान' इतना ही विशेषण रहना चाहिये और 6 अतीतदोप' यह विशेषण न रहना चाहिये । क्योंकि, अठारह दोषोंको नाश हुए विना अनन्तविज्ञानत्वकी प्राप्ति ही नहीं होती; इसकारण 'अनन्तविज्ञान' इसके कहनेसे ही दोषरहितरूप अर्थका ग्रहण हो जाता है । इसका आचार्य 'समाधान करते है कि, हमने जो 'अतीतदोष' यह विशेषण दिया है सो व्यर्थ नहीं है; किन्तु खोटे नयवाले मतके धारक जीवोंने जिस आप्त ( यथार्थवक्ता ) को मान रक्खा है, उसको जुदा करनेके लिये है। क्योंकि आजीविक (बौद्धविशेष ) मतके धारक जीव इसी प्रकार कहते है कि “ धर्मतीर्थके करनेवाले ज्ञानी जीव संसारमें आकर धर्मतीर्थका प्रचार करके मोक्षमें चले जाते है। और जब संसारमें धर्मतीर्थका अनादर होता है, तब फिर मोक्षसे संसारमें आ जाते है। १।" इस प्रकार आजीविक मतवालोंके माने हुए आप्त निश्चयसे दोषरहित नहीं है। क्योंकि यदि वे दोषरहित होवें, तो तीर्थका अनादर देख करके भी मोक्षसे संसारमें कैसे आवै अर्थात् वे मोक्षमें जाकर फिर संसारमें आते है; इसलिये दोषसहित है। | आह । यद्येवमतीतदोषमित्येवाऽस्तु । अनन्तविज्ञानमित्यतिरिच्यते दोषाऽत्ययेऽवश्यंभावित्वादनन्तविज्ञान त्वस्य । न । कैश्चिद्दोषाऽभावेऽपि तदनभ्युपगमात् । तथा च तद्वचनम्- “सर्व पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु IN पश्यतु ॥ कीटसङ्ख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ।१।” तथा- "तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । प्रमाण । दूरदर्शी चेदेते गृध्रानुपास्महे ।१।” तन्मतव्यपोहार्थमनन्तविज्ञानमित्यदुष्टमेव।विज्ञानानन्त्यं विना एकस्याऽप्यर्थस्य यथावत्परिज्ञानाऽभावात् । तथाचार्ष- “जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।। तथा "एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः॥१२॥ फिर वादी शंका करता है कि, यदि आपने आजीवकमतवालोंके आप्तोंको दूर करनेके लिये अतीतदोष यह विशेषण दिया || है तो अतीतदोष यह विशेषण रहो परन्तु अब 'अनंतविज्ञान' यह जो विशेषण है सो अधिक होता है अर्थात् पू क-पुस्तके "सर्वं पश्यतु मा वा मा इष्टमर्थ तु पश्यतु।" इति पाठः । २ भवदभिमतस्य जिनस्य। ३ अनुष्टानं नाम कालान्तरभावीष्टोपायताज्ञा नपूर्वक करणं । ४ य एकं जानाति स सर्व जानाति । य सर्व जानाति स एकं जानाति । इतिच्छाया। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याद्वादमं. ॥४॥ व्यर्थ है । क्योंकि जब भगवान् दोषरहित हो गये, तो उनके ' अनंतविज्ञान ' अवश्य ( जुरूर ) ही होगा, फिर जुदा विशेषण क्यों देते हो । समाधान - कितनोंहीने दोपोंका अभाव होने पर भी अनन्त विज्ञान नही माना है, इसलिये तुम्हारी शंका ठीक नही । सोही वे लोग कहते है कि " हमारा ईश्वर सब पदार्थो को देखे अथवा न देखै, केवल वाछित तत्त्वोंको ही जानै । क्योंकि यदि आपके जिनेश्वर कीड़ोंकी संख्या जानते है तो उनका यह कीड़ोंकी सख्या जाननेरूप ज्ञान हमारे किस प्रयोजनमें आता है । १ । "तथा वे ही फिर कहते है कि “ इसलिये हमारे ईश्वरके अनुष्ठानमें प्राप्त हुआ ज्ञान ही विचारना चाहिये । और यदि जिसका ज्ञान उपयोगमें न आवै, ऐसे दूरदर्शीको ही आप प्रमाण मानते हो, तो लो हम गीध पक्षियोंकी सेवा करते है। क्योंकि वे भी दूरके पदार्थको देखने वाले है । तात्पर्य यह कि - अनुपयोगी पदार्थोंको जानने वाले आपके जिनेन्द्रसे हमको कोई भी प्रयोजन नही है || २ ||" इस पूर्वोक्त प्रकारसे जो कोई ईश्वरको असर्वज्ञ मानते है, उनके मतको दूर करनेके लिये जो हमने ' अनन्तविज्ञान ' यह विशेषण दिया, सो दोषरहित ही है अर्थात् व्यर्थ नहीं है । क्योकि अनन्तविज्ञानके विना एक भी पदार्थ यथार्थ रीतिसे नहीं जाना जाता है । और इस कथनमें प्रमाणभूत ऋपियोंका वचन भी है कि " जो एकको जानता है, वह सबको जानता है, जो सबको जानता है वह एकको जानता है " तथा " जिसने एक पदार्थको परिपूर्ण रीतिसे देखा, उसने सब पदार्थ पूर्ण रूपसे देखे । और जिसने सब पदार्थ सर्वथा देखे, उसने एक पदार्थ सर्वथा देखा अर्थात् जाना ॥ १ ॥ " ननु तर्हि अबाध्यसिद्धान्तमित्यपार्थकं यथोक्तगुणयुक्तस्याऽव्यभिचारिवचनत्वेन तदुक्तसिद्धान्तस्य बाधाsयोगात् । न । अभिप्रायाऽपरिज्ञानात् । निर्दोषपुरुषप्रणीत एव अवाध्यः सिद्धान्तो नापरेऽपौरुपेयाद्या असम्भवदिदोषाघातत्वात् इति ज्ञापनार्थं, आत्ममात्रतारकमूकाऽन्तकृत्केवल्यादिरूपमुण्डे केवलिनो यथोक्तसिद्धान्तप्रणयनाऽसमर्थस्य व्यवच्छेदार्थ वा विशेषणमेतत् ॥ शंका – यदि ऐसा है तो ' अबाध्यसिद्धान्तवाले ' यह जो भगवान् के विशेषण लगाया गया है सो निरर्थक है । क्योंकि, पूर्वोक्त जो अनतविज्ञानता तथा दोपरहितता रूप दो गुण है, उन करके सहित जो कोई है उनके वचन व्यभिचारी नही १ निरर्थक | २ ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गों वर्णात्मको वेद इति स्फुट च । पुंसश्व ताल्वादि ततः कथं स्यादपौरुपेयोऽयमिति प्रतीतिः । ३ बाह्यातिशयरहित । रा. जै.शा. 118 11 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V होते अर्थात् किसी भी अशमें असत्य नहीं होते है। इस कारण उन करके कहा हुआ जो सिद्धान्त है, उसका खंडन ही नहीं | हो सकता है समाधान-तुमने हमारा अभिप्राय नहीं जाना, इसलिये यह जो तुम शंका करते हो सो ठीक नहीं है। IY क्योंकि हमने जो यह विशेषण दिया है, सो निर्दोष पुरुष करके कहा हुआ सिद्धान्त ही बाधारहित सिद्धान्त है और असंभव आदि दोषोंसहित होनेसे अन्य जो अपौरुषेय आदि सिद्धान्त है, वे बाधारहित नहीं है। इस बातको विदित करनेके लिये लगाया है। भावार्थ-कितने ही ऐसा मानते हैं कि, वेद आदि अपौरुषेय है अर्थात् किसी पुरुषके बनाये हुए नहीं है। परन्तु उनका यह मानना ठीक नहीं है । क्योंकि वेद अक्षररूप है । और वे अक्षर तालु आदि स्थानोंसे उत्पन्न होते है । तथा वे तालु आदि स्थान मनुप्यके होते है । इसलिये पुरुषके रचे विना वेद आदि अक्षररूप नहीं हो सकते है, यही असंभव नामा दूषण है। इसको आदि ले और भी अनेक दोष शास्त्रोंको अपौरुषेय माननेमें होते है। इस कारण निर्दोष पुरुषसे कहा हुआ शास्त्र ही वाधारहित है, | पुरुष करके नहीं बनाये हुए शास्त्र बाधारहित नहीं है'। इस विषयको सूचित करनेके लिये 'अबाध्यसिद्धान्त' विशेषण है। अथवा एक प्रकारके मूक अन्तकृत्केवली आदि रूप मुंड अर्थात् बाह्यके अतिशयोंसे रहित केवली होते है, जो अनन्तविज्ञानके धारक भी | है और दोषरहित भी है । परन्तु वे केवल अपनी आत्माका ही उद्धार करते है, दूसरेको उपदेश देनेमें मूक ( गूगे ) रहते है। इसलिये वे भी पूर्वोक्त सिद्धान्तको रचनेमें असमर्थ है। इस कारण उनको श्रीजिनेन्द्रसे भिन्न करनेके लिये ' अबाध्यसिद्धान्त यह विशेषण दिया गया है ॥ - ___ अन्यस्त्वाह । अमर्त्यपूज्यमिति न वाच्यम् । यावता यथोद्दिष्टगुणगरिष्ठस्य त्रिभुवनविभोरमर्त्यपूज्यत्वं न कथंचन व्यभिचरतीति । सत्यम् । लौकिकानां हि अमां एव पूज्यतया प्रसिद्धास्तेषामपि भगवानेव पूज्य इति विशेषणेनाऽनेन ज्ञापयन्नाचार्यः परमेश्वरस्य देवाधिदेवत्वमावेदयति ॥ एवं पूर्वार्द्ध चत्वारोऽतिशया उक्ताः। ___ अब दूसरा बादी शंका करता है कि-'अमर्त्यपूज्य ' यह विशेषण भगवानके नहीं देना चाहिये। क्योंकि, संपूर्णरूपसे पहिले कहे हुए अनंतविज्ञान आदि गुणोंसे गरिष्ठ ( बहुत बड़े ) जो तीन लोकके खामी श्रीजिनेन्द्र है, उनके देवोंसे पूज्यता किसी प्रकारसे भी व्यभिचारको प्राप्त नहीं होती है अर्थात् वे नियमसे देवोंकरके पूजे जाते है। समाधान-एक प्रकारसे तुम्हारा कहना सत्य १ सामस्येन। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥५॥ है । परंतु जो लौकिक जन है वे देवोंको ही मुख्यतासे पूज्य मानते है । उन देवोंके भी भगवान ही पूज्य है, ऐसे आशयको इस रा. जै. शा. विशेषणसे जनाते हुए आचार्य भगवानके देवाधिदेवपना सूचित करते है । इस प्रकार पूर्वार्धमें चार अतिशयोंका कथन किया गया है । अनन्तविज्ञानत्वं च सामान्य केवलिनामप्यवश्यंभावीत्यतस्तद्व्यवच्छेदाय श्रीवर्द्धमानमितिविशेष्यपदमपि विशेषणरूपतया व्याख्यायते । श्रिया चतुस्त्रिंशदतिशय समृद्ध्यनुभवात्मकभावात्यरूपया वर्द्धमानं वर्द्धिष्णुम् । नन्वतिशयानां परिमिततयैव सिद्धान्ते प्रसिद्धत्वात्कथं वर्द्धमानतोपपत्तिः । इतिचेन्न । यथा - निशीथ चूर्णो भगवतां श्रीमदर्हतामष्टोत्तरसहस्रसङ्घयबाह्यलक्षणसङ्ख्याया उपलक्षणत्वेनाऽन्तरङ्गलक्षणानां सत्त्वादीनामानन्त्यमुक्तमेवमतिशयानामधिकृतपरिगणनायोगेऽप्यपरिमितत्वमविरुद्धम् । ततो नाऽतिशयश्रिया वर्द्धमानत्वं दोषाश्रय इति । अब अनंतविज्ञानत्व जो है वह तो सामान्यकेवलियों के भी नियमसे होता है । इसकारण उन सामान्यकेवलियोंको श्रीवर्धमानस्या मीसे जुदे करनेके लिये 'श्रीवर्धमान' यह जो विशेष्यपद है, उसका भी विशेषणरूपतासे व्याख्यान करते है अर्थात् 'श्रीवर्धमान ' इस विशेष्यको विशेषण मानकर कहते है । चौतीस ३४ अतिशयोंकी वृद्धि अनुभवलक्षण भावअर्हतपनेरूप जो लक्ष्मी है, उसकरके वर्द्धमान अर्थात् बढ़ते हुए है उनको । शंका- शास्त्रमें अतिशय परिमितरूपसे ही प्रसिद्ध है अर्थात् चौतीस सख्याके धारक ही है । | इसलिये ' अतिशयोंसे बढते हुए ' यह कहना किसप्रकार बन सकता है । समाधान - यह तुम्हारी शंका ठीक नहीं है । क्योंकि, | जैसे 'निशीथचूणी' नामक ग्रथमें श्रीअर्हन्त भगवान्के एकहजार आठ संख्या परिमाण जो बाह्य लक्षण है, उनकी संख्याको उपलक्षणरूप मानकर सत्त्व आदि अन्तरग लक्षणोंको अनन्त कहे है, इसीप्रकार यद्यपि उपलक्षणसे शास्त्रमें चौतीस अतिशय ही प्रसिद्ध है, | तथापि उनको यदि संख्यारहित माने जावै तो शास्त्रसे कोई भी विरोध नही है । इसकारण ' अतिशय लक्ष्मीसे बढ़ते हुए' ऐसा विशेषण जो हमने कहा है, सो दोषका आधार नही है अर्थात् इसमें कोई भी दोष नही है ॥ अतीतदोषता चोपशान्तमोहगुणस्थानवर्तिनामपि सम्भवतीत्यतः क्षीणमोहाख्याप्रतिपातिगुणस्थानप्राप्तिप्रतिपत्त्यर्थ जिनमितिविशेषणम् । रागादिजेतृत्त्वाज्जिनः । समूलकापङ्कषितरागादिदोष इति । अवाध्यसिद्धान्तता १ ख पुस्तके सम्भविनीत्यत । इति पाठ । ॥ ५॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च श्रुतकेवल्यादिष्वपि दृश्यतेऽतस्तदपोहायाप्त मुख्यमिति विशेषणम् । आप्तिर्हि रागद्वेपमोहानामैकान्तिक | आत्यन्तिकश्च क्षयः । सा येषामस्ति ते खल्वाप्ताः । अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच् प्रत्ययः । तेषु मध्ये मुखमिव सर्वाङ्गानां प्रधानत्वेन मुख्यम् । शाखादेर्य इति तुल्ये यः । अमर्त्यपूज्यता च तथाविधगुरूपदेशपरिचर्या| पर्याप्तविद्याचरणसंपन्नानां सामान्यमुनीनामपि न दुर्घटा । अतस्तन्निराकरणाय स्वयम्भुवमितिविशेषणम् । स्वयमात्मनैव परोपदेशनिरपेक्षतयाऽवगततत्त्वो भवतीति स्वयम्भूः स्वयं संबुद्धः । तमेवंविधं चरमजिनेन्द्रं स्तोतुं स्तुतिविषयी कर्त्तुमहं यतिष्ये यत्नं करिष्यामि । और दोषरहितपना तो उपशान्तमोहनामक ग्यारहवें गुणस्थानमें रहनेवाले जो मुनि है, उनके भी हो सकता है। इसलिये पतन| रहित क्षीणमोहनामक बारहवें गुणस्थानको श्रीजिनेन्द्र प्राप्त हो चुके, यह जनानेके लिये 'जिन' यह विशेषण दिया है। क्योंकि, राग आदि दोषोंको जो जीतनेवाले है अर्थात् जिन्होंने जड़मूलसे राग आदि दोषोंको उखाड़ डाले है वे ही ' जिन ' कहलाते है । | तथा बाधारहित सिद्धान्तका धारकपना तो श्रुतकेवली आदिमें भी देखा जाता है । इसकारण उन श्रुतकेवली आदिको जुदे करनेके लिये ' आप्तमुख्य' यह विशेषण कहा गया है । राग, द्वेष और मोह इनका जो एकान्तिक (सर्वथा) तथा आत्यन्तिक अर्थात् फिर उत्पन्न न हो, ऐसे रूपसे नाश है, उसको आप्ति कहते है, वह आप्ति जिनके होवे वे आप्त हैं। उन आप्तोंमें जैसे शरीरके सब अंगों में मुख प्रधान है, उसीप्रकार जो मुख्य (प्रधान) होवें, उनको 'आप्तमुख्य' कहते है । [ मुख्य यहांपर मुखशब्दके आगे 'शाखादेर्यः' इस सूत्र से तुल्य (समान) अर्थमें य हुआ है । ] और देवोंसे पूज्यपना, उसप्रकारके अर्थात् भगवान् जैसे जो गुरु है, उनके उपदेश और सेवासे प्राप्त हुआ जो ज्ञान और चारित्र है, उस करके परिपूर्ण ऐसे सामान्य ( साधारण ) मुनियोंके भी दुर्लभ नहीं है । भावार्थ - ज्ञान और चारित्रसे युक्त साधारणमुनि भी देवोंसे पूजे जाते है । इस कारण उन सामान्य मुनियोंको दूर करनेके लिये 'स्वयंभू' 'यह विशेषण लगाया गया है। स्वयं अर्थात् परके उपदेशकी अपेक्षा ( जरूरत ) न रखकर अपने आप ही जो तत्त्वों को जाननेवाले हों वे स्वयंभू अर्थात् अपने आप ज्ञानको प्राप्त हुए कहलाते है, । इस प्रकार पूर्वोक्त विशेषणोंसहित जो अंतिमतीर्थकर महावीरखामी है, उनको ' स्तोतुं ' स्तुतिके गोचर करनेके लिये ' अहं ' मैं ( हेमचन्द्र ) ' यतिष्ये ' उद्यम करूंगा ॥ १ निःशेषीकृतेऽपि पुनरुद्भवमाशंक्य आत्यंतिकः अभूयः संभवदोषविनाश । २ ख पुस्तके - अभ्रादित्वान्मत्वर्थीयोऽप्रत्यय. । इति पाठः । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम अत्र चाचार्यो भविष्यत्कालप्रयोगेण योगिनामप्यशक्यानुष्ठानं भगवद्गुणस्तवनं मन्यमानः श्रद्धामेव स्तुतिकर- राजै.शा. णेऽसाधारणं कारणं ज्ञापयन् यत्नकरणमेव मदधीनं न पुनर्यथावस्थितभगवद्गुणस्तवनसिद्धिरिति सूचितवान् । अहमिति च गतार्थत्वेऽपि परोपदेशान्यानुवृत्त्यादिनिरपेक्षतया निजश्रद्धयैव स्तुतिप्रारम्भ इति ज्ञापनार्थम् ।। ___ 'यतिष्ये' अर्थात् यत्न करूंगा। यहांपर जो आचार्यने भविप्यत्कालका प्रयोग किया है, इससे भगवान्के गुणोंकी स्तुति योगियोंसे अर्थात् दिव्यज्ञानके धारक मुनियोंसे भी नही हो सकती है। इसप्रकार मानते हुए और स्तुतिके करनेमे भक्ति ही एक असाधारण कारण है, ऐसा दूसरोंको जनाते हुए आचार्यने ' भगवान्के गुणोंकी स्तुति करनेमें प्रयत्नका करना ही मेरे आधीन है और भगवान्में जैसे गुण विद्यमान है, वैसे गुणोंके स्तवनकी सिद्धि मेरे आधीन नहीं है। ऐसा आशय सूचित किया है। और ' यतिष्ये' यहापर जो उत्तम पुरुषका एक वचन दिया गया है, इससे यद्यपि 'अहं' यह कर्त्ताको बोधन करनेवाला शब्द स्वयं ही आसकता था, तथापि परके उपदेशकी और अन्य (दूसरे) की अनुवृत्ति आदिकी अपेक्षा न करके मै मेरी भक्तिके वशसे ही स्तुतिका प्रारभ करता हूं, यह समझानेके लिये ' अह ' यह पद दिया गया है । Nil अथवा-श्रीवर्द्धमानादिविशेषणचतुष्टयमनन्तविज्ञानादिपदचतुष्टयेन सह हेतुहेतुमद्भावेन व्याख्यायते । यत । एव श्रीवर्द्धमानमतएवाऽनन्तविज्ञानम् । श्रिया कृत्स्नकर्मक्षयाविर्भूताऽनन्तचतुष्कसंपद्रूपया वर्द्धमानम् । यद्यपि । वर्द्धमानस्य परमेश्वरस्यानन्तचतुष्कसंपत्तेरुत्पत्त्यनन्तरं सर्वकालं तुल्यत्वाच्चयापचयौ न स्तस्तथापि निरपचयत्वेन शाश्वतिकावस्थानयोगाद्वर्द्धमानत्वमुपचर्यते । यद्यपि च श्रीवर्द्धमानविशेषणेनानन्तचतुष्कान्त वित्वेनान न्तविज्ञानत्वमपि सिद्धम् । तथाप्यनन्तविज्ञानस्यैव परोपकारसाधकतमत्वाद्भगवत्प्रवृत्तेश्च परोपकारैकनिबन्धनत्वाIN||दनन्तविज्ञानत्वं शेषानन्तत्रयात्पृथग निर्धार्याचार्येणोक्तम् । ___ अथवा ' श्रीवर्द्धमानं ' इत्यादि जो श्लोकके उत्तरार्धमें चार विशेषण है, उनका 'अनन्तविज्ञानं' इत्यादि पूर्वार्धके चार पदोंके साथ हेतुहेतुमद्भावसे अर्थात् ' श्रीवर्धमान' यह तो हेतु ( कारण ) है और 'अनन्तविज्ञान' यह हेतुमत् ( कार्य ) है । इस IN रूपसे व्याख्यान करते है । भगवान् श्रीवर्द्धमान है अर्थात् सपूर्ण कर्मोके नागसे प्रकट हुई जो अनन्तचतुष्टयसंपदारूप लक्ष्मी है, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उससे वढते हुए है। इसी कारण वे अनन्तविज्ञानके धारक है । यद्यपि श्रीमहावीरजिनेन्द्रके जबसे अनतचतुष्टय संपदा उत्पन्न | हुई है, तभीसे वह अनन्तचतुष्टयसपदा सदा एकसी रहती है, इसलिये उसमें घटना और बढ़ना नहीं है । तथापि वह संपदा घटती नहीं है अर्थात् सदा समान रहती है। इस कारण उसमें वर्द्धमानताका अर्थात् वढनेपनेका उपचार (लक्षणा) किया जाता है। और यद्यपि 'श्रीवर्द्धमान' इस विशेषणके देनेसे अनंतविज्ञानपना भी भगवान्में सिद्ध हो गया। क्योंकि, यह अनन्तविज्ञान अनन्त | चतुष्टयमें अन्तर्गत (गिना जाता) है। तो भी अनन्तविज्ञान ही अन्य जीवोंका उपकार करनेमें समर्थ (असाधारण) कारण है और भगवान्की जो प्रवृत्ति अर्थात् उपदेश आदिका देना है ,उसमें परोपकार ही एक कारण है । इसलिये बाकीके तीन जो अनन्तदर्शन | आदि है, उनसे अनन्तविज्ञानको जुदा निश्चय करके आचार्यने यहांपर कहा है ।। । ननु यथा जगन्नाथस्यानन्तविज्ञानं परार्थ तथाऽनन्तदर्शनस्यापि केवलदर्शनापरपर्यायस्य पारार्थ्यमव्याहतमेव।। केवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यामेव हि स्वामी क्रमप्रवृत्तिभ्यामुपलब्धं सामान्यविशेषात्मकं पदार्थसाथै परेभ्यः प्ररूपयति । तत्किमर्थं तन्नोपात्तम् । इति चेदुच्यते । विज्ञानशब्देन तस्यापि संग्रहाददोषः, ज्ञानमात्रीया उभयत्राऽपि समानत्वात् । य एव हि अभ्यन्तरीकृतसमताधर्मा विषमताधर्मविशिष्टा ज्ञानेन गम्यन्तेऽर्थास्त एव ह्यभ्यन्तरी कृतविषमताधर्माः समताधर्मविशिष्टा दर्शनेन गम्यन्ते । जीवस्वाभाव्यात्। सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृतविशेषमलार्थग्रहणं दर्शनमुच्यते । तथा प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति । || शंका-जैसे भगवान्के अनतविज्ञान परके उपकारके लिये है, उसी प्रकार केवलदर्शन है दूसरा नाम जिसका, ऐसा जो अनन्त दर्शन है, वह भी बिना किसी वाधाके परोपकारके निमित्त ही है। क्योंकि भगवान् क्रमानुसार प्रवृत्त हुए जो केवलदर्शन और केवलINI ज्ञान है, उनसे जाना हुआ जो पदार्थोंका समूह है, उसीका अन्य जीवोंको उपदेश देते है। इसलिये यदि केवलज्ञानको भिन्न ग्रहण किया है, | तो अनन्तदर्शनको भी भिन्न क्यों नहीं ग्रहण किया ? अब इसका समाधान कहते है कि, 'अनंतविज्ञान' यहांपर जो विज्ञान शब्द है, उससे ज्ञानका तो ग्रहण है ही है। परंतु उस दर्शनका भी ग्रहण किया गया है । इसलिये जो तुम दोष देते हो सो ठीक नहीं है । १ इयत्तायाः । २ गौणीकृत । ३ सामान्याख्यधर्माः । ४ विशेषधर्मयुक्ताः । ५ गौणीकृत। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. याद्वादम. ॥७॥ क्योंकि, ज्ञानकी मात्रा जो है वह केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दोनोंमें समान है । कारण कि-सामान्य धर्मोंको गौण करके विशेष धर्मोसहित जो पदार्थ ज्ञानसे जाने जाते है, विशेष धर्मोकी गौणतापूर्वक सामान्य धर्मोंसहित हुए वे ही पदार्थ दर्शनसे जाने | जाते है क्योंकि, ये जीवके खभाव है। भावार्थ-विशेषको किया है गौण जिसमें और सामान्य है प्रधान जिसम, ऐसा जो पदार्थका ग्रहण है, सो दर्शन कहलाता है। तथा जिसमें सामान्य गौण और विशेष मुख्य है, ऐसा जो पदार्थका ग्रहण करना है, | उसको ज्ञान कहते हैं । तथा यत एव जिनमत एवातीतदोषम् । रागादिजेतृत्वाद्धि जिनः। नचाजिनस्यातीतदोषता। तथा यत N एवाप्तमुख्यमत एवाबाध्यसिद्धान्तम् । आप्तो हि प्रत्ययित उच्यते । तत आप्तेषु मुख्यं श्रेष्ठम् । आप्तमुख्यत्वं च प्रभोरविसंवादिवचनतया विश्वविश्वासभूमित्वात् । अत एवाबाध्यसिद्धान्तम् । न हि यथावजज्ञानावलोकितवस्तुवादी सिद्धान्तः कुनयैर्वाधितुं शक्यते । यत एव स्वयम्भुवमत एवामर्त्यपूज्यम् । पूज्यते हि देवदेवो जगत्रयविलक्षणलक्षणेन स्वयंसम्वुद्धत्वगुणेन सौधर्मेन्द्रादिभिरमत्यैरिति । ___तथा वे भगवान् जिन है, इसीकारण दोपरहित है। जो रागादिकको जीतनेवाले है, उनको जिन कहते है। जो जिन नहीं है, वे दोषरहित भी नहीं है । और वे श्रीमहावीरखामी आप्तोंमें मुख्य हैं, इसीकारण बाधारहित सिद्धान्तवाले है। क्योंकि जो प्रतीतिवाला N होता है, वह आप्त कहलाता है। आप्तोंमें जो मुख्य अर्थात् श्रेष्ठ हो, वह आप्तमुख्य कहा जाता है और विसंवादरहित वचनके धारक y होनेसे भगवान् समस्त जीवोंके विश्वासके स्थान है इसी कारण आप्तमुख्य है । तथा आप्तमुख्य है, इसी कारण भगवान् बाधारहित सिद्धान्तके धारक है। क्योंकि, ज्ञानद्वारा जिस प्रकारसे स्थित पदार्थोंको देखे है, उसी प्रकारसे कहनेवाला जो सिद्धान्त है, वह अन्य कुमतावलम्बियोंसे बाधित नहीं हो सकता है। एव भगवान् स्वयंभू है, इसीलिये देवोसे पूज्य है । क्योंकि भगवान् तीन जगत्से । भिन्न लक्षणका धारक जो स्वयंसंबुद्धत्व (खयं ज्ञानको प्राप्त होनेरूप) गुण है, उससे ही सौधर्मइन्द्र आदि देवोद्वारा पूजे जाते है ॥ अत्र च श्रीवर्द्धमानमितिविशेषणतया यद्व्याख्यातं तदयोगव्यवच्छेदाभिधानप्रथमद्वात्रिंशिकाप्रथमकाव्यतृ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN तीयपादवर्तमानम् । 'श्रीवर्द्धमानाभिधमात्मरूपम्' इति विशेष्यमनुवर्त्तमानं बुद्धौ संप्रधार्य विज्ञेयम् । तत्र हिy आत्मरूपमितिविशेष्यपदम् । प्रकृष्ट आत्मा आत्मरूपस्तं परमात्मानमिति यावत् । आवृत्त्या वा विशेषणमपि विशेष्यतया व्याख्येयमिति प्रथमवृत्तार्थः ॥ १॥ INI इस श्लोकमें जो 'श्रीवर्द्धमानं ' इस पदका विशेषणरूपसे व्याख्यान किया गया है, वह अयोगव्यवच्छेद' नामकी धारक || जो प्रथम द्वात्रिंशतिका ( पहली बत्तीसी ) है, उसके प्रथमकाव्यके तीसरे चरणमें विद्यमान ' श्रीवर्द्धमानाभिधमात्मरूपम् ' इस IN विशेष्यको अपनी बुद्धिमें चला आता हुआ समझकर जानना चाहिये । वहांपर 'आत्मरूपं यह विशेप्यपद है । प्रकृष्ट अर्थात् | उत्तम आत्मा जो हो, वह आत्मरूप अर्थात् परमात्मा है, उसको । अथवा पुन: आवृत्ति करके अर्थात् 'श्रीवर्द्धमानं ' इस पदको| N|| पहले विशेषणमें लेकरके, फिर विशेप्यरूपसे ग्रहण करके व्याख्यान करना चाहिये । इसप्रकार प्रथम काव्यका अर्थ है ॥१॥ IM अस्यां च स्तुतावन्ययोगव्यवच्छेदोऽधिकृतस्तस्य च तीर्थान्तरीयपरिकल्पिततत्त्वाभासनिरासेन तेपामाप्तत्व व्यवच्छेदः स्वरूपम् । तच्च भगवतो यथाऽवस्थितवस्तुतत्त्ववादित्वख्यापनेनैव प्रामाण्यमश्नुते । अतःस्तुतिकारस्त्रिजगद्गुरोनिःशेषगुणस्तुतिश्रद्धालुरपि सद्भूतवस्तुवादित्वाख्यं गुणविशेषमेव वर्णयितुमात्मनोऽभिप्रायमा-N विष्कुर्वन्नाह । - इस स्तुतिमें अन्ययोगव्यवच्छेद अर्थात् दूसरों के संबंधको भिन्न करना लिया गया है और उसका : अन्यमतियों करके TV कल्पना किये हुए जो तत्त्वाभास है, उनका खंडन करके, उन अन्यमतियोंको आप्तसे भिन्न करना' यह स्वरूप है । और वह भगवान्के वस्तुका स्वरूप जैसा स्थित है, वैसा कहनेवाले गुणका धारकपना प्रसिद्ध करनेसे ही प्रमाणताको प्राप्त होता है । इसकारण स्तुतिके कर्ता आचार्य यद्यपि तीन जगत्के गुरु श्रीभगवान्के समस्त गुणोंकी स्तुति करनेमें भक्ति रखते है, तो भी यथास्थितपदार्थोंको । कहनेरूप जो एक गुण है, उसीका वर्णन करनेके लिये अपने अभिप्रायको प्रकट करते हुए अग्रिम काव्यका कथन करते है । १ पर्यायः । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याद्वादम. ॥८॥ अयं जनो नाथ तव स्तवाय गुणान्तरेभ्यः स्पृहयालुरेव । राजै.शा. विगाहतां किन्तु यथार्थवादमेकं परीक्षाविधिदुर्विदग्धः॥२॥ काव्यभावार्थः- हे नाथ ! परीक्षा करनेमें दुर्विदग्ध अर्थात् अपनेको पंडितके समान माननेवाला यह मैं (प्रत्यक्षीभूत हेमचंद्र नामक आचार्य) आपके अन्य गुणोंकी स्तुति करनेके अर्थ इच्छावान् ही हूं। परन्तु एक यथार्थवादनामक गुणको ही स्तुतिसे व्याप्त करता हूं ॥ २॥ __ व्याख्या । हे नाथ अयं मल्लक्षणो जनस्तव गुणान्तरेभ्यो यथार्थवादव्यतिरिक्तेभ्योऽनन्यसाधारणशारीरलक्षणादिभ्यः स्पृहयालुरेव श्रद्धालुरेव । किमर्थ स्तवाय स्तुतिकरणाय । इयं तादर्णं चतुर्थी पूर्वत्र तु स्पृहेयाप्यं वेति लक्षणा । तव गुणान्तराण्यपि स्तोतुं स्पृहावानयं जन इति भावः । ननु यदि गुणान्तरस्तुतावपि स्पृहयालुता तकिमर्थं तत्रोपेक्षेत्याशङ्कयोत्तरार्द्धमाह । किंत्वित्यभ्युपगमपूर्वकविशेषद्योतने निपातः । एकमेकमेव यथार्थवादं यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्रख्यापनाख्यं त्वदीयं गुणमयं जनो विगाहतां स्तुतिक्रियया समन्ताद् व्याप्नोतु तस्मिन्नेकस्मिन्नपि हि गुणे वर्णिते तत्रान्तरीयदैवतेभ्यो वैशिष्टयख्यापनद्वारेण वस्तुतः सर्वगुणस्तवनसिद्धेः॥ व्याख्यार्थः-'नाथ' भो स्वामिन् ? 'अयं' यह 'जनः हेमचन्द्र नामक मनुष्य 'तव आपके गुणान्तरेभ्यः' | यथार्थवादसे भिन्न और अन्य देवोंमें नहीं रहनेवाले शरीरलक्षण आदि जो गुण है, उनको 'स्तवाय' स्तुतिगोचर करनेके अथे. KY अर्थात् स्तुतिमें लानेके लिये 'स्पृहयालु एव' अभिलाषा (इच्छा) का धारक ही है [ 'स्तवाय' यहां तादर्थ्यमें चतुर्थी विभक्ति है। 1 और 'गुणान्तरेभ्यः' यहांपर "स्पृहेाप्यं वा" इस सूत्रसे स्पृह धातुके कर्ममें विकल्पसे चतुर्थी विभक्ति है। भावार्थ-यह मै आपके ॥८ ॥ अन्य गुणोंकी स्तुति करनेके अर्थ भी इच्छा रखता ही हूं। 'जो अन्यगुणोंकी स्तुति करनेमें भी इच्छा है तो उन गुणोंकी स्तुति करनेमें । अनादर क्यों है ? । इसप्रकार आशका करके आचार्य उत्तरार्द्धको कहते है। किन्तु किन्तु ( वल्कि) [किन्तु यह स्वीकार किये १खपुस्तके- तरिकतान्यपि सोप्यति स उत नेत्याशंक्योत्तरार्द्धमाह । इति पाठ । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए में विशेषता जनानेके अर्थमें निपात है ] 'एकम् ' एक ही ' यथार्थवादम् ' ' वस्तुके यथास्थित स्वरूपको कहनेवाला ' | इस नामका धारक जो आपका गुण है उसीको यह मनुष्य ' विगाहतां ' स्तुतिरूप क्रियासे सर्वत: व्याप्त करो । क्योंकि, उस यथार्थवादित्वनामक एक ही गुणका वर्णन किये जानेपर अन्यमतके देवोसे विशिष्टताका कथन हो जायगा । जिसके कि द्वारा वास्तवमें सपूर्ण गुणोंके स्तोत्रकी सिद्धि हो जावैगी ॥ 1 अथ प्रस्तुत गुणस्तुतिः सम्यक्परीक्षाक्षमाणां दिव्यदृशमेवौचितीमञ्चति नाडर्वाग्दृशीं भवादृशामित्याशङ्कां | विशेषणद्वारेण निराकरोति । यतोऽयं जनः परीक्षाविधिदुर्विदग्धः अधिकृतगुणविशेषपरीक्षणविधौ दुर्विदग्धः पण्डितंमन्य इति यावत् । अयमाशयो यद्यपि जगद्गुरोर्यथार्थवादित्वगुणपरीक्षणं मादृशां मतेरगोचरस्तथा| पि भक्तिश्रद्धातिशयात् तस्यामहमात्मानं विदग्धमिव मन्य इति । विशुद्धश्रद्धाभक्तिव्यक्तिमात्रस्वरूपत्वात्स्तुतेः । इति वृत्तार्थः ॥ २ ॥ अब ‘यथार्थवादित्व नामक जो गुण है, उसकी स्तुति करना उत्तमरीतिसे परीक्षा करने में समर्थ जो दिव्यज्ञानके धारक मुनीश्वर है, उनके ही योग्य है और तुम जैसे छद्मस्थोंके, उस गुणकी स्तुति करनेकी योग्यता नहीं है।' इसप्रकार जो किसीकी आशंका है, | उसको विशेषणद्वारा दूर करते हुए आचार्य कहते है । क्योंकि, यह मै ( हेमचन्द्र ) ' परीक्षा विधिदुर्विदग्धः ' इस यथार्थवादित्वनामक गुणकी परीक्षा करनेमें दुर्विदग्ध हू अर्थात् अपनेको पंडित मानता हूं । भावार्थ - यह है कि, यद्यपि तीनजगत् के गुरु श्रीजिनेन्द्रके यथार्थवादित्व गुणकी परीक्षा करना मेरे जैसोंकी बुद्धिका विषय नही है, तथापि भक्ति और श्रद्धाके प्रभावसे उस परीक्षा करनेमें मै मुझको चतुरकी समान मानता हूं। क्योंकि, निर्मल श्रद्धा और भक्तिकी जो प्रकटता है, वही स्तुतिका खरूप है । | इसप्रकार दूसरे काव्यका अर्थ है ॥ २ ॥ अथ ये कुतीर्थ्याः कुशास्त्र वासनावासितस्वान्ततया त्रिभुवनस्वामिनं स्वामित्वेन न प्रतिपन्नास्तानपि तत्त्ववि - चारणां प्रति शिक्षयन्नाह । १] अतीन्द्रियज्ञानिनां । २ योग्यतां । ३ छद्मस्थानां । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. हाद्वादमं. ॥९॥ उन अब जो कुमतावलम्बी कुशास्त्रोंकी गंधसे वासको प्राप्त हुए चित्तसे तीन लोकके खामी श्रीजिनेन्द्रको स्वामी नहीं मानते है, उनको भी तत्त्वोंका विचार करनेके लिये शिक्षा देते हुए आचार्य इस अग्रिम काव्यका कथन करते है ॥ गुणेष्वसूयां दधतः परेऽमी मा शिश्रियन्नाम भवन्तमीशम् । तथापि सम्मील्य विलोचनानि विचारयन्तां नयवर्त्म सत्यम् ॥३॥ काव्यभावार्थः-हे नाथ ! यद्यपि गुणोंमें ईर्षाको धारण करनेवाले ये कुमतावलम्बी आपको स्वामी । जान मानें, तथापि नेत्रोंको मींच करके सच्चे न्यायमार्गका विचार करें ॥ ३ ॥ a अमी इति । 'अदसस्तु विप्रकृष्टे' इति वचनात्तत्त्वातत्त्वविमर्शबाह्यतया दूरीकरणाहत्त्वाद्विप्रकृष्टाः परे कुती र्थिका भवन्तं त्वामनन्यसामान्यसकलगुणनिलयमपि मा ईशं शिश्रियन् मा स्वामित्वेन प्रतिपद्यन्ताम् । यतो 7 गुणेष्वसूयां दधतो गुणेषु बद्धमत्सराः । गुणेषु दोषाविष्करणं ह्यसूया । यो हि यत्र मत्सरीभवति स तदाश्रयं । नानुरुध्यते । यथा माधुर्यमत्सरी करभः पुण्डेक्षुकाण्डम् । गुणाश्रयश्च भवान् । एवं परतीर्थिकानां भगवदाज्ञाप्र-6 तिपत्तिं प्रतिषिध्य स्तुतिकारो माध्यस्थ्यमिवास्थाय तान् प्रति हितशिक्षामुत्तरार्द्धनोपदिशति । तथापि त्वदाज्ञाप्रतिपत्तेरभावेऽपि लोचनानि नेत्राणि सम्मील्य मिलितपुटीकृत्य सत्यं युक्तियुक्तं नयवर्त्म न्यायमार्ग विचारयन्तां विमर्शविषयीकुर्वन्तु । व्याख्यार्थ:-अमी' ('अदस् शब्दका दूरवर्ती पदार्थको प्रकट करनेके लिये प्रयोग होता है ' इस वचनसे ) तत्त्व और अतत्त्वके विचारसे रहित होनेके कारण दूर रखने योग्य 'परे' कुमतावलम्बी भवन्तं' अन्य देवोंमें नहीं रहनेवाले ऐसे संपूर्ण Y गुणोंके स्थान आपको 'नाम' भी ' ईशं' खामी 'मा' मत 'शिश्रियन् ' खीकार करो । क्योंकि, वे 'गुणेषु' गुणोंमें 'असूया' ईर्षाको 'दधतः' धारण करनेवाले हैं, अर्थात् गुणोंमें ईर्षा रखते है । भावार्थ-गुणोंमें दोषोंको प्रकट करना ही १ इदम' प्रत्यक्षकृते समीपतरवर्ति चैतदो रूपम् । अदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् ।।। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असूया ( ईर्षा ) है । जो जिस गुणमें ईर्षाको धारण करता है, वह उस गुणके धारकको भी नही स्वीकार करता है। जैसे ऊंट मधुर ) al( मीठे ) रसमें ईर्षाको रखता है, इस कारण वह मधुर रसके धारक पोंडे सांठोंके समूहको भी नही ग्रहण करता है। इसी प्रकार || गुणोंमें ईके धारक वे कुवादी गुणोंको धारण करनेवाले आपको भी नहीं मानते है । इसप्रकार — परमतावलम्बी भगवान्की आज्ञा नहीं मानते है । यह कहकर, स्तुतिकर्ता आचार्य एकबार उनमें मध्यस्थता ( उदासीनपने ) को ही मानों धारण करके, फिर भी || उनको काव्यके उत्तरार्द्धसे हितका उपदेश देते है । 'तथापि आपकी आज्ञाको खीकार न करने पर भी 'विलोचनानि' नेत्रोंको 'सम्मील्य' बंद ( मींच ) करके “ सत्यं ' युक्तियों सहित 'नयवर्म' न्यायके मार्गको 'विचारयन्ताम् ' विचारो। अत्र च विचारयन्तामित्यात्मनेपदेन फलवत्कर्तृविषयेणैवं ज्ञापयत्याचार्यो यदवितथनयपथविचारणया तेषामेव फलं वयं केवलमुपदेष्टारः । किं तत्फलमिति चेत्प्रेक्षावत्तेति ब्रूमः । सम्मील्य विलोचनानीति च वदतः । प्रायस्तत्त्वविचारणमेकाग्रताहेतुनयननिमीलनपूर्वकं लोके प्रसिद्धमित्यभिप्रायः । अथवा अयमुपदेशस्तेभ्योऽरोच मान एवाचार्येण वितीर्यते । ततोऽस्वदमानोऽप्ययं कटुकौषधपानन्यायेनायतिसुखत्वाद्भवद्भिर्ने। निमील्य पेय IN एवेत्याकूतम् । विचारयन्ताम् ' यहांपर कर्ताके विषे फलको धारण करनेवाले आत्मनेपदका प्रयोग करनेसे आचार्य · सच्चे न्यायमार्गका विचार || Kol करनेसे उनको ही फल होगा, हमको नहीं । क्योंकि हम तो केवल उपदेश देनेवाले है' ऐसा अभिप्राय विदित करते है। सच्चे न्यायमार्गका विचार करनेसे उनको क्या फल होगा ? यह पूछो तो हम उत्तर देते है कि, 'वे प्रेक्षावान् (विचार करके काम हा करनेवाले ) कहलाये जायेंगें' यही उनको फल होगा । 'सम्मील्य विलोचनानि' ऐसा कहते हुए आचार्य यह अभिप्राय सूचित करते IN है कि, चित्तकी एकाग्रताका कारणभूत जो नेत्रोंको बंद करना है, उस पूर्वक तत्त्वोंका विचार किया जाता है। ऐसा प्रायः लोकमें प्रसिद्ध है। इसलिये वे अन्यमती भी नेत्र बंद करके, सावधान होकर सच्चे न्यायमार्गका विचार करै । अथवा आचार्य यह उपदेश, उनको नहीं रुचता हुआ ही देते है। इसकारण नहीं रुचता हुआ भी यह उपदेश आगामी कालमें सुखरूप होनेके कारण कटुकौषधपानन्यायसे उनको नेत्र बंद करके पी जाना ही चाहिये यह आशय है । भावार्थ-जैसे वैद्य रोगीको रोग दूर करनेके लिये कड़वी औषध देते है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ १० ॥ और रोगी उस कडवी औषधको अपने आराम होनेके लिये नेत्र बंद करके पी जाता है। वैसें ही यद्यपि वर्त्तमानमें यह उपदेश उनको अच्छा नही लगैगा । तथापि भविष्यमें सुख देनेवाला है, इसलिये इस उपदेशपर उनको नेत्रबंद करके विचार करना ही चाहिये । ननु च यदि पारमेश्वरे वचसि तेषामविवेकातिरेकादरोचकिता तत्किमर्थं तान्प्रत्युपदेशक्लेश इति । नैवं परोपकारसारप्रवृत्तीनां महात्मनां प्रतिपाद्यतां रुचिमरुचिं वानेपेक्ष्य हितोपदेशप्रवृत्तिदर्शनात् । तेषां हि परार्थस्यैव स्वार्थत्वेनाभिमतत्वात् । न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः । तथा चार्षम् ।“ रूस वा परो मावा विसंवा परियत्तउ || भासियव्वा हिया भासा सपक्खगुणकारिया । १ । ” उवाच च वाचकैमुख्यः“न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात् ॥ ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति । १ । इति वृत्तार्थः । ॥ शंका- यदि अज्ञानकी अधिकतासे उनको अर्हन्त परमेश्वरके वचनमें अरुचि है, तो आप उनके प्रति उपदेश देनेका परिश्रम किसलिये करते है ? समाधान — ऐसा कहना ठीक नही है । क्योंकि, अन्यका उपकार करना ही है सारभूत वर्त्तीव जिनके, ऐसे जो महात्मा है,वे शिष्यकी रुचि अथवा अरुचिकी अपेक्षा न करके ही हितरूप उपदेशके देनेमें प्रवृत्ति करते है, ऐसा देखा जाता है। क्योंकि, वे परार्थ ( परोपकार ) ही को स्वार्थरूप मानते है । और परमार्थसे ( वास्तवमें ) हितोपदेशके सिवाय दूसरा कोई परोपकार नहीं है । इस विषय में ऋषियोंका वाक्य भी है कि, " जिसको उपदेश दिया जावे वह रोष करे अथवा न करै, वा चाहे वह उस उपदेशको विषरूप समझै । परन्तु ऐसे ही वचन बोलने चाहियें जो कि निजपक्षको गुण करें अर्थात् जिसमें अपना हित हो, वैसा ही उपदेश देना चाहिये, १1" और वाचकमुख्य ( श्रीउमाखातिजी ) भी कहते है कि – “ हितरूप उपदेशके श्रवण करनेसे संपूर्ण श्रोताओंको धर्म होवै ही, ऐसा एकान्त अर्थात् निश्चय नहीं है, परन्तु अनुग्रह बुद्धिसे जो हितोपदेशका कहनेवाला है। उसको तो नियमसे धर्म होता ही है । १ । " इस प्रकार तृतीय काव्यका अर्थ है ॥ ३ ॥ अथ यथावन्नयवर्त्मविचारमेव प्रपञ्चयितुं पराभिप्रेततत्त्वानां प्रामाण्यं निराकुर्वन्नादितस्तावत्का व्यष्ट्र के नौलूक्यमताभिमततत्त्वानि दूषयितुकामस्तदन्तःपातिनौ प्रथमतरं सामान्यविशेषौ दूषयन्नाह ॥ १ शिष्यविषयां । २ वानवेक्ष्य इत्यपिपाठ: । ३ रुषतु वा परो मा वा, विप वा पर्यटतु । भाषितव्या हिता भाषा, स्वपक्षगुणकारिका 191 इतिच्छाया. ४ उमास्वातिरिति । रा जै. शा. ॥ १० ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब यथार्थ नयमार्गके विचारका ही विस्तार करनेके लिये परमतियों के माने हुए तत्त्वोंकी प्रमाणताको दूर करते हुए और प्रथम ही ६ काव्योंद्वारा वैशेषिकमतके तत्त्वोंको दूषित करनेकी इच्छा रखते हुए आचार्य सबसे प्रथम उन वैशेषिकतत्त्वोंके मध्य में गिरनेवाले जो सामान्य और विशेष नामक दो पदार्थ है उनको दूषित करनेके लिये इस अग्रिम काव्यका कथन करते है ॥ - स्वतोऽनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजी भावा न भावान्तरनेयरूपाः । परात्मतत्त्वादतथात्मतत्त्वाद्वयं वदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति ॥ ४ ॥ काव्यभावार्थ:--पदार्थ अपने आप ही अनुवृत्ति तथा व्यतिवृत्तिको धारण करते हैं । उनका स्वरूप अन्य किसी पदार्थसे प्रतीत होने योग्य नहीं है । इसकारण जो अकुशलवादी असत्यस्वरूप और | पदार्थ से भिन्न ऐसे सामान्य तथा विशेषसे अनुवृत्ति ( सामान्य ) और व्यतिवृत्ति ( विशेष ) प्रत्ययका कथन करते हैं वे पतनको प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥ व्याख्या | अभवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावा: पदार्था आत्मपुद्गलादयस्ते स्वत इति । सर्वं हि वाक्यं | सावधारणमामनन्तीति स्वत एवात्मीयस्वरूपादेवानुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजः । एकाकारा प्रतीतिरेकशब्दवाच्यता चानुवृत्तिः, व्यतिवृत्तिर्व्यावृत्तिर्विजातीयेभ्यः सर्वथा व्यवच्छेदस्ते उभे अपि संवलिते भजन्ते आश्रयन्तीति अनुवृ| त्तिव्यतिवृत्तिभाजः सामान्यविशेषोभयात्मका इत्यर्थः । व्याख्यार्थः--— भावाः ' जो हो चुके, हो रहे हैं और होवेंगे, वे भाव अर्थात् आत्मा, पुद्गल आदि पदार्थ हैं । वे , स्वतः एव ' [ यहां आचार्य सब वाक्योंको एवकारसहित कहते है, इसकारण एवका अध्याहार किया गया है ] अपने आप ही 4 'अनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाज: ' एक आकारवाली प्रतीति और एक शब्दसे कहने योग्यता जो है, उसको अनुवृत्ति ( सामान्य ) १ अन्वयव्यतिरेकयुक्ताः । २ एवकारसहितं । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यादाटम ॥११॥ कहते है, और विजातीय पदार्थोंसे जो सर्वथा जुदापना है, उसको व्यतिवृत्ति (विशेप) कहते हैं। मिले हुए इन दोनोंको भी जो धारण y करें, वे अनुवृतिव्यत्तिवृत्तिभाज है । अर्थात् सामान्य तथा विशेष इन दोनों स्वरूप है। अस्यैवार्थस्य व्यतिरेकमाह । न भावान्तरनेयरूपा इति ।नेति निषेधे । भावान्तराभ्यां पराभिमताभ्यां द्रव्यगुणकर्मसमवायभ्यः पदार्थान्तराभ्यां भावव्यतिरिक्तसामान्यविशेषाभ्यां नेयं प्रतीतिविषयं प्रापणीयं रूपं यथासंख्यमनुवृत्तिव्यतिवृत्तिलक्षणं स्वरूपं येषां ते तथोक्ताः । स्वभाव एव ह्ययं सर्वभावानां यदनुवृत्तिव्यावृत्तिप्रत्ययौ स्वत एव जनयन्ति। तथा हि घट एव तावत्पृथुबुनोदराद्याकारवान् प्रतीतिविषयीभवन् सन्नन्यानपि तदाकृतिभृतः | पदार्थान् घटरूपतया घटैकशब्दवाच्यतया च प्रत्याययन् सामान्याख्यां लभते । स एव चेतरेभ्यः सजातीयविजातीयेभ्यो द्रव्यक्षेत्रकालभावैरात्मानं व्यावर्तयन् विशेषव्यपदेशमनुते । इति न सामान्यविशेषयोः पृथक्पदार्थान्तरत्वकल्पनं न्याय्यम् । पदार्थधर्मत्वेनैव तयोः प्रतीयमानत्वात् । न च धर्मा धमिणः सकाशादत्यन्तं व्यतिरिक्ताः। एकान्तभेदे विशेपणविशेष्यभावाऽनुपपत्तेः। करभरासभयोरिवधर्माधमिव्यपदेशाऽभावप्रसङ्गाच्च। धर्माणामपि च पृथक्पदार्थान्तरत्वकल्पने एकस्मिन्नेव वस्तुनि पदार्थानन्त्यप्रसङ्गः । अनन्तधर्मकत्वाद्वस्तुनः। | अब इसी अर्थके व्यतिरेकका कथन करते है । 'न भावान्तरनेयरूपाः' [यहां 'न' निषेध अर्थमें है ] पदार्थ वैशेपिकोंके माने हुए जो द्रव्य, गुण, कर्म और समवाय नामक पदार्थ है, उनसे भिन्न जो सामान्य तथा विशेष है, उन करके नेय अर्थात् प्रतीतिके 1 गोचर करने योग्य है खरूप जिनका, ऐसे नहीं है। क्योंकि सब पदार्थोका यह खभाव ही है कि, वे अनुवृत्ति और व्यतिवृत्ति प्रत्ययको पू स्वयं ही उत्पन्न करते है। सो ही दिखलाते है कि, जैसे पृथु ( मोटे) और बुध्न ( गोल ) ऐसे उदर (पेट ) आदिके आकारको Yधारण करनेवाला घडा जब प्रथम ही प्रतीत होता है, तब अपने जैसे आकारको धारण करनेवाले जो अन्य ( दूसरे) पदार्थ है, उनको भी घट रूपतासे और 'घट' इस एकशब्दवाच्यतासे विदित करता हुआ 'सामान्य ' इस नामको धारण करता है। और वही घडा अपनी जातिवाले जो दूसरे घट है, उनसे तथा अपनी जातिसे भिन्न जो पट आदि है, उनसे द्रव्य, क्षेत्र, काल १ उच्चारण । २ अनिष्टापादनं प्रसङ्ग। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INऔर भावद्वारा अपनेको जुदा करता हुआ ' विशेष ' इस नामको धारण करता है । इस कारण तुमने जो सामान्य और विशेषको || पदार्थोंसे भिन्न पदार्थ माने है, सो न्याय ( उचित ) नहीं है । क्योंकि वे दोनों अन्य पदार्थोके धर्मरूप ही प्रतीत होते है। और धर्मीसे धर्म अत्यन्त भिन्न नहीं है। क्योंकि, यदि धर्म और धर्मीके सर्वथा भेद मान लिया जाये तो ' यह विशेषण || है और यह विशेष्य है' इस प्रकारका जो विशेषणविशेप्यभाव संबन्ध है, उसकी सिद्धि न होगी । और जैसे ऊंट और गर्दभ (गधे) ITA IN में अत्यन्त भिन्नताके कारण धर्मधर्मीभाव सम्बन्ध नहीं हो सकता है, उसी प्रकार पदार्थों में भी अत्यन्त भिन्नताके कारण धर्मधर्मीभाव | न होगा; अर्थात् यह पदार्थ इन धर्मोका धर्मी है, और यह धर्मी ( पदार्थ ) इन धर्मोको धारण करनेवाला है, इस प्रकारका जो व्यवहार है, उसके अभावका प्रसंग होगा। तथा यदि धर्मोको भी भिन्न पदार्थ मानोगे तो, एक ही वस्तुमें अनन्त पदार्थ माननेका प्रसंग होगा। क्योंकि, वस्तु अनन्त धर्मोंका धारक है। - तदेवं सामान्यविशेषयोः स्वतत्त्वं यथावदनवबुध्यमाना अकुशला अतत्त्वाभिनिविष्टदृष्टयस्तीर्थान्तरीयाः स्खलन्ति न्यायमार्गाद्रश्यन्ति निरुत्तरीभवन्तीत्यर्थः । स्खलनेन चात्र प्रामाणिकजनोपहसनीयता ध्वन्यते । कि कुर्वाणाः द्वयं अनुवृत्तिव्यावृत्तिलक्षणं प्रत्ययद्वयं वदन्तः । कस्मादेतत्प्रत्ययद्वयं वदन्त इत्याह-परात्मतत्त्वा-1 त्परौ पदार्थेभ्यो व्यतिरिक्तत्त्वादन्यौ परस्परनिरपेक्षौ च यो सामान्यविशेषौ तयोर्यदात्मतत्त्वं स्वरूपमनुवृत्तिव्यावृत्तिलक्षणं तस्मात्तदाश्रित्येत्यर्थः। गम्ययपः कर्माधारे' इत्यनेन पञ्चमी । कथंभूतात्परात्मतत्त्वादित्याह । अतथात्मतत्त्वात् । माभूत्पराभिमतस्य परात्मतत्त्वस्य सत्यरूपतेति विशेषणमिदम् । यथा येनैकान्तभेदलक्षणेन | प्रकारेण परैः प्रकल्पितं न तथा तेन प्रकारेणात्मतत्त्वं स्वरूपं यस्य तत्तथा तस्मात् । यतः पदार्थेष्वविष्वग्भावेन । सामान्यविशेषौ वर्त्तते । तैश्च तौ तेभ्यः परत्वेन कल्पितौ परत्वं चान्यत्वं तच्चैकान्तभेदाऽविनाभावि । सो इसप्रकार सामान्य और विशेषके स्वरूपको यथावत् ( जैसा है वैसा ) नहीं समझते हुए 'अकुशलाः' अतत्त्वको तत्त्व | माननेमें दुराग्रहरूप है दृष्टि ( बुद्धि ) जिनकी ऐसे, अन्यमती ' स्खलन्ति ' न्यायके मार्गसे गिरते है अर्थात् उत्तररहित होते १ कदाग्रहिक । २ अभिन्नभावेन । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जै.शा. स्याद्वादमला है। [यहापर ' स्खलन ' इसके कहनेसे 'प्रामाणिक जनोंसे हंसे जाते है ' यह अर्थ ध्वनित होता है ] | क्या करते हुए स्खलित होते है 'द्वयं अनुवृत्ति और व्यावृत्तिरूप लक्षणके धारक जो दो प्रत्यय है, उनको 'वदन्तः' कहते हुए स्खलित होते हैं। ॥१२॥ किससे इन दो प्रत्ययोंको कहते हुए स्खलित होते हैं ? इस आशंकामें कहते है कि 'परात्मतत्त्वात पदार्थोंसे भिन्न होनेके कारण अन्य और आपसमें एक दूसरेकी अपेक्षा ( जरूरत ) को नहीं धारण करनेवाले ऐसे जो सामान्य और विशेष है, उनका जो आत्मतत्त्व अर्थात् अनुवृत्ति तथा व्यावृत्तिरूप खरूप है, उससे अर्थात् उसका आश्रय करके [ यहांपर 'गम्ययपःकर्माधारे' इस सूत्रसे पंचमी विभक्ति हुई है ] केसे परात्मतत्त्वसे इस आशंकापर कहते है 'अतथात्मतत्त्वात्। [अन्य मतियोंद्वारा माना हुआ जो परात्मतत्त्व है वह सत्य न हो इसलिये यह विशेषण दिया गया है ] जिस एकान्तभेदरूप लक्षणके धारक प्रकारसे वैशेषिकोंने माना है, उस प्रकार नहीं है स्वरूप जिसका ऐसे परात्मतत्त्वसे । क्योंकि, सामान्य तथा विशेष ये दोनों पदार्थों में व्याप्त होकर स्थित है और वैशेषिकोंने इन दोनोंको पदार्थोंसे पर (जुदे ) माने है । परका अर्थ अन्य है और वह अन्यपना सर्वथा भेद |माने विना नहीं हो सकता है। | किञ्च पदार्थेभ्यः सामान्यविशेषयोरेकान्तभिन्नत्वे स्वीक्रियमाणे एकवस्तुविषयं अनुवृत्तिव्यावृत्तिरूपं प्रत्ययद्वयं नोपपद्येत । एकान्ताभेदे चान्यतरस्यासत्त्वप्रसङ्गः, सामान्यविशेषव्यवहाराऽभावश्च स्यात सामान्यविर भयात्मकत्वेनैव वस्तुनः प्रमाणेन प्रतीतेः । परस्परनिरपेक्षपक्षस्तु पुरस्तान्निर्लोठयिष्यते । अत एव तेषां वादिनां स्खलनक्रिययोपहसनीयत्वमभिव्यज्यते । यो ह्यन्यथा स्थितं वस्तुस्वरूपमन्यथैव प्रतिपद्यमानः परेभ्यश्च तथैव प्रज्ञापयन् स्वयं नष्टः परान्नाशयति न खलु तस्मादन्य उपहासपात्रम् । इति वृत्तार्थः॥४॥ A] और यह भी विशेष है कि, यदि पदार्थोंसे सामान्य और विशेषके सर्वथा भेद मानलिया जावे, तो एक वस्तुमें विषयके धारक अनुवृत्ति और व्यावृत्तिरूप दो प्रत्यय सिद्ध न होवें । तथा यदि सर्वथा अभेद मानें तो दोनोंमेंसे किसी एकके अभावका प्रसंग आवै, और सामान्यविशेषरूप जो व्यवहार है, उसका भी अभाव होवै । क्योंकि, प्रमाणद्वारा सामान्य तथा विशेष इन दोनों रूपतासे ही वस्तुकी प्रतीति होती है अर्थात् सामान्य-विशेष खरूप ही पदार्थ प्रमाणसे जाना जाता है। [सामान्य और विशेष ये दोनों परस्पर अपेक्षा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहित है, यह पक्ष जो कह आये है, इसका खंडन आगे करेंगे। इसी लिये उन वादियोंके स्खलन क्रियासे हास्यकी योग्यता प्रकट की जाती है । क्योंकि, जो अन्य प्रकारसे स्थित वस्तुके खरूपको आप अन्य प्रकारसे मानता है और अन्य पुरुषोंको भी उसी प्रकार समझाता है, वह आप नाशको प्राप्त होकर दूसरोंका भी नाश करता है । इसलिये निश्चयकर उसके सिवाय कोई दूसरा हास्यका पात्र | नहीं है । इसप्रकार काव्यका अर्थ है ॥ ४ ॥ अथ तदभिमतावकान्तनित्यानित्यपक्षौ दूषयन्नाह ।। IN अब वैशेषिकमतवालोंके अभीष्ट जो एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य पंक्ष हैं, उन दोनों एकान्तपक्षोंमें दोष देते हुए आचार्य अग्रिम काव्यका कथन करते है - . आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ॥५॥ IN काव्यभावार्थः-दीपकसे लेकर आकाश पर्यन्त अर्थात् समस्त ही पदार्थ समान स्वभावके धारक हैं। क्योंकि, सब ही पदार्थ स्याहादकी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करते हैं। तथापि उनमें दीपक आदि कितने ही पदार्थ सर्वथा अनित्य हैं और आकाश आदि कितने ही पदार्थ सर्वथा नित्य हैं । इस प्रकार आपकी आज्ञासे द्वेष रखनेवालोंके अर्थात् वैशेषिक मतवालोंके प्रलाप हैं ॥ ५॥ Kel व्याख्या । आदीपं दीपादारभ्य आव्योम व्योम मर्यादीकृत्य सर्व वस्तु पदार्थस्वरूपं समस्वभावं समस्तुल्यः स्वभावः स्वरूपं यस्य तत्तथा । किञ्च-वस्तुनः स्वरूपं द्रव्यपर्यायात्मकत्वमिति ब्रूमः । तथा च वाचकमुख्यः"उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” इति । समस्वभावत्वं कुत इति विशेषणद्वारेण हेतुमाह । स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकम् । ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवादो नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत् । तस्य मुद्रा मर्यादा तां नाऽतिभिनत्ति नातिकामतीति स्याद्वादमुद्रानतिभेदि । यथा हि न्यायैकनिष्टे Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादमा ॥१३॥ राजनि राज्यश्रियं शासति सति सर्वाः प्रजास्तन्मुद्रां नातिवर्तितुमीशते। तदतिक्रमे तासां सर्वार्थहानिभावात् । राजै.शा. एवं विजयिनि निष्कण्टके स्याद्वादमहानरेन्द्रे तदीयमुद्रां सर्वेऽपि पदार्था नातिकामन्ति । तदुलन्ने तेपां स्वरूपव्यवस्थाहानिप्रसक्तेः ॥ व्याख्यार्थः-'आदीपं दीपकसे लेकर 'आव्योम' आकाशपर्यन्त 'वस्तु' सब पदार्थोंका खरूप 'समखभावं समान है। (एकसे) स्वभाववाला है। किंच हम 'वस्तुका स्वरूप द्रव्य और पर्यायरूप है। ऐसा कहते है । और वाचकमुख्य (श्रीउमास्वाति )नें भी "जो उत्पाद (उत्पत्ति ) व्यय (नाग) तथा धौव्य (नित्यता )से युक्त है, वह सत् ( वस्तु ) है" इसी प्रकार वस्तुका लक्षण कहा है। सब वस्तु समान स्वभावका धारक कैसें है ? इस आशंकामें विशेषण द्वारा हेतुका कथन करते है। 'स्याद्वादमुद्रानतिभेदि' 'स्यात्' यह अनेकान्तको सूचित करनेवाला अव्यय है। इस कारण स्याद्वादका अर्थ अनेकान्तवाद अर्थात् नित्य, अनित्य आदि अनेक धर्मोंके धारक एक वस्तुका स्वीकार करना है । उस स्याद्वादकी मुद्रा अर्थात् मर्यादाका उल्लंघन करनेवाला | नही है । भावार्थ-जैसे न्यायमें ही तत्पर ऐसा कोई राजा राज्यलक्ष्मीका शासन करता हो, तो समस्त प्रजा उसकी मुद्रा (मोहर) IN का उल्लंघन नहीं कर सकती है। क्योंकि, उसके उल्लघन करनेसे उस प्रजाके सर्वस्व (सब धन )का नाश हो जावे । इसीप्रकार | कंटक (शत्रु ) रहित, और विजयी ऐसे स्याद्वादरूपी महाराजके विद्यमान रहते हुए, सब ही पदार्थ उस स्याद्वादकी मुद्राका उल्लघन नहीं कर सकते है। क्योंकि, उसका उल्लंघन करनेपर उनके अपने स्वरूपकी जो व्यवस्था (स्थिति) है, उसके नाशका प्रसंग होता है। सर्ववस्तूनां समस्वभावत्वकथनं च पराभीष्टस्यैकं वस्तु व्योमादि नित्यमेव, अन्यच्च प्रदीपाद्यनित्यमेव, इति वादस्य प्रतिक्षेपबीजम् । सर्वे हि भावा द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्याः,पर्यायार्थिकनयादेशात्पुनरनित्याः। तत्रैकान्ताऽनित्यतया परैरङ्गीकृतस्य प्रदीपस्य तावन्नित्यानित्यत्वव्यवस्थापने दिमात्रमुच्यते । आचार्यने जो 'सब पदार्थ समान खभावके धारक है। ऐसा कहा है, सो 'आकाश आदि एक पदार्थ नित्य ही है और दूसरे ३॥ प्रदीप आदि पदार्थ अनित्य ही है' इसप्रकार जो वैशेषिकोंका माना हुआ एकान्तवाद है, उसके खडन करनेमें बीज (कारण) १ प्राधान्यात्, अपेक्षातो वा। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है अर्थात् आचार्य इसीके आधारपर एकान्तवादका खंडन करेंगे। क्योंकि, सब ही पदार्थ द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे नित्य है और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे अनित्य है। उनमें प्रथम ही परवादियोंने जिस दीपकको एकान्त अनित्य माना है, उसी दीपक || नित्य तथा अनित्यरूप दोनों धर्म सिद्ध करनेके लिये कुछ कहते है ॥ तथा हि-प्रदीपपर्यायापन्नास्तैजसाः परमाणवः स्वरसतस्तैलक्षयाद्वाताभिघाताद्वा ज्योतिःपर्यायं परित्यज्य तमोरूपं पर्यायान्तरमासादयन्तोऽपि नैकान्तेनानित्याः। पुद्गलद्रव्यरूपतयाऽवस्थितत्वात्तेपाम् । नह्येतावतैवा) नित्यत्वं यावता पूर्वपर्यायस्य विनाशः, उत्तरपर्यायस्य चोत्पादः । न खलु मृद्रव्यं स्थासककोशकुशूलशिवकघटोद्यवस्थान्तराण्यापद्यमानमप्येकान्ततो विनष्टम् । तेषु मृद्रव्यानुगमस्याऽवालगोपालं प्रतीतत्वात् । न च तमसः पौगलिकत्वमसिद्धम् । चाक्षुषत्वान्यथानुपपत्तेः । प्रदीपालोकवत् ॥ सो ही दिखलाते है कि, दीपककी पर्यायको प्राप्त हुए जो तेजके परमाणु है, वे यद्यपि स्वभावसे, तैलके न रहनेसे अथवा पवनकी टक्कर लगनेसे, अपने प्रकाशरूप पर्यायको छोड़कर तम ( अंधकार ) रूप जो दूसरा पर्याय है, उसको प्राप्त होते है, तथापि एकान्तसे अनित्य नहीं हैं। क्योंकि, वे तेजके परमाणु पुद्गलद्रव्यरूपतासे, उस तमरूप पर्यायमें भी विद्यमान है । और पूर्व पर्यायका नाश तथा उत्तर पर्यायका जो उत्पन्न होना है, इतने ही से दीपकमें अनित्यता नहीं हो सकती है । क्योंकि, मृत्तिका Ma( मिट्टी) द्रव्य यद्यपि स्थासक (चाकपर धरा हुआ मिट्टीका पिंड), कोश ( उस मिट्टीके पिडका बढ़ा हुआ आकार), कुशल (उस बढ़े हुए आकार पर हात फेरनेसे उत्पन्न हुआ एक प्रकारका आकार), शिवक ( कपाल), घट (घड़ा) इत्यादि रूप भिन्न २ अवस्थाओंको प्राप्त होता है, तथापि सर्वथा नष्ट नहीं होता है । क्योंकि, उन स्थासक आदि पर्यायोंमें बालकसे लेकर गोपाल ( ग्वालिये ) तक सबोंके मृत्तिकाद्रव्यकी प्रतीति होती है अर्थात् सभी स्थासक आदिमें मृत्तिकाद्रव्यको स्वीकार करते है। और तमके पौद्गलिकत्व (पुद्गलका पर्यायपना ) असिद्ध नहीं है। क्योंकि, जैसे प्रदीपका प्रकाश पौद्गलिक होनेसे चाक्षुप (नेत्रोंका विषय ) है, उसी प्रकार तम भी पौद्गलिक होनेसे ही चाक्षुष है । और यदि तुम तमको पौद्गलिक न मानो तो वह चाक्षुष भी नहीं हो सकता है । इसलिये सिद्ध हुआ कि तम पौद्गलिक है। १ स्वभावतः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमं. ॥१४॥ अथ यच्चाक्षुषं तत्सर्व स्वप्रतिभासे आलोकमपेक्षते, न चैवं तमस्तत्कथं चाक्षुषम् । नैवम् । उलूकादीनामालोकमन्तरेणापि तत्प्रतिभासात् । यैस्त्वस्मदादिभिरन्यच्चाक्षुषं घटादिकमालोकं विना नोपलभ्यते, तैरपि तिमि मालोकयिष्यते। विचित्रत्वाद्भावानाम् । कथमन्यथा पीतश्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलाद्या आलोकापेक्षदर्शनाः,y प्रदीपचन्द्रादयस्तु प्रकाशान्तरनिरपेक्षाः। इति सिद्धं तमश्चाक्षुपम् । ___ शंका-जो चाक्षुष पदार्थ है, वह अपने देखे जानेमें प्रकाश ( उजाले ) की अपेक्षा ( जरूरत ) रखता है । और तम ऐसा नही है अर्थात् विना प्रकाशके ही देखनेमें आता है । इसलिये आप तमको चाक्षुष कैसे कहते है ? समाधान-यह तुम्हारी y शका ठीक नहीं है । क्योंकि, जो चाक्षुष पदार्थ तुमको प्रकाशके विना नहीं दीख पड़ता है, वही चाक्षुप पदार्थ उलूक (घूघू ) y आदिको प्रकाशके विना भी दीखनेमें आता है। और जिन हम तुम वगैरहको जो दूसरा चाक्षुष घटादिक पदार्थ प्रकाशके विना नहीं दीखता है, उन्हीं हम तुम वगैरहको चाक्षुष तम प्रकाशके विना भी देखनेमें आवेगा । क्योंकि, पदार्थ विचित्र है अर्थात् सब पू पदार्थ एकसे नही है । यदि पदार्थोंमें विचित्रता न हो, तो पीत ( पीला ) सुवर्ण और श्वेत ( सफेद) मोती वगैरह तो अपने देखे TO जानेमें प्रकाशकी अपेक्षा क्यों रखते है ? और पीत ऐसा भी दीपक तथा श्वेत ऐसा भी चंद्रमा आदि पदार्थ अपने देखे जानेमें अन्य प्रकाशकी अपेक्षा क्यों नहीं रखते है ? भावार्थ-पदार्थ विचित्र है, इस कारण जैसे सोना मोती आदि कितने ही पदार्थ प्रकाशके विना नहीं दीख पड़ते है, और दीपक आदि प्रकाशके विना दीख पड़ते है, उसी प्रकार हम तुम घट आदि पदार्थोंको प्रकाशसे देखते है और तमको विना प्रकाशके ही देखते है । इस प्रकार 'तम चाक्षुप है' यह जो हमारा कथन है सो सिद्ध हो गया । ___ रूपवत्त्वाच्च स्पर्शवत्त्वमपि प्रतीयते । शीतस्पर्शप्रत्ययजनकत्वात् । यानि त्वनिविडावयवत्वमप्रतिघातित्वमनु, द्भूतस्पर्शविशेषत्वमप्रतीयमानखण्डावयविद्रव्यप्रविभागत्वमित्यादीनि तमसः पौगलिकत्वनिषेधाय परैः साधनान्युपन्यस्तानि तानि प्रदीपप्रभादृष्टान्तेनैव प्रतिषेध्यानि । तुल्ययोगक्षेमत्वात् । और तम रूप [ नीलवर्ण ) को धारण करता है, इसलिये स्पर्शका धारक भी प्रतीत होता है। क्योंकि, शीत स्पर्शकी प्रतीतिको उत्पन्न करता है अर्थात् ज्यों ज्यों अधिक अंधकारमें जाते है त्यों त्यों ठंडापन मालुम पड़ता है । इसलिये तम जैसे ॥१४॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपवाला है, वैसे ही स्पर्शवाला भी है । और जो तमको पौद्गलिक न माननेके लिये वादियोंने “ अनिविडावयवत्त्व ( कठोर अवयवपना न होना) १ अप्रतिघातित्व (किसीसे रुकनेवाला न होना)२ अनुद्भूतस्पर्श विशेषत्व (इंद्रियोंसे ग्रहण करने योग्य | | किसी स्पर्शवाला न होना) ३ अप्रतीयमानखंडावयविद्रव्यप्रविभागित्व ( खंडित अवयवीरूप द्रव्यके विभागकी प्रतीतिका न होना) ४ इत्यादि साधन दिये है " इनका प्रदीपकी प्रभाके दृष्टान्तसे खंडन कर देना चाहिये। क्योंकि, तुल्ययोगक्षेम है। भावार्थ-जैनी तो तमको पुद्गलका पर्याय मानते है और वैशेषिक कहते हैं कि, तम पौद्गलिक नहीं है । क्योंकि, “प्रथम तो जो पौद्गलिक होता है, उसके अवयव लोह वगैरहके समान कठोर होते है। और तमके अवयव कठोर नहीं है । दूसरे || पौद्गलिक पदार्थ किसीके आड़े आजानेसे रुक जाता है । और तम किसीसे रुकता नहीं है । तीसरे पौद्गलिक पदार्थका स्पष्ट al रीतिसे स्पर्श होता है। और तमका स्पर्श नहीं होता है । चोथे पौद्गलिक पदार्थके अवयवीके खंड भी होते है । जैसे, कि, वस्त्र आदिके खंड होते है । परन्तु तमके खंड ( टुकड़े ) नहीं होते है ।" इनका खंडन जैनी इस प्रकार करते है कि, तुमने जो दीपककी प्रभाको पौद्गलिक मानी है, उसमें भी जो गुण तममें नहीं है वे नहीं है । इसलिये जैसे तुमने प्रदीपकी प्रभाको पौद्गलिक AVM मानी है, उसी प्रकार तुमको तम भी पौद्गलिक मानना चाहिये । न च वाच्यं तैजसाः परमाणवः कथं तमस्त्वेन परिणमन्त इति । पुद्गलानां तत्तत्सामग्रीसहकृतानां विसदृशकार्योत्पादकत्वस्यापि दर्शनात् । दृष्टो ह्याट्टैन्धनसंयोगवशाभास्वररूपस्यापि वढेरभास्वररूपधूमरूपकार्योत्पादः। इति सिद्धो नित्यानित्यः प्रदीपः । यदापि निर्वाणादर्वाग् देदीप्यमानो दीपस्तदापि नवनवपर्यायोत्पादविनाशभाक्त्वात् प्रदीपत्वान्वयाच्च नित्यानित्य एव । और 'तेजके परमाणु तम रूप कैसे परिणम गये ? अर्थात् अंधकार रूप कैसे हो गये ? ' ऐसी शंका न करनी चाहिये । क्योंकि, उन उन सामग्रियों सहित जो पुद्गल है, उनके असमान कार्यकी उत्पत्ति भी देखते है । अर्थात् सहकारी कारणोंके | मिलनेपर पुद्गलोंसे विसदृश कार्य भी उत्पन्न होते है । यह नियम नहीं है कि, तेजके परमाणुओंसे तेजरूप ही दूसरा कार्य हो । 'INI क्योंकि, गीले इंधनके संयोगके वशसे भाखर ( प्रकाशमान ) स्वरूपका धारक जो अग्नि है, उससे अभाखर ( कांति रहित ) S Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विादमं. ।१५॥ ऐसे घूमरूप कार्यकी उत्पत्ति देखते हैं। भावार्थ-जैसे गीले इंधनके संयोगसे अग्नि धूमको उत्पन्न करता है । उसी प्रकार सामग्रीविशेषसे तेजके परमाणु भी तमको उत्पन्न करते है। इस प्रकार दीपक, नित्य तथा अनित्य ये दोनों धर्म सिद्ध हुए। और वुझनेके पहले जब कि जलता हुआ दीपक है, उसमें भी नये नये पर्यायोंकी उत्पत्ति तथा नाश होनेसे अनित्यत्व है। और उन सभी पर्यायोंमें दीपकका संबंध है, इसलिये नित्यत्व है । इस प्रकार दीपकमें नित्य और अनित्यरूप दोनों ही धर्म रहते है॥ ___एवं व्योमाप्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वान्नित्यानित्यमेव । तथा हि-अवगाहकानां जीवपुद्गलानामवगाहदानोपग्रह एव तल्लक्षणम् ।“ अवकाशदमाकाशम्" इति वचनात् । यदा चावगाहका जीवपुद्गलाः प्रयोगतो विनसांतो वा एकस्मान्नभःप्रदेशात्प्रदेशान्तरमुपसर्पन्ति तदा तस्य व्योम्नस्तैरवगाहकैः सममेकस्मिन्प्रदेशे विभागः उत्तरस्मिंश्च प्रदेशे संयोगैः। संयोगविभागौ च परस्परं विरुद्धौ धम्मौं, तद्भेदे चावश्यं धर्मिणो भेदः । तथा y चाहुः " अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा यद्विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्चेति” । ततश्च तदाकाशं पूर्वसंयोगवि-y नाशलक्षणपरिणामापत्त्या विनष्टम् । उत्तरसंयोगोत्पादाख्यपरिणामानुभवाच्चोत्पन्नम् । उभयत्राकाशद्रव्यस्यानुग| तत्वाच्चोत्पादव्यययोरेकाधिकरणत्वम् । इसी प्रकार उत्पाद, व्यय तथा धौव्य (स्थिरता ) खरूप होनेसे आकाश भी नित्य और अनित्य, इन दोनों धर्मोंका ही धारक है। तथाहि-'अवकाशको देनेवाला आकाश है' इस वचनसे 'आकाशके भीतर रहनेवाले जो जीव तथा पुद्गल है, उनको IN स्थान देकर, उनका उपकार करना ' यही आकाशका लक्षण है । और जब उसमें रहनेवाले जीव तथा पुद्गल किसी दूसरेकी प्रेरणासे अथवा अपने खभावसे एक आकाशके प्रदेशसे दूसरे आकाशके प्रदेशमें गमन करते है, तब उस आकाशका उन रहनेवाले जीव और पुद्गलोंके साथ एक प्रदेशमें तो विभाग ( वियोग ) होता है । और दूसरे प्रदेशमें सयोग होता है। भावार्थ-लोकाकाश असख्यात प्रदेशी है, इसलिये जब इसके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशमें जीव पुद्गल जाते है, तब आकाशके १ उपकारः । २ पुरुपशक्तितः । ३ स्वभावतः । ४ प्राप्तिपूर्विकाऽग्राप्तिर्विभागः । ५ अप्राप्तिपूर्विका प्राप्ति सयोग. । ६ उभयथा भेदो वस्तूनां लक्षणभेदात्कारणभेदाचेति । अयमेव हि घटपटयोआंदो यजलाहरणादिशीतत्राणादिविरुद्धधर्माध्यासः ॥ अयमेव हि भेदहेतुर्वा यन्मूत्पिण्डादितन्वादिकारणभेद । ॥१५॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक प्रदेशमें विभाग और दूसरेमें संयोग होता है । और संयोग तथा विभाग ये दोनों परस्पर विरोध रखनेवाले धर्म हैं । अर्थात् जहां सयोग रहता है, वहां विभाग, नहीं रह सकता है और जहां विभाग रहता है, वहां संयोग नहीं रह सकता है । इसलिये जब कि, संयोग और विभागमें भेद हुआ अर्थात् संयोग जुदा और विभाग जुदा रहा तो धर्मी ( इन दोनों संयोग और विभाग रूप धर्मोको धारण करनेवाला ) जो आकाश है, उसके भी अवश्य ही भेद हुआ । सो ही कहा है कि, जो “ विरुद्ध धर्मोका रहना है, सो तो भेद है और जो भिन्न २ कारणोंका होना है, वही भेदका कारण है । भावार्थ-पदार्थोका लक्षणके भेदसे । अथवा कारणके भेदसे भेद होता है । जैसे घट और पटमें यही भेद है कि, घट तो जल लाने आदिरूप धर्मोको धारण करता है और पट ( वस्त्र ) शीतसे वचाने आदिरूप धर्मोको धारण करता है । और यही इन दोनोंमें भेद कारण है कि, घट तो K मृत्तिकाके पिंड आदिरूप कारणों से उत्पन्न होता है और पट तंतु आदि कारणों से उत्पन्न होता है । और जब धर्मोंके भेदसे 5 धर्मीमें भेद हुआ, तो, वह आकाश पूर्वपदार्थका जो संयोग था उस संयोगके विनाशरूप परिणामको धारण करनेसे नष्ट हुआ और दूसरे प्रदेशमें जो पुद्गलका संयोग हुआ इस कारण उस संयोगके उत्पाद ( उत्पत्ति ) नामक परिणामको अनुभवन ( धारण ) करनेसे वह आकाश उत्पन्न हुआ । और आकाश द्रव्य उन दोनों विनाश और उत्पादरूप अवस्थाओंमें द्रव्यरूपसे अनुगत ( चला आ रहा ) है अर्थात् विद्यमान है, उसका नाश नहीं हुआ है, इसलिये उत्पाद और व्यय इन दोनोंका एक IN आकाश ही अधिकरण अर्थात् रहनेका स्थान है ॥ क तथा च “यदप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यम्” इति नित्यलक्षणमाचक्षते तदपास्तम्। एवंविधस्य कस्यचिद्वIN|| स्तुनोऽभावात्। “तद्भावाऽव्ययं नित्यम्।” इति तु सत्यं नित्यलक्षणम् । उत्पादविनाशयोः सद्भावेऽपि तद्भावाद-IN न्वयिरूपाद्यन्न व्येति तन्नित्यमिति तदर्थस्य घटमानत्वात् । यदि हि अप्रच्युतादिलक्षणं नित्यमिष्यते तदोत्पादव्यययोर्निराधारत्वप्रसङ्गः। न च तयोर्योगे नित्यत्वहानिः। "द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिताः।क्क कदा मा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा।१।” इति वचनात् । न चाकाशं न द्रव्यम् । १ नित्यत्वार्थस्य । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ १६ ॥ और इस पूर्वोक्त कथनसे “ जो कभी अपने खरूपसे गिरै नहीं, अर्थात् नष्ट न हो, उत्पन्न न हो और स्थिर एकरूप रहे, वह नित्य है " ऐसा जो वादियोंने नित्यका लक्षण कहा है, उसका खंडन होगया। क्योंकि, जिसका नाश और उत्पाद न हो | और सदा स्थिर एक रूप रहै, ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है । और जैनतत्त्वार्थसूत्रकारने “ तद्भावाव्ययं नित्यम् " ( पदार्थ के स्वभावका जो नाश न होना है, सो नित्य है ) यह जो नित्यका लक्षण कहा है, वह तो सत्य है । क्योंकि, 'उत्पाद और विनाशके होनेपर भी संबंधित स्वरूप जो पदार्थका भाव (स्वरूप) है उससे जो नष्ट न हो अर्थात् रहित न हो, वह नित्य है' यह जो नित्यका अर्थ | है, वह पदार्थों में घटता हुआ है अर्थात् सिद्ध है । और यदि वादियोंका माना हुआ जो अप्रच्युत आदि पूर्वोक्त लक्षणका धारक नित्य है, उसको स्वीकार किया जाय तो उत्पाद और व्ययके निराधारताका प्रसंग हो जावे अर्थात् उत्पाद और व्ययका कोई भी पदार्थ आधार न रहै । और हम जो उत्पाद तथा व्ययका पढार्थमें संयोग मानते हैं, उससे पदार्थकी नित्यतामें कोई हानि नहीं होती है । क्योंकि, " पर्यायके विना द्रव्य और द्रव्यके विना पर्याय किसीने किसी समय किसी स्थलमें किसी रूपवाले किसी प्रमाणसे भी नही देखे है ? अर्थात् कोई भी कही भी किसी भी प्रमाणसे पर्याय रहित द्रव्य और द्रव्यरहित पर्याय नहीं देख सकता है। १ । ऐसा जैनशास्त्रोंका वचन है । और आकाश द्रव्य नहीं है ऐसा नहीं है, अपि तु है ही है । लौकिकानामपि घटाकाशं पटाकाशमिति व्यवहारप्रसिद्धेराकाशस्य नित्याऽनित्यत्वम् । घटाकाशमपि हि यदा घटापगमे पटेनाक्रान्तं तदा पटाकाशमिति व्यवहारः । न चायमौपचारिकत्वादप्रमाणमेव । उपचारस्यापि किञ्चित्साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पर्शित्वात् । नभसो हि यत्किल सर्वव्यापकत्वं मुख्यं परिमाणं तत्तदाधेयघटपटादिसम्बन्धिनियत परिणामवशात्कल्पितभेदं सत्प्रतिनियतदेशव्यापितया व्यवह्रियमाणं घटाकाशपटाकाशादितत्तद्व्यपदेशनिबन्धनं भवति । तत्तद्घटादिसम्बन्धे च व्यापकत्वेनावस्थितस्य व्योम्नोsवस्थान्तरापत्तिस्ततश्चावस्थाभेदेऽवस्थावतोऽपि भेदस्तासां ततोऽविष्वग्भावात् । इति सिद्धं नित्यानित्यत्वं व्योम्नः । - तथा जैनी ही आकाशको नित्य - अनित्य मानते है, ऐसा नहीं है । क्योंकि, लौकिक अर्थात् सर्वसाधारण जन है, उनके भी "यह, घटका आकाश है, यह पटका आकाश है" ऐसा व्यवहार प्रसिद्ध है । इस लिये वे भी आकाशको नित्यानित्य ही मानते है । क्योंकि घटका आकाश जब घटके दूर होजानेपर पटसे युक्त होता है, तब पटाकाश ऐसा व्यवहार होता है । और यह व्यवहार उपचार से रा. जै. शा ॥ १६ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न हुआ है इस कारणसे अप्रमाण है, यह भी तुम नही कह सकते हो। क्योंकि, जो उपचार होता है, वह भी किसी नशा || किसी साधर्म्यद्वारा मुख्य अर्थको स्पर्श करनेवाला होता है अर्थात् मुख्य अर्थके अनुकूल ही प्रवर्त्तता है । क्योंकि, आकाशका जो सर्वव्यापक ( सबमें फैल कर रहने ) रूप मुख्य परिमाण है, वह उसमें रहनेवाले जो घट पट आदि है, उन घटपटादिकसे संबंध || रखनेवाला जो नियत परिमाण है, - उसके वशसे भेदकी कल्पनाको प्राप्त होकर, उन प्रतिनियत घट आदि देशोंमें व्यापीपनेसे व्यवहारमें लाया जाता है, तब घटाकाश, पटाकाश आदि व्यवहारोंका कारण होता है। और व्यापकरूपसे स्थित जो आकाश है. उसके भी उन २ घटपट आदिका संबंध होनेपर एक अवस्थासे दूसरी अवस्थाकी प्राप्ति होती है । और जब अवस्थाका भेद हुआ तो उन अवस्थाओंका धारक जो आकाश है उसका भी भेद हुआ। क्योंकि, वे अवस्थायें आकाशसे व्याप्त (अभिन्न ) होकर रहती है। |इसप्रकार आकाशमें नित्य तथा अनित्य ये दोनों धर्म सिद्ध हुए॥ || स्वायंभुवा अपि हि नित्यानित्यमेव वस्तु प्रपन्नाः । तथा चाहुस्ते-त्रिविधः खल्वयं धर्मिणः परिणामो धर्मलक्षणावस्थारूपः। सुवर्ण धम्मि। तस्य धर्मपरिणामो वर्द्धमानरुचकादिः। धर्मस्य तु लक्षणपरिणामो-AVM नागतत्वादिः। यदा खल्वयं हेमकारो वर्द्धमानकं भक्तवा रुचकमारचयति तदा वर्द्धमानको वर्तमानतालक्षणं हित्वा अतीततालक्षणमापद्यते। रुचकस्तु अनागततालक्षणं हित्वा वर्तमानतामापद्यते । वर्तमानतापन्न एव रुचको नवपुराणभावमापद्यमानोऽवस्थापरिणामवान् भवति । सोऽयं त्रिविधः परिणामो धमिणः । धर्मलक्षणावस्थाश्च धमिणो भिन्नाश्चाभिन्नाश्च । तथा च ते धर्म्यभेदात्तन्नित्यत्वेन नित्याः। भेदाच्चोत्पत्तिविनाशनाविषयत्वम् । इत्युभयमुपपन्नमिति । सांख्यमतवालोंने भी पदार्थको नित्य तथा अनित्य ही माना है । सो ही वे सांख्य कहते है, कि-"धर्मीका जो परिणाम है, वह धर्म १ लक्षण २ और अवस्था ३ इन भेदोंसे तीन प्रकारका है। जैसे कि, सुवर्ण धर्मी है । उस सुवर्णका जो वर्द्धमान (प्याला)| |तथा रुचक ( कंठा) आदि पर्याय है, वह धर्मीका धर्मपरिणाम १ है । और धर्मका जो भविष्यत् काल आदिमें होना है, वह || १ साङ्ख्याः । २ ग्रीवाभरणं ॥ - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा, जाद्वादमाधर्मीका लक्षणपरिणाम २ है। अर्थात् जब यह सुवर्णकार ( सोनी) वर्द्धमानको तोडकर रुचक बनाता है, तब वर्द्धमान वर्त- मानता ( विद्यमानपने रूप) लक्षणको त्याग कर अतीतता (हो चुकनेरूप) लक्षणको प्राप्त होता है । और रुचक अनागतता ॥ १७॥ होनेवाले रूप ) लक्षणको छोड़कर, वर्तमानता लक्षणको ग्रहण करता है । और वर्तमानताको प्राप्त जो रुचक है, वही नयेपनेको तथा पुराणेपनेको धारण करता हुआ धर्मीके अवस्थापरिणामवाला होता है । वह जो यह तीन प्रकारका परिणाम है, सो धर्मीका है। और धर्म, लक्षण, तथा अवस्था ये तीनो धमीसे भिन्न भी है तथा अभिन्न भी है । तथा वे धर्म लक्षण और अवस्थारूप परिणाम धर्मीसे अभिन्न है, इस कारण धर्माकी-नित्यतासे नित्य है। और धर्मीसे भिन्न होनेके कारण उत्पत्ति तथा विनाशके विषय है । अर्थात् अनित्य है । भावार्थ-साख्यमतवाले पदार्थके पर्यायोंको धर्म मानते है । पर्यायोमे जो कालका परिवर्तन है, उसको लक्षण कहते है। और वर्तमानपर्यायमे जो नया पुराणापन होता है, उसको अवस्था कहते है। ये तीनो किसी अपेक्षासे पदार्थसे अभिन्न होनेके कारण नित्य है । और किसी अपेक्षासे पदार्थसे भिन्न है, इसलिये अनित्य है । इस प्रकार पदार्थमें नित्य | तथा अनित्य ये दोनों धर्म सिद्ध होते है । ___ अथोत्तरार्द्ध विवियते । एवं चोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वे सर्वभावानां सिद्धेऽपि तद्वस्तु एकमाकाशात्मादिकं नित्यमेव, अन्यच्च प्रदीपघटादिकमनित्यमेव । इत्येवकारोऽत्रापि सम्बध्यते । इत्थं हि दुर्नयवादापत्तिः। अनन्तधात्मके वस्तुनि स्वाभिप्रेतनित्यत्वादिधर्मसमर्थनप्रवणाः शेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्तमाना दुर्नया इति तल्लणात् । इत्यनेनोल्लेखेन त्वदाज्ञाद्विषतां भवत्प्रणीतशासनविरोधिनां प्रलापाःप्रलपितान्यसम्बद्धवाक्यानीति यावत्। अब काव्यके उत्तरार्धकी व्याख्या करते है। इस पूर्वोक्त प्रकारसे सब पदार्थोके उत्पाद विनाश और ध्रौव्य स्वरूपता सिद्ध होने पर भी 'तत' वह 'एक' आकाश, आत्मा आदि एक प्रकारके पदार्थ 'नित्यं नित्य 'एव' ही है । और 'अन्यत' दीपक, घट आदि दूसरे पदार्थ 'अनित्यं' अनित्य 'एव' ही है। [यहां नित्यके साथ जो 'एव पद लगाया गया है, वह अनित्यके साथ निश्शेषाशजपा प्रमाणविषयीभूय समासेदुपा वस्तूना नियताशकल्पनपरा. सप्त श्रुताः सङ्गिन । औदासीन्यपरायणास्तदपरे चांशे भवेयुर्नयाश्रेदेकाशकलरूपककलुपास्ते स्यु सदा दुर्णया । ।। इति नयदुर्जययोर्लक्षणम् । २ बवकक्षा. ३ प्रकारेण । ॥१७॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी लगाया जाता है और इस प्रकार माननेमें दुर्नयवादकी प्राप्ति होती है । क्योंकि, “अनन्तधर्मस्वरूप जो वस्तु है, उसमें विद्यमान अन्य सब धर्मोको दूर करके प्रवर्त होते हुए और अपने अभीष्ट जो नित्यत्व आदि रूप एक धर्म है, उसको सिद्ध करनेमें | | तत्पर ऐसे जो नय है, वे दुर्नय है।" यह उन दुर्नयोंका लक्षण है । 'इति' इस प्रकारसे "त्वदाज्ञाद्विषतां" आपके कहे हुए | मतसे विरोध रखनेवाले वादियोंके 'प्रलापाः' सबंधरहित वाक्य ( बकवाद ) है । ___ अत्र च प्रथममादीपमिति परप्रसिद्ध्याऽनित्यपक्षोल्लेखेऽपि यदुत्तरत्र यथासंख्यपरिहारेण पूर्वतरं नित्यमेवैकमित्युक्तम् । तदेवं ज्ञापयति यदनित्यं तदपि नित्यमेव कथंचित्, यच्च नित्यं तदप्यनित्यमेव कथंचित् । प्रकान्तवादिभिरप्येकस्यामेव पृथिव्यां नित्याऽनित्यत्वाभ्युपगमात् । तथा च प्रशस्तकारः-“सा तु द्विविधा नित्याऽनित्या च । परमाणुलक्षणा नित्या। कार्यलेक्षणात्वनित्या इति । | यहां पर आचार्यने श्लोकके पूर्वार्धमें "आदीपं" इत्यादिसे वादियोंकी प्रसिद्धिसे ( वादियोंके मतके अनुसार ) पहले अनित्यपक्षका कथन किया है। तो भी उत्तरार्धमें क्रमका उल्लघन करके पहिले वह एक पदार्थ नित्य ही है, इस प्रकार जो नित्य पक्षको कहा है अर्थात् जैसे पूर्वार्धमें पहले अनित्य और पीछे नित्यका कथन किया है, इसी प्रकार उत्तरार्धमें भी पहले अनित्य और पीछे नित्य कहना चाहिये था; परतु आचार्यने ऐसा न करके उत्तरार्धमें पहले नित्य और पीछे अनित्य कहा है । सो यह जनाता है, कि, जो अनित्य है, वह भी कथंचित् नित्य ही है । और जो नित्य है, वह भी किसी अपेक्षासे अनित्य ही है । क्योंकि वैशेषि कोंने भी एक ही पृथिवीमें नित्यत्व तथा अनित्यत्व रूप दोनों धर्म स्वीकार किये है । सो ही वैशेषिक दर्शनपर प्रशस्तभाप्यके | N बनानेवाले कहते है, कि वह पृथिवी दो प्रकारकी है । एक नित्य और दूसरी अनित्य । इनमें परमाणुरूप जो पृथ्वी है, वह तो नित्य है, और कार्यरूप जो पृथ्वी है, वह अनित्य है।" न चात्र परमाणुद्रव्यकार्यलक्षणविषयद्वयभेदान्नैकाधिकरणं नित्यानित्यत्वमिति वाच्यम् । पृथिवीत्वस्योभयत्राप्यव्यभिचारात् । एवमबादिष्वपीति । आकाशेऽपि संयोगविभागाङ्गीकारात्तैरनित्यत्वं युक्त्या प्रतिपन्नमेव । १ भाष्यकारः। २ ब्यणुकादिलक्षगा । - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ १८ ॥ | तथा च स एवाह - " शब्द कारणत्ववचनात्संयोगविभागौ ” इति । नित्याऽनित्यपक्षयोः संवलितत्वमेतच्च लेशतो भावितमेवेति । यहा “भाप्यकारने जो परमाणुद्रव्य और कार्य रूपसे विषयका भेद कहा है अर्थात् नित्यका विषय परमाणुद्रव्यरूप पृथ्वी और अनित्यका विषय कार्यरूप पृथ्वी मानी है । इसकारण नित्य और अनित्य इन दोनो धमका अधिकरण ( पृथ्वीरूप धर्मी ) एक नहीं है" ऐसा न कहना चाहिये । क्योंकि, पृथिवीत्वका अव्यभिचार है । अर्थात् पृथिवीत्व जो है, वह परमाणुरूप तथा कार्यरूप दोनों पृथिवियोंमें ही वर्त्तमान है । जल आदिकमें भी उन्होने इसीप्रकार नित्य तथा अनित्य रूप दोनों धर्म माने है । और सयोग तथा विभागको स्वीकार करनेके कारण उन्होंने आकाशमें भी युक्ति अनित्यता मानी ही है । | सो ही आकाशमें सयोग और विभागको स्वीकार करनेके लिये प्रशस्तभाप्यकार कहते है कि, " आकाश शब्दका कारण हैं, इस वचनसे आकाशमें संयोग और विभाग है ।" और इस कथनसे आकाश नित्य तथा अनित्य इन दोनों पक्षोंमें ही मिला हुआ है अर्थात् नित्य अनित्य रूप है । यह आशय किंचितमात्र भाष्यकारने प्रकट किया ही है ॥ प्रलापप्रायत्वं च परवचनानामित्थं समर्थनीयम् । वस्तुनस्तावदर्थक्रियाकारित्वं लक्षणम् । तच्चैकान्तनित्याsनित्यपक्षयोर्न घटते । अप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपो हि नित्यः । स च क्रमेणार्थक्रियां कुर्वीत, अक्रमेण वा । अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणां प्रकारान्तरासम्भवात् । तत्र न तावत्क्रमेण । स हि कालान्तरभाविनीः क्रियाः | प्रथम क्रियाकाल एव प्रसह्य कुर्यात् । समर्थस्य कालक्षेपायोगात् । कालक्षेपिणो वाऽसामर्थ्यप्राप्तेः । समर्थोऽपि | तत्तत्सहकारिसमवधाने तं तमर्थ करोतीति चेत्-न तर्हि तस्य सामर्थ्यम् । अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात् । | सापेक्षम समर्थमिति न्यायात् । 1 उन वादियोके वचन प्रलापके समान है, ऐसा जो आचार्यने कहा है, उसका समर्थन इस प्रकार करना चाहिये । "अर्थक्रियाको जो करै वह वस्तु ( पदार्थ ) है" यह पदार्थका लक्षण है । और वह लक्षण एकान्त नित्य तथा एकान्त अनित्य इन दोनों 1 परस्परष्टथक्भूतानां क्रियाणां । रा. जै.शा. ॥ १८ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षोंमें ही नहीं घटता है । क्योंकि, "जिसका कभी नाश न हो, जो कभी उत्पन्न न हो और सदा एक रूप रहै वह नित्य है" यह वादियोंके माने हुए नित्यका लक्षण है। यहां हम ( जैनी ) प्रश्न करते है कि, वह नित्यपदार्थ क्रमसे ( सिलसिलेवार अथवा I नंबरवार ) अर्थक्रियाको करै ? अथवा अक्रमसे (बे सिलसिलेसे ) अर्थक्रियाको करै । क्योंकि, परस्पर भिन्नखरूपको धारण करनेवाली जो क्रियायें हैं, वे इन कहे हुए क्रम और अक्रम रूप दो प्रकारोंके सिवाय किसी तीसरे प्रकारसे नहीं हो सकती है।। अब यदि इन दो प्रश्नोंके उत्तरमें वादी यह कहै कि "वह नित्यपदार्थ क्रमसे अर्थक्रियाको करता है" तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि, वह नित्यपदार्थ समर्थ है, इसलिये दूसरे क्षणों में होनेवाली जो क्रियायें है, उनको प्रथम क्रियाके समय (प्रथम क्षण में ही बलात्कार ( जबरदस्ती ) से कर सकता है। कारण कि, जो समर्थ है, वह कार्यके करनेमें विलंब नहीं करता है । अथवा जो कार्यके करनेमें विलंब करता है, वह असमर्थ है। अब इसपर वादी यह कहै कि जो समर्थ होता है, वह भी उन २ सहकारी || ( मददगार ) कारणोंके सयोग होने ( मिलने ) पर ही उस २ अर्थ ( प्रयोजन )को करता है तो वह नित्य पदार्थ समर्थ नहीं है, यही सिद्ध हुआ। क्योंकि, वह नित्य पदार्थ दूसरे सहायकोंकी अपेक्षासहित रहता है, और जो 'दूसरेकी अपेक्षा रखता है, वह असमर्थ होता है' यह न्याय है ॥ | न तेन सहकारिणोऽपेक्ष्यन्ते। अपि तु कार्यमेव सहकारिष्वसत्स्वभवत् तानपेक्षत इति चेत् तत् किं स भावोsसमर्थः समर्थो वा। समर्थश्चेत्किं सहकारिमुखप्रेक्षणदीनानि तान्युपेक्षते । न पुनर्झटिति घटयति । ननु समर्थमपि बीजमिलाजलानिलादिसहकारिसहितमेवाङ्करं करोति नान्यथा। तत् किं तस्य सहकारिभिः किञ्चिदुपक्रियेत न वा । यदि नोपक्रियेत तदा सहकारिसन्निधानात्प्रागिव किं न तदाप्यर्थक्रियायामुदास्ते। उपक्रियेत चेत्सतर्हि तैरुपकारोऽभिन्नो भिन्नो वा क्रियत इति वाच्यम् । अभेदे स एव क्रियते । इति लाभमिच्छतो मूलक्षति| रायाता । कृतकत्वेन तस्यानित्यत्वापत्तेः । अब यदि वादी यह कहै, कि वह नित्य पदार्थ खय (खुद) सहकारी कारणोंकी अपेक्षा नहीं करता है किन्तु सहकारीकारणोंके अभावमें नहीं होता हुआ कार्य ही, उन सहकारियोंकी अपेक्षा करता है । तो हम (जैनी ) फिर पूछते है कि, वह नित्यपदार्थ | | समर्थ है ? वा असमर्थ है । यदि वह समर्थ है तो सहकारीकारणोंके मुख देखनेसे दीन हुए अर्थात् सहकारीकारणोंके विना Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमं. ॥१९॥ नहीं होते हुए उन कार्योंकी उपेक्षा क्यों करता है। शीघ्र ( झटपट ) ही उन कार्योंको क्यों नहीं बना डालता है। यदि वादी यह कहै कि, वृक्षका वीज समर्थ है, तो भी जव उसके साथ पृथिवी, जल और वायु आदि सहकारी कारणोंका सयोग होता है, तभी वह बीज अकुरेको उत्पन्न करता है और पृथिवी आदि सहकारियोंका अभाव हो तो, वह समर्थ भी बीज अकुरको उत्पन्न ४ नहीं कर सकता है। इसी प्रकार नित्य पदार्थ समर्थ है, तो भी सहकारियोंके बिना कार्यको नहीं करता है । तो हम ( जैनी) पूछते है कि, सहकारी उस नित्यपदार्थका कुछ उपकार करते है या नहीं। यदि वादी यह कहै कि, “सहकारीकारण जो है वे का कुछ भी उपकार नहीं करते है।" तो वह पदार्थ जैसे सहकारियोंके मिलने के पहले अर्थक्रिया उदास था, वैसे ही सहकारियोंका सयोग होने पर भी अर्थक्रियामें उदास क्यों नहीं रहता है अर्थात् सहकारी जब पदार्थका उपकार नहीं करते है तो 9 जैसे सहकारियोंके बिना वह पदार्थ कार्यको नहीं कर सकता था वैसे ही उन सहकारियोंके सद्भावमें भी कार्यको न करै । कदाचित् वादी कहै कि जो सहकारी है, वे पदार्थका उपकार करते है तो हम (जैनी) पूछते है कि सहकारी जो उपकार करते है, । वह पदार्थसे अभिन्न (मिला हुआ) करते है, वा भिन्न करते है। यदि सहकारी पदार्थसे अभिन्न ही उपकार करते है, ऐसा कहो, हु, तो सिद्ध हुआ कि वह नित्यपदार्थ ही अर्थक्रियाको करता है । और जब ऐसा हुआ तो जो वादी लाभको चाहते थे उनके मूलका भी नाश हुआ। क्योंकि, कृतकपनेसे उस पदार्थके अनित्यताकी प्राप्ति होगई । भावार्थ-यदि वादी सहकारियोंके उपकार V को नित्यपदार्थसे अभिन्न कहै, तो वह नित्यपदार्थ ही अर्थक्रियाको करता है यह सिद्ध हुआ। और तब जैसे कोई व्याजकी इच्छासे किसीको द्रव्य देवै और फिर वह द्रव्य लेनेवाला पीछा द्रव्य न दे तो व्याज चाहनेवालेके व्याजकी तो हानि हो ही हो परन्तु मूलy धन भी नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार पहले जो 'नित्यपदार्थ क्रमसे अर्थक्रिया करता है वा अक्रमसे' यह प्रश्न किया था। इसका र तो उत्तर वादी दे-ही न सके और सिवायमें अपने उसे नित्यपदार्थको अनित्य वना बैठे । क्योंकि, जो पदार्थ अपने खभावकी सिद्धिमें दूसरेके व्यापारकी इच्छा करता है, वह कृतक कहलाता है और जो कृतक होता है वह अनित्य होता है। यहा पर बादीके कथनानुसार जब पदाथेने सहकारियोंकी अपेक्षा रक्खी तो वह पदार्थ कृतक हुआ और कृतक होनस वह पढाथ नित्य न रहा, किन्तु अनित्य हो गया। __ भंदे तु स कथं तस्योपकारः किं न सह्यविन्ध्यागुरपि । तत्संबन्धात्तस्यायमिति चेत्-उपकार्योपकारयोः क ॥१९॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धः । न तावत्संयोगो द्रव्ययोरेव तस्य भावात् । अत्र तु उपकार्य द्रव्यं, उपकारश्च क्रियेति न संयोगः। नापि समवायस्तस्यैकत्वाद् व्यापकत्वाच्च प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावेन सर्वत्र तुल्यत्वान्न नियतैः सम्बन्धिभिः॥ सम्बन्धो युक्तः । नियतसंबन्धिसंबन्धे चाङ्गीक्रियमाणे तत्कृत उपकारोऽस्य समवायस्याभ्युपगन्तव्यः । तथा च । सत्युपकारस्य भेदाभेदकल्पना तदवस्थैव । उपकारस्य समवायादभेदे समवाय एव कृतः स्यात् । भेदे पुनरपि । समवायस्य न नियतसम्बन्धिसंबंधत्वम् । तन्नैकान्तनित्यो भावः क्रमेणार्थक्रियां कुरुते। | अब यदि वादी यह कहैं कि-सहकारियोंका जो उपकार है वह पदार्थसे भिन्न है, तो वह उपकार जब पदार्थ से जुदा हुआ तब | यह कैसे मालुम हुआ कि, यह उपकार पदार्थका ही है सह्य और विंध्य नामक जो दो पर्वत है, उनको आदि ले अन्य पदार्थोंका भी क्यों नहीं है । भावार्थ-उपकारसे जैसे नित्य पदार्थ भिन्न है, वैसे ही सह्याचल, विध्याचल भी भिन्न है । तब यह उपकार नित्यपदार्थका ही है यह कैसे जान पड़ा ? इसके उत्तरमें यदि वादी यह कहै कि नित्यपदार्थके साथ उस उपकारका संबंध है, इसलिये जान लिया जाता है कि, यह उपकार इस नित्यपदार्थका है" तो हम (जैनी) पूछते है कि, उपकार्य ( जिसके ऊपर उपकार किया जाय ) और उपकार इन दोनोंके परस्पर कौनसा संबन्ध है ? । यदि कहो कि, 'उपकार्य ( पदार्थ )के और उपM कारके संयोग नामक संबन्ध है' तो यह तो हो नहीं सकता । क्योंकि, जो संयोग संबन्ध होता है, वह परस्पर द्रव्योंके ही होता है अर्थात् द्रव्यके साथ जो द्रव्यका संबन्ध होता है, वही संयोग संबन्ध कहलाता है और यहांपर जो उपकार्य है, वह तो द्रव्य है तथा उपकार है वह क्रिया है । इसकारण इनमें सयोग संबन्ध नहीं है । फिर यदि वादी यह कहै कि 'उपकार्य और उपकारके समवाय सबन्ध है' तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि, वह समवाय एक और व्यापक (सबमें रहनेवाला) है । इसकारण उस समवाय संबन्धके न तो कोई पदार्थ समीप है ? और न दूर है। सब पदार्थों में वह समवाय समान है । इस लिये नियत संवन्धियोंके साथ उस समवायसंवन्धका मानना ठीक नहीं है । और यदि वादी नियतसंबन्धियोंके साथ समवायका संवन्ध स्वीकार ही करें तो उनको उन सहकारियोंसे किया हुआ जो उपकार है, वह इस समवायका मानना चाहिये । और ऐसा जब हुआ तो जो पहले उपकारके विषयमें भेद तथा अभेद रूप दो कल्पनायें की गई थी वे वैसीकी वैसी ही रही। और जब समवायसे उपकारका अभेद माना गया तब तो सहकारियोंने उपकार नहीं किया कितु समवाय ही किया। और जो भेद माना तो फिर भी - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमं. ॥२०॥ 'समवायका नियतसंबन्धियोंके साथ संबन्ध नहीं है। इस कथनसे संबन्धका अभाव आया । अर्थात् उपकार और समवायके भेदलाव.शा.. माननेमें इन दोनोंके संयोगसंबंध तो हो नहीं सकता । क्योंकि वह द्रव्योंके ही होता है और समवाय संबंध मानें तो वह व्यापक है इसलिये नियतसंबधियोंके साथ उसका संबंध नही हो सकता है । इस कारण जो एकान्त नित्य पदार्थ है, वह क्रमसे अर्थक्रियाको नहीं करता है । यह सिद्ध हुआ । Nil नाप्यक्रमेण । नोको भावःसकलकालकलाकलापभाविनीयुगपत् सर्वाः क्रियाः करोतीति प्रातीतिकम् । कुरुतां वा तथापि द्वितीयक्षणे किं कुर्यात् । करणे वा क्रमपक्षभावी दोषः । अकरणे त्वर्थक्रियाकारित्वाऽभावादवस्तुत्वप्रसङ्गः । इत्येकान्तनित्यात्क्रमाक्रमाभ्यां व्याप्तार्थक्रियाव्यापकानुपलब्धिवलाद्व्यापकनिवृत्तौ निवर्तमाना स्वव्याप्यमर्थक्रियाकारित्वं निवर्तयति । अर्थक्रियाकारित्वं च निवर्तमानं स्वव्याप्यं सत्त्वं निवर्तयति । इति नैकान्तनित्यपक्षो युक्तिक्षमः। | अब यदि कहो कि नित्य पदार्थ अक्रमसे अर्थक्रियाको करता है तो यह भी सिद्ध नहीं होता । क्योंकि 'एक पदार्थ समस्त कालकी कलाओंमें होनेवाली अर्थ क्रियाओंको एक ही समयमें कर लेता है। यह कथन प्रतीतिमें नहीं आता है । अथवा पदार्थ एक समयमें अर्थक्रियाओंको करै भी तो हम पूछते है कि, वह पदार्थ दूसरे क्षणमें क्या करेगा। यदि यह कहो कि–पदार्थ दूसरे क्षणमें भी अर्थक्रियाओंको ही करता है । तब तो जो दोष क्रमसे अर्थक्रिया करनेरूप पक्षमें होता है वही यहां भी होगा। अर्थात् प्रथम क्षणमें सब अर्थ क्रियाओंको करके अपनी व्यर्थता न होनेके लिये जो वह दूसरे क्षणमें फिर भी उन्ही अर्थक्रियामाओको करता है इस कारण उस पदार्थके असमर्थताकी प्राप्ति होगी। यदि कहोकि 'वह दूसरे क्षणमें कुछ भी नहीं करता है। तो दूसरे क्षणमे अर्थक्रियाकारित्वका अभाव होनेसे उस नित्य पदार्थक अवस्तुताका प्रसग होगा । इस प्रकार एकान्तनित्यपदार्थसे है क्रम और अक्रम करके व्याप्त जो अर्थक्रिया है, वह व्यापकके न मिलनेसे व्यापकके दूर होनेपर नष्ट होती हुई अपना व्याप्य जो अर्थक्रियाकारित्व है, उसको नष्ट करती है और नाशको प्राप्त होता हुआ जो अर्थक्रियाकारित्व है वह अपनेमें व्याप्य (रहनेवाला) ॥२०॥ जो सत्त्व है, उसको नष्ट करता है। भावार्थ-नित्य पदार्थसे जो अर्थक्रिया होती है, वह या तो क्रम करके हो और या अक्रम करके हो । और नित्यपदार्थसे 'क्रम तथा अक्रम करके अर्थक्रिया होती है, इस विषयका पूर्वोक्त प्रकारसे खंडन हो चुका है। इसलिये न मिलनताका मसग "है। भावारनाशको Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम और अक्रमसे व्याप्त (होनेवाली) जो अर्थक्रिया है, वह क्रम तथा अक्रमरूप व्यापकके न मिलनेसे नष्ट होती है । और अर्थl क्रियासे होनेवाला अर्थक्रियाकारित्व है, इसलिये नष्ट होती हुई अर्थक्रिया अपने व्याप्य अर्थक्रियाकारित्वका नाश करती है। और नष्ट होता हुआ जो अर्थक्रियाकारित्व है, वह अपनेमें व्याप्य (रहनेवाला) जो सत्त्व ( वस्तुत्व ) है, उसको नष्ट करता है । इसलिये वादियोंका-जो पदार्थको एकान्तनित्य माननेरूप पक्ष है, वह युक्तियोंको नहीं सहता । . ' ' एकान्ताऽनित्यपक्षोऽपि न कक्षीकरणाहः । अनित्यो हि प्रतिक्षणविनाशी । स च न क्रमेणार्थक्रियासमर्थः। देशकृतस्य कालकृतस्य च क्रमस्यैवाऽभावात् । क्रमो हि पौर्वापर्यम् । तच्च क्षणिकस्यासम्भवि । अवस्थितस्यैव हि नानादेशकालव्याप्तिर्देशक्रमः कालक्रमश्चाभिधीयते । न चैकान्तविनाशिनि सास्ति । यदाहुः-“यो यत्रैवल स तत्रैव यो यदैव तदैव सः। न देशकालयोर्व्याप्तिर्भावानामिह विद्यते।।" ही अब वैशेषिकोंका माना हुआ जो एकान्त अनित्य पक्ष है अर्थात् कितने ही पदार्थोंको सर्वथा अनित्य मानना है, वह भी पाखीकार करने योग्य नहीं है । क्योंकि, जो क्षणक्षणमें नष्ट होनेवाला है, उसको अनित्य कहते है । और वह अनित्यपदार्थ क्रमसे | अर्थक्रियाके करनेमें समर्थ नहीं है। क्योंकि, देश ( स्थान ) का किया हुआ और कालका किया हुआ जो क्रम है, उसीका उस . अनित्य पदार्थमें अभाव है। भावार्थ-यह इसके पहिले है, यह इसके पीछे है, इस प्रकारके व्यवहाररूप जो पौर्वापर्य है, वही क्रम है । और यह क्रम क्षणिक (क्षण क्षणमें नष्ट होनेवाले ) पदार्थके नहीं हो सकता है। क्योंकि, स्थिर ( नित्य ) पदार्थका जो अनेक की देशोंमें रहना है, वह तो देशक्रम कहलाता है, और अनेक कालोंमें रहना है, वह कालक्रम कहलाता है। और सर्वथा डा ५ अनित्यपदार्थके वह अनेक देश तथा कालमें व्याप्ति नहीं है । क्योंकि, बौद्धोंने कहा है कि, "जो पदार्थ जिस स्थानमें है, वहा उसी स्थानमें है। और जो पदार्थ जिस क्षणमें रहता है, वह उसीमें रहता है, अन्य क्षणमें नहीं । इस कारण हमारे क्षणिक मैतमें पदार्थोंकी देश और कालेमें व्याप्ति नहीं है। १।" न च सन्तानापेक्षया पूर्वोत्तरक्षणानां क्रमः सम्भवति । सन्तानस्याऽवस्तुत्वात् । वस्तुत्वेऽपि तस्य . यदि क्षणिकत्वं न तर्हि क्षणेभ्यः कश्चिद्विशेषः । अथाऽक्षणिकत्वं तर्हि समाप्तः क्षणभंगवादः। .. - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥२१॥ अब कदाचित् वादी कहै कि-संतानकी अपेक्षासे पूर्व और उत्तर क्षणों में क्रम हो सकता है अर्थात् प्रथम क्षणमें रहनेवाले पदा-बारा जै.शा., र्थका संतान दूसरे क्षणमें रहता है, इसलिये पूर्वक्षणके और उत्तरक्षणके क्रम हो सकता है । तो यह कहना ठीक नहीं । क्योंकि, संतान पदार्थ नहीं है । और जो कदाचित् संतानको पदार्थ मान भी लिया जावे, तो हम पूछते है कि, वह संतान क्षणिक है N] अथवा अक्षणिक (नित्य ) है ? यदि क्षणिक कहो तब तो संतानमें पदाथोंसे कोई विशेष (भेद) न हुआ अर्थात् जैसे | पदार्थ क्षणिक है, उसी प्रकार संतान भी क्षणिक हुआ तो जैसे क्षणिक होनेसे पदार्थमें कम नहीं होता है, वैसे ही संतानमें भी क्रम नहीं होगा। और यदि कहो कि, संतान अक्षणिक है, तो तुम्हारा क्षणभङ्गवाद समाप्त हुआ अर्थात् संतान पदार्थको तुमनें भी नित्य मान ही लिया । नाप्यक्रमेणार्थक्रिया क्षणिके सम्भवति । सोको बीजपूरादिक्षणो युगपदनेकान् रसादिक्षणान् जनयन् एकेन स्वभावेन जनयेत्, नानास्वभावैर्वा । यद्येकेन तदा तेषां रसादिक्षणानामेकत्वं स्यात् । एकस्वभावजन्यत्वात् । अथी नानास्वभावैर्जनयति, किश्चिद्रूपादिकमुपादानभावेन, किंचिद्रसादिकं सहकारित्वेन, इति चेत्-तर्हि ते स्वभावास्त| स्याऽत्मभूता अनात्मभूता वा। अनात्मभूताश्चेत्स्वभावत्वहानिः । यद्यात्मभूतास्तहि तस्यानेकत्वम् । अनेकस्वभा वत्वात् । स्वभावानां वा एकत्वं प्रसज्येत । तदव्यतिरिक्तत्वात्तेषां, तस्य चैकत्वात् । __ और क्षणिकपदार्थमें अक्रमसे भी अर्थक्रिया नहीं हो सकती है। क्योंकि, वह एक बीजपूर (विजोरा ) रूप पदार्थ एक ही समयमें अनेक रस आदि पदार्थोंको जो उत्पन्न करता है, सो एक खभावसे करता है ? वा अनेक खभावोंसे करता है ? यदि कहो कि, एक खभावसे उत्पन्न करता है, तब तो एक खभावसे उत्पन्न होनेके कारण उन रस आदि पदार्थोंके एकता हो जावेगी। अर्थात् बीजपूर जिस खभावसे रस पदार्थको उत्पन्न करता है, उसी खभावसे यदि रूप, गन्ध, स्पर्श आदि पदार्थोंको भी उत्पन्न करैगा, तो रूप, रस, गन्ध आदि सब पदार्थ एक हो जावैगे। क्योंकि वे सब एक खभावसे उत्पन्न हुए हैं वौद्धमतमें 'क्षण' शब्दसे की पदार्थका ग्रहण है और यह इसका धर्म (गुण) है, यह इसका धर्मी (गुणी ) है, ऐसा नहीं माना गया है। इसलिये जैसे वीजपूर | पदार्थ है, वैसे ही रूप रस आदि भी पदार्थ है। ] अब यदि कहो कि, वह बीजपूर पदार्थ रस आदिको अनेक खभावोंसे उत्पन्न १ बौद्धमते क्षणशब्देन पदार्थसंज्ञा क्षणिकरवारक्षणः ॥ २१ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN करता है अर्थात् किसी रूप आदिको उपादानभावसे उत्पन्न करता है और किसी रस आदि पदार्थको सहकारीभावसे उत्पन्न करता है। भावार्थ-चीजपूर रूप आदिकी उत्पत्तिमें तो खयं (खुद) उपादानरूपसे रहता है, और रस आदिकी उत्पत्तिमें वयं सहकारी कारण होकर रहता है, तो हम पूछते है कि, वे उपादान तथा सहकारी आदि भाव उस बीजपूरपदार्थके आत्मलभूत (निजस्वरूप ) है ? अथवा अनात्मभूत ( परखरूप ) है ! यदि कहो, कि-अनात्मभूत है, तब तो वे उपादानादिभाव उस बीजपूरपदार्थके खभाव ही नहीं है। और यदि कहो, कि- उपादानादिभाव बीजपूरपदार्थके आत्मभूत हैं, तो अनेक खभावरूप ल होनेसे उस बीजपूरपदार्थके अनेकता हो जावेगी अर्थात् जितने खभाव होंगे उतने ही उन खभावोंके धारक बीजपूरपदार्थ टा भी होंगे। अथवा उन खभावोंके एकताका प्रसङ्ग होगा। क्योंकि, वे उपादानादिभाव बीजपूरपदार्थसे अभिन्न है । और ही बीजपूर एक है। - अथ य एव एकत्रोपादानभावः स एवान्यत्र सहकारिभाव इति न स्वभावभेद इष्यते। तर्हि नित्यस्यैकरूपस्यापि क्रमेण नानाकार्यकारिणः स्वभावभेदः कार्यसांकय च कथमिप्यते क्षणिकवादिना । अथ नित्यमेकरूप-1ST वादक्रम, अक्रमाच क्रमिणां नानाकार्याणां कथमुत्पत्तिरिति चेत्-अहो स्वपक्षपाती देवानांप्रियो यः खलु स्वय-Mall मेकरमान्निरंशाद्रूपादिक्षणात्कारणाद्युगपदनेककारणसाध्यान्यनेककार्याण्यङ्गीकुर्वाणोऽपि परपक्षे नित्येऽपि वस्तुनि ||१|| क्रमेण नानाकार्यकरणेऽपि विरोधमुद्भावयति । तस्मात्क्षणिकस्यापि भावस्याऽक्रमेणार्थक्रिया दुर्घटा। को अब यदि कहो कि, जो स्वभाव एक स्थानमें उपादानभाव होकर रहता है, वही दूसरे स्थानमें सहकारीभाव हो जाता है, इसलिये की हम पदार्थमें खभावका भेद नहीं मानते है । तो हमारा ( जैनियोंका ) माना हुआ जो एक रूप और क्रमसे अर्थक्रिया करनेवाला नित्यपदार्थ है, उसके तुम क्षणिकवादियों ( बौद्धों ) ने स्वभावका भेद और कार्यसंकरत्व कैसे माना है। भावार्थ-नित्यपदार्थके माननेमें बौद्ध जो यह दोष देते है कि, “यदि नित्य पदार्थ क्रमसे एक खभावसे अर्थक्रिया करै, तब तो एक ही समयमें अपने सब I कार्य कर लेगा, इस कारण कार्यसंकरता ( सब कार्योंके अभिन्नता) हो जावेगी । और यदि अनेक खभावोंसे अर्थक्रिया करै तो खभा वका भेद होजानेके कारण उस नित्यपदार्थके क्षणिकताकी प्राप्ति होगी" सो उनका यह दोष देना ठीक नहीं है । क्योंकि, उन्होंने कभी तो एक क्षणिक पदार्थसे उपादान तथा सहकारीभावोंद्वारा अनेक कार्योंकी उत्पत्ति मानकर खभाव भेद नहीं माना है । अब - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोजै.शा. स्थाद्वादमं. Y यदि बौद्ध कहै, कि तुम्हारा माना हुआ नित्य पदार्थ एकरूप होनेसे अक्रम ( क्रमरहित ) है। और अक्रम पदार्थसे क्रमिक (क्रमसे होनेवाले ) अनेक कार्योंकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है। तो हमको खेद होता है कि, देवानांप्रिय ( मूर्ख ) बौद्ध अपना पक्षपाती ॥२२॥ है। क्योंकि, जो खयं एक और अंशरहित (क्षणमात्रवर्ती ) रूप आदि पदार्थरूप कारणसे अनेक कारणोंद्वारा सिद्ध होने योग्य IMG अनेक कार्योंकी उत्पत्ति मान करके भी नित्य पदार्थसें क्रमसे नानाकार्योंके करना माननेरूप भी पर ( हमारे ) पक्षमें विरोधको उत्पन्न करता है। भावार्थ-बौद्ध जब निरंश पदार्थ ही से एक क्षणमें क्रमिक अनेक कार्योंका होना मानता है, तब हम जो चिरकालIM स्थायी नित्यपदार्थसे क्रमद्वारा अनेक कार्योंका होना मानते है, उसमें दोष क्यों देता है । इसकारण सिद्ध हुआ कि क्षणिक पदार्थके .. भी अक्रमसे अर्थक्रिया नहीं हो सकती है। . इत्यनित्येकान्तादपि क्रमाऽक्रमयोर्व्यापकयोनिवृत्त्यैव व्याप्यार्थक्रियापि व्यावर्तते । तद्व्यावृत्तौ च सत्त्वमपि Kg व्यापकानुपलब्धिबलेनैव निवर्तते । इत्येकान्ताऽनित्यवादोऽपि न रमणीयः। . .. . इसप्रकार एकान्त अनित्य पदार्थसे भी क्रम अक्रमरूप व्यापककी रहिततासे ही व्याप्य जो अर्थक्रिया है, वह भी दूर होती और अर्थक्रियाके दूर होनेपर व्यापककी अप्राप्तिके बलसे ही सत्त्व भी दूर होता है । भावार्थ-अर्थक्रिया जो है सो क्रम और व अक्रमसे व्याप्त है, और एकान्त अनित्यपदार्थसे क्रम तथा अक्रमद्वारा अर्थक्रिया नहीं होती है । इसलिये अपने व्यापक जो क्रम अक्रम हैं, उनके अभावमें क्रम, अक्रमसें व्याप्य जो अर्थक्रिया है, वह दूर होती है । और नष्ट होता हुआ अर्थक्रियारूप व्यापक अपनेसे व्याप्य अर्थक्रियाकारित्वका नाश करता है । एव अपना व्यापक जो 'अर्थक्रियाकारित्व है, उसका अभाव होनेसे सत्त्व (वस्तुत्व ) भी नष्ट होता है। इस कारण एकान्त अनित्यवाद अर्थात् सर्वथा-पदार्थोंको अनित्य मानना भी ठीक नहीं है। - स्याद्वादे तु पूर्वोत्तराकारपरिहारस्वीकारस्थितिलक्षणपरिणामेन भावानामर्थक्रियोपपत्तिरविरुद्धा । न चैकत्र वस्तुनि परस्परविरुद्धधर्माध्यासाऽयोगादसन् स्याद्वाद इति वाच्यम् । नित्यानित्यपक्षविलक्षणस्य पक्षान्तरस्या- झीक्रियमाणत्वात् , तथैव च सर्वैरनुभवात् । तथा च पठन्ति ।- "भागे सिंहो नरो भागेयोऽर्थो भागद्वयात्मकः। तमभाग विभागेन नरसिंह प्रचक्षते । १।" इति। वैशेषिकैरपि चित्ररूपस्यैकस्यावयविनोऽभ्युपगमात् । एक ya ॥२२॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यैव पादेश्चलाचलरक्तारकावृतानावृतत्वादिविरुद्धधर्माणामुपलव्धेः, सौगतैरप्येकत्र चित्रपटीज्ञाने नीलानीलयोविरोधानङ्गीकारात् । .. ..... . . . . . . . . . . __ और स्याद्वादमें अर्थात् एक ही पदार्थमें कथंचित् नित्यता और अनित्यतारूप दोनों धर्मोको माननेवाले हमारे पक्षमें तो पूर्व IN आकारका त्याग करना १, उत्तर आकारका खीकार करना २, और सर्व अवस्थाओंमें द्रव्यखभावसे स्थित रहना ३, इन खरूप जो || उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य रूप परिणाम है, उसके माननेसे पदार्थों के अर्थक्रियाकी सिद्धि विरोध रहित है । शंका-एक पदार्थमें || परस्पर विरोध रखनेवाले नित्य और अनित्यरूप दोनों धर्मोका रहना असंभव है, इसकारण तुम्हारा स्याद्वाद मिथ्या है । समाधानऐसा न कहना चाहिये। क्योंकि, स्याद्वादमें नित्यपक्ष तथा अनित्यपक्षसे भिन्न जो नित्यानित्यरूप तीसरा पक्ष है, वह खीकार किया। गया है । और पदार्थोंमें इसी प्रकारसे अर्थात् नित्यानित्यरूपतासे ही सबको अनुभव भी होता है । सो ही दिखलाते है ।-"जो एक भागमें सिह है तथा दूसरे भागमें मनुष्य है, उस भागरहित पदार्थको विभाग करके नरसिंह कहते है ।१।' भावार्थ-नृसिंहावतार शरीरके एक भागमें तो सिंहके समान है, और दूसरे भागमें पुरुषके समान है, इसकारण यद्यपि वह एक ही शरीरमें परस्पर विरुद्ध दो आकृतियोंको धारण करनेसे भाग रहित है, तथापि लौकिकजन विभाग करके उसको नरसिंह कहते है। इसी प्रकार हमारा स्याद्वाद भी है । वैशेषिकोंने भी एक चित्ररूप अवयवी माना है अर्थात् रक्त, पीत, नील आदि अनेक वर्णरूप धर्मोंको धारण करनेवाले एक चित्ररूप पदार्थको जुदा माना है । और एक ही वस्त्र आदि पदार्थके चल ( हिलते हुए ) अचल ( नहीं | हिलते हुए) रक्त ( लाल ) अरक्त ( लालरंगसे भिन्न ) आवृत ( ढके हुए ) अनावृत ( नहीं ढके हुए ) आदि परस्पर विरुद्ध धर्मोंकी प्राप्ति होनेसे बौद्धोंने भी एक चित्र ( अनेक ) वर्णके धारक वस्त्रके ज्ञानमें नील वर्ण और नीलसे भिन्न-श्वेत, पीत आदि| वर्गों के परस्पर विरोध नहीं माना है ॥ भावार्थ-एक ही वस्त्र किसी भागमें तो हिलता रहता है और किसीमें नहीं हिलता है। एक भागमें लालवर्णको धारण करता है और दूसरे भागमें पीतवर्णको धारण करता है । एवं एक भागमें किसी दूसरेसे ढका हुआ रहता है और दूसरेमें खुला हुआ। ऐसा देखे जानेसे बौद्धोनें एक वस्त्रके ज्ञानमें नील और पीतवर्णका विरोध नहीं माना है। I अत्र च यद्यप्यधिकृतवादिनः प्रदीपादिकं कालान्तरावस्थायित्वात्क्षणिकं न मन्यन्ते । तन्मते पूर्वापरान्ता वच्छिन्नायाः सत्ताया एवानित्यतालक्षणात् । तथापि बुद्धिसुखादिकं तेऽपि क्षणिकतयैव प्रतिपन्नाः। इति तद Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विादमं. राजै.शा. ।२३॥ धिकारेऽपि क्षणिकवादचचो नानुपपन्ना । यदापि च कालान्तरावस्थायि वस्तु, तदापि नित्यानित्यमेव ।क्षणोऽपि न खलु सोऽस्ति यत्र वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं नास्ति । इति काव्यार्थः॥५॥ यद्यपि अधिकृत वादियोंने अर्थात् जिनका हमने यहां खण्डन किया है, उन वैशेपिकोंने एक क्षणके सिवाय अन्य क्षणोंमें भी विद्यमान रहनेसे प्रदीप आदि पदार्थोंको क्षणिक नहीं माने है अर्थात् वैशेषिकोंके मतमें प्रदीप आदि बहुत क्षणों में रहते है । | क्योंकि, उनके मतमें पूर्व और उत्तरके अन्तसे मिली हुई जो सत्ता है अर्थात् जिसका पहिले भी अभाव हो और पीछे भी अभाव N हो ऐसी जो पदार्थकी विद्यमानता है, वह ही अनित्यताका लक्षण है । भावार्थ-चौद्ध जैसे सब पदाथोंको क्षणस्थायी होनेसे) अनित्य कहते है, उसप्रकार वैशेपिक क्षणस्थायी पदार्थको अनित्य नहीं कहते, किंतु जिसका आदि और अन्त हो उस पदार्थको अनित्य मानते है । तथापि उन वैशेषिकोंने भी बुद्धि, सुख, दुःख आदि पदार्थोंको क्षणिकरूप ही स्वीकार किये है । इसकारण इस वैशेषिकोंके खण्डनमें भी जो हमने क्षणिकवादकी चर्चा कर डाली है, वह अनुचित नहीं है । और जब पदार्थ अन्य क्षणोंमें वर्त्त रहा है, उस समय भी वह पदार्थ नित्य तथा अनित्य, इन दोनों धर्मो रूप ही है। और वह कोई क्षण भी नहीं है कि, जिस क्षणम है पदार्थ उत्पाद व्यय और धौव्य खरूप न हो अर्थात् सब ही क्षणोंमें पदार्थ उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्यरूप लक्षणका धारक है । इसप्रकार काव्यका भावार्थ है ॥ ५॥ अथ तदभिमतमीश्वरस्य जगत्कर्तृत्वाभ्युपगम मिथ्याभिनिवेशरूपं निरूपयन्नाह । ___ अब वैशेषिकोंने जो ईश्वरको जगतका कर्ता माना है, वह मिथ्या आग्रह रूप है । यह दिखलाते हुए आचार्य अग्रिम । काव्यका कथन करते हैं। कर्तास्ति कश्चिजगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः। इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥६॥ ___ काव्यभावार्थ:-हे नाथ! जिनके आप उपदेशदाता नहीं हैं, उनके "जगतका कोई कर्ता है, वह एक है, वह सर्वव्यापी है, वह स्वाधीन है, और वह नित्य है" ये दुराग्रहरूपी विडंबनायें होती हैं। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या । जगतः प्रत्यक्षादिप्रमाणोपलक्ष्यमाणचराचररूपस्य विश्वत्रयस्य कश्चिदनिर्वचनीयस्वरूपः पुरुष-IN विशेषः कर्ता स्रष्टा अस्ति विद्यते । ते हि इत्थं प्रमाणयन्ति-उर्वीपर्वततर्वादिकं सर्वं बुद्धिमत्कर्तृकं कार्यत्वात्। यद्यत्कार्यंतत्तत्सर्व बुद्धिमत्कर्तृकं यथा घटस्तथा चेदं तस्मात्तथा । व्यतिरेके व्योमादि । यश्च बुद्धिमांस्तत्की स भगवानीश्वर एवेति । | व्याख्यार्थः-"जगत" प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंद्वारा जाननेमें आते हुए जो ये चर (जंगम) और अचर (स्थावर) रूप तीन जगतके पदार्थ हैं, इनका "कश्चित्" वचनोंके अगोचर खरूपका धारक कोई पुरुषविशेष "कर्ता" बनानेवाला "अस्ति" है । वे वैशेषिक इस ऊपर कहे हुए अपने मतको इस निम्नलिखित प्रकारसे प्रमाण कराते है अर्थात् सिद्ध करते हैं कि, ये पृथिवी, पर्वत और वृक्ष आदि समस्त पदार्थ बुद्धिमानके रचे हुए हैं । क्योंकि, ये सब कार्य है । जो जो कार्य है, वह वह सब बुद्धिमानका || रचा हुआ है । जैसे कि, घट कार्य है और वह बुद्धिमान् कुंभकारसे बनाया हुआ है । उसी प्रकार अर्थात् घटके समान ही ये प्रथिवी पर्वत आदिक भी कार्य है, इसलिये किसी बद्धिमानके द्वारा बनाये हए है। व्यतिरेक दृष्टान्तमें व्योम आदि हैं अर्थात आकाश आदि कार्य नहीं है, इसलिये किसी बुद्धिमानके बनाये हुए भी नहीं है। और जो कोई बुद्धिमान् इन पृथिवी आदि कार्योंका कर्ता है, वह भगवान् ईश्वर ही है । | न चायमसिद्धो हेतुर्यतो भूभूधरादेः स्वस्वकारणकलापजन्यतया अवयवितया वा कार्यत्वं सर्ववादिनां प्रतीतमेव । नाप्यनैकान्तिको विरुद्धो वा। विपक्षादत्यन्तव्यावृत्तत्वात्।नापि कालात्ययापदिष्टः । प्रत्यक्षानुमानागमाबा|धितधर्माधर्म्यनन्तरप्रतिपादितत्वात् । नापि प्रकरणसमः । तत्प्रतिपन्थिधर्मोपपादनसमर्थप्रत्यनुमानाभावात् । | . और हमने पृथिवी आदिको ईश्वरके बनाये हुए सिद्ध करनेके लिये जो यह कार्यत्वरूप हेतु दिया है, वह असिद्ध नहीं है । IN क्योंकि, अपने २ कारणोंके समूहसे उत्पन्न होनेसे अथवा अवयवीपनेसे पृथिवी, पर्वत आदिके कार्यत्व सभी वादियोंने ) all माना है। और विपक्षसे अत्यंत भिन्न है, इस कारण यह कार्यत्वहेतु अनेकांतिक ( व्यभिचारी )- अथवा विरुद्ध भी नहीं है । IN||तथा यह कार्यत्वहेतु कालात्ययापदिष्ट ( बाधित ) भी नहीं है । क्योंकि, प्रल नाधित अर्थात् सिद्ध ऐसे जो धर्म और धर्मी हैं, उनके पश्चात् कहा गया है अर्थात् पहले प्रमाणसिद्ध धर्म तथा धर्मीका कथन करके | Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादमं. पीछे इस हेतुको कहा है। एवं यह कार्यत्वहेतु प्रकरणसम ( सत्प्रतिपक्ष ) भी नहीं है। क्योंकि, इसके प्रतिकूल धर्मको अर्थात् जिस कर्तृत्वधर्मको यह कार्यत्वहेतु सिद्ध करता है, उस कर्तृत्वधर्मसे प्रतिकूल जो अकर्तृत्व धर्म है, उसको सिद्ध करनेमें समर्थ | कोई प्रत्यनुमान नहीं है। . . ... ..... ___नं च वाच्यमीश्वरः पृथ्वीपृथ्वीधरादेर्विधाता न भवति । अशरीरत्वात् । निर्वृत्तात्मवत् । इति प्रत्यनुमान तद्बाधकमिति । यतोऽत्रेश्वररूपो धर्मी प्रतीतोऽप्रतीतो वा प्ररूपितः। न तावदप्रतीतो हेतोराश्रयासिद्धिप्रसकशात् । प्रतीतश्चेद्येन प्रमाणेन स प्रतीतस्तेनैव किं स्वयमुत्पादितस्वतनुर्न प्रतीयते । इत्यतः कथमशरीरत्वम् । तस्मान्निरवद्य एवायं हेतुरिति । . :. . ॥ शंका-" ईश्वर जो है, सो पृथ्वी, पर्वत आदिका कर्त्ता नहीं हो सकता है। क्योंकि, शरीररहित है । मुक्त आत्माके समान अर्थात् जैसे मुक्त आत्मा शरीररहित होनेसे पृथिवी आदिका कर्ता नहीं होता है, उसी प्रकार ईश्वर भी अशरीर है,। । इसकारण पृथिवी आदिका कर्त्ता नहीं हो सकता है।" यह प्रत्यनुमान जगत्रूप धीमें ईश्वरकर्तृत्व धर्मका बाधक है। समाधानपू यह न कहना चाहिये । क्योंकि, " ईश्वर पृथिवी आदिका कर्त्ता नहीं हो सकता है" इत्यादि इस अनुमानके प्रयोगमें तुमने जो ईश्वररूप धर्मीका कथन किया है, सो प्रतीत है। वा अप्रतीत है । यदि कहो कि, अप्रतीत ( नहीं जाने हुए ) ईश्वर धर्मीका ॐ कथन किया है, तब तो हेतुके आश्रयासिद्धि दोषका प्रसंग आवैगा अर्थात् जब धर्मी ही अप्रतीत है, तब अशरीरत्व हेतु किसमें रहेगा। और यदि कहो कि, हमनें प्रतीत ('जाने हुए) ईश्वरधर्मीका निरूपण किया है, तो जिस प्रमाणसे तुमने उस ईश्वरको जाना है, उसी प्रमाणसे तुम उस ईश्वरको खय (अपने आप ही) उत्पन्न किये हुए शरीरका धारक भी क्यों नहीं जान लेते हो अर्थात् जिस प्रमाणसे तुमने ईश्वर जाना है, उसी प्रमाणसे तुम यह भी मान लो कि, ईश्वरने खयं अपना शरीर वनाछ कर फिर जगतको बनाया है । और जब ईश्वरको शरीरका धारक मानलिया, तब अशरीरपना कहां रहा। इस कारण हमने जो ४ कार्यत्वहेतु दिया है, वह निर्दोष ही है। भावार्थ-असिद्ध, १ विरुद्ध,२'अनैकान्तिक, ३ कालात्ययापदिष्ट ४ और सत्प्रपतिपक्ष, ५. ये जो पांच हेतुके दोष है, इनमेंसे हमारे कहे हुए कार्यत्वहेतुमें कोई भी दोष नहीं है, इस कारण ईश्वर जगतका कर्ता है यह सिद्ध हो गया । ॥२४॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स चैक इति । चः पुनरर्थे । स पुनः पुरुषविशेष एकोऽद्वितीयः । बहूनां हि विश्वविधातृत्व स्वीकारे परस्प | रविमतिसंभावनाया अनिवार्यत्वादेकैकस्य वस्तुनोऽन्यान्यरूपतया निर्माणे सर्वमसमञ्जसमापद्येत । इति । "च" [ यहा 'च' पुन' के अर्थमें है ] फिर "स:" वह पुरुषविशेष जो है सो “एकः " एक है अर्थात् उसके सिवाय और कोई दूसरा जगतका कर्त्ता नही है । यदि बहुतोंको जगतके कर्त्ता मानें तो उनके परस्पर संगति ( सलाह ) में भेद ( फरक ) | होने की संभावना नही रुक सकती है, इस कारण एक एक वस्तुकी अन्य अन्य प्रकारसे रचना होने पर सब अनुचित 'जावे । भावार्थ - यदि बहुतसे पुरुष विशेषोको जगतके कर्त्ता मानें तो उनके परस्पर मतिभेद हो जावेगा और उस मतिभेदके होने पर कोई तो एक वस्तुको अन्य प्रकारसे बनावेगा और कोई उसी एक वस्तुको दूसरे प्रकारसे वनावेगा और ऐसा होने पर सव अनुचित हो जायगा अर्थात् घुटाला होनेसे किसी भी वस्तुकी स्वरूपव्यवस्था न होगी ॥ तथा स सर्व इति । सर्वत्र गच्छतीति सर्वगः सर्वव्यापी । तस्य हि प्रतिनियत देशवर्त्तित्वेऽनियत देशवृत्तीनां | विश्वत्रयान्तर्वर्त्तिपदार्थसार्थानां यथावन्निर्माणानुपपत्तिः । कुम्भकारादिषु तथा दर्शनात् । अथवा सर्व गच्छति | जानातीति सर्वगः सर्वज्ञः । सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्था इति वचनात् । सर्वज्ञत्वाऽभावे हि यथोचितोपादानकारणा| द्यनभिज्ञत्वादनुरूपकार्योत्पत्तिर्न स्यात् । " तथा फिर " सः 'घह पुरुषविशेष " सर्वगः " सब जगह गमन करनेवाला अर्थात् सर्वव्यापी (सब पदार्थों में रहनेवाला) | है । क्योंकि, यदि उसको प्रतिनियतदेशवर्त्ती अर्थात् किसी एक नियमित ( मुकर्रर ) स्थान में रहनेवाला मानें तो उसके अनियमितस्थानों में रहनेवाले ऐसे जो तीनों लोकों में स्थित पदार्थोंके समूह है, उनको यथावत् रीतिसे ( भले प्रकारसे ) बनाने की सिद्धि न | होगी अर्थात् वह भिन्न २ स्थानों में स्थित पदार्थोंको यथार्थरीतिसे न बना सकेगा । क्योंकि, कुंभकार आदिमें ऐसा देखा जाता है। | अर्थात् जहां कुंभकार स्थित है, वहां वह घट बनाता है । अथवा वह "गतिरूप अर्थके धारक सब धातु ज्ञानरूप अर्थके धारक भी है, " इस वचनसे सर्वग अर्थात् सर्वज्ञ ( सबको जाननेवाला ) है । क्योंकि, यदि वह पुरुषविशेष सर्वज्ञ न हो तो यथायोग्य उपादान कारणोंको न जाननेसे उसके द्वारा योग्य कार्योंकी उत्पत्ति न होगी अर्थात् असर्वज्ञतासे ईश्वर के 'किन २ उपादान कारणोंसे Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ २५ ॥ कौन २ से कार्य होते हैं ' इस विषयक ज्ञान न होगा और उस ज्ञानके न होनेसे जगत में जो ये योग्यकार्य देखने में आते है, |इनको वह ईश्वर उत्पन्न न कर सकेगा । तथा स स्ववशः स्वतन्त्रः । सकलप्राणिनां स्वेच्छया सुखदुःखयोरनुभावनसमर्थत्वात् । तथा चोक्तम्- "ईश्व| रप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा । अन्यो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । १।” इति । पारतन्त्र्ये तु तस्य परमुखप्रेक्षितचा मुख्य कर्त्तृत्वव्याघातादनीश्वरत्वापत्तिः । तथा फिर " " सः वह “ स्ववशः ” स्वतंत्र अर्थात् स्वाधीन है । क्योंकि, वह ईश्वर अपनी इच्छानुसार सब प्राणियोंको ! सुख और दुःखका अनुभव करानेमे समर्थ है अर्थात् अपनी इच्छासे सबको सुख तथा दुख देता है । सो ही कहा भी है कि, - 66 'यह जीव ईश्वरका भेजा हुआ ही स्वर्गको अथवा नरकको गमन करता सुख और दुःखको उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं है । १ । ” यदि उस ईश्वरको परतंत्र ( पराधीन) मानें तो वह ईश्वर जगतके । क्योंकि, ईश्वरके सिवाय जो अन्य जीव है, वे अपने बनानेमें दूसरोंका मुख देखेगा अर्थात् दूसरोंकी आज्ञा लेकर कार्य करेगा इस कारण उसके मुख्यकर्त्तापनेका नाग होनेसे अनीश्वरता हो जावेगी अर्थात् मुख्यकर्त्ता न रहनेसे ईश्वर ईश्वर न रहैगा । तथा स नित्य इति । अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपः । तस्य ह्यनित्यत्वे परोत्पाद्यतया कृतकत्वप्राप्तिः । अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः स्वभावनिष्पत्तौ कृतक इत्युच्यते । यश्चापरस्तत्कर्त्ता कल्प्यते स नित्योऽनित्यो वा स्यात् । नित्यश्चेदधिकृतेश्वरेण किमपराद्धम् । अनित्यश्चेत्तस्याप्युत्पादकान्तरेण भाव्यम् । तस्यापि नित्यानित्यत्वकल्पनायामनवस्थादौस्थ्यमिति । तथा “ सः " वह पुरुषविशेप " नित्यः " नित्य है अर्थात् अप्रच्युत ( अविनाशी ) अनुत्पन्न ( उत्पत्तिसे रहित ) और स्थिरैकरूप ( निश्चल एक स्वभावका धारक ) है । क्योंकि, यदि ईश्वरको अनित्य मानेंगे तो परसे उत्पन्न होने के कारण वह ईश्वर कृतक होजावेगा। कारण कि, जो पढार्थ अपने खरूपकी सिद्धिमें अन्य पदार्थके व्यापारकी अपेक्षा रखता है अर्थात् निजको सिद्धकरनेके लिये दूसरेकी सहायता चाहता है, वह कृतक कहलाता है। और जो तुम किसी दूसरेको ईश्वरका कर्त्ता मानो, तो हम प्रश्न करते हैं कि, वह ईश्वरका कती नित्य है ? वा अनित्य है ? यदि कहो कि, नित्य है, तब तो हमारे माने हुए इस 'ईश्वरने क्या रा. जै.शा. ॥ २५ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN अपराध किया है अर्थात् तुम ईश्वरके कर्ताको नित्य न मानकर ईश्वरको ही नित्य क्यों नहीं मानलेते हो । यदि कहो कि, ईश्वरका कर्ता अनित्य है, तो ऐसी दशामें उस ईश्वरके कर्ताको बनानेवाला भी कोई दूसरा होना चाहिये और उसका भी कोई अन्य । इस प्रकार नित्य तथा अनित्य रूप विकल्पोंकी कल्पना करनेमें अनवस्था नामक दोप कभी दूर न होगा। । तदेवमेकत्वादिविशेषणविशिष्टो भगवानीश्वरस्त्रिजगत्कर्तेति पराभ्युपगममुपदर्योत्तरार्द्धन तस्य दुष्टत्वमाचनाटे । इमा एता अनन्तरोक्ताः कुहेवाकविडम्बनाः कुत्सिता हेवाका आग्रह विशेषाः कुहेवाकाः कदाग्रहा इत्यर्थस्त | लाएव विडम्बनाः विचारचातुरीबाह्यत्वेन तिरस्काररूपत्वाद्विगोपकप्रकाराः स्युर्भवेयुस्तेषां प्रामाणिकापसदानां| येषां हे स्वामिन् त्वं नानुशासको न शिक्षादाता। || सो इस प्रकार एकत्वादि विशेषणोंका धारक जो भगवान ईश्वर है, वही तीन जगतका कर्ता है । इस पूर्वोक्त प्रकारसे आचार्य || श्लोकके पूर्वार्द्धद्वारा वैशेषिकोंके मतको दिखाकर अब उत्तरार्द्धसे उस वैशेषिकमतकी दुष्टताका कथन करते है । " इमाः" ये| ऊपर कही हुई " कुहेवाकविडम्बनाः" खोटे आग्रहरूप विडम्बनायें अर्थात् विचारकी चतुरतासे रहित होनेके कारण तिरस्काररूप होनेसे अपने दोषोंको छिपानेके प्रकार उन अधम न्यायवेत्ताओंके ( वैशेषिकोंके ) " स्युः" होवें । " येषां" जिनके हे खामिन् ! " त्वं" आप " अनुशासकः" शिक्षा देनेवाले "न" नही हो । भावार्थ-हे भगवन् ! आपकी आज्ञासे प्रतिकूल | वैशेषिकोंने जो विना समझे ईश्वरको जगत्का का मान लिया है, उस दोषको छिपानेके लिये ही उन्होंने ये एकत्व आदि . विशेषण दिये हैं। II तदभिनिवेशानां विडम्बनारूपत्वज्ञापनार्थमेव पराभिप्रेतपुरुषविशेषणेषु प्रत्येकं तच्छब्दप्रयोगमसूयागर्भमा विर्भावयाञ्चकार स्तुतिकारः । तथा चैवमेव निन्दनीयं प्रति वक्तारो वदन्ति । स मूर्खः, स पापीयान् , सह दरिद्र इत्यादि । त्वमित्येकवचनसंयुक्तयुष्मच्छब्दप्रयोगेण परमेशितुः परमकारुणिकतयाऽनपेक्षितस्वपरपक्षवि-IN भागमितरशास्तृणामसाधारणमद्वितीयं हितोपदेशकत्वं ध्वन्यते । स्तुतिके कर्ता आचार्यने वैशेषिकोंके अभिप्रायोंको विडम्बनारूप विदित करनेके लिये ही उनके अभीष्ट जो ईश्वरके विशेषण । है, उनमें प्रत्येक विशेषणके साथ ईर्षाके धारक ' तत् ' इस शब्दका प्रयोग किया है । और निन्दाकरनेयोग्य पुरुषके प्रति Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थादादम. कहनेवाले वह मूर्ख है, वह महापापी है, वह दरिद्री है, इत्यादि इसी प्रकार प्रत्येक विशेषणके साथ तत्शब्दको व्यवहारमै लाते KG है। और त्वं' इस एकवचनके धारक युप्मत्शब्दका प्रयोग करनेसे आचार्य परमेश्वर श्रीजिनेन्द्रके परमदयालुताके कारण निज ॥२६॥ और पर पक्षकी भेदभावनाकी अपेक्षाके विना अन्य उपदेशकोंमे न होनेवाला ऐसा जो अद्वितीय हितोपदेशकपना है, उसको ध्वनित करते है। भावार्थ-स्तुतिमें युप्मत् शब्दका एकवचन देकर आचार्यने यह दर्शाया है कि, जैसे अन्य उपदेशक पक्षपाती होकर अपने मतवालोंको तो उपदेश देते है, और अन्य मतवालोंको नहीं देते है । उसप्रकार श्रीजिनेन्द्र पक्षपाती नहीं है, किंतु परमकरुणाबुद्धिसे सभीको समान हितोपदेश देनेसे अद्वितीय उपदेशक है। अतोऽत्रायमाशयः। यद्यपि भगवानविशेषेण सकलजगज्जन्तुजातहितावहां सर्वेभ्य एव देशनावाचमाचष्टे । तथापि सैव केषांचिन्निचितनिकाचितपापकर्मकलुपितात्मनां रुचिरूपतया न परिणमते । अपुनर्बन्धकादिव्यतिरिक्तत्वेनायोग्यत्वात् । तथा च कादम्बर्या बाणोऽपि बभाण- अपगतमले हि मनसि स्फटिकमणाविव रजनिकरगभस्तयो विशन्ति सुखमुपदेशगणाः । गुरुवचनममलमपि सलिलमिव महदुपजनयति श्रवणस्थितं शूल मभव्यस्य” इति । अतो वस्तुवृत्त्या न तेपां भगवाननुशासक इति । । इस कारण यहां पर यह भाव है कि, यद्यपि भगवान् अविशेषसे अर्थात् समानरूपसे सभीके लिये सपूर्ण जगत्के जीवोंका भला करनेवाले उपदेशवचनको कहते है। तथापि वही उपदेशरूपवचन पूर्वकालमें उपार्जन कियेहुए निकाचित-पापकर्मोंसे मलीन है आत्मा जिनका ऐसे कितने ही जीवोंके रुचिरूपतासे नहीं परिणमता है अर्थात् कितने ही पापीजीवोंको अच्छा नहीं N| लगता है । क्योंकि, वे पापीजीव अपुनर्बन्धक [ जो तीव्रभावोसे पापको नहीं करता है, वह अपुनर्बधक कहलाता है और इसकी मुक्ति पुद्गल परावर्त्तनमें ही हो जाती है ] आदि जीवोंसे भिन्न होनेके कारण अयोग्य है अर्थात् उपदेशके पात्र नहीं है । सो ही कादम्बरीमें बाणकवीने भी कहा है कि, जैसे निर्मल स्फटिकमणि ( विल्लोर ) में चंद्रमाकी किरणें सुखसे प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार मलरहित (खच्छ ) मनमें उपदेशोके समूह सुखसे प्रवेश करते है । और जैसे कर्ण ( कानों ) में स्थित हुआ निर्मलजल शूलरोगको उत्पन्न करता है, उसीप्रकार कर्गों में स्थित हुआ निर्मल गुरूका वचन भी अभव्यजीवके शूल नामक रोगको उत्पन्न कर१ पाप न तीवभावारकरोतीत्यादिलक्षणोऽपुनबंधकः । अस्य च पुदलपरावर्तमध्य एव मुक्तिः ॥ ॥२६॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता है अर्थात् यदि अभव्य उपदेशवचन सुनें तो, वह उसको अच्छा नहीं लगता है । इसकारण वास्तवमें भगवान् उनके उपदेशक | जा नहीं है अर्थात् 'तेषां न येषामनुशासकस्त्वम्' (जिनके आप उपदेश दाता नहीं है, उनके ही ये दुराग्रह होते है) ऐसा जो आचा ने कहा है वह सत्य है । क्योंकि, वैशेषिकमतवाले अभव्य होनेसे उपदेशके पात्र नहीं है । MM न चैतावता जगद्गुरोरसामर्थ्यसम्भावना । न हि कालदष्टमनुज्जीवयन समुज्जीवितेतरदष्टको विषभिषगुपाल-II म्भनीयोऽतिप्रसङ्गात् । स हि तेषामेव दोषः। न खलु निखिलभुवनाभोगमवभासयन्तोऽपि भानवीया भानवः । कौशिकलोकस्यालोकहेतुतामभजमाना उपालम्भसम्भावनास्पदम् । तथा च श्रीसिद्धसेनः-“ सद्धर्मबीजवपना-1 नघकौशलस्य यल्लोकबान्धव तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेषु सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाताः।१।” और इस कथनसे तीन लोकके गुरु-श्रीभगवानके असामर्थ्यकी संभावना नहीं है अर्थात् कोई यह शंका करै कि, अभव्यको ||४|| उपदेश न दे सकनेसे भगवान् असमर्थ हैं, सो नहीं है । क्योंकि, अन्यके डसे हुएको जीवदान देनेवाला विषवैद्य यदि कालसर्पके IN डसेको नहीं जिला सके तो वह विषवैद्य उपालंभके योग्य नहीं है। क्योंकि, अतिप्रसंग है। भावार्थ-सब सर्पआदिके डसे हुए जीवोंall को उनका जहर दरकरके जिला देनेवाला विषवैद्य ( जहरका इलाज करनेवाला ) यदि काल जातिके सर्पसे डसे हुएको न जिला | सकै तो वह वैद्य ठपकेका पात्र नहीं है । क्योंकि, अन्य सैकडों विषोंको दूर करता है । इसकारण वह दोष उस विषवैद्यका नहीं, किन्तु उस सर्पका ही है कि, जिस पर मन्त्र आदिका प्रभाव ही नहीं गिर सकता है। इसी प्रकार अन्य सब जीवोंको उपदेश देते || Kall हुए भगवान् यदि अभव्योंको उपदेश न देसकें तो इससे भगवान् असमर्थ नहीं हो सकते है । यह दोष उन अभव्योंका ही है, कि, वे उपदेशके पात्र नहीं है । क्योंकि, संपूर्ण भुवनमंडलको प्रकाशित करनेवाली सूर्यकी किरणें यदि उलूकों (बूंधुओं) के प्रकाशकी कारण नहीं होवें तो उपालम्भके पात्र नहीं है । भावार्थ-सूर्यकी किरणें सब जगह प्रकाश करके सब जीवोंको सब ला पदार्थ दिखलाती है, परंतु यदि घूघूको उनके प्रकाशमें न दीखे तो उसमें सूर्यकी किरणोंका कोई दोष नहीं है ! किंतु उन घूघुसाओंका ही दोष है । सो ही श्रीसिद्धसेनदिवाकरने कहा है कि "हे लोकबान्धव! उत्तम धर्मरूप वीजके बोनेमें अत्यन्त निपुणताकेत १ अप्रहित क्षेत्रादि खिलमुच्यते। २ तमसि संचरन्त इति तामसा.। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स. स्थाद्वादम. .शा. ॥२७॥ धारक आपके भी जो खिल अर्थात् हल आदिसे नहीं गोदे हुए क्षेत्र हुए सो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । क्योंकि, जगतमें अन्ध कारमें फिरनेवाले घूघूआदि दिनान्ध पक्षियोंके समूहको सूर्यकी किरणें भ्रमरीके चरणोंके समान पीतवर्णकी धारक दीख पडती है।" ॐ भावार्थ-जैसे चतुर किसानद्वारा बोया हुआ बीज अयोग्यक्षेत्रमें फलदायी नहीं होता है, उसी प्रकार जब भगवान्ने सम्यग्धर्मका 2 उपदेश दिया तब कितने ही अभव्योंको उस उपदेशने लाभ नहीं पहुंचाया। सो इस विषयमें कोई आश्चर्य नहीं । क्योंकि, जो ॐ सूर्यकी किरणें अंधकारको दूरकरके संपूर्ण भुवनमंडलमें प्रकाश कर देती है, वे ही सूर्यकी किरणें नेत्र बंद कियेहुए घूघू आदि पक्षिको भ्रमरी ( भोरी ) की टांगोंके समान कुछ कुछ पीली नजर आती है । १।" ____ अथ कथमिव तत्कुहेवाकानां विडम्बनारूपत्वमिति ब्रूमः। यत्तावदुक्तं परैः क्षित्यादयो बुद्धिमत्क र्यत्वाद्घटवदिति । तदयुक्तम् । व्याप्तेरग्रहणात् । साधनं हि सर्वत्र व्याप्तौ प्रमाणेन सिद्धायां साध्यं गमयेदिति । सर्ववादिसंवादः। स चायं जगन्ति सृजन् सशरीरोऽशरीरो वा स्यात् । सशरीरोऽपि किमस्मदादिवदृश्यशरीर विशिष्ट उत पिशाचादिवददृश्यशरीरविशिष्टः। प्रथमपक्षे प्रत्यक्षवाधः। तमन्तरेणापि च जायमाने तृणतरुपुरV न्दरधनुरभ्रादौ कार्यत्वस्य दर्शनात्प्रमेयत्वादिवत्साधारणानैकान्तिको हेतुः। अब उन वैशेषिकोंके खोटे आग्रह बिडम्बनारूप कैसे हैं सो कहते है । प्रथम ही जो वैशेपिकोने यह अनुमानका प्रयोग कहा y है कि, 'पृथ्वी आदिक बुद्धिमानके बनाये हुए हैं, कार्यहोनेसे, घटके समान' सो ठीक नहीं है । क्योंकि, इस अनुमानमें व्याप्तिका ग्रहण नहीं है। कारण कि, 'जब सब स्थलोंमें प्रमाणद्वारा व्याप्ति सिद्ध हो जाती है, तभी साधन साध्यको जनाता है' यह सब मतवालोंका कहना है । इसलिये हम पूछते है, कि तीन लोकको रचता हुआ वह यह तुम्हारा माना हुआ ईश्वर शरीरसहित है वा शरीररहित है । अर्थात् ईश्वरने जगतको शरीर धारणकरके बनाया है ? वा विना शरीर धारणकिये बनाया है ? यदि कहो कि, 8 सशरीर है, तो क्या हम जैसोंके समान दृश्य ( दीखनेमे आनेवाला ) शरीरका धारक है ? अथवा पिशाच आदिके समान अदृश्य शरीरका धारक है ? अर्थात् ईश्वरका शरीर हमारे शरीरकी तरह सबके दीखनेमें आता है, वा पिशाच आदिके शरीरके समान किसीके दीखनेमें नहीं आता है। यदि कहो कि, ईश्वर दृश्यगरीरका धारक है, तो प्रथम तो प्रत्यक्षसे बाधा होती है। अर्थात् ईश्वर देखनेमें नहीं आता है । और दूसरे उस ईश्वरके शरीरके व्यापारके विना भी उत्पन्न होते हुए घास, वृक्ष, इन्द्रधनुष तथा मेघ ॥२७॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिमें कार्यपना देखनेसे प्रमेयत्वहेतुके समान कार्यत्वहेतु भी साधारणानैकान्तिकनामक जो हेतुदोष है, उससे दुष्ट होता है। भावार्थ-जैसे, ' पर्वत अग्निका धारक है, प्रमेय ( जाननेयोग्य ) होनेसे ' इस प्रयोगमें प्रमेयत्वहेतु साधारणानैकान्तिक है अर्थात् || II अग्निरूपसाध्यका धारक जो पर्वत है, उसमें भी रहता है और उस पर्वतसे भिन्न जो जलाशय आदि है उनमें भी रहता है। इसी प्रकार ईश्वरने जिन पदार्थोंको अपने शरीरद्वारा रचे उनमें तो कार्यत्वहेतु रहा ही । और जिन घास वृक्ष आदिको ईश्वरने अपने N||शरीरसे नहीं रचे है, उनमें भी रह गया, इस कारण कार्यत्वहेतु साधारणानैकान्तिकदोषका धारक होगया । । द्वितीयविकल्पे पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः कारणमाहोस्विदस्मदाद्यदृष्टवैगुण्यम् । प्रथमप्रकारः कोशपानप्रत्यायनीयः। तत्सिद्धौ प्रमाणाऽभावात् , इतेरतराश्रयदोषापत्तेश्च । सिद्धे हि माहात्म्यविशेषे तस्याहIN यशरीरत्वं प्रत्येतव्यम् । तत्सिद्धौ च माहात्म्यविशेषसिद्धिरिति । और दूसरा विकल्प जो ईश्वरके पिशाच आदिके समान अदृश्य ( देखनेमें न आनेवाले ) शरीरका धारकपना है, उसमें उस ईश्वरका माहात्म्यविशेष ( एकप्रकारका प्रभाव ) कारण है ? अथवा हमारा तुम्हारा मन्दभाग्य कारण है अर्थात् ईश्वरका शरीर ईश्वरके माहात्म्यसे हमको नहीं दीखता है ? वा हमारे मन्दभाग्यसे ? यदि कहो कि, ईश्वरके माहात्म्यसे ईश्वरका शरीर नही दीखता l है, तो यह कहना एकप्रकारकी शपथ ( सौगन ) खाकर विश्वास कराने योग्य है अर्थात् मिथ्या है । क्योंकि, ईश्वरके अदृश्य शरीरको सिद्धकरनेमें कोई भी प्रमाण नहीं है । और जब ईश्वरके माहात्म्यविशेष सिद्ध होजावे, तब तो ईश्वरके अदृश्यशरीरका धारकपना विश्वासकरने योग्य होवे तथा पहिले जब ईश्वरके अदृश्यशरीरता सिद्ध होचुके तब उसके माहात्म्यविशेषकी सिद्धि होवे, इसकारण अन्योऽन्याश्रय दोषकी प्राप्ति होती है । भावार्थ-जहां दो पदार्थों में परस्पर एककी सिद्धिके विना दूसरेकी सिद्धी न || हो वहां अन्योऽन्याश्रय दोष होता है, इसलिये यहां भी माहात्म्यविशेषके विना अदृश्यशरीरता और अदृश्यशरीरताके विना माहाम्यविशेषकी सिद्धी न होनेसे अन्योऽन्याश्रयदोष आया । द्वैतीयीकस्तु प्रकारो न संचरत्येव विचारगोचरे । संशयानिवृत्तेः । किं तस्याऽसत्त्वाददृश्यशरीरत्वं वान्ध्ये-II यादिवत्, किंवास्मदाद्यदृष्टवैगुण्यात्पिशाचादिवदिति निश्चयाऽभावात् । अशरीरश्चेत्तदा दृष्टान्तदान्तिकयो Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. द्वादम. ॥२८॥ पम्यम् । घटादयो हि कार्यरूपाः सशरीरकर्तृका दृष्टाः । अशरीरस्य च सतस्तत्य कार्यप्रवृत्तौ कुतः सामर्थ्यमा- काशादिवत् । तस्मात्सशरीराशरीरलक्षणे पक्षद्वयेऽपि कार्यत्वहेतोप्प्यसिद्धिः। | अब यदि कहो कि, हमारे मन्दभाग्यसे ईश्वरका शरीर हमको नहीं दीखता है, तो यह कहना हमारे विचारम ही नहीं आता है। क्योंकि, क्या ? जैसे बन्ध्याके पुत्रका अभाव है, उसप्रकार ईश्वरके गरीरका ही अभाव है, जिनसे, कि. उसका शरीर देखने नहीं आता है अथवा क्या? हमारे मंढभाग्यसे जैसे हमको पिशाच आदिका शरीर नहीं देख पड़ता है, उसीप्रकार ईश्वरका शरीर भी हमारे देखनेमें नहीं आता है, यह सदेह दूर नहीं हो सकता है। भावार्थ-यदि कहो कि मन्दभाग्यसे ईश्वरका शरीर नहीं दीखता है, तो यह हम नहीं मान सकते है, क्योकि, ईश्वरके शरीर है, वा नहीं है, यह संशय दूर नहीं होता । यदि कहो कि. ईश्वर को शरीररहित होकर जगतको बनाता है, तो ऐसा कहनेमे दृष्टान्त और ढान्तिकके असमानता होती है । क्योंकि, कार्यरूप जो घटादिक है, वे शरीरके धारक कुम्भकार आदिसे बनाये हुए देखे जाते है । भावार्थ-घट आदि कार्य सगरीरके बनाये हुए देखे जाते है और तुमने जगतरूप कार्यको अगरीरीका बनाया हुआ मान लिया, इसलिये घटनप जो दृष्टान्त है, वह जगतरूप दार्टान्तिy कमें घटित नहीं होता है । और शरीररहित उस ईश्वरके कार्यकरनेम सामर्थ्य भी कहासे आसकता है । क्योकि, शरीररहित आ काश आदिमें कार्यकरनेका सामर्थ्य नहीं देखा जाता है । इस कारण सगरीर और अगरीररूप दोनो पक्षोम ही कार्यत्वरूप हेतुकी A व्याप्ति सिद्ध नहीं होती है । भावार्थ-तुमने जो जगतको ईश्वरकर्तृक सिद्ध करनेके लिये कार्गलहेतु दिया है, उस कार्यत्वहेतुकी व्याप्ति शरीरसहित अथवा शरीररहित इन दोनों ईश्वरोंमें ही नहीं रहती है । इसकारण तुम्हारा अनुमान मिथ्या है। किञ्च त्वन्मतेन कालात्ययापदिष्टोऽप्ययं हेतुः । धर्म्यकदेशस्य तरुविधुदभ्रादेरिदानीमप्युत्पद्यमानस्य विधा-1 तुरनुपलभ्यमानत्वेन प्रत्यक्षबाधितधर्म्यनन्तरं हेतुभणनात् । तदेवं न कश्चिज्जगतः कर्त्ता । एकत्वादीनि तु जगकर्त्तत्वव्यवस्थापनायानीयमानानि तद्विशेषणानि पण्डं प्रति कामिन्या रूपसंपन्निरूपणप्रायाण्येव । तथापि तेषां ।। | विचारासहत्वख्यापनार्थ किंचिदुच्यते। और तुम्हारे मतके अनुसार यह हेतु कालात्ययापदिष्ट भी है। क्योंकि, इससमयमें भी उत्पन्न होते हुए जो जगतरूप धके ॐ एकदेगरूप वृक्ष, विजली और मेघ आदि है, उनका कोई कर्ता देखनेमें नहीं आता है, इस कारण प्रत्यक्षप्रमाणसे बाधित जो धर्मी ॥ २८॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, उसके पश्चात् तुमने कार्यत्वहेतुका कथन किया है । इसलिये पूर्वोक्तप्रकारसे तुम्हारे अनुमानका खंडन होजानेसे सिद्ध हुआ कि, जगतका कर्ता कोई भी नहीं है । और ईश्वरको जगतका कर्ता सिद्ध करनेके लिये दिये हुए जो एकत्व आदि ईश्वरके विशेषण है, वे तो नपुंसकके प्रति स्त्रियोंके रूप लावण्य आदिका कथन करनेके समान है। भावार्थ-जैसे नपुंसकके प्रति स्त्रियोंके रूपका वर्णन || करना व्यर्थ है, उसी प्रकार जगत्कर्तृत्वसे रहित उस ईश्वरके प्रति एकत्व आदि विशेषणोंका देना भी वृथा है । तथापि ' वे एकत्व IN आदि विशेषण विचारको नही सहते हैं; यही प्रकट करनेके लिये यहां पर कुछ कहते है। तत्रैकत्वचर्चस्तावत् । बहूनामेककार्यकरणे वैमत्यसम्भावनेति नायमेकान्तः। अनेककीटिकाशतनिष्पाद्यत्वेऽपि || शक्रमूर्द्धः, अनेकशिल्पिकल्पितत्वेऽपि प्रासादादीनां, नैकसरघानिर्वर्तितत्वेऽपि मधुच्छत्रादीनां चैकरूपताया अविगानेनोपलम्भात् । अथैतेष्वप्येक एवेश्वरः कर्तेति ब्रूषे । एवं चद्भवतो भवानीपतिं प्रति निष्प्रतिमा वासना। तर्हि कुविन्दकुम्भकारादितिरस्कारेण पटघटादीनामपि कर्ता स एव किं न कल्प्यते । अथ तेषां प्रत्यक्षसिद्धं कर्तृत्वं कथमपन्होतुं शक्यम् । तर्हि कीटिकादिभिः किं तव विराद्धं यत्तेषामसदृशतादृशप्रयाससाध्यं कर्त्तत्वमे कहेलयैवापलप्यते । तस्माद्वैमत्यभयान्महेशितुरेकत्वकल्पना भोजनादिव्ययभयात्कृपणस्यात्यन्तवल्लभपुत्रकलना| दिपरित्यजनेन शून्यारण्यानीसेवनमिव । ___ उन विशेषणोंमें प्रथम ही ईश्वरके एकत्वविशेषणके विषयमें चर्चा करतें हैं । वादियोंने जो कहा है कि, “बहुतसे ईश्वर मिल कर जो एक कार्य करै, तो उनके परस्पर संमतिमें भेद हो जावे ' सो यह एकान्त नहीं है अर्थात् मतिभेद होवे ही ऐसा निश्चय | KG नहीं है । क्योंकि, हम सैंकड़ों कीडियों ( चीटियों ) द्वारा रचे हुये भी विलको, बहुतसे शिल्पियों ( कारीगरों वा राजों ) द्वारा बनाये हुए भी महल आदि मकानोंको, और बहुतसी मक्षिकाओं ( मक्खियों) से निर्माण किये हुए सहतके छाते आदिको प्रशंसापूर्वक एकरूपके धारक देखते है । यदि इन विल आदिका भी एक ईश्वरको ही कर्ता कहो और ऐसी ही तुम्हारी ईश्वरके | प्रति अतुल्य भक्ति हो, तो कुविंद ( जुलाहा ) और कुंभकार आदिका तिरस्कार करके पट तथा घट आदिका कर्ता भी उस ईश्वरको क्यों नहीं मान लेते हो । भावार्थ-जैसे तुमने कीटिका आदि द्वारा रचे हुए विल आदिकोंका कर्ता ईश्वर माना है, उसी प्रकार जुलाहेसे बने हुए वस्त्रका और कुंभकार द्वारा रचे हुए घटका कर्त्ता भी उसी ईश्वरको मान लो । यदि कहो कि, MA - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥२९॥ उन कुविंद, कुंभकार आदिका कर्तृत्व प्रत्यक्षसिद्ध है अर्थात् हम प्रत्यक्षमें कुबिंद आदिको पट आदि बनाते हुए देखते है, | इसकारण उन कुविंदादिका पटादिकर्तृत्व कैसे छिपा सकते है, तो उन कीटिका आदिने तुम्हारा क्या अपराध किया है ? जो तुम उनके उस असाधारण परिश्रमसे सिद्ध होनेयोग्य कर्तृत्वको एक ही क्षणमें निरादरताके साथ दूर करते हो । | इस कारण परस्पर समतिमें भेद होनेके भयसे जो तुम्हारा ईश्वरको एक मानना है, वह भोजन आदि सबधी व्ययके भयसे कृपणपुरुषका अत्यंत प्यारे स्त्रीपुत्रोंको छोड़कर शून्य महावनको सेवन करने के समान है । भावार्थ — जैसे कृपण पुरुष खर्चके डरसे स्त्री आदिको छोड़कर निर्जन वनमें चला जावे, उसी प्रकार तुम्हारा मतिभेदके भयसे ईश्वरको एक मानना है । तथा सर्वगतत्वमपि तस्य नोपपन्नम् । तद्धि शरीरात्मना ज्ञानात्मना वा स्यात् । प्रथमपक्षे तदीयेनैव देहेन जगत्रयस्य व्याप्तत्वादितरनिर्मेय पदार्थानामाश्रयानवकाशः । द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यता । अस्माभिरपि निरतिश| यज्ञानात्मना परमपुरुषस्य जगत्रयक्रोडीकरणाभ्युपगमात् । यदि परमेवं भवत्प्रमाणीकृतेन वेदेन विरोधः । तत्र हि शरीरात्मना सर्वगतत्वमुक्तम् “विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतः पाणिरुतविश्वतः पाद्” इत्यादि श्रुतेः । और जो तुमने ईश्वरके सर्वगतपना माना है, वह भी उस ईश्वरके सिद्ध नहीं है । क्योंकि, वह ईश्वर शरीररूपसे सर्वगत है ? वा ज्ञानरूपसे ? यदि शरीररूपसे ईश्वरको सर्वगत कहोगे तो उस ईश्वरके शरीरसे ही तीन जगत व्याप्त हो जायेगा. इस कारण जगतमें अन्य जो निर्मेय ( ईश्वरके बनाने योग्य ) पदार्थ है, उनको रहनेके लिये कोई स्थान न मिलेगा । यदि कहो कि, ईश्वर ज्ञानरूपसे सर्वगत है, तब तो साध्यकी सिद्धि है अर्थात् जिसको हम सिद्ध करना चाहते थे, वह सिद्ध हो गया । क्योंकि हम भी परमात्माको निरतिशयज्ञान ( केवलज्ञान ) रूपसे तीन जगतको गोदमें ( ज्ञानके विषय में) करनेवाला मानते है । भावार्थ - जैसे तुम ईश्वरको ज्ञानरूपसे सर्वगत मानते हो, उसी प्रकार हम भी श्रीजिनेन्द्रको ज्ञानरूपसे सर्वगत मानते हैं । इसकारण इस माननेमें तुम्हारे हमारे तो परस्पर कोई विरोध नहीं है । परन्तु ऐसा मानने पर तुमने जिस वेदको प्रमाण कर रक्खा है, उससे तुमको विरोध होता है । क्योंकि, तुम्हारे प्रमाणीभूत वेदमें "ईश्वर- सर्वस्थलोंमें नेत्रका धारक, सर्वत्र मुखका धारक, समस्त स्थानोंमें हस्तका धारक तथा सब जगह चरणका धारक है " इत्यादि श्रुतिसे ईश्वरको शरीररूपसे सर्वगत कहा है । यच्चोक्तं तस्य प्रतिनियतदेशवर्त्तित्वे त्रिभुवनगतपदार्थानामनियतदेशवृत्तीनां यथावन्निर्माणानुपपत्तिरिति । रा.जै.शा. ॥ २९ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्रेदं पृच्छयते । स जगप्रयं निम्मिमाणस्तक्षादिवत्साक्षाद्देहव्यापारेण निमिमीते । यदि वा सङ्कल्पमात्रेण । आद्ये पक्षे एकस्यैव भूभूधरादेविधाने अक्षोदीयसः कालक्षेपस्य सम्भवाद्वंहीयसाऽप्यनेहसा न परिसमाप्तिः। द्वितीयपक्षे तु सङ्कल्पमात्रेणैव कार्यकल्पनायां नियतदेशस्थायित्वेऽपि न किञ्चिद्दूषणमुत्पश्यामः। नियतदेशस्थालायिनां सामान्यदेवानामपि संकल्पमात्रेणैव तत्तत्कार्यसम्पादनप्रतिपत्तेः। और जो तुमने यह कहा है, कि यदि ईश्वरको सर्वगत ( सव स्थानोंमें रहनेवाला ) न मानकर किसी एक नियत देश ( स्थान ) में रहनेवाला मानें तो अनियत अर्थात् भिन्न २ अनेकदेशोंमें रहनेवाले जो तीनलोकमें व्याप्त पदार्थ है, उनको वह ईश्वर यथावत् न बना सकेगा अर्थात् ईश्वर एक स्थानमें रहकर अनेक स्थानोंमें रहनेवाले घट आदि पदार्थोंको जैसेके तैसे न वना सकेगा । यहां पर हम यह पूछते है कि, तीन जगतको रचता हुआ वह ईश्वर खाती ( वढ़ई ) के समान साक्षात् शरीरके व्यापारसे तीन लोकको बनाता है ? अथवा संकल्प ( इच्छा ) मात्रसे ही तीनलोकको रचता है । यदि कहो कि, ईश्वर साक्षात् शरीरके व्यापारसे तीन जगतको रचता है, तब तो एक ही पृथ्वी, पर्वत आदिके बनानेमें बहुतसा समय लगना संभव है, इसकारण ) | अत्यन्त अधिक कालमें भी तीन जगतकी समाप्ति ( पूर्णता ) न होगी । और संकल्पमात्रसे कार्य करनेरूप दूसरे पक्षको मानने पर || यदि ईश्वर एकदेशमें रहकर भी तीन जगतकी रचना करै; तो उसमें हम कोई भी दूषण नहीं देखते है । क्योंकि हमने नियतदेशमें || रहनेवाले सामान्यदेवोंके भी संकल्पमात्रसे ही उन २ कार्योंका करना खीकार किया है। किञ्च तस्य सर्वगतत्वेऽङ्गीक्रियमाणेऽशुचिषु निरन्तरसन्तमसेषु नरकादिस्थलेष्वपि तस्य वृत्तिः प्रसज्यते । तथा चाऽनिष्टापत्तिः। अथ युष्मत्पक्षेऽपि यदा ज्ञानाऽऽत्मना सर्वजगत्रयं व्यामोतीत्युच्यते तदाऽशुचिरसास्वादादीनामप्युपलम्भसम्भावनात्, नरकादिदुःखस्वरूपसंवेदनाऽऽत्मकतया दुःखाऽनुभवप्रसङ्गाच्चाऽनिष्टापत्तिस्तुल्यैवेति चेत् । तदेतदुपपत्तिभिः प्रतिक मशक्तस्य धूलिभिरिवावकरणम् । यतो ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थलस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति । न पुनस्तत्र गत्वा । तत्कुतो भवदुपालम्भः समीचीनः । नहि भवतोऽप्यशुचिज्ञानमात्रेण तद्रसास्वादाऽनुभूतिः। तद्भावे हि स्रक्चन्दनाऽङ्गनारसवत्यादिचिन्तनमात्रेणैव तृप्तिसिद्धौ तत्प्राप्तिप्रयत्नवैफल्यप्रसक्किरिति । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादम. ॥३०॥ y और विशेष यह है कि, ईश्वरके सर्वगतपना अङ्गीकार करनेपर निरन्तर महा अंधकारसे व्याप्त जो नरक आदि स्थान है, उनमें भी उस ईश्वरके रहनेका प्रसंग होगा और ऐसा होनेसे तुम्हारे अनिष्टापत्ति होगी। अब कदाचित् तुम यह कहो कि जब यू परमात्मा ज्ञानरूपसे तीनलोकको व्याप्त करता है, ऐसा आप कहते है, तब सर्वज्ञके अपवित्र रसके आखाद आदिके ज्ञानकी संभावना होनेसे और नरक आदिमें जो दुःख है, उनके खरूपको जाननेके कारण दुःखोंके अनुभवका प्रसंग होनेसे आपके पक्षमें भी अनिष्टाभूपत्ति समान ही है। भावार्थ-ईश्वरको शरीरसे सर्वव्यापी माननेरूप हमारे पक्षमें जैसे अनिष्टापत्ति होती है, उसीप्रकार ईश्वरको ज्ञानरूपसे सर्वव्यापी स्वीकार करनेरूप आपके पक्षमें भी अनिष्टापत्ति होती है । सो यह तुम्हारा कथन जैसे उपायोंसे + शत्रुको निवारण करनेमें असमर्थ पुरुष धूल फैकता है, उसके समान है । क्योंकि, ज्ञान अप्राप्यकारी है अर्थात् जहां पर ज्ञेय (जाधू नने योग्य ) पदार्थ स्थित है, वहां पर ज्ञान नहीं जाता है, इस कारण ज्ञान जो है सो अपने स्थलमें (आत्मामें ) स्थित हुआ ही ज्ञेयको जानता है । और ज्ञेयके स्थानमें जाकर ज्ञेयको नहीं जानता है । इसलिये तुमने जो हमारे पक्षमें अनिष्टापत्ति र दी है, वह किस प्रकारसे उत्तम हो सकती है अर्थात् तुमने जो दोष दिया है, वह मिथ्या है । क्योंकि तुमको भी तो अशुचि । पदार्थके ज्ञानमात्रसे उसके रसके आस्वादनका अनुभव नहीं होता है । और यदि कहो कि हमको अशुचिपदार्थके जाननेसे उसके रसका ज्ञान भी हो जाता है, तो इस प्रकार माननेपर पुष्पमाला, चंदन, स्त्री और जलेबी आदि पदार्थोंके ज्ञानमात्रसे ही तुमको तृप्ति हो जावेगी, इसकारण उन माला आदि पदार्थोंकी प्राप्तिके अर्थ जो प्रयत्न करते हो, उन प्रयत्नोंकी निष्फलताका प्रसंग होगा। भावार्थ-जैसे तुम अशुचि पदार्थके ज्ञानसे उसके रसका ज्ञान होना मानते हो, उसीप्रकार तुमको माला आदिके ज्ञानसे ही माला आदिकी इच्छाकी पूर्ति भी माननी पड़ेगी, और ऐसा मानने पर माला आदिकी प्राप्तिके लिये जो तुम प्रयत्न करते हो, वे निष्फल हो जायेंगे। यत्तु ज्ञानात्मना सर्वगतत्वे सिद्धसाधनं प्रागुक्तम् । तच्छक्तिमात्रमपेक्ष्य मन्तव्यम् । तथा चवतारोभवन्ति । 'अस्य मतिः सर्वशास्त्रेषु प्रसरति' इति । न च ज्ञानं प्राप्यकारि । तस्यात्मधर्मत्वेन बहिनिर्गमाऽभावात् । बहिनिर्गमे चात्मनोऽचैतन्यापत्त्या अजीवत्वप्रसङ्गः। न हि धर्मो धर्मिणमतिरिच्य वचन केवलो विलोकितः। यच्च परे दृष्टान्तयन्ति । यथा सूर्यस्य किरणा गुणरूपा अपि सूर्यान्निष्क्रम्य भुवनं भासयन्त्येवं ज्ञानमप्यात्मनः ॥३०॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकाशाद्वहिर्निर्गत्य प्रमेयं परिच्छिनत्तीति । तत्रेदमुत्तरम् । किरणानां गुणत्वमसिद्धम् । तेषां तैजसपुद्गलमय त्वेन द्रव्यत्वात् । यश्च तेषां प्रकाशात्मा गुणः स तेभ्यो न जातु पृथग् भवतीति । al और जो हमने पहिले ईश्वरको ज्ञानरूपसे सर्वव्यापी माननेमें सिद्धका साधन कहा है, वह भी शक्तिमात्रकी अपेक्षा करके स्वीकार | करना चाहिये अर्थात् ईश्वरका ज्ञान सव पदार्थोंके जाननेकी शक्तिको धारण करता है, ऐसा समझना चाहिये। क्योंकि " इस पुरुषकी बुद्धि सब शास्त्रोंमें फैलती हुई है " ऐसा कहनेवाले कहा करते है । भावार्थ-जैसे किसी मनुप्यकी बुद्धिकी शक्तिको का देखकर लोग कहते है कि, इसकी बुद्धि सब शास्त्रोंमें फैलती है, उसीप्रकार ईश्वरके ज्ञानकी शक्तिको देख कर ही हमने भी कहा है। कि, ईश्वरका ज्ञान सब जगह व्याप्त है । और ज्ञान प्राप्यकारी (ज्ञेयके समीप जाकर ज्ञेयको जाननेवाला) नहीं है। क्योंकि, Ke ज्ञान आत्माका धर्म होनेसे आत्माके बाहर नहीं जा सकता है । और यदि ज्ञान आत्माके बाहर जावे तो आत्माके अचेतन पनेकी प्राप्ति होनेसे अजीवत्वका प्रसंग आवे अर्थात् ज्ञानके चले जानेपर जीव अजीव हो जावे।क्योंकि, धर्मीको छोड़कर केवल धर्म कही भी नहीं देखा जाता है अर्थात् धर्मीके विना धर्म कहीं भी नहीं रहता है । और जो वैशेषिक दृष्टान्त देते है कि, जैसे सूर्यकी किरणें | गुणरूप है, तो भी सूर्यसे निकलकर जगतको प्रकाशित करती हैं, उसी प्रकार ज्ञान भी आत्मासे बाहर निकलकर ज्ञेयको जानता है। यहां पर यह उत्तर है कि, किरणोंके गुणपना असिद्ध है। क्योंकि, किरणें तेजके पुद्गलरूप होनेसे द्रव्य है। और जो उन किरणोंका प्रकाशस्वरूप गुण है, वह उन पुद्गलद्रव्यरूप सूर्यकी किरणोंसे कदाचित् भी जुदा नहीं होता है ।। तथा च धर्मसङ्ग्रहिण्यां श्रीहरिभद्राचार्यपादाः । " किरणा-गुणा न, दवं तेसिं पयासो-गुणो, न वा दवं जं णाणं आयगुणो कहमदवो स अन्नत्थ ।१ । गन्तूण न परिछिंदइ णाणं णेयं तयम्मि देसम्मि । आयत्थं मिय नवरं अचिंतसत्तीउ विण्णेयं । २ । लोहोवलस्स सत्ती आयत्था चेव भिन्नदेसम्मि । लोहं आगरिसंती दीसइ इह किरणा-गुणा न, द्रव्य तेषां प्रकाशो-गुणो, न वा द्रव्यम् । यज्ज्ञानमात्मगुणः कथमद्न्यः सः अन्यत्र । १। गत्वा न परिच्छिनत्ति ज्ञान ज्ञेयं तस्मिन्देशे । आत्मस्थमेव नवरं अचिन्त्यशक्त्या तु विज्ञेयम् । २। लोहोपलस्य शक्तिः आत्मस्थैव भिन्न देशमपि । लोहमाकती दृश्यत इह कार्यप्रत्यक्षा । ३ । एवमिह ज्ञानशक्तिः आत्मस्थैव हन्त लोकान्तम् । यदि परिच्छिनत्ति सर्व को नु विरोधो भवेत्तन्न । ४ । इतिच्छाया ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥३१॥ कजपचक्खा । ३ । एवमिह नाणसत्ती आयत्था चेव हंदि लोगंतं । जइ परिछिंदइ सधं को णु विरोहो भवे । राजै.शा. तत्थ । ४।" इत्यादि। | सोही धर्मसंग्रहणी नामक शास्त्रमें श्रीहरिभद्रजी सूरीश्वर कहते है कि-" किरणे गुण नही है। किन्तु द्रव्य है, और उन किरVणोंका जो प्रकाश है, वह तेज नामक द्रव्य नहीं है, किन्तु तैजसपुद्गलमय जो सूर्यकी किरणें है, उनका गुण है । इस कारण A आत्मारूपद्रव्यका गुणरूप जो ज्ञान है, वह आत्माके विना अन्य स्थानमें कैसे रह सकता है अर्थात् नहीं रह सकता है । १ ।। ज्ञान जो है सो जिस देशमें ज्ञेय पदार्थ स्थित है, वहां जाकर उस ज्ञेयको नहीं जानता है, किन्तु अपनेमें स्थित हुए ही ज्ञेयको जानता है। इसमें विशेष यही है कि अचिंत्यशक्ति है अर्थात् यह एक आत्माके ज्ञानमें अचिन्त्यशक्ति है, ऐसा जानना चाहिये । २ । दृष्टान्त यह है कि, जैसे-चुम्बक पाषाणकी जो आकर्षण शक्ति है, वह चुम्बकमें रहकर ही भिन्न देशमें वर्तमान जो लोह है, उसको खैचती है और जगतमें प्रत्यक्ष कार्य करती हुई देखी जाती है । ३ । इसी प्रकार जो ज्ञान शक्ति है, वह आत्मामें स्थित हुई ही यदि लोकके अंत तक विद्यमान समस्त पदार्थोंको जानती है, तो उसमें वादियोंके कौनसा विरोध होता है। भावार्थ-जैसे चुम्बककी आकर्षणशक्ति चुम्बकमें स्थित हुई ही लोहको खैच लेती है, इसी प्रकार आत्माकी ज्ञानशक्ति आत्मामें स्थित हुई ही समस्तज्ञेयको जानती है, इस कारण इस विषयमें वादियोंको विरोध न करना चाहिये । ४ । इत्यादि ॥ अथ सर्वगः सर्वज्ञ इति व्याख्यानम् । तत्रापि प्रतिविधीयते । ननु तस्य सार्वयिं केन प्रमाणेन गृहीतम् प्रत्यक्षेण परोक्षेण वा । न तावत्प्रत्यक्षेण । तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नतयाऽतीन्द्रियग्रहणाऽसामर्थ्यात् । नापि परोक्षेण । तद्धि अनुमानं शाब्दं वा स्यात् । न तावदनुमानम् । तस्य लिङ्गग्रहणलिङ्गिलिङ्गसम्बन्धस्मरणपूर्वकत्वात् । न च तस्य सर्वज्ञत्वेऽनुमेये किंचिदव्यभिचारि लिङ्गं पश्यामः। तस्याऽत्यन्तविप्रकृष्टत्वेन तत्प्रतिबद्धलिङ्गसम्बन्धग्रहणाऽभावात् । अब जो तुमने 'सर्वग' इस शब्दका सर्वज्ञ अर्थ किया है. अर्थात् ईश्वरको सर्वज्ञ माना है, इसका भी खंडन करते है। हम पूछते है कि, तुमने उस ईश्वरके सर्वज्ञपनेको किस प्रमाणसे ग्रहण किया ( जाना ) है । प्रत्यक्ष प्रमाणसे अथवा परोक्ष प्रमाणसे | यदि कहो कि, प्रत्यक्षप्रमाणसे हमने ईश्वरको सर्वज्ञ जाना है, सो नहीं । क्योंकि, वह प्रत्यक्षप्रमाण इंद्रिय और पदार्थ इन दोनोंके ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंधसे उत्पन्न होनेके कारणसे इंद्रियोंके अगोचर जो ईश्वरका सर्वज्ञत्व है, उसके ग्रहण करनेमें असमर्थ है । यदि कहो कि, हमने । परोक्षप्रमाणसे ईश्वरके सर्वज्ञत्वको जाना है, तो सो भी नहीं कह सकते हो । क्योंकि, वह परोक्ष-अनुमान तथा शाब्द NI ( आगम ) भेदसे दो प्रकारका है, इसलिये अनुमानसे जाना वा आगमसे ? अनुमानप्रमाणसे तो ईश्वरके सर्वज्ञत्वको जान नही ||| सकते हो। क्योंकि, वह अनुमान जब पहले लिंग ( हेतु ) का ग्रहण और लिङ्ग तथा लिङ्गी इन दोनोंके संबंधका स्मरण हो जाता ा है, उसके पीछे उत्पन्न होता है । भावार्थ-' पर्वत अग्निवाला है, धूमवान् होनेसे ' इस स्थलों जैसे पहिले धूमरूप लिंगका ग्रहण | होता है, और फिर धूमरूप लिंगका अग्निरूप लिङ्गीके साथ संबंधका स्मरण होता है, तब अनुमान होता है । इसी प्रकार 'ईश्वर सर्वज्ञ है ' इस अनुमानमें किसी लिंगका ग्रहण और उस लिंगका सर्वज्ञत्वरूप लिंगीके साथ संबंधका स्मरण होना चाहिये । सो नहीं है । इसलिये अनुमान नहीं हो सकता है। और हम उस ईश्वरका सर्वज्ञत्वरूप जो अनुमेय है, उसमें कोई भी | ॐ अव्यभिचारी लिङ्ग नहीं देखते है । क्योंकि वह ईश्वर अत्यन्त दूर है, इस कारण उस ईश्वरके साथ संबंधित जो लिंग है, उसका सर्वज्ञत्वरूप लिंगीके साथ संबंधके ग्रहणका अभाव है। अथ तस्य सर्वज्ञत्वं विना जगद्वैचित्र्यमनुपपद्यमानं सर्वज्ञत्वमर्थादापादयतीति चेत् । न । अविनाभावाऽभावात् । न हि जगद्वैचित्री तत्सार्वयं विनाऽन्यथा नोपपन्ना। द्विविधं हि जगत् स्थावरजङ्गमभेदात् । तत्र जङ्गमानां वैचित्र्यं स्वोपात्तशुभाऽशुभकर्मपरिपाकवशेनैव । स्थावराणां तु सचेतनानामियमेव गतिः । अचेतनानां तु तदुपभोगयोग्यतासाधनत्वेनाऽनादिकालसिद्धमेव वैचित्र्यमिति । यदि कहो कि यह जो जगतकी विचित्रता है सो उस ईश्वरकी सर्वज्ञताके विना उत्पन्न नहीं होती है, अर्थात् सर्वज्ञ ही ईश्वर N|| इस जगतकी विचित्रताको बना सकता है, इसकारण अर्थापत्तिसे ईश्वरके सर्वज्ञत्वकी सिद्धि होती है, सो भी नहीं । क्योंकि व्या प्तिका अभाव है। कारण कि-ईश्वरके सर्वज्ञत्वके विना जगतकी विचित्रता नहीं हो सकती है, ऐसा नहीं है अर्थात् जो सर्वज्ञ हो, | |वही जगतकी विचित्रताको उत्पन्न कर सकेगा, ऐसा नियम नहीं है । क्योंकि, स्थावर और जंगमरूप भेदोंसे जगत दो प्रकारका है, | उसमें जंगम ( त्रस ) जीवोंके तो अपने उपार्जन किये हुए जो शुभ तथा अशुभ कर्म है, उनके उदयके वशसे ही विचित्रता होती | all Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद्वादमं. ॥ ३२ ॥ | है । और जो सचेतन स्थावर वृक्ष आदि हैं, उनके भी पूर्वोपार्जित शुभ-अशुभकर्मोंके उदयसे ही विचित्रता है । तथा जो अचेतन स्थावर हैं, वे जो जंगम और सचेतन स्थावर हैं, उनके कर्मों के फल भोगनेकी जो योग्यता है उसके साधन है अर्थात् इनके द्वारा जीवोंको | खोपार्जित शुभ अशुभ कर्मों का फल भोगना पड़ता है, इस कारण उन अचेतन स्थावरोंके अनादिकालसे ही सिद्ध वैचित्र्य है । नाप्यागमस्तत्साधकः । स हि तत्कृतोऽन्यकृतो वा स्यात् । तत्कृत एव चेत्तस्य सर्वज्ञतां साधयति । तदा तस्य महत्त्वक्षतिः । स्वयमेव स्वगुणोत्कीर्त्तनस्य महतामनधिकृतत्वात् । अन्यच्च तस्य शास्त्रकर्त्तृत्वमेव न युज्य| ते । शास्त्रं हि वर्णात्मकम् । ते च ताल्वादिव्यापारजन्याः । स च शरीर एव सम्भवी । शरीराऽभ्युपगमे | तस्य पूर्वोक्ता एव दोषाः । अन्यकृतश्चेत्सोऽन्यः सर्वज्ञोऽसर्वज्ञो वा । सर्वज्ञत्वे तस्य द्वैतापत्त्या प्रागुक्ततदेकत्वाभ्युपगमबाधः । तत्साधकप्रमाणचर्चायामनवस्थापातश्च । असर्वज्ञश्चेत् कस्तस्य वचसि विश्वासः । अब यदि कहो कि, आगम प्रमाण जो है सो उस ईश्वरके सर्वज्ञत्वको सिद्ध करनेवाला है । सो भी नही । क्योंकि, वह आगम ईश्वरका किया हुआ है ? वा अन्य किसीका ? यदि कहो कि, ईश्वरका किया हुआ है तो यदि ईश्वरका किया हुआ आगम ही ईश्वरके सर्वज्ञत्वको सिद्ध करेगा तब तो ईश्वरके महत्त्व ( बड़प्पन ) का नाश होगा । क्योंकि, महत्पुरुष स्वयमेव ( आप ही ) अपनी प्रशंसा करना स्वीकार नही करते है । और विशेष यह है कि, वह तुम्हारा ईश्वर शास्त्रका करनेवाला ही नही हो सकता है। क्योंकि शास्त्र अक्षरों रूप है, वे अक्षर तालु ( तालवे ) आदिके व्यापार ( प्रयत्न ) से उत्पन्न होते है, और वह तालु आदिका व्यापार शरीरमें ही हो सकता है । यदि ईश्वरके शरीर मानो तो जो दोष ईश्वरको शरीर माननेमें पहले कहे है, वे ही यहां भी होवेंगे । यदि कहो कि, आगम किसी अन्यका किया हुआ है, तो हम पूछते है कि, वह अन्य पुरुष सर्वज्ञ है ? अथवा सर्वज्ञ है ? यदि कहो कि, वह अन्यपुरुष सर्वज्ञ है, तब तो ईश्वरके द्वैतापचि होगी अर्थात् सर्वज्ञ होनेसे ईश्वर दो हो जायेंगे, एक तो आगमका कर्त्ता और दूसरा जगतका कर्त्ता । और ऐसा होनेपर पहले जो तुमने ईश्वरको एक स्वीकार किया है, उसका बाध होगा । तथा उस ईश्वरके सर्वज्ञत्वको सिद्ध करनेवाले प्रमाणकी चर्चा करनेपर अनवस्था दोष भी होवेगा । अर्थात् जैसे प्रथम ईश्वरको सर्वज्ञ सिद्ध करनेके लिये तुमको दूसरा ईश्वर मानना पड़ा है, इसी प्रकार दूसरे ईश्वरको सर्वज्ञ सिद्ध करनेके लिये तीसरा और तीसरेको सिद्ध रा. जै.शा. ॥ ३२ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनेके लिये चौथा ईश्वर मानना पडेगा और ऐसा माननेपर अनवस्था दोष होगा । यदि कहो कि, वह आगमका कर्त्ता अन्यपुरुप असर्वज्ञ है तो उस असर्वज्ञ पुरुषके वचनमें विश्वास ही क्या है अर्थात् असर्वज्ञके वचनमें हम विश्वास नही करते है । ८ सप्त ," तथा अपरं च भवदभीष्ट आगमः प्रत्युत तत्प्रणेतुरसर्वज्ञत्वमेव साधयति । पूर्वाऽपरविरुद्धाऽर्थवचनोपेतत्वात् तथाहि — “ न हिंस्यात्सर्वभूतानि ” इति प्रथममुक्त्वा पश्चात्तत्रैव पठितम् “ षट्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां | मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः । " अग्नीषोमीयं पशुमालभेत | दशप्राजापत्यान् पशूनालभेत ” इत्यादिवचनानि कथमिव न पूर्वापरविरोधमनुरुध्यन्ते । तथा " नानृतं ब्रूया - त्" इत्यादिनाऽनृतभाषणं प्रथमं निषिध्य पश्चाद् “ ब्राह्मणार्थेऽनृतं ब्रूयादित्यादि ” तथा “ न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले । प्राणात्यये सर्वधनापहारे पञ्चाऽनृतान्याहुरपातकानि । १ । 35 और वह तुम्हारा माना हुआ आगम उस अपने रचनेवाले ईश्वरको सर्वज्ञ नही सिद्ध करता है, किन्तु उलटा ईश्वरको असर्वज्ञ ही सिद्ध करता है । क्योंकि तुम्हारा आगम पूर्व (आगे) तथा अपर (पीछे) में विरुद्ध अर्थोके धारक वचनों सहित है । भावार्थ| जिस आगमसे तुम ईश्वरको सर्वज्ञ सिद्ध करते हो, वह आगम पूर्वापरविरुद्धवचनोंका धारक है, अर्थात् पहले जो कहता है, उसके विरुद्ध आगें कह देता है, इसकारण अपने कर्त्ता ईश्वरको सर्वज्ञके बदले असर्वज्ञ ही सिद्ध करता है । सो ही दिखलाते हैं- “ सर्व प्रकारके जीवोंकी हिसा न करनी चाहिये” ऐसा पहिले कह कर फिर उसी तुम्हारे शास्त्रमें कहा है कि, "अश्वमेधके वचनसे मध्यम ( विचले ) दिवसमें तीन कम छः सौ अर्थात् पाचसौ सत्यानवें ५९७ पशुओंका वध किया जाता है । १ ।" इसीप्रकार " अग्निषोमीय अर्थात् अभि और चंद्र है देवता जिसका ऐसे पशुको मारना चाहिये । " तथा " प्रजापति है देवता जिनका ऐसे सतरह १७ पशुओंका वध करना चाहिये । " इनको आदि लेकर जो वचन है, वे पूर्वापरविरोधको कैसे नही धारण करते है ? अर्थात् पूर्वापरविरोधके धारक है ही । इसी प्रकार " झूठ नहीं बोलना चाहिये " इत्यादि वचनोंसे पहिले असत्यवचन | कहने का निषेध करके फिर “ ब्राह्मणके अर्थ झूठ बोलना चाहिये । " इत्यादि वचन कहे है । तथा " नर्म में अर्थात् हास्य ( मजाख अथवा ठठोल ) में यदि झूठ वचन कहा जावे तो, वह धर्मनाशक नही है, स्त्रियोंके साथ संभोग समयमें यदि असत्य१ भत्र सर्वत्र धर्ममित्यध्याहारः कर्तव्यः । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ३३ ॥ वचन कह दिया जावे तो, वह धर्मनाशक नही है २, विवाह के अवसर में वरकन्याके दोषोंको न कहकर उनके झूठे ही गुणको कह दिये जाने में जो असत्यवचन बोला जाता है, वह भी धर्मनाशक नहीं है ३, अपने वा परके प्राण जाते समय प्राणोंकी रक्षार्थ यदि असत्यवचन कहा जावे, तो वह धर्मनाशक नही है ४, और जब राजा सर्व धनको लूटता होवे, उस समय अपने धनको किसी | दूसरेका बतलाकर धनकी रक्षा करनेमें जो असत्य वचन कहा जावे तो, वह भी धर्मनाशक नही है ५, इस प्रकार पाच प्रकारके झूठ पापरूप नहीं है । १ । " तथा " परद्रव्याणि लोष्टवत्" इत्यादिना अदत्तादानमनेकधा निरस्य पश्चादुक्तं " यद्यपि ब्राह्मणो हटेन | परकीयमादत्ते छलेन वा, तथापि तस्य नाऽदत्तादानम् । यतः सर्वमिदं ब्राह्मणेभ्यो दत्तम् । ब्राह्मणानां तु दौर्ब| ल्याद्वृषलाः परिभुञ्जते । तस्मादपहरन् ब्राह्मणः स्वमादत्ते स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददातीति । तथा|" अपुत्रस्य गतिर्नास्ति ” इति लपित्वा " अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणां । दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसन्ततिम् । १ । ” इत्यादि । कियन्तो वा दधिमापभोजनात्कृपणा विवेच्यन्ते । तदेवमागमोऽपि न तस्य सर्वज्ञतां वक्ति । किञ्च सर्वज्ञः सन्नसौ चराचरं चेद्विरचयति तदा जगदुपप्लव करण स्वैरिणः पश्चादपि कर्तव्यनिग्रहान् सुरवैरिण, एतदधिक्षेपकारिणश्चास्मदादीन् किमर्थं सृजति । इति तन्नाऽयं सर्वज्ञः । तथा “परके द्रव्योंको लोष्टके समान देखने चाहियें अर्थात् दूसरोंके धनको लोहके समान अल्पमूल्यवाला समझकर न लेना चाहिये " इस वचनसे नही दिये हुए द्रव्यके ग्रहणका अर्थात् चोरी करनेका निषेध करके फिर कहा है कि, यदि ब्राह्मण हठसे अथवा अपने बलसे परके धनको लेवे, तौ भी उस ब्राह्मणके अदत्तादान अर्थात् चोरी करनेका दोष नही है । क्योकि “ ब्रह्माने सर्व जगतकी संपदा ब्राह्मणों को दी है, उन ब्राह्मणों में जो दुर्बलता हो गई इस कारणसे वृषल ( शूद्र ) उन संपदाओंका भोग करते हैं, अतः दूसरे पुरुषसे कोई भी पदार्थ छीनता हुआ ब्राह्मण अपना ही लेता है, अपना ही भक्षण करता है, अपना ही पहरता है और अपना ही देता है ।" इसी प्रकार " पुत्ररहितकी गति नही है " ऐसा कहकर फिर उसी शास्त्रमें लिखा कि, " कितने ही हजार बालब्रह्मचारी ब्राह्मण कुलकी सततिको न करके अर्थात् कुलकी रक्षार्थ संतान ( पुत्र ) उत्पन्न न करके १ आच्छादयतीत्यर्थः । रा. जै.शा. ॥ ३३ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या वर्गको गये । १।" इत्यादि । अथवा दही और उड़द इन दोनोंसे मिले हुए भोजनमेंसे कितने कीड़े जुदे २ किये जावें भावार्थ-जैसे दधिमाषभोजनमें से कीड़ोंको दूर करना कठिन है, उसी प्रकार तुम्हारे आगमके दोषोंका कहना कठिन है। | सो इस प्रकार परस्परविरुद्ध वचनोंका धारक आगम भी उस ईश्वरको सर्वज्ञ नहीं कहता है । और सर्वज्ञ मानने भी || ला विशेष यह है कि, यदि ईश्वर सर्वज्ञ होकर इस स्थावरजंगमरूप जगतको रचता है, तो अपनी इच्छानुसार जगतमें उपद्रवटा करनेवाले और पीछे दमन करने योग्य ऐसे सुरवैरियों ( दानवों ) को तथा इस ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका खंडन करनेवाले हम | जैसोंको, क्यों रचता है । भावार्थ-यदि ईश्वर सर्वज्ञ है, तो जो दानव जगतमें उपद्रव मचाते है, उनको क्यों रचता है और न रचता है तो फिर उनका निग्रह क्यों करता है । तथा—आपको न माननेवाले हम जैसोको क्यों रचे अर्थात् ईश्वरने अपने विद्वेषी | IPI जैनियोंको क्यों बनाये । इस कारण वह ईश्वर सर्वज्ञ नहीं है । तथा स्ववशत्वं स्वातन्त्र्यं तदपि तस्य न क्षोदक्षमम् । स हि यदि नाम स्वाधीनः सन् विश्वं विधत्ते परमकारुणिकश्च त्वया वर्ण्यते । तत्कथं सुखितदुःखिताद्यवस्थाभेदवृन्दस्थपुटितं घटयति भुवनम् , एकान्तशर्मसंपत्कान्तमेव लातु किं न निर्मिमीते । अथ जन्मान्तरोपार्जिततत्तत्तदीयशुभाऽशुभकर्मप्रेरितः संस्तथा करोतीति दत्तस्तर्हि स्वव|शत्वाय जलाञ्जलिः । कर्मजन्ये च त्रिभुवनवैचित्र्ये शिपिविष्टहेतुकविष्टपसृष्टिकल्पनायाः कष्टैकफलत्वादस्मन्मतमेवाऽङ्गीकृतं प्रेक्षावता। तथाचायातोऽयं “घट्टकुट्यां प्रभातम्" इति न्यायः। किञ्च प्राणिनां धर्मांधावपेक्षमाणश्चेदयं सृजति प्राप्तं तर्हि यदयमपेक्षते तन्न करोतीति । न हि कुलालो दण्डादि करोति । एवं कर्मापेक्षश्चेदीश्वरो जगत्कारणं स्यात्तर्हि कर्मणीश्वरत्वमीश्वरोऽनीश्वरः स्यादिति । al तथा “ ईश्वर खवश अर्थात् खतंत्र है " ऐसा जो तुमने कहा है, वह भी विचारको नहीं सह सकता है, अर्थात् मिथ्या है। | क्योंकि यदि वह ईश्वर स्वाधीन होकर जगतको रचता है और अत्यंत करुणाभावको धारण करता है, ऐसा तुम कहते हो तो |सुख तथा दुःख आदि रूप जो अवस्थाओंके भेद है, उनके समूहसे भरे हुए जगतको क्यों बनाता है ? और एकान्त ( सर्वथा ) | सुख तथा संपदाओंसे मनोहर जगतको क्यों नहीं रचता है ? भावार्थ-जो करुणावान् तथा स्वाधीन होता है, वह जीवोंको सुख || देनेवाले ही कार्योंको करता है और तुम्हारा ईश्वर जीवोंको सुख, तथा दुःख आदि देनेरूप जगतको रचता है, इस कारणसे विदित Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादा रा.जै.शा. ॥३४॥ होता है कि, तुम्हारा ईश्वर स्वतंत्र और करुणावान नहीं है। यदि कहो कि, ईश्वर जीवोंके अन्य (पहले) जन्मों में उपार्जन किये हुए उन २ शुभ तथा अशुभ कर्मोंसे प्रेरित होकर ऐसा करता है अर्थात् पूर्वजन्ममें जिस जीवने जैसा शुभ-अशुभ कर्म बाधा है, उस कर्मके अनुसार ही उस जीवको फल देनेके लिये ईश्वरने सुख-दुःख आदिरूप जगतको रचा है, ऐसा कहो तो तुमने ईश्वरके . स्वाधीनपनेके अर्थ जलांजली दी, अर्थात् ऐसा माननेसे तुम्हारा ईश्वर खाधीन न रहा, किन्तु कौके आधीन हो गया । और जब तीन ॐ लोककी विचित्रता कर्मोंसे उत्पन्न हुई, तब ईश्वर है कारण जिसमें ऐसी जो जगतकी रचनाकी कल्पना करना है, उसका एक कष्ट ही फल RY होनेसे विचारको धारण करनेवाले तुमने हमारे ही मतको स्वीकार किया। और हमारे मतको स्वीकार करने पर यह “घट्टकुटीप्रभात प ( जगात में प्रातःकाल )" नामक न्यायकी प्राप्ति हुई । भावार्थ-जैसे कोई मनुप्य महसूली सामानका महसूल न देनेके विचारसे जिस रास्तेमें महसूल देनेका मुकाम है, उसको छोडकर किसी दूसरे रास्तेसे शहरके भीतर जानेके लिये सपूर्ण रात्रिमें इधर / a परिभ्रमण करे, और फिर फिराकर प्रातःकाल उस महसूल देने के स्थानमें हीजा पहुचे-उसका जैसे सब रात्रिका परिश्रम करना वृथा हो । * जाता है, इसी प्रकार ईश्वरको जगतके कर्ता माननेके लिये तुमने बहुत कुछ उपाय किये, परन्तु अन्तमें जब कर्मोंसे ही जगतकी विचित्रता सिद्ध हो गई तव ईश्वरको जगतका कर्ता माननेमें केवल कष्ट ही कष्ट समझकर तुमने भी हम जैनियोंका जो " ईश्वर 5 - जगतका कर्त्ता नहीं है" यह मत है, इसीको मान लिया । और भी विशेष यह हैकि, यदि ईश्वर जीवोंके पुण्य तथा पापकी अपेक्षा y करके इस जगतको रचता है, तो यह सिद्ध हुआ कि, ईश्वर जिसकी अपेक्षा करता है उसको नहीं करता है। क्योंकि कुंभकार दंड Hd आदिको नहीं करता है । भावार्थ-जैसे कुभकार घट आदि बनानेके अर्थ दंड आदिकी अपेक्षा रखता है, अतः उनको बना। नहीं सकता, इसी प्रकार ईश्वर जगतके बनानेमें जीवोके धर्म-अधर्मकी अपेक्षा (जरूरत ) रखता है. इस कारण उनके बनाने में 10 असमर्थ है । इस प्रकार यदि कर्मोकी अपेक्षा रखनेवाला ईश्वर जगतका कारण होवे अर्थात् जगतरूपकार्यका कर्ता होवे, तो कर्ममें ईश्वरपना सिद्ध होगा और ईश्वर जो है सो अनीश्वर ( असमर्थ ) हो जावेगा। ॥३४॥ तथा नित्यत्वमपि तस्य स्वगृह एव प्रणिगद्यमानं हृद्यम् । स खलु नित्यत्वेनैकरूपः सन् त्रिभुवनसर्गस्वभावोऽतVत्स्वभावो वा । प्रथमविधायां जगन्निर्माणात्कदाचिदपि नोपरमेत । तदुपरमे तत्स्वभावत्वहानिः। एवं च सर्गक्रि Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याया अपर्यवसानादेकस्यापि कार्यस्य न सृष्टिः । घटो हि स्वारम्भक्षणादारभ्य परिसमाप्तेरुपान्त्यक्षणं यावन्निश्चयनयाभिप्रायेण न घटव्यपदेशमासादयति । जलाहरणाद्यर्थक्रियायामसाधकतमत्वात् । । अब जो तुम ईश्वरको नित्य कहते हो, सो भी तुम्हारे घरमें ही कहा हुआ अच्छा लगता है; अर्थात् अपने मतवालोंमें भी तुम चाहे ईश्वरको नित्य कहलो, परन्तु हमारे सामने ईश्वरको नित्य नहीं कह सकते हो। क्योंकि वह ईश्वर नित्य होनेसे . | एकरूपका धारक है, इसकारण हम पूछते है कि, वह ईश्वर तीन जगतको रचनेवाले खभावको धारण करता है ? अथवा तीन जगतकी रचना करनेवाला जो खभाव है, उसको नहीं धारण करता है ? यदि कहो कि तीन जगतको रचनेवाले स्वभावका धारक है, तब तो वह जगतके बनानेसे कभी भी विश्राम न लेवे, और यदि विश्राम लेलेवे तो उसके स्वभावका नाश हो जावे । भावार्थ-जब वह जगतकी रचना करनेरूप खभावका ही धारक है । तो सदाकाल जगतरूप कार्यको करता ही रहेगा और ऐसा मानने पर ईश्वर जो जगतको रचनेरूप क्रिया करता है, उसकी समाप्ति न होनेसे एक भी कार्यकी रचना न होगी। क्योंकि भिप्रायसे घट जो है सो अपनी रचना प्रारंभ होनेके प्रथम क्षणको लेकर अपनी रचनाकी समाप्तिके अंतिम क्षण-IN पर्यन्त घट इस व्यवहारको नहीं प्राप्त होता है । क्योंकि जबतक वह बन न चुके, तबतक जलको ग्रहण करना इत्यादिरूप जो अर्थक्रिया है, उसमें असाधकतम है अर्थात् वह घट बन चुकने विना जल भरने आदिमें असमर्थ है। __ अतत्स्वभावपक्षे तु न जातु जगन्ति सृजेत्तत्स्वभावायोगाद्गगनवत् । अपि च तस्यैकान्तनित्यस्वरूपत्वे सृष्टिव-al त्संहारोऽपि न घटते । नानारूपकार्यकरणेऽनित्यत्वापत्तेः । स हि येनैव स्वभावेन जगन्ति सृजेत्तेनैव तानि संहरेत् स्वभावान्तरेण वा । तेनैव चेत्सृष्टिसंहारयोर्योगपद्यप्रसङ्गः। स्वभावाभेदात् । एकस्वभावात्कारणादनेकस्वभावकार्योत्पत्तिविरोधात् । स्वभावाऽन्तरेण चेन्नित्यत्वहानिः । स्वभावभेद एव हि लक्षणमनित्यतायाः। यथा पार्थिवशरीरस्याहारपरमाणुसहकृतस्य प्रत्यहमपूर्वाऽपूर्वोत्पादेन स्वभावभेदादनित्यत्वम् । इष्टश्च भवतां सृष्टिसंहारयोः । शम्भौ स्वभावभेदः । रजोगुणात्मकतया सृष्टौ, तमोगुणात्मकतया संहरणे, सात्विकतया च स्थितौ, तस्य व्यापारस्वीकारात् । एवं चावस्थाभेदस्तद्भेदे चावस्थावतोऽपि भेदान्नित्यत्वक्षतिः। यदि कहो कि; ईश्वर तीन जगतकी रचना करने रूप खभावका धारक नहीं है, तो वह ईश्वर कदाचित् भी जगतका निर्माण नहीं இவரும் இகம் தம் இ. 2. இம் Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा स्थाद्वादमं. ॥३५॥ करे । क्योंकि जैसे आकाश जगत रचनेरूप खभावका धारक नहीं है, इसकारण जगतको नहीं रचता है, वैसे ही ईश्वर भी जगतके 1 रचनेके स्वभाववाला न होनेसे जगतको नहीं रच सकता है। और भी विशेप यह है कि, यदि ईश्वर सर्वथा नित्यखभावका ही धारक होवे तो जैसे उसके नित्य होनेसे जगतकी रचना सिद्ध नहीं होती है, वैसे ही ईश्वरकी नित्यतामें जगतका संहार ( नाश धू अथवा प्रलय ) भी नहीं सिद्ध होता है। क्योंकि वह ईश्वर जिस स्वभावसे तीनों लोकोंकों रचता है, उसी स्वभावसे उन तीनों लोकोंका नाश करता है ? वा किसी दूसरे खभावसे तीन जगतका संहार करता है ? यदि कहो कि, ईश्वर जिस स्वभावसे जगतको रचता है, उसी खभावसे जगतको नष्ट भी करता है, तब तो जगतकी रचना और जगतका नाश ये दोनों एक ही समयमें होवें. . ऐसा प्रसग होगा । कारण कि स्वभावका अभेद है. अर्थात् ईश्वर जगतके रचने और नष्ट करनेमें एकही स्वभावका धारक है। है क्योंकि एक स्वभावरूप जो कारण है, उससे अनेक स्वभावरूप कार्योंकी उत्पत्तिमें विरोध है । अर्थात् एक स्वभावरूप कारणसे अनेक स्वभाववाले कार्य नहीं हो सकते है। यदि कहो कि, ईश्वर जिस स्वभावसे जगतको रचता है, उसी स्वभावसे जगतका नाश नही करता है, किन्तु दूसरे स्वभावसे जगतका संहार करता है, तो ईश्वरके जो नित्यता है, उसका नाश हो जावेगा । क्योंकि जो । स्वभावका भेद है, वही अनित्यका लक्षण है । जैसे कि-आहारके परमाणुओंसे सहायको प्राप्त हुआ जो पार्थिव शरीर है, उसमें प्रतिदिन अपूर्व अपूर्व उत्पत्ति होनेके कारण स्वभावका भेद है, इसकारण वह अनित्य है। भावार्थ-जैसे हमारे तुम्हारे शरीरमें प्रतिदिन नवीन नवीन आकृति आदि होनेसे स्वभावका भेद है और स्वभावभेदके होनेसे ही हमारा तुम्हारा शरीर अनित्य है, उसी प्रकार ईश्वरके स्वभावका भेद माननेपर ईश्वर भी अनित्य हो जावेगा। और जगतकी रचना तथा सहारमें शभु (ईश्वर)के स्वभावका भेद होना तुमको इष्ट ही है । क्योंकि तुमने 'ईश्वर रजोगुणरूप होकर जगतकी रचनामें, तमोगुणखरूपका धारक होकर जग-1 तके नष्ट करनेमें और सात्विकपनेसे जगतकी स्थिति (रक्षा) में व्यापार करता है, ऐसा स्वीकार किया है। और इस प्रकार भिन्न २ Y गुणरूप होकर कार्य करनेमें ईश्वरकी अवस्थायें भी जुदी जुदी हुई और उन जुदी २ अवस्थाओके होनेसे अवस्थाओंका धारक 2. जो ईश्वर है, उसका भी भेद हुआ अर्थात् रजोगुणरूप अवस्थाका धारक जो ईश्वर है, उस ईश्वरसे तमोगुणरूप अवस्थावाला ईश्वर " भिन्न हुआ। और ऐसा हुआ तो ईश्वरकी नित्यताका नाश हुआ अर्थात् ईश्वर नित्य न रहा। अथास्तु नित्यः सस्तथापि कथं सततमेव सृष्टौ न चेष्टते । इच्छावशाच्चेन्ननु ता अपीच्छाः स्वसत्तामात्रनि ३५॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नात्मलाभाः सदैव किं न प्रवर्तयन्तीति स एवोपालम्भः । तथा शम्भोरष्टगुणाऽधिकरणत्वे कार्यभेदाऽनुमेयानां तदिच्छानामपि विषमरूपत्वान्नित्यत्वहानिः केन वार्यते । __ फिर भी यदि तुम यही कहो कि, ईश्वर नित्य ही है, तो अस्तु नित्य ही रहो; परंतु तो भी वह ईश्वर सदाकाल जगतके बनानेमें न चेष्टा क्यों नहीं करता है अर्थात् निरंतर जगतको क्यों नहीं बनाता है ? यदि कहो कि, ईश्वर इच्छाके वशसे निरंतर जगतको IN नही रचता है अर्थात् जब ईश्वरको जगतके रचनेकी इच्छा नहीं रहती है, तब जगतका बनाना छोड़ देता है, तो हम पूछते है | कि, अपनी विद्यमानतारूप कारणसे निज खरूपको धारण करनेवाली वे इच्छायें सदा क्यों नहीं प्रवर्ताती है। भावार्थ-इच्छायें जबतक ईश्वरमें विद्यमान रहेंगी तबतक ही इच्छा कह लायेंगी इस कारण वे इच्छायें जगतके रचनेमें ईश्वरको सदा ही क्यों नहीं 1. लगाती है ? इस प्रकार जो पहले उपालंभ था, वही यहां भी हुआ अर्थात् जैसे पहले ईश्वर सदा जगतको क्यों नहीं रचता है। यह दोष दिया है, वैसा ही यहां 'इच्छायें सदा ईश्वरको जगतके रचनेमें क्यों नहीं लगाती है' यह दोष है। और जब तुम | ईश्वरको, बुद्धि १ इच्छा २ प्रयत्न ३ संख्या ४ परिमाण ५ पृथक्त्व ६ संयोग ७ और विभाग ८ इन आठ गुणोंका अधिकरण 10 मानते हो अर्थात् ईश्वरमें बुद्धि आदि ८ गुण सदा समानरूपसे रहते है ऐसा कहते हो, तब कार्यभेदसे अनुमान करनेयोग्य ऐसी || INIजो ईश्वरकी इच्छाये है, उनकी विषमरूपतासे उत्पन्न हुई नित्यताकी हानिको कौन दूर करेगा । भावार्थ-ईश्वरमें इच्छायें सदा II | समान रहनी चाहिये । परतु जगतमें जो नाना प्रकारके कार्य देखते है, इससे अनुमान होता है कि, ईश्वरकी इच्छायें भी नाना || प्रकारकी है अर्थात् विषम है और जब ईश्वरकी इच्छायें विषम हुई तो ईश्वर अनित्य होयगा। किञ्च प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः स्वार्थकारुण्याभ्यां व्याप्ता । ततश्चायं जगत्सर्गे व्याप्रियते स्वार्थात्कारुण्याद्वा । न सतावत्स्वार्थात्तस्य कृतकृत्यत्वात् । न च कारुण्यात्परदुःखग्रहाणेच्छा हि कारुण्यम् । ततः प्राक्सर्गाज्जीवानामिन्द्रि यशरीरविषयानुत्पत्तौ दुःखाभावेन कस्य प्रहाणेच्छा कारुण्यम् । सर्गोत्तरकाले तु दुःखिनोऽवलोक्य कारुण्याऽभ्युपगमे दुरुत्तरमितरेतराश्रयम् । कारुण्येन सृष्टिः सृष्ट्या च कारुण्यम् । इति नास्य जगत्कर्तृत्वं कथमपि सिद्ध्यति । और भी विशेष यह है कि, जो प्रेक्षावान् ( विचारशील ) पुरुष है, उनकी प्रवृत्ति स्वार्थ और कारुण्यसे व्याप्त १ बुद्धीच्छाप्रयत्नसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसयोगविभागाख्याप्टगुणाधिकरणत्वे । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यादादम.'ला होती है अर्थात् विचारवान् या तो अपने प्रयोजनसे किसी कार्यको करते है, और या करुणाबुद्धिको धारणकर परोपकारके भाग.जै.शा. लिये किसी कार्यको करते है । इस कारण यह ईश्वर जगतके रचनेमें खार्थसे व्यापार करता है ? अथवा करुणाभावसे व्यापार | करता है, अर्थात् लगता है । यदि कहो कि, ईश्वरकी जगतकी रचनामें स्वार्थसे प्रवृत्ति होती है, सो तो नहीं । क्योंकि वह ईश्वर कृतकृत्य है अर्थात् उसको कोई भी कार्य करना न रहा, इस कारण कृतार्थ है । यदि कहो कि ईश्वर जगतकी रचनामें कारुण्यसे प्रवृत्ति करता है । सो भी नहीं। क्योंकि दूसरेके दुःखोंको दूर करनेकी जो इच्छा है, वह कारुण्य कहलाता है, इसकारण ईश्वरने जब जगत नहीं रचा था, उस समय जीवोंके इद्रिय, शरीर और विषयोंकी उत्पत्ति न होनेसे दुःखका अभाव था अर्थात् नइंद्रिय, शरीर तथा विषयोंसे दुःख उत्पन्न होता है और वे इद्रियआदि जीवोंके थे नही, फिर किसको दूर करनेकी इच्छा हुई जिससे कि, ईश्वरने कारुण्यसे जगतको रचा। और जगतको रचनेके पीछे दुःखी जीवोंको देखकर ईश्वरने कारुण्य धारण किया, ऐसा मानो तो इतरेतराश्रय (अन्योन्याश्रय ) नामक दोष नही दूर हो सकता है । क्योंकि कारुण्यसे जगतकी रचना हुई और जगतकी रचनासे कारुण्य हुआ। इस कारण ईश्वरके जगतका कर्त्तापना किसी भी प्रकारसे सिद्ध नहीं हो सकता है। तदेवमेवंविधदोषकलुपिते पुरुषविशेषे यस्तेषां सेवाहेवाकः स खलु केवलं बलवन्मोहविडम्बनापरिपाक इति । 1 अत्र च यद्यपि मध्यवर्तिनो नकारस्य घण्टालालान्यायेन योजनादर्थान्तरमपि स्फुरति । यथा 'इमाः कुहेवाकविड म्वनास्तेषां न स्युर्येषां त्वमनुशासक' इति । तथापि सोऽर्थः सहृदयैर्न हृदये धारणीयः। अन्ययोगव्यवच्छेदस्याधिकृतत्वात् । इति काव्यार्थः ॥ ६॥ सो इस प्रकार अनेक दोपोंसे दूषित पुरुषविशेष ( ईश्वर ) में जो वैशेषिकोंका सेवामें आग्रह है, वह बलवान जो मोह है, उसकी विडम्बनाका परिपाक ( उदय अथवा फल) है। और "इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेपांनयेषामनुशासकस्त्वम्।" यहां पर मध्यवर्ती जो नकार है, उसका घटालालान्यायसे अन्वय करनेपर दूसरा अर्थ भी निकलता है अर्थात् जैसे-घंटामें जो टोकरी रहती है, यह घटाके दोनों तरफको लगती है, इसीप्रकार मध्यवर्ती नकारका भी दो प्रकारसे अन्वय होता है। जैसे-कि, यह कदा- ॥३६॥ ग्रहरूप विडम्बनायें उनके न होवें, जिनके कि, आप हितोपदेशक है । तथापि यह अर्थ सहृदयों (मर्मवेत्ताओं) को हृदयमें न धारण करना चाहिये । क्योंकि यहां स्तुतिकारने अन्ययोगव्यवच्छेदका अवलम्बन किया है। इस प्रकार काव्यका अर्थ है । ६।५ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चैतन्यादयो रूपादयश्च धर्म्मा आत्मादेर्घटादेश्व धम्मिणोऽत्यन्तं व्यतिरिक्ता अपि समवायसम्बन्धेन संबद्धाः सन्तो धर्म्मधमिव्यपदेशमश्नुवते । तन्मतं दूषयन्नाह । अब “यद्यपि जीवादिक धर्मीसे ज्ञानादिक धर्म और घटादिक धर्मसे रूपआदि धर्म अत्यन्त भिन्न है अर्थात् गुणीसे गुण सर्वथा भिन्न है, तथापि परस्पर भिन्नरूप ये दोनों धर्म और धर्मी समवायसंबधसे परस्पर संबंधको प्राप्त होकर धर्मधर्मिव्यवहारको | अर्थात् यह पदार्थ धर्मी ( धर्मोंको धारण करनेवाला ) है और ये इसमें रहनेवाले धर्म ( गुण) हैं, इस व्यवहारको प्राप्त होते है" इस वैशेषिकोंके मतको दूषित करते हुए ग्रन्थकार इस अग्रिम काव्यका कथन करते हैं । 1 न धर्मधमित्वमतभेदे वृत्त्यास्ति चेन्न त्रितयं चकास्ति । इदमित्यस्ति मतिश्च वृत्तौ न गौणभेदोऽपि च लोकवाधः ॥ ७ ॥ काव्यभावार्थः — धर्म और धर्मीको सर्वथा भिन्न माननेमें धर्मधर्मिव्यवहार नहीं होता है । यदि वादी कहैं कि, समवायसंबंध से परस्पर भिन्नरूप धर्म और धर्मीका एक दूसरेके साथ संबंध हो जाता है, अतः धर्मधर्मिव्यवहार होता है । सो नहीं । क्योंकि जैसे- धर्म और धर्मी इन दोनोंका ज्ञान होता है; उसी प्रकार समवायका ज्ञान नहीं होता है । फिर यदि वादी कहैं कि, 'यहां यह है' इस | प्रकारके इह प्रत्यय से समवायका ज्ञान होता है, तो ' यहां यह है' इस प्रकारकी बुद्धि समवाय में भी | है । इस कारण उस समवाय में संबंधका कारण दूसरा समवाय और उसमें भी दूसरा समवाय मानने| से अनवस्था होगी। यदि वादी कहैं कि, समवायमें समवायत्व गौणरूपसे है । सो भी ठीक नहीं है । और इहप्रत्ययसे समवायको सिद्ध करनेमें लोकसे भी विरोध होता है ॥ ७ ॥ 4 -१ वैशेषिकाणां मते उत्पन्नं द्रव्यं क्षणमगुणं तिष्ठतीति । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥३७॥ व्याख्या । धर्मधर्मिणोरतीवभेदेऽतीवेत्यत्रेवशब्दो वाक्यालङ्कारे । तं च प्रायोऽतिशब्दाकिंवृत्तेश्च प्रयुञ्जते राजै.शा. शान्दिकाः। यथा “ आवर्जिता किञ्चिदिव स्तनाभ्याम्" "उद्धृत्तः क इव सुखावहः परेपाम्” इत्यादि न्तभिन्नत्वेऽङ्गीक्रियमाणे धर्मधम्मित्वं न स्यात् । अस्य धर्मिण इमे धम्मो एपां च धर्माणामय धीत्येवं सर्वप्रसिद्धो धर्मधम्मिव्यपदेशो न प्राप्नोति । तयोरत्यन्तभिन्नत्वेऽपि तत्कल्पनायां पदार्थान्तरधर्मा|णामपि विवक्षितधर्मधम्मित्वापत्तेः। व्याख्यार्थ:-"अतीवभेदे" धर्म (गुण) और धर्मी (गुणी) इन दोनोंको अत्यन्त भिन्न माननेपर ['अतीव' यहांपर जो अति के साथ 'इव' का योग (अतिxइव अतीव ) है, वह वाक्यके अलंकारमें है और शाब्दिक (व्याकरणके जाननेवाले) पुरुष इस 'इव' शब्दका प्रायः अतिशब्दके साथ, किवृत्ति ('किम्' शब्दके साथ समासको प्राप्त हुए शब्द) के साथ तथा किंशब्दके साथ योग किया करते है। जैसे कि " आवर्जिता किञ्चिदिव स्तनाभ्याम् ।" "उद्त्तः क इव सुखावहः परेपाम् । " यहांपर किंवृत्ति और किंशब्दके साथ 'इव' का योग किया गया है।]"धर्मधर्मित्वं" धर्मधर्मापना अर्थात् इस धर्मीक ये धर्म है, और इन धर्मोंका यह आधारभूत (रहनके स्थानरूप), धर्मी है, इसप्रकारका जो सर्वप्रसिद्ध धर्मधर्मिव्यवहार है, वह नहीं होता है। क्योंकि यदि धर्म और धर्मीके परस्पर अत्यत भेद होनेपर भी जो धर्मधर्मिभावकी कल्पना करोगे तो अन्यपदार्थोंके जो धर्म है, उनके भी विवक्षित धर्मधर्मिभाव हो जावेगा। भावार्थ-वैशेषिकमतमें द्रव्य (धर्मी) और गुण (धर्म ) इन दोनोंको सर्वथा भिन्न " माने गये हैं। क्योंकि 'जो द्रव्य उत्पन्न होता है, वह प्रथमक्षणमें गुणोंसे रहित ही रहता है, ऐसा उनका मत है । इसकारण शास्त्रकार कहते है कि, यदि परस्पर भेदके धारक धर्म और धर्मीके धर्मर्मिभाव मानोगे, तो एक पदार्थका धर्म किसी दूसरे पदार्थका धर्म हो जावेगा अर्थात् जब अग्निके उप्णत्वधर्मका अग्निके साथ और जलके शीतत्वधर्मका जलके साथ सर्वथा भेद होगा। तब जलका शीतत्व धर्म अग्निका धर्म हो जावेगा और अग्निका उप्णत्वधर्म जो है, वह जलका धर्म हो जावेगा। क्योंकि धर्म धर्मीके सर्वथा भेद होनेसे यह धर्म इसी धर्मीका है, ऐसा कोई नियामक [ नियम करानेवाला ] नहीं है। ॥३७॥ ___ एवमुक्ते सति परः प्रत्यवतिष्ठते । वृत्त्यास्तीति । अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहनत्ययहेतुः सम्बन्धः समवायः । स च समवयनात्समवाय इति, द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेपेषु पञ्चसु पदार्थेषु वर्तनाद् वृत्तिरिति Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्यायते । तया वृत्त्या समवायसम्बन्धेन तयोर्धर्मधर्मिणोरितरेतरविनिर्लुण्ठितत्वेऽपि धर्मधर्मिव्यपदेश इष्यते । इति नानन्तरोक्तो दोष इति । इस प्रकार शास्त्रकारके कहने पर वादी उत्तर देते है कि, " वृत्त्या ” वृत्ति ( समवाय ) से " अस्ति" है । भावार्थअयुतसिद्ध [ एक दूसरेके विना कदापि नहीं रहनेवाले ] ऐसे जो आधार्य [ रहने योग्य ] और आधार ( रहनेके स्थानभूत ] | पदार्थ है, उनमें 'यहां यह है' इस ज्ञानका कारणभूत जो संबंध है, उसको समवाय कहते है। वह समवाय एक दूसरेको परस्पर I संबंधित करनेसे अर्थात् अवयवको और अवयवीको, जातिको और व्यक्तिको, गुणको और गुणीको, क्रियाको और क्रियावानको ना || नित्यद्रव्यको तथा विशेषको मिलानेसे समवाय कहलाता है, और द्रव्य १ गुण २ कर्म ३ सामान्य ४ और विशेष ५ इन पांचोंमें || रहनेसे वृत्ति कहलाता है । उस समवायसंबंधसे उन दोनों धर्मधर्मियोंके परस्पर भेद होनेपर भी हम धर्मधर्मिव्यवहार मानते है । a अत्राचार्यः समाधत्ते । चेदिति। यद्येवं तव मतिः सा प्रत्यक्षप्रतिक्षिप्ता। यतो न त्रितयं चकास्ति । अयं धर्मी, इमे चास्य धाः , अयं चैतत्सम्बन्धनिबन्धनं समवाय इत्येतत्रितयं वस्तुत्रयं न चकास्ति ज्ञानविषयतया न प्रतिभासते। यथा किल शिलाशकलयुगलस्य मिथोऽनुसन्धायकं रालादिद्रव्यं तस्मात्पृथक् तृतीयतया प्रतिभासते । नैवमत्र समवायस्याऽपि प्रतिभानम् । किन्तु द्वयोरेव धर्मधर्मिणोः । इति शपथप्रत्यायनीयोऽयं समवाय इति भावार्थः। al अब आचार्य इस उपर्युक्त वादीकी शंकाका समाधान करते है कि, " चेत् " यदि ऐसी तुम्हारी बुद्धि है, तो वह प्रत्यक्षसे GI खंडित है अर्थात् तुम जो समवायसंबंधसे धर्मधर्मिभावको सिद्ध करते हो, उसका प्रत्यक्षप्रमाणसे खंडन होता है । क्योंकि "त्रितयं " तीन "न" नहीं " चकास्ति" प्रतिभासते है । अर्थात् यह धर्मी है, ये इस धर्मी के धर्म हैं और यह इन दोनों धर्मधर्मियोंके संबंधका कारणभूत समवाय है, इसप्रकार ये तीन पदार्थ ज्ञानकी विषयतासे प्रतिभासित नहीं होते हैं। अर्थात् जाननेमें नहीं आते है । भावार्थ-जैसे शिला [एक प्रकारके पत्थर के दो टुकड़ोंको जोड़नेवाला राल आदिक द्रव्य तीसरे NT | रूपसे भासता है अर्थात् जैसे शिलाके दो टुकड़ोंका जुदा जुदा ज्ञान होता है, उसी प्रकार उनका संबंध करानेवाला राल आदि | द्रव्य भी भिन्न जाना जाता है । इसी प्रकार यहां समवायका भी प्रतिभास होना चाहिये; परंतु नही होता है; किन्तु धर्म तथा धर्मी | इन दोका ही प्रतिभास होता है । इस कारण धर्म और धर्मीका संबंध करानेवाले समवाय नामक भिन्न पदार्थको जो तुम सिद्ध Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. याद्वादमं. ॥३८॥ करते हो, सो सौगन खाकर विश्वास कराने योग्य है अर्थात् प्रत्यक्षसे समवाय सिद्ध नहीं होता है, तो भी तुम हठसे उसको सिद्ध करते हो, इस कारण हम समवायको नहीं मानते हैं। किञ्चायं तेन वादिना एको नित्यः सर्वव्यापकोऽमूर्त्तश्च परिकल्प्यते । ततो यथा घटाश्रिताः पाकजरूपादयो धर्माः समवायसम्बन्धेन समवेतास्तथा किं न पटेऽपि । तस्यैकत्वनित्यत्वव्यापकत्वैः सर्वत्र तुल्यत्वात् । यथाकाश एको नित्यो व्यापकः अमूर्तश्च सन् सर्वैः सम्बन्धिभिर्युगपदविशेषेण संवध्यते तथा किं नायमपीति । विन-2 श्यदेकवस्तुसमवायाऽभावे च समस्तवस्तुसमवायाऽभावः प्रसज्यते । तत्तदवच्छेदकभेदान्नायं दोष इतिचेदेवमनित्यत्वापत्तिः । प्रतिवस्तुस्वभावभेदादिति । । और भी विशेष यह है कि, उन वैशेषिकोंने यह समवाय एक, नित्य, सर्वव्यापक तथा अमूर्त माना है, इस कारण जैसे घटमें रहनेवाले पाकज [ घटको अग्निमें पकानेसे उत्पन्न होनेवाले ) रूप आदिक धर्म समवायसवधसे घटमें मिले है, उसीप्रकार पटमें भी धू क्यों नहीं मिले । क्योंकि वह समवाय एक, नित्य और व्यापक होनेसे सब पदार्थों में समान खरूपका धारक है। भावार्थTo जैसे-आकाश जो है, वह एक, नित्य, व्यापक और अमूर्त है, इसकारण सब संबंधियोंके साथ एक ही समयमें समानरूपतासे 8 सबध रखता है, उसीप्रकार यह समवाय भी जैसे पाकजरूपका घटके साथ संबंध कराता है, वैसे पटके साथ भी संबंध क्यों नहीं 1 कराता है । और नष्ट होते हुए किसी एक वस्तुमें समवायका नाश होनेपर समस्त पदार्थोंमें समवायके अभाव होनेका भी प्रसग . ॐ होता है. अर्थात् सर्वव्यापक और एक होनेसे समवाय सर्वत्र समान है, इस कारण जब एक पदार्थमें समवायका नाग होवेगा, तब सब पदार्थोंमें समवायका नाश होगा । और यह तुमको इष्ट नहीं है । यदि उस उस अवच्छेदक (भेद करने वाले) के भेदसे यह दोष नहीं है अर्थात् जो घटत्वावच्छेदक समवाय है, वह घटमें रहता है, और जो पटत्वावच्छेदक समवाय है, वह पटमें रहता है, इसकारण जब घटत्वावच्छेदक समवायका नाश होता है तव पटत्वाच्छेदक समवायका नाश नहीं होता है । ऐसा कहो तो प्रत्येक वस्तुके साथ खभावका भेद होनेसे समवायके अनित्यता प्राप्त हो जावेगी अर्थात् घटके साथ अन्यखभावसे और पटके साथ अन्यखभावसे रहनेके कारण समवाय नित्य न रहेगा। ke अथ कथं समवायस्य न ज्ञाने प्रतिभानम् । यतस्तस्येहेतिप्रत्ययः सावधानं साधनम् । इहप्रत्ययश्चाऽनुभवसिद्ध । ३८॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - एव । इह तन्तुषु पट, इहात्मनि ज्ञानमिह घटे रूपादय इति प्रतीतेरुपलम्भात् । अस्य च प्रत्ययस्य केवलधर्मधय॑नालम्बनत्वादस्ति समवायाख्यं पदार्थान्तरं तद्धेतुः।इति पराशङ्कामभिसन्धाय पुनराह । इहेदमित्यस्ति मतिश्चवृत्ताविति । इहेदमिति इहेदमिति आश्रयाश्रयिभावहेतुक इह प्रत्ययो वृत्तावप्यस्ति समवायसंबन्धेऽपि विद्यते । चशब्दोऽपिशब्दार्थस्तस्य च व्यवहितसम्बन्धस्तथैव च व्याख्यातम् । अब “ समवायका ज्ञानमें प्रतिभासन कैसे नहीं होता है अर्थात् होता ही है । क्योंकि उस समवायका इहप्रत्यय सावधान ! ( प्रबल ) साधन है, अर्थात् समवायके विना इहप्रत्यय नहीं हो सकता है, इसकारण अर्थापत्तिसे समवाय सिद्ध होता है । और IMइन तंतुओंमें पट है, इस आत्मामें ज्ञान है तथा इस घटमें रूप आदिक हैं, इस प्रतीतिके प्राप्त होनेसे इहप्रत्यय तो अनुभवसे ही Kall सिद्ध है । और यह इहप्रत्यय केवल धर्मके आधार भी नहीं है और केवल धर्मीके आधार भी नहीं है, इसकारण समवायनामक जो धर्म और धर्मीसे भिन्न एक तीसरा पदार्थ है, वही इहप्रत्ययका हेतु है अर्थात् — यहां यह है ' ऐसी प्रतीति न तो केवल धर्ममें ही होती है और न केवल धर्मीमें ही होती है. अतः समवाय ही इस प्रतीतिका कारण है । " इस प्रकार वादीकी शंकाको चित्तमें धारण करके ग्रन्थकार फिर कहते है कि, "इह" यहां " इदम्" यह "अस्ति" है । "इति" इसप्रकारकी "मतिः बुद्धि जो है सो"वृत्तौ" समवायसंबंधमें "" भी "अस्ति" है अर्थात आधार तथा आधेय ये दोनों है कारण जिसके | ऐसा इहप्रत्यय समवायसंबंधमें भी होता है। [ 'मतिश्च' यहां 'च' यह शब्द अपि शब्दके अर्थमें है, और उसका व्यवहितसंबंध | है, इसकारण यहां पर उसीरीतिसे इसकी व्याख्या की गई है ।] इदमत्र हृदयम् । यथा-त्वन्मते पृथिवीत्वाभिसंवन्धात्पृथिवी तत्र पृथिवीत्वं पृथिव्या एव स्वरूपमस्तित्वाख्यं । नाऽपरं वस्त्वन्तरम् । तेन स्वरूपेणैव समं योऽसावभिसम्बन्धः पृथिव्याः स एव समवाय इत्युच्यते। "प्राप्तानामेव || प्राप्तिः समवायः” इति वचनात् । एवं समवायत्वाभिसम्बन्धात्समवाय इत्यपि किं न कल्प्यते । यतस्तस्याऽपि यत्समवायत्वं स्वस्वरूपं तेन सार्द्ध संवन्धोऽस्त्येव । अन्यथा निःस्वभावत्वात् शशविषाणवदवस्तुत्वमेव भवेत् ।। ततश्च इह समवाये समवायत्वमित्युल्लेखेन इहप्रत्ययः समवायेऽपि युक्त्या घटत एव । ततो यथा पृथिव्यां पृथिवीत्वं । - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद मं. ॥ ३९ ॥ समवायेन समवेतं समवायेऽपि समवायत्वमेवं समवायान्तरेण संबन्धनीयं तदप्यपरेणेत्येवं दुस्तराऽनवस्थामहानदी । यहां पर तात्पर्य यह है कि, जैसे तुम्हारे मतमें पृथिवीत्वके संबंधसे पृथिवी है । और उस पृथ्वीमें जो पृथ्वीपना है, वह पृथि - बीका ही अस्तित्व नामक धर्म है, अन्य कोई दूसरा पदार्थ नहीं है । और उस पृथिवीत्वरूप अपने खरूपके साथ ही जो कोई पृथिवीका संबंध है, उसीको ' प्राप्त हुओंकी जो प्राप्ति है, वह समवाय है' इस वचनसे 'समवाय' ऐसा कहते है । इसीप्रकार 'समवायत्वके संबंधसे समवाय है' यह भी तुम क्यों नहीं मानते हो। क्योंकि उस समवायका भी समवायत्वरूप निजस्वरूपके साथ संबंध है ही । क्योंकि यदि समवायका समवायत्वके साथ संबंध न होगा तो स्वभावरहित होनेसे शशशृंग ( सुस्सेके सींग ) के समान समवाय भी अवस्तु ही हो जावेगा अर्थात् जैसे स्वभावरहित होनेके कारण शशशृग कोई पदार्थ नहीं है, इसी प्रकार खभावरहितपनेसे समवाय भी पदार्थ न रहेगा, इस कारण समवायका समवायत्वके साथ संबंध तुमको मानना ही होगा । और जब समवायका समवायत्वके साथ संबंध मानोगे तब इस समवायमें समवायत्व है, इस प्रकार कहनेसे समवाय में भी इहप्रत्यय युक्तिसे सिद्ध हो ही जावेगा । अतः जैसे पृथिवीमें पृथिवीत्व समवायसंबधसे समवेत ( मिला हुआ ) समवायत्वको दूसरे समवायसे संबंधित करना चाहिये । और उस दूसरे समवायमें जो समवायत्व है, उसको तीसरे समवायसे उसी प्रकार समवाय में भी संबंधित करना चाहिये । और इस प्रकार जब समवायमें समवायत्वको संबंधित करनेके लिये नया २ समवाय मानोंगे तब अनवस्थादोष नामक जो महानदी है, वह दुस्तर (दु खसे पार पानेवाली) हो जावेगी अर्थात् नये २ समवायोंका कभी अंत ही न आवेगा । एवं समवायस्यापि समवायत्वाभिसम्बन्धे युक्त्या उपपादिते साहसिक्यमालम्ब्य पुनः पूर्वपक्षवादी वदति । ननु पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वादिसम्बन्धनिबन्धनं समवायो मुख्यस्तत्र त्वतलादिप्रत्ययाभिव्यङ्गयस्य सङ्गृहीतसकलांवान्तरजातिलक्षणव्यक्तिभेदस्य सामान्यस्योद्भवात् । इह तु समवायस्यैकत्वेन व्यक्तिभेदाऽभावेजातेरनुद्भूतत्वाद्गौणोऽयं युष्मत्परिकल्पित इहेतिप्रत्ययसाध्यः समवायत्वाभिसम्बन्धस्तत्साध्यश्च समवाय इति । इस प्रकार युक्तिसे समवायका भी समवायत्वके साथ संबंध है, यह सिद्ध कर चुकने पर फिर भी पूर्वपक्षवादी ( वैशेषिक ) साहसको धारण करके कहते है कि पृथिवी आदिके साथ पृथिवीत्व आदिका संबंध करानेका कारणभूत जो समवाय है, वह मुख्य है। क्योंकि उन पृथिवी आदिमें- 'त्व, तल ' इत्यादि तद्धितके प्रत्ययोसे जानने योग्य और पृथिवी आदिमें रहनेवाली जो समस्त रा. जै. शा ॥ ३९ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातियें, लक्षण और व्यक्तिविशेष है उनको संग्रह करनेवाले ऐसे सामान्यकी उत्पत्ति है । और यहां तो समवाय एक है, इसकारण उस समवाय में व्यक्तियोंके भेदका अभाव होने पर जातिकी उत्पत्ति नहीं होती है। अतः आपका इहप्रत्ययसे सिद्ध होने योग्य | समवायत्वका समवायके साथ संबंध और उस समवायत्वसे साध्य समवाय ये दोनों गौण हैं । तदेतन्न विपश्चिश्चेतश्चमत्कारकारणम् । यतोऽत्रापि जातिरुद्भवन्ती केन निरुध्येत । व्यक्तेरभेदेनेतिचेत् । न । तत्तदवच्छेदकवशात्तद्भेदोपपत्तौ व्यक्तिभेदकल्पनाया दुर्निवारत्वात् । अन्यो हि घटसमवायोऽन्यश्च पटसमवाय | इति व्यक्त एव समवायस्यापि व्यक्तिभेद इति । तत्सिद्धौ सिद्ध एव जात्युद्भवः । तस्मादन्यत्रापि मुख्य एव | समवायः । इहप्रत्ययस्योभयत्राप्यव्यभिचारात् । सो यह तुम्हारा कहना विद्वानोंके चित्तमें चमत्कार उत्पन्न करनेवाला नहीं है अर्थात् इस तुम्हारे कथनसे विद्वानोंको संतोष नहीं होता है । क्योंकि इस समवायमै उत्पन्न हुई जातिको कोन रोकता है ? अर्थात् समवायमें जातिको रोकनेवाला कोई भी नहीं है । यदि कहो कि, व्यक्तिका भेद नहीं है अर्थात् समवाय एक ही है, इसकारण समवायमें जाति नहीं है । सो नही । क्योंकि उस | उस अवच्छेदकके वशसे उस उस भेदकी उत्पत्ति होनेसे घट समवाय अन्य है, और पट समवाय अन्य है. इस प्रकारसे समवायके | भी व्यक्तिका भेद प्रकट हो ही गया अर्थात् घटत्वावच्छेदकके वशसे जो घटत्वावच्छेदक समवाय उत्पन्न हुआ है वह भिन्न है। और पटत्वावच्छेदकके वशसे उत्पन्न हुआ जो पटत्वावच्छेदकसमवाय है, वह भिन्न है । इसकारण घटसमवाय पटसमवाय | इत्यादि भिन्न २ व्यक्तियोंके होनेसे समवाय में व्यक्तिभेद प्रकट ही है । और इसप्रकार जब समवाय में व्यक्तिका भेद सिद्ध हो | गया तब व्यक्तिका भेद होनेसे जातिकी भी उत्पत्ति हो ही गई । इस कारण जैसे पृथ्वीमें समवाय मुख्य है, उसी प्रकार समवायम भी समवाय मुख्य ही है । क्योंकि इहप्रत्यय जो है, वह पृथिवी और समवाय इन दोनोंमें ही है। तदेतत्सकलं सपूर्वपक्षं समाधानं मनसि निधाय सिद्धान्तवादी प्राह । न गौण इति । योऽयं भेदः स नास्ति गौणलक्षणाभावात् |१| तलक्षणं चेत्थमाचक्षते । “अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽन्तरङ्गश्च । विपरीतो | गौणोऽर्थः सति मुख्ये धीः कथं गौणे । ” तस्माद्धर्म्मधर्मिणोः सम्बन्धने मुख्यः समवाय समवाये च समवायत्वाभिसम्बन्धे गौण इत्ययं भेदो नानात्वं नास्तीति भावार्थः । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. स्थाद्वादमं. | इस प्रकार इन समस्त पूर्वपक्षोंको (वादियोंकी शंकाओंको) और उन वादियोंकी शंकाओंके जो ऊपरमें समाधान कर चुके है, Vउनको चित्तमें धारण करके सिद्धान्तवादी आचार्यमहाराज कहते है कि, वैशेषिकोंने जो समवायमें समवाय है, उसको गौण कहकर । ॥४०॥ धर्मधर्मीके समवायसे समवायके समवायमें भेद कहा है सो नहीं है । क्योंकि गौणका जो लक्षण है, वह समवायमें नहीं सिद्ध होता है । और गौणका लक्षण इस प्रकार कहते है “ अव्यभिचारी, अविकल, असाधारण, और अंतरंग ऐसा जो अर्थ जा है, वह तो मुख्य है, और उससे विपरीत अर्थात् व्यभिचारी, विकल, साधारण तथा बहिरग अर्थ गौण है. इसकारण मुख्य | अर्थके विद्यमान होने पर गौण अर्थमें वुद्धि कैसे होवे ॥१॥" किञ्च योऽयमिह तन्तुषु पट इत्यादिप्रत्ययात्समवायसाधनमनोरथः स खल्वनुहरते नपुंसकादपत्यप्रसवमनो त्पांशुलपादानामपि इह पटे तन्तव इत्येवं प्रतीतिदर्शनात ।। इह भूतले घटाभाव इत्यत्रापि समवायप्रसङ्गात् । अत एवाह । अपि चलोकवाध इति। अपिचेति दूपणाभ्युच्चये। लोकः प्रामाणिकलोकः सामान्यलोकश्च तेन वाधो विरोधो लोकबाधस्तदप्रतीतव्यवहारसाधनात् । वाधशब्दस्य “ईहाद्याः प्रत्ययभेदतः” इति पुंस्त्रीलिङ्गता)। तस्माद्धर्मधर्मिणोरविष्वग्भावलक्षण एव सम्बन्धः प्रतिपत्तव्यो नान्यः समवायात् । इति काव्यार्थः॥७॥ | और भी विशेष दोष यह है कि, तुम्हारा जो यह " इन तंतुओंमें पट है' इत्यादिरूप इहप्रत्ययसे समवायको सिद्ध करनेका मनोरथ है, वह नपुसकसे पुत्र उत्पन्न करनेके मनोरथके समान है । भावार्थ-जैसे नपुंसकसे कभी पुत्र उत्पन्न नहीं होता है, इसी प्रकार इस इहप्रत्ययसे भी समवाय सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि इन तंतुओंमें पट है, इत्यादि व्यवहार लोकसे विरुद्ध है। कारण कि जो पांशुलपाद (धूलिके धारक चरणोंवाले ) अर्थात् गांवके लोग है, उनके भी इस पटमें ततु है, ऐसी ही प्रतीति देखी जाती नाहै। और इन तंतुओंमें पट है ऐसी प्रतीति नहीं देखते है। भावार्थ-ग्रामवासी मूर्ख लोग भी पटमें तंतु है, ऐसा मानते है।। ॐ विद्वानोंका तो कहना ही क्या ? और तुम इन तंतुओमें पट है, ऐसा लोकविरुद्ध मत खीकार करके उससे समवायको सिद्ध करते ॥४०॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो । इसकारण मूल्से भी गये वीते हो। और 'यहां यह है ' इस इहप्रत्ययसे ही समवायको सिद्ध करोगे तो इस भूतलमें | घटका अभाव है, यहां भी समवाय मानना पड़ेगा । और यह तुमको इष्ट नहीं है। "अपि च" और भी दोष यह है कि [यहां नाअपिच यह शब्द दूषणोंके समूहको दिखलाने वाले अर्थका धारक है । ] " लोकवाधः" लोकसे अर्थात् प्रामाणिक ( न्यायके | जाननेवाले ) जन है, उनसे और जो सामान्यपुरुष है, उनसे भी विरोध होगा। क्योंकि तुम उनकी प्रतीतिमें नहीं आनेवाला || ला ऐसा जो व्यवहार है, उसको सिद्ध करते हो । [ यहां पर बाधशब्द पुल्लिंग है। क्योंकि — ईहाद्याः प्रत्ययभेदतः' इस सूत्रसे || All बाध शब्द पुलिग और स्त्रीलिंग, इन दोनोंमें ही होता है । ] इस कारण धर्म और धर्मीके अविष्वग्भावलक्षणका धारक अर्थात् तादा-I| म्यरूप ही संबंध मानना चाहिये । और समवायसे संबंध न मानना चाहिये । भावार्थ-धर्म और धर्मीके परस्पर समवायसे | संबंध होता है, ऐसा माननेमें पूर्वोक्त प्रकारोंसे अनेक दोष आते है, इस कारण धर्म और धर्मी; इन दोनोंके तादात्म्यसंबंध है। || अर्थात् धर्म और धर्मी अभिन्न है । यह ही स्वीकार करना चाहिये । इसप्रकार काव्यका अर्थ है ॥ ७॥ KM अथ सत्ताभिधानं पदार्थान्तरमात्मनश्च व्यतिरिक्तं ज्ञानाख्यं गुणमात्मविशेषगुणोच्छेदस्वरूपां च मुक्तिमज्ञा| नादङ्गीकृतवतः परानुपहसन्नाह । अब सत्तानामक एक भिन्न पदार्थको, आत्मासे भिन्न ज्ञाननामक गुणको तथा आत्माके विशेषगुणोंका नाश होनेरूप मोक्षको | अज्ञानसे माननेवाले वैशेषिकोंका हास्य करते हुए शास्त्रकार इस अग्रिम काव्यका कथन करते है। सतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्ता चैतन्यमौपाधिकमात्मनोऽन्यत्। न संविदानन्दमयी च मुक्तिः सुसूत्रमासूत्रितमत्वदीयैः॥८॥ | काव्यभावार्थः-हे नाथ ! जो सत् पदार्थ हैं; उनमें भी किसी किसीमें सत्ता है. अर्थात् सब। सत्पदार्थों में सत्ता नहीं है १ ज्ञान उपाधि जनित है, इसकारण आत्मासे भिन्न है २ और मोक्ष जो| - Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमः है, वह ज्ञान तथा सुखरूप नहीं है ३ इस प्रकार इन तीनों मतोंका समर्थन करते हुए आपकी राजै.शा. * आज्ञासे बाह्य ऐसे वैशेषिकोंने बहुत अच्छे शास्त्र रचे हैं ॥ ८ ॥ ॥४१॥ व्याख्या।वैशेषिकाणां द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाख्याः षट्पदार्थास्तत्त्वतयाऽभिप्रेताः। तत्र पृथिव्यापस्तेजोवायराकाशः कालो दिगात्मा मन इति नव द्रव्याणि । गुणाश्चतुर्विंशतिस्तद्यथा-रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यापरिमाणा५ नि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वाऽपरत्वे बुद्धिः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नश्चेति सूत्रोक्ताः सप्तदश। चशब्दसमुच्चि-ला | ताश्च सप्त-द्रवत्वं गुरुत्वं संस्कारः स्नेहो धौधौं शब्दश्च । इत्येवं चतुर्विंशतिर्गुणाः। संस्कारस्य वेगभावनास्थिप्रतिस्थापकभेदात्रैविध्येऽपि संस्कारत्वजात्यपेक्षया एकत्वाच्छौयौदार्यादीनां चात्रैवान्तर्भावान्नाधिक्यम् । कर्माणि पञ्च। तद्यथा-उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति । गमनग्रहणाद्भमणरेचनस्पन्दनाद्यविरोधः। व्याख्यार्थः-वैशेषिकोंके मतमें द्रव्य १ गुण २ कर्म ३ सामान्य ४ विशेष ५ और समवाय ६ नामक छ. पदार्थ तत्त्वरूपसे | माने गये है। इन छः पदार्थोंमें-पृथिवी १ जल २ तेज ३ वायु ४ आकाश ५ काल ६ दिशा ७ आत्मा ८ और मन ९ ये ॐ नौ द्रव्य हे । १ । गुण चौवीस है; वे इस प्रकारसे है-रूप १ रस २ गंध ३ स्पर्श ४ संख्या ५ परिमाण ६ पृथक्त्व ७ संयोग ८ विभाग ९ परत्व १० अपरत्व ११ बुद्धि १२ सुख १३ दुःख १४ इच्छा १५ द्वेष १६ और प्रयत्न १७ ऐसे सतरह तो सूत्रमें कहे हुए तथा द्रवत्व १ गुरुत्व २ संस्कार ३ स्नेह ४ धर्म ५ अधर्म ६ और शब्द ७ ये सात च शब्दसे ग्रहण किये y हुए, एवं कुल मिलाकर चौवीस २४ गुण है। इन गुणोंमें यद्यपि सस्कारनामक गुण-वेग, भावना तथा स्थितिस्थापकरूप भेदोंसे तीन प्रकारका है, तथापि संस्कारत्वजातिकी अपेक्षासे एकरूप है। इस कारणसे और शौर्य, औदार्य आदिका यहां' ही अन्तर्भाव y होनेसे अर्थात् जैसे शौर्यका प्रयत्नमें अन्तर्भाव है; इसीप्रकार कोई किस गुणमें और कोई किस गुणमें अन्तर्गत हो जाते है, इसa कारणसे गुण चौवीस ही है, अधिक नहीं है । १ । निम्नलिखित प्रकारसे कर्म पांच है-उत्क्षेपण ( ऊंचा फैकना) १ अवक्षेपण maan छ १. उत्क्षेपणत्वजातिमदूर्ध्वदेशसंयोगकारण कर्मोत्क्षेपणम् । १ । अपक्षेपणत्वजातिमदधोदेशसंयोगकारण कर्मापक्षेपणम् ।२। आकुञ्चनत्वजा तिमद्वक्रत्वापादक कर्माकुचनम् । ३ । प्रसारणत्वजातिमहजुत्वापादक कर्म प्रसारणम् । ४ । गमनत्वजातिमदनियतदेशसंयोगकारणं कर्म गमनम् । 1५। इति कर्मपञ्चकव्याख्या । २ ख-या पुस्तकयो. स्पन्दनेति पाठ. । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( नीचा फैकना) २ आकुंचन ( सिकुचाना ) ३ प्रसारण (फैलाना ) ४ और गमन ५ ऐसे पांच कर्म है । इनमें गमनका all ग्रहण करनेसे भ्रमण, रेचन, स्पंदन आदिसे विरोध नहीं है। ___ अत्यन्तव्यावृत्तानां पिण्डानां यतः कारणादन्योऽन्यस्वरूपानुगमः प्रतीयते तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतुः सामान्यम् । लातच द्विविधं परमपरं च । तत्र परं सत्ताभावो महासामान्यमिति चोच्यते । द्रव्यत्वाद्यवान्तरसामान्याऽपेक्षया महाविषयत्वात् । अपरसामान्यं च द्रव्यत्वादि । एतच्च सामान्यविशेष इत्यपि व्यपदिश्यते । तथाहि-द्रव्यत्वं नवसु द्रव्येषु वर्तमानत्वात्सामान्यम् । गुणकर्मभ्यो व्यावृत्तत्वाद्विशेषः । ततः कर्मधारये सामान्यविशेष इति । एवं द्रव्यत्वापेक्षया पृथिवीत्वादिकमपरं तदपेक्षया घटत्वादिकम् । एवं चतुर्विंशतौ गुणेषु वृत्तेर्गुणत्वं सामान्यम् ।। द्रव्यकर्मभ्यो व्यावृत्तेश्च विशेषः । एवं गुणत्वापेक्षया रूपत्वादिकं तदपेक्षया नीलत्वादिकम् । एवं पञ्चसु कर्मसुन वर्त्तनात्कर्मत्वं सामान्यम् । द्रव्यगुणेभ्यो व्यावृत्तत्वाद्विशेषः । एवं कर्मत्वापेक्षया उत्क्षेपणत्वादिकं ज्ञेयम् । NI अत्यन्त व्यावृत्त ( भिन्न ) ऐसे पदार्थोंका जिस कारणसे परस्पर खरूपका अनुगम जाना जाता है, वह अनुवृत्तिप्रत्ययका कारण सामान्य है । अर्थात् परस्पर भिन्न पदार्थोंमें समान अंशको ग्रहण करके उनके एकताको करनेवाला है, वह सामान्य है । वह दो प्रकारका है। एक तो परसामान्य और दूसरा अपरसामान्य । इनमें जो परसामान्य है, वह सत्ताभाव तथा महासामान्य भी कहलाता है । क्योंकि यह परसामान्य द्रव्यत्वादिके अन्तर्गत जो सामान्य अर्थात् द्रव्यत्व द्रव्यमें ही रहता है और यह परसामान्य द्रव्य, गुण और कर्म, इन तीनोंमें रहता है। अतः महाविषयका || धारक है । द्रव्यत्व आदि जो है, वह अपरसामान्य है । इस अपरसामान्यको सामान्यविशेष इस प्रकार भी कहते है अर्थात || सामान्यविशेष यह भी इस अपरसामान्यका ही नाम है । सो ही दिखलाते हैं. अर्थात् इस अपरसामान्यको सामान्यविशेष क्यों IN कहते हैं, इस विषयको निम्नलिखित प्रकारसे स्पष्ट करते है-द्रव्यत्व जो है, वह पृथिवी आदि नवों ही द्रव्योंमें रहता है, इस al कारणसे तो सामान्य है । और यह द्रव्यत्व-गुण तथा कर्मोंसे व्यावृत्त ( रहित ) है, अतःकृत्वा विशेष है। और जब द्रव्यत्व एक अपेक्षासे सामान्य हुआ तथा दूसरी अपेक्षासे विशेष हुवा तव कर्मधारयसमासमें सामान्य जो हो, और विशेष जो हो, वह १ द्रव्यादित्रिकवृत्तिस्तु सत्ता परतयोच्यते । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥४२॥ सामान्यविशेष है, इस प्रकार समास होनेसे सामान्यविशेष हो गया । जिस प्रकारसे महासामान्यकी अपेक्षासे द्रव्यत्व अपरसामान्य राजै.शा. के इसी प्रकारसे द्रव्यत्वकी अपेक्षासे पृथिवीत्व जो है, वह अपरसामान्य है और पृथिवीत्वकी अपेक्षासे घटत्व अपरसामान्य है। सीरीतिसे गुणत्व जो है सो चौवीसों गुणोंमें रहनेसे सामान्य है और यही गुणत्व द्रव्योंसे तथा कर्मोंसे रहित होनेके कारण विशेष भी है। इसी प्रकार गुणत्वकी अपेक्षासे रूपत्वादिक अपरसामान्य है और रूपत्वादिकी अपेक्षासे नीलत्वादि अपर सामान्य है। एवमेव कर्मत्व जो है, वह उत्क्षेपणादि पांचों कौमें रहता है । इसकारण सामान्य है और यही कर्मत्व द्रव्यों तथा गुणोंसे रहित होनेसे विशेष है । तथा जैसे द्रव्यत्वकी अपेक्षासे पृथिवीत्व अपरसामान्य है, उसीप्रकार यहां भी कर्मत्वकी अपेक्षासे उत्क्षेपणत्व आदिको अपरसामान्य समझ लेना चाहिये। V तत्र सत्ता द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं कया युक्त्येति चेत्-उच्यते। न द्रव्यं सत्ता द्रव्यादन्येत्यर्थः। एकद्रव्यवतत्त्वादेकैकस्मिन् द्रव्ये वर्तमानत्वादित्यर्थः । द्रव्यत्ववत् । यथा द्रव्यत्वं नवसु द्रव्येषु प्रत्येकं वर्तमानं द्रव्यं न भवति । किन्तु सामान्यविशेषलक्षणं द्रव्यत्वमेव । एवं सत्तापि । वैशेषिकाणां हि अद्रव्यं वा द्रव्यम् । अनेकद्रव्यं वा द्रव्यम् । तत्राऽद्रव्यमाकाशः कालो दिगात्मामनःपरमाणवः। अनेकद्रव्यं तु यणुकादिस्कन्धाः । एकद्रव्यं तु द्रव्यमेव न भवति । एकद्रव्यवती च सत्ता । इति द्रव्यलक्षणविलक्षणत्वान्न द्रव्यम् । एवं न गुणः सत्ता । गुणेषु । भावाद् गुणत्ववत्। यदि हि सत्ता गुणः स्यान्न तर्हि गुणेषु वर्तेत । निर्गुणत्वाद् गुणानाम् । वर्तते च गुणेषु सत्ता। सन् गुण इति प्रतीतेः। तथा न सत्ता कर्म । कर्मसु भावात्कर्मत्ववत् । यदि च सत्ता कर्म स्यान्न तर्हि कर्मसु वर्तेत । निष्कर्मत्वात्कर्मणां । वर्तते च कर्मसु भावः । सत् कर्मेति प्रतीतेः। तस्मात्पदार्थान्तरं सत्ता। यदि प्रश्न करो कि, सत्ता ( सामान्य ) जो है, वह द्रव्य, गुण तथा कर्मसे भिन्न पदार्थ किस युक्तिसे है ? तो उत्तर यह है कि, सत्ता द्वन्य नहीं है अर्थात् द्रव्यसे भिन्न है । क्योंकि एकद्रव्यवाली है अर्थात् एक एक द्रव्यके प्रति रहती है। द्रव्यत्वके 5 समान अर्थात् 'जैसे द्रव्यत्व नौ ९ द्रव्यों से प्रत्येक द्रव्यमें रहता है, इस कारण द्रव्य नहीं है। किन्तु सामान्यविशेषरूप लक्षणका ४२॥ १. व्यं द्विधा-अद्वण्य अनेकदव्यं च । न विद्यते द्रव्यं जन्यतया जनकतया च यस्य तदगम्यं दम्यम् । २. अनेक द्रव्यं जन्यतया जनकतया Mच यस्य तदनेकद्व्यं द्रव्यम् । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारक द्रव्यत्व ही है, इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्यमें रहनेसे सत्ता भी द्रव्य नहीं है । भावार्थ-वैशेषिकोंके मतमें या तो अद्रव्य अर्थात् जो द्रव्यसे उत्पन्न न हुआ हो अथवा द्रव्यका उत्पादक न हो, वह द्रव्य है और या अनेकद्रव्य अर्थात् जो अनेकद्रव्योंसे उत्पन्न होवे वा अनेक द्रव्योंका जनक होवे; वह द्रव्य है । उनमें आकाश, काल, दिशा, आत्मा मन और परमाणु ये अद्रव्य द्रव्य है, और द्वयणुक (दो अणुके धारक) आदि जो स्कंध हैं, वे अनेकद्रव्य द्रव्य हैं । और एकद्रव्यका धारक तो द्रव्य ही नहीं है। और सत्ताली | एकद्रव्यवाली है, इसकारण द्रव्यका जो लक्षण है, उससे भिन्न लक्षणको धारण करनेसे सत्ता द्रव्य नहीं है । इसीप्रकार सत्ता गुण | | भी नहीं है अर्थात् गुणसे भी भिन्न है, क्योंकि गुणोंमें ( प्रत्येक गुणमें ) रहती है, गुणत्वके समान । भावार्थ-जैसे चौवीसों गुणोंमेंसे प्रत्येकगुणमें रहनेसे गुणत्व गुण नहीं होता है, इसी प्रकार प्रत्येक गुणमें रहनेसे सत्ता भी गुण नहीं है । और यदि सत्ता गुण होवे, तो प्रत्येक गुणमें न रहै, कारण कि, गुण निर्गुण ( गुण रहित ) है । और गुण सत् अर्थात् है; ऐसी प्रतीति होनेसे | गुणोंमें' सत्ता है, यह सिद्ध होता है । एवमेव सत्ता जो है, वह कर्म भी नहीं है। क्योंकि जैसे कर्मत्व प्रत्येक कर्ममें रहता है, | इसीप्रकार यह भी प्रत्येक कर्ममें रहती है । और यदि सत्ता कर्म होवे तो कर्मोंमें न रहै । क्योंकि कर्म जो है, वे निष्कर्म | कर्म सत् है । ऐसी प्रतीतिके होनेसे निश्चय होता है कि, कौमें सत्ता रहती है । इस कारण सत्ता पदार्थान्तर al (द्रव्य गुण और कर्म इन तीनोंसे भिन्न एक चौथा पदार्थ ) है । ४ ।। || तथा विशेषा नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या अत्यन्तव्यावृत्तिहेतवस्ते द्रव्यादिवैलक्षण्यात्पदार्थान्तरम् । तथा च प्रशस्तकरः-" अन्तेषु भवा अन्त्याः । स्वाश्रयविशेषकत्वाद्विशेषाः । विनाशारम्भरहितेषु नित्यद्रव्येष्वऽण्वाकाशका-1 लदिगात्ममनस्सु प्रतिद्रव्यमेकैकशो वर्तमाना अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतवः। यथाऽस्मदादीनां गवादिष्वश्वादिभ्यस्तुल्याकृतिगुणक्रियावयवोपचयाऽवयवविशेषसंयोगनिमित्ता प्रत्ययव्यावृत्तिर्दृष्टा गौः शुक्लः शीघ्रगतिः पीनः ककुद्मान् महाघण्ट इति । तथास्मद्विशिष्टानां योगिनां नित्येषु तुल्याकृतिगुणक्रियेषु परमाणुषु मुक्तात्ममनःसु चान्यनिमित्ताऽसम्भवाद्येभ्यो निमित्तेभ्यः प्रत्याधारं विलक्षणोऽयं विलक्षणोऽयमितिप्रत्ययव्यावृत्तिर्देशकालविप्र-| १. अन्तेऽवसाने वर्तन्त इत्यन्त्याः यदपेक्षया विशेषो नास्तीत्यर्थः । एकमात्रवृत्तय इति भावः। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. राजै.शा. ॥४३॥ न त ॐ कृष्टे च परमाणौ स एवायमिति प्रत्यभिज्ञानं च भवति तेऽन्त्या विशेषा इति । अमी च विशेषरूपा एव । न तु Y द्रव्यत्वादिवत्सामान्यविशेषोभयरूपा व्यावृत्तेरेव हेतुत्वात् । Ya तथा नित्यद्रव्योंमें रहनेवाले और अत्यन्त व्यावृत्ति (भेद करने ) के कारण ऐसे जो हैं, वे विशेष हैं। भावार्थ-अन्त (आख़िर ) में रहनेवाले ( जिनकी अपेक्षासे फिर कोई भी भेद न हो ) ऐसे अर्थात् केवल नित्यरूप एक द्रव्यमें रहनेवाले जो 1 है, वे विशेष कहलाते है । और ये विशेष द्रव्य, आदि पदार्थोंसे भिन्न ऐसे लक्षणको धारण करते हैं, इस कारणसे भिन्न पदार्थ है । सोही वैशेषिक दर्शनपर प्रशस्तभाष्यके कर्ता कहते हैं कि, ये विशेष अंतमें होते हैं, इस कारण अन्त्य है । और अपने आश्रयके विशेषक (भेदक ) होनेसे विशेष है अर्थात् उत्पत्ति तथा विनाशसे रहित ऐसे जो परमाणु, आकाश, काल, दिशा आत्मा । और मन नामक द्रव्य है, इनमें द्रव्यके प्रति एक एक विद्यमान रहते हुए सर्वथा व्यावृत्तिरूप बुद्धिके कारण जो है, वे विशेष है। Y भावार्थ-जैसे हम तुम वगैरहके वृषभ (बैल) आदिमें अश्व (घोड़े) आदिकोंसे तुल्य आकार, तुल्य गुण, तुल्य क्रिया, अवयवोंकी वृद्धि, अवयवविशेष ( किसी एक अवयवका अधिक होना) और संयोग, इन सबके निमित्तसे होनेवाली यह वृषभशुक्ल है, शीघ्र गमन करनेवाला है, मोटा है, ककुमान (थूवेको धारण करनेवाला ) है तथा बड़े टोकरेका धारक है, इस प्रकारकी प्रतीतिकी भिन्नता देखी जाती है । उसी प्रकार हमसे अधिक ज्ञान आदिके धारक जो योगी है, उनके-नित्य तथा तुल्य आकार, तुल्य गुण और तुल्य क्रियाको धारणकरनेवाले ऐसे परमाणुओंमें, मुक्त आत्माओंमें और मनोंमें भेद करनेका कोई दूसरा निमित्त न होनेसे जिन निमित्तोंसे आधार आधारके प्रति यह इससे विलक्षण ( भिन्न ) है, यह इससे विलक्षण है, इसप्रकार प्रतीतिकी भिन्नता होती है अर्थात् भिन्न २ प्रतीति होती है और देशसे विप्रकृष्ट ( दूरदेशमें रहनेवाले ) तथा कालसे धू विप्रकृष्ट ( अत्यंत-भूत, भविष्यत् कालमें रहनेवाले ) परमाणु यह वही परमाणु है, इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है, वे अन्त्य छ अर्थात् विशेष है। और ये विशेषरूप ही है । द्रव्यत्व आदिके समान सामान्य तथा विशेष इन दोनों रूप नहीं है । क्योंकि ये ४ विशेष केवल व्यावृत्तिके ही कारण है । सारांश-वैशेषिक मतवाले यह कहते है कि, यद्यपि वृषभ और अश्वमें आकृति, गुण तथा क्रिया समान है, तथापि वृषभ अश्वकी अपेक्षा मोटाई, थूवा (खुंध ) और घंटाको अधिक धारण करता है, इसकारण हम ३ लोग अश्व और वृषभमें जो भेद है, उसको जान जाते है। और इसी प्रकार अन्य इंद्रियगोचर पदार्थोंमें भी किसी न किसी ॥४३॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN कारणसे भेद जान लेते है। परंतु नित्य तथा समान आकृति, गुण और क्रियाके धारक परमाणुओंमें, आकाशमें, कालमें, दिशामें, Kell आत्माओंमें तथा मनोंमें एकके दूसरेसे अर्थात् एक परमाणुसे दूसरे परमाणुमें, एक आत्मासे दूसरे आत्मामें इसीप्रकार आकाश | आदि अन्य इंद्रिय अगोचर पदार्थोंमें भेद करानेवाला कोई भी बाह्यकारण नहीं है, इसकारण उनमें जो योगियोंके भेदका ज्ञान | होता है, उस भेदज्ञानका कारणभूत एक विशेषनामक पदार्थ हमारे मतमें माना गया है । ५। | तथा अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहप्रत्ययहेतुः सम्बन्धः समवाय इति। अयुतसिद्धयोः परस्परपरिहारेण पृथगाश्रयानाश्रितयोराश्रयाश्रयिभावः ' इह तन्तुषु पटः' इत्यादेः प्रत्ययस्यासाधारणं कारणं समवायः । यद्वशात् स्वकारणसामर्थ्यादुपजायमानं पटाद्याधार्य तन्त्वाद्याधारे सम्बध्यते । यथा छिदिक्रिया च्छेद्येनेति । सोऽपि द्रव्यादिलक्षणवैधात्पदार्थान्तरमिति षट्पदार्थाः। ६। KI और अयुतसिद्ध आधार्य तथा आधारभूतोंके इहप्रत्ययका कारण जो संबंध है, वह समवाय है अर्थात् एक दूसरेको छोड़कर .. 1 अन्य किसी आधारमें न रहनेवाले ऐसे गुण गुणी आदिक जो एक दूसरेमें रहते है; वे अयुतसिद्ध है; उन अयुतसिद्धोंके जो 'इन ततुओंमें पट है । ' इत्यादि प्रत्ययका असाधारण कारण है, वह समवाय है भावार्थ-जैसे छिदिक्रिया (छेदन करने रूप क्रिया)। छेद्य (छेदने योग्य ) मे संबंधित है । उसी प्रकार जिसके वशसे अपने कारणोंकी सामर्थ्यसे उत्पन्न हुआ पटादि आधेय ( रहने योग्य ) पदार्थ तंतु आदि आधारमें संबंधित होता है, वह समवाय है । और यह समवाय द्रव्य आदिके लक्षणोंको नहीं धारण | करता है । इसकारण यह समवाय भी, उन पूर्वोक्त पांचों पदार्थोंसे भिन्न एक छट्ठा पदार्थ है । । साम्प्रतमक्षरार्थो व्याक्रियते।सतामपीत्यादि। सतामपि सद्बुद्धिवेद्यतया साधारणानामपि षण्णां पदार्थानां मध्ये क्वचिदेव केषुचिदेव पदार्थेषु सत्ता सामान्ययोगः स्याद्भवेत् न सर्वेषु । तेषामेषा वाचोयुक्तिः। सदिति। यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता इति वचनाद्यत्रैव सत्प्रत्ययस्तत्रैव सत्ता । सत्प्रत्ययश्च द्रव्यगुणकर्मस्वेवातस्तेष्वेव सत्तायोगः। सामान्यादिपदार्थत्रये तु न । तदभावात् । इदमुक्तं भवति । यद्यपि वस्तुस्वरूपमस्तित्वं सामान्यादित्रयेऽपि | विद्यते । तथापि तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतुर्न भवति । य एव चानुवृत्तिप्रत्ययः स एव सदितिप्रत्यय इति । तदभावान्न Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ४४ ॥ सत्तायोगस्तत्र । द्रव्यादीनां पुनस्त्रयाणां षट्पदार्थसाधारणं वस्तुस्वरूपमस्तित्वमपि विद्यते । अनुवृत्तिप्रत्ययहेतुः | सत्तासम्बन्धोऽप्यस्ति । निःस्वरूपे शशविषाणादौ सत्तायाः समवायाभावात् । (C इस प्रकार वैशेषिकोंके माने हुए पदार्थोंका निरूपण करके अब अक्षरोंका अर्थ प्रकट करते है । " सतामपि " "सत् ' है इस सत्ता प्रकारकी बुद्धिसे जानने योग्य होनेके कारण साधारण ऐसे भी छः पदार्थोंमेंसे “ कचिदेव " कितने ही पदार्थों में “ सामान्यका योग " स्यात् " है और सब पदार्थोंमे सत्ताका संबंध नहीं है । भावार्थ - वैशेषिक इस युक्तिसे कथन करते है कि, द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनोंमें वह सत्ता है " इस वचनसे जहां सत्प्रत्यय होता है, वहां ही सत्ता रहती है, और सत्प्रत्यय द्रव्य, गुण, तथा कर्ममें ही है, इस कारण द्रव्य, गुण तथा कर्म इन तीनोंमें ही सत्ताका योग है और सामान्य, विशेष तथा समवाय नामक जो तीन पदार्थ हैं उनमें सत्ताका योग नहीं है । क्योंकि इन सामान्यादि तीन पदार्थों में सत्प्रत्ययका अभाव है । भावार्थइस कथनका यह है कि, यद्यपि वस्तुका स्वरूपभूत जो अस्तित्व धर्म है, वह सामान्य आदि तीन पदार्थोंमें भी रहता है, तथापि वह सामान्य आदि तीन पदार्थों में रहनेवाला अस्तित्व अनुवृत्तिप्रत्ययका कारण नहीं है । और जो अनुवृत्तिप्रत्यय है, उसीको सत्प्रत्यय कहते हैं, उस सत्प्रत्ययका सामान्य आदि तीन पदार्थोंमें अभाव है, इस कारण उन सामान्य आदिमें सत्ताका योग भी नहीं है । और द्रव्य, गुण, कर्म, इन तीनों पदार्थों में तो छः पदार्थोंमें साधारण ( समानरूपसे रहनेवाला ) वस्तुका खरूपभूत जो वह भी है । अर्थात् द्रव्य, गुण अस्तित्व है, वह भी रहता है और अनुवृत्तिप्रत्ययका कारणरूप जो सत्ताका योग ( संबंध ) | और कर्म इनमें सत्ताका योग ही नहीं है, किन्तु अस्तित्व भी है। क्योंकि यदि इनमें अस्तित्व न होवे तो जैसे अस्तित्वरूप खरूपसे रहित शशविषाण ( सुस्सेके सींग) आदिमें सत्ताका संबंध नही है, इसी प्रकार इनमें भी सत्ताके समवायका अभाव हो जावे इस कारण द्रव्य, गुण और कर्म, इन तीनोंमें अस्तित्व और सत्ताका योग ये दोनों रहते है । י - सामान्यादित्रिके कथं नानुवृत्तिप्रत्यय इति चेद्वाधकसद्भावादिति ब्रूमः । तथाहि -सत्तायामपि सत्तायोगाङ्गीकारेऽनवस्था । विशेषेषु पुनस्तदभ्युपगमे व्यावृत्तिहेतुत्वलक्षणतत्स्वरूपहानिः । समवाये तु तत्कल्पनायां सम्वन्धाऽभावः । केन हि सम्बन्धेन तत्र सत्ता सम्बध्यते । समवायान्तराऽभावात् । तथा च प्रामाणिकप्रकाण्डमुदयनः " व्य रा. जे. शा. ॥ ४४ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . லிம் . உ . - क्रेभदस्तुल्यत्वं सङ्करोऽथानवस्थितिः। रूपहानिरसम्बन्धो जातिवाधकसङ्ग्रहः । १।” इति । ततः स्थितमेतत्सतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्तेति । जैसे द्रव्य, गुण और कर्म; इन तीनोंमें अनुवृत्तिप्रत्यय है, उसी प्रकार सामान्य, विशेप तथा समवाय; इन तीन पदार्थोमें | अनुवृत्तिप्रत्यय क्यों नही है ।' ऐसा यदि आप प्रश्न करो तो हम (वैशेषिक ) कहते है कि, वहां वाधकका सद्भाव है अर्थात् || सामान्यादिकमें अनुवृत्तिप्रत्ययके माननेमें अनेक वाघायें है । सो ही दिखलाते है–यदि सत्ता ( सामान्य ) में भी सत्ताका योग, - मानें तो अनवस्था होती है अर्थात् जब एक सत्तामें दूसरी सत्ताको और दूसरी सत्तामें तीसरी सत्ताको अनुवृत्तिप्रत्ययकी कारणभूता IN मानेंगे; तब कही भी स्थिति न होगी । यदि विशेषोमें सत्ताके योगको स्वीकार करें तो व्यावृत्तिका हेतुरूप जो विशेषका स्वरूप है; वह नष्ट हो जावेगा भावार्थ-हमारे मतमें विशेषका खरूप यह है कि; वह नित्यपदार्थोंको पृथक् ( भिन्न ) करता है; और स्वय पृथक् बना रहता है अर्थात् विशेष अपना व्यावर्तक आप ही है। अतः यदि विशेषमें विशेषत्वरूप सामान्य मान लिया जावेगा; तो विशेषके खतः व्यावर्तकत्वरूप खरूपका नाश हो जावेगा। क्योंकि ' जो सामान्यका आश्रय होता है; उसका सामान्यसे भेद होता है । ' एसा नियम है । और यदि समवायमें सत्ताके योगको मानें तो संबंधका अभाव है अर्थात् समवायमें सत्ताका योग | करनेवाला दूसरा समवाय नहीं है; इसकारण किस संबंधसे समवायमें सत्ताका योग किया जावे ? । सो ही प्रामाणिकपुरुषों में श्रेष्ठ ||७|| ऐसे उदयनाचार्य कहते है कि;-" व्यक्तिका अभेद १, तुल्यता, २, संकर ३, अनवस्था ४, स्वरूपहानि ५ और संबंधका अभाव ६, ये छः जाति ( सामान्य ) के वाधक है । १ । भावार्थ-आकाशत्वधर्म जातिरूप नहीं है । क्योंकि; वह आकाशरूप एक व्यक्तिमें रहता है । १ । घटत्व और कलशत्व ये दोनों धर्म जातिरूप नहीं है । क्योंकि, दोनोंकी व्यक्ति समान है अर्थात् || IN घटत्व तथा कलशत्व ये दोनों एक ही पदार्थमें रहते है । २ । भूतत्व और मूर्तत्व ये दोनों जातिरूप नहीं हैं । क्योंकि; यद्यपि आकाशमें केवल भूतत्व और मनमें केवल मूर्तत्व रहता है, तथापि पृथ्वी, जल, तेज और वायुमें इन दोनोंका संकर है अर्थात् | | पृथ्वी आदिमें भूतत्व और मूर्त्तत्व ये दोनों धर्म रहते है। ३ । सामान्यमें सामान्यत्व जातिरूप नहीं है । क्योंकि; सामान्यमें १. अस्य ब्यास्या। आकाशत्वं न जातिः । व्यक्त्यैक्यात् । १। घटत्वकलशत्वे न जाती। व्यक्तितुल्यत्वात् । २। भूतत्वमूतत्वे न जाती। आकाशे भूतत्वस्यैव मनसिच मूर्तत्वस्यैव सद्भावेऽपि पृथिव्यादिचतुष्टय उभयोः सद्भावात्संकरप्रसङ्गः । ३ । जातेरपि जात्यन्तरागीकारेऽनवस्थाप्रसङ्गः । ४ । अन्त्यविशेपता न जातिः । तदङ्गीकारे तत्स्वरूपव्यावृत्तिहानिः स्यात् । ५। समवायता न जातिः सम्बन्धाभावात् । ६ । इत्येते जातिबाधकाः॥ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. सामान्यत्वको जातिरूप माननेसे अनवस्था होती है। ४ । विशेपोंमें विशेषत्वधर्म जातिरूप नहीं है। क्योंकि; विशेषों में विशेषत्वको स्थाद्वादमा जातिरूप माननेसे विशेषके खत व्यावर्त्तकत्वरूप खरूपका नाश होता है । ५। समवायमें समवायत्व जातिरूप नहीं है। क्योंकि, ॥४५॥ समवाय एक है; अतः समवायमें समवायत्वका संबंध करानेवाला दूसरा समवाय नहीं है।६। इस कारण सत् पदार्थोमें भी किसी |किसीमें सत्ता रहती है, न कि सबमें यह जो हमारा मत है, वह निश्चित होचुका । । तथा चैतन्यमित्यादि । चैतन्यं ज्ञानमात्मनः क्षेत्रज्ञादन्यदत्यन्तव्यतिरिक्तम् । असमासकरणादत्यन्तमिति लभ्यते । अत्यन्तभेदे सति कथमात्मनः सम्बन्धि ज्ञानमिति व्यपदेशः। इति पराशङ्कापरिहारार्थ औपाधिकमिति विशेषणद्वारेण हेत्वभिधानम् । उपाधेरागतमौपाधिकम् । समवायसम्बन्धलक्षणेनोपाधिना आत्मनि समवेतमात्मनः स्वयं जडरूपत्वात्समवायसम्वन्धोपढौकितमिति यावत् । यद्यात्मनो ज्ञानादव्यतिरिक्तत्वमिष्यते तदा दुःख जन्मप्रवृत्तिदोपैमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावावुद्ध्यादीनां नवानामात्मविशेषगुणानामुच्छेदावसरे 7iआत्मनोऽप्युच्छेदः स्यात् । तदव्यतिरिक्तत्वादतो भिन्नमेवात्मनो ज्ञानं यौक्तिकमिति । __ अब 'चैतन्य' इत्यादि पादकी व्याख्या करते है। " चैतन्यं " ज्ञान जो है; वह "आत्मनः" आत्मासे “ अन्यतन अत्यंत भिन्न है। [यहां आत्माशब्दके साथ अन्यत्शब्दका समास न करनेसे भिन्न ही नहीं किंतु अत्यंत भिन्न है, यह अर्थ प्राप्त 18 होता है।]" यदि ज्ञान और आत्माके अत्यंत भेद है तो 'ज्ञान आत्माका संबंधी है।' ऐसा कैसे कहा जाता है।" इसी प्रतिवादियोंकी शकाको दूर करनेके लिये 'औपाधिकम् ' इस विशेषणके द्वारा हेतुका कथन करते है। " औपाधिकम" उपाधिसे आया हुआ है अर्थात् समवायसंबधरूप जो उपाधि है, उस उपाधिसे ज्ञान आत्मामें मिला हुआ है । भावार्थ-आत्मा | स्वयं जहरूप ( ज्ञानशून्य ) है; इस कारण समवायसंबधने ज्ञानको आत्मामें मिला दिया है। क्योंकि, यदि आत्माको ज्ञानसे 12 II भिन्न (जुदा) न माने तो दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान; इनमें क्रमश. उत्तरका नाश होनेसे पूर्वका नाश होनेपर | बटि आदि जो नौ ९ आत्माके विशेषगुण है; उनका नाश होवेगा और जब बुद्धिआदिका नाश होगा तब उसी समय PM आत्माका भी नाश हो जावेगा। क्योंकि आत्मा इनसे भिन्न नहीं है । भावार्थ-हमारे मतमें तत्त्वज्ञानके होनेसे मिथ्याज्ञानका ।। LO॥४५॥ तत्त्वज्ञानान्मिध्याज्ञानापाये दोषा अपयान्ति । तदपाये प्रवृत्तिरपति । तदपाये जन्मापैति । तदपाये एकविंशतिभेद दु.खमपैतीति । २ वाङ्मन कायन्यापारः शुभाशुभफल. प्रवृत्तिः ३ रागद्वेषमोहास्नयो दोपाः ईयादीनामेष्वन्तर्मावः॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - IN/ नाश होता है, मिथ्याज्ञानको नष्ट होनेपर राग, द्वेष और मोहरूप दोषोंका नाश होता है । [ स्मरण रहै कि, ईप्या आदि दोषोंका बाराग, द्वेष, मोहमें ही अन्तर्भाव है । ] दोषोंको नष्ट होने पर प्रवृत्तिका अर्थात् मन वचन तथा कायके व्यापारका नाश होता है । प्रवृत्तिका अभाव होनेसे जन्म ( भव ) का नाश होता है । और जन्मका नाश होनेपर इकवीस २१ प्रकारका जो दुःख है; वह नष्ट होता है. ऐसा क्रम है। और बुद्धि १, सुख २, दुःख ३, इच्छा ४, द्वेष ५, प्रयत्न ६, धर्म ७, अधर्म ८, तथा संस्कार ९|| नामक जो आत्माके नौ विशेष गुण है, वे, इन मिथ्याज्ञानादिकमें ही अन्तर्गत है; इसकारण मिथ्याज्ञानादिकोंका नाश हुआ तो बुद्धिसुखादिकका भी नाश हो ही गया । और बुद्धि मिथ्या ज्ञानरूप है; अतः यदि ज्ञानको आत्मासे अभिन्न मानें तो जिस समय बुद्धिका नाश हो; उसी समय आत्माका भी नाश हो जावे । इस कारण 'ज्ञान आत्मासे भिन्न है ' यह मानना ही युक्ति संगत है। तथा न संविदित्यादि । मुक्तिर्मोक्षो न संविदानन्दमयी न ज्ञानसुखरूपा । संविद्ज्ञानं आनन्दः सौख्यं ततो इन्द्रः संविदानन्दौ प्रकृतौ यस्यां सा संविदानन्दमयी। एतादृशीन भवति।बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काररूपाणां नवानामात्मनो वैशेषिकगुणानामत्यन्तोच्छेदो मोक्ष इति वचनात् । चशब्दः पूर्वोक्ताभ्युपगमद्वयसमु चये । ज्ञानं हि क्षणिकत्वादनित्यं सुखं च सप्रक्षयतया सातिशयतया च न विशिष्यते संसारावस्थातः । इति तदु-1 |च्छेदे आत्मस्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इति । प्रयोगश्चात्र । नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते संतानत्वात्। यो यः सन्तानः स सोऽत्यन्तमुच्छिद्यते। यथा प्रदीपसन्तानः। तथा चायं तस्मादत्यन्तमुच्छिद्यत इति । तदुच्छेद एव महोदयो न कृत्स्नकर्मक्षयलक्षण इति । " न हि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति । " " अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः।" इत्यादयोऽपि वेदान्तास्तादृशीमेवमुक्तिमादिशन्ति । अत्र हि प्रियाप्रिये सुखदुःखे | ते चाशरीरं मुक्तं न स्पृशतः। अब ‘न संवित्' इत्यादिरूप काव्यके तृतीयचरणकी व्याख्या करते है। "मुक्तिः " मोक्ष जो है; वह " संविदानन्द-10 मयी" सवित् और आनंद ये दोनों जिसमें होवें ऐसी अर्थात् ज्ञान तथा सुखरूप "न" नहीं है। [ यहां पर संवित् और आनंद; इन दोनों शब्दोंका द्वन्द्वसमास किया गया है । ] क्योंकि आत्माके जो नौ ९ वैशेषिक ( विशेषमें होनेवाले ) गुण है। १ विशेपे भवाः वैशेषिका.सत्ताज्ञाने। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्साद्वादमं. उनका जो अत्यंत नाश है, वह मोक्ष है, ऐसा वचन है। [न संविदानन्दमयी च मुक्तिः ] यहां पर च शब्द पहिले कहे हुए KG किसी पदार्थमें सत्ता है १, ज्ञान आत्मासे भिन्न है २, इन ) दो मतोंका समुच्चय ( संग्रह) करनेके लिये है ] भावार्थ॥४६॥ ज्ञान तो क्षणिक होनेसे अनित्य है और सुख हानि और वृद्धिरूप स्वरूपका धारक है. अर्थात् कभी कम हो जाता है, कभी अधिक हो जाता है, इसकारण ससारकी अवस्थासे भिन्न नहीं है अर्थात् ससारकी जैसी दशा है; वैसा ही है । अतः ज्ञान तथा सुख इन दोनोंका नाश होने पर जो आत्माका आत्मखरूपसे रहना है, वही मोक्ष है । इस विषयमें अनुमानका प्रयोग भी है । सो ही दिखलाते है ।-आत्माके नवो विशेषगुणोंका सतान अत्यन्त नष्ट होता है । क्योंकि सतान है । जो जो संतान होता है, वह वह अत्यत नष्ट होता है। जैसे कि, प्रदीपका संतान अत्यंत नष्ट होता है। वैसा ही यह आत्मविशेषगुणोंका संतान है, इसकाNरण अत्यन्त नाशको प्राप्त होता है । अतः सिद्ध हुआ कि नौ ९ जो आत्मविशेषगुण है, उनके अत्यंतनाशरूप ही मोक्ष है और आप ( जैनियों) का माना हुआ जो सपूर्णकर्मोंके नाशरूप लक्षणका धारक मोक्ष है; वह मोक्ष नहीं है । और " शरीरके धारक जीवके निश्चयसे प्रिय (सुख ) तथा अप्रिय ( दुःख) इन दोनोंका नाश नहीं है १, अथवा अशरीर ( शरीरसे रहित ) लाहुएको ही प्रिय-अप्रिय नही स्पर्शते (छूते ) है २, [ यहा पर प्रियसे सुखका और अप्रियसे दुःखका ग्रहण है, और वे प्रिय अप्रिय अशरीर अर्थात् मुक्त आत्माको नही स्पर्शते है, ऐसा अर्थ समझना चाहिये ] इत्यादि वेदान्तके सूत्र भी ज्ञान और सुखसे रहित ऐसे मोक्षका ही कथन करते है। | अपि च यावदात्मगुणाः सर्वे नोच्छिन्ना वासनादयः। तावदात्यन्तिकी दुःख-व्यावृत्तिर्न विकल्प्यते ।१। धर्माधर्मनिमित्तो हि सम्भवः सुखदुःखयो। मूलभूतौ च तावेव स्तम्भौ संसारसझनः ।२। तदुच्छेदे च तत्कार्यशरीराद्यनुपप्लवात् । नात्मनः सुखदुःखे स्त-इत्यसौ मुक्त उच्यते । ३ । इच्छाद्वेषप्रयत्नादि भोगायतनवन्धनम् । उच्छिन्नभोगायतनो नात्मा तैरपि युज्यते । ४ । तदेवं धिषणादीनां नवानामपि मूलतः। गुणानामात्मनो ध्वंस: सोऽपवर्गः प्रतिष्ठितः। ५। ननु तस्यामवस्थायां कीदृगात्माऽवशिष्यते । स्वरूपैकप्रतिष्ठानः परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः ।६। अमिषट्कातिगं रूपं तदस्याहुर्मनीषिणः। संसारवन्धनाधीन-दुःखक्लेशाद्यदूषितम् । ७। (कामक्रोधलोभगर्वदम्भहर्षाः ऊर्मिषट्कमिति ।" ॥४६॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस विषयमें हम और भी विशेष कहते है कि, "जब तक वासनाको आदिलेकर समस्त आत्माके गुण अत्यंत नष्ट नहीं होवें; तब तक आत्माके दुखोंसे अत्यंत रहितता नहीं मानी जाती है । १ । धर्म और अधर्मके निमित्तसे ही सुख तथा दुःखकी उत्पत्ति होती है अर्थात् धर्मसे सुख और अधर्मसे दुःख होता है, इसकारण संसाररूपी गृहके ये दोनों धर्म-अधर्म ही मूलभूत ( आधार रूप) स्तंभ ( थंभे ) है । २ । धर्म तथा अधर्म, इन दोनोंका नाश होनेपर इन धर्म-अधर्मके कार्यरूप जो शरीर आदि उपद्रव है ||४|| वे नहीं रहते है, इसकारण आत्माके सुख और दुःख नहीं रहता है, अत एव वह आत्मा मुक्त कहा जाता है । ३ । इच्छा, द्वेष और || प्रयत्न आदिरूप जो विशेष गुण है, इनका भोगायतन ( शरीर ) ही कारण रूप है, इस कारण नष्ट हो गया है भोगायतन जिसके | |ऐसा अर्थात् शरीररहित ऐसा आत्मा, उन इच्छा, द्वेष आदिसे भी संबंधित नहीं होता है । भावार्थ-शरीरसे इच्छा, द्वेष आदि || उत्पन्न होते है, और आत्मा शरीर रहित हो चुका; अत. आत्मा इच्छा आदिसे भी रहित रहता है । ४ । सो इस पूर्वोक्त सी कथनके अनुसार बुद्धि आदि आत्माके नौ ९ विशेषगुणोंका जो मूलसे नाश है; वह मोक्ष है, यह स्थित ( सिद्ध ) हो चुका । ५ ।। । यदि प्रश्न करो कि; उस अवस्थामें अर्थात् मुक्तदशामें कैसा आत्मा रह जाता है; तो उत्तर यह है कि अपने एक खरूपमें ही |स्थित तथा समस्त गुणोंसे रहित ऐसा आत्मा मुक्त अवस्थामें रहता है। ६ । इसी कारण बुद्धिमान मनुष्य संसारबंधनके आधीन || अर्थात् संसारी अवस्थामें नियमसे होनेवाले जो दुःख तथा क्लेश आदि है; उनसे अदूषित ( रहित ) तथा ऊर्मिषट्क ( काम१, क्रोध २, लोभ ३, गर्व ४, दम्भ ५, और हर्ष ६, इन छः ऊर्मियों ) को उलंघ गया ऐसा अर्थात् ऊर्मिषट्कसे रहित ऐसा इस मुक्त आत्माका स्वरूप कहते हैं। ७॥" तदेतदभ्युपगमत्रयमित्थं समर्थयद्भिरत्वदीयैस्त्वदाज्ञावहिर्भूतैः कणादमतानुगामिभिः सुसूत्रमासूत्रितं सम्यगागमः प्रपञ्चितः। अथवा सुसूत्रमिति क्रियाविशेषणम् । शोभनं सूत्रं वस्तुव्यवस्थाघटनाविज्ञानं यत्रैवमासूत्रितं तत्त च्छास्त्रार्थोपनिवन्धः कृतः । इति हृदयम् । “सूत्रं तु सूचनाकारि ग्रन्थे तन्तुव्यवस्थयोः।” इत्यनेकार्थवचनात् ।। सो इसप्रकार इन पूर्वोक्त तीन मतोंको समर्थित ( पुष्ट ) करते हुए " अत्वदीयैः " आपकी आज्ञासे बहिर्भूत अर्थात् आपकी आज्ञाको न माननेवाले ऐसे कणादऋषीके मतानुसारियोंने अर्थात् वैशेषिकोंने “ सुसूत्रं" अच्छा शास्त्र " आसूत्रितं ।" गूंथ | - Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा. स्थाद्वादमं. ॥४७॥ पूरा ( रच ) डाला है । अथवा ' सुसूत्रं ' यह क्रियाका विशेषण है, इस कारण भाव यह है कि-'सु' उत्तम है “सूत्र' पदाKo थोकी व्यवस्थाके रचनेका विज्ञान जिसमें ऐसा आसूत्रण किया है अर्थात् उन उन शास्त्रार्थों की रचना की है । क्योंकि " सूचना शू करनेवाला जो सूत्र शब्द है, वह ग्रन्थके अर्थमें, तंतुके अर्थमें और व्यवस्थाके अर्थमें व्यवहृत किया जाता है । " ऐसा अनेकार्थकोशका वचन है। अत्र सुसूत्रमिति विपरीतलक्षणयोपहासगर्भ प्रशंसावचनम् । यथा-"उपकृतं वहु तत्र किमुच्यते सुजनता प्रथिता भवता चिरं।" इत्यादि । उपहसनीयता च युक्तिरिक्तत्वात्तदङ्गीकाराणाम् । तथा हि-अविशेषेण सद्बुद्धिवेद्येष्वपि सर्वपदार्थेषु द्रव्यादिष्वेव त्रिषु सत्तासम्बन्धः स्वीक्रियते न सामान्यादित्रये । इति महतीयं पश्यतोहरता। यतः परिभाव्यतां सत्ताशब्दस्य शब्दार्थः । अस्तीति सन् सतो भावः सत्ता अस्तित्वं तद्वस्तुस्वरूपं निर्विशेषमॐ शेषेष्वपि पदार्थेषु त्वयाप्युक्तम् । तत्किमिदमर्द्धजरतीयं यद्रव्यादित्रय एव सत्तायोगो नेतरत्र त्रय इति । 2 यहां पर 'सुसूत्र' यह विपरीतलक्षणासे उपहास है अन्तर्गत जिसके ऐसा प्रशसाका वचन है अर्थात् प्रथकारने 'सुसूत्रं ' इस वचनसे वैशेषिकोंकी प्रशसा न करके प्रत्युत उनकी हांसी की है। जैसे कि-" हे मित्र ? तुमने बहुत उपकार किया है, इस Y| विषयमें कहना ही क्या है। आपने बहुत सज्जनता प्रकट की है । इसी प्रकार करते हुए तुम सौ १०० वर्षतक सुखी रहो ।१।" हा इत्यादि । भावार्थ-जैसे इस श्लोकमें विपरीतलक्षणासे उपकार आदि शब्दोंसे अपकार आदिरूप अर्थको ग्रहण किया गया है; | उसी प्रकार 'सुसूत्रं ' इस शब्दसे उपहासरूप अर्थको लिया गया है। और वैशेषिकोंके मत युक्ति रहित है, इसकारण वे उपहा| सके योग्य है । अब आचार्य निम्नलिखित प्रकारसे वैशेषिकोंके मतका खंडन करके उसको युक्ति रहित ही दिखलाते है। समानतासे सभी पदार्थ सत् (है) इस प्रकारकी बुद्धिसे वेद्य (जानने योग्य) है, ऐसा मान करके भी जो तुम (वैशेषिक ) द्रव्य, गुण तथा कर्म, इन तीनोंमें ही सत्ताका योग मानते हो सो यह तुझारा बड़ा देखते २ हरण करना है अर्थात् प्रत्यक्षमें ठगना है। क्योंकि तुम 'सत्ता' इस शब्दके शब्दार्थका विचार करो। जो है, वह सत् कहलाता है, सत्का जो भाव है, वह सत्ता अर्थात् अस्तित्व है; और यह अस्तित्व वस्तुका स्वरूप है, इसकारण तुमने भी सभी पदार्थों में इसको समानरूपसे कहा है। तब फिर १. विदधदीरशमेव सदा सखे सुखितमास्व तत. शरदां शतम् । १ । इत्युत्तराई । २. स्त्री जरातुरा तारुण्यरमणीया च यथा मत्तेन प्रोच्यते | तत्तुल्यं भवद्वाक्यम् ॥ विषय से इस श्लोकमें विपरीतलक्षणास उपकार शेषिकोंके मत युक्ति रहित है, इसका ॥४७॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लद्रव्य, गुण और कर्म इन तीनमें ही सत्ताका योग है और सामान्य आदि तीन पदार्थोमें नहीं । यह अर्द्धजरतीय न्यायके समान | - कैसे कहते हो भावार्थ-जैसे मदोन्मत्त पुरुष उसी एक स्त्रीको वृद्धावस्थासे पीडित तथा युवावस्थासे मनोहर कह देता है; उसीके | समान यह तुह्मारा कहना है कि, द्रव्यादि तीनमें सत्ताका योग है और सामान्य आदिमें सत्ताका योग नहीं है। ___ अनुवृत्तिप्रत्ययाऽभावान्न सामान्यादित्रये सत्तायोग इतिचेत् । न । तत्राप्यनुवृत्तिप्रत्ययस्यानिवार्यत्वात् ।। पृथिवीत्वगोत्वघटत्वादिसामान्येषु सामान्यं सामान्यमिति । विशेषेष्वपि बहुत्वादयमपि विशेषोऽयमपि विशेप इति । समवाये च प्रागुक्तयुक्त्या तत्तदवच्छेदकभेदादेकाकारप्रतीतेरनुभवात् । शंका-सामान्य आदि तीन पदार्थों में अनुवृत्तिप्रत्यय नहीं है, इसकारण उनमें सत्ताका संबंध नहीं है । समाधान-सो नही। || क्योंकि सामान्यआदि तीन पदार्थोंमें भी अनुवृत्तिप्रत्यय बे रुकावट होता है । भावार्थ-पृथिवीत्व, गोत्व तथा घटत्व आदि रूप जो सामान्य है, उनमें यह सामान्य है, यह सामान्य है, इसप्रकारसे अनुवृत्ति प्रत्यय है । विशेष वहुत ( अनंत ) है; अतः उनमें | यह भी विशेष है, यह भी विशेष है, इसप्रकारसे अनुवृत्तिप्रत्यय है । और समवायमें पूर्वोक्तप्रकारसे उस उस अवच्छेदकके | भेदसे एक आकाररूप प्रतीतिका अनुभव होता है; इसकारण समवायमें भी अनुवृत्तिप्रत्यय है। _स्वरूपसत्त्वसाधर्म्यण सत्ताध्यारोपात्सामान्यादिष्वपि सत्सदित्यनुगम इति चेत्तर्हि मिथ्याप्रत्ययोऽयमापद्यते । ॥ अथ भिन्नस्वभावेष्वेकानुगमो मिथ्यैवेतिचेद्रव्यादिष्वपि सत्ताध्यारोपकृत एवास्तु प्रत्ययानुगमः । असति मुख्येऽ ध्यारोपस्यासम्भवाद्र्व्यादिषु मुख्योऽयमनुगतः प्रत्ययः सामान्यादिषु तु गौण इतिचेत् । न । विपर्ययस्यापि शक्यकल्पनत्वात्। यदि कहो कि,—वरूपसत्त्वसाधर्म्यसे अर्थात् जैसे द्रव्य आदिमें अस्तित्वरूप वस्तुखरूपकी सत्ता है; उसी प्रकार सामान्य आदिमें भी अस्तित्वरूप वस्तुखरूपकी सत्ता रहनेसे सामान्य आदिमें सत्ताका अध्यारोप (उपचार) कर लेवेंगे, इस कारण सामान्य | आदिमें भी यह सत् है, यह सत् है, ऐसी प्रतीति हो जावे गी, तो यह अनुगतप्रत्यय उपचार जनित है, अतः मिथ्याप्रत्यय हो जावेगा । यदि कहो कि,-भिन्न खभावके धारकोंमें एकताका अनुगम करना मिथ्या ही है अर्थात् सामान्य आदि भिन्न खभाववाले पदार्थों में एकरूपताकी प्रतीतिका करना असत्य ही है तो द्रव्य आदिमें भी सत्ताके अध्यारोपसे ही किया हुआ अनुगत प्रत्यय Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम __॥४८॥ नारा .जै.शा. हो जाओ अर्थात् जैसे तुम सामान्य आदिमें सत्ताका आरोप करके अनुगतप्रत्यय सिद्ध करते हो; उसीप्रकार द्रव्य आदिमें भी सत्ताके का आरोपसे ही अनुगतप्रत्ययको खीकार करो । यदि कहो कि, मुख्य अर्थके विद्यमान न होनेपर अध्यारोप नहीं हो सकता है अर्थात् जब एक स्थानमें मुख्य अर्थ विद्यमान रहता है; तभी दूसरे स्थानमें उसका आरोप होता है, इस कारण द्रव्य आदिमें । तो यह अनुगतप्रत्यय मुख्य है और सामान्य आदिमें गौण है । सो भी नहीं। क्योंकि विपर्ययकी भी कल्पना हो सकती है. अर्थात् द्रव्यादिमें अनुगतप्रत्ययको मुख्य और सामान्य आदिमें अनुगत प्रत्ययको गौण माननेमें कोई नियामक नहीं है, अतः । द्रव्य आदिमें अनुगतप्रत्ययको गौण तथा सामान्य आदिमें अनुगतप्रत्ययको मुख्य भी मान सकते है। धू सामान्यादिषु बाधकसम्भवान्न मुख्योऽनुगतः प्रत्ययो द्रव्यादिषु तु तदभावान्मुख्यः इतिचेन्ननु किमिदं वाधलाकम् । अथ सामान्येऽपि सत्ताभ्युपगमेऽनवस्था। विशेषेषु पुनःसामान्यसद्भावे स्वरूपहानिः। समवायेऽपि सत्ता-. कल्पने तवृत्त्यर्थं सम्वन्धान्तराऽभाव इति वाधकानीतिचेत । न । सामान्येऽपि सत्ताकल्पने यद्यनवस्था तहि कथं न सा द्रव्यादिषु । तेषामपि स्वरूपसत्तायाः प्रागेव विद्यमानत्वात् । विशेषेषु पुनः सत्ताभ्युपगमेऽपि न स्वकारूपहानिः । स्वरूपस्य प्रत्युतोत्तेजनात् । निःसामान्यस्य विशेषस्य क्वचिदप्यनुपलम्भात् । समवायेऽपि समवायत्व लक्षणायाः स्वरूपसत्तायाः स्वीकारे उपपद्यत एवाविष्वम्भावात्मकः सम्बन्धोऽन्यथा तस्य स्वरूपाऽभावप्रसङ्गः। इति वाधकाऽभावात्तेष्वपि द्रव्यादिवन्मुख्य एव सत्तासम्बन्धः। इति व्यर्थ द्रव्यगुणकमेवेव सत्ताकल्पनम् । | यदि कहो कि,-सामान्य आदिकमें बाधकका सद्भाव है, अत. सामान्य आदिमें अनुगतप्रत्यय मुख्य नहीं है और द्रव्यादिौ । कोई बाधक नहीं है, अतः द्रव्यादिमें अनुगतप्रत्यय मुख्य है, तो हम प्रश्न करते है कि, वह बाधक क्या है ? । यदि उत्तरमा कहो कि, सामान्यमें सत्ता (सामान्यत्व ) का स्वीकार करनेमें अनवस्थादोष होता है, विशेषोंमें विशेषत्वरूप सत्ताके माननेपर ५ विशेषोंका खत: व्यावृत्तत्वरूप खरूप नष्ट होता है, तथा समवायमें समवायत्वरूप सत्ताका अंगीकार करनेपर समवायमें सत्ताके Mali रहनेके अर्थ कोई दूसरा संबंध नहीं है। इस प्रकार ये बाधक विद्यमान है। सो ठीक नहीं है । क्योंकि, यदि सामान्यमें भी ॥४८॥ सत्ताको माननेसे अनवस्था होती है, तो वह अनवस्था द्रव्य आदिमें भी क्यों नहीं होती है । कारण कि, उन द्रव्यादिकर्म भी निर्विशेष हि सामान्य भवेत्खरविपाणवत् । सामान्यरहितत्वे तु विशेपास्तहदेव हि।।। इति नियमात् । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAS खरूपसत्ता पहले ही विद्यमान है । भावार्थ-जब सत्तामें सत्ताके रहनेसे अनवस्था होती है, तब द्रव्यादिकमें वरूपसत्ता रहती| है । और वहां पर ही तुम अनुवृत्तिप्रत्ययकी कारणभूत दूसरी सत्ता मानते हो; अतः द्रव्यादिकमें भी सत्ताका योग माननेसे अनवस्था क्यों नहीं होती है और विशेषोंमें सत्ताका खीकार करनेपर भी विशेषोंके स्वरूपकी हानि नही होती है। क्योंकि. सामान्यरहित विशेष कही भी प्राप्त नहीं होता है, इसकारण विशेषमें विशेषत्वरूप सत्ताको स्वीकृत करनेपर 'उलटा विशेषोंके स्वरूपको उत्तेजन मिलता है । और समवायमें भी समवायत्वरूप स्वरूपसत्ताका अङ्गीकार करनेपर अविप्वम्भावरूप सबंध (तादात्म्य सबध ) सिद्ध होता ही है। क्योंकि यदि समवायमें अविष्वम्भावरूप संबंध न मानो तो उस समवायके स्वरूपका अभावरूप प्रसंग न होगा । अर्थात् समवाय स्वरूपरहित हो जावेगा; और वह तुमको इष्ट नहीं है। ऐसे पूर्वोक्तप्रकारसे सामान्य आदिमें बाधकका आदिमें सत्ताका सबंध मुख्य है, उसी प्रकार, उन सामान्य आदिमें भी सत्ताका सबंध मुख्य ही है, यह सिद्ध हो चुका । इसकारण द्रव्य-गुण-तथा कर्ममें ही जो तुम सत्ताकी कल्पना करते हो, वह व्यर्थ ( निष्प्रयोजन ) है। किञ्च तैर्वादिभिर्यो द्रव्यादित्रये मुख्यः सत्तासम्बन्धः कक्षीकृतः । सोऽपि विचार्यमाणो विशीर्यते । तथा हिIN यदि द्रव्यादिभ्योऽत्यन्तविलक्षणा सत्ता तदा द्रव्यादीन्यसद्रूपाण्येव स्युः। सत्तायोगात्सत्त्वमस्त्येवेतिचेत्-असतांना सत्तायोगेऽपि कुतः सत्त्वं, सतां तु निष्फलः सत्तायोगः । स्वरूपसत्त्वं भावानामस्त्येवेतिचेत्तर्हि किं शिखण्डिना सत्तायोगेन । सत्तायोगात्प्राग्भावो न सन् , नाप्यसन् , सत्तायोगात्तु सन्नितिचेदाङ्मात्रमेतत् । सदसद्विलक्षणस्य । प्रकारान्तरस्यासम्भवात् । तस्मात्सतामपि स्यात्वचिदेव सत्तेति तेषां वचनं विदुषां परिपदि कथमिव नोपहा साय जायते। KM और भी विशेष यह है कि, उन वैशेषिकोंने जो द्रव्य-गुण तथा कर्म इन तीनमें सत्ताके संबंधको मुख्यरूपसे स्वीकृत किया । है, वह मुख्य सत्ताका संबंध भी जब हम उसका विचार करते है तो जर्जरा हो जाता है । सो ही दिखलाते है । यदि तुम सत्ताको IN द्रव्य आदिसे अत्यन्त विलक्षण ( भिन्न स्वरूपवाली ) मानते हो, तो द्रव्य आदिक असद्प के धारक हो जावेंगे। यदि कहो कि, सत्ताके योगसे उन द्रव्य आदिमें सत्त्व ( सत्रूप पना ) है ही तो जो असत्रूप द्रव्य आदि है; उनमें सत्ताका योग करने पर भी सत्त्व कैसे होगा अर्थात् असत्रूप द्रव्य आदिकमें सत्ताका योग होने पर भी द्रव्य आदि सत्रूप नहीं हो सकते है । - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ४९ ॥ | रा.जै.शा और जो सत्रूप पदार्थ हैं; उनके तो सत्ताका योग निष्फल ( व्यर्थ ) है । यदि कहो कि पढार्थों के स्वरूपसत्त्व है ही; तो फिर नपुंसक ( अकार्यकारी ) सत्ताके योगको माननेसे क्या प्रयोजन है ? | यदि कहो कि; सत्ताके योगके पहिले न तो पदार्थ सत् था और न असत् था, परन्तु सत्ताका योग होनेसे पदार्थ सत् हो गया सो यह भी कहनेमात्र है अर्थात् व्यर्थ है । क्योंकि ( पढार्थो में ) सत् तथा असत्से भिन्नरूप कोई तीसरा प्रकार ही नहीं हो सकता है । इस कारण 'सत् पदार्थों में भी किसी किसीमें सत्ता है' ऐसा वैशेषिकोंका वचन विद्वानों की सभा में उपहासके अर्थ कैसे न हो अर्थात् हो ही हो । ज्ञानमपि यद्येकान्तेनात्मनः सकाशाद्भिन्नमिष्यते तदा तेन चैत्रज्ञानेन मैत्रस्येव नैव विषयपरिच्छेदः स्यादात्मनः । अथ यत्रैवात्मनि समवायसम्बन्धेन समवेतं ज्ञानं तत्रैव भावावभासं करोतीति चेत् । न, समवायस्यैकत्वान्नित्यत्वाद्व्यापकत्वाच्च सर्वत्र वृत्तेरविशेषात्समवायवदात्मनामपि व्यापकत्वादेकज्ञानेन सर्वेषां विषयाववोधप्रसङ्गः । यथा च घटे रूपादयः समवायसम्बन्धेन समवेतास्तद्विनाशे च तदाश्रयस्य घटस्यापि विनाशः । एवं ज्ञानमप्यात्मनि समवेतं तच्च क्षणिकं ततस्तद्विनाशे आत्मनोऽपि विनाशापत्तेरनित्यत्वापत्तिः । यदि तुम ज्ञानको भी आत्मासे सर्वथा भिन्न मानोगे तो जैसे मैत्रके ज्ञानसे आत्माके विषयका ज्ञान नही होता है, उसी प्रकार उस चैत्रके ज्ञानसे भी आत्माके विपयका ज्ञान न होगा । भावार्थ - जैसे चैत्रनामक एक पुरुषसे मैत्रनामक दूसरे पुरुपका ज्ञान भिन्न है, अतः मैत्रके ज्ञानसे चैत्रके आत्माको पदार्थका ज्ञान नही होता है; उसी प्रकार चैत्रका ज्ञान भी चैत्रकी आत्मा भन्न | है, इस कारण चैत्रके ज्ञानसे चैत्रकी आत्माको भी पदार्थका ज्ञान न होगा । और ऐसा होगा तो आत्मा पदार्थके ज्ञानसे रहित | अर्थात् जडरूप ही हो जावेगा । यदि कहो कि, जिस आत्मामें ज्ञान समवायसंबधसे समवेत ( मिला हुआ ) है, उसीमे ज्ञान पदार्थोंका अवभास ( ज्ञान ) कराता है अर्थात् यद्यपि चैत्रका ज्ञान चैत्रकी आत्मासे भिन्न है, तथापि चैत्रकी आत्मामें समवायसे संबंधित है; अतः चैत्रकी आत्माको पदार्थका ज्ञान हो जाता है । सो नही । क्योंकि, तुम्हारे मतमें समवाय एक, नित्य और | व्यापक होनेसे सब पदार्थों में समानरूपसे रहता है; और जैसे समवाय व्यापक है, उसी प्रकार आत्मा भी सबमें व्यापक है; इस कारण एक आत्माके ज्ञानसे सब आत्माओंको पदार्थका ज्ञान हो जानेसे तुम्हारे अनिष्टकी प्राप्ति होगी । तथा जैसे घटमें रूप आदिक समवायसबधसे समवेत है और उन रूपआदिका नाश होनेपर उन रूपआदिके आधारभूत घटका भी नाश होता है, इसीप्रकार ॥ ४९ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान भी आत्मामें समवेत है और वह ज्ञान क्षणिक है; अतः ज्ञानका नाश होनेपर उस ज्ञानके आधारभूत आत्माका भी नाश हो जानेसे आत्माके अनित्यताकी प्राप्ति होगी अर्थात् तुह्मारा नित्य आत्मा अनित्य हो जावेगा। अथास्तु समवायेन ज्ञानात्मनोः सम्बन्धः किन्तु स एव समवायः केन तयोः संवध्यते । समवायान्तरेण चेदN||नवस्था । स्वेनैव चेकिं न ज्ञानात्मनोरपि तथा । अथ यथा प्रदीपस्तत्स्वाभाव्यादात्मानं परं च प्रकाशयति | तथा समवायस्येहगेव स्वभावो यदात्मानं ज्ञानात्मानौ च सम्बन्धयतीति चेत्-ज्ञानात्मनोरपि किं न तथास्वभाव|ता येन स्वयमेवैतौ संवध्यते । किञ्च प्रदीपदृष्टान्तोऽपि भवत्पक्षे न जाघटीति । यतः प्रदीपस्तावद्रव्यं, प्रकाशश्च तस्य धर्मः, धर्मधर्मिणोश्च त्वयात्यन्तं भेदोऽभ्युपगम्यते । तत्कथं प्रदीपस्य प्रकाशात्मकता । तदभावे च स्वपरप्र काशकस्वभावताभणितिनिर्मूलैव। ME अथवा कदाचित् ज्ञान और आत्मा, इन दोनोंके समवायसे संबंध रहै; तो भी हम प्रश्न करते है कि,—वही समवाय ज्ञान तथा आत्मा इन दोनोंमें किससे संबंधित किया जाता है अर्थात् जैसे आत्मामें ज्ञान समवायसंबंधसे समवेत है; उसी प्रकार; उन || दोनोंमें समवाय किससे सबंधित है ? । यदि कहो कि;-ज्ञान और आत्माको संबंधित करनेवाला समवाय उन दोनोंमें दूसरे समवायसे संबंधको प्राप्त होता है, तब तो अनवस्था दोष आता है। और यदि कहो कि;-समवाय वयं ( अपने आप ) ही ज्ञान और आत्मामें संबंधित होता है; तो ज्ञान और आत्मा इन दोनोंके भी स्वयं संबंधित होना क्यों नहीं है अर्थात जै और आत्मामें खयं संबधको प्राप्त होता है; उसी प्रकार ज्ञान तथा आत्मा ये दोनों भी खय ही परस्पर संबधित क्यों नहीं होते है? । भावार्थ-ज्ञान और आत्मा समवायसे संबंधित होते है ऐसा माननेमें कोई नियामक नहीं है; अतः जैसे तुम समवायका ज्ञान तथा आत्मामें खतः संबंध मानते हो; उसी प्रकार ज्ञान और आत्माकेभी खतः संबंध ही मान लो समवायसे संबंध मानना व्यर्थ है । अब कदाचित् ऐसा कहो कि;-जैसे दीपक उसके खभावसे आत्माको और परको प्रकाशित करता है, अर्थात् दीपक अपने लाखभावसे आपको भी प्रकाशित करता है और घट पट आदि पर पदार्थों को भी प्रकाशित करता है, इसीप्रकार समवायका भी ऐसा || ही खभाव है कि;-वह आपको और ज्ञान तथा आत्मा, इन दोनोंको संबंधित करता है अर्थात् समवाय अपने स्वभावसे ज्ञान | और आत्माको भी परस्पर संबधित करता है और आप खयं भी उनमें संबंधित हो जाता है; तो ज्ञान और आत्मा; इन दोनोंके Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादमं. ॥५०॥ । द्रव्य-(धर्मी) है और प्रकाश का दृष्टान्त दिया है, वह भी तुमार भी खयं परस्पर संबंधको प्राप्त होजायात जैसे समवायका र यदि च प्रदीपीकाशक है । यह तमाशरूप स्वभाव नहीं ही है, वह उससे भिन्न नाही तुमने अत्यंत भेद माक्योंकि;-पदीप तो । स्वभावाधात् । अपि च तापत्यन्तभेदेऽपि प्रदापनिर्मल ( निराधार है और जब प्रदीपका और तुम मदीप तथात प्रदीप है । ततः समवायमकथं सम्बन्धः परसम्बन्धनखभापत्य स्वपरप्रकाश अर्थात् असत्य ही प्रकाशरूप स्वभा तथा प्रकाशके 3 भी ऐसा स्वभाव क्यों नहीं है, जिससे कि, वे दोनो ज्ञान और आत्मा स्वयं ही संबंधको प्राप्त हो जावें अर्थात् जैसे समवायका @ स्वयं संबधित होजानेरूप स्वभाव है, वेसे ही ज्ञान और आत्माका भी खयं परस्पर संबंधको प्राप्त होजानेरूप स्वभाव मानलेना चाहिये । और जो तुमने प्रदीपका दृष्टान्त दिया है, वह भी तुझारे पक्ष ( मत ) में घटित नहीं होता है। क्योंकि-प्रदीप तो . द्रव्य (धर्मी) है और प्रकाश, उस प्रदीपका धर्म है, तथा धर्म और धर्मी इन दोनोंके तुमने अत्यंत भेद माना है। अतः प्रदीप प्रकाशरूप कैसे हो सकता है ? अर्थात् जो जिसका स्वभाव होता है, वह उससे भिन्न नहीं रहता है और तुम प्रदीप तथा प्रकाशके सर्वथा भेद मानते हो, अतः प्रदीपका प्रकाशरूप स्वभाव नहीं हो सकता है । और जब प्रदीपका प्रकाशरूप स्वभाव ही न रहा। तब 'प्रदीप स्वपरप्रकाशक है ' यह तुम्हारा कहना निर्मूल (निराधार ) अर्थात् असत्य ही है। ४ यदि च प्रदीपात्प्रकाशस्यात्यन्तभेदेऽपि प्रदीपस्य स्वपरप्रकाशकत्वमिष्यते तदा घटादीनामपि तदनुपज्यते । भेदाविशेषात् । अपि च तौ स्वपरसम्बन्धनस्वभावौ समवायाद्भिनौ स्यातामभिन्नौ वा । यदि भिन्नौ ततस्तस्यैतौ स्वभावाविति कथं सम्बन्धः। सम्बन्धनिवन्धनस्य समवायान्तरस्यानवस्थाभयादनभ्युपगमात् । अथाऽभिन्नौ ततः समवायमात्रमेव । न तौ । तदव्यतिरिक्तत्वात्तत्स्वरूपवदिति । किञ्च यथा इह समवायिपु समवाय इति मतिः समवायं विनाप्युपपन्ना तथा इहात्मनि ज्ञानमित्ययमपि प्रत्ययस्तं विनैव चेदुच्यते तदा को दोपः। ___और यदि तुम प्रदीपसे प्रकाशके अत्यत भेद होनेपर भी प्रदीपके निज तथा परका प्रकाशकपना मानोगे, तो घट आदिके भी स्वपरप्रकाशकताका प्रसग होगा। क्योंकि, भेदका अविशेष है अर्थात् जैसे प्रदीपसे प्रकाश भिन्न है, उसी प्रकार घट पट आदिसे IN भी प्रकाश भिन्न है। तथा यह भी विशेप प्रष्टव्य है कि,-समवायके जो स्व तथा परका संबध करनेरूप स्वभाव है, वे समवायसे । भिन्न है ? अथवा अभिन्न है ? । यदि कहो कि; समवायसे भिन्न है; तब तो ये दोनों स्वपरसे संबधकरनेरूप स्वभाव समवायके है, IN इस प्रकारका सवध कैसे हुआ । क्योंकि;-इन स्वभावोको समवायमें सबंधित करनेवाला जो दूसरा समवाय है, उसको तुमने 11 अनवस्थाके भयसे स्वीकार नहीं किया है । यदि कहो कि,-वे निज तथा परका प्रकाश करनेवाले स्वभाव समवायसे अभिन्न है, तो वे दोनों स्वभाव समवायरूप ही है; समवायसे भिन्न वे दोनों स्वभाव नहीं है । क्योंकि, वे दोनों समवायके स्वरूपके समान समवायसे अभिन्न है भावार्थ-जैसे अभिन्न होनेसे समवायका स्वरूप समवायरूप ही है, इसी प्रकार ये स्वप्रकाशक और परप्र-d Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | काशकरूप स्वभाव भी समवायरूप ही है । और भी विशेष वक्तव्य यह है कि, जैसे इन समवायियों ( समवायके धारकों ) में समवाय है; ऐसी बुद्धि समवायके विना भी उत्पन्न हुई है, उसी प्रकार यदि तुम ' इस आत्मामें ज्ञान है' इस इहप्रत्ययरूप प्रतीतिको भी समवायके विना ही उत्पन्न हुई कह दो तो क्या दोष है ? अर्थात् समवायके बिना ही इस प्रत्ययका होना मान लेने में कोई भी दोष नही है । ८ आत्मामें ज्ञान है' ऐसे 2 अथात्मा कर्त्ता, ज्ञानं च करणं, कर्तृकरणयोश्च वर्द्धकिवासीवद्भेद एव प्रतीतस्तत्कथं ज्ञानात्मनोरभेद इतिचेत् । न । दृष्टान्तस्यं वैषम्यात् । वासी हि वाह्यं करणं, ज्ञानं चाभ्यन्तरं तत्कथमनयोः साधर्म्यम् । न चैवं करणस्य | द्वैविध्यमप्रसिद्धम् । यदाहुर्लाक्षणिकाः – “करणं द्विविधं ज्ञेयं वाह्यमाभ्यन्तरं बुधैः । यथा लुनाति दात्रेण मेरुं गच्छति | चेतसा । १।” यदि हि किञ्चित्करणमान्तरमेकान्तेन भिन्नमुपदर्श्यते ततः स्याद्दृष्टान्तदान्तिकयोः साधर्म्यम् । न च तथाविधमस्ति । न च वाह्यकरणगतो धर्मः सर्वोऽप्यान्तरे योजयितुं शक्यते । अन्यथा दीपेन चक्षुषा देवदत्तः | पश्यतीत्यत्रापि दीपादिवच्चक्षुषोऽप्येकान्तेन देवदत्तस्य भेदः स्यात् । तथा च सति लोकप्रतीतिविरोध इति । शंका - आत्मा तो कर्ता है; ज्ञान करण है, - कर्त्ता और करणके बढई ( खाती ) और कुठारके समान भेद ही प्रतीत है; | अर्थात् जैसे बढईरूप कर्त्ता अपनेसे भिन्न कुठाररूप करणसे काष्टको छेदता है, उसी प्रकार आत्मारूप कती ज्ञानस्वरूप करणके द्वारा | पदार्थको जानता है, अतः आत्मा और ज्ञान ये दोनों भिन्न ही प्रतीतिके गोचर होते है । इस कारण ज्ञान तथा आत्मा, इन दोनोंके अभेद कैसे हो सकता है ? समाधान - यह कहना उचित नही है। क्योंकि दृष्टान्त विषम है । भावार्थ – कुठार तो वायकरण है। और ज्ञान अतरंग करण है; इस कारण इन दोनोंके समानता कैसे हो सकती है अर्थात् कुठाररूप वाह्यकरणके दृष्टान्तसे ज्ञानरूप अंत| रंगकरणको भिन्न सिद्ध नहीं कर सकते हो । और हमने जो दो प्रकारके करण कहे है; वे अप्रसिद्ध नहीं है । क्योंकि व्याकरणके | ज्ञाता जन कहते है कि, “ ज्ञानवानों को बाह्य और आभ्यन्तर ( अंतरंग ) रूपसे दो करण जानने चाहियें | जैसे देवदत्त दात्र ( दरांती ) से छेदता है और मनसे मेरुपर्वतको जाता है; यहां पर दात्र वाह्यकरण है और मन अंतरंग करण है । हां यदि तुमने १ ख- पुस्तके ' दृष्टान्तस्यैव ' इति पाठ । २ ख- पुस्तके न चेदमिति पाठः । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ५१ ॥ ग जैसे बढ़ईरूप कर्त्तासे कुठाररूप बाह्यकरणको भिन्न बताया है; उसीप्रकार किसी कर्त्ताको किसी अंतरंग करणसे सर्वथा भिन्न दिखलाओ तो दृष्टान्त तथा दान्तिक ( ज्ञान ) के समानता हो सकती है; परंतु इस प्रकारका कोई दृष्टान्त ही नहीं है । और बाह्यकरणमें प्राप्त जो धर्म है, उस सबको ही तुम अतरंगकरणमें नही लगा सकते हो। क्योंकि यदि वाह्यकरणके सब धर्मको अंतरंगमें लगाओगे तो देवदत्त दीपक और नेत्रसे देखता है, यहां जैसे देवदत्तसे दीप आदि भिन्न है, उसीप्रकार नेत्र भी देवदत्तसे सर्वथा भिन्न हो जावे और ऐसा होने पर लोककी प्रतीतिसे विरोध उत्पन्न होवे | अपि च साध्यविकलोऽपि वासिवर्द्धकिदृष्टान्तः । तथाहि - नायं वर्द्धकिः काष्ठमिदमनया वास्या घटयिष्य | इत्येवं वासिग्रहणपरिणामेनाऽपरिणतः सन् तामगृहीत्वा घटयति । किन्तु तथा परिणतस्तां गृहीत्वा । तथा परिणामे च वासिरप तस्य काष्ठस्य घटने व्याप्रियते पुरुषोऽपि । इत्येवं लक्षणैकार्थसाधकत्वाद्वासिवर्द्धक्योरभेदोऽप्युप पद्यते। तत्कथमनयोर्भेद एवेत्युच्यते । एवमात्मापि विवक्षितमर्थमनेन ज्ञानेन ज्ञास्यामीति ज्ञानग्रहणपरिणामवान् ज्ञानं गृहीत्वार्थं व्यवस्यति । ततश्च ज्ञानात्मनोरुभयोरपि संवित्तिलक्षणैककार्यसाधकत्वादभेद एव । एवं कर्तृकरयोरभेदे सिद्धे संवित्तिलक्षणं कार्यं किमात्मनि व्यवस्थितं आहोस्विद्विषय इति वाच्यम् । आत्मनि चेत्-सिद्धं | नः समीहितम् । विषये चेत्कथमात्मनोऽनुभवः प्रतीयते । अथ विषयस्थितसंवित्तेः सकाशादात्मनोऽनुभवस्तर्हि किं न पुरुषान्तरस्यापि । तद्भेदाविशेषात् । और भी यह दोष है कि, तुमने जो बढ़ई और कुठारका दृष्टान्त दिया है, वह साध्यसे विकल ( रहित ) है अर्थात् आत्मा और ज्ञान इन दोनोंके भेदको नहीं साध सकता है। सो ही दिखलाते है - वह बढई ' इस काष्टको इस कुठार ( कुहाड़े ) से घड्गा' ऐसा जो कुठारको ग्रहण करनेरूप परिणाम है; उससे अपरिणत ( रहित ) हो कर; उस कुठारको विना ग्रहण किये नहीं घडता है, किन्तु कुठारके ग्रहण करनेरूप परिणामसे सहित होकर उस कुठारको ग्रहण करके ही काष्टको घड़ता है । और जब वह वढई कुठारग्रहणरूप परिणामसे विशिष्ट हुआ तो सिद्ध हुआ कि कुठार भी उस काष्टके घडनेमें व्यापार करता है और वह बढईरूप पुरुषभी काष्टके घडनेमें व्यापार करता है । और इस उक्त प्रकारसे काष्टके घड़नेरूप अर्थक्रियाकी साधकतासे बढ़ई तथा कुठारके अभेद भी सिद्ध होता है अर्थात् जैसे कुठारसे काष्ट घड़ा जाता है, उसी प्रकार उस बढ़ईसे भी घड़ा जाता है; ॥ ५१ ॥ रा. जै. श Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अतः काष्टघटनरूप एक अर्थक्रियाको करनेसे बढई और कुठार ये दोनों किसी अपेक्षासे अभिन्न भी है । अतः तुम ' ये दोनों भिन्न ही है ' ऐसा कैसे कहते हो । इसी प्रकार आत्मा भी ' विवक्षित ( अमुक ) अर्थको इस ज्ञानसे जानूंगा' इस प्रकारके ज्ञानग्रहणरूप परिणामसे सहित हुआ ज्ञानको ग्रहण करके पदार्थको जानता है । और जब ऐसा हुआ तो पदार्थके जाननेरूप एक अर्थके साधक होनेसे ज्ञान और आत्मा ये दोनों भी अभिन्न ही सिद्ध हुए । इस प्रकार कर्त्ता और करण के अभेद सिद्ध होने पर हम प्रश्न करते है कि; वह संवित्ति ( जानते ) रूप कार्य क्या ? आत्मामें स्थित है; अथवा विषय ( जिस पदार्थको आत्मा जानता है, उस ) में स्थित है; इसका उत्तर कहना चाहिये । यदि कहो कि; संवित्तिरूप कार्य आत्मामें स्थित है; तब तो हमारा मनोरथ सिद्ध होगया अर्थात् हम जैनी भी जाननेरूप कार्यको आत्मामें ही मानते है । यदि कहो कि; विषयमें स्थित है; तो आत्माके सुख-दुख आदिका अनुभव कैसे प्रतीत होता है ? । उत्तरमें कदाचित यह कहो कि विषयमें विद्यमान जो संवित्ति है; । उससे आत्माके अनुभव होता है, तो वह अनुभव उस एक आत्माके ही क्यों होता है अन्य आत्माओंके क्यों नहीं होता है कारण कि, भेदका अविशेष है अर्थात् जैसे विषयस्थितसंवित्ति से दूसरे आत्मा भिन्न है, वेसे ही वह आत्मा भी भिन्न है । 1 1 अथ ज्ञानात्मनोरभेदपक्षे कथं कर्तृकरणभाव इति चेत्-ननु यथा सर्प आत्मानमात्मना वेष्टयतीत्यत्र ' अभेदे यथा कर्तृकरणभावस्तथात्रापि ' । अथ परिकल्पितोऽयं कर्तृकरणभाव इति चेद्वेष्टनावस्थायां प्रागवस्थाविलक्षणग| तिनिरोधलक्षणार्थक्रियादर्शनात्कथं परिकल्पितत्वम् । न हि परिकल्पनाशतैरपि शैलस्तम्भ आत्मानमात्मना वेष्टयतीति वक्तुं शक्यम् । तस्मादभेदेऽपि कर्त्तृकरणभावः सिद्ध एव । किञ्च चैतन्यमितिशब्दस्य चिन्त्यतामन्वर्थः । चेतनस्य भावश्चैतन्यम् । चेतनञ्चात्मा त्वयापि कीर्त्यते । तस्य भावः स्वरूपं चैतन्यम् । यच्च यस्य स्वरूपं न तत्ततो भिन्नं भवितुमर्हति । यथा वृक्षाद्वृक्षस्वरूपम् । ज्ञान और आत्माके अभेद माननेमें कर्तृकरणभाव तो उत्तर यह है कि, सर्प आपको अपनेसे | वेढता ( घेरता ) है ' यहां पर जैसे कर्त्ता और करणके अभेद होने पर भी कर्तृकरणभाव है; उसी अब यदि तुम ( वैशेषिक ) ऐसा प्रश्न करो कि, कर्त्ता है, यह करण है ऐसी व्यवस्था कैसे होगी, १ ख ग पुस्तकयोरेप पाठो न विद्यते । कैसे होगा अर्थात् यह वेष्टित करता है अर्थात् प्रकार 6 आत्मा ज्ञानसे Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादम. ॥५२॥ राजै.शा जानता है ' यहां भी कर्तृकरणभाव होता है । यदि कहो कि, यह कर्तृकरणभाव परिकल्पित अर्थात् असत्य है; तो सर्पकी वेष्टन अवस्थामें पूर्व अवस्थासे विलक्षण गमनके निरोध रूप अर्थक्रियाको देखनेसे परिकल्पित कैसे है अर्थात् जब सर्प आपको अपनेसे वेढ़ता है, उससमय वह पहलेकी जो गमनरूप अर्थक्रिया है; उसको छोडकर गमनके बंद होनेरूप अर्थक्रियाको धारण करता है। अत: उसमें कर्तृकरणभाव कल्पित नहीं हो सकता है । क्योंकि; सैकडों कल्पनाओसे भी यह पापाणका स्तभ (थंभा) आपको अपनेसे वेष्टित करता है, ऐसा नहीं कह सकते हैं। इस कारण आत्मा और ज्ञान इन दोनोके अभेद होनेपर भी कर्तृकरणभाव सिद्ध हो ही गया । और भी विशेष यह है कि, तुम चैतन्य इस शब्दके यथार्थ अर्थका विचार करो। चेतनका जो भाव होता है; छावह चैतन्य कहलाता है और आत्माको चेतन तुम भी कहते हो, उस आत्माका जो भाव अर्थात् स्वरूप है, वह चैतन्य MI(ज्ञान ) है । और जो जिसका स्वरूप होता है, वह उससे भिन्न नहीं हो सकता है। जैसे कि; जो वृक्षका स्वरूप है, वह ॐ"वृक्षसे कदापि भिन्न नहीं होता है। 2 अथास्ति चेतन आत्मा। परं चेतनासमवायसम्बन्धात्। न स्वतः। तथाप्रतीतेरितिचेत्-तदयुक्तम् । यतः प्रतीति श्चेत्प्रमाणीक्रियते तर्हि निर्वाधमुपयोगात्मक एवात्मा प्रसिद्ध्यति । न हि जातुचित्स्वयमचेतनोऽहं, चेतनायोगाच्चेपूतनः, अचेतने वा मयि चेतनायाः समवाय इति प्रतीतिरस्ति । ज्ञाताहमिति समानाधिकरणतया प्रतीतेः। भेदे तथाप्रतीतिरिति चेत् । न । कथं चित्तादात्म्याऽभावे सामानाधिकरण्यग्रतीतेरदर्शनात् । यष्टिःपुरुष इत्यादिप्रतीतिस्तु भेदे सत्युपचारादृष्टा । न पुनस्तात्विकी । उपचारस्य तु बीजं पुरुपस्य यष्टिगतस्तब्धत्वादिगुणैरभेदः। उपचारस्य मुख्यार्थस्पर्शित्वात् । तथा चात्मनि ज्ञाताहमितिप्रतीतिः कथंचिच्चेतनात्मतां गमयति । तामन्तरेण ज्ञाताहमिति प्रतीतेरनुपपद्यमानत्वात् । घटादिवत् । न हि घटादिरचेतनात्मको ज्ञाताहमिति प्रत्येति । चैतन्ययोगाऽभावादसौ न तथा प्रत्येतीतिचेत् । न । अचेतनस्यापि चैतन्ययोगाच्चेतनोऽहमिति प्रतिपत्तेरनन्तरमेव निरस्तत्वात् । इत्यचे ॐ तनत्वं सिद्धमात्मनो जडस्यार्थपरिच्छेदं पराकरोति । तं पुनरिच्छता चैतन्यस्वरूपतास्य स्वीकरणीया। में यदि कहो कि, आत्मा चेतन तो है; परंतु समवायसवंधसे है अर्थात् समवायसवधसे ज्ञान आत्मा समवेत है; अतः ज्ञानके १. योगसे चेतन है और आत्मा स्वय चेतन नहीं है। क्योंकि ऐसी ही प्रतीति होती है । सो यह कहना अनुचित है। क्योंकि, | ॥५२॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि तुम प्रतीतिको ही प्रमाण करते हो तो बिना किसी बाधाके ज्ञानस्वरूप ही आत्मा सिद्ध होता है । क्योंकि, ' मै स्वयं अचेतन इं, चेतना ( ज्ञान ) के योगसे चेतन हुआ हूं, अथवा मुझ अचेतन आत्मामें चेतनाका समवाय है; ऐसी प्रतीति कदाचित् भी नही होती है । कारण कि 'मैं ज्ञाता ( जानने वाला ) हूं' इस प्रकारकी समान अधिकरणपनेरूप प्रतीति होती है । यदि कहो कि;यह प्रतीति आत्मा और ज्ञानके भेद होनेपर भी हो जावेगी । सो नहीं । क्योंकि, कथंचित् तादात्म्य ( अभिन्नता ) के अभावमें सामानाधिकरण्यप्रतीति कहीं भी देखनेमें नहीं आती है अर्थात् जब किसी न किसी प्रकारसे एककी दूसरेके साथ अभिन्नता होती है; तभी उन दोनोंके समान अधिकरणपनेरूप प्रतीति होती है । और जो पुरुष यष्टि है अर्थात् यह पुरुष यष्टि ( लाठी व लकड़ी ) रूप है; इत्यादि प्रतीति होती है; वह पुरुष और यष्टिके परस्पर भेद होनेपर भी उपचारसे देखी जाती है । और | 'पुरुष यष्टि है' यह प्रतीति तत्त्वरूप अर्थात् यथार्थ नही है । तथा पुरुषके यष्टिमें प्राप्त स्तब्धता आदि गुणोंसे जो अभेद है; वही उपचारका कारण है । क्योंकि, उपचार मुख्य अर्थको स्पर्श करनेवाला होता है । भावार्थ- पुरुष यष्टि है; इस प्रतीतिमें यद्यपि पुरुष और यष्टि दोनों भिन्न २ है; तथापि यष्टिके जो स्तब्धता आदि गुण है; वे पुरुषमें भी है; अतः यष्टिके स्तव्ध - ता आदि मुख्य गुणोंको ग्रहण करके पुरुषमें यष्टिका उपचार किया गया है । और जैसे ' पुरुष यष्टि है' यह प्रतीति | पुरुषमें स्तब्धता आदि गुणोंसे कथंचित् यष्टिरूपता जनाती है, उसी प्रकार 'मै ज्ञाता हूं' यह प्रतीति आत्मामें कथंचित् चैतन्यरूपता द्योतित करती है। क्योंकि, उस चैतन्यरूपताके चिना 'मै ज्ञाता हूं' ऐसी प्रतीति उत्पन्न नही होती है । घट आदिके समान । क्योंकि; अचेतनरूप घट 'मै ज्ञाता हूं' इस प्रतीतिको नही करता है । और 'मै ज्ञाता हूं ' ऐसी प्रतीति आत्माके होती है; अतः ' आत्मा कथंचित् चेतनरूप है ' यह निश्चित होता है । यदि कहो कि; घटमें चैतन्य ( ज्ञान ) का योग नही है अर्थात् घटमें ज्ञान समवायसंबंधसे नही रहता है; इसकारण घट 'मैं ज्ञाता ' ऐसी प्रतीति नही करता है; सो नहीं । क्योंकि; अचेतनके भी चैतन्यके योगसे 'मै चेतन हूं' ऐसी प्रतीति होती है " यह जो तुम्हारा अङ्गीकार ( मत ) है; उसका अभी | ऊपर ही खंडन कर चुके है । इस प्रकार जड़ आत्माके सिद्ध हुआ अचेतनपना आत्माके विषयज्ञानको दूर करता है । और जो | आत्माके पदार्थका ज्ञान चाहता है; उसको आत्माके चैतन्यस्वरूपता स्वीकार करनी चाहिये । भावार्थ – अचेतन आत्मा पदार्थको Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५३॥ राजै.शा. साद्वादमा नहीं जान सकता है; अतः यदि तुम (वैशेषिक) आत्माको ज्ञाता ( पदार्थोंका जाननेवाला ) मानना चाहते हो तो पहले आत्माको चैतन्यखरूप ( ज्ञानरूप ) खीकार करो।। ननु ज्ञानवानहमिति प्रत्ययादात्मज्ञानयोर्भेदः । अन्यथा धनवानितिप्रत्ययादपि धनधनवतोर्भेदाभावानुषङ्गात्। तदसत् । यतो ज्ञानवानहमिति नात्मा भवन्मते प्रत्येति जडत्वैकान्तरूपत्वात् । घटवत् । सर्वथा जडश्च स्यादात्मा ज्ञानवनिहमितिप्रत्ययश्च स्यादस्य विरोधाऽभावात् । इति मा निर्णैषीः तस्य तथोत्पत्त्यसम्भवात् । ज्ञानवानहमिति हि प्रत्ययो नाऽगृहीते ज्ञानाख्ये विशेषणे विशेष्ये चात्मनि जातूत्पद्यते । स्वमतविरोधात् । “ नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः” इति वचनात् । शंका-'मै ज्ञानवान हूं' इस प्रत्ययसे आत्मा और ज्ञानके भेद सिद्ध होता है । क्योंकि; यदि इस प्रत्ययसे आत्मा और / ज्ञानके भेद न होवे तो ' मै धनवान हूं' इस प्रत्ययसे धन और धनवान इन दोनोंके भेदके अभावका प्रसंग होगा। भावार्थवैशेषिक अब यहांपर ऐसा कहते है कि, यदि ' मैं ज्ञाता हूं' इस पूर्वोक्त प्रत्ययसे आत्मा तथा ज्ञानके भेद सिद्ध नहीं होता है; का तो अस्तु मत हो; परन्तु ' मै धनवान हू' इस प्रत्ययसे जैसे धनके और धनवानके भेद प्रतीत होता है, उसी प्रकार 'मैं ज्ञानवान हूँ' इस प्रत्ययसे आत्मा और ज्ञानके भेद सिद्ध होता है । समाधान-यह तुम्हारा कहना मिथ्या है। क्योंकि तुम्हारे मतमें आत्मा सर्वथा जडरूप है; अत 'मै ज्ञानवान हूं' ऐसी प्रतीति नहीं कर सकता है । घटके समान अर्थात् जैसे-सर्वथा जड होनेसे घट उक्त प्रतीतिको नहीं करता है, वैसे ही आत्मा भी उक्त प्रतीतिको नहीं कर सकता है । अब कदाचित् ऐसा कहो कि आत्मा सर्वथा जड भी है और मै 'ज्ञानवान हूं' इस प्रत्ययका धारक भी है । क्योंकि, ऐसा माननेमें कोई विरोध नहीं है । सो तिम ऐसा भी निर्णय मत करो । क्योंकि; आत्माके 'मै ज्ञानवान हूं' ऐसी प्रतीति ही नहीं होती है । कारण कि, 'मै ज्ञानवान ना। यह प्रत्यय ज्ञाननामक विशेषण और आत्मानामक विशेष्यको अहण किये बिना कदाचित् भी उत्पन्न नही होता है। क्योंकि विशेषणको ग्रहण किये विना विशेप्यमें बुद्धि नहीं होती है' ऐसा वचन है; अत' तुम्हारे मतसे विरोध होगा। AMIL ग्रहीतयो तयोरुत्पद्यत इति चेत्-कुतस्तद्गृहीतिः। न तावत्स्वतः । स्वसंवेदनाऽनभ्युपगमात् । स्वसंविदिते । ह्यात्मनि ज्ञाने च स्वतः सा युज्यते । नान्यथा । सन्तानान्तरवत् । परतश्चेत्तदपि ज्ञानान्तरं विशेष्यं नागृहीते परतश्चेत्तदपि ज्ञानापगमात् । स्वसंविदित ॥५३॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानत्वविशेषणे ग्रहीतुं शक्यम् । गृहीते हि घटत्वे घटग्रहणमिति ज्ञानान्तरात्तद्गृहणेन भाव्यम् । इत्यनवस्थानात्कुतः प्रकृतप्रत्ययः। तदेवं नात्मनो जडस्वरूपता संगच्छते । तदसङ्गतौ च चैतन्यमौपाधिकमात्मनोऽन्यदिति वाङ्मात्रम् । ___ यदि कहो कि; जब आत्मा ज्ञाननामक विशेषण और आत्मानामक विशेष्य; इन दोनोंको ग्रहण कर चुकता है; तव ' मै ज्ञानवान हू' ऐसा प्रत्यय उत्पन्न होता है; तो यहां पर हम प्रश्न करते है कि; आत्माके उस ज्ञान तथा आत्माका ग्रहण किससे हुआ ? यदि उत्तरमें कहो कि; आत्मा खतः ( अपने आप ही से ) उन दोनोंका ग्रहण कर लेता है; तो यह कहना उचित नहीं | जा है। क्योंकि; तुमने आत्मा तथा ज्ञानको स्वसंवेदक ( अपने जाननेवाला ) नहीं माना है । भावार्थ-यदि आत्मा और ज्ञान ये | दोनों खसंविदित ( अपनेसे आप जाननेमें आते हुए ) होवें; तब तो आत्माके ज्ञान तथा आत्माका ग्रहण हो सकता है और अन्यप्रकारसे नहीं । दूसरे संतानके समान । अर्थात् जैसे घट पट आदि दूसरे संतान ( पदार्थ ) अखसंवेदक होनेसे ज्ञान तथा आत्माका ग्रहण नहीं कर सकते है। उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञान व आत्माके ग्रहण करने में असमर्थ है। अब कदाचित् ऐसा कहो कि; आत्मा पर ( दूसरे ) ज्ञानके द्वारा अपने ज्ञाननामक विशेषणको ग्रहण करता है तो वह दूसरा ज्ञानरूप विशेष्य भी अपने ज्ञानत्वविशेषणको ग्रहण किये विना उस आत्माके ज्ञानरूपविशेपणको ग्रहण करनेमें असमर्थ है। क्योंकि; घटत्वका ग्रहण होनेपर घटका | ग्रहण होता है भावार्थ-जैसे तुम्हारे मतमें घटत्वका ग्रहण हो चुकने पर घटका ग्रहण होता है; उसी प्रकार ज्ञानत्वका ग्रहण होनेके पश्चात् ही ज्ञानका ग्रहण होना चाहिये । इस कारण दूसरे ज्ञानके ज्ञानत्वका ग्रहण तीसरे ज्ञानसे और तीसरे ज्ञानके ज्ञानIVत्वका ग्रहण चौथे ज्ञानसे एवं उत्तरोत्तर ज्ञानत्वका ग्रहण उत्तरोत्तर ज्ञानसे मानोगे तो कहीं भी स्थिति न होगी अर्थात् अनवस्था | सदोष प्राप्त होगा । अतः आत्माके 'मै ज्ञानवान हूं' यह प्रकृत प्रत्यय किससे होवे ? अर्थात् किसी प्रकारसे भी आत्मा 'मै ज्ञान वान हूं' ऐसी प्रतीति नहीं कर सकता है । सो इस पूर्वोक्त प्रकारसे आत्माके जडरूपपना प्राप्त नहीं होता है अर्थात् आत्मा जड़ सिद्ध नही होता है । और आत्माके जडरूपताकी प्राप्ति नहीं होनेपर 'ज्ञान उपाधिजनित होनेके कारण आत्मासे भिन्न है' यह जो| तुम वैशेषिकोंका कहना है; सो वचनमात्र है अर्थात् व्यर्थ है। १ जडस्वरूपताया अप्राप्ती. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जे. स्थाद्वादमं. ॥५४॥ तथा यदपि न संविदानन्दमयी च मुक्तिरिति व्यवस्थापनायामनुमानमवादि सन्तानत्वादिति। तत्राभिधीयते । ननु किमिदं सन्तानत्वं स्वतन्त्रमपरापरपदार्थोत्पत्तिमात्रं वा, एकाश्रयाऽपरापरोत्पत्तिर्वा । तत्राद्यः पक्षः सव्यभिचारः। अपरापरेषामुत्पादुकानां घटपटकटादीनां सन्तानत्वेऽप्यत्यन्तमनुच्छिद्यमानत्वात् । अथ द्वितीयः पक्षस्तहि तादृशं सन्तानत्वं प्रदीपे नास्तीति साधनविकलो दृष्टान्तः। परमाणुपाकजरूपादिभिश्च व्यभिचारी हेतुः। तथाविधसन्तानत्वस्य तत्र सद्भावेऽप्यत्यन्तोच्छेदाभावात्। अपि च सन्तानत्वमपि भविष्यति अत्यन्तानुच्छेदश्च भविष्यति।विपर्यये वाधकप्रमाणाऽभावात्। इति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादप्यनैकान्तिकोऽयम् । किञ्च स्थाद्वादवा दिनां नास्ति क्वचिदत्यन्तमुच्छेदो द्रव्यरूपतया स्थाष्णूनामेव सतां भावानामुत्पादव्यययुक्तत्वात् । इति विरुद्धश्च । IN|| इति नाधिकृतानुमानाबुद्ध्यादिगुणोच्छेदरूपा सिद्धिः सिध्यति । | और जो तुमने ' ज्ञान तथा सुखखरूप मोक्ष नहीं है। इस विषयको सिद्धकरनेके लिये सतानपनेसे अर्थात् ' आत्माके ज्ञान सुख आदि नवों विशेषगुणोंका संतान अत्यंत नाशको प्राप्त होता है, सतानपना होनेसे' ऐसा अनुमान कहा है। उसमें हम यह कथन करते है कि, वह संतानत्व क्या है ? अर्थात् खतत्र अपर अपर ( भिन्न २) पदार्थोंकी उत्पत्तिरूप ही संतानत्व है ? अथवा एक आश्रय ( अधिकरण ) में अपर अपर पदार्थों की उत्पत्तिरूप संतानत्व है। यदि कहो कि,- खतंत्ररूपसे जो भिन्न २ पदार्थों की उत्पत्ति है; वही संतानत्व है, तब तो यह तुम्हारा विकल्प व्यभिचार सहित है अर्थात् आत्माको ज्ञान-सुखरहित || सिद्ध करनेके अर्थ जो तुमने संतानत्व हेतु दिया है, वह व्यभिचारी है। क्योंकि उत्पन्न होनेवाले जो अपर अपर घट पट कट (चटाई ) आदि है, इनके संतानपना होनेपर भी अत्यंत नाशवानपना नहीं है। भावार्थ-वैशेपिकमतमें घट आदि सतानोंका निरन्वय नाश नहीं होता है अर्थात् नष्ट हुए घट आदि पदार्थोंका परमाणुपर्यन्त समवायी रहता है। इस कारण घट आदिक सतान है तो भी उनका सर्वथा नाश नहीं होता है। अत. प्रकृत अनुमानमें जो संतानत्व हेतु है; वह सर्वथा नष्ट होनेवाले ज्ञान सुख आदिमें भी रहता है और सर्वथा नष्ट न होनेवाले घट पटादिमें भी रहता है; इसकारण व्यभिचारी है। यदि कहो कि; एक ही आश्रयमें जो अपर अपर पदार्थोंकी उत्पत्ति है; वह संतानत्व है, तो ऐसा संतानत्व प्रदीपमें नहीं है, इसकारण साधनविकल दृष्टान्त है। भावार्थ-प्रदीपमें जो संतान है; उसका अधिकरण एक नहीं है। क्योंकि पूर्ववन्हिज्वाला ॥५४॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप जो प्रदीप है; वह जिस क्षणमें पूर्व वन्हिज्वाला नष्ट होती है; उसी क्षणमें नष्ट हो जाता है । इस कारण उक्त अनुमानमें जो तुमने प्रदीपका दृष्टान्त दिया है; वह साधनविकल ( साधनसे शून्य ) है । और परमाणुमें जो पाकजरूप आदि है, उनसे यह हेतु व्यभिचारी भी है। क्योंकि; उन रूप रस आदिमें परमाणुरूप एक आश्रयमें होनेवाले अपर अपर रूप रस आदि संतान है; तो भी INउनका अत्यंत नाश नहीं होता है। भावार्थ-वैशेषिकमतमें पृथिवीके परमाणु पाक होता है, और जव घट रूप अवयवीका | अग्निके सयोगसे नाश हो जाता है तब खतन्त्र ( अवयवी रहित ) जो परमाणुरूप अवयव है; उनमें पाक होता है और फिर पके हुए परमाणुओंके संयोगसे अदृष्टके बलसे पुनः घट हो जाता है, ऐसी व्यवस्था है । अतः घटको अग्निमें धरनेसे जब उस घटका परमाणुपर्यन्त विभाग होता है, तब उन परमाणुओंमें जो पूर्व घटके रूप, रस आदि संतान है, वे बदलकर दूसरे रूप रस | आदि रूपसे उत्पन्न होते है इसकारण यद्यपि पूर्व तथा अपर रूप रस आदिका संतानत्व परमाणुरूप एक आश्रयमें रहता है; तौ || भी उन रूपादिक संतानोंका सर्वथा नाश नहीं है । इस कारणसे भी संतानत्वरूप हेतु व्यभिचारी है । और संतानत्व भी होगा, अत्यंत नाश भी न होगा, इस विपरीततर्कमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है । अर्थात् घट आदि पदार्थ संतान भी है और उनका सर्वथा नाश भी नही है, ऐसा यदि विपरीत तर्क किया जावे तो इस तर्कका बाधक कोई दूसरा प्रमाण नहीं है; इसकारण यह संतानत्व हेतु संदिग्ध है विपक्षसे व्यावृत्ति जिसकी ऐसा होनेके कारण अनेकान्तिक भी है । भावार्थ-वैशेषिकोंके प्रवृत्त | अनुमानमें सर्वथा उच्छेद्यत्वरूप साध्यका अभावखरूप जो अनुच्छेद्यत्व है, उस अनुच्छेद्यत्वके धारक घटादि सतान हो सकते है। इस कारण विपक्षरूप घटादिमें सर्वथा उच्छेद्यत्वकी रहिततामें संदेह होनेसे यह संतानत्व हेतु अनेकान्तिक भी है। WI नापि “ न हि वै सशरीरस्य ” इत्यादेरागमात् । स हि शुभाशुभादृष्टपरिपाकजन्ये सांसारिकप्रियाप्रिये परस्प-|| मरानुषक्ते अपेक्ष्य व्यवस्थितः । मुक्तिदशायां तु सकलादृष्टक्षयहेतुकमैकान्तिकमात्यन्तिकं च केवलं प्रियमेव । तत्कथं प्रतिषिध्यते । आगमस्य चायमर्थः । सशरीरस्य गतिचतुष्टयान्यतमस्थानवर्तिन आत्मनः प्रियाप्रिययोः परस्परानुषक्तयोः सुखदुःखयोरपहतिरभावो नास्तीति । अवश्यं हि तत्र सुखदुःखाभ्यां भाव्यम् । (परस्परानुषक्त त्वं च समासकरणादभ्यूह्यते)। अशरीरं मुक्तात्मानं (वा शब्दस्यैवकारार्थत्वात् ) अशरीरमेव वसन्तं सिद्धिक्षेमात्रमध्यासीनं प्रियाप्रिये परस्परानुषक्ते सुखदुःखे न स्पृशतः। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ५५ ॥ और ' नहि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति ' इत्यादि आगमका प्रमाण जो तुमने दिया है; उससे भी मुक्त अवस्थामें आत्मा सुखदुःख रहित नही सिद्ध होता है । क्योंकि; वह आगम शुभअदृष्ट (पुण्य) तथा अशुभअदृष्ट ( पाप ); इन दोनोंके उदयसे उत्पन्न हुआ और परस्परानुषक्त (आपसमें एकके पीछे दूसरा लगा हुआ) ऐसा जो संसारसंबंधी सुख तथा दुःख है; उसकी अपेक्षाकरके व्यवस्थित है । और मुक्त अवस्थामें तो समस्त - पुण्य पापके नाशसे उत्पन्न हुआ ऐसा केवल एकान्तिक ( सर्वथा ) तथा आत्यतिक ( फिर नाशको प्राप्त न होनेवाला) सुख ही है । अत: वह आगम उस सुखका निषेध कैसे कर सकता है | तथा आगमका अर्थ यह है कि; सशरीर अर्थात् नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव नामक चार गतियोंमेंसे किसी भी एक गतिमें रहनेवाले आत्माके प्रिय अप्रियका अर्थात् परस्परानुषक्त जो सुख तथा दुःख है; उन दोनोंका अपहति (अभाव) नास्ति ( नही है ) इस कारण उन चारों गतियोंमेंसे किसी भी गतिमें रहनेवाले जीवके नियमसे सुख और दुःख ये दोनों होने चाहिये । [' प्रियाप्रिय ' यहां पर जो द्वंद्वसमास किया गया है; उससे सुख तथा दुःखके परस्परानुषक्तताका ग्रहण होता है ] और 'वसन्त' मुक्ति के स्थान में विराजमान 'अशरीरं' मुक्त आत्माको 'वा' ही 'प्रियाप्रिये' परस्परानुषक्त सुख तथा दुःख, ये दोनों ' न स्पृशतः ' नहीं स्पर्श करते हैं ( यहां वा शब्द एवकारके अर्थ में है । ) इदमत्र हृदयम् । यथा किल संसारिणः सुखदुःखे परस्परानुपक्ते स्यातां न तथा मुक्तात्मनः । किंतु केवलं सुखमेव । दुःखमूलस्य शरीरस्यैवाऽभावात् । सुखं त्वात्मस्वरूपत्वादवस्थितमेव । स्वस्वरूपावस्थानं हि मोक्षः । अत एवचाऽशरीरमित्युक्तम् । आगमार्थश्चायमित्थमेव समर्थनीयः । यत एतदर्थानुपातिन्येव स्मृतिरपि दृश्यते । सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयाद् - दुष्प्रापमकृतात्मभिः । १ । ” न चायं सुखशब्दो दुःखाभावमात्रे वर्तते । मुख्यसुखवाच्यतायां वाधकाभावात् । अयं रोगाद्विप्रमुक्तः सुखी जात |इत्यादिवाक्येषु च सुखीतिप्रयोगस्य पौनरुक्त्यप्रसङ्गाच्च दुःखाभावमात्रस्य रोगाद्विप्रमुक्त इतीयतैवगतत्वात् । (c भावार्थ यहां पर यह है कि, जैसे- संसारी जीवके परस्परानुषक्त सुखदुःख होते है अर्थात् जैसे संसारमें जीवके सुखके पीछे दुःख और दुःखके पीछे सुख होता है, वैसे परस्परानुषक्त सुख, दुःख मुक्त आत्माके नहीं होते है, किन्तु मुक्त जीवके केवल सुख ही होता है । क्योंकि; दुःखका मूल ( असाधारण कारण ) जो शरीर है, उस शरीरका ही उस मुक्त जीवके अभाव है । ॥ ५५ ॥ रा. जै.शा. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और सुख तो आत्माका स्वरूप होनेसे मुक्त जीवके है ही है । क्योंकि, अपने स्वरूपमें जो स्थित होना है; वही मोक्ष कहलाता है; भावार्थ-सुख आत्माका खरूप है । और खरूपमें स्थित होना ही मोक्ष है, अतः मुक्तजीवके सुख है ही । तथा इसी लाकारण 'अशरीरं वा' इत्यादि आगममें अशरीर ऐसा कहा है । और इस आगमके अर्थका इसी प्रकार तुमको समर्थन करना चाहिये अर्थात् हमने जैसा आगमका अर्थ किया है; वैसा ही तुमको करना चाहिये । क्योंकि उस आगमके अर्थका अनुसरण करनेवाली स्मृति भी देखी जाती है । वह यह है कि; ' जहां बुद्धिसे ग्रहण करने योग्य और इंद्रियोंके अगोचर ऐसा आत्यंतिक सुख है; उसीको पापी जीवोंको दुर्लभ ( दुःखसे प्राप्त होने वाला ) मोक्ष जानना चाहिये । १।” और यहां पर यह सुख शब्द केवल IN दुःखके अभावमें ही नहीं है । अर्थात् यदि तुम कहो कि; यहां सुखशब्दसे दुःखके अभावरूप अर्थका ही ग्रहण है, सो नहीं है। क्योंकि प्रथम तो सुख शब्दका मुख्य सुखरूप अर्थके करनेमें कोई बाधक नहीं है; दूसरे यदि सुखसे दुःखका अभाव ही माना IN|जावे तो ' यह रोगसे रहित होकर सुखी हो गया' इत्यादि वचनोंमें पुनरुक्तिदोषका प्रसंग होता है । भावार्थ-यदि दुःखके | अभावको ही सुख मानों तो ' यह रोगसे रहित हो गया ' इस कहनेसे ही यह सुखी होगया ऐसा समझ लिया जावेगा अतः | - यह रोगसे रहित होकर सुखी हो गया ' ऐसा कथन करनेमें पुनरुक्तिदोष होगा और वह तुमको इष्ट नहीं है। KI न च भवदुदीरितो मोक्षः पुंसामुपादेयतया संमतः । को हि नाम शिलाकल्पमपगतसकलसुखसंवेदनमात्मानमु पपादयितुं यतेत । दुःखसंवेदनरूपत्वादस्य। सुखदुःखयोरेकस्याभावे परस्यावश्यम्भावात् । अत एव त्वदुपहासः श्रूयते । “ वरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्टुत्वमभिवाञ्छितम् । न तु वैशेषिकी मुक्तिं गौतमो गन्तुमिच्छति । १।" सोपाधिकसावधिकपरिमितानन्दनिष्यन्दात्स्वर्गादप्यधिकं तद्विपरीतानन्दमम्लानज्ञानं च मोक्षमाचक्षते विचक्षणाः। यदि तु जडः पाषाणनिर्विशेष एव तस्यामवस्थायामात्मा भवेत्तदलमपवर्गेण । संसार एव वरमस्तु । यत्र तावदन्तरान्तरापि दुःखकलुषितमपि कियदपि सुखमनुभुज्यते । चिन्त्यतां तावत्किमल्पसुखानुभवो भव्य उत सर्वसुखोच्छेद एव। । और तुम्हारे कहे हुए मोक्षको मनुष्य उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) रूप नही मानते है । क्योंकि; ऐसा कौन पुरुष है जो का शिलाके समान सब सुखोंके ज्ञानसे रहित ऐसे आत्माको बनानेके लिये प्रयत्न करै, भावार्थ-जैसे शिला ( एक पाषाणभेद ) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमा सुखके अनुभवसे रहित है; अनभवसे रहित है उसी प्रकार तयारे मोक्षमें भी जीव मयो ज्ञान रहित हो जाता है। दिन चाहनेवाला कोईराला का भी पुरुष अपने आत्माको मुख रहित बनाना नहीं चाहता है। क्योंकिः-सुख और दस इन दोनों ने एकका अभाव होनेपर दूसरेका अवश्य सद्भाव रहता है। अतः यह तुम्हारा मोक्ष दुलके अनुभव रूप है। भावार्थ-जहां सुन नहीं रहता है। यहां दुःल। और जहाँ दुःख नहीं रहता है; वहां मुख नियमसे रहता है और तुम्हारे मोक्ष सुनका अनुभव होता नहीं है। अतः यह तुम्हाग. मोक्ष दु खके अनुभव रूप (दुखरूप ) है । और इसी कारण तुन्दाग उपहास भी सुना जाता है । वह यह है-"न्यायदानके कर्त्ता गोतममुनि मनोहर वृंदावनम शृंगाल (गीदड ) होनेकी इन्छाके कग्नेको नो अच्छा मममने है । पग्नु वैगेषिकों की। मुक्तिमें जानेकी इच्छा नहीं करते हैं । भावार्थ-गोतम ऋगी वैशेषिकों के ज्ञान-सुन रहित मोक्षमें जानेमे दायनमें शृगाल हो। जाना अच्छा समझते हैं । और उपाधिसहित, मर्यादाके धारक ( इन देवको यहां इतने समय ही मुन मिलेगा इनमे अधिक नहीं । ऐसी हद्दवाले ) तथा परिमित (इमको यहा इम इन प्रकारका इतना ही सुन मिलेगा. इससे अधिक नहीं. इस प्रकारके परिमाण अर्थात् अदाज वाले ) आनंदको देनेवाला जो स्वर्ग है; उमगे भी अधिक उपाधिरित. मर्यादारहित और अपरिमाण सुलको पारण करनेवाला तथा नहीं मलीन हुआ है; ज्ञान जिममें ऐना अर्थात् परिपूर्ण निर्गल जाननहित ऐना मोक्ष कहते हैं। और यदि आत्मा पापाणके समान जटरूप ही उस मोक्षअवसाम हो तो ऐसे मोक्षने पूर्णता हो अर्थात् उम मोक्षमे पूरा पढो । ससार ही अच्छा रहो कि, जिसमें दु खसे कलुपित ऐसा भी कुछ २ सुन चीन २ में भोगा जाना है । भावार्थ-युमके प्रभावरूप मोक्षसे ससार ही अच्छा हैजिनमें कभी कभी थोड़ा २ सुग भोगनेमें आता है । तुम (वैगेपिक)ही विनार करो फि. क्या शाअल्प मुखका अनुभव करना अच्छा है ' या सब मुसका नाश हो जाना ही अच्छा है। ___ अथास्ति तथाभूते मोक्षे लाभातिरेकः प्रेक्षादक्षाणाम् । ते येवं विवेचयन्ति । मंमारे तावदुःखास्पृष्टं सुखं न।। सम्भवति । दुःखं चावश्यहेयम् । विवेकहानं चानयोरेफभाजनपतितविषमधुनोरिव दुःशकमत एव द्वे अपि त्यज्येकाते । अतश्च संसारान्मोक्षः श्रेयान् । यतोऽत्र दुःखं सर्वथा न स्याद् । वरमियती कादाचित्कमुखमात्रापि त्यक्ता ॥५६॥ न तु तस्याः कृते दुःखभार इयान् व्यूढ इति । १ विकेन यापन पम्प न्याग.। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __शंका-हमारे ज्ञान सुखरहित मोक्षमें हेयोपादेयके विचारमें चतुर पुरुषोंको संसारकी अपेक्षा विशेष लाभ है। भावार्थ|| अब वैशेषिक ऐसा कहते है कि, संसारमें जो सुख होता है; वह दुःखसे अस्पर्शित नहीं होता है. अर्थात् संसारसंबंधी सुखकी ||.G ला आदिमें भी दःख होता है और अंतमें भी दुःख होता है। और दुःख अवश्य छोड़ने योग्य है । तथा जैसे एक पात्रमें गिरे हए मध (सहत ) तथा विष (जहर) इन दोनोंमेंसे विषको निकालकर उसका त्याग कर देना अत्यंत कठिन है। उसी प्रकार इन सांसारिक MOI सुखदखोंमेंसे दु.खको जुदा करके उस दुःखका त्याग कर देना भी बहुत ही कठिन है । इस कारण संसार संबंधी सुख तथा दुःख | ये दोनों ही छोड़े जाते है । अतः संसारसे मोक्ष ही अच्छा है कि; जिसमें सर्वथा दुःख होता ही नहीं है। क्योंकि यह कभी कभी II होनेवाले सुखका अंश भी यदि छोड़ दिया जावे तो अच्छा है, परंतु उस थोड़ेसे सुखके अर्थ इतने दुःखोंके समूहका सहन करना ( भोगना ) अच्छा नहीं है। | तदेतत्सत्यम् । सांसारिकसुखस्य मधुदिग्धधाराकरालमण्डलायग्रासवदुःखरूपत्वादेव युक्तैव मुमुक्षणां तन्जिहासा। किन्त्वात्यन्तिकसुखविशेषलिप्सूनामेव । इहापि विषयनिवृत्तिजं सुखमनुभवसिद्धमेव । तद्यदि मोक्षे विशिष्टं नास्ति ततो मोक्षो दुःखरूप एवापद्यत इत्यर्थः । ये अपि विषमधुनी एकल सम्पृक्ते त्यज्यते ते अपि सुखविशेषलालिप्सयैव। किञ्च यथा प्राणिनां संसारावस्थायां सुखमिष्टं, दुःखं चानिष्टम् । तथा मोक्षावस्थायां दुःखनिवृत्तिरिष्टा, त्तिस्त्वनिष्टदैव । ततो यदि त्वदभिमतो मोक्षः स्यात्तदा न प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः स्यात् । भवति चेयम् । ततः सिद्धो मोक्षः सुखसंवेदनस्वभावः । प्रेक्षावत्प्रवृत्तेरन्यथानुपपत्तेः। A समाधान—यह वैशेषिकोंका कहना सत्य है । क्योंकि संसारसंबंधी जो सुख है; वह सहतसे लिपटी हुई तथा तीक्ष्ण धार-IN || वाली ऐसी जो तलवारकी नोंक ( अणी) है; उसको भक्षणकरने (चाटने) के समान है अर्थात् जैसे सहतसे लिपटी हुई तलवारकी नोंकको चाटनेसे प्रथम ही कुछ सुख और अंतमें अत्यंत दुःख होता है; उसीप्रकार संसारका सुख भी पहिले कुछ सुखरूप और || || अंतमें महादुःखरूप ही है। इस कारण मोक्षके इच्छक पुरुष जो उस सुखको छोड़नेकी इच्छा करते है; वह युक्त ( ठीक ) ही है। परंतु जो एक प्रकारके आत्यंतिक सुखको चाहनेवाले मुमुक्षुजन है; उन्हींको सांसारिक सुखका त्याग करना चाहिये । अर्थात् यदि MA मोक्षमें आत्यन्तिक सुख होवे तब तो मोक्षाभिलाषियोंको सांसारिकसुखके त्यागदेनेकी इच्छाका करना उचित ही है और मोक्ष Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥५७॥ में आत्यतिक सुख न होवे तो संसारसंबंधी सुखको त्याग देना ठीक नहीं है। और विषयोंकी रहिततासे उत्पन्न होनेवाला सुख है यहां भी अनुभव सिद्ध है अर्थात् इस संसारमें भी जो जो वैराग्यका अवलम्बन करके विषयोंका त्याग करते है, उनको एक प्रकारका विलक्षण सुख अनुभव गोचर होता है; इस कारण यदि मोक्षमें सांसारिक सुखसे विशिष्ट ( ऊचे दर्जेका) सुख नहीं है तो, वह तुम्हारा मोक्ष दुःखरूप ही हो जावेगा। तथा जो एक भाजनमें मिले हुए जहर और सहतका त्याग किया जाता है, वह से भी विशेष सुखकी इच्छासे ही किया जाता है अर्थात् उस मिले हुए विषमधुका भक्षण करनेकी अपेक्षा भक्षण न करनेमें सुख - अधिक है; इसीकारण उन दोनोंका त्याग किया जाता है। यदि उनके त्यागमें विशेप सुख न हो तो त्याग कदापि न करें। और भी विशेष यह है कि, जैसे जीवोंके संसारअवस्थामें सुख तो इष्ट है और दुःख अनिष्ट है, उसी प्रकार जीवोंके मोक्षअवस्थामें भी दुःखकी रहितता इष्ट है और सुखकी रहितता अनिष्ट ही है, अर्थात् जीव मोक्षमें भी दुःखसे छूटनेकी तथा सुखको भोगनेकी ही इच्छा करते है । इसकारण यदि तुम वैशेषिकोंका माना हुआ ज्ञान-सुख रहित ही मोक्ष होवे तो उस ज्ञान सुख रहित मोक्षमें | प्रेक्षावानोंकी प्रवृत्ति न होवे अर्थात् विचारवान पुरुष उस मोक्षकी प्राप्तिके लिये प्रयल न करें। परंतु विचारवानोंकी मोक्षके अर्थ प्रवृत्ति होती है अतः मोक्ष 'ज्ञान तथा सुखरूप स्वभावका धारक है' यह सिद्ध हो गया। क्योंकि यदि ज्ञान-सुखरूप मोक्ष न ANVI होवे तो अन्यप्रकारसे मोक्षमें विचारवानोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। ___ अथ यदि सुखसंवेदनैकस्वभावो मोक्षः स्यात्तदा तद्रागेण प्रवर्त्तमानो मुमुक्षुर्न मोक्षमधिगच्छेत् । नहि रागिणां | मोक्षोऽस्ति । रागस्य वन्धनात्मकत्वात् । नैवम् । सांसारिकसुख एव रागो वन्धनात्मको विपयादिप्रवृत्तिहेतुत्वात् । मोक्षसुखे तु रागस्तन्निवृत्तिहेतुत्वान्न बन्धनात्मकः। परां कोटिमारूढस्य च स्पृहामात्ररूपोऽप्यसौ निवर्तते । “मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः” इति वचनात् । अन्यथा भवत्पक्षेऽपि दुःखनिवृत्त्यात्मकमोक्षाङ्गीकृतौ दुःखविषयं कषायकालुष्यं केन निषिध्येत । इति सिद्धं कृस्नकर्मक्षयात्परमसुखसंवेदनात्मको मोक्षो न वुद्ध्यादिविशेषगुणोच्छेदरूप इति । ॐ शंका-यदि ज्ञान तथा सुखरूप ही मोक्ष होवे तो उस ज्ञानसुखरूप मोक्षके रागसे प्रवृत्ति करता हुआ मुमुक्षुपुरुष मोक्षकोही प्राप्त न होवे । क्योंकि राग बंधनरूप है; इसकारण रागियोंका मोक्ष नही होता है । समाधान-ऐसा न कहना चाहिये। क्योंकि; Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारसुखमें जो रागका करना है वही बंधन रूप है । कारण कि; वह सांसारिकसुखमें रागका करना विषयादिकों में प्रवृत्तिका कारण है | अर्थात् सांसारिक सुखमें राग होनेसे जीवकी विषय आदिमें प्रवृत्ति होती है और मोक्षसुखमें जो अनुराग है; वह विषय आदिमें निवृत्तिका कारण है अर्थात् मोक्षसुखमें रागके होनेसे जीवके विषयोंसे रहितता होती है; इस कारण वह मोक्ष सुखमें रागका करना बंधन - रूप नहीं है । तथा उत्कृष्ट कोटि ( कक्षा व श्रेणी) में चढे हुए जीवके तो केवल इच्छारूप राग भी दूर हो जाता है अर्थात् ऊंचे दर्जेको प्राप्त हुए आत्माके तो उस मोक्षसुखमें भी इच्छा नहीं रहती है। क्योंकि; 'जो उत्तम मुनि होता है; वह मोक्ष और संसारमें अर्थात् सभीमें इच्छा रहित रहता है' ऐसा वचन है । यदि ऐसा न होवे तो दुःखकी रहिततारूप मोक्षको स्वीकार करनेवाले | तुम्हारे पक्ष में भी दुःखके विषयमें जो कषायरूप कालुष्य उत्पन्न होता है; उसका कौन निषेध कर सकता है । भावार्थ — जैसे सुखरूप मोक्ष मानने से मोक्षसुखमें राग होता है, उसी प्रकार दुःखरहित मोक्षके माननेसे दुःखमें द्वेष तथा मोक्षमें राग उत्पन्न होता है; और राग तथा द्वेष ये दोनोंही बंधनरूप है. इस कारण पराकाष्ठाको प्राप्त हुए योगीके इच्छाका अभाव हो जाता है, यह तुमको भी मानना पड़ेगा । इस पूर्वोक्त प्रकारसे संपूर्ण कर्मोंका नाश होनेसे जो परमसुख और परमज्ञानस्वरूप मोक्ष होता है; वही यथार्थ मोक्ष है और तुम्हारा माना हुआ जो बुद्धि आदि नव विशेषगुणोंका नाश है; उस स्वरूप मोक्ष नहीं है । अपि च भोस्तपस्विन् ! कथंचिदेषामुच्छेदोऽस्माकमप्यभिमत एवेति मा विरूपं मनः कृथाः । तथाहि । बुद्धिशब्देन ज्ञानमुच्यते । तच्च मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलभेदात्पञ्चधा । तत्राद्यं ज्ञानचतुष्टयं क्षायोपशमिकत्वा-| केवलज्ञानाविर्भावकाल एव प्रलीनम् । “ नहं मिउ छाउमच्छिए नाणे ” इत्यागमात् । केवलं तु सर्वद्रव्यपर्यायगतं | क्षायिकत्वेन निष्कलङ्कात्मस्वरूपत्वादस्त्येव मोक्षावस्थायाम् । सुखं तु वैषयिकं तत्र नास्ति । तद्धेतोर्वेदनीयकर्मणोऽ भावात् । यत्तु निरतिशयमक्षयमनपेक्षमनन्तं च सुखं तद्वाढं विद्यते । दुःखस्य चाधर्ममूलत्वात्तदुच्छेदादुच्छेदः । और हे तपखिजनो ? किसी अपेक्षासे हमको भी इन बुद्धि आदि गुणोंका नाश अभीष्ट ही है अर्थात् हम भी कथंचित् बुद्धिआदिका नाश मानते ही हैं; इस कारण मनको विरूप ( उदास अथवा मलीन ) मत करो । सोही दिखाते है; बुद्धि शब्दसे | ज्ञान कहा जाता है अर्थात् हमारे मतमें बुद्धिसे ज्ञानका ग्रहण है और वह ज्ञान -मति १, श्रुत २, अवधि ३, मनः पर्यय ४ | और केवल ५; इन भेदोंसे पांच प्रकारका है। उनमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, और मन:पर्ययज्ञान ये चारों क्षायोपशमिक हैं Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. 1146 11 अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्मके एकदेशक्षय और उपशमसे उत्पन्न होते हैं; इसकारण जब आत्माके केवलज्ञानकी प्रकटता होती है उसी समय नष्ट हो जाते है । क्योंकि ' क्षायोपशमिक ज्ञानोंके नष्ट होनेपर' ऐसा वचन है । और सब द्रव्य तथा पर्यायोंमें प्राप्त अर्थात् समस्त द्रव्य और पर्यायोंको विषय करनेवाला ( जाननेवाला ) जो केवल ज्ञान है; वह तो ज्ञानावरणीय कर्मके सर्वथा क्षय (नाश ) होनेसे उत्पन्न होता है, इसकारण आत्माका निर्मलस्वरूप होनेसे मोक्ष अवस्थामें है ही है । और विषयोंसे उत्पन्न होनेवाला सुख तो उस मोक्ष अवस्था नही है । क्योंकि उस विषयोंसे उत्पन्न होनेवाले सुखका कारण जो वेदनीय नामा कर्म है; उसका मोक्ष अवस्थामें अभाव है। और जो निरतिशय, अविनाशी तथा स्वतंत्र ( किसी दूसरेकी अपेक्षा न करनेवाला) और जिसका कभी अंत (पार) न आवे ऐसा सुख तो उस मोक्षअवस्थामें पूर्णरूपसे विद्यमान है । दुःखका कारण अधर्म (पाप ) है; उस अधर्मका मोक्ष अवस्थामें अभाव हो गया है; इसकारण दुःखका भी मोक्ष अवस्थामें नाश है । नन्वेवं सुखस्यापि धर्ममूलत्वाद्धर्मस्य चोच्छेदात्तदपि न युज्यते । “ पुण्यपापक्षयो मोक्षः " इत्यागमवचनात् । नैवम् । वैषयिकसुखस्यैव धर्ममूलत्वाद्भवतु तदुच्छेदो न पुनरनपेक्षस्यापि सुखस्योच्छेदः । इच्छाद्वेषयोः पुनर्मोहभेदत्वात्तस्य च समूलकापं कपितत्वादभावः । प्रयत्नश्च क्रियाव्यापारगोचरो नास्त्येव । कृतकृत्यत्वात् । वीर्यान्तरायक्षयोपनतस्त्वस्त्येव प्रयत्नो दानादिलब्धिवत् । न च क्वचिदुपयुज्यते कृतार्थत्वात् । धर्माधर्मयोस्तु पुण्यपापापरपर्याययोरुच्छेदोऽस्त्येव । तदभावे मोक्षस्यैवायोगात् । संस्कारश्च मतिज्ञानविशेष एव । तस्य च मोहक्षयानन्तरमेव क्षीणत्वादभाव इति । तदेवं न संविदानन्दमयी च मुक्तिरिति युक्तिरिक्तेयमुक्तिः । इति काव्यार्थः ॥ ८ ॥ शंका --- जैसे अधर्ममूलक दुःखका अधर्मके नष्ट होनेसे नाश हो जाता है; उसीप्रकार सुखका भी मूल धर्म है और मुक्तात्माके धर्मका उच्छेद होगया है. अतः मुक्तात्माके सुख भी नही रहता है। क्योंकि; 'पुण्य तथा पापका जो नाश है; वही मोक्ष है' ऐसा आगमका वचन है । समाधान - यह कहना ठीक नही है । क्योंकि विषयजनित सुख ही धर्ममूलक है; इसकारण धर्मका नाश होनेसे मुक्तात्माके उस विषयजनितसुखका ही नाश होता है और उस धर्मकी अपेक्षा न करनेवाला जो स्वाभाविक सुख है; उसका मुक्तात्माके नाश नही होता है। तथा इच्छा और द्वेष ये दोनों मोहके भेद है; उस मोहको मुक्तजीवने मूलसहित उखाड़ ( नष्ट कर ) डाला अतः मोक्षअवस्थामें जीवके इच्छा तथा द्वेषका अभाव है । और क्रियाके व्यापारके गोचर जो प्रयत्न है; 114611 रा.जै. शा. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह तो मुक्तिमें है ही नहीं। क्योंकि; मुक्तात्मा कृतकृत्य है अर्थात् मुक्तजीवको कोई कार्य करना बाकी नहीं रहा है, जो कुछ करना था; उसको वह कर चुका है । और वीर्यान्तरायकर्मके क्षयसे उत्पन्न हुआ जो प्रयत्न है; वह तो मुक्तिमें है ही है। दान आदि लब्धिके समान। भावार्थ-जैसे-मुक्तजीवके दानान्तरायकर्मके क्षयसे दानलब्धि, भोगान्तरायकर्मके क्षयसे भोगलब्धि आदि लब्धियें उत्पन्न हुई हैं. उसी प्रकार वीर्यान्तरायकर्मके नाशसे उत्पन्न जो वीर्यलब्धिरूप प्रयत्न है; वह भी मुक्तात्माके है ही। परंतु मुक्तात्मा कृतार्थ है; इस कारण वह प्रयत्न उसको कहीं उपयोग ( काम ) में नहीं आता है । तथा पुण्य और पाप है दूसरे । पर्याय जिनके ऐसे जो धर्म और अधर्म है; उनका नाश तो मुक्तात्माके है ही है । क्योंकि उन धर्म अधर्मके नाशके विना जीवको मोक्षकी प्राप्त ही नहीं होती है। और जो संस्कार है, वह मतिज्ञानका ही भेद है और उस संस्कारका आत्माके जव मोहका नाश हुआ उसी समय नाश हो चुका है; अतः मुक्तात्माके संस्कार भी नहीं है । सो इस पूर्वोक्तप्रकारसे ' मोक्ष ज्ञान तथा सुखरूप | नहीं है ' ऐसा जो तुम्हारा कथन है; वह युक्ति रहित है अर्थात् ज्ञान-सुखरहित मोक्षको माननेमें कोई भी युक्ति तुम वैशेषि-| कोंके पास नहीं है । इसप्रकार काव्यका अर्थ है ॥ ८॥ IN अथ ते वादिनः कायप्रमाणत्वमात्मनः स्वयं संवेद्यमानमप्यपलप्य तादृशकुशास्त्रशस्त्रसंपर्कविनष्टदृष्टयस्तस्य विभुत्वं मन्यन्तेऽतस्तलोपालम्भमाह ।| अब उसीप्रकारके कुशास्त्ररूपी शस्त्रके लग जानेसे नष्ट होगये है नेत्र जिनके ऐसे वे वैशिषिक आत्माकी खयं जाननेमें आती लाहुई भी शरीरप्रमाणताको गुप्त करके आत्माको सर्वव्यापक मानते है भावार्थ-यद्यपि आत्मा शरीरप्रमाण है तथापि वैशेषिक उसको सर्वव्यापक मानते है। इस कारण अग्रिम काव्यसे आत्माको सर्वव्यापक माननेमें उपालंभ देते है। यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतत् । तथापि देहाबहिरात्मतत्त्वमतत्त्ववादोपहताः पठन्ति ॥९॥ काव्यभावार्थः-जैसे घटके रूप आदि गुण जहां हैं, वहां ही वह घट भी रहता है, उसी | Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. प्रकार जिस पदार्थके गुण जिस स्थलमें देखे जाते हैं; वह पदार्थ उसी स्थलमें मिलता है। यह राजै.शा. कथन बाधकरहित है । तथापि कुतत्त्ववादसे व्यामोहको प्राप्त हुए वैशेषिक आत्मानामक पदार्थको देहके बाहर भी रहनेवाला कहते हैं ॥ ९॥ यव देशे यः पदार्थो दृष्टगुणो दृष्टाः प्रत्यक्षादिप्रमाणतोऽनुभूता गुणा धर्मा यस्य स तथा स पदार्थस्तत्रैव विवक्षितदेश एवोपपद्यते (इति क्रियाध्याहारो गम्यः) (पूर्वस्यैवकारस्यावधारणाथस्यात्राप्यभिसम्बन्धात्तत्रैव नान्यत्रेत्यन्ययोगव्यवच्छेदः।) अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन द्रढयति । कुम्भादिवदिति घटादिवत् । यथा कुम्भादेयत्रैव देशे रूपादयो गुणा उपलभ्यन्ते तत्रैव तस्यास्तित्वं प्रतीयते नान्यत्र । एवमात्मनोऽपि गुणाश्चैतन्यादयो । देह एव दृश्यन्ते न वहिः । तस्मात्तत्प्रमाण एवायमिति । यद्यपि पुष्पादीनामवस्थानदेशादन्यत्रापि गन्धादिगुण उपलभ्यते तथापि तेन न व्यभिचारः। तदाश्रया हि गन्धादिपुद्गलास्तेषां च वैश्रसिक्या प्रायोगिक्या वा गत्या धू गतिमत्त्वेन तदुपलम्भकघ्राणादिदेशं यावदागमनोपपत्तेरिति । अत एवाह निष्प्रतिपक्षमेतदिति । एतन्निष्प्रतिपक्षं । वाधकरहितम् । न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नामेति न्यायात् । व्याख्यार्थ:-" यत्रैव" जिसी देशमें अर्थात् स्थानमें 'यः' जो पदार्थ 'दृष्टगुणः' देखे हैं अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे अनुभवगोचर किये हैं गुण अर्थात् धर्म जिसके ऐसा है “ सः" वह पदार्थ 'तत्रैव' उसी सानमें “ उपपद्यते" प्राप्त होता है है। भावार्थ-जहां जिसपदार्थके गुण देखनेमें आते हैं; वहां ही वह पदार्थ रहता है। [ यहां पर 'उपपद्यते' इस क्रियाका अध्याहार किया गया है अर्थात् उपपद्यते यह क्रिया ऊपरसे लाई गई है। ऐसा जानना चाहिये । और 'यत्रैव' यहां पर जो निश्चयरूप अर्थको कहनेवाला एवकार है; उसको 'तत्र' इसके आगे भी लगा देनेसे 'वह पदार्थ उसी स्थानमें है अन्य स्थानमें नहीं है। इस प्रकार अन्ययोगव्यवच्छेद होगया है ] अब इसी ऊपर कहे हुए अर्थको दृष्टान्तद्वारा दृढ करते है । " कुम्भा| दिवत्" घट आदिके समान । भावार्थ-जैसे घटआदि पदार्थके रूप आदि गुण जिस स्थानमें देखे जाते हैं, उसी स्थानमें ॥५९॥ उस घटादिपदार्थकी विद्यमानता प्रतीत की जाती है, और उस स्थानसे भिन्न स्थानमें उन घटादिकी विद्यमानता नहीं जानी जाती Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । इसी प्रकारसे आत्मा जो ज्ञान आदि गुण है; वे शरीरमें ही देखे जाते है; शरीरके बाहर नहीं देखे जाते हैं; इसकारण आत्मा शरीरप्रमाण ही है अर्थात् जितना बड़ा उस आत्माका शरीर है; उतना बड़ा ही वह आत्मा है । यद्यपि पुप्प आदिकोंका गंध आदि गुण जहाँपर पुष्पादि विद्यमान है; उस स्थानसे भिन्न दूसरे स्थानमें भी मिलता है; तथापि उस भिन्नस्थानमें गुणोंके | मिलने से यहां पर व्यभिचार नही होता है । क्योंकि उन पुष्पादिमें रहनेवाले गंधआदि गुणोंके पुद्गल स्वभावसे उत्पन्न हुई अथवा प्रयोगसे उत्पन्न हुई गतिसे गमनके धारक है अर्थात् वे गंधादि पुद्गल खभावसे अथवा वायु आदिके प्रयोग ( प्रयत्न ) से गमन करते है; इस कारण पुप्प आदिमें स्थित गंधादिपुद्गलोंका नासिकाइन्द्रिय आदि स्थानों तक आजाना सिद्ध है । इसी कारण आचार्यमहाराज कहते है कि, – “ एतत् " जिसके गुण जहां मिलते है, वह वहां ही रहता है; यह जो हमारा कथन है, वह “ निष्प्रतिपक्षम् " बाघक रहित है । क्योंकि, ' प्रत्यक्षसे देखे हुएमें असिद्धताकी संभावना नही है ' ऐसा न्याय है । भावार्थ- -हमारा उक्त कथन प्रत्यक्षप्रमाणसे सिद्ध है; अत उसका कोई खंडन करनेवाला नहीं है । 1 ननु मन्त्रादीनां भिन्नदेशस्थानामप्याकर्षणोच्चाटनादिको गुणो योजनशतादेः परतोऽपि दृश्यत इत्यस्ति वाधकमिति चेत् । मैवं वोचः । स हि न खलु मन्त्रादीनां गुणः किन्तु तदधिष्ठातृदेवतानाम् । तासां चाकर्पणीयोच्चाट| नीयादिदेशगमने कौतस्कुतोऽयमुपालम्भः । न जातु गुणा गुणिनमतिरिच्य वर्तन्त इति । अथोत्तरार्द्ध व्याख्यायते । तथापीत्यादि । तथाप्येवं निःसपलं व्यवस्थितेऽपि तत्त्वे अतत्त्ववादोपहताः ( अनाचार इत्यत्रेव नञः कुत्सार्थत्वात् ) कुत्सिततत्त्ववादेन तदभिमताप्ताभासपुरुषविशेषप्रणीतेन तत्त्वाभासप्ररूपणेनोपहता व्यामोहिता देहाद्बहिः शरीरव्यतिरिक्तेऽपि देशे आत्मतत्त्वमात्मरूपं पठन्ति । शास्त्ररूपतया प्रणयन्ते । इत्यक्षरार्थः । शंका- भिन्नदेशमें विद्यमान मंत्र आदिका सौ १०० यौजन ( चारसौ ४०० कोश ) आदिसे भी दूर पर्यन्त आकर्षण, उच्चाटन आदिरूप गुण देखा जाता है । यही आपके कथनका बाधक है । भावार्थ- - एक स्थानपर सिद्ध किये हुए मंत्रका गुण; उस स्थानसे सौ योजन से भी अधिक दूरपर रहनेवाले पुरुषका आकर्षण तथा उच्चाटन करता है, इस कारण मंत्रके स्थानसे भिन्न स्थान - में मिलनेवाला जो मंत्रका गुण है; वह आपके उक्त कथनका बाधक है । समाधान - ऐसा मत कहो । क्योंकि वह गुण, उन मंत्र आदिका नहीं है; किन्तु उन मंत्र आदिके अधिष्ठाता ( खामी ) जो देव है, उनका गुण है । और वे देव आकर्षण करने Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादम. नमें करना है; उसी स्थानमें , अतः मंत्रके सिद्ध का है। इस कारण यह ताला प्रसन्न होकर जिस स्थानमें स्थित भावार्थ- राजै.शा कदाचित त हो; वह दोष हमारे कथन में इस कारण मंत्र आदिके गुणोंको योग्य तथा उच्चाटन करनेयोग्य स्थानोंमें स्वयं चले जाते है। इस कारण यह तुम्हारा उपालंभ कहांसे हो सकता है । भावार्थYa आकर्षण आदि गुण देवोंका है, अतः मंत्रके सिद्ध करनेसे उस मंत्रका खामी देव प्रसन्न होकर जिस स्थानमें स्थित पुरुषका आकपूर्षण करना है; उसी स्थानमें चला जाता है। इस कारण मंत्र आदिके गुणोंको भिन्न देशमें मिलते हुए बताकर जो तुम हमारे कथॐ नमें दोष देते हो; वह दोष हमारे कथनमें नहीं होता है । इससे सिद्ध हुआ कि,-जो गुण है, वे गुणी ( पदार्थ) को छोड़कर । o कदाचित् भी नहीं रहते हैं । अब काव्यके तथापीत्यादि उत्तरार्धकी व्याख्या करते है। " तथापि" इस उक्त प्रकारसे बाधकरहित " जैसे हो वैसे तत्त्वको स्थित होनेपर भी अर्थात् हमारा सिद्धान्त विना बाधकके सिद्ध होगया है तो भी “ अतत्त्ववादोपहताः"G निन्दित तत्त्ववादसे अर्थात् उनके अभीष्ट आप्ताभासरूप किसी पुरुषके द्वारा रचे हुए तत्त्वाभासोंके प्ररूपणसे व्यामोहको प्राप्त हुए वैशेषिक [जैसे 'अनाचार' यहांपर कुत्सित अर्थमें नन् समास होता है; उसी प्रकार अतत्त्ववाद यहांपर भी कुत्सित अर्थमें नञ् समास किया गया है । ] “ देहाबहिः" शरीरसे भिन्न स्थानमें भी “आत्मतत्त्वं" आत्मापना " पठन्ति" पढ़ते हैं y अर्थात् शास्त्ररूपतासे कहते हैं । भावार्थ हे भगवन् ? हमारा कथन निर्वाध है तो भी वैशेषिक मतवाले किसी अपने अभीष्ट * आप्ताभाससे रचा हुआ जो अतत्त्ववाद है; उससे भ्रमको प्राप्त होकर आत्मा शरीरसे बाहर भी रहता है। ऐसा शास्त्रकी आज्ञारूप उपदेश देते है। इस प्रकार मूलके अक्षरोंका अर्थ है। To भावार्थस्त्वयम् । आत्मा सर्वगतो न भवति । सर्वत्र तद्गुणानुपलब्धेः। यो यः सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणः स स ॐ सर्वगतो न भवति । यथा घटः। तथा चायं तस्मात्तथा । व्यतिरेके व्योमादि। न चायमसिद्धो हेतुः। कायव्यतिरि रिक्तदेशे तद्गुणानां बुद्ध्यादीनां वादिना प्रतिवादिना वाऽनभ्युपगमात् । तथा च भदः श्रीधरः “ सर्वगतत्वे ॐ प्यात्मनो देहप्रदेशे ज्ञातृत्वम् । नान्यत्र । शरीरस्योपभोगायतनत्वात् । अन्यथा तस्य वैयादिति”। र भावार्थ तो यह है कि, आत्मा सर्वव्यापी नहीं है। क्योंकि, सर्व स्थानोंमें आत्माके गुणोंकी प्राप्ति नहीं होती है । जिस जिस पदार्थके गुण सब स्थानोंमें नहीं मिलते हैं; वह वह पदार्थ सर्वव्यापी नहीं होता है। जैसे कि;घटके गुण सर्वत्र न मिलनेसे घट सर्वव्यापी नहीं है । उस घटके समान ही यह आत्मा है। इस कारण आत्मा सर्वव्यापी नहीं है । व्यतिरेकदृष्टान्तमें आकाश 7 आदि हैं अर्थात् आकाश आदिके गुण सब स्थानों में प्राप्त होते है, अतः आकाश आदि पदार्थ सर्वव्यापी भी है । और हमने जोक ६०॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहांपर यह आत्माके गुणोंकी प्राप्ति न होनेरूप हेतु दिया है; सो असिद्ध नहीं है । क्योंकि; वादी (वैशेषिक ) तथा प्रतिवादी (जैनी) इन दोनोंने ही आत्माके बुद्धि आदि गुणोंको शरीरसे भिन्न स्थानमें नही माने है। सो ही श्रीधरभट्ट कहता है कि:'यद्यपि आत्मा सर्वव्यापी है। तथापि उस आत्माके ज्ञाता ( जाननेवाला) पना अपने शरीरके प्रदेशोंम ही है। दूसरे स्थानोंमें नहीं है। क्योंकि शरीर जो है सो उपभोगका स्थान है । यदि शरीर उपभोगका स्थान न हो तो शरीर व्यर्थ हो जावे ।। भावार्थ-आत्माको जो शरीर मिला है, वह उपभोगके अर्थ है, इसकारण आत्मा शरीरमें रहकर ही पदार्थोंको जानता है । इस कथनसे श्रीधरभट्टने प्रकट किया है कि; आत्माके बुद्धि आदि गुण शरीरसे बाहर नहीं रहते है, इस कारण हमने जो हेतु दिया है, वह असिद्ध नहीं है। अथास्त्यदृष्टमात्मनो विशेषगुणस्तच्च सर्वोत्पत्तिमतां निमित्तं सर्वव्यापकं च । कथमितरथा द्वीपान्तरादिष्वपि प्रतिनियतदेशवर्तिपुरुषोपभोग्यानि कनकरत्नचन्दनाङ्गनादीनि तेनोत्पाद्यन्ते। गुणश्च गुणिनं विहाय न वर्तते।अतोऽ हनुमीयते सर्वगत आत्मेति । नैवम् । अदृष्टस्य सर्वगतत्वसाधने प्रमाणाऽभावात् । अथास्त्येव प्रमाणं वन्हेरूद्धज्व लनं वायोस्तिर्यकपवनं चादृष्टकारितमिति चेत-न तयोस्तत्स्वभावत्वादेव तत्सिद्धेर्दहनस्य दहनशक्तिवत । साप्य-IM ला दृष्टकारिता चेत्तर्हि जगत्रयवैचित्रीसूत्रणेऽपि तदेव सूत्रधारायतां किमीश्वरकल्पनया। तन्नायमसिद्धो हेतुः। न चानकान्तिकः । साध्यसाधनयोर्व्याप्तिग्रहणेन व्यभिचाराऽभावात् । नापि विरुद्धः । अत्यन्तं विपक्षव्यावृत्तत्वात् । आत्मगुणाश्च बुद्ध्यादयः शरीर एवोपलभ्यन्ते ततो गुणिनापि तत्रैव भाव्यम् । इति सिद्धः कायप्रमाण आत्मा । शंका-आत्माके अदृष्टनामक एक विशेषगुण है [ बुद्धि आदि नव विशेष गुणोंमें जो धर्म और अधर्म नामक गुण है, वे दोनों अदृष्ट कहलाते है ] और वह अदृष्ट सब उत्पन्न होनेवालोंका निमित्त है अर्थात् जो संसारमें पदार्थ उत्पन्न होते है, उन सबके उत्पन्न होनेमें अदृष्ट ही कारण है, तथा वह अदृष्ट सर्वव्यापक भी है । क्योंकि; यदि वह अदृष्ट सर्वव्यापक न होवे तो || एक नियतस्थान ( मुकर्रर जगह ) में रहनेवाले पुरुषके भोगने योग्य जो सुवर्ण, रन, चन्दन, तथा स्त्री आदि पदार्थ है; उनको अन्य अन्य द्वीपोंमें भी कैसे उत्पन्न करता है । भावार्थ-एक स्थानमें रहनेवाले पुरुषके भोगनेके लिये जिस द्वीपमें वह पुरुष रहता या है, उस द्वीपसे दूसरे द्वीपोंमें भी वह अदृष्ट सुवर्ण आदि पदार्थीको उत्पन्न करता है। इससे जाना जाता है कि; अदृष्ट सर्वव्यापी all - - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यादाटमाना है। और जो गुण होता है, वह गुणी ( अपने आधाररूप पदार्थ) को छोड़कर नहीं रहता है, इसकारण अनुमान किया जाता है राज.श कि आत्मा सर्वव्यापक है अर्थात् आत्माके अदृष्टगुणको सर्वत्र देखनेसे अनुमान होता है कि अदृष्टका धारक आत्मा सर्वव्यापक है। समाधान-ऐसा मत कहो। क्योंकि आत्माका अदृष्टगुण सर्वगत है; इस मतको सिद्ध करनेमें कोई प्रमाण नहीं है। यदि कहो कि; अग्निका ऊचा जलना अर्थात् अग्निकी शिखाका ऊचा जाना और वायुका तिर्यक् (तिरछा) गमन करना अदृष्टका KII किया हुआ है, यह प्रमाण है ही है। भावार्थ-अग्नि सर्वत्र अदृष्टके बलसे ऊर्द्ध गमन करता है और वायु भी सर्वत्र अदृष्टके ।। वशसे तिरछा गमन करता है। अतः यह प्रमाण अदृष्टको सर्वगत सिद्ध करता है, सो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि जैसे ह अग्निमें दग्ध करने (जलाने ) की शक्ति खभावसे है अर्थात् जैसे अग्निका दग्धकरना खभाव है, उसी प्रकार अग्निका ऊर्द्धगमन-11 रूप तथा वायुका तिर्यक्गमनरूप भी स्वभाव है । यदि कहो कि; अमिमें जो दहनशक्ति ( जलानेकी ताकत) है; वह भी अदृष्टकी कराई हुई है अर्थात् अदृष्टके बलसे ही अग्निमें दहनशक्ति उत्पन्न होती है तो तीनलोककी विचित्रताके रचनेमें भी वह अदृष्ट ही। सूत्रधारकीसी तरह आचरण करैः ईश्वरकी कल्पनासे क्या है ? भावार्थ-यदि तुम (वैशेषिक ) पदार्थोके खभावोंको भी अदृष्टसे उत्पन्न हुए मानते हो तो फिर 'तीन जगतकी विचित्राको रचनेवाला ईश्वर है । यह तुम्हारी कल्पना व्यर्थ है । क्योंकि अदृष्टसे ही तीनलोककी विचित्रता हो जावेगी । इसकारण यह हेतु असिद्ध नहीं है। भावार्थ-'आत्मा सर्वगत नहीं है; क्योंकि सर्वत्रानुपलभ्यमानगुण ( सवस्थानोंमें नहीं मिलनेवाले गुणोंका धारक) है। इस अनुमानके प्रयोगमें जो सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणरूप हेतु दिया है; वह असिद्ध नहीं है । क्योकि आत्माके गुण सब जगह नहीं मिलते है । और यह सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणरूप हेतु अनेकान्तिक भी नहीं है । क्योंकि, साध्यसाधनकी व्याप्तिका ग्रहण करनेसे व्यभिचार नहीं होता है। भावार्थ-असर्वगतरूप साध्य । और सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणवरूप साधन (हेतु), इन दोनोके 'जो जो सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणका धारक है, वह वह असर्वगत है इस लाप्रकारसे परस्पर व्याप्ति होती है। तथा विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि विपक्षसे अत्यंत व्यावृत्त है। भावार्थ-साध्य जो असर्वगत है; उसके अभावरूप सर्वगतपनेको धारण करने वाला जो कोई है, वह विपक्ष कहलाता हैउस विपक्षसे यह सर्वत्रानुपलभ्यमानगुण ॥६१॥ लारूप हेतु अत्यत व्यावृत्त ( सर्वथा भिन्न ) है, इस कारण यह हेतु विरुद्ध भी नहीं है । और आत्माके बुद्धि आदि गुण है; वे शरीरमें ही मिलते है। इस कारण गुणी (आत्मा) को भी शरीरमें ही रहना चाहिये । इस प्रकार आत्मा शरीरप्रमाण है; यह सिद्ध हो गया। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यच्च त्वयात्मनां वहुत्वमिष्यते " नानात्मानो व्यवस्थातः' " इति वचनात् । ते च व्यापकास्तेषां प्रदीपप्रभामण्डलानामिव परस्परानुवेधे तदानितशुभाशुभकर्मणामपि परस्परं सङ्करः स्यात् । तथा चैकस्य शुभकर्मणा अन्यः सुखी भवेदितरस्याऽशुभकर्मणा चान्यो दुःखीत्यसमञ्जसमापद्येत । अन्यच्चैकस्यैवात्मनः स्वोपात्तशुभकनामविपाकेन सुखित्वं परोपार्जिताशुभकर्मविपाकसम्बन्धेन च दुःखित्वमिति युगपत्सुखदुःखसंवेदनप्रसङ्गः । अथ स्वावष्टब्धभोगायतनमाश्रित्यैव शुभाशुभयो गस्तर्हि स्वोपार्जितमप्यदृष्टं कथं भोगायतनाबहिर्निष्क्रम्य वढेरू - ज्वलनादिकं करोतीति चिन्त्यमेतत् । vil तथा व्यवस्थासे अर्थात् आत्माके जन्म-मरण आदिके भिन्न २ होनेसे आत्मा अनेक हैं, इस वचनसे तुमने बहुतसे आत्मा माने है। और वे आत्मा व्यापक ( सर्वगत ) है, अतः जैसे प्रदीपोंकी प्रभाओंके समूह परस्पर ( एक दूसरेमें ) मिल जाते हैं; उसी प्रकार उन आत्माओंके भी परस्पर मिलजानेसे उन आत्माओंमें रहनेवाले जो शुभ तथा अशुभ कर्म है; वे भी परस्पर मिल जायेंगे । और जब उन भिन्न २ आत्माओंके शुभ-अशुभकर्मोका परस्पर मेल हो जावेगा तब एकके शुभकर्मसे दूसरा सुखी हो जावेगा तथा दूसरेके अशुभ कर्मसे दूसरा दुःखी हो जावेगा अर्थात् जिनदत्तकी आत्माके जो शुभकर्म है; उनसे देवदत्तका आत्मा सुखी हो जावेगा । और देवदत्तकी आत्माके अशुभ कर्मोंसे जिनदत्तका आत्मा दुःखी हो जावेगा इस प्रकार असमंजस अर्थात् अनुचित (घुटाला) हो जावेगा । और यही नहीं किन्तु एक ही आत्मा अपनेसे उपार्जन किये हुए शुभकर्मके उदयसे सुखी और दूसरे आत्माके द्वारा || उपार्जन किये हुए अशुभकर्मोंसे दुःखी हो जावेगा, और इसप्रकार होनेसे एक आत्माके एक ही समयमें सुख तथा दुःखका अनुभव होगा, जो कि; तुमको अनिष्ट है। यदि कहो कि,-आत्मा अपनेसे अवष्टब्ध (ग्रहण किये हुए) भोगायतनको आश्रय करके ही शुभअशुभको भोगता है अर्थात् जिस शरीरको आत्माने धारण कर रक्खा है; उस शरीरका अवलंबन करके ही आत्मा शुभ-अशुभ कर्मोंके सुख-दुःखरूप फलोंको भोगता है तो आत्माका खोपार्जित भी अदृष्ट भोगायतनसे बाहर निकलकर अग्निके ऊर्द्धज्वलन || आदिको कैसे करता है, यह विचारने योग्य है भावार्थ-जब आत्मा अपने शरीरमें रह कर सुखदुःख भोगता है; ऐसा तुम १ जन्ममरणादेः पार्थक्यात् । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ६२ ॥ मानत हो तो फिर यह कैसे कहते हो कि; आत्माका अदृष्ट शरीरसे बाहर निकलकर अभिको ऊंचा जलाता है और वायुका तिरछा गमन कराता है, अतः तुमको इस अपने पूर्वापरविरुद्ध कथनपर विचार करना चाहिये । आत्मनां च सर्वगतत्व एकैकस्य सृष्टिकर्तृत्वप्रसङ्गः । सर्वगतत्वेनेश्वरान्तरनुप्रवेशस्य सम्भावनीयत्वात् । ईश्वरस्य वा तदन्तरनुप्रवेशे तस्याप्यकर्त्तृत्वापत्तिः । न हि क्षीरनीरयोरन्योऽन्यसंबन्धे एकतरस्य पानादिक्रिया अन्यतरस्य न भवतीति युक्तं वक्तुम् । किश्चात्मनः सर्वगतत्वे नरनारकादिपर्यायाणां युगपदनुभवानुषङ्गः । अथ भोगायतनाभ्युपगमान्नायं दोष इति चेन्ननु स भोगायतनं सर्वात्मना अवष्टभ्नीयादेकदेशेन वा । सर्वात्मना चेदस्मदभिमताङ्गीकारः । एकदेशेन चेत्सावयवत्वप्रसङ्गः परिपूर्ण भोगाभावश्च । और आत्माओंके सर्वगत होनेमें एक एक ( हरएक ) आत्माके सृष्टिकर्तृताका प्रसंग होगा। क्योंकि; सर्वगतपनेसे आत्माओं का ईश्वरके भीतर भी प्रविष्ट हो जाना संभावित है । भावार्थ - सर्वगत आत्मा ईश्वरके भीतर भी प्रवेश कर सकते है; अतः ईश्वरका जो जगत्कर्तृत्व है; वह प्रत्येक आत्मामें आजानेसे हर एक आत्मा जगतका करनेवाला हो जायेगा; जो कि, तुमको अनिष्ट है । अथवा यदि ऐसा कहो कि; आत्मा ईश्वरमें प्रवेश नहीं करते है; किन्तु ईश्वर उन सब आत्माओके भीतर प्रवेश करता है तो उस ईश्वरके अकर्तृता प्राप्त होगी। क्योंकि दूध और जलके परस्पर संबंधमें किसी एक्की पानादिक्रिया दूसरेकी नही होती है अर्थात् मिले हुए दूध तथा जलमेंसे कोई एक दूध अथवा जल पीने आदिमें आता है और दूसरा नही आता है; यह कहना ठीक नही है । भावार्थ — जैसे मिले हुए दूध और जलकी पानादिक्रिया एक ही होती है; उसीप्रकार व्यापकतासे परस्पर मिले हुए ईश्वर तथा आत्माओंकी क्रिया भी एक ही होगी अर्थात् ईश्वर जगत्‌को रचनेरूप क्रिया करेगा तो अन्य आत्मा भी जगतको रचेंगे और जो अन्य आत्मा जगतको रचनेरूप क्रिया न करेंगे तो ईश्वर भी जगतको नही रचेगा । और भी विशेष यह है कि; यदि तुम आत्माको सर्वगत मानोंगे तो मनुष्यपर्याय, नारकपर्याय आदि जो पर्याय है; उनको एक ही समयमें अनुभव करनेका प्रसंग होगा अर्थात् आत्मा सर्वव्यापक होनेसे मनुष्यपर्याय आदि समस्त पर्यायोंका एक ही समयमें अनुभव करेगा। जोकि तुम्हारे अनिष्ट है । अब यदि ऐसा कहो कि; हमने आत्माके भोगायतन को स्वीकार किया है; अर्थात् आत्मा शरीरमें रह कर ही भोग करता यह माना है; तो हम प्रश्न करते है कि वह आत्मा भोगायतनको सर्वरूपसे धारण करता है; अथवा एक देशसे अर्थात् रा.जै. शा. ॥ ६२ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा शरीरमें पूर्णरूपसे व्याप्त है, वा अपने एक प्रदेशसे शरीरको व्याप्त कर रक्खा है? यदि उत्तरमें कहो कि; आत्मा भोगायतनको पूर्णरूपसे व्याप्त कर रक्खा है अर्थात् आत्मा शरीरमें पूर्णरूपसे विद्यमान है तब तो तुमने हमारे मतको खीकार किया अर्थात् | हम ( जैनी ) भी यही मानते है कि; आत्मा शरीरमें पूर्णरूपसे रहता है, इस कारण कोई विवाद ही नहीं है । यदि कहो कि; आत्मा अपने किसी एक प्रदेशसेही शरीरको धारण कर रक्खा है; तो आत्माके सावयवपनेका प्रसंग होगा। भावार्थ-जो प्रदेशो ( हिस्सों ) का धारक होता है; वह अवयवी होता है और आत्माको तुमने अवयवी माना नहीं है; इसकारण तुमको अनिष्टकी प्राप्ति होगी। और परिपूर्ण भोगका अभाव भी होता है। भावार्थ-यदि आत्मा एक प्रदेशसे शरीरको व्याप्त करके रहे-IMS लगा तो जिस प्रदेशसे शरीरको धारण कर रक्खा है उसी प्रदेशमें सुख, दुःख आदिका भोग होगा अन्य प्रदेशोंमें नहीं; इसकारण | समस्त प्रदेशोंमें भोग न होनेसे आत्माके परिपूर्णरूपसे भोगका भी अभाव होगा। | अथात्मनो व्यापकत्वाऽभावे दिग्देशान्तरवर्तिपरमाणुभिर्युगपत्संयोगाऽभावादाद्यकर्माऽभावस्तभावादन्त्यसं योगस्य, तन्निमित्तशरीरस्य तेन तत्संबन्धस्य चाभावादनुपायसिद्धः सर्वदा सर्वेषां मोक्षः स्यात् । नैवम् । यद्येन को संयुक्तं तदेव तं प्रत्युपसर्पतीति नियमाऽसम्भवात् । अयस्कान्तं प्रत्ययसस्तेनासंयुक्तस्याप्याकर्षणोपलब्धेः । अथा संयुक्तस्याप्याकर्षणे तच्छरीरारम्भं प्रत्येकमुखीभूतानां त्रिभुवनोदरविवरवर्तिपरमाणूनामुपसर्पणप्रसङ्गान्न जाने । तच्छरीरं कियत्प्रमाणं स्यादिति चेत् संयुक्तस्याप्याकर्षणे कथं स एव दोषो न भवेत्। आत्मनो व्यापकत्वेन सकल| परमाणूनां तेन संयोगात् । अथ तद्भावाविशेषेऽप्यदृष्टवशाद्विवक्षितशरीरोत्पादनानुगुणा नियता एव परमाणव उपसर्पन्ति तदितरत्रापि तुल्यम् । __ शंका-यदि आत्मा व्यापक न होगा तो दिगन्तर (एक दिशासे दूसरी दिशा) में तथा देशान्तर (एक देशसे अर्थात् स्थान-Ill से दूसरे देश ) में रहनेवाले जो परमाणु है; उनके साथ आत्माका एक ही समयमें संयोग न होनेसे आद्यकर्मका अभाव होगा; उस आद्यकर्मका अभाव होनेसे अन्त्यसंयोगका अभाव होगा; उस अन्त्यसंयोगके अभावसे उस अन्त्यसंयोगरूप निमित्तसे |उत्पन्न होनेवाले शरीरका अभाव हो जायेगा । और शरीरका अभाव होनेसे उस शरीरका जो आत्माके साथ संबंध है; उसका | |अभाव होगा, इसकारण सब जीवोंके सदा विना उपायके सिद्ध हुआ अर्थात् किसी उपायको किये विना मोक्ष हो जावेगा। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादमं. स्थाद्वादमा ॥६३॥ उस क्रियासम वैशेषिकोंके मतमें पहले किसी करता है; उस रमाएका पूर्व आकाशप्रदेशसला कारणसे अर्थात् अदृष्टविशिष्ट भावार्थ-वैशेषिकोंके मतमें पहले किसी कारणसे अर्थात् अदृष्टविशिष्ट आत्माके संयोगसे परमाणु क्रिया उत्पन्न होती है। उस क्रियासे परमाणुका पूर्व आकाशप्रदेशसे विभाग ( वियोग ) होता है अर्थात् परमाणु एक आकाशप्रदेशको छोड़कर गमन करता है। उस विभागके द्वारा परमाणुका उत्तर आकाशप्रदेशके साथ संयोग होता है अर्थात् परमाणु पूर्व आकाशप्रदेशसे गमन कर दूसरे आकाशप्रदेशमें ठहरता है, इस रीतिसे एक आकाशप्रदेशमें जब अन्य अन्य परमाणु इकठे होते है; तव द्वयणुक, व्यणुक आदिरूप कार्य होते है। ऐसा माना गया है। इस कारण यहां वैशेषिक शंका करते है कि- यदि आत्मा सर्वव्यापक न होगा तो उस आत्माका भिन्न स्थानमें स्थित परमाणुके साथ संयोग न होनेसे वह आत्मा परमाणुमें क्रिया उत्पन्न न कर सकेगा; जिससे आद्यकर्मका अभाव हो जावेगा। क्योंकि-क्रियाका न होना ही आद्यकर्मका अभाव है; उस आद्यकर्मके अभावसे अर्थात् परमाणुका क्रियासे पूर्व आकाशप्रदेशके साथ वियोग और उत्तर आकाशप्रदेशके साथ संयोग न होनेसे अन्त्य (आखिर) के संयोगका अर्थात् जिन घणुक त्र्यणुक आदि अवयवोंका संयोग होनेसे शरीररूप अवयवी पूर्ण होता है, उस अंत्यसयोगका अभाव होगा और जब अन्त्यसयोगका अभाव हो जावेगा तब उस अत्यसयोगसे होनेवाले शरीरका अभाव होगा । और शरीरका अभाव होनेके कारण शरीरका आत्माके साथ संबंध न रहेगा, जिससे आत्मा शरीर रहित हो जावेगा और शरीरकी रहितता ही मोक्ष है, इसकारण सब जीव सदा किसी विना उपाय किये ही मोक्षको प्राप्त हो जायेंगे। समाधानऐसा नहीं है । क्योंकि; जो जिससे संयुक्त होता है अर्थात् जिसका जिसके साथ संयोग होता है, वही उसके प्रति गमन करता है, यह नियम नहीं हो सकता है । कारण कि; लोह जो है, वह चुम्बकलोहसे असंयुक्त है तथापि उस लोहका N/ चुम्बक आकर्षण कर लेता है, यह प्रत्यक्षमें देख पडता है। भावार्थ-जैसे चुम्बक अपने साथ सयोगको न धारण करनेवाले लोहेको अपनी ओर खेंच लेता है, उसीप्रकार आत्मा भी अपने साथ सयोगको न धारण करनेवाले दिशान्तर तथा देशान्तरमें विद्यमान परमाणुओंका अपने प्रति आकर्षण कर लेगा, इस कारण जो तुमने आत्माको व्यापक न मानने पर बिना उपायके सब आत्माओंका मोक्ष हो जानेरूप दोष दिया है। वह नहीं हो सकता है। अब कहो कि, यदि आत्मा अपने साथ संयोगको न धारण करनेवाले परमाणुओंका आकर्षण करेगा तो उस आत्माके शरीरको आरभकरनेके प्रति सन्मुख हुए ऐसे तीनलोकके उदर धू ( वीच ) में रहने वाले परमाणुओंके उपसर्पण ( आजाने ) का प्रसग होनेसे न जाने आत्मा कितने प्रमाणका धारक हो जावेगा; . ॥६३॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो संयुक्त परमाणुओंका आकर्षण माननेमें भी यह दोष क्यों नहीं होता है । क्योंकि, आत्मा व्यापक है; इस कारण उस आत्माका | समस्त परमाणुओंके साथ संयोग है । भावार्थ — वैशेषिक कहते है कि; यदि आत्मा असंयुक्त परमाणुओंका आकर्षण करेगा तो उस आत्मा शरीरको रचने के लिये तीनलोक के समस्त परमाणु आजायेंगे और ऐसा होगा तो न मालुम उस आत्माका शरीर कितना लम्बा, चोड़ा व मोटा हो जावेगा। क्योंकि, वह सपूर्णपरमाणुओंसे रचा जावेगा । इस पर जैनी उत्तर देते है; कि जो दोष तुम हमको देते हो, वही दोष आत्मा अपनेसे संयुक्त परमाणुओंका आकर्षण करता है, यह जो तुम्हारा पक्ष है; उसमे भी होता है । क्योंकि आत्मा व्यापक होनेसे सब परमाणुओंके साथ संयुक्त है, अत. जब संयुक्त परमाणुओंका आकर्षण करेगा तब तीन लोकके समस्त परमाणु उसका शरीर रचनेके अर्थ आ जावेंगे । अब यदि यह कहो कि, असंयुक्त तथा संयुक्त इन दोनों ही परमाणुओंका आकर्षण माननेमें कोई भेद नहीं है अर्थात् समान ही दोष है; तथापि अदृष्टके वशसे उस विवक्षित शरीरको उत्पन्न करनेके योग्य जो नियत ( मुकर्रर ) परमाणु है; वे ही उस आत्माके प्रति आगमन करते है अर्थात् आत्मा तो सभी परमाणुओंका आकर्षण कर सकता है, परंतु पुण्य-पापके बलसे जैसा शरीर उसको धारण करना है; वैसे शरीरको उत्पन्न करने में समर्थ कितने ही परमाणु आत्माके प्रति आते है, सबके सब परमाणु नही आते । तो यह तुम्हारा कथन दूसरे पक्षमें अर्थात् असंयुक्त परमाणुओंका आकर्षण करनेरूप हम जैनियोंके पक्षमें भी समान है । भावार्थ - जैसे तुम पुण्य-पापके वशसे नियत परमाणुओका ही आत्माके प्रति आना मानते हो, उसी प्रकार हम भी पुण्य-पापके अनुसार नियतपरमाणु ही आत्माके प्रति शरीर रचनेको आते है, ऐसा मानते है, इसकारण तुम जो दोष दिखाते हो, वह हमारे मतमें नही हो सकता है । अथास्तु यथाकथञ्चिच्छरीरोत्पत्तिस्तथापि सावयवं शरीरम् । प्रत्यवयवमनुप्रविशन्नात्मा सावयवः स्यात् । तथा | चास्य पटादिवत् कार्यत्वप्रसङ्गः । कार्यत्वे चासौ विजातीयैः सजातीयैर्वा कारणैरारभ्येत । न तावद्विजातीयैस्तेपामनारम्भकत्वात् । न हि तन्तवो घटमारभन्ते । न च सजातीयैर्यत आत्मत्वाभिसम्बन्धादेव तेषां कारणाना | सजातीयत्वम् । पार्थिवादिपरमाणूनां विजातीयत्वात् । तथा चात्मभिरात्मा आरभ्यत इत्यायातम् । तच्चाऽयुक्तम् । एकत्र शरीरेऽनेकात्मनामात्मारम्भकाणामसम्भवात् । सम्भवे वा प्रतिसन्धानाऽनुपपत्तिः । न ह्यन्येन दृष्टमन्यः | प्रतिसन्धातुमर्हति । अतिप्रसङ्गात् । तदारभ्यत्वे चास्य घटवदवयवक्रियातो विभागात्संयोगविनाशाद्विनाशः Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादमं स्यात् । तस्माद्व्यापक एवात्मा युज्यते कायप्रमाणतायामुक्तदोपसद्भावादिति चेत्-न । सावयवत्वकार्यत्वयोः राजै.शा. कथञ्चिदात्मन्यभ्युपगमात् । तत्र सावयवत्वं तावदसंख्येयप्रदेशात्मकत्वात् । तथा च द्रव्यालङ्कारकारौं' “ आका॥६ ॥ शोऽपि सदेशः सकृत्सर्वमूताभिसम्बधार्हत्वात्" इति । यद्यप्यवयवप्रदेशयोर्गन्धहस्त्यादिपु भेदोऽस्ति तथापि नात्र सूक्ष्मेक्षिका चिन्त्या । प्रदेशेष्वप्यवयवव्यवहारात्कार्यत्वं तु वक्ष्यामः । अब वैशेषिक कहते है कि; चाहे जिस प्रकारसे शरीरकी उत्पत्ति होवे भावार्थ-चाहे आत्मासे असंयुक्त परमाणुओंद्वारा शरीर उत्पन्न होवे, चाहे आत्मासे संयुक्त परमाणुओं द्वारा शरीर उत्पन्न होवे, इसमें हमको कोई विवाद नहीं है, तथापि शरीर अवयवों सहित है । इस कारण शरीरके प्रत्येक अवयवमें प्रवेश करता हुआ आत्मा भी अवयवों सहित हो जावेगा। और यदि आत्मा अवयव सहित हो जावेगा तो पट आदिके समान आत्माके कार्यत्वका प्रसंग होगा भावार्थ-जैसे पट आदि पदार्थ सावयव होनेसे कार्यरूप है, उसी प्रकार आत्मा भी सावयव होनेसे कार्य हो जावेगा और आत्माका कार्यरूप हो जाना आप (जैनिviयों) को अनिष्ट है । क्योंकि, कार्य अनित्य होता है और आपने आत्माको नित्य माना है । और यदि आत्माको कार्यरूप मानों तो भी हम (वैशेपिक ) प्रश्न करते है कि, वह आत्मा विजातीय कारणोंसे आरभित होता है ? वा सजातीय कारणोंसे ? IN भावार्थ-जो कार्य होता है, उसका आरंभ ( उत्पत्ति ) कारणोंसे होता है; अत. हम प्रश्न करते हैं कि, वह आत्मारूप कार्य विजातीयकारणोंसे उत्पन्न किया जाता है, अथवा सजातीय कारणोंसे उत्पन्न किया जाता है । यदि कहो कि,-विजातीय ( अपनीजातिसे भिन्न जातिके धारक ) कारणोंसे आरभित होता है, सो नहीं। क्योंकि; तंतु घटका आरंभ नहीं करते है अर्थात् जैसे |विजातीय तंतुओंसे घटरूपकार्य की उत्पत्ति नही हो सकती है। उसी प्रकार विजातीय कारणोंसे आत्मा भी उत्पन्न नहीं हो सकता है। यदि कहो कि, सजातीय कारणोंसे आत्मा उत्पन्न किया जाता है, तो यह भी नहीं कह सकते हो । क्योंकि पार्थिव आदि परमाणु विजातीय है। इस कारण आत्मत्वके सवधसे ही उन कारणों में सजातीयता होवे अर्थात् जिन कारणोंमें आत्माका सबंध होवे वे पाही कारण आत्माके सजातीय होवें । और उन सजातीय कारणोंसे यदि आत्मा उत्पन्न किया जाये तो आत्माओं द्वारा आत्मा उत्पन्न किया जाता है, यह सिद्धान्त आ खड़ा रहै। और आत्माओंद्वारा आत्मा उत्पन्न किया जाता है, यह मानना ठीक नहीं है। ॥६४॥ हेमचन्द्रगुणचन्द्री। २ गन्धहस्तिनाम तत्त्वार्थसूत्रोपरि दिगम्बराचार्यश्रीसमन्तभद्रस्वामिनिर्मित चतुरशीतिसहस्रश्लोकसख्यात्मकं महाभाप्यम् । तदादिजैनशास्त्रेषु। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जब क्योंकि, एक शरीरमें आत्माका आरंभ करनेवाले बहुतसे आत्मा नही हो सकते हैं अर्थात् बहुतसे आत्मा एक आत्माको ह | सकते है । अथवा यदि एक आत्माको उत्पन्न करनेवाले बहुतसे आत्मा होसकें तौ भी प्रतिसधान ( स्मरण ) की उत्पत्ति नही हो सकती है। क्योंकि, अतिप्रसंग होनेसे अन्य आत्मासे देखे हुएका दूसरा आत्मा स्मरण करनेको समर्थ नही है । भावार्थबहुतसे आत्मारूप कारण एक आत्माको उत्पन्न करने लगेंगे तब एक आत्मारूप कारणने जो देखा है; उसका दूसरा आत्मारूप कारण स्मरण नहीं कर सकेगा, और ऐसा होगा तब आत्मारूप कार्यकी सिद्धि न होगी । और यदि उन आत्मारूप सजातीयकारणोंसे आत्मानामक कार्य उत्पन्न किये जाने योग्य होगा तो घटके समान उस आत्माका भी अवयवक्रियासे विभाग होनेके कारण संयोगका विनाश हो जानेसे विनाश हो जावेगा भावार्थ - जैसे घटरूपकार्यका अवयवक्रियासे विभाग होता है और विभाग के होनेसे पूर्वसयोगका ( कपालद्वयसंयोग ) का नाश होता है, जिससे घटका भी नाश हो जाता है; इसी प्रकार आत्मारूप कार्यका भी अवयवक्रियासे विभाग और विभागसे संयोगका नाश होनेपर नाश हो जावेगा, और आप ( जैनियों) ने आत्माको नित्य माना है, अत आत्माका नष्ट होना आपको इष्ट नहीं है । इसकारण आप ( जैनियों ) को आत्मा व्यापक ही है, ऐसा मानना ठीक है । क्योंकि शरीरपरिमाण ( जितना बडा शरीर हो उतना ही बड़ा ) आत्मा माननेमें ऊपर कहे हुए अनेक दोष उत्पन्न होते है । सो ठीक नही है अर्थात् तुम ( वैशेषिकों ) ने जो 'आत्माको व्यापक न मानोगे तो आत्मा अवयवोंका धारक तथा कार्यरूप हो जानेसे अनित्य हो जावेगा ' यह दोष दिया है, वह दोष हमारे दोषरूप नही है । क्योंकि हम ( जैनियो ) ने किसी अपेक्षासे आत्मामें अवयवसहितपना तथा कार्यपना स्वीकार किया है । उनमें आत्मा असंख्यात प्रदेशोंवाला है; इस कारणसे तो आत्मामें अवयवसहितपना है । सो ही द्रव्यालंकारनामक ग्रन्थके रचनेवाले कहते है कि; " आकाश भी प्रदेशोंका धारक है, क्योंकि, एक | ही समय में समस्त मूर्त्त पदार्थोंसे सम्बन्ध रखनेयोग्य है अर्थात् आकाशमें एक ही समयमें सब मूर्त्तपदार्थ विद्यमान रहते है; अतः आकाश प्रदेशोंका धारक है । " भावार्थ- - उक्त प्रमाणसे जैसे हम आकाशको नित्य मानकर भी प्रदेशोंका धारक मानते है; उसी प्रकार आत्माको भी नित्य मानकर किसी अपेक्षासे अवयवसहित मानते है । [ यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रपर दिगम्बराचार्य श्रीसमन्त| भद्रखामीविरचित जो ८४००० लोकपरिमाण गधहस्तिनामक महाभाष्य है; उसको आदि ले कितने ही शास्त्रोंमें 'अवयव तथा प्रदे Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमः शमें भेद माना गया है, तथापि यहांपर इस सूक्ष्मताका विचार न करना चाहिये ] और प्रदेशोंमें भी अवयवका व्यवहार होनेसे प्रदेशोंके कार्यता है अर्थात् प्रदेशोंको अवयवरूप माननेसे प्रदेश कार्य है, इस विषयको तो आगे कहेंगे। नन्वात्मनां कार्यत्वे घटादिवत्प्राक्प्रसिद्धसमानजातीयावयवारभ्यत्वप्रसक्तिः। अवयवा ह्यवयविनमारभन्ते यथा तन्तवः पटमिति चेत् न वाच्यम् । न खलु घटादावपि कार्ये प्राक्प्रसिद्धसमानजातीयकपालसंयोगारभ्यत्वं दृष्टम् । कुम्भकारादिव्यापारान्वितान्मृत्पिण्डात्प्रथममेव पृथुबुध्नोदराद्याकारस्यास्योत्पत्तिप्रतीतेः। द्रव्यस्य हि पूर्वाकारपरित्यागेनोत्तराकारपरिणामः कार्यत्वं तच्च वहिरिवान्तरण्यनुभूयत एव । ततश्चात्मापि स्यात्कार्यः । न च पटादौ स्वावयवसंयोगपूर्वककार्यत्वोपलम्भात् सर्वत्र तथाभावो युक्तः। काष्टे लोहलेख्यत्वोपलम्भावनेऽपि तथाभावप्रसङ्गात्। प्रमाणवाधनमुभयन तुल्यम् । न चोक्तलक्षणकार्यत्वाभ्युपगमेऽप्यात्मनोऽनित्यत्वानुषङ्गात्प्रतिसन्धानाऽभावोऽनुपज्यते । कथञ्चिदनित्यत्वे सत्येवास्योपपद्यमानत्वात् । प्रतिसन्धानं हि यमहमद्राक्षं तमहं स्मरामीत्यादिरूपम् । तच्चैकान्तनित्यत्वे कथमुपपद्यते । अवस्थाभेदात् । अन्या ह्यनुभवावस्था अन्या च स्मरणावस्था । अवस्थाभेदे 6 * चावस्थावतोऽपि भेदादेकरूपत्वक्षतेः कथञ्चिदनित्यत्वं युक्त्यायातं केन वार्यताम् । y शंका-यदि आत्मा कार्य होवेंगे तो उन कार्यरूप आत्माओंके घट आदिकी तरह पूर्वप्रसिद्ध समानजातीय अवयवोंसे उत्पन्न होनेकी योग्यताका प्रसग होगा । क्योंकि, अवयव अवयवीको उत्पन्न करते है। जैसे कि-ततुरूप अवयव पटरूप अवयवीको ५ उत्पन्न करते है। भावार्थ-जो कार्य होता है, वह अवयवी होता है और अवयवीको उत्पन्न करनेवाले अवयव है, अत जैसे ४ घटरूप अवयवी अपनेसे पहले विद्यमानतासे प्रसिद्ध जो समानजातीय अर्थात् अपनी पार्थिवत्व जातिको ही धारण करनेवाले दो कपालरूप अवयव है, उनसे उत्पन्न होता है, उसी प्रकार आत्मा भी पूर्वप्रसिद्ध समानजातीय ( अपनी आत्मत्वजातिके धारक ) अवयवोंसे उत्पन्न होवेंगे और ऐसा होना आपको इष्ट नहीं है। समाधान-ऐसा न कहना चाहिये । क्योंकि, घट आदि कार्यमें ॐ भी पूर्वप्रसिद्ध जो समानजातिके धारक दो कपालरूप अवयव है; उनके सयोगसे उत्पन्न होनेकी योग्यता नहीं देखते है। कारण ! कि-कुंभकार आदिके व्यापारसे सहित जो मृत्तिकाका पिंड है, उसके द्वारा दो कपालोके उत्पन्न होने के पहले ही पृथु तथा बुघ्न ऐसे है उदरके जैसे आकारको धारण करनेवाले इस घटकी उत्पत्ति प्रतीत होती है। भावार्थ-तुम जो पूर्वप्रसिद्ध समानजातीय कपाल Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वयसंयोगसे घटकी उत्पत्ति मानते हो सो प्रत्यक्षप्रमाणसे वाधित है। क्योंकि; जब मृत्तिकाके पिण्डके प्रति कुंभकार तथा चाक आदि अपना २ व्यापार ( क्रिया ) करते है, तब उस मृत्तिकाके पिडसे दो कपालोकी उत्पत्ति होनेके पहले ही अर्थात् कपालोंके बने विना ही पृथुवुघ्नोदरादि आकारका धारक घट बन जाता है; यह सवको प्रत्यक्षसे प्रतीति होती है । और पूर्व ( पहले ) के आकारका त्याग करके जो उत्तर ( आगें ) के आकाररूप परिणामका हो जाना है। वही द्रव्यके कार्यत्व है अर्थात् पूर्व आकारको छोडकर उत्तर आकारको धारण करनेसे ही द्रव्य कार्यरूप है । और उस कार्यपनेका बाह्यके समान अंतरंगमें भी अनुभव किया ही IN जाता है अर्थात् जैसे बाह्यमें कटकआदि आकारोंको छोड़कर कुंडल आदि आकारोंरूप होनेवाले सुवर्ण आदि द्रव्योंमें कार्यरूपता देखते है; उसी प्रकार पूर्व आकारको छोड़कर उत्तर आकारको धारण करते हुए आत्माओंमें भी कार्यरूपताका अनुभव होता ही | का है। इसकारण आत्मा भी कथंचित् कार्यरूप है । और पट आदिमें अपने अवयवोंके संयोगपूर्वक कार्यत्व देखकर सब द्रव्योंमें वैसा मानना ठीक नहीं है अर्थात् तंतुआदिरूप अवयवोंके संयोगसे पट आदि कार्य होते है। यह देख कर घटआदि कार्य भी अवय-2 वोंके संयोगपूर्वक होते है, ऐसा मान लेना उचित नहीं है । क्योंकि; यदि ऐसा मानोंगे तो काप्ट ( लकड़ी) में लोहसे खुदनेकी ||Sy|| योग्यता देखकर वज्र ( हीरे ) में भी वैसा होना ( लोहसे खुदनेकी योग्यताका होना ) स्वीकार करना पड़ेगा; जो कि, तुमको अनिष्ट है। और प्रमाणसे बाधा दोनों स्थानों में ही समान है। भावार्थ-यदि तुम कहो कि-वज्र लोहसे नहीं खुदता है, यह प्रत्यक्षमें देखते है । इस कारण वज्रमें लोहसे खुदनकी योग्यता कैसे मान सकते है । क्योंकि; प्रत्यक्षप्रमाणसे बाधा आती है; तो कपालके संयोगसे घटका उत्पन्न होना भी प्रत्यक्षसे विरुद्ध है; इस कारण कार्य अपने समानजातीय अवयवोंसे उत्पन्न होता है; V|| इस नियमका घटरूप कार्यमें व्यभिचार होता है, अतः उक्तनियमसे आत्माके समानजातीय अवयवोंसे उत्पन्न होनेकी योग्यता बताकर जो तुमने हमारे मतमें अनिष्टकी आपत्तिरूप दोष दिया है; वह नहीं हो सकता है । और आत्मामें पूर्व आकारके त्यागसे उत्तर आकारके खीकाररूप कार्यत्वके मानने पर भी जो आत्माके अनित्यताका अनुषंग ( प्राप्ति ) होता है; उससे प्रतिसंधानके |अभावका अनुषंग नहीं होता है अर्थात् आत्माके अनित्य होनेपर प्रतिसधान न होगा ऐसा नहीं है । क्योंकि; आत्माके कथंचित् || अनित्यता होने पर ही यह प्रतिसंधान सिद्ध हो सकता है। कारण कि-प्रतिसंधान जिसको मैने देखा है; उसको मै सरण | N] ( याद ) करता हू' इत्यादि रूपका धारक है । और यह रूप आत्माके सर्वथा नित्यपनेमें कैसे सिद्ध होवे ? । क्योंकि; अवस्थाका - Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यादाटमा भेद है। भावार्थ-अनुभव स्मरणके पहले होता है, इस कारण अनुभवकी अवस्था दूसरी है और स्मरण अनुभवके पीछे होता राजै.सा. है; अत स्मरणकी अवस्था दूसरी है । और अवस्थाका भेद होनेसे अवसाओके धारक आत्माका भी भेद हुआ; जिससे आत्माके एकरूपताका नाश हुआ इस कारण आत्माके कथचित् अनित्यपना जो युक्तिने आता हैउसको तुम किससे दूर कर सकते हो। अर्थात् आत्माके कथंचित् अनित्यत्वका खंडन तुम नहीं कर सकते हो। अथात्मनः शरीरपरिमाणत्वे मूर्तत्वानुपशाच्छरीरेऽनुप्रवेशो न स्यान्मूः मूर्तस्यानुप्रवेशविरोधात् ततो निरात्मकमेवाखिलं शरीरं प्रामोतीति चेत् किमिदं मूर्तत्वं नाम । असर्वगतद्रव्यपरिमाणत्वं रूपादिमत्त्वं वा । तत्र नाद्यः पक्षो दोपाय । संमतत्वात् । द्वितीयस्त्वयुक्तः। नहि यदसर्वगतं तन्नियमेन रूपादिमदित्यविनाभावोऽस्ति । मनसोऽसर्वगतत्वे ऽपि भवन्मते तदसंभवात् । आकाशकालदिगात्मना सर्वगतत्वं परममहत्त्वं सर्वसंयोगिसमानदेशत्वं चेत्युक्तत्वान्मनसो वैधात्सर्वगतत्वप्रतिपेधनात् । अतो नात्मनः शरीरेऽनुप्रवेशानुपपत्तिर्यन निरात्मकं तत्स्यात् । असर्वगतद्रव्यपरिमाणलक्षणमूतत्वस्य मनोवत्प्रवेशाऽप्रतिवन्धकत्वात्। रूपादिमत्त्वलक्षणमूर्तत्वोपेतस्यापि जलादेर्वालुकादावनुप्रवेशो न निषिध्यते । आत्मनस्तु तद्रहितस्यापि तत्रासौ प्रतिपिध्यत इति महच्चित्रम् । । यदि कहो कि; आत्माको शरीरपरिमाण मानने पर आत्मा मूर्त हो जावेगा; इस कारण उस आत्माका शरीरमें प्रवेश न होगा। क्योंकि, मूर्तमें मूर्तके प्रवेशका विरोध है अर्थात् मूर्त गरीरमें मूर्त आत्माका प्रवेश होना विरुद्ध है। और जब मूर्त शरीरमें मूर्त आत्माका प्रवेश न होगा तो संसारके यावन्मात्र ( सबके सब) शरीर आत्मासे शून्य (रहित) ही हो जावंगे। तो हम (जैनी) प्रश्न करते है कि, यह मूर्तपना क्या है ? अर्थात् तुम (वैशेषिको ) ने मूर्तका क्या लक्षण माना है । असर्वगत द्रव्यपरिमाणपना जो है, वह मूर्त है, अथवा जो रूपादिमान् (रूप आदिका धारक ) पना है; वह मूर्त है । भावार्थअसर्वगत ( अव्यापक) द्रव्यका जो अल्पपरिमाण है; उस अल्पपरिमाणके धारक द्रव्यको मूर्त करते हो; अथवा रूप आदिको सर्वमूत. सह सयोग.। न तु सर्वत्र । तेषां नि क्रियत्वात् । २ इयत्ताऽनवरिटनपरिमाणयोगिय परममहत्यम् । ३ सर्वसयोगिसमानदेशव-LGI ॥६६॥ सर्वेपांमूर्तदम्याणाम् । आकाश समानो देश एक आधार इत्यर्थः । एव दिगादिष्वपि व्याख्येयम् । यद्यपि आकाशादिकं सर्वसयोगिनामाधारोन भवति । इहप्रत्ययविषयत्वेनावस्थानात् । तथापि सर्वसयोगिसयोगाधारभूतत्वादुपचारेण सर्वस योगिनामप्याधार उच्यते । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - धारण करनेवाले द्रव्यको मूर्त कहते हो । यदि कहो कि; असर्वगतद्रव्यपरिमाणताको ही हम मूर्त कहते है, तो यह प्रथमपक्ष तो . हमारे दोषके लिये नहीं है । क्योंकि संमत है अर्थात् असर्वगत द्रव्यपरिमाणको ही तुम मूर्त कहते हो तो कहो, इससे हमारे | सिद्धान्तमें कोई दोष नहीं है । यदि कहो कि, रूप आदिका धारक जो द्रव्य है; वह मूर्त है तो यह तुम्हारा कहना ठीक नहीं है || क्योंकि जो असर्वगत है वह रूपादिमान है, ऐसी व्याप्ति नहीं हो सकती है । भावार्थ-जब तुम पहले असर्वगत द्रव्यको रूपा-जा दिमान सिद्ध करलो तब पश्चात् यह कह सकते हो कि; असर्वगत आत्मा रूपादिमान है; अतः मूर्त है, अन्यथा नहीं। और छा जो २ असर्वगत द्रव्य है, वह वह नियमसे रूपादिमान है, ऐसी व्याप्ति तुम नहीं कर सकते हो ॥ क्योंकि-तुम्हारे मतमें मन असर्वगत है तौभी रूपादिमान नही है । कारण कि; आकाश, काल, दिशा और आत्मा ये चारों सर्वगत (सब मूर्तद्रव्योंके संयोगके | धारक ) है, परममहत्परिमाणके धारक है और जो समस्त मूर्तद्रव्यरूप संयोगी है, उनके संयोगके आधारभूत है; अर्थात् सब मूर्तद्रव्योंका परस्पर संयोग इनमें होता है, ऐसा कहा है; और इस कथनसे मनमें इन आकाश आदिका धर्म न होनेसे सर्वगतपनेका | निषेध किया गया है अर्थात् आकाश, काल, दिशा और आत्मा ये चार ही सर्वगत है, ऐसा कहकर मनको असर्वगत सिद्ध किया | है। इस कारण आत्माका शरीरमें प्रवेश होना असिद्ध नहीं है, जिससे कि समस्त शरीर आत्मारहित हो जावें. क्योंकि; मनके । समान असर्वगतद्रव्यपरिमाणत्वरूप लक्षणका धारक जो मूर्त है, उसके प्रवेशमें कोई प्रतिवन्धक नहीं है । भावार्थ-जैसे तुम्हारे मतमें मूर्त मनका मूर्त शरीरमें प्रवेश होता है, उसी प्रकार हमारे मूर्त आत्माका भी मूर्त्त शरीरमें प्रवेश हो जावेगा; इस कारण मूर्त आत्माका मूर्त शरीरमें प्रवेश न दिखलाकर जो तुम हमारे पक्षमें निरात्मक शरीर होजानेरूप दोष देते हो, वह नहीं INहो सकता है। और रूपादिमान लक्षणरूपमूर्तताको धारण करनेवाले अर्थात् रूप आदिके धारक । मृत्तिका आदिमें जो प्रवेश होता है, उसका तो तुम निषेध नहीं करते हो और रूप आदिसे रहित ऐसा भी जो आत्मा है, उसके | IYमूर्तशरीरमें प्रवेशको मना करते हो यह बड़ा आश्चर्य है । अथात्मनः कायपरिमाणत्वे वालशरीरपरिमाणस्य सतो युवशरीरपरिमाणस्वीकारः कथं स्यात् । किं तत्परिमाणपरित्यागात्तदपरित्यागाद्वा । परित्यागाच्चेत्तदा शरीरवत्तस्याऽनित्यत्वप्रसङ्गात्परलोकाद्यभावानुषङ्गः । अथाऽपरित्यागात् । तन्न । पूर्वपरिमाणाऽपरित्यागे शरीरवत्तस्योत्तरपरिमाणोत्पत्त्यनुपपत्तेः । तदयुक्तम् । युवशरीरपरिमा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाद्वादम. राजै.शा. , शरीर हिमाणको ग्रहण करतामा । भावार्थ करके उत्तर परिमाणकोना) आदि नहीं होती तो नहीं । कथमा पूर्व परिमाणको शुर Bणावस्थायामात्मनो वालशरीरपरिमाणपरित्यागे सर्वथा विनाशाऽसम्भवात् । विफणावस्थोत्पादे सर्पवत् । इति कथं परलोकाभावोऽनुपज्यते । पर्यायतस्तस्याऽनित्यत्वेऽपि द्रव्यतो नित्यत्वात् । ॥६७॥ शंका-यदि आत्मा शरीरपरिमाण होगा तो जो आत्मा बालगरीरपरिमाण (बालकके शरीर जितना बड़ा ) है; वह युव-R 10 शरीरपरिमाण ( युवा अर्थात् जवान पुरुपके शरीर जितने बड़े आकार ) को कैसे ग्रहण करेगा ? क्या ? उस बालगरीरपरिमाणको छोड़कर युवशरीरपरिमाणको ग्रहण करेगा अथवा उस बालशरीरके आकारका त्याग न करके युवशरीरपरिमाणको स्वीकार करेगा । भावार्थ-जो आत्मा देवदत्तकी बालअवस्थाके छोटे शरीर जितना हैवही आत्मा जब देवदत्त जवान होगा तब उसके बड़े Kal शरीर जितना पूर्वपरिमाणको छोड़कर होगा ? वा विना छोड़े ही ? यदि कहो कि; आत्मा बालशरीरपरिमाणका त्याग करके युव-15 शरीरपरिमाणको ग्रहण करता है; तब तो शरीरके समान आत्मा भी अनित्य हो जावेगा । यह प्रसंग होगा । जिससे परलोक आदिके अभावका अनुपंग होगा। भावार्थ-जैसे पूर्वपरिमाणको छोडकर उत्तर परिमाणका स्वीकार करनेसे शरीर अनित्य है; ॐ उसी प्रकार आत्मा भी पूर्वपरिमाणका त्यागकरके उत्तर परिमाणको ग्रहण करनेसे अनित्य हो जावेगा और यदि आत्मा अनित्य हो । जावेगा तो फिर आत्माके परलोक ( अन्य २ जन्मोंका धारण करना ) आदि नहीं होगा; जोकि; आपको अनिष्ट है। यदि कहो कि, आत्मा बालशरीरपरिमाणका त्याग न करके युवशरीर परिमाणको ग्रहण करता है, तो सो नहीं । क्योकि, जैसे शरीरके पूर्वN) परिमाणका त्याग किये बिना उत्तर परिमाणकी उत्पत्ति की सिद्धि नहीं है। उसी प्रकार उस आत्माके भी पूर्व परिमाणको छोडे विना उत्तर परिमाणका उत्पन्न होना सिद्ध नहीं हो सकता है । समाधान-यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि; आत्मा जो युवशरीरपरिमाणको ग्रहण करते समय बालशरीरपरिमाणका त्याग करता है; उम बालगरीपरिमाणके त्यागमें आत्माका सर्वथा विनाश नहीं होता है जैसे कि-फणरहित अवस्थाके उत्पन्न होने सर्पका नाश नहीं होता है। भावार्थ-जो सर्प फणको फैला करके बैठा है, वही सर्प जब फणको संकोचता है, तब यद्यपि वह सर्प पहली फणसहितअवस्थाका त्यागकरके पिछली फणरहितअवस्थाको y ग्रहण करता है, तथापि उस सर्पका सर्वथा नाश नहीं होता है, इसी प्रकार यद्यपि आत्मा पूर्व वालशरीरपरिमाणरूप अवस्थाको छोडकर उत्तर युवशरीरपरिमाणरूप अवस्थाको स्वीकार करता है, तथापि आत्माका सर्वथा बिनाश नहीं होता है। किंतु किसी अपेक्षासे विनाश होता है । इस कारण परलोकका अभावरूप प्रसंग कैसे होता है अर्थात् जो तुमने पूर्वपरिमाणका त्याग किये Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विना उत्तर परिमाणके स्वीकारमें आत्माके परलोकादिका अभाव हो जावेगा यह दोष दिया है, वह नहीं हो सकता है । क्योकि आत्मा यद्यपि पर्यायरूपसे अनित्य है, तथापि द्रव्यरूपसे नित्य है। अथात्मनः कायपरिमाणत्वे तत्खण्डने खण्डनप्रसङ्ग इतिचेत्-कः किमाह । शरीरस्य खण्डने कथञ्चित्तत्खण्डनस्येटत्वात् । शरीरसम्बद्धात्मप्रदेशेभ्यो हि कतिपयात्मप्रदेशानां खण्डितशरीरप्रदेशेऽवस्थानादात्मनः खण्डनम् । तच्चात्र विद्यत एव । अन्यथा शरीरात्पृथग्भूतावयवस्य कम्पोपलब्धिर्न स्यात् । न च खण्डितावयवानुप्रविष्टस्या त्मप्रदेशस्य पृथगात्मत्वप्रसङ्गः। तत्रैवानुप्रवेशात्। न चैकत्र सन्तानेऽनेके आत्मानः। अनेकार्थप्रतिभासिज्ञानानामेIN कप्रमात्राधारतया प्रतिभासाभावप्रसंगात् । शरीरान्तरव्यवस्थितानेकज्ञानावसेयार्थसंवित्तिवत् । ___ यदि कहो कि, आत्मा शरीर परिमाण होगा तो जब शरीरका खंडन होगा तब आत्माके भी खंडनका प्रसंग होगा अर्थात् शरीरके टुकड़े किये जाने पर आत्माके भी टुकड़े होवेंगे तो कौन क्या कहता है । क्योंकि; शरीरका खंडन होनेपर किसी अपेलक्षासे आत्माका खंडन भी इष्ट ही है । कारण कि; शरीरसे संबंधको प्राप्त हुए जो आत्माके प्रदेश है; उनमेंसे कितने ही आत्माके प्रदेशोंके खंडित ( कटे हुए ) शरीरमें रहनेसे आत्माका खंडन होता है । और वह खंडन आत्मामें है ही। क्योंकि यदि ऐसा ) लखंडन आत्मामें न होवे तो शरीरसे भिन्न ( जुदे ) हुए अवयव ( हिस्से ) में कंप की प्राप्ति न होवे भावार्थ-पूर्णशरीरसे जो || शरीरका अवयव कट कर अलग होता है. वह थोडी देरतक कांपा करता है अर्थात हिलता है व उछलता है। ऐसा प्रत्यक्षमें||) देखते है, अतः प्रतीत होता है कि, शरीरसे संबंधित आत्माके प्रदेश खंडित शरीरमें भी कुछ देरतक रहते है, और ऐसा हुआ तो आत्माका भी खंडन हो ही गया और यह खंडन कथचित् हमको इष्ट ही है । इसकारण तुम जो दोष देते हो, वह नहीं हो IN | सकता है । यदि कहो कि; ऐसा है तो शरीरके खंडित अवयवमें विद्यमान जो आत्माके प्रदेश हैं, उनके भिन्न आत्मापनेका प्रसंग | होगा अर्थात् शरीरके कटे हुए भागमें आत्माके प्रदेशोंका रहना मानोंगे तो उस भागमें जुदा आत्मा सिद्ध हो जायगा जोकि; तुमको अनिष्ट है । सो यह न कहना चाहिये । क्योंकि उस खंडित अवयवमें रहनेवाले जो आत्माके प्रदेश है, उनका उस शरीमें ही प्रवेश हो जाता है, अर्थात् आत्माके प्रदेश शरीरके खंडित भागमें थोड़ी देर तक रहकर फिर उस पूर्वशरीरमें ही प्रवेश कर जाते है। और एक संतान ( शरीर ) में अनेक आत्मा नहीं है। भावार्थ-यदि तुम यहां पर यह कहो Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाद्वादम. ॥६८॥ खंडित अवयवमें विद्यमान आत्मप्रदेशोंका शरीरस्थ आत्मप्रदेशोंमें प्रवेश न मानना चाहिये किन्तु उस खंडित अवयवमें दूसरा राजै.शा. से ही आत्मा मान लेना चाहिये । तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि यदि एक शरीरमें अनेक आत्मा मानेंगे तो अनेक रूप रस आदि पदार्थोंका प्रतिभास ( निश्चय ) करानेवाले जो नेत्रइंद्रिय आदिसे उत्पन्न ज्ञान हैं, उनके एक प्रमाता ( ज्ञाता आत्मा ) की । आधारतासे प्रतिभास ( अनुव्यवसाय ) न होनेका प्रसंग होगा । जैसे कि,-दूसरे शरीरोंमें विद्यमान अनेकज्ञानोंसे जाननेयोग्य जो रूप आदि पदार्थ है, उनके ज्ञानका एक आत्मामें प्रतिभास नहीं होता है । भावार्थ-जैसे देवदत्तकी आत्माका ज्ञान जिस रूप आदि पदार्थको देखता है, उसका 'मैं देखता हूं अतः ज्ञानवान हू' इस प्रकारका अनुव्यवसाय देवदत्तके आत्माको ही होता है। जिनदत्तके आत्मा को नहीं होता है । उसी प्रकार एक शरीरमें अनेक आत्मा माननेपर गरीरके नेत्ररूप अवयवमें स्थित आत्मा जिस रूपको देखेगा, उसका अनुव्यवसाय उस जिनदत्तके नेत्रस्थ आत्माको ही होगा और उस जिनदत्तके कर्णरूप शरीरावयवमें * जो आत्मा स्थित है, उसके 'मैं देखता हूं' ऐसा अनुव्यवसाय नहीं होगा। और ऐसा होगा तो प्रत्येक आत्माके जो 'मै देखता हू, 2 मै सुनता हूं, मैं सूंघता हूं, इत्यादिरूप से एक प्रमाता ( जाननेवाले ) को अवलंबन करके प्रतिभास होता है, वह न होगा । * और इस एक प्रमाताके आधाररूपसे प्रतिभासका न होना तुमको अनिष्ट है। कथं खण्डितावयवयोः संघट्टनं पश्चादिति चेत् एकान्तेन छेदाऽनभ्युपगमात् । पद्मनालतन्तुवच्छेदस्यापि स्वीकारात् । तथाभूतादृष्टवशात्तत्संघट्टनमविरुद्धमेवेति तनुपरिमाण एवात्माङ्गीकर्तव्यो न व्यापकः । तथा च आत्मा व्यापको न भवति चेतनत्वात् । यत्तु व्यापकं न तच्चेतनम् । यथा व्योम । चेतनश्चात्मा । तस्मान्न व्यापकः। अव्यापकत्वे चास्य तत्रैवोपलभ्यमानगुणत्वेन सिद्धा कायप्रमाणता। यत्पुनरप्टसमयसाध्यकेवलिसमुद्घातदशायामा* हेतानामपि चतुर्दशरज्वात्मकलोकव्यापित्वेनात्मनः सर्वव्यापकत्वम् । तत्कादाचित्कम् । इति न तेन व्यभिचारः। स्याद्वादमन्त्रकवचावगुण्ठितानां च नेदृशविभीपिकाभ्यो भयम् । इति काव्यार्थः॥९॥ ___ यदि कहो कि आत्माके खंडित अवयवों (प्रदेशों) का पीछे मेल कैसे हो जाता है अर्थात् जो आत्माके प्रदेश कट कर शरीरके खडित अवयवोंमें चले गये है, वे और जो आत्माके प्रदेश शरीरमें विद्यमान हैं वे, ये दोनो पीछे परस्पर कैसे मिल जाते है, तो ॐ उत्तर यह है कि, हमने उन आत्माके प्रदेशोंका छेद (विभाग ) सर्वथा नहीं माना है। और जो छेद माना है, उसको भी कम Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लकी नालीके तन्तुओंके छेदके समान माना है भावार्थ-जैसे कमलकी नाली ( दंडी ) का टुकड़ा करने पर उस नालीके तंतु- | ओंका विभाग होता है; परंतु वे तंतु पूर्व तंतुओंमें आ मिलते है; इसी प्रकार यद्यपि शरीरका खंडन होनेपर आत्माके प्रदेशोंका ll विभाग होता है; तथापि वे आत्माके प्रदेश पूर्व आत्मप्रदेशोंमें आ मिलते हैं । और उस प्रकारके अदृष्टके वशसे उन खंडित आत्मप्रदेशोंका परस्पर मिलना विरोधरहित ही है। भावार्थ-जैसे तुम्हारे मतमें पाकमें गेरे हुए घटके परमाणु भिन्न २ होकर फिर वैसे अदृष्टके वशसे मिलकर घटरूप हो जाते है, उसीप्रकार आत्माके प्रदेश भी भिन्न २ होकर पुनः परस्पर मिल जाते है; अतः हमारे माननेमें कोई विरोध नहीं है । इस कारण तुम ( वैशेषिको ) को आत्मा शरीरपरिमाण ही मानना चाहिये और व्यापक न मानना चाहिये । इस उक्तविषयको सिद्ध करनेके लिये अनुमानका प्रयोग भी है। वह यह है-'आत्मा व्यापक नहीं है । क्योंकि चेतन है, जो व्यापक होता है; वह चेतन नहीं होता है । जैसे कि-आकाश व्यापक है; अतः चेतन नहीं है। और आत्मा चेतना है, इस कारण व्यापक नही है । ' इस अनुमानसे जब आत्मा व्यापक न हुआ तो अव्यापक सिद्ध हुआ और अव्यापक होनेपर इस आत्माके गुण शरीरमें ही प्राप्त होते है; इसकारण आत्मा शरीरपरिमाण है; यह सिद्ध हो चुका। और हम जैनियोंके भी जो आठ ८ समयोंसे सिद्ध (पूर्ण) होनेयोग्य केवलिसमुद्घातकी दशामें चौदह रज्जुपरिमाण तीन लोक व्याप्त हो जानेसे आत्मा सर्वव्यापक है, वह कादाचित्क (किसी समयमें हुआ करता) है इस कारण उससे यहां व्यभिचार नहीं होता है। भावार्थ-यद्यपि हम (जैनियों) ने आत्माको केवलिसमुद्धातदशामें सर्वव्यापक माना है। क्योंकि केवलिसमुद्धातदशामें आत रूप होकर तीनलोकमें व्याप्त हो जाते है, परन्तु वह केवलिसमुद्धात किसी समय किसी आत्माके हो जाता है नियमित नहीं है। इसकारण तुम आत्माको अव्यापक माननेरूप इस अनुमानमें दोष नहीं दे सकते हो । और स्याद्वाद ( अनेकान्तवाद ) रूपी थकवच ( वकतर ) से ढके हुए हम जैनियोंको तुम्हारी ऐसी विभीषिकाओंसे अर्थात् व्यभिचारादिदोषरूप भयोंको उत्पन्न करनेवाली कुयुक्तियोंसे भय ( डर ) नही है। इस प्रकार काव्यका अर्थ है ॥९॥ | वैशेषिकनैयायिकयोः प्रायः समानतन्त्रत्वादौलूक्यमते क्षिप्ते यौगमतमपि क्षिप्तमेवावसेयम् । पदार्थेषु च तयोरपि न तुल्या प्रतिपत्तिरिति सांप्रतमक्षपादप्रतिपादितपदार्थानां सर्वेषां चतुर्थपुरुषार्थ प्रत्यसाधकतमत्वे वाच्येऽपि Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादम. ॥६९॥ तदन्तःपातिनां छलजातिनिग्रहस्थानानां परोपन्यासनिरासमात्रफलतया अत्यन्तमनुपादेयत्वात्तदुपदेशदातुर्वैरा-नाराजै.शा. ग्यमुपहसन्नाह ।_वैशेषिक और नैयायिक इन दोनोंके सिद्धान्त प्रायः समान है। इस कारण पूर्वोक्त प्रकारसे जो वैशेषिकोंके मतका खडन किया है। गया है; उससे नैयायिकोंके मतका खडन भी हो चुका ही समझना चाहिये और पदार्थों में उन दोनोंके भी समान खीकारता नहीं है अर्थात् वैशेषिक तथा नैयायिक ये दोनों पदार्थोको भिन्न २ प्रकारसे मानते हैं; अतः इस अवसरमें यद्यपि अक्षपाद (न्यायसूत्रकार गौतम ऋषी) के कहे हुए सब पदार्थोंको मोक्षके प्रति असाधकतम (मोक्षकी प्राप्ति न करनेवाले ) कहने चाहिये तथापि उन पदार्थोंके मध्यमें रहनेवाले जो छल, जाति तथा निग्रहस्थान नामक तीन पदार्थ है, वे केवल परके कथनका तिरस्कार करनेरूप ही प्रयोजनको धारण करते है अतः सर्वथा ग्रहण करने योग्य नहीं है, इस कारण उन छल जाति और निग्रहस्थानोंका उपदेश देनेवाले गौतम ऋषीके बैराग्यका हास्य करते हुए आचार्य अग्रिम कान्यका कथन करते है। स्वयं विवादग्रहिले वितण्डापाण्डित्यकण्डूलमुखे जनेऽस्मिन् । मायोपदेशात्परमर्म भिन्दन्नहो विरक्तो मुनिरन्यदीयः॥१०॥ सूत्रभावार्थः-अपने आप ही विवादरूपी पिशाचसे गृहीत ( पकड़े हुए ) और वितंडाकी चतुराँईसे मानो खुजलीको ही धारण करता है मुख जिनका ऐसे मूर्खसदृश मनुष्योंमें मायाका उपदेश देकर परमर्मोंको अर्थात् वादीके सिद्धान्तको सिद्ध करनेमें समर्थ उत्तम हेतुओंको भेदता हुआ नैयायिकोंका गोतममुनि वैराग्यका धारक है; यह आश्चर्य है ॥१०॥ ॥६९॥ व्याख्या। अन्येऽविज्ञातत्वदाज्ञासारतयाऽनुपादेयनामानः परे तेषामयं शास्तृत्वेन संबन्धी अन्यदीयो मुनिर- ॥ क्षपादऋषिरहो विरक्तोऽहो वैराग्यवान् । (अहो इत्युपहासगर्भमाश्चर्य सूचयति।) (अन्यदीय इत्यत्र “ईयकारके" Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति दोन्तः। ) किं कुर्वन्नित्याह ।-परमर्म भिन्दन (जातावेकवचनप्रयोगात् ) परमर्माणि व्यथयन् बहुभिरात्मप्रदेशैरधिष्ठिता देहावयवा मर्माणीति पारिभाषिकी संज्ञा तत उपचारात्साध्यस्वतत्त्वसाधनाव्यभिचारितया प्राणभूतः साधनोपन्यासोऽपि मर्मेव मर्म । कस्मात्तद्भिन्दन् मायोपदेशाद्धेतोः । माया परवञ्चनं तस्या उपदेशश्छलजातिनिग्रहस्थानलक्षणपदार्थत्रयप्ररूपणद्वारेण शिष्येभ्यः प्रतिपादनं तस्मात् । (“ गुणादस्त्रियां न वा" इत्यनेन हेतौ तृ-ला तीयाप्रसङ्गे पञ्चमी)। NI व्याख्यार्थ-" अन्यदीयः" अन्य अर्थात् आपकी आज्ञाके सार ( रहस्य ) को न जाननेके कारण नहीं ग्रहण करने योग्य है नाम जिनके ऐसे जो पर (नैयायिक ) है उनका अर्थात् उनके साथ उपदेशकरूपसे संबंधको धारण करनेवाला [ ' अन्यदीय' यहां पर 'ईयकारके' इस सूत्रसे अन्तमें अर्थात् अन्यके आगे 'द' हुआ है । ] "मुंनिः" जो अक्षपाद ( गोतम ) ऋषी है; वह MI" अहो" आश्चर्य है कि; [ ' अहो ' यह उपहास ( हास्य ) सहित आश्चर्य को सूचित करता है । ] " विरक्तः " वैराग्यका || || धारक है । क्या करता हुआ वैराग्यको धारण करता है; सो कहते है। - " परमर्म " दूसरोंके ( सिद्धान्तियोंके ) मर्मीको NT MANTIC - परमर्म ' यहां पर जातिमें एकवचनका प्रयोग है; अतः वहुवचनका अर्थ किया गया है ] "भिन्दन् " भेदता ( दुःखित Ill करता ) हुआ । भावार्थ-बहुतसे आत्माके प्रदेशोंसे व्याप्त जो शरीरके अवयव है; वे अर्थात् शरीरके जिन भागोंमें बहुतसे || आत्माके प्रदेश रहते है वे भाग, मर्म कहलाते है; यह शास्त्रका संकेतित नाम है; इसकारण सिद्ध करने योग्य जो अपने अभीष्टी तत्त्व है; उनके साधनमें व्यभिचार रहिततासे अर्थात् सिद्ध करने में समर्थ होनेसे प्राणोंके समान आचरण करनेवाला ऐसा जो साधनका उपन्यास ( निर्दोष हेतुका स्थापन करना अथवा देना ) है; उसको भी उपचारसे मर्मके समान आचरण करनेसे मर्म कहते है; उस परमर्मको अर्थात् सिद्धान्तियोंके निर्दोष हेतुको खंडित करता हुआ । किससे उस परमर्मको भेदता हुआ | "मायोपदेशात् " मायाका उपदेश देनेरूप हेतुसे भावार्थ-परके ठिगनेरूप मायाका जो छल, जाति तथा निग्रहस्थान नामक | तीन पदार्थोंके कथनके द्वारा शिष्योंके प्रति उपदेश देना है; उस कारणसे । [ 'मायोपदेशात् ' यहांपर " गुणादस्त्रियां न वा" इस सूत्रसे हेतुमें तृतीयाका प्रसंग होनेपर पंचमी विभक्ति की गई है ] कस्मिन् विषये मायामयमुपदिष्टवान् इत्याह।-अस्मिन् प्रत्यक्षोपलक्ष्यमाणे जने तत्त्वाऽतत्त्वविमर्शवहिर्मुखतया Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. 1110 11 प्राकृतप्राये लोके । कथम्भूते स्वयमात्मना परोपदेशनिरपेक्षमेव विवादग्रहिले । विरुद्धः परस्परकक्षीकृतपक्षाधिक्षेपदक्षो वादो वचनोपन्यासो विवादः । तथा च भगवान् हरिभद्रसूरि :- “ लब्धिख्यात्यर्थिना तु स्याद् दुःस्थितेनामहात्मना । छलजातिप्रधानो यः स विवाद इति स्मृतः । १ । ” तेन ग्रहिल इव ग्रहगृहीत इव विवादग्रहिलस्तत्र । यथा ग्रहाद्यपस्मारपरवशः पुरुषो यत्किंचन प्रलापी स्यादेवमयमपि जन इति भावः । किसके विषयमें अर्थात् किन शिप्योंमें इस गोतम ऋषीने मायाका उपदेश दिया सो कहते है । - " अस्मिन् " इस प्रत्यक्षप्रमाणसे देखने आते हुए " जैने " तत्त्व और अतत्त्वके विचारसे बहिर्मुख ( रहित ) होनेके कारण मूर्खके समान लोक ( मनुष्यों के समूह ) में । कैसे लोकमें ? " स्वयं " दूसरेके उपदेशकी आवश्यकताके बिना अपने आप ही " विवादग्रहिले " — वि ' विरुद्ध अर्थात् परस्पर ( आपस ) में स्वीकार किया हुआ जो पक्ष है; उसके खंडन करनेमें समर्थ ऐसा जो 'बाद' वचनका देना है अर्थात् दूसरेके मतको खंडन करनेमें समर्थ वचनका जो कहना है; वह विवाद है । सोही भगवान श्रीहरिभद्रसूरी कहते है- " द्रव्य आदिका लाभ तथा अपनी प्रसिद्धि (कीर्ति) को चाहनेवाले ऐसे जो नीच दुर्मती ( कुमतावलम्बी ) जन है; उनके द्वारा जो छल, तथा जातिको मुख्य ग्रहण करके कहा जाता है अर्थात् लाभ व कीर्त्तिके इच्छक नीच दुर्मती छल व जातिको प्रधान कर जो कुछ कहते है; वह विवाद है । १ । " उस विवादसे महिल अर्थात् ग्रह करके पकडे हुएकी तरह जो होवे उस लोक । भावार्थ — जैसे भूत पिशाच आदिके घुस जानेसे स्मृति (बुद्धि) के नाशको प्राप्त हुआ पुरुष चाहे सो बकता है, उसी प्रकार अपने आप ही विवादरूपी ग्रहके वशमें हुआ यह लोक भी जो कुछ ( भला बुरा ) चाहता है, सो बकता है । तथा वितण्डा प्रतिपक्षस्थापनाहीनं वाक्यम् । वितण्ड्यते आहन्यतेऽनया प्रतिपक्षसाधनमिति व्युत्पत्तेः । 'अभ्युपेत्य पक्षं यो न स्थापयति स वैतण्डिक इत्युच्यते " इति न्यायवार्त्तिकम् । वस्तुतस्त्वपरामृष्टतत्त्वातत्त्वविचारं मौखर्ये वितण्डा । तत्र यत्पाण्डित्यमविकलं कौशलं तेन कण्डूलं मुखं लपनं यस्य स तथा तस्मिन् । कण्डूः खर्जूः कण्डूरस्यास्तीति कण्डूलम् (सिध्मादित्वान्मत्वर्थीयो लप्रत्ययः) । यथा किलान्तरुत्पन्नकृमिकुलजनितां कण्डूतिं 66 ง | वादिप्रयुक्तपक्षप्रतिपन्थिप्रतिवाद्युपन्यासः प्रतिपक्षः । कोऽर्थः । यादिपक्षापेक्षया प्रतिपक्षी वैतण्डिकस्य स्वपक्ष एवेति ॥ ॥ ७० ॥ रा. जै. सा Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरोद्धुमपारयन् पुरुषो व्याकुलतां कलयति । एवं तन्मुखमपि वितण्डापाण्डित्येनासम्बद्धप्रलापचापलमाकलयत् कण्डूलमित्युपचर्यते। | तथा “ वितण्डापाण्डित्यकण्डूलमुखे" खंडित किया जाता है प्रतिपक्ष अर्थात् वादीकरके कहे हुए पक्षका विरोधी होनेसे || प्रतिवादीके पक्षका अर्थात् अपने पक्षका सिद्ध करना जिससे; वह वितंडा है। इस व्युत्पत्तिसे तथा “जो किसी पक्षको खीकार करके फिर उसको स्थिर ( सिद्ध ) नहीं करता है; उसको वैतंडिक कहते है " इस न्यायवार्तिकसे प्रतिपक्ष ( अपने मत ) की स्थापना ( सिद्धि ) से रहित जो वाक्यका कहना है; सो वितंडा है । यथार्थमें तात्पर्य तो यह है कि नहीं किया गया है तत्त्व, तथा अतत्त्वका विचार जिसमें ऐसा जो मौखर्य ( शीघ्रता से कह देना ) है अर्थात् विना सोचे समझे मुखसे बक देना है: IN उसको वितंडा कहते है; उस वितंडामें जो पाण्डित्य अर्थात् परिपूर्ण चतुरता है; उससे कण्डूल अर्थात् कण्डू ( खाज व खुजली ) है जिसके वह कण्डूल कहलाता है [ · कण्डू' यह शब्द सिध्मादिगणका है; इस कारण यहां मत्वर्थीय ल प्रत्यय हुआ है। ]]|| कण्डूलके समान कण्डूल है अर्थात् खुजलीका धारक है मुख जिसका ऐसे लोकमें । भावार्थ-जैसे अपने शरीरके भीतर पैदा हुए कीड़ोंके समूहसे उत्पन्न हुई खुजलीको रोकने ( मिटाने ) में असमर्थ हुआ पुरुष व्याकुलताको करता है। इसी प्रकार उस.. विवादग्रस्तलोकका जो मुख है; वह भी वितंडाकी चतुराईसे विना संबंधके वकवाद करनेकी चपलताको धारण करता है। इस कारण || यहां पर उस विवादग्रस्तलोकके मुखमें साधर्म्यसे कण्डूल इस शब्दका उपचार किया गया है । [भूचना-यहां पर व्याख्याके अनुसार खंडान्वयकी रीतिसे ही अनुवाद किया गया है; परंतु यदि दूरान्वय होनेके कारण आशय समझमें न आवे तो इस अनुवादमें मूलके शब्दों पर जो दंडान्वयकी रीतिसे अंक दिये गये हैं; उनको क्रमशः लगाकर आशय समझ लेना चाहिये ।] TY एवं च स्वरसत एव स्वस्वाभिमतमतव्यवस्थापनाविसंस्थुलो वैतण्डिकलोकस्तत्र च तत्परमाप्तभूतपुरुषविशेषपरिकल्पितपरवञ्चनप्रचुरवचनरचनोपदेशश्चेत्सहायः समजनि तदा स्वत एव ज्वालाकलापजटिले प्रज्वलति हुता-||3|| शन इव कृतो घृताहुतिप्रक्षेप इति । तैश्च भवाभिनन्दिभिर्वादिभिरेतादृशोपदेशदानमपि तस्य मुनेः कारुणिकत्व रचनानाम अर्थज्ञानपूर्वकं प्रागसत्या एव पदानुपूाः करणम् । २ सकटे प्रस्तावे च सति छलादिभिः स्वपक्षस्थापनमभिमतं परविजये हिन| Aधर्मध्वंसादिदोषसम्भवः तस्माद्वर छलादिमिरपि जय इति । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादमं. ॥७१॥ HAN कोटावारोपितम् । तथा चाहुः-“दुःशिक्षितकुतर्कीश-लेशवाचालिताननाः। शक्याः किमन्यथा जेतुं वितण्डाटोपमण्डिताः।। गतानुगतिको लोकः कुमार्ग तत्प्रतारितः। मागादिति च्छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः।२।" कारुणिकत्वं च वैराग्यान्न भिद्यते । ततो युक्तमुक्तमहो विरक्त इति स्तुतिकारेणोपहासवचनम् । इस पूर्वोक्त प्रकारसे वैतंडिकलोक खभावसे ही अपने अपने अभीष्ट मतका स्थापन करनेमें चतुर है और उसमें जो उस वैतं-16 डिकलोकके परम आप्त ( यथार्थवक्ता ) खरूप पुरुषविशेष (गोतममुनि)के द्वारा कल्पना किये हुए दूसरोंका ठिगना है प्रधान जिनमें ध ऐसे वचनोंकी रचनारूप (पदार्थ ज्ञानसहित अपूर्व वाक्योंके बनाने रूप) उपदेश सहायक हो गया तब मानों गौतममुनिने अपने आप ही ज्वालाओंके समूहसे व्याप्त ऐसी जलती हुई अग्निमें घृतकी आहुतिका ही क्षेपण किया। भावार्थ-जैसे खतः जाज्वल्यमान अग्निमें घुतके गेरनेसे वह अग्नि द्विगुण-चतुर्गुणरूपसे प्रज्वलित हो जाती है। उसी प्रकार खभावसे ही वितंडाको धारण करनेवाले मनुप्योंमें गोतममुनिने छल आदिका उपदेश देकर उन मनुष्योंकी वितंडाको अत्यन्त बढ़ा दी है । और ससारमें संतोषको धारण करने | वाले अथवा ससारकी प्रशसा करनेवाले अर्थात् संसारको अच्छा समझनेवाले उन नैयायिक वादियोंने उस गोतममुनिका जो ऐसा अर्थात् संकट तथा प्रस्तावके आनेपर छलआदिके द्वारा अपने पक्ष (मत) की स्थापना करनी चाहिये; क्योंकि;-दूसरोंके जीतनेमें छल * आदिसे धर्मका नाश नहीं होता है। इस कारण छल आदिसे भी वादियोंको जीत लेना अच्छा है। इस प्रकारके उपदेशका जो देना है; उसको भी करुणवानपनेकी श्रेणीमें रक्खा है । सो ही वे नैयायिक कहते है कि,-अत्यन्त परिश्रमसे पढे हुए जो कुतर्क (खोटी दलीलें ) हैं उनके अशोंके लेशोंसे वाचालित (चकवाद करनेके लिये तत्पर हुए) मुखको धारण करनेवाले वादी अन्यप्रकारसे 21 अर्थात् छल आदिके विना कैसे जीते जा सकें। १ । लोक गतानुगतिक (देखादेखीसे गयेके पीछे जानेवाला) है, अतः उन वादियोंसे । ठिगा हुआ होकर उनका अनुकरण करके कुमार्गमें न चला जावे; इसी हेतुसे दयाके धारक गोतमऋपीने छल आदिका उपदेश VI दिया है । भावार्थ-यदि मै छल आदिका उपदेश न दूंगा तो भोले मनुष्य दूसरे वादियोंके मतमें चले जायेंगे, यही अपने मनमें विचारकर करुणाके धारक गोतममुनिने छल आदिका उपदेश दिया है। २।" और करुणायानपना वैराग्यसे जुदा नहीं होता है अर्थात् कारुणिकत्व और वैराग्य ये दोनों एकरूप ही है। इस कारण स्तुतिके कर्ता आचार्यमहाराजने जो " आश्चर्य है कि;-गोतम मुनि विरक्त है " ऐसा हास्यका वचन कहा है; सो ठीक ही कहा है। T Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96AON अथ मायोपदेशादितिसूचनासूत्रं वितन्यते । अक्षपादमते किल पोडश पदार्था:-"प्रमाणप्रगेयसंशयप्रयोजनNष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तलशानानिःश्रेयगाधिगमः" इति वचनात् । न चैतेषां व्यस्तानां समस्तानां ना अधिगमो निःश्रेयसावाप्तिहेतुः । न होगेनैन निगा विहिरोन ज्ञानमात्रेण मुक्तिर्युक्तिमती । असगग्रसामग्रीकत्वात् । विघटितकचारशेन भनीपितनगरपाशिवत् । १ अब ' मायोपदेशात् ' इरा सूचनासूत्रको विस्तृत करते हैं गर्मात् मूलगे जो गागा उगरेशरो ऐसा गित firit उसको यहां विस्ताररो कहते हैं। अक्षपादके गत (नेगाभिक गतर्ग)" अगाण १, प्रमेय २, रांग २, प्रयो , सिद्धान्त ६, अवयव ७, तर्फ ८, निर्णय २, नाद १०, जलग ११, गिता १२, लाभारा १३, ५० १.१, गा ?" और निग्रहस्थान १६, इन राबोंके तत्त्वज्ञानरो गोक्षफी प्राशि होती है।" इसाचन सोला, १६ पदार्थ है । पर याpिrint माने हुए इन सोलह पदार्थोमसे व्यरत अर्थात् एक दो चार आदि थोरो पदार्चाका जान लेना | इन स सो. rifer जान लेना गी गोक्षकी प्राप्तिम कारण नहीं है । गोंकि गियासे रहित केवल एक ज्ञानरोगी गोमाफी मासिका सीना गतिको ना धारण करता है; कारण कि;-पूर्णसागमीरो ( रापूर्ण कारणोरो) शन्यो । । हिटे गुण पहियको पार करनेवाले रथसे मनोवांछित नगरकी प्राप्ति नहीं होती है । भावार्थ-याविष्फ जो सोला,' पदापि तलाशातरी गोशकी प्राकिलोना कहते हैं, सो ठीक नहीं है । क्योंकि जैसे रथके दो पहियोंगरी एक या दा ना हो तो उसका परिवाले रशंग मेरो मनुष्य अपने चाहे तुप नगरको नहीं जाता है, इसी प्रकार; इन शोला पदाशी जानलेने गागरोही आगाको गोजी पाiिr नहीं होती है। किन्तु ज्ञान और फिया इन दोनोंके होनेसे की जामाको गोश मिलता। न च वाच्यं न खलु वयं क्रियां प्रतिक्षिपामः । किन्तु तत्त्वज्ञानपूर्णिकाया पानण्या मुक्तितुत्वमिनि मापनार्ग बज्ञानान्नि:-श्रेयसाधिगम इति ब्रूम इति । न यमीप संघते अपिज्ञाननिय गुहियाशितुगते। विशालात निक्रिययोः । न च वितथत्वमसिद्धम् । विचार्यमाणानां पोशानामनियामागत्वात् । माह र तावाहक्षणमित्थं सूत्रितम्-" अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम्” इति । विधारमहा । नापिलवं यदि निमित्तत्वमानं तत्सर्वकारकसाधारणमिति कर्डकर्मादपि प्रगाणलागः । अथ दिदि སྐྱེ་བྱ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ७२ ॥ लक्षणं हेतुशब्देन - करणमेव विवक्षितं तर्हि तज्ज्ञानमेव युक्तं न चेन्द्रियसन्निकर्षादि । यस्मिन् हि सत्यर्थ उपलब्धो भवति स तत्करणम् । न चेन्द्रियसन्निकर्षसामग्र्यादौ सत्यपि ज्ञानाभावेऽर्थोपलम्भः । साधकतमं हि करणम् । अव्यवहितफलं च तदिष्यते । व्यवहितफलस्यापि करणत्वे दुग्धभोजनादेरपि तथाप्रसङ्गः । तन्न ज्ञानादन्यत्र प्रमाणत्वम् । अन्यत्रोपचारात् । यदपि न्यायभूषणसूत्रकारेणोक्तं-" सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्” इति । तत्रापि साधनग्रहणात्कर्तृकर्मनिरासेन करणस्यैव प्रमाणत्वं सिध्यति । तथाप्यव्यवहितफलत्वेन साधकतमत्वं ज्ञानस्यैव । इति न तत्सम्यग्लक्षणम्। "स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । " इति तु तात्त्विकं लक्षणम् । अब यदि यह । नैयायिक यह कहै कि, हम क्रियाका निषेध नहीं करते है; अर्थात् सूत्रमें १६ पदार्थोंके तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है ऐसा कहनेसे यह न समझना चाहिये कि, हम क्रिया ( आचरण व चारित्र ) को मोक्षकी प्राप्तिके प्रति कारण नहीं मानते है, किन्तु सोलहपदार्थोंके तत्त्वज्ञान पूर्वक ( सहित ) जो क्रिया है; वही मुक्तिकी कारणभूता है; इस आशयको विदित करनेके लिये ' तत्त्वज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, ऐसा कहते हैं । सो यह भी उनको न कहना चाहिये । क्योंकि पदार्थोंके ज्ञान और क्रिया ये दोनों मिले हुए भी मोक्षकी प्राप्तिमें कारणभूत नही हैं अर्थात् इन सोलह पदार्थों संबंधी ज्ञान और क्रियाके समुदायको भी मोक्षका कारण मानना ठीक नहीं है । क्योंकि उन पदार्थोंसंबंधी जो ज्ञान तथा क्रिया है; वे दोनों ही मिथ्या है। और मिथ्यापना असिद्ध नहीं है। कारण कि - परीक्षा करनेपर ये सोलह ही पदार्थ तत्त्वाभास सिद्ध होते हैं। सो ही दिखलाते है-उन नैयायिकोंने प्रथम ही प्रमाणका लक्षण इस प्रकारसे सूत्रित किया है " अर्थोपलब्धिमें अर्थात् पदार्थ के प्रत्यक्षमें जो हेतु है; वह प्रमाण है " । और यह प्रमाणका लक्षण विचारको नही सहता है अर्थात् विचार करनेपर असत्य सिद्ध होता है । क्योंकि; यदि अर्थोपलब्धिमें हेतु जो है वह निमित्तमात्र है अर्थात् जो जो अर्थोपलब्धिमें निमित्तकारण है; उस २ सभीको अर्थोपलब्धिमें हेतु कहोगे तो वह हेतुत्व सब कारकोंमें साधारण है; अतः कर्त्ता, कर्म आदिके भी प्रमाणताका प्रसंग 1 १ यत्र हि प्रमात्रा व्यापारिते सत्यवश्यं कार्योत्पत्तिरन्यथा पुनरनुत्पत्तिरेव तत्तत्र साधकतमम् । यथा छिदायां दात्रम् । तथाचोक्त-" क्रियाया. परनिष्पत्ति यद्वधाहारादनन्तरम् । विवक्ष्यते यदा नत्र करणत्वं तदा स्मृतम् ॥ १ ॥ " २ कारणे कार्योपचारात् कार्ये कारणोपचाराद्वा प्रमाणभूतेन पक्षहेतुवचनात्मकेन परार्थानुमानेन व्यभिचारवारणाय अन्यत्रोपचारादित्युक्तम् । ॥ ७२ ॥ रा. जै.शा. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा अर्थात् अर्थोपलब्धिमें छहों ही कारक निमित्तभूत हैं; इसकारण कर्ता कर्म आदि भी प्रमाण हो जावेंगे; जो कि; तुम्हारे अनिष्ट है । और यदि हेतुशब्दसे कर्त्ता कर्म आदिसे भिन्न लक्षणका धारक (जुदे खरूपवाला) ऐसा जो करण है; वह ही विवक्षित है अर्थात् हेतुशब्दसे करणका ही कथन करना चाहते हो; तो उस आत्मा ज्ञानको ही अर्थोपलब्धिमें करण कहना ठीक है। और इन्द्रियसन्निकर्ष ( इंद्रिय और पदार्थके संबंध ) आदिको अर्थोपलब्धिमें करण कहना अनुचित है । क्योकि ; जिसके विद्यमान होनेपर अर्थ उपलब्ध होवे अर्थात् देखा व जाना जावे; वही अर्थोपलब्धिमें करण है । और इंद्रियसन्निकर्ष आदि सामग्री (सहकारी कारणों के समूह ) के विद्यमान होने पर भी ज्ञानका अभाव होवे तो अर्थका उपलम्भ ( ज्ञान ) नहीं होता है । भावार्थ - ज्ञानके होने पर ही अर्थोपलब्धि होती है; न कि; केवल इंद्रिय सन्निकर्ष आदिसे; अतः ज्ञानको ही अर्थोपलब्धिमें हेतु । मानना चाहिये। क्योंकि; जो साधकतम ( कार्यको मुख्यतासे सिद्ध करनेवाला) होता है; वही हेतु (कारण) करण कहलाता है । अर्थात् | जहां जिस कारण को व्यवहार में लानेसे अवश्य ही कार्यकी उत्पत्ति होती है; वही वहां साधकतम होता है और वह करण अव्यव - | हितफल माना गया है अर्थात् उस करणको व्यवहार में लानेसे कार्यरूप फलकी ही उत्पत्ति होती है बीचमें अन्य कुछ भी नहीं | होता है । यदि व्यवहितफलवालेको ( बीचमें अन्य २ कार्योंको करनेके पश्चात् कालान्तरमें अभीष्टकार्यरूप फल देनेवालेको ) भी करण मानें तो दुग्धके भोजन आदिके भी करणता हो जावे । भावार्थ- दुग्धभोजन आदिसे इंद्रिय आदिकी शक्ति बढ़ती है इंद्रिय आदिकी शक्ति हो तब पदार्थके साथ उनका संबंध होनेसे अर्थोपलब्धि होती है; इसप्रकार परंपरासे अर्थोपलब्धिमें कारणभूत जो दुग्ध भोजन आदि है; वह भी करण हो जावें; जो कि तुमको अभीष्ट नही है । इस कारण ज्ञानसे अन्यमें प्रमाणता नहीं है अर्थात् अर्थोपलब्धि में हेतु होनेसे ज्ञान ही प्रमाण है । क्योंकि अन्य स्थलमें अर्थात् कारणमें कार्यका व कार्यमें कारणका | उपचार करके पक्ष तथा हेतुका कथन करने रूप जो परार्थानुमान है; उसमें जो प्रमाणत्व है; वह उपचारसे है । और " जो | अनुभवका सम्यक् ( भले प्रकार ) साधन है, वह प्रमाण है । ऐसा जो न्यायभूषणसूत्रके कर्त्ताने प्रमाणका लक्षण कहा है; उस | लक्षणमें भी साधनका ग्रहण करनेसे कर्ता-कर्म आदिको दूर करने द्वारा करणके ही प्रमाणता सिद्ध होती है । तौ भी अव्यवहितफलपनेसे ज्ञान ही साधकतम ( करण ) है । इस कारण यह भी प्रमाणका लक्षण अच्छा नहीं है । और ' अपने तथा परका निश्चयकरानेवाला जो ज्ञान है; वह प्रमाण है ।' ऐसा जो हम जैनियोंका लक्षण है; वह तो यथार्थ ( सच्चा ) है । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ७३ ॥ । तच्च न प्रमेयमपि तैरात्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गभेदाद्वादशविधमुक्तम् सम्यग् । यतः शरीरेन्द्रियबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषफलदुःखानामात्मन्येवान्तर्भावो युक्तः । संसारिण आत्मनः कथञ्चितदविष्वग्भूतत्वात् । आत्मा च प्रमेय एव न भवति । तस्य प्रमातृत्वात् । इन्द्रियवुद्धिमनसां तु करणत्वात् प्रमेयत्वाऽभावः। दोषास्तु रागद्वेषमोहास्ते च प्रवृत्तेर्न पृथग्भवितुमर्हन्ति । वाङ्मनः कायव्यापारस्य शुभाशुभफलस्य विंशतिविधस्य तन्मते प्रवृत्तिशब्दवाच्यत्वात् । रागादिदोषाणां च मनोव्यापारात्मकत्वात् । दुःखस्य शब्दादीनामिन्द्रियार्थानां च फल एवान्तर्भावः । " प्रवृत्तिदोषजनितं सुखदुःखात्मकं मुख्यं फलं तत्साधनं तु गौणम्।” इति जयन्तवचनात् । प्रेत्यभावापवर्गयोः पुनरात्मन एव परिणामान्तरापत्तिरूपत्वान्न पार्थक्यमात्मनः सकाशादुचितम् । तदेवं द्वादशविधं प्रमेयमिति वागूविस्तरमात्रम् । 'द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमेयम् ” इति तु समीचीनं लक्षणम् । सर्वसंग्राहकत्वात् । एवं संशयादीनामपि तत्त्वाभासत्वं प्रेक्षावद्भिरनुपेक्षणीयम् । अत्र तु प्रतीतत्वाद् ग्रन्थगौरवभयाच्च न प्रपञ्चितम् । न्यक्षेण ह्यत्र न्यायशास्त्रमवतारणीयम् । तच्चावतार्यमाणं पृथग्ग्रन्थान्तरतामवगाहत इत्यास्ताम् । 1 1 उन नैयायिकोंने प्रमेय ( प्रमाण करने योग्य जो पदार्थ ) है, उसको भी आत्मा १, शरीर, २, इन्द्रिय ३, अर्थ ४, बुद्धि ५, मन ६, प्रवृत्ति ७, दोप ८, प्रेत्यभाव ९, फल १०, दुःख ११ और अपवर्ग; इन भेदोंसे बारह २२ प्रकारका कहा है। और वह चारह प्रकार के प्रमेयका कथन करना उत्तम नही है । क्योंकि, शरीर २, इन्द्रिय २, बुद्धि ३, मन ४, प्रवृत्ति ५, दोष ६, फल ७, तथा दुःख ८, इन आठ भेदोंका तो आत्मामें ही अन्तर्भाव कर लेना ठीक है अर्थात् शरीरादि आठ प्रमेयों को तो आत्मारूप प्रमेयमें ही मिला लेने चाहियें । क्योंकि जो ससारी आत्मा है; वह किसी प्रकार ( अपेक्षा ) से इन शरीर आदिसे भिन्न नही है अर्थात् शरीरादिरूप ही है । और जो आत्मा है वह तो प्रमाता ( प्रमितिक्रियाका करनेवाला ) है अतः प्रमेय ही नहीं हो सकता है । इन्द्रिय, बुद्धि तथा मन ये तीनों तो करण है अर्थात् प्रमाता इनके द्वारा प्रमितिक्रियाको करता है अतः प्रमेय नही है | और दोष जो राग, द्वेष तथा मोहरूप है, वे प्रवृत्तिसे जुदे होने योग्य नहीं है । क्योंकि, उन नैयायिको के मतमें शुभ और अशुभफलको धारण करनेवाला ऐसा जो बीस २० प्रकारका मन, वचन, तथा काय, इन तीनोंका व्यापार है, रा. जै. शा ॥ ७३ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही प्रवृत्तिशब्दसे वाच्य ( कहने योग्य ) है अर्थात् उन नैयायिकोंने प्रवृत्तिशब्दसे मन, वचन तथा कायके वीस प्रकारके व्यापाररूप अर्थको ग्रहण किया है और राग आदि दोष मनके व्यापार रूप हैं । दुःखका तथा शब्द आदि जो इंद्रियोंके विषय है, उनका फलरूप प्रमेयमें ही अन्तर्भाव होता है अर्थात् दुःख और अर्थरूप जो दो प्रमेय है वे फलनामक प्रमेयमें ही शामिल N) होते है । क्योंकि ' प्रवृत्ति तथा दोषसे उत्पन्न हुआ ऐसा जो सुख दुःखरूप फल है; वह मुख्य फल है और उस सुखदुःखरूप फलका जो साधन है, वह गौणफल है।' ऐसा जयन्तका वचन है । प्रेत्यभाव और अपवर्ग ये दोनों आत्मा ही के दूसरे । परिणामरूप है अर्थात् आत्मा ही पूर्वपरिणामका त्याग करके इस प्रेत्यभाव तथा अपवर्गरूप उत्तर परिणाम ( अवस्था ) को धारण कर लेता है; अतः इन दोनोंको आत्मासे जुदे मानना उचित नहीं है । सो इस पूर्वोक्तप्रकारसे बारहप्रकारके प्रमेयोंका जो कथन ५ करना है, वह केवल वाग्जाल ( वचनोंके आडम्बर ) रूप है अर्थात् व्यर्थ है । और द्रव्य तथा पर्यायस्वरूप जो वस्तु है; वह प्रमेय है, यह जो हम जैनियोंने प्रमेयका लक्षण कहा है सो तो वहुत उत्तम है । क्योंकि;-यह लक्षण सबका सग्रह करनेवाला है। इस पूर्वोक्त प्रकारसे प्रेक्षावान पुरुषोंको संशय आदिके भी तत्त्वाभासपना उपेक्षित नहीं करना चाहिये । भावार्थ-जैसे नैयायिकोंके १६ पदार्थों से प्रमाण तथा प्रमेयको हमने उक्त प्रकारसे तत्त्वाभासरूप सिद्ध किया है। उसीप्रकार विचारवान पुरुष संशय आदि शेष चौदह १४ पदार्थों को भी तत्त्वाभासरूप समझ लेवें। यहा तो वे सब संशयादि पदार्थ जाने हुए है इस कारणसे तथा उनका यहा कथन करनेसे ग्रंथका विस्तार अधिक हो जानेके भयसे उनको विस्तृतरूपसे नहीं दिखाये है। क्योकि यहां पूर्णरूपसे न्यायशास्त्र ( नैयायिकोंके मत ) का अवतरण करना चाहिये अर्थात् संपूर्ण नैयायिकोंके मतको दिखलाना चाहिये । और अवतरण किया हुआ वह न्यायशास्त्र इस प्रथसे भिन्न एक दूसरे ग्रंथरूप हो जावे । इस कारण वह न्यायशास यहां न कहा हुआ ही रहो। 1 तदेवं प्रमाणादिषोडशपदार्थानामविशिष्टेऽपि तत्त्वाभासत्वे प्रकटकपटनाटकसूत्रधाराणां त्रयाणामेव छलजाति निग्रहस्थानानां मायोपदेशादितिपदेनोपक्षेपः कृतः । तत्र परस्य वदतोऽर्थविकल्पोपपादनेन वचनविघातश्छलम् । लतत्रिधा वाक्छलं सामान्यच्छलमुपचारच्छलं चेति । तत्र साधारणे शब्द प्रयुक्ते वक्तुरभिप्रेतादर्थादर्थान्तरकल्प नया तन्निषेधो वाक्छलम्। यथा नवकम्बलोऽयं माणवक इति नूतनविवक्षया कथिते परः संख्यामारोप्य निषेधति कुतोऽस्य नव कम्बला इति । संभावनयातिप्रसङ्गिनोऽपि सामान्यस्योपन्यासे हेतुत्वारोपणेन तन्निषेधः सामान्य Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा. स्थाद्वादमं. ॥७४॥ धू च्छलम । यथा अहो नु खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याऽऽचरणसंपन्न इति ब्राह्मणस्तुतिप्रसङ्गे कश्चिद्वदति संभवति ब्राह्म- णे विद्याऽऽचरणसंपदिति । तच्छलवादी ब्राह्मणत्वस्य हेतुतामारोप्य निराकुर्वन्नभियुड़े। यदि ब्राह्मणे विद्या ॐ चरणसंपद्भवति व्रात्येऽपि सा भवेद्वात्योऽपि ब्राह्मण एवेति । औपचारिके प्रयोगे मुख्यप्रतिषेधेन प्रत्यवस्थान मुपचारच्छलम् । यथा मञ्चाः क्रोशन्तीत्युक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते कथमचेतना मञ्चाः क्रोशन्ति मञ्चस्था पुरुषाः क्रोशन्तीति । सो इस पूर्वोक्तप्रकारसे प्रमाण आदि सोलह पदार्थोंके तत्त्वाभासपनेमें कोई भी विशेप नहीं है अर्थात् नैयायिकोंके माने हुए सोलह ही पदार्थ समानरूपतासे तत्त्वाभास है; तौ भी स्तुतिके कर्ता आचार्यमहाराजने 'मायोपदेशात्' इस पदसे उन पदार्थों से धू प्रकटमें कपटरूप नाटकके सूत्रधार अर्थात् सर्वसाधारणके देखते २ कपटको रचनेवाले ऐसे जो छल, जाति तथा निग्रहस्थान नामक तीन पदार्थ है, उनका ही उपक्षेप (ग्रहण ) किया है । उनमें वादी जो कहै; उसके कथनमें अर्थविकल्प (दूसरे अर्थ) को उत्पन्न करके जो वादीके वचनका निषेध करना है, उसको छल कहते है । वह छल वाक्छल १, सामान्यछल २ और उपचार छल ३, इन भेदोंसे तीन प्रकारका है। इन तीनों छलोंमेंसे वादी साधारणशब्द ( अनेक अर्थोके धारक एक शब्द ) का ॐ प्रयोग करे, तब उस कहनेवाले वादीके वांछित (चाहे हुए) अर्थसे अन्य दूसरे अर्थकी कल्पना करके जो वादीके कथनका धू निषेध करना है, वह वाक्छल है । जैसे यह बालक नव (नये ) कम्बल ('कामला' नामक वस्त्रविशेप) को धारण करता है, इस प्रकार 'नव' शब्दसे नवीन ( नये) रूप अर्थको कहनेकी इच्छासे वादी कहै; तब प्रतिवादी नव इस शब्दसे नौ ९ की संख्यारूप अर्थको ग्रहण करके इस बालकके नव (नौ) कम्बल कहां है अर्थात् यह तो एक ही कंवलका धारक है इस प्रकार कहकर वादीके कथनको निषेध करता है । १ । संभावनासे अत्यंत प्रसंग ( संबंध ) को धारण करनेवाले सामान्यका y कथन करनेपर उस सामान्यमें हेतुका आरोप करके अर्थात् सामान्यको हेतु बनाकर जिसमें दूसरेके कथनका निषेध किया जाता है; वह सामान्यछल कहलाता है । जैसे आश्चर्य है कि यह ब्राह्मण विद्या और आचरणरूप संपदाको धारण करता है, इस प्रकार ब्राह्मणकी स्तुतिके प्रसंगमें अर्थात् यह ब्राह्मण ज्ञान व चारित्र सहित है इसरूपसे कोई ब्राह्मणकी प्रशंसा करता हो; 7 उसी अवसरमें कोई पुरुष कथन करे कि, ब्राह्मणमें विद्या और आचरणरूप संपदा हो सकती है। तव सामान्यछलको कहनेवाला ॥७४॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिवादी ब्राह्मणमें हेतुताका आरोप करके अर्थात् ब्राह्मणरूप सामान्यको हेतु बनाकर उसके कथनका खंडन करनेको तैयार होता है कि यदि ब्राम्हणमें विद्या तथा आचरणकी संपदा होती है तो व्रात्यमें भी अर्थात् जो जातिसे तो ब्राह्मण है; परतु संस्कार आदिसे रहित होनेके कारण ब्राह्मणोंके समूहसे गिर गया है; उसमें भी वह विद्या और आचरणकी संपदा होवे । क्योंकि व्रात्य भी ब्राह्मण ही है अर्थात् यद्यपि ब्राह्मणोंने उसको अपने समूहमेंसे निकाल दिया है तथापि वह ब्राह्मण मातापिता-IISS ओंके योगसे उत्पन्न हुआ है, अत: वह भी ब्राह्मण ही है । २ । उपचार ( लक्षणा ) से किये हुए प्रयोगमें मुख्य अर्थका निषेध IN करके जिसमें वादीके कथनसे विरुद्ध कथन किया जावे; वह उपचारछल कहलाता है । जैसे—' मंच ( मांचे अर्थात् खाटें ) रुदन करती हैं ' इस प्रकार वादीके कहनेपर पर उपचारछलसे कथन करनेवाले प्रतिवादी विरुद्ध भाषण करते है किं; अचेतन | मंच कैसे रुदन करते है ? मंचपर स्थित पुरुष रुदन करते है । भावार्थ-तुम जो कहते हो कि,-' मंच रुदन करते है, ' सो | IMI ठीक नहीं है; क्योंकि मंच तो अचेतन है; अतः तुमको मंचपर बैठे हुए मनुष्य रुदन करते है, ऐसा कहना चाहिये । तथा सम्यग्हेतौ हेत्वाभासे वा वादिना प्रयुक्ते झटिति तद्दोषतत्त्वाप्रतिभासे हेतुप्रतिविम्वनप्रायं किमपि प्रत्य वस्थानं जातिर्दूषणाभास इत्यर्थः । सा च चतुर्विशतिभेदा साधादिप्रत्यवस्थानभेदेन । यथा-साधर्म्यवैधोत्कपाषाऽपकषेवण्योऽवण्येविकल्पसाध्यप्राप्त्यप्राप्तिप्रसङ्गप्रतिदृष्टान्ताऽनुत्पत्तिसंशयप्रकरणाऽहेत्वर्थापत्त्यविशेपोपपत्त्युपल || ध्यनुपलब्धिनित्याऽनित्यकार्यसमाः। IF तथा जब वादी निर्दोष हेतु अथवा हेत्वाभासका प्रयोग करे तब उस वादीके कथनमें किसी दोषका प्रतिभास न होनेपर भी अर्थात् दोष मालूम हुए विना भी जो, प्रायः हेतुके समान प्रतीत हो, ऐसा शीघ्रतासे कुछ भी विरुद्ध कह देना है; उसको । जाति अथवा दूषणाभास कहते है । वह साधर्म्यआदिसे प्रत्यवस्थान ( विरुद्ध भाषण करने ) रूप भेदोंसे चौवीस २४ प्रकारकी है। वे चौवीस भेद निम्नलिखित है--साधर्म्य १, वैधर्म्य २, उत्कर्ष ३, अपकर्ष ४, वर्ण्य ५, अवर्ण्य ६, विकल्प ७, साध्य ८, Kा प्राप्ति ९, अप्राप्ति १०, प्रसंग ११, प्रतिदृष्टान्त १२, अनुत्पत्ति १३, संशय १४, प्रकरण १५, हेतु १६, अर्थापत्ति १७, | अविशेष १८, उपपत्ति १९, उपलब्धि २०, अनुपलब्धि २१, नित्य २२, अनित्य २३, और कार्यसम २४ ।। तत्र साधर्येण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमा जातिर्भवति । अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति प्रयोगे कृते Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादम ས ཧི ॥७५॥ ཧ ར ཏི साधर्म्यप्रयोगेणैव प्रत्यवस्थानम् । नित्यः शब्दो निरवयवत्वादाकाशवत् । न चास्ति विशेपहेतुर्घटसाधर्म्यात्कृत- राजै.शा. कत्वादनित्यः शब्दो न पुनराकाशसाधान्निरवयवत्वान्नित्य इति । वैधर्येण प्रत्यवस्थानं वैधर्म्यसमाजातिर्भवति। ॐ अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदित्यत्रैव प्रयोगे स एव प्रतिहेतुवैधण प्रयुज्यते। नित्यः शब्दो निरवयवत्वात् ।। अनित्यं हि सावयवं दृष्टं घटादीति । न चास्ति विशेषहेतुर्घटसाधात् कृतकत्वादनित्यः शब्दो न पुनस्तद्वैधानिरवयवत्वान्नित्य इति । उत्कर्पापकर्पाभ्यां प्रत्यवस्थानमुत्कर्पापकर्पसमे जाती भवतः । तत्रैव प्रयोगे दृष्टान्तधर्म कंचित्साध्यधर्मिण्यापादयन्नुत्कपसमां जातिं प्रयुते । यदि घटवत् कृतकत्वादनित्यः शब्दो घटवदेव मूर्तोऽपि A भवतु । न चेन्मूर्तो घटवदनित्योऽपि माभूदिति शब्द धर्मान्तरोत्कर्षमापादयति । अपकर्पस्तु घटः कृतकः सन्-अ श्रावणो दृष्टः । एवं शब्दोऽप्यस्तु । नो चेद् घटवदनित्योऽपि माभूदिति शब्दे श्रावणत्वधर्ममपकर्पतीति । इत्येताश्चतस्रो दिङ्मात्रदर्शनार्थं जातय उक्ताः । एवं शेषा अपि विंशतिरक्षपादशास्त्रादवसेयाः । अत्र त्वनुपयो-2 गित्वान्न लिखिताः। ___उन २४ प्रकारकी जातियों से जो साधर्म्यके द्वारा प्रत्यवस्थान है, वह साधर्म्यसमा जाति कहलाती है । भावार्थ-जैसे कोई बादी ' शब्द जो है, वह अनित्य है । कृतक होनेसे, घटके समान अर्थात् जैसे कृतक ( अपनी उत्पत्तिमें दूसरेके व्यापारको चाहनेवाला ) होनेसे घट अनित्य है, उसी प्रकार कृतक होनेसे शब्द भी अनित्य है, ऐसा अनुमानका प्रयोग करे अर्थात् घटके कृतक-ल त्वरूप धर्मको शब्दमें ग्रहण करके शब्दको अनित्य सिद्ध करे तब प्रतिवादी जो ' शब्द नित्य है निरवयव होनेसे आकाशके समान अर्थात् जैसे अवयवरहित होनेके कारण आकाश नित्य है, उसी प्रकार अवयवरहित होनेसे शब्द भी नित्य है । और घटके साधर्म्यरूप कृतकत्वको धारण करनेसे शब्द अनित्य है तथा आकागके साधर्म्यरूप निरवयवत्वको धारण करता हुआ भी भू शब्द नित्य नहीं है इस माननेमें कोई विशेपहेतु (नियामक ) नहीं है जिससे कि-शब्दको घटके समान अनित्य ही माना जावे और आकाशके समान नित्य न माना जावे। इस प्रकार आकाशके निरवयवत्वधर्मका धारक गन्दको दिखलाकर वाढीके कथनसे ॥७५॥ विरुद्ध भाषण करे अर्थात् शब्दमें नित्यता सिद्ध करे तो समझना चाहिये कि, यहा पर प्रतिवादी साधर्म्यसमा जातिका प्रयोग 1. निरवयवस्वरूप एव । २. घटरूपरष्टान्तवैधर्पण । ? ?) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है।१ । वैधयंसे जो प्रत्यवस्थान है; वह वैधर्म्यसमा जाति है । भावार्थ-जैसे-शब्द अनित्य है कृतक होनेसे || al घटके समान इसी वादीके कहे हुए अनुमान प्रयोगमें 'शब्द नित्य है अवयवरहित होनेसे । क्योंकि जो अनित्य होता.HEYII Kaबह सावयव ( अवयवसहित ) देखा गया है। जैसे कि-घटादिपदार्थ अनित्य है इसकारण सावयव है । और घटके || all साधर्म्य कृतकत्वसे शब्द अनित्य है तथा घटके वैधम्ये (घटमें न रहनेवाले ) निरवयवत्वसे शब्द नित्य नहीं है अर्थात NI कृतकताको धारण करता हुआ शब्द अनित्य है और शब्द यद्यपि निरवयवत्वको धारण करता है तो भी नित्य नहीं है सामानने में कोई विशेषहेतु नही है; जिससे कि 'शब्द अनित्य ही है' यह माना जावे । इसप्रकार उसी निरवयवत्वरूप हेतुको || धर्थरूप दिखलाकर जो प्रतिवादी विरुद्ध भाषण करे अर्थात् शब्दमें नित्यता सिद्ध करे तो समझना चाहिये कि; यहां पर प्रतिवादीने वैधर्म्यसमा जातिका प्रयोग किया है ।२। उत्कर्षसे जो प्रत्यवस्थान है; वह उत्कर्षसमा जाति कहलाती है। भावार्थजो शब्द अनित्य है कृतक होनेसे घटके समान ' इसी वादीद्वारा किये हुए अनुमानके प्रयोगमें साध्यधीमें अर्थात् वादी जिस || पदार्थमें जिस धर्मको सिद्ध करता है; उसी पदार्थमें दृष्टान्तके किसी दूसरे धर्मको सिद्ध करे तो समझना चाहिये कि यहांपर प्रति-|| कवादी उत्कर्षसमा जातिका प्रयोग करता है। जैसे कि-कृतक होनेसे यदि घटके समान शब्द अनित्य है, तो घटके समान ही शब्द मूर्त भी होवे यदि शब्द मूर्त नहीं होता है तो घटके समान शब्द अनित्य भी मत हो। इस प्रयोगमें प्रतिवादी वादीके अनित्य त्वरूप साध्यके धर्मी शब्दमें घट दृष्टान्तके मूर्त्तत्वरूप दूसरे धर्मको सिद्ध करता है । ३ । अपकर्षसे जो प्रत्यवस्थान है, वह अप। कर्षसमाजाति कहलाती है । भावार्थ-साध्यधर्मीमेंसे दृष्टान्तमें नहीं रहनेवाले किसी धर्मको निकालकर जो प्रतिवादी वादीके विरुद्ध भाषण करे तो जानना चाहिये कि, यहांपर प्रतिवादीने अपकर्षसमा जातिका प्रयोग किया है। जैसे कि–कृतक हुआ घट कर्णइंद्रियका विषय नहीं देखनेमें आता है अर्थात् घट कृतक है । परंतु सुननेमें नहीं आता है। उसीप्रकार शव्दको भी श्रवणः | का विषय न होना चाहिये अर्थात् घटके समान शब्दको भी सुननेमें नहीं आना चाहिये । यदि ऐसा नहीं है अर्थात् घटके समान गब्द। श्रवणइंद्रियके अविषयल्प नहीं है तो घटके समान शब्द अनित्य भी मत हो । इस प्रयोगमें प्रतिवादी वादीके साध्यधर्मी शब्दमें पर शान्त श्रवणइंद्रियाविषयत्वधर्मको दूर करता है। ४ । ऐसे ये चार जातिय यहापर थोड़ासा जातियोंका खरूप दिखलानेके 7 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥७६ ॥ " राजै.शा. लिये कही गई हैं। इसीप्रकार बाकी की जो बीस जातियें हैं। उनका खरूप भी गोतमके शास्त्र (न्यायदर्शनसूत्र अथवा नैयायिकोंके ग्रन्थों ) से जान लेना चाहिये । इस प्रकृत ग्रन्थमें तो वे अनुपयोगी है, इसलिये उनका स्वरूप नहीं लिखा गया है। काका तथा विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम । तत्र विप्रतिपत्तिः साधनाभासे साधनबुद्धिर्दपणाभासे च दपणबुद्धिरिति । अप्रतिपत्तिः साधनस्यादृषणं दूषणस्य चानुद्धरणम्।तच्च निग्रहस्थानं द्वाविंशतिविधम्।तद्यथा-प्रति हानिः, प्रतिज्ञान्तरं, प्रतिज्ञाविरोधः, प्रतिज्ञासंन्यासः, हेत्वन्तरं, अर्थान्तरं, निरर्थकं, अविज्ञातार्थ, अपार्थकं, अप्राप्तकालं, न्यूनं, अधिकं, पुनरुक्तं, अननुभाषणं, अज्ञानं, अप्रतिभा, विक्षेपः, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षणं, निरनुयोज्यानुयोगः, अपसिद्धान्तः, हेत्वाभासाश्च। 7 और विप्रतिपत्ति तथा अप्रतिपत्ति जो है; उसको निग्रहस्थान कहते हैं। उनमें साधनाभासमें अर्थात् जो यथार्थमें तो साधन न हो, परतु साधन जैसा जान पड़े उसमें जो साधनकी बुद्धि है अर्थात् साधनपना मान लेना है; वह, तथा दूपणाभास (दूषणके 1. समान प्रतीत होनेवाले ) में जो दूषणकी बुद्धिका होना है; वह ऐसे इन दोनों प्रकारोंरूप तो विप्रतिपत्ति है । और साधनका अदूषण अर्थात् प्रतिवादीके साधनको दोषरहित मानलेना तथा प्रतिवादीके दिये हुए दूषणको दूर न करना, इन दोनों प्रकारोंरूप अप्रतिपत्ति है । यह निग्रहस्थान बाईस २२ प्रकारका है। वे भेद इस निम्न लिखित रीतिसे है-प्रतिज्ञाहानि १, प्रतिज्ञान्तर २, प्रतिज्ञाविरोध ३, प्रतिज्ञासंन्यास ४, हेत्वन्तर ५, अर्थान्तर ६, निरर्थक ७, अविज्ञातार्थ ८, अपार्थक ९, अप्राप्तकाल १०, न्यून ११, अधिक १२. पुनरुक्त १३, अननुभाषण १४, अज्ञान १५, अप्रतिभा १६, विक्षेप १७ मतानुज्ञा १८, पर्यनुयोज्यो|पेक्षण १९, निरनुयोज्यानुयोग २०, अपसिद्धान्त २१ और हेत्वाभास २२ । | तत्र हेतावनैकान्तिकीकृते प्रतिदृष्टान्तधर्म स्वदृष्टान्तेऽभ्युपगच्छतःप्रतिज्ञाहानिर्नाम निग्रहस्थानम् । यथाऽनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वाद् घटवदिति प्रतिज्ञासाधनाय वादी वदन् परेण सामान्यमन्द्रियकत्वमपि नित्यं दृष्टमिति हेता वनैकान्तिकीकृते यद्येवं ब्रूयात् सामान्यवद्घटोऽपि नित्यो भवत्विति । स एवं ब्रुवाणः शब्दाऽनित्यत्वप्रतिज्ञा है जह्यात् । प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे परेण कृते तत्रैव धर्मिणि धर्मान्तरं साधनीयमभिदधतः प्रतिज्ञान्तरं नाम निग्रह स्थानं भवति । अनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वादित्युक्ते तथैव सामान्येन व्यभिचारे चोदिते यदि ब्रूयायुक्तं सामान्य Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन्द्रियकं नित्यम् । तद्धि सर्वगतम् । असर्वगतस्तु शब्द इति । तदिदं शब्देऽनित्यत्वलक्षणपूर्वप्रतिज्ञातः प्रतिज्ञान्तर| मसर्वगतः शब्द इति निग्रहस्थानम् । अनया दिशा शेषाण्यपि विंशतिज्ञेयानि । इह तु न लिखितानि पूर्वहेतोरेव । इत्येवं मायाशब्देनात्रच्छलादित्रयं सूचितम् । तदेवं परवश्चनात्मकान्यपि छलजातिनिग्रहस्थानानि तत्त्वरूपतयोपदि| शतोऽक्षपादर्षेर्वैराग्यव्यावर्णनं तमसः प्रकाशात्मकत्वप्रख्यापनमिव कथमिव नोपहसनीयम् । इति काव्यार्थः ॥१०॥ इन २२ निग्रहस्थानोंमेंसे–प्रतिवादी जब हेतुको अनैकान्तिक ( व्यभिचारी) सिद्ध करदे तब प्रतिदृष्टान्तके धर्मको अपने दृष्टान्तमें स्वीकार करते हुए वादीके प्रतिज्ञाहानिनामक निग्रहस्थान होता है । जैसे - वादी शब्दमें अनित्यत्वरूप प्रतिज्ञाको सिद्ध करनेक लिये 'शब्द अनित्य है ऐन्द्रियक (इन्द्रियका विषय) होनेसे घटके समान' ऐसे अनुमानके प्रयोगका कथन करे और इस प्रयोगर्मे प्रतिवादी सामान्य ऐन्द्रियक है तौ भी नित्य देखा गया है; इस प्रकार कहकर ऐन्द्रियकत्वरूपहेतुको व्यभिचारी बना देवे तब वादी जो ऐसा कहै कि; सामान्यके समान घट भी नित्य हो जावे; तो इस प्रकार कहता हुआ वह वादी शब्दमें अनित्यता | सिद्ध करनेरूप जो प्रतिज्ञा है; उसको छोड़ देता है अर्थात् सामान्यरूप प्रतिदृष्टान्तके नित्यत्वधर्मको घटरूप दृष्टान्तमें स्वीकार | करके शब्दको नित्य मानता हुआ वादी प्रतिज्ञाहानिनामक दोषसे दूषित होता है । १ । जब प्रतिवादी अपने ( वादीके ) प्रतिज्ञा किये हुए अर्थका निषेध करदे तब उसी धर्मी में दूसरे धर्मको सिद्ध करनेयोग्य कहते हुए अर्थात् धर्ममें उस धर्मके सिवाय किसी दूसरे धर्मको मानते हुए वादी प्रतिज्ञान्तरनामा दूसरा निग्रहस्थान होता है । जैसे- ' शब्द अनित्य है; ऐन्द्रियक होनेसे | इस प्रकार वादीके कहने पर प्रतिवादी पहले के समान ही सामान्यसे अर्थात् सामान्य ऐन्द्रियक है तौभी नित्य है यह कहकर ऐन्द्रियकत्व हेतुको व्यभिचारी करदे तब यदि वादी ऐसा कहै कि - ' सामान्य ऐन्द्रियक होनेसे नित्य है ' यह तुम्हारा कहना ठीक है; परन्तु सामान्य तो सर्वगत है और शब्द असर्वगत है; । तो इस प्रकार वादी शब्द में अनित्यता सिद्ध करनेरूप जो पहले प्रतिज्ञा की थी, उसको छोड़कर उसी शब्दरूप धर्मी में असर्वगतरूप दूसरी प्रतिज्ञाको कहता हुआ प्रतिज्ञान्तर नामक दूसरे निग्रह | | स्थानको प्राप्त होता है । इसी प्रकारसे शेष जो वीस २० निग्रहस्थान है उनको भी जान लेने चाहियें। यहां तो पहले ही कारणसे अर्थात् अनुपयोगी होनेसे ही शेष निग्रहस्थानोंको नही लिखे है । ऐसे स्तुतिके कर्त्ता आचार्यमहाराजने काव्यमें स्थित मायाशब्दसे छल, जाति तथा निग्रहस्थान नामक तीन पदार्थोंको सूचित किये है। सो इस पूर्वोक्त प्रकारसे दूसरों (वादियों) को ठिगनेरूप छल Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद्वादसं. ॥ ७७ ॥ रा.जै. शा जाति और निग्रहस्थानोंका तत्त्वरूपता ( पदार्थपने ) से उपदेश देतेहुए गोतमऋषीके वैराग्यका वर्णन करना अर्थात् छल आदिके उपदेष्टा गोतमको कारुणिक कहना मानों अंधकारको प्रकाशस्वरूप कहने के समान है; अतः कैसे उपहासके योग्य न हो । भावार्थ- जैसे अंधकारको प्रकाशरूप कहता हुआ पुरुष हास्यका पात्र होता है; उसीप्रकार छल आदिके उपदेष्टा गोतमको कारुणिक कहते हुए नैयायिक भी उपहासके पात्र है । इस प्रकार काव्यका अर्थ है ॥ १० ॥ अधुना मीमांसर्कभेदाभिमतं वेदविहितहिंसाया धर्महेतुत्वमुपपत्तिंपुरस्सरं निराकुर्वन्नाह । - अब एक प्रकारके मीमासक अर्थात् पूर्वमीमांसक और उत्तरमीमांसक ( वेदान्ती ) इन दो प्रकारके मीमांसकोमेंसे पूर्वमीमांसक जो है, वे वेदमें कही हुई हिंसाको जो धर्मकी कारणभूता मानते है; उसका युक्तिपूर्वक खंडन करते हुए आचार्य इस अग्रिम काव्यका कथन करते है न धर्महेतुर्विहितापि हिंसा नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च । स्वपुत्रघातान्नृपतित्वलिप्सासब्रह्मचारि स्फुरितं परेषाम् ॥ ११ ॥ सूत्रभावार्थ:- वेद में कही हुई भी हिंसा धर्मकी कारण नहीं है । और यदि पूर्वमीमांसक कहैं कि, वेदोक्त हिंसाकी विधि अपवादमार्ग से है; इसकारण दोषके लिये नहीं है; सो उचित नहीं है । | क्योंकि, उत्सर्गवाक्य जो है; वह दूसरे कार्यके लिये प्रयुक्त किये हुए वाक्यसे अपवादका विषय नहीं होता है अर्थात् शास्त्रमें जिस प्रयोजनको अवलम्बनकरके उत्सर्गवाक्य वर्त्तता है; उसी प्रयोज - | नको ग्रहणकरके अपवादवाक्य भी वर्त्तता है । इस कारण उन मीमांसकोंकी चेष्टा अपने पुत्रको मार | कर राजा बननेवाले पुरुषकी चेष्टाके समान है । भावार्थ — जैसे कोई अपने पुत्रको मारकर राजा १. मीमांसकाद्विधा - पूर्वमीमांसावादिनः, उत्तरमीमांसावादिनश्च । तेषु पूर्वमीमांसावादिनामभिमतम् । २. युक्तिपूर्वकम् । ॥ ७७ ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनजावे तो भी वह अपने पुत्रको मारनेके कलंकसे नहीं बच सकता है; इसीप्रकार यद्यपि वेदोक्त हिंसाको करके वे मीमांसक नीच देवताओंको प्रसन्न करलेते हैं; तथापि वे मीमांसक उस हिंसाजनित पापसे रहित नहीं हो सकते हैं ॥ ११ ॥ व्याख्या । इह खल्वचैिर्मार्गप्रतिपक्षधूममार्गाश्रिता जैमिनीया इत्थमाचक्षते । या हिंसा गार्ह्राद् व्यसनितया वा क्रियते सैवाऽधर्मानुबन्धहेतुः । प्रमादसंपादितत्वात् । शौनिकलुब्धकादीनामिव । वेदविहिता तु हिंसा प्रत्युत | धर्म्महेतुः । देवतातिथिपितॄणां प्रीतिसंपादकत्वात् । तथाविधपूजोपचारवत् । न च तत्प्रीतिसम्पादकत्वमसिद्धम् । कारीरीप्रभृतियज्ञानां स्वसाध्ये वृष्ट्यादिफले यः खल्वव्यभिचारः स तत्प्रीणितदेवताविशेषानुग्रहहेतुकः । एवं त्रिपुरार्णववर्णितच्छगलजाङ्गलहोमात्परराष्ट्रवशीकृतिरपि तदनुकूलित दैवतप्रसादसंपाद्या। अतिथिप्रीतिस्तु मधुपर्क| संस्कारादिसमास्वादजा प्रत्यक्षोपलक्ष्यैव । पितॄणामपि तत्तदुपयाचितश्राद्धादिविधानेन प्रीणितात्मनां स्वसन्तानवृ | द्धिविधानं साक्षादेव वीक्ष्यते । आगमश्चात्र प्रमाणम् । स च देवप्रीत्यर्थमश्वमेधैगोमेधादिविधानाभिधायकः प्रतीत | एव । अतिथिविषयस्तु 'महोक्षं वा महाजं वा श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत् ।” इत्यादिः । पितृप्रीत्यर्थस्तु " द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान् हारिणेन तु । औरभ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनेह पञ्च तु । १ । इत्यादिः । व्याख्यार्थ — यहा पर अर्चिर्मार्गसे विरुद्ध ( प्रतिकूल ) धूममार्गके धारक जैमनीय ( जेमनिऋषीके शिष्य मीमांसक ) ऐसा कहते है कि, कसाई व शिकारी के समान जो हिंसा लोभीपनेसे अथवा व्यसनीपनेसे की जाती है, वही पापके बंधकी कारण है । क्योंकि; प्रमादसे की जाती है । और जो वेदोक्त हिसा है, वह तो पापके बंधकी कारण नहीं है किन्तु उल्टी उस प्रकारकी पूजा १ कं जलं ऋच्छतीति कारो मेघस्तमीरयतीतिकारीरी इति व्युत्पत्तेः कारीरीनामा वृष्टिकारको यज्ञविशेषः । २. त्रिपुरार्णवो ग्रन्थविशेषः । ३. दक्षा तु मधु संयुक्त मधुपर्कम् । ४. अश्वो मेध्यते हिंस्यते यत्रेत्यश्वमेध यज्ञविशेषः । एवमन्यत्रापि । ५. प्राघूर्णिक श्रोत्रियाय । ६ पण्मासांश्छाग| मासेन पार्षतेन हि सप्त वै । अष्टावेणस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु । २ । दशमासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिपैः । शशकूर्मस्य मांसेन मासानेकादशैव तु । ३ । संवत्सर तु गव्येन पयसा पायसेन वा । वार्षीणसस्य मांसेन तृप्तिर्द्वादशवार्षिकी । ४ । इति पूर्णपाठः । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का द्वादम. ॥७८॥ सेवाके समान धर्मकी कारण है। क्योंकि देवता अतिथि और पितृजनोंके प्रीतिको उत्पन्न करती है। भावार्थ-जैसे वेदोक्त पूजासेवाके करनेसे देवतादि प्रसन्न होते है, उसी प्रकार इस वेदोक्त हिंसासे भी देवतादि प्रसन्न होते है अतः यह वेदोक्तहिंसा y धर्मबंधकी कारण है । और वेदोक्त हिंसासे देवतादिके प्रीति उत्पन्न नहीं होती है। ऐसा न कहना चाहिये अर्थात् वेदोक्तहिसासे देवतादि प्रसन्न होते ही हैं। क्योंकि; कारीरीनामक यज्ञको आदि ले जो यज्ञ है; उनके अपने द्वारा सिद्ध करने योग्य वृष्टिआदि ५ फलमें जो अव्यभिचारित्व ( सफलता ) हैवह उन यज्ञोंसे प्रसन्न किये हुए देवोंके अनुग्रहरूप हेतुवाला ही है अर्थात् कारीरी-धू o आदि यज्ञोंके करनेसे जो वृष्टि ( वर्षा ) आदि फलोंकी प्राप्ति होती है; वह उन यज्ञोंद्वारा प्रसन्न किये हुए देवोंकी कृपासे ही होती ॐ है। इसी प्रकार त्रिपुरार्णवनामक एक प्रकारके ग्रन्थमें कहे हुए बकरे तथा जांगल ( बनके पशु ) के होमसे दूसरेके राज्यको वशमें करना है; वह भी उस होमसे अनुकूल किये हुए देवताओंके प्रसादसे ही सिद्ध होता है । और मधुपर्कपूजामें दही, और सहत आदिके भक्षणसे उत्पन्न हुई अतिथिप्रीति (पाहुणेकी प्रसन्नता) तो प्रत्यक्षमें ही देखनेमें आती है । तथा उन २ उपयाचना किये हुए श्राद्ध आदिके करनेसे प्रसन्न हो गया है आत्मा जिनका ऐसे अर्थात् जो २ पितर जिस २ श्राद्धकी याचना करें; उस २ की श्राद्धके करनेसे प्रसन्न हुए वे पितर अपने संतानकी वृद्धि करते है अर्थात् श्राद्धकर्ताके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि उत्पन्न करते है। यह y भी प्रत्यक्षमें देखा जाता है। और आगम भी इस विषयमें प्रमाण है । वह निम्न लिखित प्रकारसे है । देवोंकी प्रीतिके लिये अश्वमे धयज्ञ (जिसमें घोडा मारा जावे ऐसे यज्ञ, ) को तथा गोमेधयज्ञ आदिको कहनेवाला आगम प्रसिद्ध ही है । " आये हुए श्रोत्रिय (वेदपाठी) के लिये बड़े बैलको अथवा बडे बकरेको प्रकल्पन करे अर्थात् मारे ।" इत्यादि आगम अतिथि ( पाहुणे) की प्रीतिके लिये हिंसा करनेका उपदेश देता ही है । तथा पितरोंकी प्रीतिके लिये “मत्स्य (मांछले) के मांससे दो महिने तक, हिरणके मांससे तीन महिने तक मेष ( माँढे) के मांससे चार महिने तक और शाकुन (पक्षिविशेप ) के मांससे पांच महिनेतक पितृजन तृप्त रहते है अर्थात् यदि उक्त जीवोंके मांससे श्राद्ध किया जावे तो पितृजन उक्त समयपर्यन्त किसी पदार्थको खानेकी ॐ इच्छा नहीं करते है। १।" इत्यादि कथन करनेवाला आगम है। ___ एवं पराभिप्राय हृदि संप्रधार्याचार्यः प्रतिविधत्ते । न धर्मेत्यादि । विहितापि वेदप्रतिपादितापि आस्तां तावद- विहिता हिंसा प्राणिप्राणव्यपरोपणरूपा न धर्महेतुर्न धर्मानुवन्धनिवन्धनम् । यतोऽत्र प्रकट एव स्ववचनविरोधः। ॥८॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथाहि-'हिंसा चेद्धमहेतुः कथम् ' ' धर्महेतुश्चेद्धिंसा कथम् ' " श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।” इत्यादिः । न हि भवति माता च वंध्या चेति । हिंसा कारणं, धर्मस्तु तत्कार्यमिति पराभिप्रायः । नचायं निरपायः। यतो यद्यस्यान्वयव्यतिरेकावनुविधत्ते तत्तस्य कार्यम् । यथा मृत्पिण्डादेर्घटादिः। न च धर्मो हिंसात | एव भवतीति प्रातीतिकम् । तपोविधानदानध्यानादीनां तदकारणत्वप्रसङ्गात् । इस प्रकार उन पूर्वमीमांसकोंके आशयको हृदयमें धारण करके स्तुतिके कर्ता आचार्यमहाराज न धर्म' इत्यादि श्लोकसे उनके मतका खंडन करते है; वह इसप्रकार है ।" विहिता अपि" वेदमें कही हुई भी अर्थात् वेदमें न कही हुई हिंसा तो ) दूर रहो वेदोक्त भी जीवोंके प्राणोंका त्याग करानेरूप हिंसा । " धर्महेतुः" धर्मका कारण "न" नहीं है। क्योंकि; इस || वेदोक्त हिंसाको धर्मकी कारण माननेमें उन वादियोंके अपने वचनसे विरोध प्रकट ही है । सो ही दिखाते है—यहि हिंसा है तो || धर्मकी कारण कैसे है ? और धर्मकी कारण है तो हिंसा कैसे है ? अर्थात् जो हिंसा है वह धर्मकी कारण नहीं है, जो धर्मका कारण है; वह हिंसारूप नहीं है । क्योंकि-"तुम धर्मके सर्वस्व ( सारभूत रहस्य ) को श्रवण करो और श्रवणकरके हृदयमें लाधारण करो; वह धर्मका रहस्य यह है कि; अपने प्रतिकूल दूसरोंके मत करो अर्थात् जो तुमको बुरा लगे; वह कार्य तुम दूसरों के लिये भी मत करो।१।" इत्यादि आगम हिंसाको पापकी कारण कहता है । और माता है तथा वंध्या (बांझ) है; ऐसा नहीं होता है | भावार्थ-जैसे कोई किसी स्त्रीको माता भी कहै और वंध्या भी कहै तो इसमें उसको अपने वचनसे विरोध आता है । क्योंकि जो माता हो, वह वंध्या नहीं हो सकती है और जो बंध्या हो वह माता नहीं हो सकती है, इसी प्रकार जीवोंके प्राणोंका त्याग IN करानेरूप हिंसाको पाप तथा धर्म; इन दोनोकी कारण कहते हुए उन वादियोंके भी अपने वचनसे विरोध आता है । यहां पर उन वादियोंका यह अभिप्राय है कि हिंसा तो कारण है और धर्म उस हिंसाका कार्य (फल) है सो यह निरपाय अर्थात् दोषरहित नहीं है। | क्योंकि; जो जिसका अन्वय ( सत्त्व ) होनेपर अपने अन्वयको करता है और व्यतिरेक होनेपर अपने व्यतिरेकको करता है; वही | उसका कार्य होता है । जैसे कि, मृत्पिड आदिका अन्वय तथा व्यतिरेक होनेपर घट आदि अपना अन्वय और व्यतिरेक करते है । भावार्थ-जैसे घट मृत्पिडके सत्त्वमें अपने सत्त्वको और मृत्पिडके अभावमें अपने अभावको करता है; अतः घट मृत्पिडरूप १. आत्मनः प्रतिकूलानि परेपा न समाचरेत् । १ । इत्युत्तरार्द्धः । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. 11 60 11 I है, ऐसी शंका भी न करनी चाहिये । क्योंकि, उस वेदोक्त हिंसा के करनेवाले याज्ञिक ( यज्ञ करनेवाले ) जन लोकमें पूज्य देखे | जाते है । भावार्थ - वेदोक्तहिंसाके कर्त्ता याज्ञिकजनोंको लोक पूजते है; अत. वेदोक्तहिसा जगतमें निन्दनीय भी नहीं है । सो | तुम्हारा यह कथन भी चतुर पुरुषोंके विचारको नही सहता है अर्थात् युक्तिरहित ही है । क्योंकि, तुमने जो लोहपिड आदि के दृष्टान्त दिये हैं, वे विषमरूप होनेसे असाधकतम है अर्थात् वेदोक्त विधिसे जीवोंको मारनेरूप दष्टर्शान्तिकमें बराबर न घटने से वेदोक्त हिंसाको निर्दोष सिद्ध करनेमें समर्थ नहीं हैं । कारण कि, लोहके पिड आदि जो है, वे पत्र (पत्तर) आदिरूप दूसरे भावों (अवस्थाओं वा पर्यायों) को प्राप्त होकर जलमें तिरने आदिरूप क्रियाके करनेमें समर्थ होते है । और वेदोक्त मंत्रो से संस्कारकरनेरूप विधिसे भी मारे जाते हुए उन पशुओंके वेदना (पीड़ा) आदिके उत्पन्न न होनेरूप किसी दूसरे भावकी उत्पत्ति प्रतीत नही होती है | अर्थात् वेदोक्त विधिसे मारे जाते हुए भी वे पशु मरते समयमै वेदनाको ही भोगते हुए देखे जाते है । यदि कहो कि; मारने के पश्चात् वे जीव देवपनेको प्राप्त हो जाते हैं यह भावान्तर है ही अर्थात् वे पशु मरकर देव हो जाते है यह एक अवस्थाका पलटना है ही है, तो हम प्रश्न करते है कि इस कथनमें क्या प्रमाण है अर्थात् तुम जो कहते हो कि; वेदोक्त हिसा से पशु मरकर देव हो जाते है, सो कौनसे प्रमाणसे कहते हो । यदि कहो कि, इस कथनमें प्रत्यक्ष प्रमाण है सो तो नहीं हो सकता है । क्योंकि " चक्षु आदि इंद्रियें अपनेसे संबधको प्राप्त हुए तथा वर्त्तमान ऐसे पढार्थका ग्रहण करती है ।" इस वचनसे वह प्रत्यक्ष इद्रियोंसे संबंधित वर्त्तमान पदार्थको ही ग्रहण करता है । और इस कथनमें अनुमान प्रमाण भी नहीं हो सकता है। क्योंकि; उस देवपनेकी प्राप्तिरूप भावांतरसे सबंधित जो लिंग ( साधन ) है; वह जाननेमें नहीं आता है । और आगम प्रमाण भी इस कथनको सिद्ध करनेवाला नहीं है । क्योंकि, वह अबतक भी विवादका स्थान है अर्थात् उसकी सत्यतामें अभीतक सदेह है । तथा अर्थापत्ति और उपमान ये दो प्रमाण तो अनुमान प्रमाणमें ही अन्तर्गत होते है अर्थात् अनुमानके ही भेद है, इसकारण अनुमानप्रमाणर्मे जो साधनकी अप्राप्तिरूप दूषण दिया है, उसीसे गतार्थ हैं अर्थात् उसी दोषके धारक है । अथ भवतामपि जिनायतनादिविधाने परिणामविशेषात्पृथिव्यादिजन्तुजातघातनमपि यथा पुण्याय कल्प्यत इति कल्पना । तथा अस्माकमपि किं नेष्यते । वेदोक्तविधिविधानरूपस्य परिणामविशेषस्य निर्विकल्पं तत्रापि भावात् । नैवम् । परिणामविशेषोऽपि स एव शुभफलो यत्राऽनन्योपायत्वेन यतनयाऽपकृष्टप्रतनुचैतन्यानां पृथि रा. जै० शा ० 1160 11 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | व्यादिजीवानां वधेऽपि स्वल्पपुण्यव्ययेनाऽपरिमितसुकृतसंप्राप्तिर्न पुनरितरः । भवत्पक्षे तु सत्स्वपि तत्तत् श्रुतिस्मृ| तिपुराणेतिहासप्रतिपादितेषु यमनियमादिषु स्वर्गावाप्त्युपायेषु तांस्तान् देवानुद्दिश्य प्रतिप्रतीकं कर्तनकदर्थनया कान्देिशीकान् कृपणपञ्चेन्द्रियान् शौनिकाधिकं मारयतां कृत्स्नसुकृतव्ययेन दुर्गतिमेवानुकूलयतां दुर्लभः शुभपरिणामविशेषः । एवं च यं कंचन पदार्थ किञ्चित्साधर्म्यद्वारेणैव दृष्टान्तीकुर्वतां भवतामतिप्रसङ्गः सङ्गच्छते । शंका – जैसे आप (जैनियों) के भी " जिनमंदिर आदिके बनानेमें जो पृथिवी आदि जीवोंके समूहका घात (वध) होता है, वह भी परिणामविशेषसे पुण्यके अर्थ माना गया है " ऐसी कल्पना है, उसी प्रकार आप हमारे भी क्यों नहीं मानते हैं, क्योंकि, वेदोक्तविधिके करनेरूप जो परिणामविशेष है; वह उस वेदोक्तहिंसामें निर्विकल्प ( निश्चित ) रूपसे है ही है । समाधान - ऐसा न कहना चाहिये, क्योंकि, परिणामविशेष भी वही शुभफल ( वर्ग आदिकी प्राप्तिरूप फल ) का धारक है, कि – जिसमें किसी दूसरे उपायके न होनेपर प्रवृत्ति करनेसे अत्यंत खल्प ज्ञानको धारण करनेवाले पृथिवी आदि जीवोंका वध होनेपर भी बहुत अल्प ( कम ) पुण्यका नाश होनेसे अपरिमाण ( वे अंदाज़ ) पुण्यकी प्राप्ति होती है और इससे भिन्न जो कोई परिणामविशेष है; वह | शुभफलका धारक नहीं है । और तुम्हारे मतमें तो उन उन श्रुति, स्मृति, पुराण तथा इतिहास आदिकोंमें कहे हुए यम, नियम आदि बहुतसे स्वर्गकी प्राप्ति के उपायोंको विद्यमान रहते भी उन २ देवोंका उद्देश्य करके अर्थात् मै अमुक देवके अर्थ इस अमुक पशुका वध करता हूं, ऐसा विचार करके भयसे विह्वल और कृपण ( दयाके योग्य ) ऐसे पंचेन्द्रियजीवोंको शरीरके प्रत्येक अवयवको काटनेरूप पीड़ा पहुंचानेसे कसाईसे भी अधिक निर्दयतापूर्वक मारनेवाले और समस्तपुण्यका नाश करके केवल दुर्गतिको ही अनुकूल करनेवाले अर्थात् नरक गतिका बंध बांधनेवाले ऐसे जो यज्ञके कर्त्ता पुरुष है, उनके शुभफलके धारक परिणामविशेषका | होना अत्यंत कठिन है । और इसप्रकार जिस किसीपदार्थको किसी साधर्म्यद्वारा ही दृष्टान्तगोचर करते हुए अर्थात् किसी साधर्म्यको लेकर किसी पदार्थका दृष्टान्त देते हुए तुम पूर्वमीमासकोंके अत्यंत अनिष्टकी प्राप्ति होती है । न च जिनायतनविधापनादौ पृथिव्यादिजीववधेऽपि न गुणः । तथाहि - तद्दर्शनाद्गुणानुरागितया भव्यानां बोधिलाभः । पूजातिशयविलोकनादिना च मनःप्रसादः, ततः समाधिः, ततश्च क्रमेण निःश्रेयसप्राप्तिरिति । तथा १. प्रत्यवयवम् । २. भयविह्वलान् । ३. कृपार्हान् । ४. बोधिः सम्यक्त्व प्रेत्य जिनधर्मावाप्तिवां । ५. समाधिश्चारित्रावाप्तिः । ६. निःश्रेयसो मोक्षः । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमं. ॥८१॥ च भगवान् पञ्चलिङ्गीकार;-"पुढवाइयाण जइवि हु होइ विणासो जिणालयाहिंतो । तबिसया वि सुदिछिस्स नाराजै.शा. णियमओ अत्थि अणुकंपा।१। एयाहिंतो वुद्धा विरया रक्खंति जेण पुढवाई। इत्तो निव्वाणगया अवाहिया आभवमिमाणं।२।रोगिसिरावेहो इव सुविज्जकिरियाव सुप्पउताओ। परिणामसुंदरच्चिय चिठा से वाहजोगेवि" ।। । और जिनमदिर बनवाने आदिमें पृथिवी आदि जीवोंका जो वध होता है; उसमें भी गुण नहीं है अर्थात् जैसे आप वेदोक्त विधिपूर्वक हिंसाके करनेमें गुण नहीं बतलाते है, उसीप्रकार जिनमंदिर आदिके बनवानेमें भी गुण नहीं है। ऐसा न कहना चाहिये। क्योंकि श्रीजिनेन्द्रके दर्शन करनेसे श्रीजिनेन्द्रके गुणोंमें अनुराग (प्रीति ) होता है, श्रीजिनेन्द्रके गुणोमें प्रीति होनेसे जो भव्य हैं, उनको बोधि (सम्यग्दर्शन ) की प्राप्ति होती है, और श्रीजिनेन्द्रकी पूजा तथा अतिशय (प्रभाव ) को देखने आदिसे चित्त प्रसन्न ( प्रफुल्लित ) होता है, मन प्रसादके होनेसे समाधि, (समताभाव ) की प्राप्ति होती है; और फिर क्रमानुसार मोक्षकी प्राप्ति होती है। सो ही पचलिङ्गीके का भगवान् श्रीजिनपतिसूरीश्वरजी कहते है कि-"यद्यपि जिनमदिर बनवाने आदि धू क्रियाओंके करनेसे पृथिवी आदि जीवोंका विनाश होता ही है । तथापि सम्यग्दृष्टीके उन पृथिवी आदि जीवों संबंधी दया नियमसे है ही अर्थात् सम्यग्दृष्टी जीवके चित्तमें उन पृथिवी आदि जीवोंकी दया ही बस रही है। उसके परिणाम उन जीवोंकी दयासे शून्य जी कमी नहीं होते है। १ । क्योंकि, भव्यजीव इन जिनमंदिर बनवाने आदि क्रियाओंसे ज्ञानको प्राप्त होकर फिर संसारसे विरक्त होकर अर्थात् मुनि होकर पृथिवी आदि जीवोंकी रक्षा करते है, इसीकारण इन पृथिवी आदि जीवोको बाधा न पहुंचानेवाले इस भवमें मोक्ष गये है । भावार्थ-जिनमंदिर बनवाने आदिसे गृहस्सोंको ज्ञानकी प्राप्ति होती है, हेयोपादेयका ज्ञान होनेपर वे गृहस्थाश्रमसे तथा संसारसे विरक्त होकर मुनिपदको धारण करते है और मुनिपद धारण करके इन पृथिवी आदि जीवोंकी अधिक रक्षा करते है और जब इन पृथिवी आदि जीवोंकी पूर्ण दया पालते है तब वे इसी भवमें मोक्ष चले जाते है; अत. जिनमदिर आदिका बनवाना दयाभावका वर्धक ही है नाशक नहीं है । २ । जैसे रोगीकी नसका छेदना और उत्तमप्रकारसे प्रयोगमें लाई हुई उत्तम ॥ पञ्चलिङ्गीकारः श्रीजिनपतिसूरि । २. “पृथिव्यादीना यद्यपि भवत्येव (प्राकृते हु एवकारा)विनाशो जिनालयादिभ्यः । तद्विपयापि सुरष्टेनियमतोऽस्त्यनुकम्पा ।। एताभ्यः (जिनालयादिक्रियाभ्य.) बुद्धा विरता रक्षन्ति येन पृथिव्यादीन् । अतो निर्वाणगता भयाधका भाभवं (मस्मिन् भवे) एषाम् । २ । रोगिशिरावेध इव सुवैद्यक्रिया इव सुप्रयुक्ता तु । परिणामसुन्दरैव चेष्टा सा याधायोगेऽपि । ३।" इतिच्छाया। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैद्यकी रोगीको लंघन कराना, कटुकौषधि देना आदि क्रिया परिणामसुंदर हैं अर्थात् शुभपरिणामोंसे की हुई है अथवा अंतमें उत्तम | फलकी धारक है; उसी प्रकार जिनमदिर बनवाने आदिरूप जो भव्यजीवोंकी चेष्टा है; वह भी पृथिवी आदि जीवोंकी वाधाका योग होनेपर भी शुभ परिणामोंसे उत्पन्न हुई तथा शुभफलकी धारक है । ३ ।” | वैदिकवधविधाने तु न कंचित्पुण्यार्जनानुगुणं गुणं पश्यामः । अथ विप्रेभ्यः पुरोडाशादिप्रदानेन पुण्यानुवन्धी जगणोऽस्त्येव इति चेत-नापवित्रसुवर्णादिप्रदानमात्रेणैव पुण्योपार्जनसम्भवात् । कृपणपशुगणव्यपरोपणसमुत्थमां सदानं केवलं निपुणत्वमेव व्यनक्ति । अथ न प्रदानमात्रं पशुवधक्रियायाः फलं किन्तु भूत्यादिकम् । यदाह श्रुतिः" श्वेतं वायव्यमजमालभेत भूतिकामः” इत्यादि । एतदपि व्यभिचारपिशाचग्रस्तत्वादप्रमाणमेव । भूतेश्चौपयिकान्तरैरपि साध्यमानत्वात् । अथ तत्र सत्रे हन्यमानानां छागादीनां प्रेत्य सद्गतिप्राप्तिरूपोऽस्त्येवोपकार इतिचेत् वाङ्मात्रमेतत् । प्रमाणाऽभावात् । न हि ते निहताः पशवः सद्गतिलाभमुदितमनसः कस्मैचिदागत्य तथाभूतमात्मानं कथयन्ति । अथास्त्यागमाख्यं प्रमाणम् । यथा--" औषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा। यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युच्छ्रितं पुनः।१।" इत्यादि। नैवम् । तस्य पौरुषेयाऽपौरुषेयविकल्पाभ्यां निराकरिष्यमाणत्वात्। और वेदोक्त हिंसाके करनेमें तो हम पुण्यको उपार्जन करने योग्य कोई भी गुण नहीं देखते है । यदि कहो कि यज्ञमें जो ब्राह्मणोंको पुरोडाश ( होम करनेके पश्चात् बचा हुआ द्रव्य ) आदि दिया जाता है; उससे पुण्यकी प्राप्तिरूप गुण है ही । सो नहीं । क्योंकि, पवित्र ऐसा जो सुवर्णआदि द्रव्य है, उसके देनेसे ही पुण्यका उपार्जन हो सकता है । विचारे पशुओंके समूहको मारनेसे उत्पन्न हुए ऐसे मांसका देना तो केवल घृणा ( ग्लानि ) रहितपना ही प्रकट करता है । यदि कहो कि; वेदोक्तरीतिसे l | पशुवध करनेका ब्राह्मणोंको पुरोडाश आदि देनेमात्र ही फल नहीं है, किन्तु भूति ( ऐश्वर्य ) की प्राप्ति आदिक भी फल है; क्योंकि श्रुतिमें कहा है कि-" ऐश्वर्य प्राप्त होनेकी इच्छा रखनेवाला यज्ञमें वायु देवताके अर्थ श्वेत (सफेद ) वर्णके बकरेका || होम करे " इत्यादि । सो यह कहना भी व्यभिचाररूपी पिशाचसे ग्रसित होनेके कारण प्रमाणरहित ही है । क्योंकि; भूतिकी प्राप्ति अन्य २ उपायोंसे भी सिद्ध हो सकती है। यदि कहो कि उस यज्ञमें मारे जानेवाले जो बकरे आदि पशु है; वे मरण करके १. हुतशेषः। - Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादम. रा-जै.शा. ॥८२॥ ॐ परलोकमें (अर्थात् दूसरे भवमें) उत्तमगति (वर्ग) को प्राप्त होते है, यह उन पशुओंके प्रति उपकार होता ही है; तो यह भी कहनेमात्र ही है। क्योंकि, इस कथनमें कोई प्रमाण नहीं है । कारण कि वे मरे हुए पशु उत्तम गतिकी प्राप्ति होनेसे प्रसन्न हो गया है चित्त जिनका ऐसे हो कर अर्थात् हर्षित होकर और वर्गमेंसे आकर किसीको अपने उत्तम गतिको प्राप्ति होनेका कथन नही करते है। यदि कहो कि इस हमारे कथनमें आगमनामक प्रमाण तो है ही है जैसे कि औषधियें, पशु, वृक्ष, तिर्यंच और पक्षी ये सब यदि यज्ञके लिये नाशको प्राप्त होवें तो फिर उत्तम गतिको प्राप्त ५ होते है। १।" इत्यादि और भी आगमके प्रमाण है । सो यह भी न कहना चाहिये । क्योंकि तुम्हारे आगमका पौरुपये (पुरुषका रचा हुआ) तथा अपौरुषेय (किसीका नहीं बनाया हुआ) इन दोनों विकल्पोंसे आगे खंडन किया जावेगा। भावार्थतुम्हारा आगम पौरुषेय भी नहीं सिद्ध होता है और अपौरुषेय भी नहीं सिद्ध होता है; इसकारण उस असिद्ध आगमका प्रमाण यहा माननेयोग्य नहीं है। न च ौतेन विधिना पशुविशसनविधायिनां स्वर्गावाप्तिरुपकार इति वाच्यम् । यदि हि हिंसयाऽपि स्वर्गप्रा स्यात्तर्हि वाढं पिहिता नरकपुरप्रतोल्यः। शौनिकादीनामपि स्वर्गप्राप्तिप्रसङ्गात् । तथा च पठन्ति परमार्षाः-" छित्त्वा पशून् हत्त्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम्। यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते । १।” किंचाऽपरिचिताऽस्पष्टचैतन्याऽनुपकारिपशुहिंसनेनापि यदि त्रिदिवपदवीप्राप्तिस्तदा परिचितस्पष्टचैतन्यपरमोपकारिमातापित्रादिव्यापादनेन यज्ञकारिणामधिकतरपदप्राप्तिः प्रसज्यते । अथ 'अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभावः' इति वचनाद्वैदिकमन्त्रापुणामचिन्त्यप्रभावत्वात् तत्संस्कृतपशुवधे संभवत्येव स्वर्गप्राप्तिः, इतिचेत्-न । इह लोके विवाहगर्भाधानजातक र्मादिषु तन्मन्त्राणां व्यभिचारोपलम्भाददृष्टे स्वर्गादावपि तद्व्यभिचारोऽनुमीयते । दृश्यन्ते हि वेदोक्तमन्त्रसंस्कारविशिष्टेभ्योऽपि विवाहादिभ्योऽनन्तरं वैधव्याल्पायुष्कतादारियाद्युपद्रवविधुराः परःशताः। अपरे च मन्त्रसंस्कार विना कृतेभ्योऽपि तेभ्योऽनन्तरं तद्विपरीताः। अथ तत्र क्रियावैगुण्यं विसंवादहेतुः, इति चेत्-न।संशयानिवृत्तेः। किं तत्रक्रियावैगुण्यात्फले विसंवादः, किं वा मन्त्राणामसामर्थ्यादिति न निश्चयः। तेषां फलेनाविनाभावासिद्धेः। १ साख्याः । ॥८२॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वेदोक्तविधिसे जो पशुओंकी हिंसा करते है, उनको स्वर्गकी प्राप्ति होती है यह उपकार वेदोक्त हिंसासे होता ही है; यह भी न कहना चाहिये । क्योंकि यदि हिंसाके करनेसे भी स्वर्गकी प्राप्ति होवे तो नरकनगरके दरवाजे खूब ढक जावें । भावार्थहिंसाके करनेसे भी जब खर्ग मिलेगा तब नरकमें कोई भी नही जायेगा । और जो कसाई आदि है, उनको भी स्वर्गकी प्राप्तिका होना सिद्ध होगा, जो कि तुमको अभीष्ट नही है । सो ही पारमार्प ( सांख्य ) कहते है कि, – वेदोक्तप्रकारसे यज्ञके स्तभ (खभे) को छेदकर पशुओंको मारकर और रुधिर ( खून ) से पृथ्वी में कादा मचाकर यदि यज्ञके कर्त्ता खर्गमें जावेंगे तो फिर नरकमें कोन जावेगा अर्थात् हिंसाके करनेवाले जब स्वर्ग में जायेंगे तब नरकमें कोई भी नहीं जायेगा । १ । ” और भी विशेषवक्तव्य यह है कि, यदि यज्ञके कर्त्ताओंको — अपरिचित ( बेजान बूझके ) निर्मल ज्ञानको नहीं धारण करनेवाले और जिन्होंने कभी अपना ( यज्ञकर्त्ताका ) उपकार नहीं किया ऐसे पशुओंके मारनेसे भी देवपदकी प्राप्ति होगी तो परिचित ( जन्मसे परिचयमें अर्थात् जानकारीमें आये हुए ) स्पष्ट ( निर्मल अर्थात् अधिक ) ज्ञानके धारक और अपने ( यज्ञकर्त्ताके ) ऊपर अत्यंत उपकार करनेवाले ऐसे जो माता, पिता आदि है, उनका वध करनेसे यज्ञकर्त्ताओंको देवपदसे भी अधिक ऊंचा पद प्राप्त होनेका प्रसंग होगा । यदि कहो कि, “ मणि ( रत्न ), मंत्र और औषधियोंका प्रभाव अचिन्त्य ( विचारमें न आनेवाला अर्थात् अत्यंत अधिक ) है । " इस वचनसे वैदिक (वेदके ) मंत्र अचित्य माहात्म्यके धारक है, इस कारण उन वैदिकमंत्रोंसे सस्कारको प्राप्त हुए पशुके मारनेसे यज्ञकर्त्ताओंके स्वर्गकी प्राप्ति हो ही सकती है । सो नहीं । क्योंकि; इस लोकमें विवाह, जातकर्म, तथा गर्भाधान आदि कर्मों में उन वैदिकमंत्रोंका व्यभिचार देखनेमें आता है; इस कारण नही देखे हुए स्वर्ग आदिमें भी उन मंत्रों के व्यभिचारका अनुमान किया जाता है । क्योंकि वेदोक्तमंत्रोंसे संस्कारको प्राप्तहुए ऐसे भी विवाहादि कर्मोंके होनेके पीछे विधवापन, अल्पआयुका धारक होना तथा दरिद्रताका प्राप्त होना इत्यादि उपद्रवों से दुःखित हजारों नरनारी देखे जाते है । और मंत्रसंस्कार के बिना भी विवाह आदि कर्मोंके करने पीछे हजारों नर नारी उनसे विपरीत अर्थात् सघवापन, पूर्णआयु व संपदाका धारक होना आदि सुखोंसे सुखी देखने में आते है । भावार्थ - जिनके वेदोक्तमंत्रोंसे बाह्रादि कर्म हुए है; वे तो कितने ही दुःखी और जिनके मंत्रोंसे विवाहादि नही हुए ऐसे कितने ही सुखी देखे जाते है । यदि कि; उस मंत्रसंस्कृत विवाहादिकमोंके उत्तमफल न होनेमें क्रियाका वैगुण्य ( फेरफार) अर्थात् जिस विधि ( प्रकार ) से Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाद्वादमं• 11 23 11 वेदोक्तमंत्रोंद्वारा विवाहादिकर्म करने चाहियें; उस विधिसे जो न करना है; वहीं इस विसंवाद ( व्यभिचार ) का कारण है । सो यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि संशय दूर नहीं होता है । भावार्थ - क्या उस मत्रसंस्कृतविवाहादि मौके फलमें क्रिया| वैगुण्यसे विसंवाद है, अथवा उन वेदोक्त मंत्रों में सामर्थ्य के न होनेसे विसंवाद है, यह निश्रय नहीं है । क्योंकि उन मंत्रोंकी फलके साथ व्याप्ति सिद्ध नहीं होती है । अथ यथा युष्मन्मते “ आरोग्गं बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं किंतु " इत्यादीनां वाक्यानां लोकान्तर एव फलमिष्यते एवमस्मदभिमतवेदवाक्यानामपि नेह जन्मनि फलमिति किं न प्रतिपद्यते । अतश्च विवाहादौ नोपलम्भावकाश:, इति चेत् —— अहो वचनवैचित्री । यथा वर्तमानजन्मनि विवाहादिषु प्रयुक्तैर्मन्त्रसंस्कारैरागामिनि जन्मनि तत्फलमेवं द्वितीयादिजन्मान्तरेष्वपि विवाहादीनामेव प्रवृत्तिधर्माणां पुण्यहेतुत्वाङ्गीकारेऽनन्तभवानुसन्धानं प्रम ज्यते । एवं च न कदाचन संसारस्य परिसमाप्तिः । तथा च न कस्यचिदपवर्गप्राप्तिः । इति प्राप्तं भवदभिमतवेदस्य पर्यवसितसंसारवल्लरीमूलकन्दत्यम् । आरोग्यादिप्रार्थना तु अमत्यामृषाभाषापरिणामविशुद्धिकारणत्वान्न दोपाय । तत्र हि भावारोग्यादिकमेव विवक्षितम् । तच्च चातुर्गतिकसंसारलक्षणभावरोगपरिक्षयस्वरूपत्वादुत्तमफलम् । तद्विपया च प्रार्थना कथमित्र विवेकिनामनादरणीया । न च तज्जन्यपरिणामविशुद्धेस्तत्फलं न प्राप्यते । सर्ववादिना भावशुद्धेरपवर्गफलसम्पादनेऽविप्रतिपत्तेरिति । अब यदि ऐसा कहो कि, — जैसे आप ( जैनियों ) के मतं " रोगरहितपनेको, सम्पात्यके लाभको तथा समावि ( रागद्वेषरहितता ) रूप वरको ढेवो । " इत्यादि वाक्योंका परलोक ( परभव ) में ही फल माना गया है, इसी प्रकार हमारे माने हुए वेदके वाक्योंका फल भी परभवमें ही होता है; ऐसा आप क्यों नहीं स्वीकार करते हैं और जब आप वेटके का परभव फ मान लेंगे तो विवाहआदि उपालंभ ( ठपके ) को अवकाश ( स्थान ) नहीं मिलेगा अर्थात् विवाहादि अनिष्ट दूर न होनेमें आप दोष नही दे सकेंगे, तो तुम्हारे वचनोंकी विचित्रतासे हमको आश्चर्य होता है । क्योंकि जैसे तुम इस जन्ममें विवाह आदि कर्मोंमें प्रयोग कियेहुए मंत्रसंस्कारोंसे आगामी जन्ममें उन विवाहादिका फल होना मानते हो, उसी प्रकार यदि तुम दूसरे, तीसरे १. असत्यामृपाभाषा व्यवहारभाषा । रा. जै. शा ॥ ८३ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म आदिमें भी विवाह आदि प्रवृत्ति धर्मोको ही पुण्यके कारण मान लोगे तो अनन्तजन्मोंके अनुसंधान (परंपरा) का प्रसग || होगा। और अनन्त जन्मोंके अनुसंधान होनेसे कभी भी संसारकी समाप्ति न होगी अर्थात् जीवोंके संसारपरिभ्रमण लगा ही । रहेगा । और जब ससारकी समाप्ति न होगी तब किसी जीवको मोक्षकी प्राप्ति भी न होगी । और इस पूर्वोक्त प्रकारसे तुम्हारे धू माने हुए वेदके अंतरहित ऐसी जो संसाररूपी बेल है, उसका मूलकंदपना प्राप्त हुआ। और हमारे मतमें जो आरोग्य आदिकी | IM प्रार्थना है; वह तो असत्यामृषाभाषासे अर्थात् न सच्ची ही और न झूठी ही ऐसी व्यवहारभापाद्वारा परिणामोंकी निर्मलताका कारण है; इस लिये दोषके अर्थ नहीं है । भावार्थ-जैसे जिस घटमें घृत रक्खा हो उस घटको व्यवहारमें घृतघट कहते है, और यह A कहना एक अपेक्षासे असत्य है । क्योंकि घट मृत्तिकाका है न कि घृतका, तथा दूसरी अपेक्षासे सत्य भी है क्योंकि उस घटमें घृतका संबंध है । इसीप्रकार आरोग्यआदिकी प्रार्थना भी श्रीजिनेन्द्र किसीको कुछ नहीं देते हैं; इसकारणसे तो असत्य है और श्रीजिनेन्द्रकी सेवासे आरोग्यादिके देनेवाले शुभ कर्मोंका बंध होता है अतः आरोग्यादिकी प्राप्तिमें श्रीजिनेन्द्र निमित्तकारणरूप है इस अपेक्षासे सत्य भी है । यही सत्यासत्यरूप भाषा व्यवहारभापा कहलाती है और इस व्यवहारभाषाद्वारा आरोग्यादिकी प्रार्थना करनेसे परिणाम निर्मल होते है अतः यह प्रार्थना निर्दोष है । क्योंकि उस आरोग्यादिकी प्रार्थनामें भावोंके आरोग्य आदि ही विवक्षित है । और वह भावारोग्य चार गतियोंके धारक संसाररूप जो भावरोग है, उसके नाशरूप खरूपवाला होनेसे उत्तम || फलका धारक है । और उस उत्तम फलवाले भावारोग्यकी प्राप्तिके विपयमें जो प्रार्थना है वह ज्ञानी जीवोंके अनादर करने योग्य || to कैसे होवे अर्थात् ज्ञानीपुरुष उस भावारोग्यकी प्रार्थनाका आदर ही करते है । क्योंकि वे भावारोग्यकी प्राप्तिके इच्छक हैं । और || 9 भावारोग्यादिकी प्रार्थनासे उत्पन्न हुई भावोंकी निर्मलतासे संसारकी रहितता वा मोक्षकी प्राप्तिरूप फल नहीं मिलता है; ऐसा न K कहना चाहिये । क्योंकि सभी वादी — भावोंकी शुद्धिसे मोक्ष फलकी प्राप्ति होती है ' इस सिद्धान्तमें सहमत है। न च वेदनिवेदिता हिंसा न कुत्सिता । सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्नैरैचिर्मार्गप्रपन्नैर्वेदान्तवादिभिश्च गर्हितत्वात् । तथा y च तत्त्वदर्शिनः पठन्ति-" देवोपहारव्याजेन यज्ञव्याजेन येऽथवा । नन्ति जन्तून् गतघृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिम् ।१।"वेदान्तिका अप्याहुः-" अन्धे तमसि मज्जामः पशुभिर्ये यजामहे । हिंसा नाम भवेद्धर्मो न भूतो न १. संसारवृद्धिहेतोर्यज्ञादिरूपाममार्गाद्विपरीतो यमनियमादिरचिर्मार्गः॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमं. ८४॥ भविष्यति । १ । तथा ' अग्निर्मामेतस्माद्धिंसाकृतादेनसो मुञ्चतु छान्दसत्वान्मोचयतु इत्यर्थः ” इति । व्यासेना- राजै.शा. प्युक्तम्-ज्ञानपालिपरिक्षिप्ते ब्रह्मचर्यदयाम्भसि । स्नात्वातिविमले तीर्थे पापपङ्कापहारिणि । १। ध्यानाग्नौ जीवकुंडस्थे दममारुतदीपिते । असत्कर्मसमितक्षेपैरग्निहोत्रं कुरुत्तमम् । २। कपायपशुभिर्दुष्टै-धर्मकामार्थनाशकैः । शममबहुतैर्यज्ञं विधेहि विहितं बुधैः। ३। प्राणिघातात्तु यो धर्ममीहते मूढमानसः। स वाञ्छति सुधावृष्टिं कृष्णा हिमुखकोटरात् । ४।" इत्यादि। न और वेदोक्तहिंसा निंदनीय नहीं है ऐसा भी न कहना चाहिये । क्योंकि सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानके धारक पुरुषोंने तथा By अर्ची मार्गको खीकार करनेवाले वेदान्तवादियोने उस वेदोक्त हिंसाकी निन्दा की है । सो ही तत्त्वोंके देखने ( जानने ) वाले कहते है कि,-"जो घृणा (ग्लानि ) रहित पुरुप देवताके भेट करनेरूप छलसे अथवा यज्ञ करनेके मिपसे जीवोको मारते है ५ वे घोर दुर्गति (सप्तम नरक आदि ) को गमन करते है। वेदान्तिक भी कहते है कि,-"जो हम पशुओंसे देवादिकोकी पूजा T करें तो अंध तम ( सप्तम नरक अथवा घोर अज्ञानान्धकार ) में डूब जावें । क्योंकि हिसा नामक धर्म न तो कभी हुआ और न 8 कभी होगा।१।" तथा "अमि देवता मुझको इस हिंसाद्वारा किये हुए पापसे मुक्त करो [यहांपर मुञ्चतु यह प्रयोग वेदका है, अतः णिजन्तका अर्थ किया गया है] श्रीव्यासजीने भी कहा है कि,-"ज्ञानरूपी पालि (पाल) पर गिरा हुआ ब्रह्मचर्य और दयारूप है जल जिसमें ऐसे पापरूपी कर्दमको दूर करनेवाले अत्यंत निर्मल तीर्थमें स्नान करके । १। जीवरूपी कुंडमें दमरूपी पवनसे दीपित ऐसी जो ध्यानरूपी अग्नि है, उसमें अशुभकर्मोरूपी काष्ठको गेरकर उत्तम अग्निहोत्रको करो।२। धर्म, काम और अर्थको छ नष्ट करनेवाले, शमरूपी मंत्रसे आहूतिको प्राप्त हुए ऐसे दुष्ट कषायरूपी पशुओंसे ज्ञानवानोंद्वारा किये हुए यज्ञको करो । ३ । जो ४ मूर्खचित्तका धारक मनुष्य जीवोंके मारनेसे धर्मकी प्राप्तिकी इच्छा करता है, वह काले सर्पके मुखरूपी कोटर ( वृक्षके छिद्र) से अमृतकी वर्षाको चाहता है भावार्थ-जीवोंके मारनेसे धर्म कभी भी नहीं हो सकता है।४।" इत्यादि । यच्च याज्ञिकानां लोकपूज्यत्वोपलम्भादित्युक्तं इदमप्यसारम् । अवुधा एव हि पूजयन्ति तान्न तु विविक्तवु- ॥८४॥ द्धयः। अवुधपूज्यता तु न प्रमाणम् । तस्याः सारमेयादिष्वप्युपलंभात् । यदप्यभिहितं देवतातिथिपितृप्रीतिसंपादकत्वाद्वेदविहिता हिंसा न दोषायेति तदपि विवितथम् । यतो देवानां संकल्पमात्रोपनताभिमताहारपुद्गलर Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सास्वादसुहितानां वैक्रियशरीरत्वाद् युष्मदावर्जितजुगुप्सितपशुमांसाद्याहुतिप्रगृहीताविच्छैव दुःसंभवा । औदामारिकशरीरिणामेव तदुपादानयोग्यत्वात् । प्रक्षेपाहारस्वीकारे च देवानां मन्त्रमयदेहत्वाभ्युपगमवाधः। न च तेषांला सामन्त्रमयदेहत्वं भवत्पक्षे न सिद्धम् । “ चतुर्थ्यन्तपदमेव देवता" इति जैमिनिवचनप्रामाण्यात् । तथा च मृगेन्द्रः। " शब्देतरत्वे युगपद्भिन्नदेशेषु यष्ट्रषु । न सा प्रयाति सांनिध्यं मूर्तत्वादस्मदादिवत् ॥१॥" सेति देवता। का और जो तुमने यह कहा है कि; यज्ञके कर्ता पुरुषोंको लोकपूज्य देखते है; इसकारण वेदोक्त हिंसा निंदित नहीं है; सो यही कथन भी असार (व्यर्थ) है; क्योंकि; मूर्ख मनुष्य ही उन यज्ञकर्ताओंकी पूजा करते हैं किंतु निर्मल बुद्धिके धारक उनकी पूजा नही | करते हैं । और मूखोंसे पूज्यपना प्रमाण करने योग्य नहीं है । क्योंकि वह मूखोंसे पूज्यपना श्वान ( कुत्ते ) आदिमें भी देखा l जाता है अर्थात् मूर्खजन श्वान वगैरह पशुओंकी भी पूजा किया करते हैं। और जो तुमने कहा है कि; देवता, अतिथि तथा पितृ जनोंकी प्रीतिको उत्पन्न करनेके कारण वेदोक्त हिंसा दोषके लिये नहीं है; सो यह कहना भी मिथ्या है। क्योंकि संकल्प मात्र ( मनमें भोजन करनेकी इच्छा ) करनेसे ही प्राप्त हुए जो मनोवांछित आहारके पुद्गल हैं; उनके रसका आस्वादन करनेसे तृप्त होनेवाले देवोंके वैक्रिय शरीर होनेके कारण तुम्हारी दी हुई जो ग्लानियुक्त पशुमांस आदिकी आहुति है; उसको ग्रहण करनेमें इच्छाका होना ही कठिन है। क्योंकि जो औदारिक शरीरके धारक जीव है; वे ही उस तुम्हारी दी हुई आहुतिको ग्रहण करनेकी योग्यता रखते हैं। और यदि तुम देवोंके दिये हुए आहारका खीकार करना-10 पना मानोगे तो ' देव मन्त्रमयशरीरके धारक है' इस तुम्हारी स्वीकारतामें दोष आवेगा । और देवोंके मन्त्रमय शरीरका होना तुम्हारे मतमें असिद्ध नहीं है। क्योंकि; 'देवताओंके अर्थ चतुर्थीविभक्तिसहित पदका ही प्रयोग करना चाहिये' ऐसा जैमिनिऋषि-|| का वचन प्रमाण करने योग्य है । सो ही मृगेन्द्र नामक एक तुम्हारा आचार्य कहता है कि-"यदि देवता शब्दमय ( मन्त्रमय ) शरीरसे भिन्न शरीरका धारक होवे तो जैसे हम तुम मूर्त शरीरके धारक होनेसे एक ही समयमें भिन्न २ स्थानोंमें उपस्थित ) ( विद्यमान ) नहीं हो सकते है; उसी प्रकार वह देव भी मूर्त देहको धारण करनेवाला होनेसे एक ही समयमें भिन्न २ १ दत्त-१२ यदि शब्देतरत्वं मन्त्रमयस्वरूपादपरस्वरूपत्वं स्याडेहस्वरूपं भवति तदा भिन्नदेशस्थायिपु याज्ञिकेपु कथं सानिध्यं कुरुते । मूर्त्तत्वात सर्वत्र सांनिध्यस्याऽप्रसङ्गः॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. स्थानोंमें पूजा करनेवाले पुरुषकी समीपताको प्राप्त न हो। (यहां 'सा' इस शब्दसे देवताका ग्रहण करना चाहिये.) भावार्थयदि देव मंत्रमय देहके धारक न होवें तो एक ही समयमें अनेक स्थानोमें पूजा करनेवालोके समीप न जा सकें, इसलिये देवन मन्त्रमय शरीरके धारक ही है। __ हयमानस्य च वस्तुनो भस्मीभावमात्रोपलम्भात्तदुपभोगजनिता देवानां प्रीतिः प्रलापमात्रम् । अपि च योऽयं त्रेताग्निः स त्रयस्त्रिंशत्कोटिदेवतानां मुखम् । “अग्निमुखा वै देवाः” इति श्रुतेः। ततश्चोत्तममध्यमाऽधमदेवानामेकेनैव मुखेन भुञ्जानानामन्योन्योच्छिष्टभुक्तिप्रसङ्गः । तथा च ते तुरुष्केभ्योऽप्यतिरिच्यन्ते । तेऽपि तावदेक वामत्रे भुञ्जते । न पुनरेकेनैव वदनेन । किञ्च एकस्मिन् वपुपि वदनबाहुल्यं वचन श्रूयते । यत्पुनरनेकशरीरेष्वेके मुखमिति महदाश्चर्यम् । सर्वेषां च देवानामेकस्मिन्नेव मुखेऽङ्गीकृते यदा केनचिदेको देवः पूजादिनाऽऽराद्धोअन्यश्च निन्दादिना विराद्धस्ततश्चैकेनैव मुखेन युगपदनुग्रहनिग्रहवाक्योच्चारणसंकरः प्रसज्येत । अन्यच्च मुखं देहस्य नवमो भागस्तदपि येषां दाहात्मकं तेषामेकैकशः सकलदेहस्य दाहात्मकत्वं त्रिभुवनभस्मीकरणपर्यवसित-) मेव संभाव्यत इत्यलमतिचर्चया। प और होम किये जातेहुए पदार्थका केवल भस्म होना ही देखा जाता है, इसकारण उस होम किये हुए पदार्थके उपभोगसे KG देवोंके प्रीति उत्पन्न होती है, यह तुम्हारा कहना प्रलाप ( बकवाद ) करने रूपही है। और “देव अग्निरूप मुखके ही धारक है है अर्थात् देवोंका अग्नि ही मुख है" इस श्रुतिके वचनसे जो यह त्रेताग्नि ( दक्षिणाग्नि, आहवनीयाग्नि तथा गाहपत्याग्नि नामक तीनों अग्नियोंका समुदाय ) है, वह तेंतीस ३३ करोड़ देवोंका मुख है और जब त्रेतानि ही सब देवोंका मुख हुआ, तब एकही ' के मुखसे भोजन करते हुए उन उत्तम, मध्यम तथा जघन्य श्रेणीके सभी देवोंके परस्पर उच्छिष्ट (जूठन ) खानेका प्रसङ्ग हुआ और ऐसा होनेपर वे देव तुरुप्कों ( मुसलमानों ) से भी अधिक नीच हुए। क्योंकि, वे तुरुप्क तो एक ही पात्रमें भोजन करते * है और एकही मुखसे भोजन नहीं करते है। और भी विशेप बक्तव्य यह है कि एक शरीरमें बहुतसे मुखोंका होना किसी २ में ॥८५॥ y] अर्थात् ब्रह्मा, खामी कार्तिकेय तथा रावण आदि व्यक्तिमें सुना जाता है और जो तुम अनेक शरीरोंमें एक मुखका होना कहते हो, यह बड़ा आश्चर्य है । और यदि सब देवोंके एकही मुखका होना स्वीकार करोगे तो जब कोई पुरुष एक देवको Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो पूजा आदिके करनेसे प्रसन्न करेगा और किसी दूसरे देवको निन्दाआदिके करनेसे अप्रसन्न ( कुपित ) करेगा तब एक ही | समयमें एकही मुखसे अनुग्रह तथा निग्रहरूप वाक्यके कहने में संकरदोषका प्रसङ्ग होगा अर्थात् प्रसन्न हुआ देव जिस समय | जिस मुखद्वारा उस पुरुष के प्रति अनुग्रह - वचन कहना चाहेगा उसी समय कुपित हुआ दूसरा देव उस पुरुषके प्रति निग्रह ( तिरस्कार ) रूप वचन कहना चाहेगा और ऐसी दशामें गड़बड मच जावेगी ; जोकि ; तुमको भी अभीष्ट नही है । और भी विशेष वक्तव्य यह है कि, मुख शरीरका नवम ( ९ वां) भाग है, वह भी जब देवोंके दाह स्वरूप है अर्थात् भस्म करनेवाला है; तब उन सब तैंतीस करोड़ देवोंमेंसे जो प्रत्येक देवका पूर्ण शरीर है वह भी यदि दाहखरूप हो जायगा; तो वह सब देवोंके सब शरीरोंका दाहरूप होना तीनों लोकोके भस्म करने में समर्थ ही होगा; ऐसी संभावना की जाती है । इसप्रकार इस विषय में बहुत कुछ चर्चा की जा सकती है; परन्तु उसको यहांही समाप्त करते है । यश्च कारीरीयज्ञादौ वृष्ट्यादिफला व्यभिचारस्तत्रीणितदेवतानुग्रहहेतुक उक्तः । सोऽप्यनैकान्तिकः क्वचिद् व्यभिचारस्यापि दर्शनात् । यत्रापि न व्यभिचारस्तत्रापि न त्वदाहिताहुतिभोजनजन्मा तदनुग्रहः । किंतु स | देवताविशेषोऽतिशयज्ञानी स्वोदेशनिर्वर्तितं पूजोपचारं यदा स्वस्थानावस्थितः सन् जानीते तदा तत्कर्त्तारं प्रति प्रसन्नचेतोवृत्तिस्तत्तत्कार्याणीच्छावशात्साधयति । अनुपयोगादिना पुनरजानानो जानानोऽपि वा पूजाकर्तुरभाग्य| सहकृतः सन्न साधयति । द्रव्यक्षेत्रकालभावादिसहकारिसाचिव्यापेक्षस्यैव कार्योत्पादस्योपलम्भात् । स च पूजोपचारः पशुविशसनव्यतिरिक्तैः प्रकारान्तरैरपि सुकरस्तत्किमनया पापैकफलया शौनिकवृत्त्या । और "जो कारीरी यज्ञादिके करने से वृष्टि आदिरूप फलमें व्यभिचार नहीं होता है अर्थात् कारीरी यज्ञादिके करनेसे वृष्टि आदि फल नियमसे होते ही हैं, उसमें उन यज्ञ आदिसे प्रसन्न किये हुए देवताओंका अनुग्रह ही कारण है " यह जो तुमने पहले कहा है, वह कहना भी अनैकान्तिक है क्योंकि, किसी २ स्थानमें यज्ञादिके करनेसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति न होनेरूप व्यभिचार भी देखा जाता है । और जहां व्यभिचार नही होता है अर्थात् यज्ञादिके करनेसे अभीष्ट फल मिलता ही है; वहा भी तुम्हारी दी | हुई आहुतिके भोजन करनेसे उन देवोंका अनुग्रह नही हुआ है; किन्तु वह देवताविशेष अतिशय ( तुम्हारी अपेक्षा अधिक ) ज्ञानका धारक है अर्थात् अवधिज्ञानी है; इसकारण अपने स्थानमें स्थित हुआ ही वह देव जब अपने उद्देश्यसे किये हुए पूजा Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. ॥८६॥ सत्कारको जानता है तब उस पूजा सत्कारको करनेवालेके प्रति प्रसन्नचित्त होकर उस आराधक पुरुषके उन २ अभीष्ट कार्योंको अपनी इच्छाके वशसे सिद्ध कर देता है। और जब उपयोग (पूजाकी ओर ध्यान व खयाल ) आदिके न होनेसे उस अपने उद्देश्यसे की हुई पूजाको नहीं जानता है; अथवा जानता हुआ भी पूजा करनेवालेके अभाग्यसे सहकृत होता है। तब वह देव । उस पूजकके कार्यको नहीं सिद्ध करता है; क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावआदि सहकारी कारणोंकी अपेक्षाकरके ही कार्यकी y उत्पत्ति होती है, ऐसा देखा जाता है । और वह पूजोपचार पशुओंको मारनेके विना जो अन्य २ प्रकार है; उनसे भी सुखपूर्वक (सुगमतासे) होता है; फिर इस पापरूप ही एक फलको धारण करनेवाली कसाई पनेकी जीविकासे क्या प्रयोजन है ? भावार्थ-देवोंकी पूजा अक्षत पुष्प नैवेद्यादि द्रव्योंके समर्पण करने आदिसे भी होती है अतः पूजाके अर्थ पशुओंकी हिंसा करना वृथा है। यच्च छगलजाङ्गलहोमात्परराष्ट्रवशीकृतिसिद्ध्या देव्याः परितोषानुमानं तत्र कः किमाह । कासांचित् क्षुद्रदेवतानां तथैव प्रत्यङ्गीकारात् । केवलं तत्रापि तद्वस्तुदर्शनज्ञानादिनैव परितोपो न पुनस्तदूभुक्त्या । निम्बपत्रकटुकतैलारनालधूमांशादीनां हूयमानद्रव्याणामपि तद्भोज्यत्वप्रसङ्गात् । परमार्थतस्तु तत्तत्सहकारिसमवधानसचि-१ वाराधकानां भक्तिरेव तत्तत्फलं जनयति । अचेतने चिन्तामण्यादौ तथा दर्शनात् । अतिथीनां तु प्रीतिः संस्कारसंपन्नपक्वान्नादिनापि साध्या । तदर्थ महोक्षमहाजादिप्रकल्पनं निर्विवेकितामेव ख्यापयति । ___और जो तुमने यह कहा है कि,-" वकरा और वनके पशुओंका होम करनेसे पर राज्यका वशीकरण सिद्ध हो जाता है। इस कारणसे देवीकी प्रसन्नताका अनुमान होता है अर्थात् देवीके आगे वकराआदिके मारनेसे दूसरोंका राज्य अपने वशमें हो। जाता है; अतः अनुमान किया जाता है कि बकरके चढ़ानेसे देवी प्रसन्न होती है।" तो इस कथनमें कौन क्या कहता है? अर्थात् हम (जैनी) तुम्हारे इस कथनको असत्य नहीं कहते है, क्योंकि कितनीही नीच देवियें बकरे आदिके चढ़ानेसे ही। यूप्रसन्नताको खीकार करती है। परन्तु उस हिंसामें भी केवल उस वस्तु (बकरके मांसादि पदार्थ) के देखने अथवा जाननेआदिसे ही M देवीकी प्रसन्नता होती है और उस मांसादिके भोजन करनेसे देवी प्रसन्न नहीं होती है, क्योंकि, यदि मांसादिके खानेसे देवी है १, प्रसन्न होवे तो नीमके पत्ते, कड़वा तैल, कांजिक (काँजिया) और धूमांश (धूमसा ) आदि जो होमे जाते हुए पदार्थ है । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी भी भोज्यताका प्रसंग देवीको होगा । भावार्थ-यदि देवी मांसका भोजन करती है। ऐसा मानोगे तो देवीके निंबपत्रादिका भोजन करना भी सिद्ध होगा, जो कि तुमको अभीष्ट नहीं है । परमार्थसे (यथार्थमें) तो उन २ सहकारी कारणोंके संयोगकी सहायताको धारण करनेवाले जो आराधक पुरुष हैं उनकी भक्ति ही उस २ अभीष्ट फलको उत्पन्न करती है। क्योंकि,अचेतन चिन्तामणि रत्नादिमें ऐसा देखा जाता है। भावार्थ-जैसे चिन्तामणि रत्र अचेतन होनेसे किसीपर तुष्ट तथा रुष्ट नहीं होता है; उसी प्रकार देवी भी किसीपर तुष्ट, रुष्ट नहीं होती है। किन्तु उस आराधक पुरुषकी भक्ति ही अभीष्ट फल दे देती है। और जो अतिथियोंकी प्रीति है; वह तो संस्कारयुक्त ( मन्त्रादिके संस्कारसहित ) जो पक्वान्न आदि पदार्थ है; उनसे भी सिद्ध होती है; उस अतिथिप्रीतिके अर्थ महोक्ष ( बड़ा बैल ) और बड़े बकरे आदिका मारना केवल तुम्हारी मूर्ख-IIM ताको ही कहता है। पितॄणां पुनः प्रीतिरनैकान्तिकी । श्राद्धादिविधानेनापि भूयसां संतानवृद्धरनुपलव्धेः । तदविधानेऽपि च कषाचिद्गदेभशूकराजादीनामिव सुतरां तद्दर्शनात् । ततश्च श्राद्धादिविधानं मुग्धजनविप्रतारणमात्रफलमेव । ये||2 हि लोकान्तरं प्राप्तास्ते तावत्स्वकृतसुकृतदुष्कृतकर्मानुसारेण सुरनारकादिगतिषु सुखमसुखं वा भुञ्जाना एवासते । ते कथमिव तनयादिभिरावर्जितं पिण्डमुपभोक्तुं स्पृहयालवोऽपि स्युः । तथा च युष्मद्यूथिनः पठन्ति-"मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्। तन्निर्वाणप्रदीपस्य स्नेहः संवर्द्धयेच्छिखाम् ॥१॥” इति । कथं च श्राद्ध विधानाधर्जितं पुण्यं तेषां समीपमुपैतु तस्य तदन्यकृतत्वात् जडत्वान्निश्चरणत्वाच्च । । और जो तुमने श्राद्धआदिके करनेसे पितृजनोंके प्रीतिका उत्पन्न होना कहा है; वह भी अनैकान्तिक ( सव्यभिचार ) दोषसे | न दूषित है । क्योंकि;-बहुतसे पुरुष श्राद्धआदि करते हैं; तोभी उनके करनेसे उनके संतानकी वृद्धि नहीं देखी जाती है || || अर्थात् श्राद्धादिके करनेपर भी कितनेही लोग संतानरहित ही रह जाते हैं। और श्राद्धादिके न करनेपर भी कितनेही पुरुषोंके गधा, सूअर, तथा बकरेआदिके समान अतिशयरूपसे (बहुतसी ) सन्तानकी वृद्धि देखते हैं । इस कारणसे सिद्ध हुआ कि, जो श्राद्धआदिका करना है। वह भोले मनुष्योंको ठगनेरूप ही फलका धारक है। क्योंकि, जो पितृजन परलोकको चले गये है, वे तो अपने कियेहुए पुण्य तथा पापकर्मके अनुसार देवगति तथा नारकगति आदिमें सुख अथवा दुःखको भोगते हुए ही Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ८७ ॥ वे नरकमे रहते हैं । भावार्थ — जिन्होंने पुण्य किया है; वे खर्गमें सुखको ही भोगा करते हैं और जिन्होंने पाप किया दुःख ही भोगा करते है । इसकारण वे पितृजन, पुत्रादिकोंद्वारा दिये हुए पिंडका भोजन करनेके लिये इच्छा के धारक भी कैसे हो सकते हैं अर्थात् नहीं हो सकते हैं । सो ही तुम्हारे साथी कहते है कि - "यदि श्राद्ध मरे हुए जीवोंकी भी तृप्तिका कारण है तो तैल भी बुझे हुए दीपककी शिखाको बढ़ावे” । भावार्थ — जैसे दीपकके बुझ जानेपर तैल उस दीपककी शिखाको नही बढ़ाता है, उसीप्रकार श्राद्ध भी मृतक जीवोंको तृप्त नही करता है । और श्राद्ध आदि करनेसे प्राप्त किया हुआ जो पुण्य है; वह उन मृत पितृजनोंके समीप कैसे जावे, क्योंकि वह पुण्य उनसे भिन्न जो पुत्रादिक है उनसे किया हुआ है, जडरूप तथा चरणों (पगों) से रहित है । अथ तेषामुद्देशेन श्राद्धादिविधानेऽपि पुण्यं दातुरेव तनयादेः स्यादिति चेत् तन्न । तेन तज्जन्यपुण्यस्य स्वाध्यवसायादुत्तारितत्वात् । एवं च तत्पुण्यं नैकतरस्यापि इति विचाल एव विलीनं त्रिशंकुज्ञातेन किन्तु पापानुबन्धिपुण्यत्वात् तत्त्वतः पापमेव । अथ विप्रोपभुक्तं तेभ्य उपतिष्ठत इति चेत्कइवैतत्प्रत्येतु । विप्राणामेत्र मेदुरोदरतादर्शनात् । तद्वपुषि च तेषां संक्रमः श्रद्धातुमपि न शक्यते । भोजनावसरे तत्संक्रमलिङ्गस्य कस्याप्यनवलोकनात्, विप्राणामेव च तृप्तेः साक्षात्करणात् । यदि परं त एव स्थूलकवलैराकुलतरमतिगार्थ्याद्भक्षयन्तः प्रेतप्रायाः । इति मुधैव श्राद्धादिविधानम् । यदपि च गया श्राद्धादियाचनमुपलभ्यते तदपि तादृशविप्रलम्भकविभङ्गज्ञानिव्यन्तरादिकृतमेव निश्चेयम् । उससे दान देनेवाले पुत्रादिको ही अब यदि ऐसा कहो कि; “ उन पितृजनोंके उद्देशसे जो श्राद्ध आदि किया जाता पुण्य होता है । भावार्थ — पुत्र जो पिताके उद्देशसे श्राद्ध करता है; उस श्राद्धसे उत्पन्न हुआ पुण्य यदि उस पुत्रके पिताको प्राप्त नही होता है, तो न हो, उस पुत्रको तो होताही है । सो नहीं । क्योंकि, उस पुत्रने उस श्राद्ध आदिके करनेसे उत्पन्न हुए पुण्यको अपने अध्यवसायसे उतार दिया है। भावार्थ — पुत्रने उस पुण्यसे अपना कुछ भी सम्बन्ध न रखकर श्राद्धआदि १ त्रिशकुनीम राजा वशिष्ठशापाच्चण्डालो जातो विश्वामित्रं पुरोधाय कृतक्रतुस्त्यक्तभूतल शक्रकोपेन स्वर्गान्निवर्तितोऽन्तराल एवं स्थित । तस्मान्न चौरपि न भूरपि तस्योपभुक्त्यै तद्वत् ॥ रा. जै.शा. ॥ ८७ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 किया है, अतः वह पुत्र उस पुण्यका भागी नहीं हो सकता है । और ऐसा होनेपर वह पुण्य पिता और पुत्र इन दोनोमेंसे किसी एकको भी न हुआ, त्रिशंकुराजाके दृष्टान्तसे बीचमें ही नष्ट होगया। भावार्थ-जैसे-त्रिशंकुनामक राजा वशिष्ठ ऋपिके शापसे चांडाल होगया और विश्वामित्रजीकी सहायतासे यज्ञ करके पृथ्वीको छोड़कर स्वर्गमें जाने लगा परन्तु इन्द्रने कुपित ल होकर उसको खर्गमें नहीं आने दिया, तब वह त्रिशंकु पृथ्वी और खर्ग इन दोनोंके वीचमें ही लटकता रहगया, यह तुम्हारे पुराणोंकी कथा है; उसी प्रकार वह श्राद्धसे उत्पन्न हुआ पुण्य पूर्वोक्त प्रकारसे पिता और पुत्र इन दोनोंमेंसे किसीको भी प्राप्त न होकर बीचमें ही रह गया । और भी विशेष यह है कि, वह श्राद्ध आदिसे उत्पन्न हुआ पुण्य पापको | उत्पन्न करता है अर्थात् अपना फल देकर पश्चात् पापमें प्रवृत्ति करता है अतः यथार्थमें वह पुण्य भी पापरूप ही है । अब यदि यह कहो कि,-"ब्राह्मणोंकरके खाया हुआ अन्न उनके अर्थ प्राप्त होता है । तो इस तुम्हारे कथनकी कौन प्रतीति करे। क्योंकि, उस भोजनसे केवल ब्राह्मणोंके उदरका ही मोटा होना देखते हैं । और 'उन ब्राह्मणोंके शरीरमें उन पितृजनोंका | प्रवेश होता है । इस कथनका तो श्रद्धान भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि भोजनके समयमें अर्थात् जब ब्राह्मणोंको भोजन कराया जाता है। उस समय ब्राह्मणोंके शरीरमें पितजनोंके प्रवेशको सिद्ध करनेवाला कोई चिन्ह देखने में नहीं आता। है तथा ब्राह्मणोंकी ही तृप्ति प्रत्यक्षमें देखी जाती है । और आकुलतापूर्वक अत्यन्त लोलुपतासे बड़े २ ग्रासोंद्वारा उस भोजनको खाते हुए वे ब्राह्मण ही प्रेतोंके समान प्रतीत होते हैं । इसकारण श्राद्धादिका करना वृथा ही है। और जो गयाश्राद्ध आदिकी याचना देखी जाती है अर्थात् लोकमें जो कितने ही पितृजन पुत्रादिके शरीरमें प्रविष्ट होकर पुत्रादिकोंको गयाश्राद्ध आदि करने के लिये कहते हैं; वह भी उसी प्रकारके जो धोखा देनेवाले और विभङ्गज्ञानके धारक व्यन्तर ( भूत पिशाच ) आदि नीच देव है; उनका किया हुआ ही समझना चाहिये । यदप्युदितमागमश्चात्र प्रमाणम् । तदप्यप्रमाणम् । स हि पौरुषेयो वा स्यात् , अपौरुपेयो वा । पौरुषेयश्चेत् | सर्वज्ञकृतः, तदितरकृतो वा । आद्यपक्षे युष्मन्मतव्याहतिः। तथा च भवसिद्धान्तः-" अतीन्द्रियाणामर्थानां साक्षाद्रष्टा न विद्यते । नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो यथार्थत्वविनिश्चयः ॥१॥” द्वितीयपक्षे तु तत्र दोपवत्कर्तृत्वेनाऽनाश्वासप्रसङ्गः । अपौरुषेयश्चेत् न संभवत्येव । स्वरूपनिराकरणात् तुरङ्गशृङ्गवत् । तथाहि "उक्तिर्वचनमु Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमच्य ते” इति चेति पुरुषक्रियानुगत रूपमस्य । एतक्रियाऽभावे कथं भवितुमर्हति । न चैतत्केवलं क्वचिद्ध्वनदुप- राजै.शा. लभ्यते । उपलब्धावप्यदृश्यवक्राशङ्कासंभवात् । तस्मात् वचनं तत्पौरुषेयमेव । वर्णात्मकत्वात्कुमारसंभवादि॥८८ वचनवत् । वचनात्मकश्च वेदः । तथाचाहुः।-"ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गों वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च । पुंसश्च ताल्वादिरतः कथं स्यादपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः।१" इति । &ा और जो तुमने " हिंसाके करनेमें आगम प्रमाण है" ऐसा कहा है । सो वह तुम्हारा आगम भी हमारे प्रमाणभूत नहीं है । क्योंकि, वह आगम पौरुषेय ( किसी पुरुषका रचा हुआ ) है, वा अपौरुषेय (किसी पुरुषका नहीं रचा हुआ ) है ? यदि | कहो कि;-आगम पौरुषेय है, तो हम प्रश्न करते है कि, वह आगम सर्वज्ञ पुरुषकृत है, अथवा असर्वज्ञ पुरुषकृत है ? यदि उत्तर दो कि, सर्वज्ञ पुरुषकृत है; तब तो " इन्द्रियोंके अगोचर पदार्थोंको प्रत्यक्षमें देखनेवाला कोई नहीं है; अतः नित्य ऐसे जो वेदके वाक्य हैं; उनहीसे उन अतींद्रियपदार्थोंकी यथार्थताका ( अस्तित्व आदि स्वरूपका ) निश्चय होता है। १।" यह जो तुम्हारा सिद्धांत ( मत ) है; उसका खंडन होगा। यदि कहो कि, वह आगम असर्वज्ञ पुरुषसे रचा हुआ है तो वह असर्वज्ञ पुरुष दोषी है अर्थात् असर्वज्ञपनेरूप दोषका धारक है और वह आगम उससे किया हुआ है; अतः दोषीकृत आगममें अविश्वासका प्रसंग होगा। भावार्थ-दोषीकृत आगममें विश्वासका करना हम और तुम दोनोंको ही अभीष्ट नहीं है. यदि कहो कि वह आगम अपौरुषेय है, तो जैसे-खरूपरहित होनेसे घोड़ेका सींग असत् है; उसी प्रकार खरूपका | निराकरण होनेसे वह आगम अपौरुषेय हो ही नहीं सकता है। सो ही दिखलाते है कि, जो उक्ति अर्थात् बोलना है; उसको वचन कहते हैं. इसकारण वचनका स्वरूप पुरुषक्रियासे युक्त है; अतः वह वचन पुरुषक्रियाके बिना कैसे हो सकता है। भावार्थ-जब मनुष्य वचनके उच्चारण करनेमें प्रवृत्त होवे; तभी वचन उत्पन्न हो सकता है । और पुरुषक्रियारहित यह केवल वचन कहीं भी शब्द करता हुआ नहीं प्राप्त होता है। और यदि कही पुरुषक्रियाके विना शब्द करता हुआ यह वचन मिल जावे तो भी उस स्थानमें अदृश्य वक्ताकी अर्थात् अपने माहात्म्यसे हमारे तुम्हारे देखनेमें नहीं आनेवाला ऐसा जो वचनको ॥८८॥ कहनेवाला पुरुष है, उसकी आशंका हो सकती है। इसकारण अनुमान किया जाता है कि,-जो वचन है, वह पौरुषेय ही ) है। अक्षररूप होनेसे कुमारसंभव आदि ग्रन्थोंके वचनोंकी समान । भावार्थ-जैसे-अक्षररूप होनेसे कुमारसंभव काव्य Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिके वचन पौरुषेय है; उसी प्रकार सब वचन पौरुषेय है । और जो वेद है; वह वचनरूप है, अतः वेद भी पौरुषेय ही है । सो ही आचायोंने कहा है कि, " वर्णोंका समूह निश्चय करके तालु आदि स्थानोंसे उत्पन्न होता है और वेद वर्णों| ( अक्षरों ) स्वरूप है; यह भी निश्चित है, और वे तालु आदि स्थान पुरुषके होते है; अत: यह तुम्हारा आगम (वेद) अपौरुषेय है यह प्रतीति कैसे होवे अर्थात् नहीं हो सकती है । १ । " श्रुतेरपौरुषेयत्वमुररीकृत्यापि तावद्भवद्भिरपि तदर्थव्याख्यानं पौरुषेयमेवाङ्गीक्रियते । अन्यथाऽग्निहोत्रं जुहु - यात्स्वर्गकाम इत्यत्र श्वमांसं भक्षयेदिति किं नार्थो नियामकाऽभावात् । ततो वरं सूत्रमपि पौरुषेयमभ्युपगतम् । अस्तु वाऽपौरुषेयस्तथापि तस्य न प्रामाण्यम् । आप्तपुरुषाधीना हि वाचां प्रमाणतेति । एवं च तस्याऽप्रामाण्ये तदुक्तस्तदनुपातिस्मृतिप्रतिपादितश्च हिंसात्मको यागश्राद्धादिविधिः प्रामाण्यविधुर एवेति । और तुमने भी श्रुति (वेदकी ऋचा ) को अपौरुषेय मान करके उस श्रुतिके अर्थके व्याख्यानको पौरुषेय ही स्वीकार किया है । यदि व्याख्यानको पौरुषेय न मानो तो 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः ' इस श्रुतिका जो |' स्वर्गकी इच्छा करनेवाला अग्निहोत्र नामक आहुति दे' ऐसा प्रसिद्ध अर्थ है; उसके स्थान में 'स्वर्गका इच्छक अमिहा ( कुत्ते ) के उत्र ( मांस ) की आहुति देवे, यह अर्थ भी क्यों नहीं होवे । क्योंकि, - ' इस शब्दका यही अर्थ करो, दूसरा अर्थ मत करो' इस विषय में कोई नियामक नही है । इसकारण जैसे- तुम श्रुतिके अर्थको पुरुषकृत मानते हो; उसी प्रकार श्रुतिको भी पुरुषकृत ही मानलो तो अच्छा है । अथवा चाहे तुम आगमको अपौरुषेय ही मानो; तथापि उस अपौरुषेय आगमकी | प्रमाणता नही है । क्योंकि; - वचनोंकी प्रमाणता आप्त ( यथार्थवक्ता ) पुरुषके आधीन है अर्थात् लोकमें यथार्थवादी पुरुषके कहे हुए वचन ही प्रमाणभूत माने जाते हैं । अतः अपौरुषेय आगम आप्तकृत न होनेसे प्रमाण नही है । और इसप्रकार उस तुम्हारे आगमकी अप्रमाणता सिद्ध होनेपर उस आगमका कहा हुआ और उस आगमका अनुसरण करनेवाली ( वेदोंके अनुकूल उपदेश देनेवाली ) स्मृतियोंद्वारा कहा हुआ जो हिंसारूप यागश्राद्ध आदिका करना है; वह प्रमाणरहित ही है । अथ योऽयं 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि ' इत्यादिना हिंसानिषेधः स औत्सर्गिको मार्गः । सामान्यतो विधि - रित्यर्थः । वेदविहिता तु हिंसा अपवादपदं विशेषतो विधिरित्यर्थः । ततश्चाऽपवादेनोत्सर्गस्य वाधितत्वान्न श्रौतो Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ८९ ॥ हिंसांविधिर्दोषाय । " उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिर्वलीयान" इति न्यायात् । भवतामपि हि न खल्वेकान्तेन हिंसानिषेधः। तत्तत्कारणे जाते पृथिव्यादिप्रतिसेवनानामनुज्ञातत्वाद् ग्लानाद्यसंस्तरे आंधाकर्मादिग्रहणभणनाच्च । अपवादपदं च याज्ञिकी हिंसा देवतादिप्रीतेः पुष्टालम्बनत्वात् । इति परमाशङ्कय स्तुतिंकार आह-नोत्सृष्टमित्यादि । ) शंका - जो यह " न हिंस्यात् सर्वभूतानि " अर्थात् 'सब जीवोंकी हिंसा मत करो।' इत्यादि वचनों से हिंसाका निषेध है, वह उत्सर्गका मार्ग है अर्थात् सामान्य प्रकारसे हिसा न करनेका उपदेश है । और जो वेदोक्त हिंसा है; वह अपवादका मार्ग है अर्थात् विशेष प्रकारसे हिंसा करनेका उपदेश है । और अपवाद के उपदेशसे उत्सर्गका उपदेश बाधित होता है; अतः वेदोक्त हिंसाका विधान दोषके अर्थ नही है अर्थात् आपने जो पहले एक वाक्यसे हिंसाका निषेध और दूसरे वाक्यसे हिंसाका विधान करने से हमारे पक्षमें स्ववचनविरोध नामक दोष दिया था; वह दोष हमारे पक्षमें नही हो सकता है । क्योंकि उत्सर्गविधि और अपवादविधि इन दोनोंमेंसे अपवादविधि बलवान् होतीं है; ऐसा न्याय है । और आप (जैनियों) के भी एकान्तसे ( सर्वथा ) हिंसाका निषेध नहीं है, क्योंकि उन २ कारणोंके उत्पन्न होनेपर पृथ्वीकाय आदिके प्रतिसेवनोंकी ( वध करनेकी आज्ञा दी गई है । और ग्लान ( रोगी) आदि मुनियोंका निर्वाह न होनेपर आधा कर्म आदिके ग्रहण करनेका कथनं किया गया है । भावार्थ —उत्सर्गमार्गसे मुनियोंको अपने निमित्त किये हुए भोजनका आहार करनेकी आज्ञा नहीं है, परंतु यदि मुनि रोगी हो और उसका निर्वाह न हो सके तो वह अपने निमित्त किये हुए भोजनका भी आहार करले ऐसा अपवादमार्गसे उपदेश किया गया है । [ अपने निमित्त किये हुए भोजनको ग्रहण करनेवाला मुनि आधाकर्म नामक दोषसे दूषित होता है ] और यज्ञमें होनेवाली जो हिंसा है; वह अपवादरूप है । क्योंकि देवताआदिकी प्रीतिका पुष्ट आलंबन है अर्थात् यज्ञआदिमें हिंसाके कियेविना देवताआदि प्रसन्न नही होते है । इसप्रकार वादियोंकी ओरसे परम आशंका करके स्तुतिके कर्ता आचार्य ९ महाराज “नोत्सृष्टम् " इत्यादि काव्यके दूसरे चरणका कथन करते है ।— अन्यार्थमिति मध्यवर्त्तिं पदं डमरुकमणिन्यायेनोभयत्रापि सम्बन्धनीयम् । अन्यार्थमुत्सृष्टं अन्यस्मै कार्याय प्रयुक्तं उत्सर्गवाक्यमन्यार्थप्रयुक्तेन वाक्येन नापोद्यते नाऽपवादगोचरीक्रियते । यमेवार्थमाश्रित्य शास्त्रेषूत्सर्गः १ अनिर्वाहे । रा. जै. शा ॥ ८९ ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तते तमेवार्थमाश्रित्याऽपवादोऽपि प्रवर्तते । तयोर्निम्नोन्नतादिव्यवहारवत्परस्परसापेक्षत्वेनैकार्थसाधनविषयत्वात् । यथा जैनानां संयमपरिपालनार्थं नवकोटिविशुद्धाहारग्रहणमुत्सर्गः । तथाविधद्रव्यक्षेत्रकालभावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराऽभावे पञ्चकादियतनयाऽनेषणीयादिग्रहणमपवादः । सोऽपि च संयमपरिपालनार्थमेव न च मरणैकशरणस्य गत्यन्तराऽभावोऽसिद्ध इति वाच्यम् । cc सव्वत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेक रक्खिज्जा । मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही नयाऽविरई । १ । ,, इत्यागमात् । ' नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च' इस पादमें जो 'अन्यार्थ ' यह मध्यवर्ती पद है; उसका डमरुकमणिन्यायसे दोनों स्थानों पर संबंध किया गया है । " अन्यार्थ " दूसरे कार्यके लिये “ उत्सृष्टम् " प्रयोग किया हुआ उत्सर्गका वाक्य " अन्यार्थेन, " अन्य प्रयोजनके अर्थ प्रयोग किये हुए वाक्यसे "न अपोद्यते " अपवादके गोचर नहीं किया जाता है । | भावार्थ - जिस प्रयोजनको ग्रहण करके शास्त्रों में उत्सर्ग प्रवर्त्तता है; उसी अर्थको लेकर शास्त्रों में अपवाद भी प्रवर्त्तता है । क्योंकि - जैसे नीचेपन ऊंचेपन आदिका व्यवहार एक दूसरेकी अपेक्षाको धारण करनेसे एक ही कार्यका साधक है; उसीप्रकार | ये दोनों उत्सर्ग और अपवाद भी आपसमें एक दूसरेकी अपेक्षा ( जरूरत ) के धारक होनेसे एक ही प्रयोजनके साधक हैं । दृष्टान्तमें जैसे- हम जैनियोंके मतमें ' मुनिको सयमकी रक्षा करनेके लिये नवकोटियोंसे विशुद्ध अर्थात् मन, वचन और काय इन तीनोंको कृत, कारित और २ अनुमोदनासे गुणा करनेपर जो नौ भेद होते है; उनसे निर्दोष ऐसे आहारका ग्रहण करना चाहिये ' यह उत्सर्ग है । और अमुक २ प्रकारकी द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावसंबंधी आपदाओंमें गिरा हुआ मुनि दूसरा कोई मार्ग न हो, तब अर्थात् जब इस उत्सर्गकथित नवकोटि विशुद्ध आहारके न मिलनेसे मरण ही होता हो; उस अवस्थामें उक्त नवकोटियोंसे एषणा करनेके अयोग्य जो पदार्थ है; उसको पांचआदि कोटियोंसे विशुद्ध करके ग्रहण कर लेवे ' यह अपवाद है । और यह अपवाद भी संयमकी रक्षा करनेके लिये ही है । और " मरण ही है एक शरण जिसके | ऐसे मुनिके अन्य उपायका अभाव असिद्ध है अर्थात् उत्सर्गका निर्वाह न होनेपर मरण करता हुआ मुनि अपवादको ग्रहण न करके किसी दूसरे उपायको धारण करे ऐसा तुमको न कहना चाहिये । क्योंकि - " मुनि प्रथम तो सर्व प्रकारसे संयमकी १ सर्वार्थतः संयमं संयमृत आत्मानमेव रक्ष्यात् । मुच्यतेऽतिपातेभ्यः पुनर्विशुद्धिर्नचाविरतिः । १ । इति च्छाया । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही रक्षा करे, जो साद्वादम. ॥९ ॥ ही रक्षा करे, जो संयमकी रक्षा करनेपर मरण होता हो तो उस अवस्थामें संयमको छोड़कर आत्माकी रक्षा करे । क्योंकि राजेश ७ संयमका त्याग करनेसे जो दोप लगते है। उनसे वह मुनि रहित हो जाता है। कारण कि उन दोषोंकी प्रायश्चित्त आदिसे फिर शुद्धता हो जाती है। और ऐसी दशामें वह मुनि अविरति (व्रतरहित ) नहीं होता है। १।" यह आगम अपवादको ग्रहण करनेका उपदेश देता है। तथा आयुर्वेदेऽपि यमेवैकं रोगमधिकृत्य कस्यांचिदवस्थायां किंचिद्वस्त्वपथ्यं तदेवाऽवस्थान्तरे तत्रैव रोगे पथ्यम् । “उत्पद्यते हि साऽवस्था देशकालामयान् प्रति।यस्यामकार्य कार्य स्यात् कर्म कार्य तु वर्जयेत् ।१।" इति वचनात् । यथा बलवदादेवरिणो लङ्घनं क्षीणधातोस्तु तद्विपर्ययः। एवं देशाद्यपेक्षया ज्वरिणोऽपि दधिपानादि योज्यम् । तथा च वैद्याः “कालाऽविरोधि निर्दिष्टं ज्वरादी लवनं हितम् । ऋतेऽनिलश्रमक्रोध-शोककामकृतज्वरान् । १।" एवं च यः पूर्वमपथ्यपरिहारो यश्च तत्रैवाऽवस्थान्तरे तस्यैव परिभोगः स खलुभयोरपि तस्यैव रोगस्य शमनार्थः । इति सिद्धमेकविपयत्वमुत्सर्गाऽपवादयोरिति । इसी प्रकार आयुर्वेद (वैद्यक शास्त्रों) में भी जिस ही एक रोगमें किसी अवस्थामें कोई वस्तु अपथ्य है। उसी रोगमें यू दूसरी अवस्थामें वही वस्तु पथ्य है । क्योंकि-"देशकालसंबंधी रोगोंमें वह अवस्था उत्पन्न होती है कि, जिसमें न करने योग्य कार्य तो करने योग्य हो जाता है और करने योग्य कार्य छोड़ दिया जाता है। १" ऐसा वैद्यकशास्त्रोंका, कथन है। जैसे-यदि ज्वररोगी बलआदिका धारक हो तो उसको लंघन कराया जाता है और यदि ज्वररोगी क्षीणवीर्य हो तो उसको लंघन न कराके प्रत्युत भोजन कराया जाता है । इसीप्रकार किसी देश आदिकी अपेक्षासे ज्वररोगीको भी दहीका पान कराना के आदि समझ लेना चाहिये अर्थात् किसी देशकी अपेक्षासे ज्वररोगीको दधिपानादि अपथ्य है और दूसरे देशकी अपेक्षा ज्वर ४ रोगीके लिये वेही दधिपानादि पथ्य है । सो ही वैद्य लोग कहते है कि-" वात, श्रम, क्रोध, शोक और काम, इनसे उत्पन्न हुए जो ज्वर है उनको छोडकर अन्य कारणोंसे उत्पन्न हुए ज्वरों में कालका अविरोधी अर्थात् प्रीष्म शीत आदि ऋतुओंके अनुकूल ऐसा जो लंघन है; वह हितकारी (पथ्य) कहा गया है।" और इसप्रकारसे जो जिस रोगमें पहले अपथ्यका | त्याग है और उसी रोगमें दूसरी अवस्था होनेपर जो उस अपथ्यका ग्रहण है; वह दोनों ही अवस्थाओंमें उसी रोगकी शांतिके , ॥९ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ है । और इस उक्त प्रकारसे उत्सर्ग और अपवाद इन दोनोंका एक विषय सिद्ध होगया । भावार्थ-शास्त्रोंमें जिस कार्यक लिये उत्सर्ग है; उसीके लिये अपवाद भी है, यह जो हम (जैनी ) कहते हैं सो उक्त प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुका । I भवतां चोत्सर्गोऽन्यार्थः, अपवादश्चान्यार्थः । “न हिंस्यात्सर्वभूतानि ।” इत्युत्सर्गो हि दुर्गतिनिषेधार्थः। अपवादस्तु वैदिकहिंसाविधिदेवताऽतिथिपितृप्रीतिसंपादनार्थः । अतश्च परस्परनिरपेक्षत्वे कथमुत्सर्गोऽपवादेन IN वाध्यते । तुल्यबलयोर्विरोध इति न्यायात् । भिन्नार्थत्वेऽपि तेन तद्बाधनेऽतिप्रसङ्गात् । न च वाच्यं वैदिकहिंसा विधिरपि स्वर्गहेतुतया दुर्गतिनिषेधार्थ एवेति । तस्योक्तयुक्त्या स्वर्गहेतुत्वनिर्लोठनात् । तमन्तरेणापि च प्रकारा|न्तरैरपि तत्सिद्धिभावात् । गत्यन्तराऽभावे ह्यपवादपक्षकक्षीकारः। और तुम्हारे मतमें तो उत्सर्ग दूसरे प्रयोजनके लिये है तथा अपवाद दूसरे कार्यके लिये है। जैसे-'सब जीवोंकी 1 हिंसा न करनी चाहिये' यह उत्सर्ग तो नरक आदि दुर्गतियोंमें न जानेके अर्थ है और वेदोक्त हिंसा करने रूप जो अपवाद | पाहै; वह देवता, अतिथि और पितृजनोंकी प्रीतिको सिद्ध करनेके लिये है । और इसप्रकार जब उत्सर्ग तथा अपवादके परस्पर निरपेक्षपना रहा तब अपवादसे उत्सर्गका बाध कैसे हो? क्योंकि-'दो समान बलवालोंका विरोध रहता है अर्थात् दो बराबरके | हों तो उनमें कोई किसीसे नहीं हटता है। ऐसा न्याय है। यदि उत्सर्ग तथा अपवादको भिन्न २ प्रयोजनकी साधकता होनेपर भी अपवादसे उत्सर्गका बाध मानोगे तो अतिप्रसंग होगा। 'वर्गका कारण होनेसे वेदोक्त हिंसाविधान भी दुर्गतिका नाश करनेके लिये ही है। इस कारण उत्सर्ग तथा अपवादके भिन्नार्थता नहीं है। यह भी तुमको न कहना चाहिये । क्योंकि उस वेदोक्त हिंसा विधिकी स्वर्गकी कारणताका पूर्वोक्त प्रकारसे खंडन कर चुके है । और उस वेदोक्त हिंसा करनेके विना जो IN||अन्य २ प्रकार है, उनसे भी खगेकी सिद्धि होती है। और जब दूसरा कोई उपाय न हो तभी अपवाद पक्षका खीकार होता है । नच वयमेव यागविधेः सुगतिहेतुत्वं नाङ्गीकुर्महे किंतु भवदाप्ता अपि । यदाह व्यासमहर्षिः-"पूजया विपुलं राज्य-मग्निकार्येण संपदः । तपः पापविशुद्ध्यर्थ ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम् । १।” अत्राग्निकार्यशब्दवाच्यस्य यागालादिविधेरुपायान्तरैपि लभ्यानां संपदामेव हेतुत्वं वदन्नाचार्यस्तस्य सुगतिहेतुत्वमर्थात्कदर्थितवानेव । तथा च स एव भावाग्निहोत्रं ज्ञानपालीत्यादिश्लोकैः स्थापितवान् । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाद और हम जैनी ही वेदोक्त यज्ञविधानको सुगतिका कारण नहीं मानते हैं ऐसा नहीं है किंतु तुम्हारे आप्त ( यथार्थवक्ता ) स्याद्वादम. हे ॥ ९१ ॥ भी यज्ञविधानको सुगतिका कारण नहीं कहते हैं । सो ही व्यास महर्षिने कहा है कि- 'पूजाके करनेसे बड़ा राज्य मिलता है. अग्निकार्य ( वेदोक्त यज्ञोंके विधान ) से संपदाओंकी प्राप्ति होती है; तप पापोंसे शुद्ध ( रहित ) होनेके अर्थ है और ज्ञान तथा ध्यान ये दोनों मुक्तिके दाता हैं । १।' इस श्लोक में 'अमिकार्य' इस शब्दसे कहे जाने योग्य जो याग आदि विधान है; उसको अन्य २ उपायोंसे भी प्राप्त होने योग्य संपदाओंका ही कारण कहकर व्यासजीने अर्थतः (वस्तुतः ) वेदोक्त यज्ञविधानके सुगतिकी कारणताका खंडन कर ही दिया । और यही व्यासमहर्षि पहले दिये हुए 'ज्ञानपालिपरिक्षिप्ते' इत्यादि श्लोकोंसे भावाग्निहोत्र ( भावयज्ञ ) को स्थापित कर चुके हैं । S रा. जे. शा तदेवं स्थिते तेषां वादिनां चेष्टामुपमया दूषयति । स्वपुत्रेत्यादि । परेषां भवत्प्रणीतवचनपराङ्मुखानां स्फुरितं चेष्टितं स्वपुत्रघातान्नृपतित्वलिप्सासब्रह्मचारि निजसुतनिपातनेन राज्यप्राप्तिमनोरथसदृशम् । यथा किल कश्चिदविपश्चित्पुरुषः परुषाशयतया निजमङ्गजं व्यापाद्य राज्यश्रियं प्राप्तुमीहते । न च तस्य तत्प्राप्तावपि पुत्रघातपातककलङ्कपङ्कः क्वचिदपयाति । एवं वेदविहितहिंसया देवतादिप्रीतिसिद्धावपि हिंसासमुत्थं दुष्कृतं न खलु पराहन्येत । अत्र च लिप्साशब्दं प्रयुञ्जानः स्तुतिकारो ज्ञापयति । यथा तस्य दुराशयस्याऽसदृशतादृशदुष्कर्मनिर्मानिर्मूलितसत्कर्मणो-राज्यप्राप्तौ केवलं समीहामात्रमेव न पुनस्तत्सिद्धिः । एवं तेषां दुर्वादिनां वेदविहितां हिंसामनुतिष्ठतामपि देवतादिपरितोषणे मनोराज्यमेव । नः पुनस्तेषामुत्तमजनपूज्यत्वमिन्द्रादिदिवौकसां च तृप्तिः । प्रागुक्तयुक्त्या निराकृतत्वात् । इति काव्यार्थः ॥ ११९॥ - “ इस प्रकार वेदोक्त हिंसाविधिका खंडन' हो चुकनेपरं स्तुतिके कर्त्ता आचार्य महाराज 'स्वपुत्रघातादित्यादि ' उत्तरार्धद्वारा उन मीमांसक वादियोंकी चेष्टाको उपमासे दूषित करते हैं । "परेषाम्" आप करके रचे हुए वचनोंसे परामुख अर्थात् आपकी आज्ञाको न माननेवाले उन वादियोंकी “स्फुरितम्" "चेष्टा जो है सो "स्वपुत्रघातान्नृपतित्वलिप्सासब्रह्मचारि" अपने पुत्रको A मारकर राज्यको प्राप्त करनेके मनोरथके समान है। भावार्थ — जैसे कोई मूर्खपुरुष कठोरखभावपनेसे अपने पुत्रको मारकर राज्यलक्ष्मीकी प्राप्तिके अर्थ इच्छा करता है, और उस राज्यके मिल जानेपर भी उस पुरुषके -पुत्रके मारनेसे उत्पन्न हुआ जो पाप .. ॥९१॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I |रूपी कलंकका पंक (कईम) है वह कहीं नहीं जाता है अर्थात् राज्यमिलनेपर भी वह पुरुष पुत्रके मारनेरूप कलंकसे दूषित रहता है उसी प्रकार वेदोक्त हिंसाके करनेसे देवता आदिकी प्रीतिके सिद्ध हो जानेपर भी जीवोंकी हिंसासे उत्पन्न हुआ पाप नष्ट नहीं होता है अर्थात् यज्ञकर्ता पापका भागी रहता ही है । 'नृपतित्वलिप्सा' इत्यादि वाक्यमें जो आचार्यने लिप्साशब्दका प्रयोग किया है उससे आचार्य यह विदित करते हैं कि-जैसे कोई दूसरा न कर सके ऐसे उस पुत्रको मारनेरूप खोटे कर्मसे उत्तम कोका मूल नाश करनेवाले उस महानिंद्य परिणामोंके धारक पापीपुरुषके राज्यको प्राप्त करनेमें केवल इच्छा ला और उस राज्यकी प्राप्ति नहीं है, उसी प्रकार आगामीकालमें होनेवाली इष्टसिद्धिके लिये वेदोक्त हिंसाको करते हुए; उन कुवादियोंके भी देवताआदिको प्रसन्न करनेमें मनका राज्य ही है । उससे उन कुवादियोंके उत्तमजनोंद्वारा पूज्यपना भी नही होता है और इंद्रादि देवोंकी तृप्ति भी सिद्ध नहीं होती है। क्योंकि उन कुवादियोंका यह मत पूर्वोक्त प्रकारसे खंडित हो चुका है । इसप्रकार काव्यका अर्थ है ॥ ११॥ - सांप्रतं नित्यपरोक्षज्ञानवादिनां मीमांसकभेदभट्टानामेकात्मसमवायिज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादिनां च योगान मतं विकुट्टयन्नाह | अब 'ज्ञान सदा परोक्ष ही है अर्थात् ज्ञान अपना प्रत्यक्ष आप नहीं कर सकता है. दूसरे ज्ञानसे ही ज्ञानका प्रत्यक्ष होता है। | ऐसा कहनेवाले जो मीमांसकोंके भेदोंमें भट्टमतानुयायी है उनके मतका और 'एक आत्मामें मिला हुआ जो ज्ञान है उस ज्ञानसे) अन्य जो ज्ञान है, उससे ज्ञानका निश्चय होता है। ऐसा माननेवाले जो योगमतावलवी है, उनके मतका खंडन करते हुए पण आचार्य इस निम्नलिखित काव्यका कथन करते हैं: स्वार्थावबोधमक्षम एवं बोधः प्रकाशते नार्थकथाऽन्यथा तु। परे परेभ्यो भयतस्तथापि प्रपेदिरे ज्ञानमनात्मनिष्ठम् ॥ १२॥ सूत्रभावार्थ:-ज्ञान जो है वह निज और पर पदार्थके जानने में समर्थ ही प्रतिभासता है। जो ऐसा न हो तो पदार्थकी कथाको | भी कौन कहे । तौ भी हे नाथ, अन्यमतवालोंने पूर्वपक्षवादियोंके भयसे ज्ञानको अपने ज्ञानसे रहित मान लिया है ॥ १२ ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ ९२ ॥ बोध ज्ञानं स व स्वार्थावबोधक्षम एव प्रकाशते स्वस्यात्मस्वरूपस्यार्थस्य च योऽवबोधः परिच्छेदस्तत्र क्षम एव समर्थ एव प्रतिभासते । इत्ययोगव्यवच्छेदः । प्रकाशत इति क्रिययाऽववोधस्य प्रकाशरूपत्वसिद्धेः सर्वप्रकाशानां तु स्वार्थप्रकाशकत्वेन बोधस्यापि तत्सिद्धिः । विपर्यये दूषणमाह । नार्थकथान्यथात्विति । अन्य अर्थप्रकाशनेऽविवादाज्ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वाऽनभ्युपगमेऽर्थकथैव न स्यात् । अर्थकथा पदार्थसंवन्धिनी वार्त्ता सदसद्रूपात्मकं स्वरूपमिति यावत् । ( तुशब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च स चार्थकथया सह योजित एव ) यदि हि ज्ञानं स्वसंविदितं नेष्यते तदा तेनात्मज्ञानाय ज्ञानान्तरमपेक्षणीयं तेनाप्यपरमित्याद्यनवस्था ततो ज्ञानं ताव| त्स्वावबोधव्यग्रतामग्नम् | अर्थस्तु जडतया स्वरूपज्ञापनाऽसमर्थ इति को नामार्थस्य कथामपि कथयेत् । रा.जे.शा. व्याख्यार्थः–“बोधः” ज्ञान जो है वह “स्वार्थावबोधक्षमः" अपने और पदार्थके जाननेमें समर्थ " एव" ही " प्रकाशते" प्रतिभासता है । [ इस प्रकार यहां अयोगका व्यवच्छेद है ] 'प्रकाशते' इस क्रियापदका प्रयोग करनेसे ज्ञानके प्रकाशरूपता सिद्ध होती है; अतः जैसे अन्य सब प्रदीप आदि प्रकाश अपने और पदार्थके प्रकाशक है उसीप्रकार ज्ञान भी निजखरूप तथा पदार्थ इन दोनोंका प्रकाशक सिद्ध होता है । विपर्ययमें अर्थात् ज्ञानको निजका और पदार्थका प्रकाशक न मानने पर आचार्य 'नार्थकथान्यथा तु' इस वाक्यद्वारा दोषका कथन करते है । "अन्यथा " ज्ञानको अर्थका प्रकाशक माननेमें तो किसीको विवाद नहीं है अर्थात् सभी वादी ज्ञानको पदार्थका प्रकाशक मानते हैं, इसकारण शेष जो ज्ञानका स्वप्रकाशकपना है; उसको यदि न स्वीकार किया जावे तो “अर्थकथा एव" पदार्थसंबन्धी वार्त्ता अर्थात् पदार्थ है वा नहीं है; इत्यादि प्रकारका कथन ही पदार्थके विषयमें न होवे । 'नार्थकथान्यथा तु' यहां पर जो 'तु' शब्द है उसके निश्चय और भेदरूप दो अर्थ होते हैं, उनमें से यहां निश्चय अर्थको ग्रहण करके 'तु' के पर्यायी 'एव' को अर्थकथाके साथ लगा दिया गया है । ] भावार्थ - यहा पर यह है कि, यदि ज्ञानको खसंविदित ( अपनेद्वारा ही अपने स्वरूपको जाननेवाला अर्थात् स्वप्रकाशक ) ॥ ९२ ॥ न माना जावेगा तो वह ज्ञान अपने खरूपको जाननेके लिये दूसरे ज्ञानकी अपेक्षा करेगा और वह दूसरा ज्ञान भी अपने स्वरूपको विदित करनेके लिये तीसरे ज्ञानकी अपेक्षा करेगा तब अनवस्था दोष हो जावेगा । अतः ज्ञान तो अपने खरूपके Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - IMANIजाननेकी चितामें डूब जावेगा और पदार्थ खयं जडरूप है; इसकारण अपने खरूपको विदित नही करसकता है इसकारण || पदार्थकी कथाको भी कौन कहेगा। XI तथाप्येवं ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वे युक्त्या घटमानेऽपि परे तीर्थान्तरीयाः ज्ञानं कर्मतापन्नमनात्मनिष्ठं न विद्यत आत्मनः स्वस्य निष्ठा निश्चयो यस्य तदनात्मनिष्ठं अस्वसंविदितमित्यर्थः प्रपेदिरे प्रपन्नाः । कुत इत्याह ।-परेभ्यो ||भयतः। परे पूर्वपक्षवादिनस्तेभ्यः सकाशात् ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वं नोपपद्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधादित्युपालनाम्भसम्भावनासम्भवं यद्भयं तस्मात्तदाश्रित्येत्यर्थः।। _ 'तथापि' इस पूर्वोक्त प्रकारसे ज्ञानके खसंविदितपना युक्तिद्वारा सिद्ध होता है तो भी 'परे' अन्यमतावलम्बी पुरुष 'ज्ञानम् ज्ञानको [ 'ज्ञानम्' यह 'प्रपेदिरे' इस क्रियाका कर्म है। ] 'अनात्मनिष्ठम्' नही है अपना निश्चय जिसके ऐसा अर्थात् अखसंविदित ( निजस्वरूपका अप्रकाशक ) “प्रपेदिरे" मानते है । अब वादियोंने ज्ञानको अस्वसंविदित क्यों माना है सो कहते हैं । “परेभ्यः” पर जो पूर्वपक्षके कहने वाले है उनसे "भयतः" ज्ञानके खसंविदितपना सिद्ध नही हो सकता है; क्योंकि-अपनी आत्मामें क्रियाका विरोध है; इस उपालंभकी संभावनासे उत्पन्न हुए भयको ग्रहण करके ही वादियोंने ज्ञानको अस्वप्रकाशक मान लिया है । भावार्थ-'यदि भट्टमतानुयायी ज्ञानको स्वप्रकाशक ( अपने प्रकाशको उत्पन्न करनेवाला ) मान लें तो उनको निज आत्मामें क्रिया अवश्य माननी पड़ेगी; क्योंकि, निज आत्मामें क्रिया माने विना ज्ञान स्वप्रकाशक कदापि नहीं होसकता है। और ऐसा माननेपर वैशेषिक आदि मतवाले उनको कहेंगे कि-ज्ञान आत्माका विशेषगुण है और 'गुणादि-18 निर्गुणक्रियः' इस वचनसे गुण क्रियारहित माना गया है, अतः तुम ज्ञानको स्वप्रकाशक नही मान सकते हो' इस प्रकार वैशेभाषिकोंसे डरकर ही भट्टोंने ज्ञानको अस्वप्रकाशक मान लिया है। __इत्थमक्षरगमनिकां विधाय भावार्थः प्रपञ्च्यते । भट्टास्तावदिदं वदन्ति । यज् ज्ञानं स्वसंविदितं न भवति, स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । न हि सुशिक्षितो ऽपि नटवटुः स्वस्कन्धमधिरोढुं पटुर्न च सुतीक्ष्णाप्यसिधारा स्वं छेत्तुमा| १ स्वप्रकाशकत्वं च स्वप्रकाशजनकत्वं तच्च स्वात्मनि क्रियामन्तरा नितरामसम्भवि 'गुणादिनिर्गुणक्रियः' इति वचनात् । ज्ञानं चात्मनो विशेषगुणः । इति वैशेषिकोपालम्भभयादिति तात्पर्यम् । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमं. ॥९३॥ B जै.मा. हितव्यापारा । ततश्च परोक्षमेव ज्ञानमिति । तदेतन्न सम्यक । यतः किमुत्पत्तिः स्वात्मनि विरुध्यते ज्ञप्तिर्वा । यद्युत्पत्तिः सा विरुध्यतां, न हि वयमपि ज्ञानमात्मानमुत्पादयतीति मन्यामहे । अथ ज्ञप्तिर्नेयमात्मनि विरुद्धा तदात्मनैव ज्ञानस्य स्वहेतुभ्य उत्पादात् । प्रकाशात्मनैव प्रदीपालोकस्य। अथ प्रकाशात्मैव प्रदीपालोक उत्पन्न इति परप्रकाशको ऽस्तु आत्मानमप्यतावेन्मात्रेणैव प्रकाशयतीति कोऽयं न्याय इति चेत् तत्किं तेन वराकेणाप्रकाशितेनैव स्थातव्यम् , आलोकान्तराद्वाऽस्य प्रकाशेन भवितव्यम् । प्रथमे प्रत्यक्षबाधो द्वितीये ऽपि सैवानवस्थापत्तिश्च । इस प्रकार अक्षरोंका अर्थ करके अब विस्तारपूर्वक भावार्थका कथन करते है। प्रथम ही भट्ट यह कहते है कि-'ज्ञान खसंविदित नहीं होता है, क्योंकि, निज आत्मामें क्रियाका विरोध है अर्थात् निजस्वरूपमें क्रिया नही होती है । दृष्टान्त-जैसे अच्छे प्रकारसे शिक्षाको प्राप्त हुआ भी नटका शिष्य अपने कंधेपर चढ़नेके लिये चतुर नहीं है अर्थात् अपने कंधेपर नही चढ़ सकता है और बहुत तीक्ष्ण (तीखी) भी तलवारकी धार अपने छेदनेके लिये व्यापारको नही धारण करती है अर्थात् आप आपको नहीं काटती है; इसीप्रकार ज्ञान भी आप आपको नहीं जानता है; इसकारण ज्ञान परोक्ष (आप अपने प्रत्यक्षको न करने- वाला ) ही है; सो यह भट्टोंका कहना ठीक नही है; क्योंकि, हम पूछते है कि, ज्ञानकी निज आत्मामें उत्पत्ति विरुद्ध है अर्थात् ज्ञान निजखरूपमें उत्पन्न नहीं होता है ? अथवा ज्ञानकी निज आत्मामें ज्ञप्ति विरुद्ध है .अर्थात् ज्ञान निजस्वरूपको जानता नहीं है ? यदि कहो कि-ज्ञानकी निज आत्मामें उत्पत्ति विरुद्ध है; तो वह विरुद्ध रहो, क्योंकि, हम (जैनी) भी निज kal आत्मामें ज्ञानकी उत्पत्ति नही मानते है । यदि कहो कि-ज्ञानकी निजआत्मामें ज्ञप्ति विरुद्ध है; तो यह ज्ञप्ति ज्ञानके निजखरूपमें विरोध नहीं करती है क्योंकि, जैसे अपने कारणोंसे प्रदीपका प्रकाश प्रकाशरूप ही उत्पन्न होता है, उसीप्रकार ज्ञान भी अपने कारणोंसे ज्ञप्तिरूप ( जाननेरूप ) ही उत्पन्न होता है । अब यदि ऐसा कहो कि, प्रदीपका प्रकाश प्रकाशरूप उत्पन्न हुआ है; अतः वह पर ( घट पट आदि ) का प्रकाशक रहो, प्रकाशरूप उत्पन्न होनेसे ही वह आपको भी प्रकाशता है, इस माननेमें कौनसा न्याय है ? तो हम पूछते है कि, क्या वह बेचारा प्रदीपका प्रकाश स्वयं अप्रकाशित ही रहेगा ? वा कोई क ॥९३ । दूसरा प्रकाश इस प्रदीपके प्रकाशका प्रकाशक होगा? यदि कहो कि,-प्रदीपका प्रकाश खयं अप्रकाशित ही रहेगा, तो इस कथनमें प्रत्यक्षसे बाधा आती है। भावार्थ-प्रदीपका प्रकाश जैसे घट आदि पदार्थोके खरूपका प्रकाशक है; उसी प्रकार अपने . Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरूपका भी प्रकाशक है। यह प्रत्यक्षमें देखा जाता है इसकारण प्रदीपप्रकाशको अप्रकाशित मानने में प्रत्यक्षसे विरोध आता है यदि कहो कि एक प्रदीपके प्रकाशको किसी दूसरे प्रदीपका प्रकाश प्रकाशित करता है, तो इस कथनमें भी वही प्रत्यक्षसे बाधा आती है, क्योंकि, जहां एक ही प्रदीप प्रकाशित हो रहा है; उस स्थानमें उसको प्रकाशित करनेवाला कोई दूसरा प्रदीप देखनेमें नहीं आता है और एक प्रदीपके प्रकाशको दूसरे प्रदीपका प्रकाश और दूसरे प्रदीपके प्रकाशको तीसरे प्रदीपका प्रकाश प्रकाशित करेगा इत्यादिरूपसे अनवस्था दोपकी भी प्राप्ति होती है। NI अथ नासौ स्वमपेक्ष्य कर्मतया चकास्तीत्यस्वप्रकाशकः स्वीक्रियते, आत्मानं न प्रकाशयतीत्यर्थः । प्रकाशरूप तया तूत्पन्नत्वात्स्वयंप्रकाशत एवेति चेत्-चिरंजीव०। न हि वयमपि ज्ञानं कर्मतयैव प्रतिभासमानं स्वसंवेद्यं ब्रूमः, | ज्ञानं स्वयं प्रतिभासत इत्यादावकर्मकस्य तस्य चकासनात् । यथा तु ज्ञानं स्वं जानामीति कर्मतयापि तदाति, तथा प्रदीपः स्वं प्रकाशयतीत्ययमपि कर्मतया प्रथित एव । yा अब यदि ऐसा कहो कि-यह प्रदीपप्रकाश आपको अपेक्षित करके कर्मरूपसे नहीं प्रकाशित होता है। भावार्थ-एक पदा-1 में एक ही क्रियाद्वारा निरूपण किये हुए कर्तृत्व और कर्मत्वरूप दोनो धर्म नहीं रह सकते है इस कारण जो प्रदीप प्रकाशने । रूप क्रियाका कर्ता है, वही प्रदीप प्रकाशनेरूप क्रियाका कर्म नही हो सकता है; अतः हम प्रदीपको निजका प्रकाशक नही | MO मानते है, अर्थात् प्रदीपप्रकाश अपने आपको प्रकाशित नहीं करता है; और प्रकाशरूपतासे उत्पन्न हुआ है, इसकारण खयं ।। प्रकाशित होता ही है तो चिरंजीव, हम भी कर्मरूपतासे ही प्रतिभासते हुए ज्ञानको स्वसविदित (स्वप्रकाशक) नहीं कहते है अर्थात् जैसे तुम प्रकाशरूपतासे उत्पन्न हुए प्रदीपप्रकाशको खतः प्रकाशित मानते हो उसीप्रकार हम भी ज्ञप्तिरूपसे उत्पन्न | हुए ज्ञानको खसंविदित मानते है, क्योंकि, ' ज्ञान खयं प्रतिभासता है' इत्यादि प्रयोगोंमें कर्मरहित ज्ञान ही प्रतिभासता है। और जैसे हमारे पक्षमें 'ज्ञान अपने आपको जानता है। इस वाक्यमें कर्मरूपतासे भी ज्ञानका भान होता है; उसीप्रकार तुम्हारे पक्षमें प्रदीप अपने आपको प्रकाशता है, इस वाक्यमे प्रदीप भी कर्मरूपतासे जाननेमें आता ही है । १ एकत्र पदार्थे एकक्रियानिरूपितकर्तृत्वकर्मत्वयोर्विरोधादिन्यत्र योजनीयम् । २ 'ज्ञानं खं जानामीति वाक्यात् ज्ञानविषयकज्ञानवानहमिति शाब्दबोधत. ज्ञानस्यापि कर्मतया भानं भवतीति भावः । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्वादसं. ॥ ९४ ॥ यस्तु स्वात्मनि क्रियाविरोधो दोष उद्भावितः सोऽयुक्तः अनुभवसिद्धेऽर्थे विरोधासिद्धेः । घटमहं जानामीत्या कर्तृकर्मवज्ज्ञतेरप्यवभासमानत्वात् । न चाप्रत्यक्षोपलम्भस्यार्थदृष्टिः प्रसिध्यति । न च ज्ञानान्तरादुपलम्भसम्भावना, तस्याप्यनुपलब्धस्य प्रस्तुतोपलम्भप्रत्यक्षीकाराभावात् । उपलम्भान्तरसम्भावने चानवस्था । अर्थोपलम्भात्तस्योपलम्भे ऽन्योन्याश्रयदोपः । और जो तुमने ' अपनी आत्मामें क्रियाका विरोध है' यह दोष ज्ञानके खसविदित माननेमें उत्पन्न किया है, सो ठीक नही है; क्योंकि, अनुभवसे सिद्ध पदार्थ में विरोधकी प्राप्ति नही होती है; कारण कि 'मैं घटको जानता हूं ' इत्यादि प्रयोगमें जैसे कर्त्ता और कर्मका अनुभव होता है; उसीप्रकार ज्ञप्तिका भी भान होता है । और परोक्ष ज्ञानके पदार्थका जानना सिद्ध नही होता है अर्थात् ज्ञानको अप्रकाशक माननेपर ज्ञान परोक्ष हो जावेगा और तब वह परोक्षज्ञान पदार्थको जान नही सकता है । यदि कहो कि, उस परोक्ष ज्ञानका ज्ञान दूसरे ज्ञानसे हो सकता है। सो ठीक नही । क्योकि वह दूसरा ज्ञान भी अज्ञात (नही जाना हुआ ) अर्थात् परोक्ष है, इसकारण प्रस्तुत जो पहला ज्ञान है, उसका प्रत्यक्ष नही कर सकता । और यदि यह कहोगे कि, उस दूसरे ज्ञानके ज्ञानको तीसरा ज्ञान कर सकता है तो ऐसा माननेपर अनवस्था आती है। यदि कहो कि, पदार्थके ज्ञानसे उस ज्ञानका ज्ञान होगा तो ऐसा माननेमें अन्योन्याश्रयदोष प्राप्त होगा अर्थात् 'ज्ञानका ज्ञान होनेसे तो अर्थका ज्ञान होगा और अर्थका ज्ञान होनेसे ज्ञानका ज्ञान होगा इस प्रकार ज्ञान और अर्थ ये दोनों ही अपने ज्ञानके लिये परस्पर एक दूसरेकी अपेक्षाको धारण करेंगे । अथार्थप्राकट्यमन्यथा नोपपद्येत यदि ज्ञानं न स्यात् इत्यर्थापत्त्या तदुपलम्भ इति चेत् न । तस्या अपि ज्ञापकत्वेनाज्ञाताया ज्ञापकत्वायोगात् । अर्थापत्त्यन्तरात्तज्ज्ञानेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोपापत्तेस्तदवस्थः परिभवः । तस्मादर्थोन्मुखतयैव स्वोन्मुखतयापि ज्ञानस्य प्रतिभासात्स्वसंविदितत्वम् । १ परस्परसापेक्षत्वमन्योन्याश्रयत्वम् । २ 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इत्यत्र यथा दिवसाधिकरणकभोजनकर्तृत्वाभाव विशिष्टदेवदत्तस्य रात्रिभोजनमन्तरा पीनत्वं नोपपद्यत इति पीनत्वान्यथानुपपत्त्या रात्रिभोजनं कल्प्यते । तथैवात्र घटज्ञानमन्तरा घटप्राकट्यं नोपपद्यत इति घटपाकव्यान्यथानुपपया घटज्ञानम्योपलम्भ. (ज्ञानं ) कप्यते । रा. जै.शा. ॥ ९४ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि ऐसा कहो कि, जो ज्ञान न होवे, तो पदार्थोंका प्रकाश न होवे, इस अर्थापत्तिसे उस ज्ञानका ज्ञान हो जाता है। |भावार्थ-जैसे 'देवदत्त मोटा है और दिनमें भोजन नहीं करता है' इस स्थलमें यदि देवदत्त दिनमें भोजन नहीं करता है| तो मोटा कैसे हो रहा है ? इस प्रश्नके उत्तरमें अर्थापत्तिसे कहना पड़ता है कि, देवदत्त रात्रिमें भोजन करता है । क्योंकि, यदि ऐसा न कहें तो देवदत्तके मोटापना सिद्ध न होवेइसी प्रकार यहां भी घटपदार्थके ज्ञानके विना घटका प्रकाश नही हो सकता है और घटका प्रकाश होता ही है, इस कारण घटका प्रकाश सिद्ध करनेके लिये अर्थापत्तिसे घटज्ञानका ज्ञान हो जाता है । सो यह कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि, जैसे ज्ञान ज्ञापक ( जनानेवाला ) है, उसी प्रकार अर्थापत्ति भी ज्ञापक है| अतः खयं अज्ञात (नही जानी हुई ) वह अर्थापत्ति भी ज्ञानको नहीं जना सकती है । और यदि दूसरी अर्थापत्तिसे उस अर्थापत्तिका ज्ञान मानोगे तो अनवस्था और अन्योन्याश्रय दोष आवेगा; इसकारण दूसरे ज्ञानको पहले ज्ञानका प्रकाशक मानने में जो तुमको दोष आया था; वही यहां भी आगया। अतः सिद्ध हुआ कि जैसे ज्ञान अर्थोन्मुखतासे प्रतिभासता है अर्थात् अर्थका ज्ञान करता है। उसी प्रकार खोन्मुखतासे भी ज्ञान प्रतिभासता है अर्थात् ज्ञान अपने ज्ञानको भी आप ही करता है । और | ऐसा सिद्ध होनेसे ज्ञानके खसंविदितपना सिद्ध हो गया। al नन्वनुभूतेरनुभाव्यत्वे घटादिवदननुभूतित्वप्रसङ्गः।प्रयोगस्तु ज्ञानमैनुभवरूपमप्यनुभूतिर्न भवति, अनुभाव्यत्वा द् घटवत् । अनुभाव्यं च भवद्भिरिष्यते ज्ञानं, स्वसंवेद्यत्वात् । नैवम् । ज्ञातुमा॑तृत्वेनेवानुभूतेरनुभूतित्वेनैवानुभवा त् । न चानुभूतेरनुभाव्यत्वं दोषोऽर्थापेक्षयानुभूतित्वात्स्वापेक्षया चानुभाव्यत्वात् । स्वपितृपुत्रापेक्षयैकस्य पुत्रत्वपितृ त्ववद्विरोधाभावात् । KI शंका-यदि आप अनुभूति ( ज्ञप्ति ) को अर्थात् जाननेरूप क्रियाको अनुभाव्य ( अनुभव करने योग्य ) अर्थात् ज्ञेय (जानने योग्य ) मानोगे तो घटादिके समान ज्ञानके भी अनुभूतिसे रहितताका प्रसंग होगा अर्थात् जैसे घटादि पदार्थ अनुभाव्य होनेसे अनुभूतिरूप नहीं है, उसीप्रकार ज्ञान भी अनुभाव्य (ज्ञेय ) होनेसे अनुभूति (ज्ञप्ति ) स्वरूप न रहेगा। विषयमें अनुमानका प्रयोग इस प्रकार है कि,-ज्ञान अनुभवरूप है तो भी अनुभूति नही है, अनुभाव्य होनेसे, घटके समान। और १ यथा घटादेरनुभाव्यत्वेनाननुभूतित्व नास्ति तथा अनुभूतेरप्यनुभाव्यत्वेनाननुभूतित्वप्रसङ्गात् । अतोऽनुभूतेरनुभाव्यत्वं न स्वीकार्यमिति भावः। OTO Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥९५॥ आप ज्ञानको अनुभाव्य खीकार करते ही है; क्योंकि, आपके मतमें ज्ञान स्वसंविदित है । समाधान यह तुम्हारा कथन ठीकरा .जै.शा. नहीं है। क्योंकि, जैसे ज्ञाता (जाननेवाले) को ज्ञातृतासे अर्थात् मै जाननेवाला हूं इसरूपसे अनुभव होता है; उसीप्रकार अनुभूतिके अनुभूतिपनेसे ही अनुभव होता है, और अनुभूतिको अनुभाव्यता दोष नहीं है अर्थान् अनुभूतिको अनुभाव्य माननेमें जो जो तुमने दोष दिया है, वह नहीं हो सकता है, क्योंकि वह अनुभूति अर्थकी अपेक्षासे तो अनुभूति है और अपनी अपेक्षासे अनुभाव्य है, इसकारण जैसे एक ही पुरुष अपने पिताकी अपेक्षासे पुत्रत्व और अपने पुत्रकी अपेक्षासे पितृत्व धर्मको अविरोधतासे धारण करता है अर्थात् भिन्न २ अपेक्षासे पुत्रत्व और पितृत्वरूप दोनों धर्मोको धारण करनेसे उस पुरुषमें कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता है, इसी प्रकार अनुभूतिको भिन्न २ अपेक्षासे अनुभूतित्व और अनुभाव्यत्व धर्मको धारण करनेवाली माननेमें कोई विरोध ( दोष ) नही है । ___ अनुमानाच्च स्वसंवेदनसिद्धिः । तथा हि-ज्ञानं स्वयं प्रकाशमानमेवार्थ प्रकाशयति प्रकाशकत्वात्प्रदीपवत् । संवेदनस्य प्रकाश्यत्वात्प्रकाशकत्वमसिद्धमिति चेत् न । अज्ञाननिरासादिद्वारेण प्रकाशकत्वोपपत्तेः। और अनुमानसे भी ज्ञानके खसवेदनता सिद्ध होती है । सो ही अनुमानका प्रयोग दिखाते है कि,-ज्ञान जो है वह स्वय (अपनेको ) प्रकाशता हुआ ही अर्थको प्रकाशित करता है, प्रकाशक होनेसे, प्रदीपके समान अर्थात् जैसे प्रकाशक होनेसे प्रदीप आपके और पदार्थके दोनोंके स्वरूपको प्रकट करता है, उसीप्रकार ज्ञान भी प्रकाशक है अत: अपने और पदार्थके दोनोंके स्वरूपको जानता है । यदि कहो कि; ज्ञान प्रकाश्य (प्रकशित होने योग्य ) है अतः ज्ञान प्रकाशक (प्रकाश करने-18 वाला ) सिद्ध नहीं होता है सो नहीं, क्योंकि, ज्ञान जो है वह उत्पन्न होते ही अज्ञानके नाश आदिको करता है, इस कारण ज्ञानके प्रकाशकपना सिद्ध होता है। ॐ ननु नेत्रादयः प्रकाशका अपि स्वं न प्रकाशयन्तीति प्रकाशकत्वहेतोरनैकान्तिकतेति चेत्, न नेत्रादिभिरनै कान्तिकता । तेषां लन्ध्युपयोगलक्षणभावेन्द्रियरूपाणामेव प्रकाशकत्वात् । भावेन्द्रियाणां च स्वसंवेदनरूपतैवेति ॐ न व्यभिचारः । तथा संवित् स्वप्रकाशा अर्थप्रतीतित्वात् । यः स्वप्रकाशो न भवति नासावर्थप्रतीतिः । यथा घटः। १ज्ञान स्वप्रकाशकम्, अर्थप्रकाशकत्वात । यन्नैवं तन्नैवं यथा घट इति तात्पर्यम् । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि ऐसा कहो कि,-नेत्र आदि प्रकाशक है तो भी निजका प्रकाश नही करते है अर्थात् नेत्र दूसरे पदार्थोंको तो प्रकट | करता है, परंतु खयं अप्रकट रहता है, इस कारण प्रकृत अनुमानमें जो आपने प्रकाशकत्व हेतु दिया है; वह अनैकान्तिक है। अर्थात् 'यह प्रकाशकत्व हेतु ज्ञान आदिमें तो खप्रकाशकताको सिद्ध करता है और नेत्र आदिमें स्वप्रकाशकताको सिद्ध नहीं करता है। इसकारण व्यभिचारसहित है, तो उत्तर यह है कि, इस अनुमानमें प्रकाशकत्व हेतुके नेत्र आदिसे अनैकान्तिकता| a सिद्ध नही होती है । क्योंकि; लब्धि और उपयोगरूप जो भाव इन्द्रिये है; उन भाव इन्द्रियोंरूप जो नेत्र आदि है; उनके ही प्रकाशकपना है और जो भावइन्द्रियरूप नेत्र आदि हैं, वे खसंवेदन ( स्वप्रकाशक ) रूप है ही । भावार्थ-हमारे ( जैनियोंके ) मतमें द्रव्य और भावरूप भेदोंसे इन्द्रियें दो प्रकारकी है। इनमें द्रव्येन्द्रिय भी दो प्रकारकी है एक निर्वृत्तिरूप और दूसरी उपकरणरूप, शरीरमें जो नेत्र आदिके आकारोंकी रचना है, वह निर्वृत्तिरूप द्रव्येन्द्रिय है, और ( नेत्रादिकी ) रक्षा करनेके लिये जो नेत्रादिपर डोला भाफणी आदि है वह उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय कहलाती हैं । यह द्रव्येन्द्रिय जडरूप है । और लब्धि तथा का उपयोग, इन भेदोंसे भाव इन्द्रिय भी दो प्रकारकी है। इनमें नेत्र आदिमें स्थित आत्मप्रदेशोंमें जो देखनेकी शक्तिकी प्रकटता है। सो लब्धिरूप भावेन्द्रिय है और जो देखने आदिकी तरफ आत्माका ध्यान होता है; वह उपयोगरूप भावेन्द्रिय है। यह भावेन्द्रिय चेतनरूप है, और जैसे पदार्थको जानती है उसीप्रकार अपने स्वरूपको भी जानती है । इसकारण तुम भावेन्द्रियरूप नेत्र आदिको अप्रकाशक कहकर उससे हमारे प्रकाशकत्व हेतुमें अनैकान्तिकता सिद्ध नहीं कर सकते हो। और ज्ञान जो है; || वह स्वप्रकाशक है, पदार्थको जाननेवाला होनेसे । जो खप्रकाशक नहीं है। वह पदार्थका ज्ञाता भी नहीं है । जैसे कि-घट । भावार्थ-अर्थका प्रकाशक होनेसे ज्ञान खप्रकाशक है, जो अर्थका प्रकाशक नही है, वह खप्रकाशक भी नहीं है, जैसे कि; घट || अर्थका प्रकाशक नहीं है, इसलिये खप्रकाशक भी नहीं है । इस अनुमानके प्रयोगसे भी ज्ञानके खसंवेदनता सिद्ध होती है। G ___ तदेवं सिद्धेऽपि प्रत्यक्षानुमानाभ्यां ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वे “संप्रयोगे इन्द्रियबुद्धिजन्मलक्षणं ज्ञानं, ततोऽर्थ-|| प्राकट्यं तस्मादापत्तिस्तया प्रवर्तकज्ञानस्योपलम्भः” इत्येवंरूपा त्रिपुटीप्रत्यक्षकल्पना भट्टानां प्रयासफलैव। इस प्रकारसे प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणद्वारा ज्ञानके स्वसंवेदनपना सिद्ध होता है तो भी भट्टमतानुयायियोंने जो ' सत्संप्रयोग होनेपर (पदार्थका इन्द्रियोंके साथ संबंध होनेपर) इन्द्रियबुद्धिजन्मरूप लक्षणका धारक (इन्द्रियोंमें जो बुद्धि उत्पन्न होती Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. है उसरूप ) ज्ञान होता है, उस ज्ञानसे अर्थका प्रकाश होता है; पदार्थके प्रकाशसे अर्थापत्ति होती है और अर्थापत्तिसे प्रवर्तक ( पदार्थको प्रकाशित करनेवाले ) ज्ञानका ज्ञान होता है' इस प्रकारसे त्रिपुटी प्रत्यक्षकी कल्पना की है, अर्थात् तीन पुट ॥९६॥ (चक्कर) लगाकर ज्ञानका प्रत्यक्ष माना है वह केवल परिश्रमरूप फलको ही धारण करती है । भावार्थ-भट्टोंने ज्ञानको स्वसंवे Kादन न मानकर जो इतना वाग्जाल फैलाया है, उससे लाभके बदले परिश्रमकी वृद्धिरूप हानि ही होती है। l यौगास्त्वाहुः । ज्ञानं स्वान्यप्रकाश्यम् ईश्वरज्ञानान्यत्वे सति प्रमेयत्वात् । घटवत् । समुत्पन्नं हि ज्ञानमेकात्मसमवेताऽनन्तरोद्भविष्णुमानसप्रत्यक्षेणैव लक्ष्यते न पुनः स्वेन । नचैवमनवस्था । अर्थावसायिज्ञानोत्पादमात्रेणैवार्थसिद्धौ प्रमातुः कृतार्थत्वात् । अर्थज्ञानजिज्ञासायां तु तत्रापि ज्ञानमुत्पद्यत एवेति । ' और यौग (नैयायिकमतावलम्बी पुरुष ) यह कहते है कि,-'ज्ञान अपनेसे भिन्न जो कोई दूसरा है, उससे प्रकाशित होता म है, ईश्वरके ज्ञानसे भिन्न होकर प्रमेय (प्रमाणका विषय ) होनेसे घटके समान । भावार्थ-जैसे घट पदार्थ ईश्वरके ज्ञानसे भिन्न * है और प्रमेय है उसीप्रकार संसारी जीवोंका ज्ञान भी ईश्वरके ज्ञानसे भिन्न तथा प्रमेय है अतः जैसे घटका ज्ञान घटसे भिन्न जो ज्ञान है; उससे होता है, उसीप्रकार ज्ञानका ज्ञान भी दूसरेसे होता है अर्थात् जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह उसी आत्मामें समवायसंबंधसे रहनेवाला तथा ज्ञानकी उत्पत्तिके पश्चात् ही उत्पन्न होनेवाला ऐसा जो मानस प्रत्यक्ष है उसीके द्वारा जाना ५ जाता है और अपने द्वारा अपना ज्ञान नहीं करता है। और इस हमारे मतमें अनवस्था दोप नहीं होता है। क्योंकि प्रमाता (ज्ञानको करनेवाला ) जो है, वह पदार्थका निश्चय करानेवाले ज्ञानकी उत्पत्ति होनेसे ही प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर कृतार्थ शू ( संतुष्ट ) हो जाता है । और जब प्रमाताके पदार्थके ज्ञानकी जिज्ञासा ( जाननेकी इच्छा ) होती है, तो उस जिज्ञासामें भी Kज्ञान उत्पन्न होता ही है।' तदयुक्तं पक्षस्य प्रत्यनुमानवाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । तथा हि-विवादास्पदं ज्ञानं स्वसंविदितं ज्ञानत्वात् । ईश्वरज्ञानवत् । न चायं वाद्यप्रतीतो दृष्टान्तः पुरुषविशेषस्येश्वरतया जैनैरपि स्वीकृतत्वेन तज्ज्ञानस्य तेषां प्रसिद्धेः। ॥९६॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ నా వారు వారి వా || सो यह तुम्हारा कथन ठीक नहीं है, क्योकि; ज्ञानको अस्वसंविदित माननेरूप जो पक्ष है; वह प्रत्यनुमानसे बाधित है; इस कारण हेतु कालात्ययापदिष्ट है । उस प्रत्यनुमानका प्रयोग निम्नलिखित प्रकारसे है ।" विवादका स्थानभूत जो ज्ञान है; वह | स्वसंविदित है, ज्ञान होनेसे ईश्वरके ज्ञानके समान अर्थात् जैसे ईश्वरका ज्ञान स्वप्रकाशक है; उसीप्रकार अन्यजीवोंका ज्ञान भी || || स्वप्रकाशक है, क्योंकि, ईश्वरज्ञानके समान वह भी ज्ञान है" और इस दृष्टान्तको वादी ( जैनी ) नहीं मानते है अर्थात् जैनी KI | ईश्वरको नहीं मानते है और जब ईश्वरको नहीं मानते है तो यहॉपर ईश्वरके ज्ञानका दृष्टान्त देकर उसके द्वारा हमारा खंडन कैसे कर सकते है यह न कहना चाहिये, क्योंकि जैनियोंने भी किसी २ पुरुषविशेषको ईश्वररूप स्वीकार किया है; इसकारण | जैनियोंके ईश्वरका ज्ञान प्रसिद्ध ही है । NI व्यर्थविशेष्यश्चात्र तव हेतुः समर्थविशेषणोपादानेनैव साध्यसिद्धेरग्निसिद्धौ धूमवत्वे सति द्रव्यत्वादितिवत् । ईश्वरज्ञानान्यत्वादित्येतावतैव गतत्वात् । न हीश्वरज्ञानादन्यत्स्वसंविदितमप्रमेयं वा ज्ञानमस्ति यद्व्यवच्छेदायला प्रमेयत्वादिति क्रियेत, भवन्मते तदन्यज्ञानस्य सर्वस्य प्रमेयत्वात् । | और इस प्रकृत अनुमानमें जो तुमने हेतु दिया है; वह व्यर्थविशेप्यका धारक है; क्योंकि, समर्थविशेषणको ग्रहण करनेसे ही साध्यकी सिद्धि हो जाती है। भावार्थ-जैसे पर्वत अग्निका धारक है धूमवान् होकर द्रव्यत्व होनेसे; इस अनुमानमें धूमवान् ||४|| होनेसे इस समर्थ विशेषणके देनेसे ही पर्वतमें अग्निकी सिद्धि हो जाती है अतः द्रव्यत्वरूप जो हेतुका विशेष्य है, वह व्यर्थ है, || उसीप्रकार ज्ञान किसी दूसरेसे प्रकाशित होता है ईश्वरके ज्ञानसे भिन्न होकर प्रमेयत्व होनेसे, इस अनुमानमें ईश्वरज्ञानसे भिन्न होनेसे, इस समर्थ विशेषणके देनेसे ही ज्ञानके परप्रकाशकता सिद्ध हो जाती है। इस कारण तुमने जो हेतुका प्रमेयत्वरूप विशेष्य ॥ दिया है, वह व्यर्थ ( निप्प्रयोजन ) है. क्योंकि, ईश्वरके ज्ञानके सिवाय अन्य कोई दूसरा ज्ञान खसंविदित अथवा अप्रमेय नहीं है कि; जिसको दूर करनेके लिये तुम प्रकृतअनुमानमें प्रमेयत्व होनेसे, ऐसा कथन करो, कारण कि तुम्हारे मतमें ईश्वरके ज्ञानसे | | भिन्न जितने ज्ञान है, वे सभी प्रमेयत्वको धारण करते है। | अप्रयोजकश्चायं हेतुः सोपाधित्वात् । साधनाव्यापकः साध्येन समव्याप्तिश्च खलूपाधिरभिधीयते । तत्पुत्रत्वादिना श्यामत्वे साध्ये शाकाद्याहारपरिणामवत्। उपाधिश्चात्र जडत्वम् । तथाहि-ईश्वरज्ञानाऽन्यत्वे प्रमेयत्वे च రు వారు, వారు నాకు అని Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥९७॥ मनक अन्यपुत्रोंके समाहारका परिणाम जो छैन नहीं है, उनमें भी शशाक आदिका भक्षण अक अन्य पुत्र हैं, उन्नाह सोही , र प्रयोगमें शाक आनिहीं है, क्योंकि, जो अर्थात् उस गर्नस पुजाक, साधन ( हेतु ) अनुमानमें भी जडत्व में किसी परपदाथसे यू सत्यपि यदेव जडस्तम्भादि तदेव स्वस्मादन्येन प्रकाश्यते । स्वप्रकाशे परमुखप्रेक्षित्वं हि जडस्य लक्षणम् । न च रा .जै.शा. ॐ ज्ञानं जडस्वरूपम् । अतः साधनाव्यापकत्वं जडत्वस्य । साध्येन समव्याप्तिकत्वं चास्य स्पष्टमेव । जाड्यं विहाय स्वप्रकाशाभावस्य तं च त्यक्त्वा जाड्यस्य क्वचिदप्यदर्शनात् । इति । ___और जो तुमने अनुमानके प्रयोगमें ' ईश्वरके ज्ञानसे भिन्न हो कर प्रमेय है' ऐसा हेतु दिया है। वह अप्रयोजक है; क्योंकि, के यह हेतु उपाधिसहित है। भावार्थ-जो साधनमें तो अव्यापक हो और साध्य के साथ व्याप्त रहे उसको उपाधि कहते हैं; जैसे "गर्भस्थः श्यामो मैत्रतनयत्वात्, इतरतत्पुत्रवत्" अर्थात् गर्भमें स्थित जो पुत्र है वह श्याम (काला) है क्योंकि मैत्रका पुत्र है, मैत्रके अन्यपुत्रोंके समान अर्थात् जैसे मैत्रके अन्य पुत्र काले है, उसीप्रकार मैत्रका गर्भस्थ पुत्र भी काला है । इस अनुमानके प्रयोगमें शाक आदिके आहारका परिणाम जो है; वह उपाधि है अर्थात् गर्भस्थ मैत्रपुत्रकी श्यामताको सिद्ध करनेमें मैत्रके अन्य पुत्र कारण नहीं है, क्योंकि, जो मैत्रके पुत्र नहीं है, उनमें भी श्यामता देखी जाती है । इसकारण गर्भस्थकी श्यामताका कारण शाकादिके आहारका परिणाम है अर्थात् उस गर्भस्थ पुत्रकी माता शाक आदिका भक्षण अधिक करेगी तो वह पुत्र श्याम होगा। और यह शाकादिके आहारका परिणाम उपाधि है, क्योंकि, साधन ( हेतु) रूप जो मैत्रके अन्य पुत्र हैं, उनमें तो नहीं फू रहता है और श्यामतारूप जो साध्य है, उसमें रहता है; उसी प्रकार जो इस प्रकृत अनुमानमें भी जडत्व उपाधि है सो ही दिखलाते है-ईश्वरके ज्ञानसे भिन्न तथा प्रमेय होनेपर भी जो जडरूप स्तंभ आदि पदार्थ है वेही अपनेसे भिन्न ऐसे किसी परपदार्थसे के प्रकाशित होते है, क्योंकि, जो अपने प्रकाशित होनेके लिये परपदार्थका मुख देखना अर्थात् परपदार्थकी अपेक्षा ( जरूरत ) रखना है; वही जडका लक्षण है । और ज्ञान जडरूप नहीं है। इस कारण यह जडत्व ईश्वरज्ञानसे भिन्न और प्रमेय ऐसे ज्ञानरूप . साधनमें नहीं रहता है। और यह जडत्व खान्यप्रकाशकतारूप साध्यके साथ व्याप्तिको धारण करता है; यह स्पष्ट ही है। क्योंयू कि; जडत्वको छोड़कर खप्रकाशकताका अभाव और खप्रकाशताके अभावको छोड़कर जडत्व ये दोनों कही भी नहीं देखे जाते है। * अर्थात् जो जड़ है, वही अपनेसे भिन्न दूसरे पदार्थ द्वारा प्रकाशित होता है और जो पदार्थ परसे प्रकाशित होता है वही जड़ है। ॐ भावार्थ-जैसे शाक आदिके आहारका परिणाम मैत्रपुत्ररूपी साधनमें न रहकर श्यामतारूपी साध्यके साथ व्याप्तिको धारण ॥९७॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनेसे उपाधि है; उसीप्रकार जडत्व जो है वह ईश्वरके ज्ञानसे भिन्न प्रमेयरूपी साधनमें न रहकर परप्रकाशकतारूपी साध्यके | साथ व्याप्तिके धारण करनेसे उपाधि है। यच्चोक्तं “ समुत्पन्नं हि ज्ञानमेकात्मसमवेतम्” इत्यादि । तदप्यसत्यम् । इत्थमर्थज्ञानतज्ज्ञानयोरुत्पद्यमानयोः । क्रमानुपलक्षणत्वात् इति । आशूत्पादात् क्रमानुपलक्षणमुत्पलपत्रशतव्यतिभेदवत् इति चेन्न । जिज्ञासाव्यवहित स्यार्थज्ञानस्योत्पादप्रतिपादनात् । न च ज्ञानानां जिज्ञासासमुत्पाद्यत्वं घटते। अजिज्ञासितेष्वपि योग्यदेशेषु विMYषयेषु तदत्पादप्रतीतेन । न चार्थज्ञानमयोग्यदेशम । आत्मसमवेतस्यास्य समुत्पादात । इति जिज्ञासामन्तरेणैवा-IN र्थज्ञाने ज्ञानोत्पादप्रसङ्गः । अथोत्पद्यतां नामेदं को दोषः, इति चेत् नन्वेवमेव तज्ज्ञानज्ञानेऽप्यपरज्ञानोत्पादप्रसङ्गः। तत्रापि चैवमेवायम् । इत्यपरापरज्ञानोत्पादपरम्परायामेवात्मनो व्यापारान्न विषयान्तरसंचारः स्यादिति । तस्माद्यज्ज्ञानं तदात्मबोधं प्रत्यनपेक्षितज्ञानान्तरव्यापारम् । यथा गोचरान्तरग्राहिज्ञानात्प्राग्भाविगोचरान्तरग्राहिधारावाहिज्ञानप्रवन्धस्यान्त्यज्ञानम् । ज्ञानं च विवादाध्यासितं रूपादिज्ञानम् । इति न ज्ञानस्य ज्ञानान्तरज्ञेयतां युक्तिं सहते । इति काव्यार्थः॥१२॥ | और जो तुमने यह कहा है कि; उत्पन्न हुए ज्ञानका ज्ञान उसी आत्मामें मिले हुए और उस ज्ञानके पश्चात् उत्पन्न हुए मानस प्रत्यक्षद्वारा होता है; सो भी असत्य है । क्योंकि- इसप्रकारसे उत्पन्न होते हुए पदार्थके ज्ञानमें और पदार्थज्ञानके ज्ञानमें क्रम | नहीं देखा जाता है, अर्थात् यह पदार्थका ज्ञान तो पहले उत्पन्न हुआ और यह पदार्थके ज्ञानका ज्ञान पीछे उत्पन्न हुआ इस कप्रकारका क्रम नहीं देखा जाता है। l यदि कहोकि,-जैसे सौ १०० कमलोंके पत्रोंके समुदायको सूईसे बीधा जावे तो उसमें क्रम नहीं प्रतीत होता है, क्योंकि; वे शीघ्रतासे भेदे गये है, इसीप्रकार पदार्थज्ञान और पदार्थज्ञानका ज्ञान ये दोनों शीघ्र उत्पन्न होते है; अतः इनमें क्रम नही देखा जाता है। तो यह ठीक नहीं। क्योंकि तुमने जिज्ञासा (जाननेकी इच्छा)से अव्यवहित अर्थात् जिज्ञासाके साथ ही जिज्ञासासे ही अर्थज्ञानकी उत्पत्ति होती है। ऐसा प्रतिपादन किया है । और ज्ञान जो है वे जिज्ञासा (जाननेकी इच्छा) से उत्पन्न होते है यह भी सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि; जो अजिज्ञासित ऐसे योग्यदेशस्थ विषय हैं अर्थात् जो इन्द्रियों के विषय जानने योग्य स्थानोंमें विद्यमान है; उन विषयों Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद्वादमं. ॥ ९८ ॥ को जानने की इच्छा किये बिना भी उन विषयोंका ज्ञान उत्पन्न होने की प्रतीति होती है । और पदार्थका ज्ञान अयोग्यदेश नहीं है। अर्थात् जानने योग्य स्थलमें विद्यमान नहीं है ऐसा नहीं है, क्योंकि, यह आत्मामें समवेत ( समवाय संबंधसे संबद्ध हुआ ) उत्पन्न होता है । इस प्रकार जिज्ञासा के बिना ही अर्थज्ञानमें ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग होता है । यदि कहोकि, जिज्ञासा के बिना ही अर्थज्ञानमें ज्ञान उत्पन्न होजाओ क्या दोष है, तो यह तुम्हारा कथन ठीक नहीं है । क्योंकि, ऐसा माननेपर उस अर्थज्ञानके ज्ञानमें दूसरे ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग होगा और उसमें भी इसी प्रकार फिर दूसरे ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसग होगा और इसप्रकार दूसरे दूसरे ज्ञानोंकी उत्पत्तिकी परंपरामें ही अपना व्यापार होनेसे ज्ञानका दूसरे विषयोमे सचार नही होगा। इस कारण जो ज्ञान है वह अपना ज्ञान होनेके लिये किसी दूसरे ज्ञानके व्यापारकी अपेक्षा नही करता है । जैसे कि - एक विषयको छोड़कर दूसरे विषयको ग्रहण करनेवाले ज्ञानसे पहले होनेवाले विषयान्तरको ग्रहण करनेवाले धारावाही ज्ञानके प्रबधका अन्तिम ज्ञान अपने ज्ञानके लिये किसी दूसरे ज्ञानके व्यापारकी अपेक्षा नही करता है । और यहा विवादापन्न जो ज्ञान है, वह रूप आदिका ज्ञान है । भावार्थ - जैसे घटका ज्ञान होनेके पश्चात् पटका ज्ञान किया जावे तो जबतक पटका निश्चय न हो तबतक 'पटोऽयं पटोऽयम्' अर्थात् यह पट है यह पट है इत्यादि रूप जो धारावाही ज्ञान है, उस धारावाही ज्ञानके प्रबंधका जो पटका निश्चय करानेवाला अतिम ज्ञान है; वह अपने ज्ञानके लिये दूसरे ज्ञानकी सहायता नही चाहता है; इसी प्रकार जो ज्ञान है, वह अपने ज्ञानके लिये किसी दूसरे ज्ञानकी अपेक्षा नहीं करता है। इस उक्त प्रकारसे सिद्ध हुआ कि,- नैयायिकमतवाले जो ज्ञानको दूसरे ज्ञानसे अर्थात् मानसप्रत्यक्षसे ज्ञेय ( जानने योग्य ) मानते है सो युक्तिको सहन नही करता है अर्थात् मिथ्या है। इसप्रकार काव्यका अर्थ है । १२ । अथ ये समर्थयन्ते । तन्मतमुपहसन्नाह । - ब्रह्माद्वैतवादिनोऽविद्याऽपरपर्यायमायावशात्प्रतिभासमानत्वेन विश्ववयवर्त्तिवस्तुप्रपञ्चमपारमार्थिकं अब जो ब्रह्माद्वैतवादी ( एक आत्माको ही पदार्थरूप कहनेवाले ) अर्थात् वेदान्ती अविद्या है दूसरा नाम जिसका ऐसी मायाके वशसे प्रतिभासमान होनेसे तीन लोकमें विद्यमान पदार्थों के समूहको अपारमार्थिक सिद्ध करते है अर्थात् तत्त्वरूप नही मानते है, उनके मतका हास्य करते हुए आचार्य इस अग्रिम काव्यका कथन करते है । - रा.जे. शा ॥९८ ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया सती चेद्वयतत्त्वसिद्धिरथासती हन्त कुतः प्रपञ्चः। मायैव चेदर्थसहा च तत्किं माता च वन्ध्या च भवत्परेषाम् ॥ १३॥ सूत्रभावार्थ-हे भगवन् ! यदि वेदान्ती मायाको सवरूप मानें तब तो दो तत्त्व सिद्ध होजावें । अर्थात् एक तो उनका माना हुआ आत्मब्रह्मतत्त्व है ही और दूसरा सवरूप माननेसे मायारूप तत्त्व भी सिद्ध होजावे । और यदि वे मायाको असरूप मानें || तो आश्चर्य है कि, यह तीनलोकवर्ती पदार्थोका समूहरूपी प्रपंच कैसे दृष्टिगोचर होता है । और यदि वे वेदान्ती यह कहें कि, | वह माया भी है और अर्थक्रियामें समर्थ पदार्थोंको दिखलानेमें भी समर्थ है तो क्या आपसे पर ( आपकी आज्ञाके बहिर्भूत ) उन वेदान्तियोंके माता भी है और वंध्या भी है ॥ १३ ॥ व्याख्या । तैर्वादिभिस्तात्त्विकात्मब्रह्मव्यतिरिक्ता या माया अविद्या प्रपञ्चहेतुः परिकल्पिता सा सद्रूपा असलू-II पा वा द्वयी गतिः । सती सद्रूपा चेत् तदा द्वयतत्त्वसिद्धिावयवौ यस्य तद् द्वयं तथाविधं यत्तत्त्वं परमार्थस्तस्य सिद्धिः। अयमर्थः एकं तावत्त्वदभिमतं तात्त्विकमात्मब्रह्म, द्वितीया च माया तत्त्वरूपा सद्रूपतयाङ्गीक्रियमाणत्वात् । तथा चाद्वैतवादस्य मूले निहितः कुठारः । अयेति पक्षान्तरद्योतने । यदि असती गगनाम्भोजववस्तुरूपा सा माया ततो हन्तेत्युपदर्शने आश्चर्ये वा, कुतः प्रपञ्चः अयं त्रिभुवनोदरविवरविवर्तिपदार्थसार्थरूपप्रपचः कुतो न कुतोऽपि सम्भवीत्यर्थः । मायाया अवस्तुत्वेनाभ्युपगमात, अवस्तुनश्च तुरङ्गशृङ्गस्येव सर्वोपाख्याविरहितस्य साक्षात्क्रियमाणेदृशविवर्तजननेऽसमर्थत्वात् । किलेन्द्रजालादौ मृगतृष्णादौ वा मायोपदर्शितार्थानामथेक्रियायामसामर्थ्य दृष्टम्, अत्र तु तदुपलम्भात्कथं मायाव्यपदेशः श्रद्धीयताम् । या व्याख्यार्थ:-उन वेदांतवादियोंने तत्त्वखरूप आत्मब्रह्मसे जुदी ऐसी जिस माया ( अविद्या) को प्रपंचकी कारण||भूता माना है, वह माया या तो सतरूप होवे और या असत्रूप होवे; ये दोही विकल्प है। " सती चत् " यदि वादा मायाको सत्रूप कहे, तव तो “द्वयतत्त्वसिद्धिः" जिसके दो अवयव हो। उसको द्वय कहते है, द्वय (दो अवयवोंका धारक) || ऐसा जो तत्त्व अर्थात् परमार्थ है; उसकी सिद्धि होगी अर्थात् पहले एक तो उनका माना हुआ तत्त्वरूप आत्मब्रह्म है ही और Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥१००॥ अर्थक्रियामें समर्थ पदार्थो को दिखलानेमें समर्थ स्वीकार करनेपर उन वेदान्तवादियों को भी अपने वचनसे विरोध आता है, यह स्पष्ट ही है । इस प्रकार काव्यका सक्षेपसे अर्थ है ॥ व्यासार्थस्त्वयम् । ते वादिन इदं प्रणिगदन्ति तात्त्विकमात्मन्ब्रह्मैवास्ति । " सर्व स्वल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्च न । आरामं तस्य पश्यन्ति न तत्पश्यति कश्चन ॥ १ ॥ " इति न्यायात् । अयं तु प्रपञ्चो मिथ्यारूपः, प्रतीयमानत्वात् । यदेवं तदेवम् । यथा शुक्तिशकले कलधौतम् । तथा चायं तस्मात्तथा । विस्तारसे तो काव्यका अर्थ यह है - वे वेदान्तवादी यह कहते है कि " जो आत्मब्रह्म है वही तात्त्विक अर्थात् वस्तु तथा परमार्थरूप है। क्योंकि -" यह सब ब्रह्मरूप है, इसमें नानाप्रकारका कुछ भी नहीं है। उसके आराम ( प्रपच ) को सब देखते हैं परतु उस ब्रह्मको कोई भी नहीं देखता है ” इत्यादि आगमके वचन है । और यह ( देखने में आता हुआ ) प्रपच मिथ्यारूप है; क्योंकि प्रतीयमान है अर्थात् इसकी प्रतीति होती है । जो प्रतीत होता है, वह मिथ्यारूप होता है । जैसे सीपके टुकड़ेमें चांदी प्रतीत होती है; इसकारण सीपके टुकड़ेमें चांदी मिथ्यारूप है । उसीप्रकार यह प्रपंच भी है, इसप्रकारण मिथ्यारूप है । तदेतद्वार्त्तम् । तथा हि मिथ्यारूपत्वं तैः कीदृग् विवक्षितम् । किमत्यन्तासत्वम्, उतान्यस्यान्याकारतया प्रतीतत्वम्, आहोस्विदनिर्वाच्यत्वम् । प्रथमपक्षेऽसत्ख्यातिप्रसङ्गः । द्वितीये विपरीतख्याति स्वीकृतिः । तृतीये तु किमिदम् अनिर्वाच्यत्वम् । निःस्वभावत्वं चेत् निसः प्रतिषेधार्थत्वे स्वभावशब्दस्यापि भावाभावयोरन्यतरार्थत्वेऽसत्ख्यातिसत्ख्यात्यभ्युपगमप्रसङ्गः । भावप्रतिषेधेऽसत्ख्यातिर भावप्रतिषेधे सत्ख्यातिरिति । रा. जै.शा. सो यह वेदान्तियोंका कहना असत्य है । अब वेदांतियोंका कथन असत्य क्यो है सो ही दिखलाते है । ——उन वेदान्तवादियोंने मिथ्यारूपत्वको कैसा कहना चाहा है अर्थात् क्या जो अत्यंत असत्रूप है उसको मिथ्यारूप कहना चाहते है, अथवा अन्य पदार्थकी अन्य आकारतासे जो प्रतीति होती है उसको मिथ्यारूप कहना चाहते हैं । वा जो अनिर्वाच्य ( कहने योग्य नहीं ) है उसको मिथ्यारूप कहना चाहते है । प्रथम पक्षमें अर्थात् यदि वे अत्यंत असत् ( अविद्यमान ) रूप पदार्थको मिथ्यारूप कह तब तो उनको असत् ख्यातिका प्रसंग होगा अर्थात् असत् पदार्थको मिथ्यारूप कहनेसे उनको असत्पदार्थके कथन करनेका दोष आवेगा । और दूसरे पक्षमें अर्थात् यदि वे अन्यपदार्थकी अन्य आकारसे जो प्रतीति होती है अर्थात् रज्जुमें जो सर्पका ज्ञान होता ॥१००॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - है; उसको मिथ्यारूप कहेंगे; तो उनको विपरीत ख्याति खीकार करनी पड़ेगी और अनिर्वाच्यरूप तीसरे पक्षमें अर्थात् यदि वे यादव जो कहने योग्य नहीं है; उसको मिथ्यारूप कहें तो हम प्रश्न करते है कि यह अनिर्वाच्य क्या है ? यदि वे उत्तर देवें कि जो निःखभावता (खभावरहितपना) है वह अनिर्वाच्य है तो निःखभाव इस शब्द : निस्" इस अव्ययका प्रतिषेधरूप अर्थ || करनेपर और स्वभाव शब्दके जो भाव, और अभावरूप दो अर्थ है; उनमेंसे किसी एक अर्थकों खीकार करनेपर उनको असत्का ख्याति और सत्ख्यातिको स्वीकार करनेका प्रसंग होगा । भावार्थ- स्वभाव दो प्रकारका है एक भावरूप और दूसरा अभावरूप, इसलिये उन वादियोंके निःस्वभाव इस शब्दसे भावका निराकरण करनेपर असत्रख्यातिको और अभावका निराकरण करनेपर सत्रख्यातिको स्वीकार करना पड़ेगा और यह उनको अभीष्ट नहीं है । प्रतीत्यगोचरत्त्वं निःस्वभावत्वमिति चेत् अत्र विरोधः। न प्रपञ्चो हि न प्रतीयते चेत्कथं धर्मितयोपात्तः। कथं च प्रतीयमानत्वं हेतुतयोपात्तम् । तथोपादाने वा कथं न प्रतीयते । यथा प्रतीयते न तथेति चेत्तर्हि विपरीतख्यातिरियमभ्युपगता स्यात् । किञ्चेयमनिर्वाच्यता प्रपञ्चस्य प्रत्यक्षबाधिता । घटोऽयमित्याद्याकारं हि प्रत्यक्ष प्रपञ्चस्य सत्यतामेव व्यवस्यति । घटादिप्रतिनियतपदार्थपरिच्छेदात्मनस्तस्योत्पादात् । इतरेतरविविक्तवस्तूनामेव |च प्रपञ्चशब्दवाच्यत्वात् । यदि वादी यह कहें कि हम ‘निस् ' का प्रतिषेधरूप अर्थ करके स्वभाव शब्दसे भाव-अभावका ग्रहण नहीं करते है किन्तु जो प्रतीतिके अगोचर है उसको निःस्वभाव कहते है, तो ऐसा माननेपर उनको इस प्रकृत अनुमानके प्रयोगमें विरोध आता है। क्योंकि, जब प्रपंच है ही नहीं और उसकी प्रतीति ही नहीं होती है तव 'प्रपंच मिथ्यारूप है, प्रतीयमान होनेसे' इस अनुमानमें उन्होंने प्रपचको धर्मीरूपपनेसे कैसे ग्रहण किया है और प्रतीयमानत्वको हेतुरूपतासे कैसे ग्रहण किया है । और जो उन्होंने प्रपचको| धर्मीरूपसे तथा प्रतीयमानत्वको हेतुरूपसे ग्रहणकर लिया है तो फिर प्रपंच कैसे प्रतीत नही होता है । अर्थात् प्रपंचके प्रतीतिगोचरता सिद्ध होती ही है । यदि वादी कहें कि:- प्रपच जिसप्रकारसे प्रतीत होता है उस प्रकारसे वास्तवमें नहीं है इसलिये हम उसको प्रतीतिके अगोचर कहते है तो ऐसा कहनेपर उनको विपरीत ख्याति खीकार करनी पड़ेगी। और यह भी विशेष है कि,यह जो प्रपंचकी अनिर्वाच्यता है; वह प्रत्यक्षसे बाधित है । क्योंकि ' यह घट है' इस आकारका धारक जो प्रत्यक्ष है वह Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैतापत्तिः। ततश्च सुव्यवस्थितः प्रपञ्चः । तदमी वादिनोऽविद्याविवेकेन सन्मानं प्रत्यक्षात्प्रतीयन्तोऽपि न निKषेधकं तदिति ब्रुवाणाः कथं नोन्मत्ताः । इति सिद्धं प्रत्यक्षवाधितः पक्षः। इति ।। ___ और भी विशेष वक्तव्य यह है कि, यदि वे ' प्रत्यक्ष विधायक ही है ' ऐसा खीकार करें तो जैसे प्रत्यक्षसे विद्याका विधान | N होता है, अर्थात् प्रत्यक्ष विद्याको ग्रहण करता है उसी प्रकार प्रत्यक्ष अविद्याको भी क्यों नही ग्रहण करता है । और जो प्रत्यक्ष | अविद्याको ग्रहण करेगा तो द्वैत ( दो पने) की आपत्ति होगी अर्थात् विद्या और अविद्यारूप दो पदार्थों के होनेसे उनके अद्वैत- 12 वादका खंडन हो जावेगा और ऐसा होनेसे प्रपच भी सुव्यवस्थित हो जावेगा अर्थात् मिथ्यारूप न रहेगा । इस कारण वे LG वदान्ती अविद्या निषेध पूर्वक सन्मात्रको प्रत्यक्षसे जानते हैं तो भी वह प्रत्यक्ष निषेधक नही है ऐसा कहते हुए उन्मत्त कैसे न A नहीं है। अर्थात् है ही। इस प्रकार उक्त कथनसे यह सिद्ध हुआ कि प्रकृत अनुमानके प्रयोगमें 'प्रपंच मिथ्यारूप है' यह जो पक्ष है वह प्रत्यक्षसे वाधित है। P अनुमानवाधितश्च । प्रपञ्चो मिथ्या न भवति असद्विलक्षणत्वात् । आत्मवत् । प्रतीयमानत्वं च हेतुब्रह्मात्मना या व्यभिचारी । स हि प्रतीयते न च मिथ्या। अप्रतीयमानत्वे त्वस्य तद्विपयवचसामप्रवृत्तेमूकतव तेपा श्रयसी । साध्यविकलश्च दृष्टान्तः । शुक्तिशकलकलधौतेऽपि प्रपञ्चान्तर्गतत्वेन अनिर्वचनीयतायाः साध्यमानत्वात् । और ' प्रपंच मिथ्यारूप है ' यह वेदान्तियोंका पक्ष अनुमान प्रमाणसे भी बाधित है । सो ही प्रत्यनुमानका प्रयोग है कि,-12 धा प्रपच मिथ्या नहीं है क्योकि; असत्से विलक्षण ( भिन्न ) अर्थात् सत् रूप है, आत्माके समान । भावाथे-जैसे आत्मा / - असत्स विलक्षण ह इस कारण मिथ्या नहीं है उसी प्रकार प्रपच भी असत्से विलक्षण है, अतः मिथ्या नहीं है। और अपच ) मिथ्यारूप है प्रतीयमान होनेसे ' यहांपर प्रतीयमानत्व रूप जो हेतु है वह ब्रह्मात्माके साथ व्यभिचारको धारण करता है। क्योकि ब्रह्मात्मा प्रतीत होता है परंतु मिथ्या नही है। और जो कदाचित् वेदान्ती प्रपंचको अप्रतीयमान कहें तो अप्रतीयमान ( जान में नहीं आते हुए ) प्रपंचके विपयमे वचनोंकी प्रवृत्ति नही हो सकती है । अर्थात् जो पदार्थ जाननेमें आता है; उसीक विपयम कुछ कहा जा सकता है, न कि नही जाने हुए पदार्थके विषयमें । इस कारण प्रपंचके विषयमें उन वेदातियांका Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाद्वादम- ॥१०॥ प्रपंचकी सत्यताको ही निश्चय कराता है । कारण कि; 'यह घट है' इस आकारका जो प्रत्यक्ष है वह घट आदि प्रतिनियत राजै.शा. जा(खास मुकर्रर किये हुए) पदार्थोके ज्ञानरूप ही उत्पन्न होता है और एक दूसरेसे भिन्न हुए ऐसे पदार्थ ही प्रपंच इस शब्दसे वाच्य ( कहे जाने योग्य ) है। भावार्थ-प्रत्येक भिन्न २ पदार्थको तुमने प्रपंच माना है; और प्रत्यक्ष भी घट आदि पदार्थको | दूसरे पदार्थों से भिन्न करके ही जनाता है। अथ प्रत्यक्षस्य विधायकत्वात्कथं प्रतिषेधे सामर्थ्यम् । प्रत्यक्षं हि-इदमिति वस्तुस्वरूपं गृह्णाति । नान्यत्स्वरूपं ।। प्रतिषेधति । " आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निपेढ़ विपश्चितः । नैकत्व आगमस्तेन प्रत्यक्षेण प्रवाध्यते ॥१॥” इति ली वचनात् । इति चेत्-न । अन्यरूपनिषेधमन्तरेण तत्स्वरूपपरिच्छेदस्याप्यसंपत्तेः । पीतादिव्यवच्छिन्नं हि नीलं नीलमिति गृहीतं भवति । नान्यथा। केवलवस्तुस्वरूपप्रतिपत्तरेवान्यप्रतिषेधप्रतिपत्तिरूपत्वात् । मुण्डभूतलग्रहणे ! घटाभावग्रहणवत् । तस्माद्यथा प्रत्यक्षं विधायक प्रतिपन्नं, तथा निषेधकमपि प्रतिपत्तव्यम् । यदि वादी कहें कि,- “विद्वानोंने प्रत्यक्षको विधायक (पदार्थके खरूपको ग्रहण करनेवाला) कहा है और निषेधक ( पदार्थके खरूपको निराकरण करनेवाला ) नही कहा है। इस कारण उस प्रत्यक्षसे एकत्व आगमका अर्थात् केवल एक ब्रह्मको ही माननेवाले वेदान्तियोंके सिद्धान्तका बाध (खंडन) नही होता है ॥१॥" इस वचनके अनुसार प्रत्यक्ष विधायक अर्थात् वस्तुके || खरूपको ग्रहण करनेवाला है, इस कारण वस्तुके खरूपका प्रतिषेध करनेमें उस प्रत्यक्षका सामर्थ्य कैसे हो सकता है । सो यह उनका कहना ठीक नहीं है । क्योंकि पटादि दूसरे पदार्थोंका निषेध किये विना उस एक घटादि पदार्थके स्वरूपका ज्ञान ही नही हो सकता है । क्योंकि, पीत ( पीले) आदि वर्णो से भिन्न हुआ ऐसा जो नीलवर्ण है उसीका ' यह नील है ' इस प्रकार || ग्रहण होता है । अन्य प्रकारसे नही । कारण कि; जैसे केवल भूतलका ग्रहण होनेसे उस भूतल ( जमीन ) में घटके अभावका ग्रहण हो जाता है उसी प्रकार केवल पदार्थके खरूपका जो ग्रहण है वही अन्य पदार्थों के निषेधको ग्रहण करने रूप है । इस | ॥१०१॥ लाकारण जैसे उन वादियोंने प्रत्यक्षको विधायक माना है; उसी प्रकार उन्हें प्रत्यक्षको निषेधक भी स्वीकार करना चाहिये। । अपि च विधायकमेव प्रत्यक्षमित्यङ्गीकृते यथा प्रत्यक्षेण विद्या विधीयते, तथा किं नाविद्यापीति । तथा च Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है; उसको मिथ्यारूप कहेंगे; तो उनको विपरीत ख्याति स्वीकार करनी पडेगी और अनिर्वाच्यरूप तीसरे पक्ष अर्थात् यदि वे जो कहने योग्य नही है, उसको मिथ्यारूप कहें तो हम प्रश्न करते हैं कि - यह अनिर्वाच्य क्या है ? यदि वे उत्तर देवें कि जो निःखभावता ( खभावरहितपना ) है वह अनिर्वाच्य है तो निःखभाव इस शब्दमें " निस्” इस अव्ययका प्रतिषेधरूप अर्थ करनेपर और स्वभाव शब्दके जो भाव, और अभावरूप दो अर्थ हैं, उनमेंसे किसी एक अर्थकों स्वीकार करनेपर उनको असत्ख्याति और सत्ख्यातिको स्वीकार करनेका प्रसंग होगा । भावार्थ -- स्वभाव दो प्रकारका है एक भावरूप और दूसरा अभावरूप, इसलिये उन वाढियोके निःस्वभाव इस शब्दसे भावका निराकरण करनेपर असत्ख्यातिको और अभावका निराकरण करनेपर | सत्ख्यातिको स्वीकार करना पड़ेगा और यह उनको अभीष्ट नहीं है । प्रतीत्यगोचरत्त्वं निःस्वभावत्वमिति चेत् अत्र विरोधः । न प्रपञ्चो हि न प्रतीयते चेत्कथं धर्मितयोपात्तः । कथं च प्रतीयमानत्वं हेतुतयोपात्तम् । तथोपादाने वा कथं न प्रतीयते । यथा प्रतीयते न तथेति चेत्तर्हि विपरीतख्यातिरियमभ्युपगता स्यात् । किश्चेयमनिर्वाच्यता प्रपञ्चस्य प्रत्यक्षवाधिता । घटोऽयमित्याद्याकारं हि प्रत्यक्षं प्रपञ्चस्य सत्यतामेव व्यवस्यति । घटादिप्रतिनियतपदार्थपरिच्छेदात्मनस्तस्योत्पादात् । इतरेतरविविक्तवस्तूनामेव च प्रपञ्चशब्दवाच्यत्वात् । यदि वादी यह कहें कि हम ' निस्' का प्रतिषेधरूप अर्थ करके स्वभाव शब्दसे भाव - अभावका ग्रहण नही करते है किन्तु जो प्रतीतिके अगोचर है उसको निःस्वभाव कहते हैं, तो ऐसा माननेपर उनको इस प्रकृत अनुमानके प्रयोगमें विरोध आता है । क्योंकि, जब प्रपंच है ही नहीं और उसकी प्रतीति ही नही होती है तब 'प्रपंच मिथ्यारूप है, प्रतीयमान होनेसे' इस अनुमानमें उन्होंने प्रपंच को धर्मरूपपनेसे कैसे ग्रहण किया है ? और प्रतीयमानत्वको हेतुरूपतासे कैसे ग्रहण किया है । और जो उन्होंने प्रपंचको धर्मरूपसे तथा प्रतीयमानत्वको हेतुरूपसे ग्रहणकर लिया है तो फिर प्रपंच कैसे प्रतीत नही होता है अर्थात् प्रपंचके प्रतीतिगोचरता सिद्ध होती ही है । यदि वादी कहें कि :- प्रपंच जिसप्रकारसे प्रतीत होता है उस प्रकारसे वास्तवमें नहीं है इसलिये हम उसको प्रतीतिके अगोचर कहते है तो ऐसा कहनेपर उनको विपरीत ख्याति स्वीकार करनी पड़ेगी। और यह भी विशेष है कि, यह जो प्रपंचकी अनिर्वाच्यता है; वह प्रत्यक्षसे बाधित है । क्योंकि; ' यह घट है ' इस आकारका धारक जो प्रत्यक्ष है वह Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध कियेविना वे वेदान्ती केवल परम ब्रह्मको ही तत्त्व मानकर उससे भिन्न अन्य सब ससारके पदार्थोको अतत्त्व वा असद्रूप नहीं कह सकते है। __ अथवा प्रकारान्तरेण सन्मात्रलक्षणस्य परमब्रह्मणः साधनं दूषणं चोपन्यस्यते । ननु परमब्रह्मण एवैकस्यला परमार्थसतो विधिरूपस्य विद्यमानत्वात् प्रमाणविषयत्वम् । अपरस्य द्वितीयस्य कस्यचिदप्यभावात् । तथा हि प्रत्यक्षं तदावेदकमस्ति । प्रत्यक्षं द्विधा भिद्यते-निर्विकल्पकसविकल्पकभेदात् । ततश्च निर्विकल्पकप्रत्यक्षात्सन्मात्रविषयात्तस्यैकस्यैव सिद्धिः । तथाचोक्तम् । “ अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम् । वालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥१॥" अथवा अब अन्यप्रकारसे सन्मात्रलक्षणके धारक परमब्रह्मके साधनका और दूषणका कथन करते है, अर्थात् वेदांती जिस | अनुमानसे प्रपंचको मिथ्यारूप सिद्ध करके एक परमब्रह्मको ही तात्त्विक सिद्ध करना चाहते थे; उस अनुमानका तो पूर्वोक्त प्रकारसे खंडन कर ही चुके है, अब हम परम ब्रह्मको सिद्ध करनेवाला जो वेदांतियोंका दूसरा अनुमान है, उसको दिखलाकर फिर उनके उस अनुमानमें दूषण देते है। वेदान्ती कहते है कि,-परमार्थसत् ( परमार्थमें सत्रूप) ऐसा विधिरूप एक | परमब्रह्म ही विद्यमान है, इसकारण वह परम ब्रह्म ही प्रमाणका विषय है। क्योंकि, उस परमब्रह्मके सिवाय दूसरा जो कोई है, उसीका अभाव है। सो ही दिखलाते है कि, उस परमब्रह्मका ज्ञान करानेवाला प्रत्यक्ष प्रमाण है और वह प्रत्यक्ष निर्विकल्पक | तथा सविकल्पक, इन भेदोंसे दो प्रकारका है और इस कारण केवल सत् पदार्थको ही विषय करनेवाला जो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है, उस निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे वह एक परमब्रह्म ही सिद्ध होता है। सो ही कहा है-कि,-"आलोचनाज्ञान जो है वह बालक वा गूंगे पुरुषोंके ज्ञानके समान है, शुद्ध वस्तुसे उत्पन्न हुआ है, निर्विकल्पक है और प्रथम अर्थात् अन्यज्ञानोंसे पहले उत्पन्न होनेवाला है । १।" न च विधिवत्परस्परव्यावृत्तिरप्यध्यक्षत एव प्रतीयत इति द्वैतसिद्धिः। तस्य निषेधाविषयत्वात्। “आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेद्ध" इत्यादिवचनात् । यच्च सविकल्पकप्रत्यक्षं घटपटादिभेदसाधकं तदपि सत्तारूपेणान्वितानामेव Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जै.शा. साद्वादमं ॥१०॥ तेषां प्रकाशकत्वात् सत्ताद्वैतस्यैव साधकम् । सत्तायाश्च परमब्रह्मरूपत्वात् । तदुक्तं " यदद्वैतं तद्ब्रह्मणो रूपम्" इति । और जैसे प्रत्यक्षसे विधिकी प्रतीति होती है, उसीप्रकार परस्पर व्यावृत्तिका अर्थात् एक पदार्थकी दूसरे पदार्थके साथ आपसमें भिन्नताकी प्रतीति भी प्रत्यक्षसे ही होती है, इसकारण द्वैतकी सिद्धि होती है, ऐसा कोई कहे तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि, निषेध करना यह प्रत्यक्षका विषय नहीं है। कारण कि, “ विद्वानोंने प्रत्यक्षको विधायक माना है, निषेधक नहीं माना ” इत्यादि आगमका वचन है । और जो घट-पट आदिके भेदको सिद्ध करनेवाला सविकल्पक प्रत्यक्ष है वह भी सत्तारूपसे परस्पर संबंधको प्राप्त हुए ही जो घट पट आदि पदार्थ है उनका प्रकाशक है। इसकारण सत्ताके अद्वैतको ही सिद्ध करनेवाला है । और जो सत्ता है, वह परमब्रह्मरूप है । सोही कहा है कि,- "जो अद्वैत ( एकता ) है वही ब्रह्मका रूप है"। __ अनुमानादपि तत्सद्भावो विभाव्यत एव । तथा हि विधिरेव तत्त्वं प्रमेयत्वात् । यतः प्रमाणविषयभूतोऽर्थः प्रमेयः । प्रमाणानां च प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्तिसंज्ञकानां भावविषयत्वेनैव प्रवृत्तेः। तथाचोक्तम् । “प्र-Y त्यक्षाद्यवतारः स्याद्भावांशो गृह्यते यदा। व्यापारस्तदनुत्पत्तेरभावांशे जिघृक्षिते ॥१॥" यच्चाभावाख्यं प्रमाणं तस्य | प्रामाण्याभावान्न तत्प्रमाणम् । तद्विपयस्य कस्यचिदप्यभावात् । यस्तु प्रमाणपञ्चकविपयः स विधिरेव । तेनैव च प्रमेयत्वस्य व्याप्तत्वात् । सिद्धं प्रमेयत्वेन विधिरेव तत्त्वं, यत्त न विधिरूपं, तन्न प्रमेयम् । यथा खरविपाणम् । प्रमेयं चेदं निखिलं वस्तुतत्त्वम् । तस्माद्विधिरूपमेव ।। ___ और अनुमान प्रमाणसे भी उस एक परमब्रह्मका सद्भाव जाननेम आता ही है । सोही अनुमानका प्रयोग दिखलाते है कि,विधि ही तत्त्व है प्रमेय होनेसे । क्योंकि प्रमाणका विषयभूत जो पदार्थ है वह प्रमेय कहलाता है। और प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान तथा अर्थापत्ति नामक जो पांच प्रमाण है वे सब भाव ( अस्तित्व ) को ग्रहण करके ही प्रवृत्त होते है । सो ही कहा है कि " जब भावाशको ग्रहण किया जाता है अर्थात् पदार्थकी सत्ताका ज्ञान करनेमें आता है तब प्रत्यक्ष आदि पाची प्रमाणोका अवतार होता है अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणोंकी उत्पत्ति होती है, और जब पदार्थके अभावांग ( अविद्यमानत्व ) का ग्रहण करनेकी इच्छा होती है, तब प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंकी अनुत्पत्तिका व्यापार होता है अर्थात् अभावागके ग्रहण करनेमें प्रत्यक्ष आदि ॥१०॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रमाण उत्पन्न नहीं होते है । १ ।" और जो अभावनामक छठा प्रमाण है; उसको प्रमाणता नहीं है इस कारण वह अभाव | नामक प्रमाण प्रमाण ही नहीं है । और जो प्रत्यक्ष आदि पांचों प्रमाणोंका विषय है; वह तो विधिरूप ही है और उस विधिसे शाही प्रमेय व्याप्त है अर्थात् जो विधिरूप है वह सब प्रमेय है । इस कारण सिद्ध हुआ कि,- प्रमेयपनेसे विधि ही तत्त्व है और जो विधिरूप नहीं है, वह प्रमेय नहीं है । जैसे कि, गधेका सींग विधि ( भाव ) रूप नहीं है इस कारण प्रमेय मी नहीं है । तथा यह जो समस्त पदार्थों का स्वरूप है सो प्रमेय हैइसकारण विधिरूप ही है। IN अतो वा तत्सिद्धिः । ग्रामारामादयः पदार्थाः प्रतिभासान्तःप्रविष्टाः । प्रतिभासमानत्वात् । यत्प्रतिभासते तत्प्रतिभासान्तःप्रविष्टम् । यथा प्रतिभासस्वरूपम् । प्रतिभासन्ते च ग्रामारामादयः पदार्थास्तस्मात्प्रतिभासान्तःप्रविष्टाः। ___ अथवा इस अनुमानसे उस अद्वैतकी सिद्धि होती है । ग्राम और आराम ( बाग ) आदि जो पदार्थ है; वे प्रतिभासके | मध्यमें गर्भित है क्योंकि, प्रतिभासमान है । भावार्थ-ग्राम आदि सभी पदार्थ जाननेमें आते है अतः ज्ञानके अन्तर्गत है। सोही अनुमान है कि जो प्रतिभासता है (जाननेमें आता है) वह प्रतिभासके अन्तर्गत है जैसे कि-प्रतिभासका खरूप प्रतिभासollता है इसकारण वह प्रतिभासान्तर्गत है । और ग्राम आराम आदि पदार्थ प्रतिभासते है अ INM आगमोऽपि परमब्रह्मण एव प्रतिपादकः समुपलभ्यते । “पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतत्वस्येशा नो यदन्नेनातिरोहति । यदेजति यन्नैजति यदूरे यदन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यदुत सर्वस्यास्य वाह्यतः' इत्यादिः। श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्योऽनुमन्तव्य इत्यादि वेदव्याक्यैरपि तत्सिद्धेः । कृत्रिमेणापि आगमेन तस्यैव प्रतिपादनात् । उक्तं च-" सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन । आरामं तस्य पश्यन्ति न तत्पश्यति कश्चन ॥१॥” इति। आगम भी परमब्रह्मका ही प्रतिपादक मिलता है । क्योंकि “ जो हुआ, जो होगा, जो मोक्षका खामी है, जो आहारसे अति-G शय करके वृद्धिको प्राप्त होता है, जो चलता है, जो स्थिर है, जो दूर है, जो समीप है, जो सबके बीचमें है, जो सबके बाहर है, सो यह सब पुरुष ही है" इत्यादि । तथा “इस आत्माको सुनना चाहिये, ध्यानमें धारण करना चाहिये और मानना चाहिये" Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद्वादमं. इत्यादि जो वेदवाक्य है, उनसे भी परमब्रह्मकी सिद्धि होती है। और कृत्रिम (पुरुषप्रणीत) आगमने भी उसी परमब्रह्मका राजै.शा. कप्रतिपादन किया है। सो ही कहा है कि,-" यह सब ब्रह्म है, यहा नानारूपका धारक कोई नहीं है, उसके प्रपंचको सब ॥१०॥ देखते है, परंतु उसको कोई नहीं देखता है । १।" | प्रमाणतस्तस्यैव सिद्धेः परमपुरुष एक एव तत्त्वम्, सकलभेदानां तद्विवर्त्तत्वात्। तथा हि-सर्वे भावा ब्रह्मविवMrः सत्वैकरूपेणान्वितत्वात् । यद्यद्रूपेणान्वितं तत्तदात्मकमेव । यथा घटघटीशरावोदञ्चनादयो मृद्रूपेणैकेनान्विसता मृद्विवर्ताः। सत्वैकरूपेणान्वितं च सकलं वस्तु । इति सिद्धं ब्रह्मविवर्तित्वं निखिलभेदानामिति ।। | इस पूर्वोक्त प्रकारसे प्रत्यक्ष अनुमान तथा आगम प्रमाणद्वारा वह परमब्रह्म ही सिद्ध होता है, इसकारण एक परमब्रह्म ही तत्त्व है, क्योंकि; सब भेद उसीके विवर्त पर्याय है अर्थात् ब्रह्मरूप है । सो ही अनुमानका प्रयोग है कि,- सब पदार्थ ब्रह्मके विवर्त्त हैं, क्योंकि सत्वरूपी एकरूपसे अन्वित ( संबंधको प्राप्त ) है । जो जिस रूपसे अन्वित होता है वह उसीरूप होता | हे । जैसे-घट, गागर, सकोरा, ढकना इत्यादि पदार्थ एक मृत्तिकारूपसे अन्वित है; इसकारण मृत्तिकाके विवर्त ( पर्याय ) है। ॐ अर्थात् मृत्तिकारूप है । और जगत्के समस्त भेद (पदार्थ ) सत्त्वरूपी एकरूपसे अन्वित है । इस पूर्वोक्त प्रकारसे सब पदार्थोंका ४ ब्रह्मविवर्तित्व (ब्रह्मका पर्यायपना) सिद्ध हो चुका । म तदेतत्सर्व मदिरारसास्वादगद्गदोद्गदितमिवाभासते विचारासहत्वात् । सर्वे हि वस्तु प्रमाणसिद्धं न तु वाङ्मापुत्रेण । अद्वैतमते च प्रमाणमेव नास्ति तत्सद्भावे द्वैतप्रसङ्गात् । अद्वैतसाधकस्य प्रमाणस्य द्वितीयस्य सद्भावात् । अथ मतं-लोकप्रत्यायनाय तदपेक्षया प्रमाणमप्यभ्युपगम्यते । तदसत तन्मते लोकस्यैवासभ्मवात् । एकस्यैव पु नित्यनिरंशस्य परब्रह्मण एव सत्वात् । ॐ सो यह वेदातियोंका उपर्युक्त सब कथन मदिराके रसका आखादन करके गद्गद हुए पुरुषके प्रलाप करनेके समान जान पडता है, + क्योंकि, उक्त कथन हमारे विचारोंको नहीं सह सकता है। क्योंकि, समस्त ही पदार्थ जब प्रमाणद्वारा सिद्ध होजाते है तभी वे सिद्ध ॥१०४॥ १ अर्थात् पदार्थरूप समझे जाते है और केवल उनका कथन करनेसे वे पदार्थ सिद्ध नहीं होते है । और अद्वैत मतमें तो प्रमाण ॐ ही नहीं है क्योंकि यदि अद्वैतमतमें प्रमाणका अस्तित्व मान लिया जाये तो अद्वैतको सिद्ध करनेवाले प्रमाणरूप दूसरे पदार्थका Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्भाव होनेसे अद्वैतमतमें द्वैतका प्रसंग होता है। यदि कदाचित् वादी कहें कि, हम लोकको प्रतीति करानेके लिये उस लोककी अपेक्षासे प्रमाणको भी मानते है; तो यह उनका कथन मिथ्या है । क्योंकि उनके मतमें लोक ही नहीं है । कारण कि;-उन्होंने नित्य तथा निरंश ऐसे एक परम ब्रह्मको ही सत्रूप माना है। I अथास्तु यथाकथंचित्प्रमाणमपि । तत्किं प्रत्यक्षमनुमानमागमो वा तत्साधकं प्रमाणमुररीक्रियते । न तावत्प्रत्यक्षम् । तस्य समस्तवस्तुजातगतभेदस्यैव प्रकाशकत्वात् । आवालगोपालं तथैव प्रतिभासनात् । यच्च 'निर्विकल्प-न के प्रत्यक्षं तदावेदकम्' इत्युक्तं तदपि न सम्यक् । तस्य प्रामाण्यानभ्युपगमात् । सर्वस्यापि प्रमाणतत्त्वस्य व्यवसायात्मकस्यैवाविसंवादकत्वेन प्रामाण्योपपत्तेः । सविकल्पकेन तु प्रत्यक्षेण प्रमाणभूतेनैकस्यैव विधिरूपस्य परब्रह्मणः स्वमेऽप्यप्रतिभासनात् । अथवा चाहे जिस अपेक्षासे उनके मतमें प्रमाण भी रहो। परंतु प्रत्यक्ष, अनुमान अथवा आगम; इन तीनोंमेंसे वे कौनसे प्रमाणको उसका साधक मानते है । यदि वे प्रत्यक्षप्रमाणको उस एक पर ब्रह्मका साधक मानें, तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि वह प्रत्यक्ष तो समस्त पदार्थों में प्राप्त जो भेद है; उसीका प्रकाशक है । कारण कि; बालकसे लेकर गोपाल पर्यन्त पुरुषोंको वह प्रत्यक्ष भेदका प्रकाशक ही जान पड़ता है। और जो उन्होंने पहले कहा है कि;-निर्विकल्पक प्रत्यक्ष उस पर ब्रह्मको विदित करनेवाला है' सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि उस निर्विकल्पक प्रत्यक्षका प्रमाणपना नहीं माना गया है। कारण कि व्यवसायात्मक (निश्चय करानेवाले ) के ही समस्त प्रमाणतत्त्वके अविसंवादीपनेसे संशय, विपर्यय और अनध्यवसायकी रहिततासे प्रमाणता सिद्ध होती भावार्थ-जो प्रमाण पदार्थखरूपका निश्चयरूपसे ज्ञान कराता है वही प्रमाणभूत माना जाता है, अतः व्यवसायात्मक न निर्विकल्पक प्रत्यक्षको प्रमाणता नहीं है । और प्रमाणभूत जो सविकल्पक प्रत्यक्ष है उससे तो विधिरूप एक ही परमब्रह्मका खममें भी प्रतिभास ( ज्ञान ) नहीं हो सकता है। vil यदप्युक्तं " आहुर्विधातृ प्रत्यक्षम्” इत्यादि । तदपि न पेशलम् । प्रत्यक्षेण ह्यनुवृत्तव्यावृत्ताकारात्मकवस्तुन Hallएव प्रकाशनात् । एतच्च प्रागेव क्षुण्णम् । न ह्यनुस्यूतमेकमखण्डं सत्तामात्रं विशेषनिरपेक्षं सामान्यं प्रतिभासते। - Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादम. ॥१०५॥ येन यदद्वैतं तद्ब्रह्मणो रूपमित्याधुक्तं शोभेत । विशेषनिरपेक्षसामान्यस्य खरविपाणावदप्रतिभासनात् । तदुक्तम् राजै.शा. ell" निर्विशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वेन विशेषास्तद्वदेव हि ॥१॥" | और जो उन्होंने " प्रत्यक्ष विधायक है, निषेधक नहीं है " इत्यादि आगम प्रमाणका कथन किया है; वह भी मनोहर नहीं Kा है। क्योंकि, प्रत्यक्षद्वारा तो अनुवृत्त तथा व्यावृत्त आकारको धारण करनेवाले पदार्थका ज्ञान होता है अर्थात् सामान्य विशेषात्मक | वस्तु ही प्रत्यक्षसे गृहीत होता है, और इस विषयका खंडन पहले ही कर चुके है । क्योंकि, अनुस्यूत ( दूसरेमें नहीं मिला हुआ) एक, अखंड, सत्तारूप और विशेषकी अपेक्षासे रहित ऐसा सामान्य नहीं प्रतिभासता है, जिससे कि जो अद्वैत है; वह [.G ब्रह्मका रूप है इत्यादि उनका कहा हुआ सिद्धान्त शोभाको प्राप्त होवे। भावार्थ-अनुस्यूत, एक, अखड, सत्तारूप और विशेष निरपेक्ष ऐसे सामान्यका प्रतिभास होवे तो जो अद्वैत है, वह ब्रह्मका रूप है ऐसा कहना ठीक हो सकता है और सामान्य ऐसा है नही, इसकारण वादियोंका उक्त कथन मिथ्या है । क्योंकि जो विशेषकी अपेक्षासे रहित सामान्य है उसका गधेके सीगके | समान प्रतिभास नहीं होता है, अर्थात् जैसे गधेके सीगका प्रतिभास नही होता है वेसे ही विशेषकी अपेक्षारहित सामान्यका प्रति भास भी नही होता है । सो ही कहा है कि,-" विशेपकी अपेक्षारहित जो सामान्य है; वह गधेके सीगके समान असत्ररूप है और सामान्यकी अपेक्षा न रखनेवाले जो विशेष है, वे भी गर्दभके सीगके समान असत् रूप ही है ।१।" इसकारण सामान्य विशेषात्मक जो पदार्थ हैवही प्रमाणका विषय है । यह हमारा सिद्धान्त सिद्ध होगया और इसके सिद्ध होनेपर उन वादियोंके | माने हुए एक परमब्रह्मके प्रमाणका विषयपना कहासे हो सकता है अर्थात् एक परमब्रह्म प्रमाणका विषय नहीं हो सकता है। ततः सिद्धे सामान्यविशेषात्मन्यर्थे प्रमाणविषये कुत एवैकस्य परमब्रह्मणः प्रमाणविपयत्वम् । यच्च प्रमेयत्वादित्यनुमानमुक्तम् । तदप्यतेनैवापास्तं वोद्धव्यम् । पक्षस्य प्रत्यक्षवाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । यच्च तत्सिद्धी प्रतिभासमानत्वसाधनमुक्तम् । तदपि साधनाभासत्वेन न प्रकृतसाध्यसाधनायालम् । प्रतिभासमानत्वं हि निखिलभावानां स्वतः परतो वा । न तावत्स्वतो, घटपटमुकुटशकटादीनां स्वतः प्रतिभासमानत्वेनासिद्धेः । ॥१०५॥ परतः प्रतिभासमानत्वं च परं विना नोपपद्यते । इति । ___ और जो उन्होंने ' विधि ही तत्त्व है प्रमेय होनेसे ऐसा अनुमान कहा है, उसका भी इस उक्त कथनसे ही खंडन होगया; Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि; विधि ही तत्त्व है यह पक्ष प्रत्यक्षप्रमाणसे बाधित है, अतः हेतु कालात्ययापदिष्ट है । और जो उन्होंने परमब्रह्मकी सिद्धिके लिये प्रतिभासमानत्वरूपी साधनको कहा है अर्थात् 'ग्राम आराम आदि पदार्थ प्रतिभासके अन्तर्गत हैं, प्रतिभासमान होने से ' इस अनुमानमें प्रतिभासमानत्वको हेतु बनाया है, वह भी हेत्वाभास होने के कारण प्रकृत साध्यको सिद्ध करने में समर्थ नही है । क्योंकि, समस्त पदार्थोंके जो प्रतिभासमानत्व है; वह स्वतः ( अपने आपहीसे ) है ? अथवा पर पदार्थसे है ? अर्थात् पदार्थ | स्वयं प्रतिभासते है अथवा परसे ? यदि वे कहें कि, पदार्थ स्वतः प्रतिभासते है, सो तो ठीक नहीं; क्योंकि घट, पट, और मुकुट | आदि पदार्थोंके खतः प्रतिभासमानता सिद्ध नही है । और यदि वे पदार्थोंके परसे प्रतिभासमानत्व कहें तो वह परसे प्रतिमासमानत्व पर पदार्थके विना सिद्ध नहीं हो सकता है । यच्च परमब्रह्मविवर्तवर्तित्वमखिलभेदानामित्युक्तम् । तदप्यत्र स्थलेऽन्वीयमानद्वयाविनाभावित्वेन पुरुषाद्वैतं प्रतिबनात्येव । न च घटादीनां चैतन्यान्वयोऽप्यस्ति मृदाद्यन्वयस्यैव तत्र दर्शनात् । ततो न किंचिदेतदपि । अतोऽनुमानादपि न तत्सिद्धिः । और जो समस्त भेदोंके परमब्रह्मविवर्त्तित्व कहा है, वह भी इस स्थलमें अन्वीयमान ( संबंधको प्राप्त होते हुए ) द्वयके साथ व्याप्तिको धारण करता है अर्थात् ' सब पदार्थ ब्रह्मविवर्त्त है सत्वरूप एकरूपसे संबद्ध होनेके कारण इस अनुमानमें दोके विना संबंध ही नहीं हो सकता है, क्योंकि, जब भिन्न २ दो पदार्थ होते हैं तभी उनके परस्पर संबंध होता है । अतः यह अनुमान एक परमब्रह्मही तत्त्व है इसरूप पुरुषाद्वैतको खंडित करता ही है । और घटआदि पदार्थोंके मध्यमें चैतन्यका अन्वय ( ज्ञानका संबंध ) भी नही है, क्योंकि; घटादि पदार्थोंमें मृत्तिका आदिका ही अन्वय देखा जाता है इसकारण अनुमानसे भी | एकपरमब्रह्मात्मक तत्त्व सिद्ध नहीं होता है । किञ्च पक्षहेतुदृष्टान्ता अनुमानोपायभूताः परस्परं भिन्ना अभिन्ना वा । भेदे द्वैतसिद्धिरभेदे त्वेकरूपतापत्तिः । | तत्कथमेतेभ्योऽनुमानमात्मानमासादयति । यदि च हेतुमन्तरेणापि साध्यसिद्धिः स्यात्तर्हि द्वैतस्यापि वाङ्मात्रतः । कथं न सिद्धिः । तदुक्तम् " हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद् द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः ॥ हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाङ्मात्रतो न किम् ॥ १ " Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥१०६॥ इस विषयमें और भी विशेष प्रष्टव्य यह है कि,- अनुमानके उपायभूत जो पक्ष, हेतु और दृष्टान्त है, वे परस्पर भिन्न है वाल रा.जे.शा. अभिन्न है । यदि वादी कहें कि,-पक्ष, हेतु तथा दृष्टान्त परस्पर भिन्न है; तब तो द्वैत सिद्ध होता है और यदि कहें कि-पक्ष, हेतु, दृष्टान्त परस्पर अभिन्न है तो इन सबके एक रूपताकी प्राप्ति होती है, और जब पक्ष-हेतु-दृष्टान्त परस्पर एकरूप होंगे तो इन पक्ष-हेतु-दृष्टान्तोंसे अनुमान अपने खरूपको कैसे प्राप्त होगा अर्थात् अनुमानकी उत्पत्ति ही न होगी । और यदि कहें कि हेतुके विना भी साध्यकी सिद्धि होती है, तो आगमसे वा कहने मात्रसे ही द्वैतकी सिद्धि भी कैसे न होगी ? अर्थात् जैसे वे हेतुके विना पुरुषाद्वैतको मानते है, उसीप्रकार द्वैतको भी क्यों नहीं मानते है ? सो ही कहा है, कि,-" हेतुसे अद्वैतको सिद्ध किया जावे तब तो हेतु और साध्य इन दोनोंका द्वैत सिद्ध होगा? और यदि हेतुके विना ही अद्वैतको सिद्ध करें तो केवल ) वचनमात्रासे द्वैतकी सिद्धि क्यों न होगी। १" अथवा यदि यहां वाड्मात्रशब्दसे आगम अर्थका ग्रहण किया जावे तो यह अर्थ होता है कि यदि हेतुके विना केवल आगमसे ही एक परमब्रह्मको सिद्ध करें तो एक तो परमब्रह्मतत्त्व है ही और दूसरा आगमतत्त्व हो जायगा, इसकारण आगमसे भी द्वैतकी सिद्धि होती है। | "पुरुष एवेदं सर्वम्" इत्यादेः," सर्व वै खल्विदं ब्रह्म" इत्यादेश्चागमादपि न तत्सिद्धिः। तस्यापि द्वैताविKe नाभावित्वेन अद्वैतं प्रति प्रामाण्यासम्भवात् । वाच्यवाचकभावलक्षणस्य द्वैतस्यैव तत्रापि दर्शनात् । तदुक्तम् । 'कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं विरुध्यते । विद्याविद्याद्वयं न स्याद्वन्धमोक्षद्वयं तथा ॥१॥” ततः कथमागमादKoपि तत्सिद्धिः। ततो न पुरुषाद्वैतलक्षणमेकमेव प्रमाणस्य विषयः। इति सुव्यवस्थितः प्रपञ्चः। इति काव्यार्थः॥१३॥ और 'यह सब पुरुष ही है' 'यह सव ब्रह्म ही है' इत्यादि जो आगमप्रमाण है, उससे भी उस एक ही परम ब्रह्मकी सिद्धि नहीं IN होती है। क्योंकि वह आगम भी द्वैतके विना नहीं हो सकता है, इसकारण अद्वैतको सिद्ध करनेके अर्थ उसको प्रमाणता नहीं हो सकती है । क्योंकि, उस आगममें भी वाच्यवाचकभावरूप ( शब्द अर्थरूप ) द्वैत ही देखा जाता है । सो ही कहा है कि ॥१०६॥ 'कर्मद्वैत, फलद्वत, लोकद्वैत, विद्या और अविद्याका द्वय तथा बंध और मोक्षका द्वय ये सब विरुद्ध होते है ॥१॥' भावार्थयदि अद्वैतहीको माना जावे तो पुण्य-पापरूपी कौंका द्वैत न होगा, उसके न होनेपर उसका फलरूप सुख-दुःखरूपी द्वैत न होगा। उसके न होनेपर इसलोक तथा परलोकरूप द्वैत न होगा। यदि अविद्याके उदयसे पुण्य-पापादिका द्वैत मानें तो पुण्य-पापके Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विना विद्या अविद्याका द्वैत न होगा और विद्या अविद्याके द्वैतके विना बंधमोक्षका द्वैत न होगा । अर्थात् आगमके न माननेपर सर्व व्यवस्था लुप्त हो जायगी इसकारण आगमसे भी उस एक परम ब्रह्मकी सिद्धि नहीं होती है । और जब ऐसा हुआ तो एकपरमब्रह्मरूप तत्त्वही प्रमाणका विषय न रहा, किन्तु अन्य पदार्थ भी प्रमाणके विषय हुए और इसप्रकारसे प्रपंच सुव्यवस्थित हो गया अर्थात् वेदान्ती जो एक परमब्रह्मको ही सवरूप मानते थे और प्रपंचको मिथ्यारूप मानते थे उसका खंडन हुआ और जिस प्रकार ब्रह्म तत्त्व है, उसी प्रकार संसारके सभी पदार्थ तत्त्व हैं यह सिद्ध होगया; इस प्रकार काव्यका अर्थ है ॥ १३ ॥ म अथ स्वाभिमतसामान्यविशेषोभयात्मकवाच्यवाचकभावसमर्थनपुरस्सरं तीर्थान्तरीयप्रकल्पिततदेकान्तगोचरवा च्यवाचकभावनिरासद्वारेण तेषां प्रतिभावैभवाऽभावमाहः__ अब आचार्य अपने अभीष्ट ऐसे सामान्य तथा विशेष इन दोनों स्वरूपोंके धारक वाच्यवाचकभावका पहिले समर्थन करके तत्पश्चात् अन्यमतावलंबियोंका माना हुआ जो केवल सामान्य तथा केवल विशेषके गोचर ऐसा वाच्य और वाचकभाव है, उसका खंडन करके उसके द्वारा उन अन्यमतियों के उत्तमबुद्धिरूप संपदाका अभाव कहते हैं, अर्थात् वे वादी बुद्धिरहित है;| यह सूचित करते हैं: अनेकमेकात्मकमेव वाच्यं द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम् । अतोऽन्यथा वाचकवाच्यक्लप्तावतावकानां प्रतिभाप्रमादः॥१४॥ सूत्रभावार्थः-वाच्य ( कहनेयोग्य पदार्थ ) सामान्यकी अपेक्षासे एकखरूप है, तौभी विशेषकी अपेक्षासे अनेकरूप ही है। और वाचक ( उन पदार्थों को कहनेवाला शब्द ) भी निश्चयकरके सामान्यकी अपेक्षासे एकरूप है और विशेषकी अपेक्षासे अनेकरूप ही है । इसकारण हे नाथ! जो अन्यमतावलम्बी इस उक्त सिद्धांतके विरुद्ध वाच्यवाचकभावकी कल्पना करते है। उनके उत्तम बुद्धिका नाश हो रहा है ॥ १४ ॥ व्याख्या-वाच्यमभिधेयं चेतनमचेतनं च वस्तु (एवकारस्याप्यर्थत्वात) सामान्यरूपतया एकात्मकमपि व्यक्तिभेदेनाऽनेकमनेकरूपम् । अथवाऽनेकरूपमपि एकात्मकमन्योऽन्यसंवलितत्वादित्थमपि व्याख्याने न दोषः । तथा Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. स्थाद्वादम. में च वाचकभभिधायक शब्दरूपं तदप्यवश्यं निश्चितं द्वयात्मकं सामान्यविशेषोभयात्मकत्वादेकानेकात्मकमित्यर्थः। (उभयत्र वाच्यलिङ्गत्वेऽप्यव्यक्तत्वान्नपुंसकत्वम् । अवश्यमितिपदं वाच्यवाचकयोरुभयोरप्येकानेकात्मकत्वं निश्चि॥१०७॥ न्वत्तदेकान्तं व्यवच्छिनत्ति)।अत उपदर्शितप्रकारादन्यथा सामान्यविशेषकान्तरूपेण प्रकारेण वाचकवाच्यक्तृप्तौ वाच्यवाचकभावकल्पनायामतावकानामत्वदीयानामन्ययूथ्यानां प्रतिभाप्रमादः प्रज्ञास्खलितमित्यक्षरार्थः। (अत्र चाल्पस्वरत्वेन वाच्यपदस्य प्राग्निपाते प्राप्तेऽपि यदादौ वाचकग्रहणं तत्प्रायोऽर्थप्रतिपादनस्य शब्दाधीनत्वेन वाचकस्याय॑त्वज्ञापनार्थम् ) तथा च शाब्दिकाः। "न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते।१।" इति । व्याख्यार्थः-"वाच्यम" कथन करने योग्य चेतन तथा अचेतन पदार्थ “एकात्मकम् अपि" सामान्यरूपतासे एक खरूप है, तौभी "अनेकम्" व्यक्तियोंके भेदसे अनेक रूप है। [ 'एकात्मकमेव' यहाँपर जो एवकार है; वह अपिके अर्थमें है। ] अथवा मूलमें अर्थात् “अनेकमेकात्मकमेव" यहांपर अनेक और एक ये दोनों शब्द परस्पर मिले हुए है। इस लिये वाच्य अनेक है, तौभी एकरूप हैं; ऐसा व्याख्यान किया जावे तो उसमें भी कोई दोष नही है । और " वाचकम् " पदार्थों का | कथन करनेवाला शब्दरूप वाचक "अपि" भी "अवश्यम्" निश्चय करके "द्वयात्मकम्" सामान्य तथा विशेष; इन दोनों खरूपोंका धारक होनेसे एक और अनेकरूप है। [ वाच्य और वाचक ये दोनों शळ यद्यपि वाच्यलिङ्गके धारक हैं तथापि अब्यक्ततासे यहापर नपुंसकलिङ्गका प्रयोग किया गया है । और मूलमें जो अवश्य यह पद दिया गया है। वह वाच्य और वाचक इन दोनोमें ही एक तथा अनेकपनेका निश्चय कराता हुआ वाच्य और वाचकके उस एक तथा अनेकपनेके एकातको दूर करता है । ] “अतः" इस ऊपर दिखाये हुए प्रकारसे “ अन्यथा" सामान्य और विशेषके एकांतरूप प्रकारसे “वाचकवाच्यक्लप्तौ" वाचक और वाच्यभावकी कल्पना करनेमें "अतावकानाम्" हे जिनेंद्र! आपसे सम्बध न रखनेवालोंके अर्थात् अन्य मतावलम्बियोंके "प्रतिभाप्रमादः" बुद्धिका नाश है, इस प्रकार अक्षरोंका अर्थ है। "वाचकवाच्यक्लप्तौ" यहांपर यद्यपि अल्पखरपनेसे वाच्यपदका पूर्वनिपात प्राप्त होता था तौभी जो पहिले वाच्यका ग्रहण न करके वाचकका ग्रहण किया गया है, वह इस बातको विदित करनेके लिये है कि, प्रायः अर्थका प्रतिपादन करना शब्दके अधीन है, इसलिये वाचक अर्थात् ॥१०७॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द वाच्यकी अपेक्षा पूज्य है । सो ही वैयाकरण कहते है कि, "लोकमें ऐसा कोई प्रत्यय नही है, जो शब्दके अनुगम ( संबंध )के बिना होवे । सब ही ज्ञान शब्दके साथ जुड़ा हुआ ही मानो भासता है" ॥१॥ ___ भावार्थस्त्वेवम् । एके तीथिकाः सामान्यरूपमेव वाच्यतया अभ्युपगच्छन्ति । ते च द्रव्यास्तिकनयानुपातिनो मीमेसांकभदाऽद्वैतवादिनः सांख्याश्च । केचिच्च विशेषरूपमेवं वाच्यं निर्वचन्ति । ते च पर्यायास्तिकनयानुसारिणः सौगताः । अपरे च परस्परनिरपेक्षपदार्थपृथग्भूतसामान्यविशेषयुक्तं वस्तु वाच्यत्वेन निश्चिन्वते । ते च नैगमनयानुरोधिनः काणादा आक्षपादाश्च । भावार्थ तो इस प्रकार है। कि, एक मतवाले सामान्यरूपको ही वाच्यरूपतासे स्वीकार करते है। वे द्रव्यास्तिकनयका अनुसकारण करनेवाले मीमांसकमतके एक भेदरूप अद्वैतवादी अर्थात् वेदांती, और सांख्यमतवाले है। और कितने ही वादी विशेषरूपको ही वाच्य कहते है और वे पर्यायास्तिकनयानुसारी सौगत (बौद्ध) है । और दूसरे वादी परस्परकी अपेक्षासे रहित तथा पदार्थसे| भिन्नरूप जो सामान्य विशेष हैं, उन करके सहित ऐसे पदार्थको वाच्यरूपतासे निश्चित करते है । वे नैगमनयका अनुसरणIN करनेवाले वैशेषिक तथा नैयायिक है।। __एतच्च पक्षत्रयमपि किंचिच्चर्च्यते। तथाहि-संग्रहनयावलम्बिनो वादिनः प्रतिपादयन्ति । सामान्यमेव तत्त्वं ततः पृथग्भूतानां विशेषाणामदर्शनात् । तथा सर्वमेकमविशेषेणसदितिज्ञानाभिधानाऽनुवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताकत्वात् । तथा द्रव्यत्वमेव तत्त्वं ततोऽर्थान्तरभूतानां धर्माऽधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्याणामनुपलब्धेः। किंच ये सामान्यात् पृथग्भूता अन्योऽन्यव्यावृत्त्यात्मका विशेषाः कल्प्यन्ते, तेषु विशेषत्वं विद्यते न वा ? । नो चेन्निःस्वभावताप्रसङ्गः । स्वरूपस्यैवाऽभावात् । अस्ति चेत्तर्हि तदेव सामान्यम् । यतः समानानां भावः सामान्यम् । विशेषरूपतया च सर्वेषां तेषामविशेषेण प्रतीतिः सिद्धैव । __ अब इन पूर्वोक्त तीनों ही पक्षोंका कुछ खण्डन करते है। सो ही दिखलाते है:-संग्रहनयको धारण करनेवाले वादी अर्थात् १ शब्दार्थतया इत्यधिकम् । २ नैगमनयाऽनुगामिन. । इति द्वितीयपुस्तकपाठः। ३ सर्वपदार्थेषु सदितिज्ञानाभिधाने तयोरनुवृत्तिरेव यल्लिङ्गं तेनाऽनुमिता सत्ता यस्य तत्तथा ।। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥१०८|| वेदांती और सांख्य कहते है कि, सामान्य ही तत्त्व है; क्योंकि उस सामन्यसे भिन्नरूप ऐसे विशेप नही देखे जाते हैं । तथा सब एक है; क्योंकि विशेषरहितपनेसे सत् इसप्रकारके ज्ञाननामक जो अनुवृत्तिरूप लिङ्ग है उसके द्वारा उसकी सत्ताका अनुमान किया जाता है। तथा द्रव्यत्व ही तत्त्व है क्योंकि उस द्रव्यत्वसे भिन्न पदार्थरूप ऐसे धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, और जीव द्रव्य नहीं देखे जाते हैं। और भी विशेष यह है कि, जो सामान्यसे भिन्न ऐसे एक दूसरेकी परस्पर व्यावृत्ति करनेरूप विशेषोंकी कल्पना की जाती है, उन विशेषों में विशेषत्व धर्म रहता है वा नही रहता है। यदि इस प्रश्नके उत्तरमें कहा जावे कि, विशेषों में विशेषत्व नहीं रहता है । तो विशेषोंके खभावरहितताका प्रसग होता है । क्योंकि उन विशेषों में विशेषत्वरूप निजखरूपका ही अभाव है। यदि कहा जावे कि, विशेषोंमें विशेषत्व है तो वह विशेषत्व ही सामान्य है । क्योंकि समानोंका जो की |भाव है; वही सामान्य कहलाता है और विशेषरूपतासे उन सब सामान्योंके समानरूपतासे प्रतीति सिद्ध ही है। अपि च विशेषाणां व्यावृत्तिप्रत्ययहेतुत्वं लक्षणम् । व्यावृत्तिप्रत्यय एव च विचार्यमाणो न घटते । व्यावृत्तिर्हि १ विवक्षितपदार्थे इतरपदार्थप्रतिषेधः । विवक्षितपदार्थश्च स्वस्वरूपव्यवस्थापनमात्रपर्यवसायी कथं पदार्थान्तरप्रतिषेधे प्रगल्भते । न च स्वरूपसत्वादन्यत्तत्र किमपि येन तन्निपेधः प्रवर्तते । तत्र च व्यावृत्तौ क्रियमाणायां स्वात्मव्यतिरिक्ता विश्वत्रयवर्त्तिनोऽतीतवर्तमानाऽनागताः पदार्थास्तस्माद् व्यावर्तनीयाः । ते च नाज्ञातस्वरूपा व्यावर्तयितुं शक्याः। ततश्चैकस्यापि विशेषस्य परिज्ञाने प्रमातुः सर्वज्ञत्वं स्यात् । न चैतत्त्रातीतिक यौक्तिकं वा । व्यावृत्तिस्तु निषेधः। स चाऽभावरूपत्वात्तुच्छः कथं प्रतीतिगोचरमञ्चति खपुष्पवत् । और विशेषोंका व्यावृत्ति प्रत्ययका हेतुरूप लक्षण है। और जब विचार करते है तो विशेपोंमें व्यावृत्ति प्रत्यय ही सिद्ध नहीं | क होता है । क्योंकि, किसी विवक्षित पदार्थमें अन्यपदार्थका जो निषेध है, उसको व्यावृत्ति कहते है । और निजखरूपके स्थापन (सिद्ध करने ) मात्रमें ही समाप्त हो जानेवाला विवक्षित पदार्थ अन्य पदार्थोंके निषेध करनेमें कैसे प्रवृत्ति कर सकता है । और व खरूपसत्वके अर्थात् निजरूपमें विद्यमानताके सिवाय उस पदार्थमें अन्य कुछ भी नहीं है, जिससे कि, अन्यपदार्थके निषेधकी | प्रवृत्ति होवे । और उसमें यदि व्यावृत्ति की जावे, तो उस पदार्थके निजखरूपसे भिन्न ऐसे जो तीनलोकमें रहनेवाले भूत, al भविष्यत् और वर्तमानकाल सम्बन्धी सभी पदार्थ वे उस पदार्थसे भिन्न करने योग्य होवेंगे । और नहीं जाना गया है खरूप . ॥१०८॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनका ऐसे वे पदार्थ उस पदार्थके निज वरूपसे भिन्न नही किये जा सकते है। और फिर इसलिये एक पदार्थका विशेष खरूप जाननेपर सब पदार्थों के खरूपका ज्ञान होजानेसे प्रमाता ( जाननेवाले ) के सर्वज्ञपना सिद्ध होने लगेगा। और यह अर्थात एक विशेषके जाननेसे सर्वज्ञताका होना प्रतीति करनेयोग्य अथवा युक्तिसंगत नहीं है । व्यावृत्तिका अर्थ निषेध है । और वह निषेध अभावरूप होनेसे तुच्छ है, इस कारण जैसे आकाशका पुष्प अभावरूप होनेसे प्रतीतिके गोचर नहीं होता है, उसी प्रकार यह व्यावृत्ति भी प्रतीतिके विषयपनेको कैसे प्राप्त हो सकती है। 9 तथा येभ्यो व्यावृत्तिस्ते सद्रूपा असद्रूपा वा ? असद्रूपाश्चेत्तर्हि खरविषाणात् किं न व्यावृत्तिः ? सद्रूपाश्चेत्सा मान्यमेव । या चेयं व्यावृत्तिविशेषैः क्रियते सा सर्वासु विशेषव्यक्तिष्वेका अनेका वा ? अनेका चेत्तस्या अपि विशेषत्वापत्तिरनेकरूपत्वैकजीवितत्वाद्विशेषाणाम् । ततश्च तस्या अपि विशेषत्वान्यथानुपपत्तेावृत्त्या भाव्यम् ।। व्यावृत्तेरपि च व्यावृत्तौ विशेषाणामभाव एव स्यात्। तत्स्वरूपभूताया व्यावृत्तेः प्रतिपिद्धत्वादनवस्थापाताच्च । एका चेत्सामान्यमेव संज्ञान्तरेण प्रतिपन्नं स्यादनुवृत्तिप्रत्ययलक्षणाऽव्यभिचारात् । किं चामी विशेपाः सामान्याद्भिन्ना अभिन्ना चा? भिन्नाश्चेन्मण्डकजटाभारानुकाराः। अभिन्नाश्चेत्तदेव तत्स्वरूपवत् । इति सामान्यैकान्तवादः।। | तथा जिन पदार्थों से व्यावृत्ति की जाती है वे पदार्थ सत्रूप है वा असत्रूप हैं ? यदि कहो कि वे पदार्थ असतूप है। अभावरूप गधेके सीगसे भी व्यावृत्ति क्यों नहीं होती है ? यदि कहो कि, वे पदार्थ सतरूप हैं; तो वे पदार्थ सामान्यरूप ही हुए। और विशेष पदार्थ जिस व्यावृत्तिको करते है, वह व्यावृत्ति सब विशेष व्यक्तियोंमें एक ही है ? अथवा अनेक है ? यदि कहो कि, अनेक है, तो वह न्यावृत्ति भी विशेषरूप ही हुई। क्योंकि विशेषोंके अनेकरूपपना ही एक जीवित है अर्थात् अनेकरूपता ही विशेषोंका खरूप है । और तब उस व्यावृत्तिकी भी विशेषरूपताके सिवाय अन्यप्रकार सिद्धि न होनेसे अर्थात् व्यावृत्ति विशेषरूपा सिद्ध होनेसे व्यावृतिसे भी अन्य व्यावृत्ति होनी चाहिये । और यदि व्यावृत्तिकी भी व्यावृत्ति हो तो विशेपोंका अभाव ही होजायगा। क्योंकि विशेषस्वरूप जो व्यावृत्ति है उसका प्रतिषेध ही विशेषोका अभाव है । और अनवस्था दोषकी भी प्राप्ति होती है। यदि कहो कि व्यावृत्ति एक है तो दूसरे नाममात्रसे तुमने सामान्यको ही खीकार किया। क्योंकि, अनुवृत्तिप्रत्ययरूप जो सामान्यका लक्षण है वह यहां घट जाता है, व्यभिचार नहीं है। यहांपर और भी विशेप कथन यह है कि,ये विशेष सामान्यसे भिन्न है? कि अभिन्न है? यदि कहो Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१.९॥ on सरूपर्यायनयान्वयिनस्तु भावन्त्य नुभवकाले वर्णसंस्थता एतासु पञ्चस्वयमाप्रित्ययस्तु स्वहेतुदत्तशक्ति पावात् । न हिण्यानुभवाभावात्यात्मन ईक्षते स्याप्यम् । क्षणमें नष्ट होनेवा शौआदि व्यक्तिममा एक तथा सदा । स्थादादम. कि भिन्न हैं तो मेंडकके जटाभारके समान है । यदि कहो कि अभिन्न है तो जैसे सामान्यसे अभिन्न होनेके कारण सामान्यका राजै.शा. खरूप सामान्यरूप है उसी प्रकार वे विशेष भी सामान्यरूप ही होंगे। इस प्रकार सामान्यका एकांतविषयक वाद है। पर्यायनयान्वयिनस्तुभाषन्ते।-विविक्ताःक्षणक्षयिणो विशेषा एव परमार्थः, ततो विष्वगभूतस्य सामान्यस्याऽप्रतीयमानत्वात् । न हि गवादिव्यत्त्यनुभवकाले वर्णसंस्थानात्मकं व्यक्तिरूपमपहायाऽन्यत्किंचिदेकमनुयायि प्रत्यक्षे की प्रतिभासते; तादृशस्यानुभवाभावात् । तथा च पठन्ति । “एतासु पञ्चस्ववभासिनीषु प्रत्यक्षबोधे स्फुटमङ्गलीषु । साधारणं रूपमवेक्षते यः शृङ्गं शिरस्यात्मन ईक्षते सः।१।" एकाकारपरामर्शप्रत्ययस्तु स्वहेतुदत्तशक्तिभ्यो व्यक्तिभ्य एवोत्पद्यते । इति न तेन सामान्यसाधनं न्याय्यम् । ___ अब पर्यायास्तिक नयके अनुयायी बौद्ध कहते है कि, भिन्न और क्षण क्षणमें नष्ट होनेवाले जो विशेष है वे ही परमार्थN/ रूप है। क्योंकि उन विशेषोंसे भिन्नरूप किसी सामान्यकी प्रतीति नहीं होती है। कारण कि गौआदि व्यक्तियोंका जिस समय पू" अनुभव होता है उस समय वर्ण (रंग) तथा संस्थानखरूप जो व्यक्तिका आकार है, उसको छोड़कर अन्य कुछ भी एक तथा सव 1 व्यक्तियोंमें चले आते हुए पदार्थका अर्थात् सामान्यका प्रत्यक्षमें प्रतिभास नहीं होता है, क्योंकि ऐसे किसी पदार्थका अनुभव ही नहीं Lal होता है । सो ही विद्वानोने कहा है कि " प्रत्यक्ष ज्ञानमें प्रकटरूपसे दीखती हुई इन पांचों अंगुलियोंमें जो साधारण रूपको अर्थात् सामान्यको देखता है वह पुरुष अपने मस्तकपर सींगको देखता है।” और एक आकारके विचारकी प्रतीति तो अपने कारणोंसे उत्पन्न हुई है शक्ति जिनमें ऐसी व्यक्तियोंसे ही उत्पन्न होती है। इस कारण उस अनुवृत्तिप्रत्ययसे जो सामान्यको सिद्ध किया जाता है वह न्यायसंगत नहीं है। किं च यदिदं सामान्य परिकल्प्यते तदेकमनेकं वा ? एकमपि सर्वगतमसर्वगतं वा ? सर्वगतं चेकिं न व्यक्त्यन्तरालेधूपलभ्यते ? । सर्वगतैकत्वाऽभ्युपगमे च तस्य यथा गोत्वसामान्यं गोव्यक्तीः क्रोडीकरोति एवं किं न घटपटादिव्यक्तीरपि; अविशेषात् ? । असर्वगतं चेद्विशेषरूपापत्तिरभ्युपगमबाधश्च। ॥१०९॥ ___और भी अधिक वक्तव्य यह है, कि जो यह सामान्य कल्पित किया जाता है, वह सामान्य एकरूप है ? अथवा अनेकरूप है ? ५ यदि कहो कि एक है तो भी प्रश्न होता है कि वह सामान्य सर्वगत है वा असर्वगत है ? यदि कहो कि सर्वगत है तो वह शाददं सामान्य परिककत्वाऽभयुपगमे च तद्वशेषरूपापत्तिरपघासामान्य एकरूप है। का सर्वगत है तो वह Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तियोंके व्यवधानमें क्यों नहीं मिलता है ' और सामान्यको सर्वगत तथा एक माननेपर जैसे गोत्व (गौओ में रहनेवाला) सामान्य सम्पूर्ण गोव्यक्तियों में व्यापकर रहता है; उसी प्रकार घट पट आदि व्यक्तियोंको भी क्यों नहीं ग्रहण करता है । क्योंकि; अविशेष है। अर्थात् वह सामान्य सर्वगत तथा एक है इस कारण उसके समक्ष में जैसी गौ है उसी प्रकार अन्य व्यक्तिये भी है । यदि कहो कि, वह सामान्य एक तथा असर्वगत है तो उस सामान्य विशेषरूप ठहरता है और तुम्हारे मतका भी खंड़न होता है । अथाऽनेकं गोत्वाऽश्वत्वघटत्वपटत्वादिभेदभिन्नत्वात्ते तर्हि विशेषा एव स्वीकृताः अन्योऽन्यं व्यावृत्तिहेतुत्वात् । न हि यगोत्वं तदश्वत्वात्मकमिति । अर्थक्रियाकारित्वं च वस्तुनो लक्षणम् । तच्च विशेषेष्वेव स्फुटं प्रतीयते । न हि । सामान्येन काचिदर्थक्रिया क्रियते; तस्य निष्क्रियत्वात्; वाहदोहादिका स्वर्थक्रियासु विशेषाणामेवोपयोगात् । तथेदं सामान्यं विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा ? । भिन्नं चेदवस्तुः विशेषविश्लेषेणाऽर्थक्रियाकारित्वाऽभावात् अभिन्नं चेद्विशेषा एव तत्स्वरूपवत् । इति विशेषैकान्तवादः । यदि कहो कि गोत्व अश्वत्व ( घोडापना ) घटत्व पटत्व आदि भेदोंसे भिन्न होनेके कारण वह सामान्य अनेकरूप है तो | तुमने परस्परकी व्यावृत्ति करने में कारण ऐसे विशेष ही स्वीकार किये । क्योंकि; जो गोत्व है वह अश्वपनेरूप नहीं हो सकता है । | तथा पदार्थका लक्षण अर्थक्रियाकारित्व है । और वह अर्थक्रियाकारीपना विशेषोंमें ही प्रकटरूपसे प्रतीत होता है । कारण कि, | सामान्यसे कोई भी अर्थक्रिया नहीं की जाती है । क्योंकि; वह क्रियारहित है । और वाहना, दूध दोहना इत्यादिरूप जो अर्थक्रिया है उनमें विशेषोंका ही उपयोग होता है। तथा यह सामान्य विशेषोंसे भिन्न है ? वा अभिन्न है ? यदि कहो कि भिन्न है। तो तुम्हारा माना हुआ सामान्य कोई पदार्थ ही नहीं है । क्योंकि; विशेषसे भिन्न होनेके कारण इसमें अर्थक्रियाकारित्वका अभाव है । यदि कहो कि अभिन्न है तो विशेषोंके खरूपके समान वह सामान्य भी विशेष ही हुआ । विशेपोको ही सर्वथा | माननेवालोका इस प्रकार कहना है ॥ नैगमनयाऽनुगामिनस्त्वाहुः । -- स्वतन्त्रौ सामान्यविशेषौ; तथैव प्रमाणेन प्रतीतत्वात्। तथाहि । सामान्यविशेषावत्यन्तभिन्नौ; विरुद्धधर्माध्यासितत्वात् । यावेवं तावेवं यथा पाथः पावकौ । तथा चैतौ । तस्मात्तथा । सामान्यं हि गोत्वादि सर्वगतम् । तद्विपरीताश्च शवलशावलेयादयो विशेषाः । ततः कथमेपामैक्यं युक्तम् ? Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iamin ऐसे जो वैशेषिक और नैयाचिका प्रतीत होते हैं । को धारक होते हैं वे एक प्रकार ये दोनों कि स्थाद्वादमं. ॥११॥ तिहिं स विशेषच व्यवहारं न प्रविष्यता तद्ग्रालती है, तो उस विशेषवह विशेषकी प्राप्ति गर्दन होनेस प्रमाता (हा नहीं । नैगमनयका अनुसरण करनेवाले ऐसे जो वैशेषिक और नैयायिक हैं वे कहते हैं कि, सामान्य तथा विशेष ये दोनो स्वतंत्र राजेश (खाधीन अर्थात् परस्पर निरपेक्ष ) है। क्योंकि, प्रमाणद्वारा ऐसे ही प्रतीत होते है । सो ही दिखलाते हैं। सामान्य और विशेष ये दोनों अत्यत भिन्न है। क्योंकि, विरुद्ध धर्मका धारण करनेवाले है। जो विरुद्ध धर्मके धारक होते हैं वे एक दूसरेसे अत्यंत भिन्न होते है। जैसे कि जल और अग्नि। ये दोनों परस्पर विरुद्ध धर्मके धारक होनेसे अत्यंत भिन्न है। उसी प्रकार ये दोनो सामान्य विशेष भी विरुद्ध धर्मके धारक है इस कारण अत्यत भिन्न है । क्योंकि गोव (गौपना) आदि जो सामान्य है वह तो सर्वव्यापी है और गौव्यक्तिमें प्राप्त जो कर्बुरवर्ण तथा चित्रवर्ण आदि रूपविशेष है, वे सामान्यसे विपरीत अर्थात् असर्वगत है। इस कारण सामान्य और विशेष इन दोनोंकी एकता कैसे ठीक हो सकती है अर्थात् सामान्य और विशेष ये दोनों एक नहीं है। का न सामान्यात्पृथग्विशेषस्योपलम्भ इति चेत् कथं तर्हि तस्योपलम्भ इति वाच्यम् ? सामान्यव्याप्तस्येति चेन्न तर्हि स विशेषोपलंभः, सामान्यस्यापि तेन ग्रहणात् । ततश्च तेन बोधेन विविक्तविशेषग्रहणाऽभावात् तद्वाचकं धू ध्वनि तत्साध्यं च व्यवहारं न प्रवर्तयेत्प्रमाता। न चैतदस्ति; विशेषाभिधानव्यवहारयोः प्रवृत्तिदर्शनात् । तस्माद्विशेषमभिलपता तत्र च व्यवहारं प्रवत्तयता तद्ग्राहको वोधो विविक्तोभ्युपगन्तव्यः। | यदि कहो कि, सामान्यसे जुदा विशेष कहीं नहीं मिलता है, तो उस विशेषकी प्राप्ति किस प्रकारसे हो सकती है सो बताना चाहिये । यदि कहो कि, सामान्यके साथ मिले हुए विशेषकी प्राप्ति होती है तो वह विशेषकी प्राप्ति नहीं हुई । क्योंकि, उसके द्वारा सामान्यका भी ग्रहण होता है । और इस कारण उस ज्ञानद्वारा सामान्यसे भिन्न शुद्ध विशेषका ग्रहण न होनेसे प्रमाता (ज्ञान कर-27 नेवाला ) उस विशेषके कहनेवाली ध्वनि (शब्द) को और उस शब्दसे साध्य ऐसे व्यवहारको नहीं प्रवर्गवे । परंतु ऐसा है नहीं। क्योंकि, विशेषके वाचक शब्द की तथा विशेषजन्य व्यवहारकी प्रवृत्ति देखी जाती है। इस कारण विशेपको चाहनेवाले और उसमें व्यवहारके प्रवर्त्तावनेवाले पुरुषको उस विशेषका ग्रहण करनेवाला भिन्न ज्ञान खीकार करना चाहिये। __ एवं सामान्यस्थाने विशेपशव्दं विशेषस्थाने च सामान्यशब्दं प्रयुञ्जानेन सामान्येऽपि तद्ग्राहको बोधो विवितोऽङ्गीकर्तव्यः। तस्मात्स्वस्वग्राहिणि ज्ञाने पृथक् प्रतिभासमानत्वाद् द्वावपीतरेतरविशकलितौ । ततो न सामान्यविशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटते । इति स्वतन्त्रसामान्यविशेषवादः। चाहिये । याद ग्रहण होता हवाली ध्वनि पजन्य व्यवहानवाला मिन जानेन साततरविशकांत नेवाला विशेषके वाचक शकरुपको उस विशेषकाने च सामान्यासमानत्वाद् द्वार ॥११०॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार सामान्यके स्थानमें विशेषशब्दका और विशेषके स्थानमें सामान्यशब्दका प्रयोग करनेवाले पुरुपको सामान्यमें भी उसको ग्रहण करनेवाला शुद्ध ज्ञान स्वीकार करना चाहिये। इस कारण निज निजको ग्रहण करनेवाले ज्ञानमें जुदे जुदे प्रतिभासित होनेसे सामान्य और विशेष ये दोनों ही परस्पर एक दूसरेसे भिन्न है। और इस कारण पदार्थका सामान्यविगेपात्मकपना सिद्ध नहीं होता है । इस प्रकार खतंत्र सामान्य तथा विशेषका मंडनरूप कथन है। MT तदेतत्पक्षत्रयमपि न क्षमते क्षोदं; प्रमाणबाधितत्वात् सामान्यविशेपोभयात्मकस्यैव च वस्तुनो निर्विगानम नुभूयमानत्वात् । वस्तुनो हि लक्षणमर्थक्रियाकारित्वम् । तच्चाऽनेकान्तवादे एवाऽविकलं कलयन्ति परीक्षकाः। तथा IN हि । यथा गौरित्युक्ते खुरककुद्सास्नालाङ्गूलविषाणाद्यवयवसंपन्नं वस्तुस्वरूपं सर्वव्यक्त्यनुयायि प्रतीयते तथा महिष्यादिव्यावृत्तिरपि प्रतीयते। | वे ये तीनों ही पक्ष विचारनेपर नहीं ठहरते है । क्योंकि, प्रमाणसे बाधित है। कारण कि, सामान्य तथा विशेप इन दोनोंस्वरूप जो पदार्थ है, उसीका निर्दोषरूपसे अनुभव होता है। क्योंकि; वस्तुका लक्षण अर्थक्रियाकारित्व है । और परीक्षको को वह लक्षण अनेकांतवाद (जैनमत ) में ही परिपूर्णरूपसे दीखता है । सो ही दिखलाते है कि, जैसे गौ ऐसा कहनेपर खुर थूवा गलकम्बल पूंछ और सीग आदि अवयवों ( शरीरके भागों ) सहित ऐसा गौका स्वरूप समस्त गोव्यक्तियोंमें रहनेवाला साप्रतीत होता है उसी प्रकार भैस आदि पशुओंसे भिन्नता भी प्रतीत होती है। IN यत्रापि च शवला गौरित्युच्यते तत्रापि यथा विशेषप्रतिभासस्तथा गोत्वप्रतिभासोऽपि स्फुट एव । शवलेति । केवलविशेषणोच्चारणेऽपि अर्थात्प्रकरणाद्वा गोत्वमनुवर्त्तते । अपि च शवलत्वमपि नानारूपं तथा दर्शनात् । ततो वक्ता शवलेत्युक्ते कोडीकृतसकलशवलसामान्यं विवक्षितगोव्यक्तिगतमेव शवलत्वं व्यवस्थाप्यते । तदेवमावालगोपालं प्रतीतिप्रसिद्धेऽपि वस्तुनः सामान्यविशेपात्मकत्वे तदुभयैकान्तवादः प्रलापमात्रम् । न हि क्वचित्कदाचिकेनचित्सामान्यं विशेपविनाकृतमनुभूयते । विशेषा वा तद्विनाकृताः । केवलं दुर्णयप्रभावितमतिव्यामोहंवशादेकमपलप्याऽन्यतरब्यवस्थापयन्ति वालिशाः। सोऽयमन्धगजन्यायः। और भी-यह गौ शबल ( कावुरी ) है ऐसा जहां कहते है वहां भी जैसे विशेषका प्रतिभास होता है उसी प्रकार गोत्व నాకు రక్షణ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जै.शा. . साद्वादम. | सामान्यका भी प्रतिभास स्पष्ट रीतिसे होता ही है । और यदि शवल ऐसे केवल विशेपणकाही उच्चारण किया जाय तो भी वहां अर्थसे वा प्रकरणसे गोत्व सामान्यकी अनुवृत्ति होती ही है। और विशेष कहना यह है कि-शवलपना भी अनेक प्रकारका ॥१११॥ देखा जाता है । इस कारण शबल है, ऐसा मुखसे कहनेपर समस्त शबलत्व सामान्यको ग्रहण करके विवक्षित गो | व्यक्तिमें प्राप्त हुआ ही शबलपना सिद्ध किया जाता है । सो इस प्रकार वालकसे लेकर गोपालपर्यंत प्रतीतिद्वारा प्रसिद्ध ऐसे भी पदार्थके सामान्यविशेषात्मक खरूपमें परस्पर खतंत्र सामान्य विशेषका कथन करना प्रलापमात्र ही है। क्योंकि, विशेषके विना किये हुए IN सामान्यका अथवा सामान्यके विना किए हुए विशेषोंका किसी स्थलमें और किसी समयमें किसीने भी अनुभव नहीं किया है। * केवल एकांत पक्षरूपी दुर्नयकी वासनाको प्राप्त हुई अर्थात् एकांतपक्षकी धारक बुद्धिके व्यामोहवश होकर मूर्ख जन एकको छिपाकर दूसरेका स्थापन करते है । परंतु यह अंधगजन्याय है। भावार्थ-जैसे जन्मांध पुरुष हाथीके एक एक अवयवको ग्रहण करके हाथीका खरूप जुदे जुदे प्रकारसे सिद्ध करते है, उसी प्रकार एकांतपक्षसे अंधी हुई बुद्धिके धारक पुरुष भी सामान्य विशेष इन 1 दोनोंमेंसे एकको छिपाकर दूसरेको सिद्ध करते है। येपि च तदेकान्तपक्षोपनिपातिनः प्रागुक्ता दोपास्तेप्यनेकान्तवादप्रचण्डमुद्गरप्रहारजर्जरितत्वान्नोच्छुसितुमपि क्षमाः । और जो उन एकान्त पक्षोंके माननेमें संभवते दोष दिखाये थे वे भी अनेकान्तवादरूपी प्रचण्ड मूसलके प्रहारकर जर्जरित होनेसे श्वास भी नहीं लेसकते है । अर्थात् अनेकांतवादसे खंडित होजानेके कारण निष्फल है। स्वतन्त्रसामान्यविशेपवादिनस्त्वेवं प्रतिक्षेप्याः । सामान्यं प्रतिव्यक्ति कथंचिदभिन्नं कथंचित्तदात्मकत्वाद्विसशपरिणामवत् । यथैव हि काचिद्व्यक्तिरुपलभ्यमाना व्यक्त्यन्तराद्विशिष्टा विसदृशपरिणामदर्शनादवतिष्ठते तथा सदृशपरिणामात्मकसामान्यदर्शनात् समानेति; तेन समानो गौरयं सोनेन समान इति प्रतीतेः। न चास्य व्यक्तिस्वरूपादभिन्नत्वात्सामान्यरूपताव्याघातः। यतो रूपादीनामपि व्यक्तिस्वरूपादभिन्नत्वमस्ति; न च तेषां गुणरूपताव्याघातः । कथंचिद्व्यतिरेकस्तु रूपादीनामिव सदृशपरिणामस्याप्यस्त्येव पृथग्व्यपदेशादिभाक्त्वात्। ___अव सामान्य तथा विशेष पदार्थोंको सर्वथा खतन्त्र माननेवालोंका निराकरण इस प्रकार करना चाहिये।-सामान्य भी कथंचि ॥१११॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विशेपरूप ही होनेके कारण व्यक्तिसे किसी प्रकार ( कथंचित्) अभिन्न ही है । जैसे विशेष परिणाम । क्योंकि, जैसे दीखती हुई कोई वस्तु, अन्य वस्तुओंसे विशेषरूप भिन्न भिन्न दीखनेसे प्रतिविशेषाकाररूप प्रतिभासती है तैसे ही समान परिणामस्वरूप सामान्य धर्मके | दीखनेसे यह उसके समान है इस प्रकार भी वह प्रतिभासित होती है । क्योंकि, यह गौ उसके समान है अथवा वह इसके समान है ऐसी प्रतीति सर्वजन में प्रसिद्ध है । और यह सामान्यरूप वस्तुके खरूपसे अभिन्न है इतने मात्रसे वस्तु में सामान्यपनेका अभाव हो जाय ऐसा नहीं है । क्योंकि, रूपादिक भी वस्तुसे अभिन्न है परंतु इसलिये रूपादिकों में गुणपना न रहै ऐसा नही है । व्यक्ति तथा सामान्यके | नामादिक भिन्न भिन्न होनेकी अपेक्षा व्यक्ति तथा सामान्यमें कथंचित् भेद भी है परंतु ऐसा भेद रूपादिक तथा व्यक्तिमें भी है ही । विशेषा अपि नैकान्तेन सामान्यात्पृथग्भवितुमर्हन्तिः यतो यदि सामान्यं सर्वगतं सिद्धं भवेत्तदा तेषामसर्वंगतत्वेन ततो विरुद्धधर्माध्यासः स्यात् । न च तस्य तत्सिद्धं; प्रागुक्तयुक्त्या निराकृतत्वात्; सामान्यस्य विशेषाणां च कथंचित्परस्पराव्यतिरेकेणैकानेकरूपतया व्यवस्थितत्वात् । विशेषेभ्योऽव्यतिरिक्तत्वाद्धि सामान्यमप्यनेकमिष्यते । सामान्यात्तु विशेषाणामव्यतिरेकेण तेषामप्येकरूपता इति । अनेकांतवाद के कथनानुसार विशेष भी सामान्यसे जुदे नहीं रह सकते है । क्योंकि, यदि सामान्य सर्वगत सिद्ध हो तो | विशेष पदार्थ सर्वगत न होनेसे सामान्यकी अपेक्षा विरुद्धधर्मवाले माने जाय, परंतु सामान्यमें सर्वगतपना ही सिद्ध नही है । | सामान्य में सर्वगतपनेका निराकरण पहले ही युक्तिपूर्वक कर चुके है । यहां भी कुछ कहते हैं । सामान्य तथा विशेषोमें कथंचित् अभेद सिद्ध होनेसे कथंचित् एकपना तथा कथंचित् अनेकपना भी सिद्ध होता है । सामान्य स्वयं समानपनेसे एकरूप होनेपर भी विशेषरूपोंसे अभिन्न होनेके कारण अनेकरूप भी माना जाता है। ऐसे ही विशेषाकार स्वयं भिन्न भिन्न होनेपर भी सामान्य से अभिन्न होने के कारण एकरूप भी है । एकत्वं च सामान्यस्य संग्रहनयार्पणात्सर्वत्र विज्ञेयं; प्रमाणार्पणात्तस्य सदृशपरिणामरूपस्य विसदृशपरिणामवत् कथंचित्प्रतिव्यक्ति भेदात् । एवं चासिद्धं सामान्यविशेषयोः सर्वथा विरुद्धधर्माध्यासितत्वम् । कथंचिद्विरुद्ध धर्माध्यासितत्वं चेद्विवक्षितं तदास्मत्कक्षाप्रवेशः कथंचिद्विरुद्धधर्माध्यासस्य कथंचिद्भेदाविनाभूतत्वात् । पाथः| पावकदृष्टान्तोपि साध्यसाधनविकलः; तयोरपि कथंचिदेव विरुद्धधर्माध्यासितत्वेन भिन्नत्वेन च स्वीकरणात् । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यादादम. ॥११॥ पयस्त्वपावकत्यादिना हि तयोविरुद्धधर्माध्यासो भेदश्च, द्रव्यत्वादिना पुनस्तद्विपरीतमिति । तथा च कथं न राजै.शा. सामान्यविशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटते? इति । ततः सुष्ठुक्तं "वाच्यमेकमनेकरूपम्" इति। सामान्यएकता सदा संग्रहनयकी अपेक्षासे ही सर्वत्र जाननी चाहिये । क्योंकि, प्रमाणात्मक ज्ञानकी अपेक्षा तो प्रत्येक गक्किमें जैसे विसदृश परिणाम भिन्न भिन्न है तैसे उस समान परिणाममय सामान्यमें भी प्रतिव्यक्ति कथंचित् भेद ही है। इस प्रकार सामान्य तथा विशेषमें सर्वथा विरुद्धधर्मपनेका निराकरण होता है। यदि कथंचित् विरुद्धधर्मपना इष्ट हो तो हमारा मानना भी नही है । क्योंकि कथंचित् विरुद्ध धर्म तभी हो सकता है जब भेद भी कथंचित् ही हो, न कि सर्वथा भेद माननेपर। जल तथा अमिका दृष्टान्त भी परस्परका भेद सर्वथा सिद्ध नहीं कर सकता है। क्योकि; जल तथा अग्निमें भी विरुद्धधर्मपना तथा भेद कथंचित् ही माना गया है । जैसे जलपने तथा अग्निपनेसे ही जल तथा अग्निमें विरुद, धर्म तथा भेद है; द्रव्यत्वादिक मांझी अपेदा भेद नहीं है । इस प्रकार वस्तुका पूर्ण स्वरूप सामान्यविशेषात्मक क्यों न माना जाय ? इसलिये यह ठीक कहा G PLE कि" वान्यमेकमनेकरूपम् ।" अर्थात् वस्तु एकरूप भी है तथा अनेकरूप भी है। एवं वाचकमपि शब्दाख्यं द्वयात्मकम् (सामान्यविशेपात्मकम् ) । सर्वशब्दव्यक्तिप्वनुयायिशव्दत्वमेकम् । गाहगाईतीत्रमन्दोदात्तानुदात्तस्वरितादिविशेषभेदादनेकम् । शब्दस्य हि सामान्यविपात्मकत्वं पौगलिकत्वाव्यकमेव । तथा हि । पौद्गलिकः शब्दः, इन्द्रियार्थत्वाद्रूपादिवत् । इसी प्रकार वस्तुका वाचक शब्द भी एक तथा अनेकरूप अर्थात् सामान्यविशेपात्मक है। वाचकपनेसे सर्व व्यक्तियोम अनुयायी अर्थात् रहनेवाला होनेसे तो एकल्प है और शखका शन, शारशीका गन्न, तीव्र शब्द, मंद शब्द, उदात्त गन्द, जनुदात्त शब्द तथा सरित शब्द इत्यादि अतर्गत भेटोंकी अपेक्षा अनेकरूप भी है। पुद्गलकी पर्यायरूप होनेसे सामान्यविशेषात्मक-न सपना भी शब्दनें स्पष्ट है । अब पुगलपना कैसे है यह दिखाते है। इद्रियोंके गोचर होनेसे जैसे रूपरसादिक पुद्गलके अवसानिशेष है तैसे शब्द भी पुद्गलका अवसाविशेप है। ॥११२॥ | यचास्य पाद्गलिकत्वनिषेधाय स्पर्शशून्याश्रयत्वादतिनिविडप्रदेशे प्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघातात् पूर्व पश्चाचावय-17 यानुपलब्धेः सून्ममूर्तद्रव्यान्तराप्रेरकत्वागगनगुणत्वाच्चेति पञ्च हेतवो यौगैरुपन्यस्तास्ते हेत्वाभासाः । तथा हि । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या शब्दमें पुद्गलपनेका खण्डन करनेके अभिप्रायसे यौगमतवालोने पांच हेतु दिखाये हैं । (१) शब्द पुद्गलमयी नहीं है। क्योंकिस्पर्शगुणरहित है। (२) शब्द पुद्गलमयी नहीं है। क्योंकि अत्यंत सघन पदार्थों से भी प्रवेश करते तथा निकलते हए रुकता नहीं है ।(३) शब्द पुद्गलरूप नहीं है। क्योंकि शब्दरूप पर्यायके पूर्वोत्तर पर्यायरूप अवयव नही दीखते है (४)। शब्द पौद्गलिक नहीं है। क्योंकि; अन्य छोटे छोटे मूर्तिक द्रव्योंको कंपा नहीं सकता है । (५) शब्द पुद्गलका विकार नही है। क्योंकि, शब्द आकाशका गुण है । जो पौद्गलिक होता है वह स्पर्शसहित होता है, अति सघन वस्तुमें प्रवेश नही कर सकता है तथा उसमेंसे निकल भी नहीं सकता है, आगे पीछेकी अवस्थाके अवयव भी उसके दीखते है, अन्य छोटे छोटे मूर्तिक द्रव्योंको वह कंपाता भी है और जो पुद्गलमयी होता है वह आकाशका गुण नही होता है । यौगमत लोके ये पांचो ही हेतु हेत्वाभास है। किस प्रकार हेत्वाभास है सो दिखाते हैं। KI शब्दपर्यायस्याश्रयो भाषावर्गणा, न पुनराकाशम् । तत्र च स्पर्शो निर्णीयते एव । यथा-शब्दाश्रयः स्पर्शवान् अनुवातप्रतिवातयोर्विप्रकृष्टनिकटशरीरिणोपलभ्यमानानुपलभ्यमानेन्द्रियार्थत्वात् तथाविधगन्धाधारद्रव्यपरमाणुवत् । इत्यसिद्धः प्रथमः । द्वितीयस्तु गन्धद्रव्येण व्यभिचारादनैकान्तिकः। वर्तमानजात्यकस्तूरिकादि गन्धद्रव्यं. हि पिहितद्वारापवरकस्यान्तर्विशति वहिश्च निर्याति, न चापौगलिकम् । al शब्दरूप पर्यायका उपादान कारण भाषावैर्गणारूप पुद्गल है; आकाश नहीं है । और उसमें स्पर्शका निर्णय भी होता ही है। कैसे ? शब्दका आश्रय ( उपादान कारण ) स्पर्शसहित ही है । क्योंकि यदि वायु अनुकूल (मुखके आगेसे मुखकी तरफ आनेवाला ) हो तथा सुननेवाला प्राणी जहां शब्द होता हो उससे दूर हो तो भी शब्द सुनाई पडता है नही तो (वायु प्रतिकूल IN होनेपर सुननेवाला शब्दकी उत्पत्तिके स्थानके पास हो तो भी) नही । जैसे-यदि वायु अनुकूल ( आगेसे आनेवाला ) हो तो सूंघनेवाला प्राणी गन्धके स्थानसे दूर रहे तो भी वह गन्ध जानी जाती है नही तो नही (इसलिये जैसे गन्धद्रव्य पौद्गलिक है। सातैसे शब्द भी पौगलिक ही होना चाहिये)। इस प्रकार योगमतवालेका प्रथम हेतु असिद्ध हुआ। दूसरा हेतु भी गन्धद्रव्यसे ही| | जो हेतु साध्य सिद्ध करनेके अभिप्रायसे बोला जाता है वह यदि झूठा (सदोप) हो तो उसको हेत्वाभास कहते हैं । २ पुद्गलके एकसे खण्डोके समूहको वर्गणा कहते हैं। पुद्गलकी वर्गणा सर्व वाईस हैं। इन्हीमसे एकका नाम भापावर्गणा है। जिनसे शब्द वनसकै उनको भापावर्गणा कहते हैं। - र Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. स्थाद्वादम. ॥११॥ व्यभिचारी होनेसे अनैकान्तिकनामक हेत्वाभास है । अर्थात्-जैसे गन्धद्रव्य अत्यंत सघन पदार्थोंमें प्रवेशकरते तथा उनमेंसे निकलते हुए नही रुकनेपर भी पौद्गलिक है तैसे ही शब्दके भी अत्यंत सघन पदार्थमें प्रवेश करते तथा निकलते हुए नहीं रुकनसे पौलिकपनेमें बाधा नही आसकती है। क्योंकि; उत्तम कस्तूरीआदिक गन्धद्रव्य किवाड़आदिक बंद करदेनेपर भी बाहरसे भीतर घुस जाता है तथा भीतरसे निकल भी आता है परंतु पौद्गलिक ही है; अपौद्गलिक नही है। | अथ तत्र सूक्ष्मरन्ध्रसंभवान्नातिनिविडत्वम् । अतस्तत्र तत्प्रवेशनिष्क्रमौ । कथमन्यथोद्घाटितद्वारावस्थायामिव कान तदेकार्णवत्वम् ? सर्वथा नीरन्ध्रे तु प्रदेशे न तयोः संभवः। इति चेत्तर्हि शब्दप्येतत्समानम् । इत्यसिद्धो हेतुः। तृतीयस्तु विद्युल्लतोल्कादिभिरनैकान्तिकः । चतुर्थोपि तथैव; गन्धद्रव्यविशेपसूक्ष्मरजोधूमादिभिर्व्यभिचारात् । न हि गन्धद्रव्यादिकमपि नासायां निविशमानं तद्विवरद्वारदेशोभिन्नश्मश्रुप्रेरकं दृश्यते । पञ्चमः पुनरसिद्धः। तथा पू'हि। न गगनगुणः शब्दः, अस्मदादिप्रत्यक्षत्वाद्रूपादिवत् । इति सिद्धः पौगलिकत्वात्सामान्यविशेषात्मकः शब्द इति । ___यदि कहो कि “ किवाड आदिकोंमें छोटे छोटे छिद्र रहनेसे अत्यंत सघनता नही है इसलिये उनमें प्रवेशकरना तथा निकलना होसकता है। यदि ऐसा न हो तो किवाड खुले रहनेपर जैसा गन्ध निकलता है तैसा बंद होनेपर भी क्यो नही ? और जो • सर्वथा छिद्ररहित हो उसमें न तो प्रवेश ही करसकता है और न निकल ही सकता है" तो हम भी शब्दमे ऐसा ही खभाव * मानते है। अर्थात् जिसमें सूक्ष्म छिद्र हों उसीमें शब्दका घुसना निकलना होसकता है; अन्यत्र नही । इस प्रकार दूसरा | हेतु भी असिद्ध हुआ । यद्यपि उल्कापात अथवा विजलीआदिकोंके भी पहले पीछेके अवयव जिनसे वह वनै या नाश y होनेके अनन्तर जो रहै, नहीं दीखते है परंतु तो भी ये सब पौद्गलिक ही है । इसलिये तीसरा हेतु सदोष ( अनैकातिके ) है।। चौथा भी इसी प्रकार सदोप ( अनैकातिक या व्यभिचारी ) है । क्योंकि; अनेक प्रकारके गन्धद्रव्य या सूक्ष्म ( वारीक ) धूली अथवा धूमादिक भी मूर्तिक द्रव्यकी प्रेरणा नहीं करते है इसलिये यहां चौथा हेतु तो विद्यमान है परंतु पुद्गलपनेका अभावरूप १-२ जिस साध्यके साधनेकेलिये जो हेतु चोला जाय वह हेतु यदि उस साध्यके स्थानसे अन्यत्र भी रहे तो वह हेतु व्यभिचारी अथवा अनैकाकन्तिक कहा जाता है । यह हेस्वाभासका एक भेद है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य नहीं है इसलिये साध्यके अभावमें भी हेतु रहनेसे व्यभिचार अथवा अनेकान्तनामक दोप आता है। क्योंकि गन्धद्रव्य भी नासिकामें घुसते अथवा निकलते पासकी मूंछोको कंपाता नही है। पांचवा हेतु असिद्ध है। कैसे सो कहते है। हमलोगोंके भी सागोचर होनेसे शब्द आकाशका गुण नही होसकता है । जो पौद्गलिक होता है वही हमलोगोंकी इंद्रियोंके गोचर होसकता है । जैसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श । इस प्रकार शब्द पौगलिक सिद्ध होनेसे सामान्यविशेपात्मक है। | न च वाच्यम् “ आत्मन्यपौद्गलिकेपि कथं सामान्यविशेषात्मकत्वं निर्विवादमनुभूयते” इति; यतः संसार्यात्मनः प्रतिप्रदेशमनन्तानन्तकर्मपरमाणुभिः सह वह्नितापितधनकुट्टितनिर्विभागपिण्डीभूतसूचीकलापवल्लोलीभावमापन्नस्य कथंचित्पौगलिकत्वाभ्यनुज्ञानादिति । यद्यपि स्याद्वादवादिनां पौद्गलिकमपौद्गलिकं च सर्व वस्तु सामान्यविशेषात्मकं तथाप्यपौद्गलिकेषु धर्माधर्माकाशकालेषु तदात्मत्वमाग्दृशां न तथा प्रतीतिविपयमायाति । पौद्गलिकेषु पुनस्तत्साध्यमानं तेषां सुश्रद्धानम् । इत्यप्रस्तुतमपि शब्दस्य पौगलिकत्वं सामान्यविशेषात्मकत्वसाध|| नायोपन्यस्तमिति । “ यदि पुद्गलमें ही सामान्यविशेषात्मकपना है तो पुद्गलरूप न होनेपर भी आत्मामें सामान्यविशेषात्मकपना क्यों निर्विवाद झलकता है" यह प्रश्न करना ठीक नहीं है। क्योंकि, जैसे अग्निसे तपाने तथा घनोसे कूटनेपर अनेक सूइयोका समूह एक पिडरूप होजाता है तैसे संसारी आत्माके प्रत्येक प्रदेशमें योग, कषायोंके वश प्रत्येक समयमें जो अनंतानंत कर्मपरमाणु बंधको प्राप्त होते हैं उनके साथ एकपना होनेसे वह आत्मा भी कथंचित् पौद्गलिक ही गिना जाता है । यद्यपि स्याद्वादी पौगलिक पृथ्वी जलादिक तथा अपौद्गलिक धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन दोनो ही प्रकारके द्रव्योंको सामान्यविशेषात्मक मानते है तो भी अल्पज्ञानी जीव अपौद्गलिक पदार्थों में सामान्यविशेषात्मकपना भलेप्रकार नही समझ सकते है। पौगालिक पदार्थों में तो यदि सामान्यविशेषका विचार किया जाय तो भलेप्रकार समझ सकते है। इसलिये शब्दको सामान्यविशेषात्मक सिद्ध करनेके अभिप्रायसे ही शब्दमें पुद्गलपना विना प्रकर्ण भी सिद्ध किया है। अत्रापि नित्यशब्दवादिसंमतः शब्दैकत्वैकान्तोऽनित्यशब्दवाद्यऽभिमतः शब्दानेकत्वैकान्तश्च प्राग्दर्शितदिशा १ जो हेतु दूसरे अनुमानसे वाधित होसकै वह असिद्ध है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥११४॥ प्रतिक्षेप्यः । अथ वा वाच्यस्य घटादेरर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्वे तद्वाचकस्य ध्वनेरपि तत्त्वंः शब्दार्थयोः कथंचि - त्तादात्म्याभ्युपगमात् । यदाहुर्भद्रवाहुस्वामिपादाः । यहांपर शब्दको नित्य कहनेवालोकर माने गये शब्द के सर्वथा एकपनेका तथा शब्दको अनित्य माननेवालोकर माने हुए शब्दके सर्वथा अनेकपनेका निराकरण प्रथम दिखाये हुए ढंगसे करना चाहिये । अथवा वाच्यरूप घटादिक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक सिद्ध होनेसे ही उन पदार्थोके वाचक शब्दोंमें भी सामान्यविशेषात्मकपना सिद्ध हो सकता है । क्योंकि, शब्द तथा अर्थका संबन्ध कथंचित् तादात्म्यरूप माना गया है । यही बात पूज्य भद्रबाहु स्वामी कही है -- अभिहाणं अभियाउ होइ भिण्णं अभिण्णं च । खुरअग्गिमोयगुच्चारणम्हि जम्हा दु वयणसवणाणं । णवि छेउ णावि दाहो ण पूरणं तेण भिण्णं तु ॥ जम्हा उ मोयगुच्चारणम्हि तत्थेव पच्चओ होइ । ण य होइ स अण्णत्थे तेण अभिण्णं तदत्थाउ ॥ छाया-अभिधानम् अभिधेयाद् भवति भिन्नम् अभिन्नं च । क्षुरअग्निमोदकोच्चारणे यस्मात् तु वचनश्रवणानाम् । नापि छेदो नापि दाहो न पूरणं तेन भिन्नं तु । यस्मात्तु मोदकोच्चारणे तत्रैव प्रत्ययो भवति । न च भवति स अन्यार्थे तेन अभिन्नं तदर्थात् ॥ भी है। बोलनेवालोके मुख तथा "C मोदक " ( लड्डू ) शब्दसे पूरित अभिधान ( वाचक शब्द ) अभिधेय ( वाच्य = पदार्थ ) से भिन्न भी है तथा अभिन्न सुननेवालोंके कान “ छुरा "शब्दसे छिदते नहीं है, " अग्नि " शब्दसे जलते नहीं है, नही हो जाते है इसलिये तो पदार्थसे शब्द भिन्न है । और जिस मोदकादिक अर्थके कहनेवाला शब्द बोला जाता है उस शब्दसे उसी पदार्थका ज्ञान होता है अन्यका नही इसलिये अर्थसे शब्द अभिन्न भी है । रा. जै.शा. एतेन “ विकल्पयोनयः शब्दा विकल्पाः शब्दयोनयः । कार्यकारणता तेपां नार्थं शब्दाः स्पृशन्त्यपि " इति प्रत्युक्तम् । शब्दस्य ह्येतदेव तत्त्वं यदभिधेयं याथात्म्येनासौ प्रतिपादयति । स च तत्तथा प्रतिपादयन् वाच्यस्वरूपपरिणामपरिणत एव वक्तुं शक्तो नान्यथा अतिप्रसङ्गात्, घटाभिधानकाले पटाद्यविधानस्यापि प्राप्तेरिति । इस कथनसे “ शब्दकी विकल्पसे उत्पत्ति है तथा विकल्पकी शब्दसे । इस प्रकार शब्द तथा अर्थमें प्रत्येक कार्यकारणरूप ॥११४॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो है परंतु शब्द अपने वाच्य अर्थका स्पर्शमात्र भी नहीं करते है।" यह कथन भी खण्डित होता है, क्योंकि; “पदार्थ, शब्द (उस पदार्थका वाचक) तथा ज्ञान ये तीनो ही समानसंज्ञावाले होते है" एसा पूर्वाचार्योंका वचन है । शब्दका यही तत्त्व (प्रयोजन= शब्दपना ) है कि अपने वाच्य अर्थका यथार्थरूपसे प्रतिपादन करै । और वह ( शब्द ) अपने वाच्यका यथार्थपनेसे प्रतिपादन करता हुआ अपने वाच्यखरूपमय होकर ही प्रतिपादन करसकता है, अन्य प्रकार नही । यदि अन्यथा प्रकार भी करसकै तो अमुक शब्दका यही अर्थ है ऐसा कोई निश्चायक न होनेसे "घट" शब्दसे "पट" पदार्थका भी ज्ञान क्यों न हो ? (क्योंकि ऐसा होनेपर इस दोषका कोई व्यावर्तक नहीं है)। __ अथवा भङ्ग यन्तरेण सकलं काव्यमिदं व्याख्यायते । वाच्यं वस्तु घटादिकमेकात्मकमेव (एकरूपमैपि) सदनेकम् । (अनेकस्वरूपम्)। अयमर्थः।-प्रमाता तावत् प्रमेयस्वरूपं लक्षणेन निश्चिनोति । तच्च सजातीयविजातीयव्यवच्छेदादात्मलाभं लभते । यथा घटस्य सजातीया मृन्मयपदार्था विजातीयाश्च पटादयः । तेषां व्यवच्छेदस्तल्लक्षणम् । पृथुबुध्नोदराद्याकारः कम्बुग्रीवो जलधारणाहरणादिक्रियासमर्थः पदार्थविशेषो घट इत्युच्यते । तेषां च सजातीयविजातीयानां स्वरूपं तत्र बुद्ध्या आरोग्य व्यवच्छिद्यते; अन्यथा प्रतिनियततत्स्वरूपपरिच्छेदानुपपत्तेः। ॥ अथवा इस समग्र काव्यका व्याख्यान दूसरे प्रकारसे करते है । वाच्य अर्थात् घटादिक पदार्थ एकात्मक भी अर्थात् एकरूप होकर भी अनेक सत्तावाले अर्थात् अनेकरूप है । इसका यह ( नीचे लिखे अनुसार ) अभिप्राय है कि प्रमाता (निश्चयकर्ता) लक्षणसे प्रमेयका खरूप निश्चित करता है । और यह निश्चय सजातीय तथा विजातीय वस्तुओंका निराकरण (व्यावृत्ति) करनेपर ही होसकता है । जैसे मट्टीसे वने हुए पदार्थ घड़ेके समानजातीय हैं और वस्त्रादिक विजातीय है । इन सवको जुदे करनेका नाम ही| उस पदार्थका लक्षण है । स्थूल तथा मोटे पेटवाला शंखसमान ग्रीवावाला जल धरने तथा लाने आदिक प्रयोजनमें समर्थ जो कोई वस्तु उसको घड़ा कहते हैं । इस घड़ामें इसके सजातीय मट्टीके पदार्थ तथा विजातीय वस्त्रादिक पदार्थोंके स्वरूपका कल्पनामात्रसे आरोपण कर निराकरण किया जाता है। यदि घड़ासे भिन्न सजातीय तथा विजातीय वस्तुओंका निराकरण न किया जाय तो प्रत्येक पदार्थकी " यह यही है अन्य नही" ऐसी नियमित व्यवस्था ही न होसकै। १=एकरूपमेव इति पाठान्तरम् । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग खाद्वादम. ॥११५॥ सर्वभावानां हि भावाभावात्मकं स्वरूपम् । एकान्तभावात्मकत्वे वस्तुनो वैश्वरूप्यं स्यात् । एकान्ताभावात्मकत्वे च निःस्वभावता स्यात् । तस्मात् स्वरूपेण सत्त्वात्पररूपेण चासत्त्वाद्भावाभावात्मकं वस्तु । यदाह " सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च” । अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसंभवः” । ततश्चैकस्मिन् घटे सर्वेपां घटव्यतिरिक्तपदार्थानामभावरूपेण वृत्तेरनेकात्मकत्वं घटस्य सूपपादम् । एवं चैकस्मिन्नर्थे ज्ञाते सर्वेषामर्थानां ज्ञान सर्वपदार्थपरिच्छेदमन्तरेण तन्निषेधात्मन एकस्य वस्तुनो विविक्ततया परिच्छेदासंभवात् । आगमोप्येवमेव व्यवस्थितः " जे एगं जाणइ से सव्वं जाणई" । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ (संस्कृतच्छाया-य एक जानाति सG सर्व जानाति । यः सर्व जानाति स एकं जानाति)॥" तथा- “एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः" ॥ सभी पदार्थोंका खरूप भावाभावात्मक है। यदि किसी पदार्थका स्वरूप सदा भावात्मक ही मानलिया जाय तो वस्तु संपूर्ण जगत्खरूप होजाय । यदि सर्वथा अभावरूप ही माना जाय तो वस्तुका कोई स्वरूप ही न ठहरै । इसलिये निज खरूपकी अपेक्षा भावात्मक तथा अन्य रूपकी अपेक्षा अभावात्मक सभव होनेसे वस्तुका पूर्ण स्वरूप भावाभावात्मक ही संभवता है । यही कहा भी है "सभी वस्तु खरूपकी अपेक्षा सत्रूप है तथा अन्य खरूपकी अपेक्षा नास्तिरूप है। यदि ऐसा न हो अर्थात् यदि सर्वथा भावस्वभाव ही माना जाय तो एक वस्तुकी उपस्थितिमें सभी वस्तुओंकी सत्ता (मोजूदगी) उपस्थित होनेलगै तथा (यदि अभावखरूप ही माना १ जाय तो) निज खरूपका भी अभाव हो जाय।" इस प्रकार एक घडामें उस घडाके अतिरिक्त सभी पदार्थ अभावरूपसे रहनेसे यह सिद्ध हुआ कि एक भी घड़ा अनेकखरूप है । ऐसा सिद्ध होनेसे यह भी सिद्ध होता है कि जहां एक पदार्थका ज्ञान हो वहां धू सभी पदार्थोका ज्ञान होना चाहिये। यदि ऐसा न हो तो किसी भी इष्ट पदार्थका स्वरूप तो यही है कि अपने सिवाय अन्य सभीका निषेध करै । सो यह स्वरूप विना अन्य सर्व पदार्थोके जाने कैसे जाना जासकता है? आगममें भी यही कहा है "जो एक वस्तु जानलेता है वह सभी जानलेता है । जो सर्व जानता है वही एक भी जानता है।" तशा दूसरा प्रमाण-" जिसने एक पदार्थ पूर्णतया देखा है उसने सभी पदार्थ पूर्णतया देखे है। जिसने सर्व पदार्थ पूर्णतया देखे है एक पदार्थ भी पूर्णतया उसीने देखा है। ये तु सौगताः परासत्त्वं नाङ्गीकुर्वते तेषां घटादेः सर्वात्मकत्वप्रसङ्गः । तथा हि। यथा घटस्य स्वरूपादिना ॥१ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्वं तथा यदि पररूपादिनापि स्यात् तथा च सति स्वरूपादित्ववत्पररूपादित्वप्रसक्तेः कथं न सर्वात्मकत्वं भ-3 वेत् ? परासत्त्वेन तु प्रतिनियतोसौ सिध्यति । अथ न नाम नास्ति परासत्त्वं किन्तु स्वसत्त्वमेव तदिति चेदहो वैदग्धी! न खलु यदेव सत्त्वं तदेवासत्त्वं भवितुमर्हति । विधिप्रतिषेधरूपतया विरुद्धधर्माध्यासेनानयोरैक्यायोगात्। | अब जो बौद्धलोग पदार्थमें परकी अपेक्षा असत्त्व (अभाव) नहीं मानते है उनके मतमें घटादि पदार्थ सर्वजगन्मय होने लगेंगे । कैसे सो कहते है। जैसे घट खरूपादिकी अपेक्षासे सत् है तैसे यदि पररूपादिकी अपेक्षा भी सत् ही हो तो स्वरूपादिकी अपेक्षा सत् होनेके समान पररूपादिकी अपेक्षा भी सत् माननेसे सर्वात्मकपना क्यों न हो ? अन्यकी अपेक्षा असत् माननेपर तो ऐसा सिद्ध होसकता है कि यह यही है अन्य नही । “घटादिकमें अन्य पदार्थोका असत्त्व न हो ऐसा नही है किंतु अपनी सत्ता शाही परकी असत्ता है" यदि बौद्धोका ऐसा कहना हो तो धन्य है वौद्धोकी बुद्धिमत्ता! क्योंकि जो सत्त्व बही असत्त्व कैसे हो सकता है ? क्योंकि; विधि तथा प्रतिषेध, ये परस्पर विरोधी दो धर्म जिनमें हों उनमें एकता कैसी ? I अथ युष्मत्पक्षेप्येवं विरोधस्तदवस्थ एवेति चेदहो वाचाटता देवानां प्रियस्य । न हि वयं येनैव प्रकारेण सत्त्वं तेनैवासत्त्वं येनैव चासत्त्वं तेनैव सत्त्वमभ्युपेम किं तु स्वरूपद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत्त्वं पररूपद्रव्यक्षेत्रकालभावै-IAY स्त्वसत्त्वम् । तदा व विरोधावकाशः? बौद्ध जैनोसे कहते है कि "तुह्मारे मानने में भी यह विरोध है ही" परंतु यह कहना बौद्धोकी बडी धृष्टता है। हम जिस प्रकारसे सवरूप मानते है उसी प्रकारसे असरूप भी मानते हों ऐसा नही है तथा जिस अपेक्षासे पदार्थका खरूप असत् मानते है उसी अपेक्षासे सत् भी मानते हों ऐसा भी नही है। किंतु अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षासे तो प्रत्येक पदार्थकों सत् मानते हैं तथा अपनेसे भिन्न पदार्थोके द्रव्य क्षेत्र काल भावोकी अपेक्षासे उसी एक पदार्थको असत् भी मानते है। अब कहिये ! विरोध कहां है? यौगास्तु प्रगल्भन्ते “सर्वथा पृथग्भूतपरस्पराभावाभ्युपगममात्रेणैव पदार्थप्रतिनियमसिद्धेः किं तेषामसत्त्वा-1 त्मकत्वकल्पनया” इति तदसत् । यदा हि पटाद्यभावरूपो घटो न भवति तदा घटः पटादिरेव स्यात् । यथा चघटाभावादिन्नत्वाद्धटस्य घटरूपता तथा पटादेरपि स्यात् घटाभावाद्भिन्नत्वादेव । इत्यलं विस्तरेण । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥११६॥ - यौगमतवाले ऐसा कहते हैं कि अभावको पदार्थसे सर्वथा जुदा माननेसे ही यदि प्रत्येक पदार्थकी जुदाई सिद्ध होती है तो ५ उस पदार्थको ही असरूप कल्पना करनेसे क्या प्रयोजन है ? परंतु यह कहना सर्वथा दूषित है। क्योंकि जब प्रत्येक पदार्थका अभाव तो जुदा और पदार्थ जुदा ही है इसलिये कोई भी पदार्थ अपनेसे भिन्न वस्तुओंके अभावरूप तो है ही नहीं तो फिर घड़ा भी वस्त्रादिक अन्य वस्तुरूप हो जाना चाहिये । और जैसे घटाभावसे घट भिन्न है इसलिये घट घटखरूप है। तैसे वस्त्रादिक भी घटाभावसे भिन्न हैं इसलिये वे भी घटवरूप क्यों न हों ? भावार्थ-योगमतमें प्रत्येक पदार्थकी स्थिति Gउसके अभावसे जुदे होनेकी अपेक्षा मानी है। जैसे घड़ाका अभाव एक जुदा पदार्थ है। वह जहां नहीं होता है वहां ही घड़ा है ऐसा निश्चय योगमतमें माना गया है। परंतु इसमें दोष इस प्रकार आता है कि वस्त्रादिक पदार्थ भी घड़ाके अभावरूप नही है इसलिये वस्त्रादिक भी घड़ाके अभावसे भिन्न होनेसे घड़ारूप क्यों नही होजाते है ? क्योंकि, वस्त्रादिकोंमें ऐसा कोई भी प्रबल रोकनेवाला धर्म नहीं है जो घड़ारूप होनेसे रोक सके। हमारे यहां तो घडाके अतिरिक्त सभी पदार्थों के अभावस्वरूप उस घड़ाको माना है । इसलिये हमारे यहां तो वह घड़ा जब वस्त्रादिकोंके अभावखरूप है तो बस्त्रादिखरूप कैसे हो सकता है? क्योंकि, जो | जिसके अभावखरूप है वह उसके आकाररूप नहीं हो सकता है। इतना खण्डन ही वश है। एवं वाचकमपि शब्दरूपं द्वयात्मकम् । एकात्मकमपि सदनेकमित्यर्थः, अर्थोक्तन्यायेन शब्दस्यापि भावाभावात्मकत्वादऽथ वा एकविषयस्यापि वाचकस्यानेकविषयत्वोपपत्तेः। यथा किल घटशब्दः संकेतवशात् पृथुबुनोदराद्याकारवति पदार्थे प्रवर्तते वाचकतया तथा देशकालाद्यपेक्षया तशादेव पदार्थान्तरेष्वपि तथा वर्तमानः केन वार्यते ? भवन्ति हि वक्तारो योगिनः शरीरं प्रति घट इति; संकेतानां पुरुषेच्छाधीनतयाऽनियतत्वात् । यथा चौरशब्दोऽन्यत्र तस्करे रूढोपि दाक्षिणात्यानामोदने प्रसिद्धः । यथा च कुमारशब्दः पूर्वदेशेऽश्विनमासे रूढः । एवं कर्कटीशब्दादयोपि तत्तद्देशापेक्षया योन्यादिवाचका ज्ञेयाः। ___ इसी प्रकार पदार्थोके अर्थका कहनेवाला शब्द भी दोनो प्रकार है । अर्थात्-कथचित् एकखरूप है, कथचित् अनेकखरूप है। ) क्योंकि, जैसे पदार्थ भावाभावात्मक सिद्ध किया है तैसे ही शब्द भी भावाभावात्मक है। अथवा एक विषयका वाचक भी | शब्द अनेक विषयका वाचक होसकता है इसलिये भी शब्द भावाभावात्मक है। जैसे एक घड़ा सकेतके वशसे स्थूल तथा लवे ॥११६॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेटवाले घटनामक पदार्थमें जैसे वाचकपनेसे रहता है तैसे ही यदि किसी देश कालमें किसी दूसरे पदार्थमें इसका संकेत निश्चित |किया जाय तो कोन रोकता है ? योगीजन शरीरको ही घड़ा कहते हैं। क्योंकि; जो शब्दके संकेत होते है वे पुरुषोंकी इच्छापर निर्भर होनेसे एकरूप ही निश्चित नही है । अर्थात्-पुरुष जैसा चाहते है वैसा ही शब्दका अर्थ करने लगते है । जैसे चौर शब्दका अर्थ अन्य स्थानोंमें तो चोर ही है परंतु दक्षिण देशमें चौर शब्दका अर्थ ओदन है । और भी-जैसे कुमार शब्दका अर्थ पूर्व देशमें आश्विन मास है। इसी प्रकार कर्कटी शब्दका अर्थ भी किसी देशमें ककड़ी होता है; किसी देशमें योनि होता है । इत्यादि एक एक शब्दके अनेक अर्थ होते है। ___ कालापेक्षया पुनर्यथा जैनानां प्रायश्चित्तविधौ धृतिश्रद्धासंहननादिमति प्राचीनकाले षड्गुरुशब्देन शतमशीत्यधिकमुपवासानामुच्यते स्म सांप्रतकाले तु तद्विपरीते तेनैव षड्गुरुशब्देनोपवासत्रयमेव संकेत्यते जीतकल्पव्यवहारानुसारात् । शास्त्रापेक्षया तु यथा पुराणेषु द्वादशीशब्देनैकादशी, त्रिपुरार्णवे चाऽलिशब्देन मदिराभिपक्तान्ने च, मैथुनशब्देन मधुसर्पिपोहणम् । इत्यादि । न चैवं संकेतस्यैवार्थप्रत्यायने प्राधान्य; स्वाभाविकसामर्थ्यसाचिव्यादेव तत्र तस्य प्रवृत्तेः सर्वशब्दानां सर्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वात् । यत्र च देशकालादौ यदर्थप्रतिपादन|| शक्तिसहकारी संकेतस्तत्र तमर्थं प्रतिपादयति । तथा कालकी अपेक्षा जैसे जैन आम्नायके प्रायश्चित्तग्रन्थोंमेंसे जीतकल्प व्यवहार नामक ग्रन्थके अनुसार प्राचीन कालमें तो, जव कि धृति, श्रद्धा, संहनन ( वल ) आदिक विशेष थे " षड्गुरु" शब्दका अर्थ एकसो अस्सी उपवास समझा जाता था; परंतु अव उसी " षड्गुरु" शब्दका अर्थ तीन उपवास समझा जाता है। शास्त्रोंकी अपेक्षा पुराणों में " द्वादशी" शब्दका अर्थ एकादशी तथा त्रिपुरार्णव ग्रन्थमें “अलि" शब्दका अर्थ मदिरा तथा अभिषिक्त अन्न होता है । ऐसे ही “ मैथुन" शब्दसे मधु तथा घी समझा जाता है । इत्यादि अनेक प्रकार पुरुषकी इच्छानुसार सकेत बदल जाते है। परंतु ऐसा भी नहीं है कि शब्द | तो कुछ भी कार्य करता नहीं हो; केवल संकेत ही अर्थके जतानेवाला हो। क्योंकि, अर्थ तो शब्दका ही होता है। संकेत तो | केवल देशकालादिकके अनुसार अर्थ प्रकाश करनेमें सहायकमात्र है । प्रत्येक शब्द सभी अर्थोंको जता सकता है परंतु जिस देशकालादिकमें जिस अर्थके जतानेमें सकेत सहकारी होता है उस देशकालादिकमें उसी अर्थको शब्द जताता है । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमा तथा च निर्जितदुर्जयपरप्रवादाः श्रीदेवसूरिपादाः “ स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोधनिवन्धनं शब्दः।"राजै.शा. अत्र शक्तिपदार्थसमर्थनं ग्रन्थान्तरादवसेयम् । अतोन्यथेत्यादि उत्तरार्द्ध पूर्ववत् । प्रतिभाप्रमादस्तु तेषां सदसदे॥११७॥ AMIकान्ते वाच्यस्य प्रतिनियतार्थविषयत्वे च वाचकस्योक्तयुक्त्या दोषसद्भावाद्व्यवहारानुपपत्तेः । तदयं समुदायार्थः । -सामान्यविशेषात्मकस्य भावाभावात्मकस्य च वस्तुनः सामान्यविशेषात्मको भावाभावात्मकश्च ध्वनिर्वाचक इति। अन्यथा प्रकारान्तरैः पुनर्वाच्यवाचकभावव्यवस्थामातिष्ठमानानां वादिनां प्रतिभैव प्रमाद्यति न तु तद्भणितयो युक्तिस्पर्शमात्रमपि सहन्ते । || ऐसा ही बड़े बड़े दुर्जय परवादियोंको जीतनेवाले श्रीदेवमूरि आचार्यने कहा है "खभावसे ही उत्पन्न हुई सामर्थ्य तथा सके तके वश होकर शब्द अर्थका बोध कराता है अर्थात् अर्थबोधका कारण है । शब्दमें सामर्थ्य किस प्रकारकी तथा कोन कोनसी N'होती है इस विषयका प्रतिपादन अन्य ग्रन्थोंसे समझ लेना चाहिये । इस प्रकार पहिले आधे श्लोकका यह अर्थ है । अतोऽन्यथा 16 इत्यादि उत्तरार्द्धका अर्थ तो पहिले ही कहचुके है । पदार्थको सर्वथा सरूप अथवा असत्रूप माननेमें तथा शब्दको अपना अप ना निश्चित अर्थ जतानेमें वादियोंका कहना अनेक प्रकार दूषित होनेसे कार्यकारी नहीं है इस बातको प्रथम ही लिखचुके है इसलिये उन वादियोंकी बुद्धि उन्मादसहित समझनी चाहिये । इस सपूर्ण कारिकाका सक्षेपसे अर्थ इस प्रकार है कि सामान्यविशेषस्वरूप तथा भावअभावखरूप शब्द ही सामान्यविशेषस्वरूप तथा भावअभावस्वरूप वस्तुका वाचक हो सकता है । जो वादी ऐसा न मानकर दूसरे प्रकारसे ही शब्दार्थमें वाच्यवाचकपनेकी व्यवस्था ठहराते है उनका कहना किंचित् भी युक्तिपूर्वक नही है किंतु उनकी बुद्धि ही प्रमादको प्राप्त होरही है जो पूरा विचार नही करसकते है। ___कानि तानि वाच्यवाचकभावप्रकारान्तराणि परवादिनामिति चेदेते ब्रूमः। अपोह एव शब्दार्थ इत्येके “अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तुविधिनोच्यते" इति वचनात् । अपरे सामान्यमात्रमेव शब्दानां गोचरः, तस्य क्वचित्प्रतिपनस्यैकरूपतया सर्वत्र संकेतविषयतोपपत्तेः, न पुनर्विशेषाः, तेषामानन्त्यतः कात्सर्येनोपलब्धुमशक्यतया तद्विषय- ॥११॥ तानुपपत्तेः । विधिवादिनस्तु विधिरेव वाक्यार्थोऽप्रवृत्तप्रवर्तनस्वभावत्वात्तस्येत्याचक्षते । विधिरपि तत्तद्वादिविप्रतिपत्त्याऽनेकप्रकारः। तथा हि। वाक्यरूपः शब्द एव प्रवर्तकत्वाद्विधिरित्येके । तद्व्यापादो भावनाऽपरपर्यायो Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || विधिरित्यन्ये । नियोग इत्यपरे । प्रैषादय इत्येके । तिरस्कृततदुपाधिप्रवर्तनामात्रमित्यन्ये । एवं फलतदभिलापकमादयोपि वाच्याः। एतेषां निराकरणं सपूर्वोत्तरपक्षं न्यायकुमुदचन्द्रादवसेयमिति । इति काव्यार्थः । परवादीलोग किस किस प्रकारसे शब्दार्थमें वाच्यवाचकपनेकी व्यवस्था करते हैं इस प्रश्नका उत्तर कहते है। कोई ऐसा मानते है कि सर्व शब्दोका अर्थ अपोह [इतरनिषेध] ही है । “शब्द तथा लिङ्गसे अपोह कहा जाता है, न कि वस्तुके प्रवर्तनसे" ऐसा वचन भी है । किसीका कहना है कि वस्तुका केवल सामान्य खरूप ही शव्दका अर्थ है। क्योंकि, सामान्य खरूप किसी एक स्थानमें निश्चित होनेपर दूसरे स्थानों में भी सुगमतासे शब्दद्वारा प्रतीतिगोचर होसकता है। क्योंकि, सभी स्थानोमें उसका दिखाव समान है । शब्दका अर्थ प्रत्येक पदार्थोंका विशेष विशेप आकार नहीं होसकता है । क्योंकि विशेष आकार अनंतो है इसलिये सबकी एक || KOसाथ प्रतीति न होनेसे शब्दके गोचर ही नही होसकते है। वेदोमें कही हुई विधिको माननेवाले कहते है कि कर्मों में नही प्रवर्तते हुए मनुप्योको प्रवर्तानेवाली होनेसे विधि ही वाक्यका अर्थ है । इस विधिको भी अनेक वादी अनेक प्रकारसे मानते है । सोई दिखाते है। कोई वादी वाक्यरूप शब्दको ही कौमें प्रवर्तन करानेवाला होनेसे विधिरूप मानते है। कोई मानते है कि वाक्यसे IBउत्पन्न हुआ व्यापार ही विधि है । इस व्यापारका दूसरा नाम भावना भी है । कोई मानते है कि नियोग ही विधि है । कोई || प्रैषादिक[प्रेरणादिक]को ही विधि मानते है । किसीका मानना है कि तिरस्कारपूर्वक प्रेरणा करनेका नाम ही विधि है । इसी प्रकार इस विधिका फल तथा अभिलाषा तथा कर्मादिक भी प्रत्येकने जुदे जुदे माने है । न्यायकुमुदचन्द्रनामक ग्रन्थमें इन सवोका निरूपणपूर्वक खण्डन लिखा है सो उसमेंसे समझ लेना चाहिये । इस प्रकार इस कारिकाका अर्थ पूर्ण हुआ। इदानीं सांख्याभिमतप्रकृतिपुरुषादितत्त्वानां विरोधावरुद्धत्वं ख्यापयन् तद्वालिशताविलसितानामपरिमितत्वं दर्शयति । ___ अब जो सांख्यमतीने प्रकृतिपुरुषादिक पच्चीस तत्त्व माने है उनमें परस्पर विरोध दिखाते हुए यह भी दिखाते हैं कि उसने अपनी मूर्खतासे कितनी कितनी खोटी कल्पना की है। चिदर्थशून्या च जडा च बुद्धिः शब्दादितन्मात्रजमम्बरादि। न बन्धमोक्षौ पुरुषस्य चेति कियजडैन ग्रथितं विरोधि ॥ १५॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादादम. ॥११८॥ मूलार्थ-चेतना तो पदार्थको खयं जानती नहीं है तथा बुद्धि खयं जड़खरूप है । आकाश शब्दसे उत्पन्न है । गन्धसे पृथिवी * उत्पन्न है । रससे जल, रूपसे अग्नि तथा स्पर्शसे वायु उत्पन्न है। जीव न बँधता है और न मुक्त होता है। इस प्रकार ) मूखोंने विरोधसे भरा हुआ क्या क्या नहीं लिखा है। व्याख्या-चित्-चेतनशक्तिरात्मस्वरूपभूता, अर्थशून्या-विषयपरिच्छेदविरहिता; अर्थाध्यवसायस्य बुद्धिव्यापारत्वादित्येका कल्पना । बुद्धिश्च महत्तत्त्वाख्या जडा-अनवबोधस्वरूपा इति द्वितीया । अम्बरादि-व्योमप्रॐ भृति भूतपञ्चकं शब्दादितन्मात्रजं, शब्दादीनि यानि पञ्च तन्मात्राणि सूक्ष्मसंज्ञानि तेभ्यो जातमुत्पन्नं शब्दादि तन्मात्रजमिति तृतीया । अत्र "च" शब्दो गम्यः । पुरुषस्य च प्रकृतिविकृत्यनात्मकस्यात्मनो न बन्धमोक्षौ; किं तु प्रकृतेरेव । तथा च कापिलाः "तस्मान्न वध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति वध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः।" तत्र वन्धः प्राकृतिकादिः। मोक्षः पञ्चविंशतितत्त्वज्ञानपूर्वकोऽपवर्गः । इति चतुर्थी । इति शब्दस्य प्रकारार्थत्वादेवं प्रकारमन्यदपि विरोधीति विरुद्धं पूर्वापरविरोधादिदोषाघ्रातं जडैः-मूखैस्तत्त्वाववोधविधुरधीभिः कापिलैः कियन्न ग्रथितं-कियन्न स्वशास्त्रेषूपनिवद्धम् ! कियदित्यसूयागर्भः तत्प्ररूपितविरुद्धार्थानामानन्त्येनेयत्तानवधारणात् । इति संक्षेपार्थः। व्याख्यार्थ-"चित्" अर्थात् आत्मखरूपमय चेतनशक्ति " अर्थशून्या" अर्थात् किसी पदार्थको जान नहीं सकती है। क्योंकि, पदार्थका जो निश्चय होता है वह बुद्धिके संबन्धसे होता है । यह प्रथम कल्पना है। महत्तत्त्व है नाम जिसका ऐसी जो "बुद्धिः" बुद्धि है वह स्वयं “जडा" जडखरूप है अर्थात् खय ज्ञानरूप नही हैचेतनाका जाननेमें केवल सहाय करती है। यह द्वितीय कल्पना है । " अम्बरादि" आकाश आदिक पांच भूततत्त्व " शब्दादितन्मात्रजम्" अर्थात् सूक्ष्मभूतरूप शब्दादि पाच तन्मात्राओंसे जात नाम उत्पन्न है । यह तीसरी कल्पना है । इस श्लोकके वाक्यमें "और" इस अर्थका वाचक एक "" शब्द ऊपरसे लगाकर अर्थ करना चाहिये । और “पुरुपय” अर्थात् जो प्रकृति तथा विकृतिमय पदार्थोंसे । इसके लगानेसे ऊपरका संबन्ध ठीक होता है । अर्थात् “ और आकाशादिक पांच भूततत्त्व शब्दादि पांच तन्मात्राओंसे उत्पन्न है" यह अर्थ ५ संबंधसहित होसकता है। च शब्द यदि न लगाया जाय तो " और " ऐसा दो वाक्योंको जोड़ना कैसे वनसकैगा? ॥११८॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भिन्न है ऐसे आत्माका " न बन्धमोक्षौ " न बंध है और न मोक्ष सांख्यमतके प्रवर्तक कपिलगुरुके अनुयायी जनोने भी ऐसा ही कहा है किंतु जितना बंध मोक्ष है वह सब प्रकृतिका ही है । “इसलिये न तो कोई जीव बँधता है, न छूटता है और न | संसारमें परिभ्रमण करता है । जो परिभ्रमण करता है, छूटता है तथा बँधता है वह अनेकोका आश्रयरूप प्रकृति है" । यहां बन्ध प्राकृतिक | आदि समझना चाहिये । और प्रकृति आदिक पच्चीस तत्त्वोंके ज्ञानपूर्वक अपवर्ग अर्थात् अनन्त सुखको मोक्ष समझना चाहिये । यह चौथी कल्पना है । श्लोक में " इति " शब्द जो पड़ा है उसका अर्थ और भी अनेक प्रकारके भेदोंको ग्रहण करना है । इसलिये | यह समझना चाहिये कि इस प्रकारकी अन्य भी " विरोधि " अर्थात् परस्पर विरुद्ध ऐसी कल्पनाए इन “जडै:" मूर्खोने " कियन्न ग्रथितं " कितनी कितनी नहीं गूंथी है ' अर्थात् अनेक प्रकार लिखी है । यहांपर यथार्थ तत्त्वार्थके बोधसे रहित ऐसे कपिलमतानुयायी ही "जड " शब्दका अर्थ है । इन कपिलमतवालोने अपने शास्त्रोंमें इसी प्रकारकी अनेक खोटी कल्पनाए की हैं । " कियत्" शब्द जो श्लोकमें पड़ा है उससे तिरस्कार सूचित होता है । " कियत् " शब्दका अर्थ अनिश्चित बहुतसा है । उनके प्ररूपे हुए परस्पर विरुद्ध अर्थ भी अनंतो है इसलिये इस प्रकरण में निश्चित संख्या न लिखकर " कियत् " शब्द रक्खा है । लोकका यह अर्थ संक्षेपसे कहा । व्यासार्थस्त्वयम् । सांख्यमते किल दुःखत्रयाभिहतस्य पुरुषस्य तदपघातहेतुतत्त्वजिज्ञासा उत्पद्यते । आध्यात्मिकमाधिदैविकमाधिभौतिकं चेति दुःखत्रयम् । तत्राध्यात्मिकं द्विविधं शारीरं मानसं च । शारीरं वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यनिमित्तम् । मानसं कामक्रोधलोभमोहेर्ष्याविषयादर्शननिवन्धनम् । सर्व चैतदान्तरोपायसाध्यत्वादाध्यात्मिकं दुःखम् । बाह्योपाधिसाध्यं दुःखं द्वेधा आधिभौतिकमाधिदैविकं चेति । तत्राधिभौतिकं मानुपपशुपक्षिमृगसरीसृपस्थावरनिमित्तम् । आधिदैविकं यक्षराक्षसग्रहाद्या वेशहेतुकम् । अनेन दुःखत्रयेण रजःपरिणामभेदेन | बुद्धिवर्त्तिना चेतनाशक्तेः प्रतिकूलतया अभिसंबन्धोऽभिघातः । अब इसका अर्थ विस्तारसे लिखते है । तीन प्रकारके दुःखोंसे दुःखित हुआ जीव इन दुःखोंके नाश करनेकी इच्छासे नाशके | उपायभूत पदार्थोंको तलासता है । आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक ऐसे तीन प्रकारके दुःख है । इनमेंसे आध्यात्मिक | दुःख दोप्रकार हैं; पहिले शारीरिक तथा दूसरे मानसिक । शारीरिक दुःख तो वात, पित्त, कफके बिगड़नेसे ( विषम होनेसे ) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै.शा. स्थाद्वादम. ॥११९॥ होते है। और मानसिक दुःख काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्याके उत्पन्न होनेसे तथा विषयभोगोंके न मिलनेसे होते है। ये धु सर्व दुःख अंतरंग कारणरूप मनके चिन्तवनमात्रसे होते हैं इसलिये इनको आध्यात्मिक दुःख कहते है । बाह्य कारणोंकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले दुःख दोप्रकार है पहिले आधिभौतिक तथा दूसरे आधिदैविक । इनमेंसे आधिभौतिक तो वे दुःख है जिनकी | उत्पत्ति मनुष्य, पशु, पक्षिओंसे तथा स्थावर पदार्थोंसे हो । आधिदैविक वे हैं जो यक्ष, राक्षस, नवग्रह देवता आदिकोंके कोपादिकसे उत्पन्न हों । ये तीनो प्रकारके दुःख बुद्धिमें रजोधर्मसे उत्पन्न होते है । जब इन दुःखोंका चेतना शक्तिके साथ अनिच्छितरूपसे संबंध होता है तव चेतना शक्तिका अभिघात माना जाता है। __तत्त्वानि पञ्चविंशतिः । तद्यथा । अव्यक्तमेकम् । महदहङ्कारपञ्चतन्मात्रैकादशेन्द्रियपञ्चमहाभूतभेदात् त्रयो विंशतिविधं व्यक्तम् । पुरुषश्च चिद्रूप इति । तथा चेश्वरकृष्णः “मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । पोडशकश्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः" ॥ प्रीत्यप्रीतिविषादात्मकानां लाघवोपष्टम्भगौरवधर्माणां परस्परोपकारिणां त्रयाणां गुणानां सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः । प्रधानमव्यक्तमित्यनान्तरम् । तच्चानादिमध्यान्तमनवय साधारणमशब्दमस्पर्शमरूपमगन्धमव्ययम् । प्रधानादुद्धिर्महदित्यपरपर्यायोत्पद्यते । योयमध्यवसायो गवादिषु प्रतिपत्तिरेवमेतन्नान्यथा, गौरेवायं नाश्वः, स्थाणुरेष नायं पुरुप इत्येषा बुद्धिः । तस्यास्त्वष्टौ रूपाणि । धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यरूपाणि चत्वारि सात्त्विकानि। अधर्मादीनि तु तत्प्रतिपक्षभूतानि चत्वारि तामसानि । ॐ तत्त्व पच्चीस हैं । इनमेंसे एक तो अव्यक्तनामक है। दूसरा महान्, तीसरा अहंकार, पांच तन्मात्रा, ग्यारह इन्द्रिय, पांच महाभूत (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ) ये तेईस व्यक्तरूप है। पच्चीसवां चेतनाखरूप पुरुष है। ईश्वरकृष्णनामक एक ग्रन्थकारने भी कहा है “ सबका मूल कारण प्रकृति है और वह खय किसीका विकाररूप अर्थात् किसीसे उत्पन्न हुई नहीं है । महदादिक सात तत्त्व प्रकृतिसे उत्पन्न हुए प्रकृतिके विकाररूप है । ग्यारह इन्द्रिय तथा पांच महाभूत ये सोलह तत्त्व विकाररूप ही है । पच्चीसवां पुरुपतत्त्व न तो प्रकृति ही है और न विकृतिरूप " ॥ सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुणकी साम्यरूप ( अनेक विकारोंसे रहित ) अवस्थाका नाम प्रकृति है । जब इनमें विकार होता है तब सत्त्वगुण तो प्रीतिरूप होता है, रजोगुण अप्रीतिरूप होता है और तमोगुण विपादमय होता है । सत्त्वगुणमें लाघवरूप तथा रजोगुणमें उपष्टम्भरूप तथा ॥११९॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमोगुणमें गौरवरूप धर्म रहते है । ये तीनो ही गुण एक दूसरेके उपकारी है । जो अव्यक्तनामक प्रथम तत्त्व है उसीका दूसरा N नाम प्रधान है । इस प्रधानका न तो आदि (उत्पत्ति ) है, न मध्यअवस्था है और न अंतावस्था (नाश ) है । यह अवयवरहित अखंड एकरूप है, साधारण है, शब्द स्पर्श रूप गंध रहित है, अविनाशी है । इस प्रधानसे महान् है दूसरा नाम जिसका ऐसा बुद्धितत्त्व उत्पन्न होता है । जो इस अमुक वस्तुका निश्चयरूप ज्ञान हुआ है वह ऐसा ही है; अन्यथा नही है ऐसे ज्ञानलारूप परिणामको बुद्धि कहते है । जैसे यह गौ ही है, घोड़ा नही है । अथवा जैसे यह ढूंठ ही है। पुरुष नही है । इस वुद्धिके || आठ आकार है । धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य ये चार तो सात्त्विक ( सत्त्वगुणसे उत्पन्न हुए ) आकार है और अधर्मादिक चार इनसे उलटे तामसरूप ( तमोगुणसे उत्पन्न हुए ) आकार है। बुद्धेरहङ्कारः। स चाभिमानात्मकः-अहं शव्देहं स्पर्शेहं रूपेहं गन्धेहं रसेहं स्वामी, अहमीश्वरः, असौ मया IN हतः, ससत्त्वोहममुं हनिष्यामीत्यादिप्रत्ययरूपः। तस्मात् पञ्च तन्मात्राणि शब्दतन्मात्रादीनि अविशेषाणि सूक्ष्म पर्यायवाच्यानि । शब्दतन्मात्राद्धि शब्द एवोपलभ्यते न पुनरुदात्तानुदात्तस्वरितकम्पितपड्रजादिभेदाः । षड्जादयः शब्दविशेषादुपलभ्यन्ते । एवं स्पर्शरूपरसगन्धतन्मात्रेष्वपि योजनीयमिति । तत एव चाहङ्कारादेकादशे-) न्द्रियाणि च । तत्र चक्षुः, श्रोत्रं, घ्राणं, रसनं, त्वगिति पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि । वाक्पाणिपादपायूपस्थाः पञ्च कर्मेन्द्रियाणि । एकादशं मन इति । __ बुद्धिसे अहंकार उपजता है । मै शब्द सुनता हू, मै स्पर्श करता हू, मै रूप देखता हू, मै गन्ध सूंघता हू मै रस चाखता हूं; मै खामी हूं, मै ईश्वर हूं, यह मैने मारा है; मै बलाढ्य हू, मै इसको मारूंगा इत्यादि रागद्वेषादिरूप अभिमानका ही नाम | अहंकार है । इस अहंकारसे शब्दतन्मात्रा आदिक पांच तन्मात्रा उपजती है । ये पांचों तन्मात्रा सामान्यरूप और सूक्ष्म पर्यायरूप है । शब्द तन्मात्रासे केवल शब्दका ही ज्ञान होता है, उसके उदात्त, अनुदात्त, खरित, कंपित तथा तन्त्री आदिकोंके विशेष स्वरूप नहीं जानपड़ते है । यह तन्त्रीकी ध्वनि है तथा यह तीव्र शब्द है इत्यादि विशेष स्वरूप तो विशेष शब्दोंसे जानपड़ते है । इसी प्रकार स्पर्श, रूप, रस, गन्ध तन्मात्राओंसे भी सामान्य ही स्पर्श, रूप, रस, गध उत्पन्न होते है। विशेष स्पर्शादि तो पीछेसे विशेष स्पर्शादिकोंसे उपजते हैं। जिस अहंकारसे पांच तन्मात्रा उपजती है उसीसे ग्यारह इंद्रिय भी उपजती है। इन ग्यारहमेंसे चक्षु, Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.ज.शा. द्वादम. ॥१२०॥ कान, नाक, जिद्दा, स्पर्शन ये पांच तो ज्ञानेन्द्रिय है । वचन, हाथ, पाँव, गुदा (विष्टा निकलनेका द्वार) और लिग (मूतनेका द्वार ) ये पांच कर्मेन्द्रिय हैं । ग्यारहवां मन इंद्रिय है। पञ्चतन्मात्रेभ्यश्च पञ्च महाभूतानि उत्पद्यन्ते । शब्दतन्मात्रादाकाशं शब्दगुणम् । शब्दतन्मात्रा न्मात्राद्वायुः शब्दस्पर्शगुणः । शव्दस्पर्शतन्मात्रसहिताद्रूपतन्मात्रात्तेजः शब्दस्पर्शरूपगुणम् । शब्दस्पर्शरूपतन्मात्रसहिताद्रसतन्मात्रादापः शब्दस्पर्शरूपरसगुणाः । शब्दस्पर्शरूपरसतन्मात्रसहिताद्गन्धतन्मात्रात् शब्दस्पर्शरूपरसगन्धगुणा पृथिवी जायते इति । पुरुपस्त्वमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियोऽकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कपिलदर्शने इति । A पांच तन्मात्राओंसे पाच महाभूत उपजते है । शब्दतन्मात्रासे शब्दगुणवाला आकाश उपजता है। शब्द म्पर्श तन्मात्राओसे । |मिलकर शब्द तथा स्पर्शगुणवाला वायु उपजता है । शब्द, स्पर्श, रूप इन तीन तन्मात्राओसे मिलकर शब्द, स्पर्श, रूप गुणवाला अमितत्त्व उत्पन्न होता है। जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस ये चार गुण पाये जाते है ऐसा जलतत्त्व शब्द, स्पर्श, रूप, रस इन चार तन्मात्राओंसे मिलकर उत्पन्न होता है । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन पांच गुणोंवाली पृथिवी शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन पाच तन्मात्राओंसे मिलकर उत्पन्न होती है । पच्चीसवां पुरुपतत्व अमूर्तिक है, चेतना गुण सहित है, सुख दुखोंका भोगनेवाला है, नित्य ( अविनाशी) है, सर्वगत है, क्रियारहित है, बुरे भले कर्मोका कर्ता खय नही है; वय निर्गुण है, सूक्ष्म है तथा आत्मखरूप है। कपिल( सांख्य )दर्शनमें ऐसा पच्चीस तत्वोका स्वरूप निरूपण किया है। ल अन्धपङ्गवत् प्रकृतिपुरुपयोः संयोगः। चिच्छक्तिश्च विषयपरिच्छेदशून्या; यत इन्द्रियद्वारेण सुखदुःखादयो विषया बुद्धौ प्रतिसंक्रामन्ति । बुद्धिश्चोभयमुखदर्पणाकारा । ततस्तस्यां चैतन्यशक्तिः प्रतिविम्बते । ततः सुख्यह दुःख्यहमित्युपचारः। आत्मा हि स्वं वुद्धेरव्यतिरिक्तमभिमन्यते । आह च पतञ्जलिः “शुद्धोपि पुरुषः प्रत्ययं वौद्धमनुपश्यति । तमनुपश्यन्नतदात्मापि तदात्मक इव प्रतिभासते" इति । मुख्यतस्तु वुद्धरेव विपयपरिच्छेदः। तथा च वाचस्पतिः “सर्वो व्यवहर्ता आलोच्य नन्वहमत्राधिकृत इत्यभिमत्य कर्तव्यमेतन्मयेत्यध्यवस्यति । ततश्च प्रवर्तते इति लोकतः सिद्धम् । तत्र कर्तव्यमिति योयं निश्चयश्चितिसन्निधानापन्नचैतन्याया बुद्धेः सोध्यवसायो ILalबद्धरेसाधारणो व्यापार" इति । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SNL अंधे और पंगे ( लंगडे ) के समान प्रकृति और पुरुषका संयोग है । चेतनाशक्ति खयं विषयका निश्चय नहीं कर सकती है। धी क्योंकि; सुखदुःखादिरूप विषय नालीके समान इद्रियद्वारा वुद्धिमें जाकर झलकते है। अर्थात् इंद्रियोंके मार्गसे दर्पणके सदृश निर्मल बुद्धिमें प्रतिविम्बित होते है। बुद्धिका आकार दोनो ही बाजूसे ( पीछे आगेसे ) दर्पणके समान है। अर्थात् बुद्धि दर्पणके सदृश निर्मल है। इसीलिये उस बुद्धिमें चैतन्यशक्ति प्रतिबिम्बित होती है (प्रकाशती है)। चेतनाशक्तिका बुद्धिमें प्रतिबिम्ब पडनेसे इंद्रियोंद्वारा बुद्धिमें प्रतिभासते हुए सुखदुखा:दि विषयोंका यह भ्रम होने लगता है कि, सुखदुःखादिक चेतनामें झलकते हैं। यह प्रम होनेसे ही पुरुष (आत्मा ) आपेको सुखी दुःखी मानने लगता है और आपेको बुद्धिसे अभिन्न समझता है । पतंजलिने भी कहा है कि "पुरुष यद्यपि खय तो शुद्ध है परंतु बुद्धिके प्रतिबिम्बको चेतनाके द्वारा देखता है । और यद्यपि उससे भिन्न है तो भी उसको देखता हुआ आपेको उससे अभिन्न समझता है ।" यथार्थमें तो वह ज्ञान बुद्धिका ही है। वाचस्पतिने भी यही कहा है "लोकके कार्यों में प्रवर्तनेवाले सभी मनुष्य विचारपूर्वक यह मानने लगते है कि इसमें हमारा अधिकार है, और ऐसा समझकर ही ऐसा निश्चय भी करलेते हैं कि यह हमको करना चाहिये । निश्चय करनेके अनंतर प्रवर्तने लगते है। यह परिपाटी लोगोंके अनुभवसे सिद्ध है"। यहांपर " करना चाहिये" ऐसा जो बुद्धिका निश्चय है वह निश्चय वुद्धिका असाधारण व्यापार है। अर्थात् “ऐसा" यह निश्चय बुद्धिमें ही होता है; अन्यमें नही। परंतु करना चाहिये ऐसा जो बुद्धिका निश्चय है वह होता तभी है जब चेतनाका प्रतिविव बुद्धिमें पड़ता है। और उसके अनंतर चेतनाका प्रतिबिंवद्वारा संबंध होनेसे IN/ बुद्धिमें चेतनाधर्मका भ्रम होने लगता है। KA चिच्छक्तिसन्निधानाच्चाचेतनापि बुद्धिश्चेतनावतीवाभासते । वादमहार्णवोप्याह "बुद्धिदर्पणसंक्रान्तमर्थप्रति विम्बकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंस्यऽध्यारोहति । तदेव भोक्तृत्वमस्य न त्वात्मनो विकारापत्तिः” इति । तथा चासुरिः "विविक्तेदृक्परिणतौ बुद्धौ भोगोस्य कथ्यते । प्रतिविम्बोदयः स्वच्छे यथा चन्द्रमसोम्भसि ।१।" विन्ध्यवासी त्वेवं भोगमाचष्टे "पुरुषोऽविकृतात्मैव स्वनिर्भासमचेतनम् । मनः करोति सान्निध्यादुपाधिः स्फटिकं यथा ।१।" INI बुद्धि खयं अचेतन होकर भी चेतनाशक्तिका संबंध होनेसे ऐसी जान पड़ती है जैसे चैतन्यशक्तिसहित हो । वादमहार्णवने || भी इस विषयमें ऐसा कहा है कि "दर्पणके समान इस बुद्धिमें अर्थ प्रतिबिंबित होता हुआ आत्मरूपी दूसरे दर्पणमें प्रतिबिंबित Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEAR रा. .शा. स्थाद्वादम. ॥१९॥ होने लगता है। अर्थात् जो प्रतिबिम्ब बुद्धिमें पड़ता है उस प्रतिबिंबका प्रतिबिंब पीछेसे पुरुषरूपी दर्पणमें पड़ने लगता है। इस बुद्धिके प्रतिबिंबका पुरुषमें झलकना ही पुरुषका भोग हैइसीसे पुरुष भोक्ता कहाता है। अन्य कुछ भी भोगरूप विकार पुरुषमें नहीं होता है"। यही आसुरिने कहा है कि "बुद्धिमें भिन्न रहनेवाले पदार्थोंका प्रतिबिंब पड़नेपर आत्मामें भोक्तापना कहा जाता है । शादर्पणके समान निर्मल पुरुषमें यह भोग केवल प्रतिबिंब पड़नेमात्र है । जैसे निर्मल जलमें पड़ा हुआ चन्द्रमाका प्रतिबिंब जलका ही विकार समझा जाता है। इस भोगके विषयमें विंध्यवासीनामक ग्रन्थकार ऐसा कहता है कि "यह आत्मा खयं अविकारी होते हुए भी समीपमें रहनेवाले अचेतन मनको अपने समान चेतन बना देता है जैसे समीपमें लगाया हुआ रंग सफेद स्फटिकको रंगीनसा बना देता है (यह विकार यद्यपि निजी नहीं है तो भी जो निजीसा मालुम पड़ना है वही आत्माका भोग है)।" al न च वक्तव्यं पुरुषश्चेदगुणोऽपरिणामी; कथमस्य मोक्षः? मुर्वन्धनविश्लेषार्थत्वात् सवासनक्लेशकर्माशयानां च । 'वन्धनसमाम्नातानां पुरुषेऽपरिणामिन्यसंभवात् । अत एव नास्य प्रेत्यभावापरनामा संसारोस्ति; निष्क्रियत्वादिति। यतः प्रकृतिरेव नानापुरुषाश्रया सती बध्यते संसरति मुच्यते च न पुरुष इति वन्धमोक्षसंसाराः पुरुषे उपचर्यन्ते । यथा जयपराजयौ भृत्यगतावपि स्वामिन्युपचर्येते तत्फलस्य कोशलाभादेः स्वामिनि संवन्धात् तथा भोगापवर्गयोः प्रकृतिगतयोरपि विवेकाग्रहात् पुरुषे संबन्ध इति । “यदि पुरुष वयं निर्गुण तथा निर्विकार (अपरिणामी) है तो इसका मोक्ष कैसे? क्योंकि मुच धातुका अर्थ बंधनका छूटना " है ( इसी धातुसे मोक्ष शब्द बनता है)। और आत्मामें जब वासना क्लेश कर्मोंके संबंधसे होनेवाले नानाप्रकारके बंधन ही संभव नहीं है तो मोक्ष किसका ? इसीलिये जिसका दूसरा नाम प्रेत्यभाव या परलोक है ऐसा जो संसार वह भी इस आत्माका नही है। क्योंकि, संसार नाम परिभ्रमणका है सो क्रियारहित इस आत्मामें परिभ्रमण कैसे हो सकता है ?" यह शंका नही हो बन सकती है। क्योंकि, प्रकृति ही नानापुरुषोंके आश्रय रहकर बंधती है और फिर संसारमें परिभ्रमण करती है और फिर वह प्रकृति ही भ्रम दूर होनेपर मुक्त होती है, न कि पुरुष। परंतु प्रकृतिकी बंधन, संसार तथा मोक्षरूप अवस्था आत्मासे संवध रहनेके कारण आत्मामें आरोपित की जाती है। जैसे जय अथवा पराजय सेनाका होता है परंतु वह जय, पराजय उस सेनाके खामीका समझा जाता है। क्योंकि, खजानेआदिकका जय होनेपर लाभ अथवा पराजय होनेपर हानि इत्यादि जयपराजयका हानि Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाभरूप फल स्वामीको ही होता है। इसी प्रकार यद्यपि भोग तथा मोक्ष है प्रकृतिके ही तो भी यह भेदभाव न होनेके कारण पुरुषके ही माने जाते है । ( यह सांख्यमतका सारांश है ) । तदेतदखिलमालजालम् । चिच्छक्तिश्च विषयपरिच्छेदशून्या चेति परस्परविरुद्धं वचः । चिति संज्ञाने; चेतनं चित्यते वाऽनयेति चित् । सा चेत्स्वपरपरिच्छेदात्मिका नेष्यते तदा चिच्छक्तिरेव सा न स्याद् घटवत् । न चामूर्तायाश्चिच्छक्तेर्बुद्धौ प्रतिबिम्वोदयो युक्तः, तस्य मूर्तधर्मत्वात् । न च तथा परिणाममन्तरेण प्रतिसंक्रमोपि युक्तः | कथंचित्स क्रियात्मकताव्यतिरेकेण प्रकृत्युपधानेप्यन्यथात्वानुपपत्तेः, अप्रच्युतप्राचीनरूपस्य च सुखदुःखादिभोगव्यपदेशानर्हत्वात् । तत्प्रच्यवे च प्राक्तनरूपत्यागेनोत्तररूपाध्यासिततया सक्रियत्वापत्तिः; स्फटिकादावपि तथा परिणामेनैव प्रतिबिम्बोदयसमर्थनात् । अन्यथा कथमन्धोपलादौ न प्रतिविम्वः ? तथा परिणामाभ्युपगमे च वलादायातं चिच्छक्तेः कर्तृत्वं साक्षाद्भोक्तृत्वं च । (अव सांख्यमतका खण्डन करते है ) । सांख्यमतीकी ये कल्पना केवल जाल है । कैसे चेतना शक्ति है तो भी विषयोंके ज्ञानसे शून्य है ये दोनों वचन परस्पर विरुद्ध है । क्योंकि, ज्ञान कराना अथवा चेताना है अर्थ जिसका ऐसे “चिति" धातुसे चेताना - | मात्र अथवा जिससे चेतना हो ऐसे अर्थ में चेतना अथवा चित् शब्द सिद्ध होता है । ऐसी यह चेतना यदि अपना तथा परका ज्ञान करानेवाली न मानी जाय तो घटादिके समान ही यह भी चेतनाशक्ति नही है ऐसा कहना पड़ेगा ( क्योंकि चेतना शब्दका अर्थ यही सिद्ध होता है कि अपना तथा परका ज्ञान करावे ) । और अमूर्तिक चेतनाशक्तिका जो बुद्धिमें प्रतिबिंब पड़ना कहा सो भी योग्य नही है । क्योंकि, प्रतिबिंब किसी मूर्तिक पदार्थका ही पड़सकता है, अमूर्तिकका प्रतिबिम्ब पड़ना संभव नही है । मूर्तिक पदार्थके सिवाय अमूर्तिक चेतनाका बुद्धिमें परिवर्तन होना भी संभव नही है । क्योंकि, कुछ नकुछ क्रिया उत्पन्न हुए विना प्रकृतिका भी परिवर्तन ( पलटना = फेरफार ) संभव नही है । यह भी क्योंकि, सुखदुःखादिकी उत्पत्ति तभी कही जासकती है जब पूर्वमें वे सुखादिक नही थे ऐसा माना जाय । क्योंकि, सुखादिकी उत्पत्ति पूर्वकी एक अवस्थाको छोडकर नवीन अवस्थाका उत्पन्न होना है। इसलिये यह नवीन उत्पत्ति तबतक कैसे संभव होगी जबतक पूर्व खरूपका त्याग न किया जायगा ? और यदि पूर्व अवस्थाका छूटना माना जाय तो पूर्व अवस्थाका छूटना तथा आगेकी नवीन अवस्थाका उपजना इसीका Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम क्रिया है । परंतु यह क्रिया मानना सांख्यमतके विरुद्ध है। क्योंकि, सांख्यमती प्रकृतिको निष्क्रिय मानता है। और जो साद्वादम. भार जाजरा.जै. शा y स्फटिकादिकका दृष्टान्त भी इस विषयमें लिखा कि जैसे स्फटिक खयं क्रियारहित होनेपर भी लाल पुष्पादिक उपाधिका संबंध होनेसे प ॥१२२॥ स्फटिकमें रंग अपूर्व दीखता है परंतु वह यह दृष्टान्त भी ठीक नहीं क्योंकि, स्फटिकादिकमें लालपुष्पादिकका प्रतिबिंब तभी पडसकता है जब थोड़ी बहुत क्रिया मानी जाय । यदि पर्यायपलटनके विना भी स्फटिकादिमें प्रतिबिब पडता हो तो प्रत्येक साधारण पत्थरोंमें भी क्यों न पडै ? और कोई दूसरा उत्तर न होनेसे ऐसी क्रिया यदि चेतनामें मान ही लीजाय तो न चाहते हुए भी चेतनाशक्तिमें कर्तापना तथा भोक्तापना आ उपस्थित होता है । अथापरिणामिनी भोक्तशक्तिरप्रतिसंक्रमा च परिणामिन्यर्थे प्रतिसंक्रान्ते च तद्वत्तिमनुभवतीति पतञ्जलिवचनादौपचारिक एवायं प्रतिसंक्रम इति चेत्तर्हि " उपचारस्तत्त्वचिन्तायामनुपयोगी" इति प्रेक्षावतामनुपादेय एवायम् । तथा च प्रतिप्राणि प्रतीतं सुखदुःखादिसंवेदनं निराश्रयमेव स्यात् । न चेदं बुद्धरुपपन्नं तस्या जडत्वेनाभ्युपगमात् । अत एव “जडा च बुद्धिः" इत्यपि विरुद्धम् । न हि जडस्वरूपायां वुद्धौ विषयाध्यवसायः साध्यमानः साधीयस्तां दधाति । ___ सांख्यमती कहता है कि " भोक्ता जो पुरुष उसकी चेतना शक्तिमें न तो परिणमन ( पलटन ) होता है और न विषयकी तरफ सक्रमण ( गमन )। वह चेतना केवल विषयके परिणमनका तथा बुद्धिके प्रति संक्रमण होनेका अनुभव करती है" ऐसा पतजलिने कहा है । इस पतंजलिके वचनसे चेतनाका सक्रमण केवल उपचारसे ही सिद्ध होसकता है । यह साख्यमतीका कहना ठीक नहीं है। क्योंकि, यदि इस चेतनाके परिवर्तनका होना उपचारसे ही माना जाय तो “यथार्थ तत्त्वोंके निर्णयमें उपचारसे वस्तुका खरूप मानना निष्प्रयोजन है ( इसलिये न मानना चाहिये )" इस वचनके अनुसार यह उपचारसे माना हुआ चेतनाका परिवर्तन बुद्धिमानोंको ग्राह्य न होगा। और जब यह मानना झूठा ठहरा तो प्रत्येक प्राणीमें होनेवाला सुखदुःखका ज्ञान भी निराधार ही हुआ समझना चाहिये । कदाचित् कहो कि सुखदुःखका ज्ञान तो बुद्धिमें उपज सकता है परतु यह कहना भी ठीक ॥१२२॥ नहीं है। क्योंकि, बुद्धि तो साख्यमतीने जड़ मानी है। इन अनेक दोपोंके कारण ही बुद्धिको जड़ मानना भी विरुद्ध प्रतीत होता है । क्योंकि, बुद्धि भी यदि जरूप मानी जाय तो उसमें विषयोंका निश्चय होना सिद्ध न होसकेगा । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ननूक्तमचेतनापि बुद्धिश्चिच्छत्तिसान्निध्याच्चेतनावतीवावभासते इति । सत्यमुक्तम् । अयुक्तं तूक्तम् । न हि चैतन्यवति पुरुषादौ प्रतिसंक्रान्ते दर्पणस्य चैतन्यापत्तिः; चैतन्याचैतन्ययोरपरावर्तिस्वभावत्वेन शक्रेणाप्यन्यथाकर्तुमशक्यत्वात् । किं चाचेतनापि चेतनावतीव प्रतिभासते इति इवशब्देनारोपो ध्वन्यते । न चारोपोर्थक्रियासमर्थः । न खल्वतिकोपनत्वादिना समारोपिताग्नित्वो माणवकः कदाचिदपि मुख्याग्निसाध्यां दाहपाकाद्यर्थक्रियां कर्तुमीश्वरः । इति चिच्छक्तेरेव विषयाध्यवसायो घटते; न जडरूपाया बुद्धेरिति । अत एव धर्माद्यष्टरूपतापि तस्या वाङ्मात्रमेव धर्मादीनामात्मधर्मत्वात् । अत एव चाहङ्कारो न बुद्धिजन्यो युज्यते; तस्याभिमानात्मकत्वेना| त्मधर्मस्याचेतनादुत्पादायोगात् । अम्बरादीनां च शब्दादितन्मात्रजत्वं प्रतीतिपराहतत्वेनैव विहितोत्तरम् । शङ्का । —यह तो हम प्रथम ही कह चुके हैं कि "बुद्धि अचेतन है तो भी चेतनाके पास होनेसे चेतनाशक्तिसहितसी भासती है ।" उत्तर । - यह बात आपने कही तो अवश्य है परंतु यह कहना अनुचित है । चेतनपुरुपके प्रतिबिंब पड़ने से दर्पण कुछ चेतन नही हो सकता है । जो चेतन अथवा अचेतन है वह वेसा ही रहेगा । चेतनो तथा अचेतनोका खभाव अनादि तथा अविनाशी है । इन स्वभावोंका परिवर्तन अर्थात् चेतनको किसी प्रकार अचेतन अथवा अचेतनको चेतन कर देना इंद्रकी साम- | र्थ्यके भी अगोचर है । और भी एक दूसरा दोष यह है कि " अचेतनरूप बुद्धि चेतनासहितसी प्रतिभासती है" इस वाक्यमें। | चेतनासहितसी ऐसी समानपनेकी कल्पना मात्र है परंतु जो जो प्रयोजन असली वस्तुसे सधता है वह वह प्रयोजन कल्पित माने हुए वस्तुसे नहीं सघ सकता है । इसीलिये कल्पनामात्रके मानने से भी प्रयोजन क्या ? किसी बालकमें अत्यंत क्रोधादिक | देखकर उसका यदि अनि नाम ही रख दिया जाय तो भी क्या उसके सपर्कसे कोई जल सकता है ? जो जलाना पकानाआदि । कार्य मुख्य अग्निसे हो सकते है वे कार्य नाममात्रकी नकली असे कदापि नही हो सकते है । इसी प्रकार जो खास चेतना - शक्तिसे विषयोंका ज्ञान होने योग्य है वह क्या संबंधके वश चेतना ऐसे नकली नाममात्रको धारण करनेवाली बुद्धिसे हो सकता है ? कदापि नहीं । इसी प्रकार बुद्धिमें धर्मादिक आठ भेद मानना भी संभव नही है । क्योंकि, धर्मादिक जो है सो आत्मा के ही स्वभाव है । इसी प्रकार अहंकारका भी अचेतन बुद्धिसे उत्पन्न होना असंभव है । क्योंकि; अभिमानका नाम अहंकार है और वह अभिमान अथवा अहंकार चैतन्यसे मिला हुआ है इसलिये चेतनरूप आत्मासे ही उत्पन्न हो सकता है । चेतनरूप पदार्थकी Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥१२३॥ उत्पत्ति जड वस्तुसे होना संभव नही है । आकाशादिकका शब्दादिक पांच तन्मात्राओंसे उत्पन्न होना तो सर्वथा ही प्रतीतिबाधित है । इसलिये इसका अधिक विचार क्या लिखै ? अपि च सर्ववादिभिस्तावदविगानेन गगनस्य नित्यत्वमङ्गीक्रियते । अयं च शब्दतन्मात्रात्तस्याप्याविर्भावमु द्भावयन्नित्यैकान्तवादिनां च धुरि आसनं न्यासयन्नसंगतप्रलापीव प्रतिभाति । न च परिणामिकारणं स्वकार्यस्य गुण भवितुमर्हतीति शब्दगुणमाकाशमित्यादि वाङ्मात्रम् । वागादीनां चेन्द्रियत्वमेव न युज्यते इतरासाध्यकार्य कारित्वाभावात् ; परप्रतिपादनग्रहणविहरणमलोत्सर्गादिकार्याणामितरावयवैरपि साध्यत्वोपलब्धेः । तथापि तत्कल्पने इन्द्रियसंख्या न व्यवतिष्ठते अन्याङ्गोपाङ्गादीनामपीन्द्रियत्वप्रसङ्गात् । और भी दूसरा दोष यह है कि सर्व वादियोंने आकाशको निर्विवाद नित्य माना है और यह (सांख्यमती) शब्दतन्मात्रा से उसकी उत्पत्ति भी मानता हुआ सर्वथा नित्यमाननेवालो में सबके आगे अपना आसन जमाता है। ऐसा भी सांख्य क्या असंगत भाषी नही है और भी तीसरा दोष यह है कि जो किसी वस्तुका पर्याय पलटाने में कारण होता है वही खयं उस पलटे हुए पर्यायका गुण नही हो सकता है। इसलिये आकाशको शब्दसे ही उत्पन्न कहकर शब्दगुणवाला मानना तथा ऐसे ही और भी कथन कहने मात्र ही है । वचन, हाथ, पैर, गुदा तथा लिंगको ( पुरुषचिह्नको ) इन्द्रिय मानना भी सर्वथा अयोग्य है । क्योंकि, इंद्रिय वही होसकता है जिसके द्वारा ऐसा कार्य हो जो अन्यसे न होसकै । वचनसे दूसरों को समझाना, हाथसे किसी वस्तुको उठाना, पैरोंसे चलना, गुदाके द्वारा विष्टाका त्यागना तथा पुरुषचिह्नसे मूंतना इत्यादि कार्य जो वचनादि इद्रियोंसे किये जाते है वे तो अन्य प्रकार भी किये जा सकते है । यदि तो भी इनको इंद्रिय माना जाय तो इद्रिय ग्यारह ही है ऐसा नियम ही न होसकै । क्योंकि, ऐसे और भी बहुतसे शरीरके अवयव है जो हाथ पैर आदिके समान इंद्रिय मानेजासकते है । यच्चोक्तं “नानाश्रयायाः प्रकृतेरेव वन्धमोक्षौ संसारश्च न पुरुषस्य " इति तदप्यसारम् अनादिद्भवपरम्परानुवद्धया प्रकृत्या सह यः पुरुषस्य विवेको ग्रहणलक्षणोऽविष्वग्भावः स एव चेन्न बन्धस्तदा को नामान्यो वन्धः स्यात् ? प्रकृतिः सर्वोत्पत्तिमतां निमित्तमिति च प्रतिपद्यमानेनायुष्मता संज्ञान्तरेण कर्मैव प्रतिपन्नं तस्यैवस्वरूपत्वादचेतनत्वाच्च । रा.जै. शा ॥१२३॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 और जो यह कहा कि " अनेक पुरुषोंके आश्रय रहनेवाली प्रकृतिका ही बंधमोक्ष तथा संसारमें परिभ्रमण होता है; पुरुषका नहीं" वह सव असत्य है । क्योंकि अनादिकाल की संसारपरिपाटीसे साथ बंधी हुई प्रकृतिमें जो पुरुषका ऐसा गाढ ममत्वरूप प्रवल मिथ्याज्ञान जिसकी जुदाई आजपर्यंत न हुई वह भी यदि जीवका बंधन नही है तो और कोनसा बंधन है ? भावार्थ- बंधन वही | होता है जिसके होनेसे परतंत्रता रहै । इसलिये यहांपर भी पुरुषका प्रकृति के साथ ऐसा ममत्वरूप मिथ्याज्ञान ही बंधन होना चाहिये । क्योंकि इस प्रकृति के साथ एकताका जबतक ज्ञान है तभीतक जीव संसारमें है । जब यह ज्ञान नष्ट हो जाता है अर्थात् पुरुष प्रकृतिसे अपनेको जुदा समझने लगता है तभी संसारसे छूटकर मुक्त हुआ समझाजाता है । यही साख्यका भी मंतव्य है । इस कथनसे यही सिद्ध होता है प्रकृति तो कर्मरूप है और उसमें जो एकताका ज्ञान रहना वही पुरुषका बंधन है । इसलिये | पुरुष ही जबतक प्रकृतिमें एकताका मिथ्याज्ञान है तवतक बंधा है और संसारमें परिभ्रमण करता है और जब यह मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है तभी इसकी मुक्ति हो जाती है । बंध, मोक्ष तथा ससाररूप अवस्था पुरुषकी न मानकर जो प्रकृतिकी ही मानना है। वह सर्वथा मिथ्या है । क्योंकि; प्रकृति तो कर्मरूप है और बंधका कारण है इसलिये वह स्वयं अपनेसे ही बद्ध तथा मुक्त कैसे कही | जासकती है 2 बंधके कारणके अतिरिक्त कोई दूसरा ही बंधनेवाला तथा छूटनेवाला होना चाहिये । जैसे वेढी तो बांधनेवाली है। और बंधने तथा उससे छूटनेवाला कोई और जीव ही होता है । वेढी स्वयं बंधती तथा छूटती नही है । प्रकृति सभी उत्पत्ति - मान् पदार्थों की उत्पत्तिका निमित्त कारण है ऐसा आपने ( सांख्यने ) माना भी है । हम भी कर्मका स्वरूप ऐसा ही मानते है। तथा कर्मको जड़ भी मानते है । इसलिये आपकी प्रकृति और हमारे कर्म में कुछ अंतर नही है; केवल नाममात्र भिन्न है । अर्थात् आप प्रकृति कहते है और हम कर्म कहते है । I यस्तु प्राकृतिकवैकारिकदाक्षिणभेदात्रिविधो बन्धः । तद्यथा । प्रकृतावात्मज्ञानाद्ये प्रकृतिमुपासते तेषां प्राकृ| तिको बन्धः । ये विकारानेव भूतेन्द्रियाहङ्कारवुद्धी: पुरुषबुद्ध्योपासते तेषां वैकारिकः । इष्टापूर्ते दाक्षिणः । पुरुषतत्त्वानभिज्ञो हीष्टापूर्तकारी कामोपहतमना वध्यते इति । इष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्टं नान्यच्छ्रेयो येभिनन्दन्ति मूढाः नाकस्य पृष्ठे 'सुकृतेन भूत्त्वा इमं लोकं वा हीनतरं विशन्ति इति वचनात् । स त्रिविधोषि कल्पनामात्रं कथंचिन्मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगेभ्योऽभिन्नस्वरूपत्वेन कर्मवन्धहेतुष्वे Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादमं. ॥१२४॥ | वान्तर्भावात् । वन्धसिद्धौ च सिद्धस्तस्यैव निर्बाधः संसारः । बन्धमोक्षयोश्चैकाधिकरणत्वाद्य वद्धः मुच्यते इति पुरुषस्यैव मोक्षः, आवालगोपालं तथैव प्रतीतेः । प्राकृतिक ( प्रकृतिमें एकत्वबुद्धि होनेसे उत्पन्न होनेवाला ), वैकारिक ( इंद्रिय अहंकारादिक विकारोंसे उत्पन्न होनेवाला ) और दाक्षिण ( शुभकर्मोंसे होनेवाला पुण्यबंध ) ऐसे बंध तीन प्रकार है । जो प्रकृति में आत्माका भ्रम होनेसे प्रकृतिकी ही | आत्मा समझकर उपासना करते है उनके प्राकृतिक बंध होता है । पृथिव्यादि पांच भूत, इंद्रिय, अहंकार तथा बुद्धिरूप विकारोंकी पुरुष समझकर जो उपासना करते है उनके वैकारिक बंध होता है । यज्ञादिक (इष्ट) और दानादिक (आपूर्त ) शुभ कर्म करनेसे दाक्षिण (पुण्य) बंध होता है । सांसारिक इच्छाओंसे जिसका मन मलिन होरहा है और जो आत्मतत्वको नही समझता है ऐसा जीव भी यज्ञदानादिक शुभकर्म करनेसे बंधको प्राप्त होता ही है । ऐसा कहा भी है कि; जो मूढ मनुष्य यज्ञदानादि कर्मोंको ही सबसे श्रेष्ठ समझते है, यज्ञदानादिके अतिरिक्त किसी भी शुभ कर्मकी प्रशंसा नहीं करते है वे इस यज्ञदानादिके पुण्यसे प्रथम तो खर्गमें उत्पन्न होते है परंतु अंतमें फिर भी इसी मनुष्यलोकमें अथवा इससे भी हीन स्थानोंमें आकर जन्म लेते है । इस प्रकार जो ऊपर तीन प्रकारका बंध सांख्यमतीने कहा है वह कहनेमात्र ही है । क्योंकि हमने जो मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योगोंको कर्मबंधका कारण कहा है उन्ही में इस तीन प्रकारके बंधका भी किसी प्रकार अंतर्भाव हो जाता है, उनसे भिन्न कुछ भी नही है । इस प्रकार जब जीवका बंध सिद्ध है तो इस कर्मबंधके कारणसे जो संसारमें परिभ्रमण होता है वह भी उस जीवका ही होना चाहिये । और जो बंधता है वही कभी छूटता है । क्योंकि, जो बंधा ही नही है वह छूटै किससे ± बंध तथा मोक्ष (छूटने का स्वामी (आधार) एक ही होता है। इस प्रकार मोक्ष होना भी पुरुषका ही निश्चित है । जो बँधता है वही छूटने योग्य है यह बात इतनी प्रसिद्ध है कि बच्चोसे लेकर सभी जानते है । प्रकृतिपुरुषविवेकदर्शनात् प्रवृत्तेरुपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इति चेन्नः प्रवृत्तिस्वभावायाः | प्रकृते रौदासीन्यायोगात् । अथ पुरुषार्थनिबन्धना तस्याः प्रवृत्तिः विवेकख्यातिश्च पुरुषार्थः । तस्यां जातायां नि. | वर्तते; कृतकार्यत्वात् । रङ्गस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् पुरुपस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते 66 रा.जै.शा. ॥१२४॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिः” इति वचनात् । इति चेन्नैवं; तस्या अचेतनाया विमृश्यकारित्वाभावात् । यथेयं कृतेपि शब्दाद्युपलम्भे | पुनस्तदर्थं प्रवर्तते तथा विवेकख्यातौ कृतायामपि पुनस्तदर्थं प्रवर्तिष्यतेः प्रवृत्तिलक्षणस्य स्वभावस्यानपेतत्वात् । | नर्तकीदृष्टान्तस्तु स्वेष्टविघातकारी । यथा हि नर्तकी नृत्यं पारिषदेभ्यो दर्शयित्वा निवृत्तापि पुनस्तत्कुतूहलात् | प्रवर्तते तथा प्रकृतिरपि पुरुषायात्मानं दर्शयित्वा निवृत्तापि पुनः कथं न प्रवर्ततामिति । तस्मात् कृत्स्नकर्मक्षये | पुरुषस्यैव मोक्ष इति प्रतिपत्तव्यम् । यदि कहो कि “प्रकृति और पुरुषमें जो अंतर है उसको दिखाकर जब प्रकृति प्रवृत्ति करनेसे रुक जाती है तव जो पुरुषका अपने खरूपमें लीन होना है वही मोक्ष है" सो यह कहना मिथ्या है । क्योंकि; जब प्रकृतिका खभाव ही प्रवृत्तिकरना कहा है तो प्रवृत्तिसे रुकना कैसे होसकता है ? क्योंकि; पदार्थका स्वभाव नष्ट होनेपर तो पदार्थका नाश ही होजाता है । "प्रकृतिकी प्रवृत्ति केवल पुरुषार्थ उत्पन्न करनेकेलिये ही होती है और प्रकृति तथा पुरुषमें भेददृष्टिका होजाना ही पुरुषार्थ है । इसलिये भेददृष्टिरूप पुरुषार्थ [ कार्य ] उत्पन्न होनेपर कारणरूप प्रकृति कृतकृत्य होनेसे विश्रामको प्राप्त होती है। जैसे नटी रंगभूमिको अपना नृत्य | दिखाकर बंद होती है तैसे ही प्रकृति पुरुषको अपना स्वरूप दिखाकर निवृत्त होती है" ऐसा दृष्टांत भी कहा है । यह कहना | सर्वथा असत्य है । क्योंकि; अचेतन होनेसे प्रकृतिमें विचारपूर्वक कार्य करना ही असंभव है । और भी दूसरा दोष यह है कि प्रकृति जैसे शब्दादिकोंका ज्ञान एकवार होजानेपर भी फिरसे शब्दादिकोंके ज्ञान करनेमें प्रवर्तती है तैसे प्रकृति तथा पुरुषमें | भेददृष्टिरूप ज्ञान होनेपर भी फिरसे क्यों न प्रवर्ते ? क्योंकि; प्रवर्तनस्वभाव तो उस प्रकृतिने अभी छोड़ा ही नही है । इस विष - यमें नर्तकीका दृष्टांत भी उलटा तुम्हारे ही सिद्धांतका घात करता है । किस प्रकार ? जैसे नटी दर्शकोंको अपना नृत्य दिखाकर निवृत्त होजानेपर भी अच्छा नृत्य होनेके कारण यदि दर्शकजन फिर भी आग्रह करे तो फिरसे भी नृत्य करने लगती है तैसे ही प्रकृति भी पुरुषको अपना खरूप दिखाकर निवृत्त होनेके अनंतर फिरसे क्यों न प्रवृत्त हो ? और यदि फिरसे प्रवृत्त होना मानलिया जाय तो प्रकृतिका मोक्ष कभी हो ही नही सकैगा । इसलिये संपूर्ण कर्मोंका सर्वथा नाश होजानेपर पुरुष ( आत्मा ) का ही मोक्ष होता है ऐसा मानना चाहिये । एवमन्यासामपि तत्कल्पनानां " तमोमोहमहामोहतामिस्रान्धतामिस्रभेदात् पञ्चधा अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनि Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥१२५॥ 1 वेशरूपो विपर्ययः । ब्राह्मप्राजापत्यसौम्यैन्द्र गान्धर्वयक्षराक्षसपैशाच भेदादष्टविधो दैवः सर्गः । पशुमृगपक्षिसरीसृप| स्थावरभेदात् पञ्चविधस्तैर्यग्योनः । ब्राह्मणत्वाद्यवान्तरभेदाविवक्षया चैकविधो मानुषः । इति चतुर्दशधा भूतसर्गः । वाधिर्य कुण्ठताऽन्धत्वजडताऽजिघतामूकताकौण्यपङ्गुत्वक्लैव्योदावर्तमत्ततारूपैकादशेन्द्रियवधतुष्टिनवकविपर्ययसिद्ध्यष्टकविपर्ययलक्षणसप्तदशबुद्धिवधभेदादष्टाविंशतिविधा शक्तिः । प्रकृत्युपादानकालभोगाख्या अम्भःसलि| लौघवृष्ट्यऽपरपर्यायवाच्याश्चतस्र आध्यात्मिकाः । शब्दादिविषयोपरतयश्चार्जनरक्षणक्षयभोगहिंसादोषदर्शनहेतुजन्मानः पञ्च वाह्यास्तुष्टयः । ताश्च पारसुपारपारापारानुत्तमाम्भउत्तमाम्भः शब्दव्यपदेश्याः । इति नवधा तुष्टिः । त्रयो दुःखविघाता इति मुख्यास्तिस्रः सिद्धयः प्रमोदमुदितमोदमानाख्याः । तथाध्ययनं शब्द ऊहः सुहृत्प्राप्ति|र्दानमिति दुःखविघातोपायतया गौण्यः पञ्च तारसुतारतारताररम्यकसदामुदिताख्याः । इत्येवमष्टधा सिद्धिः । धृ|तिश्रद्धासुखविविदिषाविज्ञप्तिभेदात् पञ्च कर्मयोनयः । इत्यादीनां ” संवरप्रतिसंवरादीनां च तत्त्वकौमुदीगौडपाद - भाष्यादिप्रसिद्धानां विरुद्धत्वमुद्भावनीयम् । इति काव्यार्थः । इसी प्रकार सांख्यमतियोंकी और भी नीचे दिखाई गई कल्पनाओं में तथा तत्त्वकौमुदीके गौड़पाद भाष्य आदिक ग्रन्थों में प्रसिद्ध सवर प्रतिसवरादिक कल्पनाओंमे अनेक प्रकारका विरोध विचारलेना चाहिये । वे नीचे लिखी हुई कल्पनाऐं ये है । - तम, मोह, महामोह, तामिस्र तथा अधतामिस्र ऐसे पांच प्रकारका अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश ( आग्रह ) नामक विपर्यय है । ब्रह्मलोक उत्पन्न होने, प्रजापतिलोकमें उत्पन्न होने तथा सौम्यलोकमें, इन्द्रलोकमें, गन्धर्वों के लोकमें तथा यक्ष, राक्षस, पिशाचोंके लोकमें उत्पन्न होनेकी अपेक्षा देवताओंकी सृष्टि आठ प्रकार है । पशु, मृग, पक्षी, सर्प तथा वृक्षादिक स्थावर ऐसी पाच प्रकार तिर्यचोकी सृष्टि है । ब्राह्मणादिक अंतर्गत भेदोंकी अपेक्षा न करनेसे मनुष्य एक प्रकार ही गिने है। इस प्रकार प्राणियोंकी उत्पत्ति सर्व चौदह प्रकारसे है । बहिरापन ( श्रोत्रका ), कुठता ( वचनकी), अधापन (नेत्रोंका ), जड़पना (स्पर्शने - न्द्रियका), गंधका ज्ञान न होना ( नासिकाका ), तोतलापन ( जिव्हाका ), लुलापन ( हाथका ) लंगडापन ( पैरोंका ), नपुंसकपना ( लिंगका ), कब्जियात ( गुदासंबंधी ) तथा उन्मत्तता ( मनकी ) यह ग्यारह प्रकारका इंद्रियोंका बध तथा नौ तुष्टियोंके | नौ प्रकार विपर्यय तथा आठ सिद्धियोंके आठ प्रकार विपर्यय ऐसे सत्रह प्रकारका बुद्धिका बध यह सर्व अट्ठाईस प्रकारकी शक्ति ॥१२५॥ रा. जै.शा. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । प्रकृति, उपादान, काल तथा भोग इन नामोंवाली अथवा अंभः, सलिल, ओघ तथा वृष्टि ये दूसरे नाम है जिनके ऐसी चार आध्यात्मिक तुष्टि है। शब्दस्पर्शादिक विषयोंसे उदासीनरूप तथा अप्राप्त वस्तुका उपार्जन, विद्यमान वस्तुकी रक्षा, विद्यमानका ही नाश, भोग, तथा हिंसारूप दोषोंसे उत्पन्न हुई ऐसी पांच बाह्य तुष्टि है। इनके नाम पार, सुपार, पारापार, अनुत्तमांभ तथा उत्तमांभ है। इस प्रकार सर्व तुष्टि नौ है। दुःखका नाश करनेवाली तीन तो मुख्य सिद्धि है । प्रमोद, मुदितमोद तथा मान ये इनके तीन नाम है । और अध्ययन, शब्द, ऊह ( तर्क ), सच्चे मित्रोंकी प्राप्ति तथा दान ये पांच अप्रधान सिद्धि है। तार, सुतार, तारतार, रम्यक तथा सदामुदित ये इन पाचोंके नाम है। इस प्रकार सर्व मिलकर आठ सिद्धि है। धृति, श्रद्धा, सुख, जाननेकी इच्छा तथा ज्ञानका होना ये पांच प्रत्येक कर्म करने में मूलकारण होते है । इत्यादिक तथा और भी संवर प्रतिसंवरादिक | तत्त्वकौमुदीनामक ग्रन्थके गौड़पादभाष्यादिकोंमें दिखाई हुई सांख्यमतीकी कल्पनाओंमें परस्परका विरोध विचारलेना चाहिये ।। | इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ । | इदानीं ये प्रमाणादेकान्तेनाभिन्नं प्रमाणफलमाहुर्ये च बाह्यार्थप्रतिक्षेपेण ज्ञानाद्वैतमेवास्तीति ब्रुवते तन्मतस्य | विचार्यमाणत्वे विशरारुतामाहुः। ___ अब यह दिखाते है कि जो प्रमाणका फल प्रमाणसे सर्वथा अभिन्न अर्थात् एकरूप ही मानते है और जो बाह्य पदार्थोंका निषेध | कर सर्व ज्ञानरूप ही है ऐसा ज्ञानाद्वैत ही मानते है उनके मत विचारनेपर विशीर्ण होजाते है अर्थात् ठहरते नहीं है। न तुल्यकालः फलहेतुभावो हेतौ विलीने न फलस्य भावः । न संविदद्वैतपथेर्थसंविद्विलूनशीर्ण सुगतेन्द्रजालम् ॥ १६॥ K मूलार्थ-उपादान कारण तथा उसका कार्य ये दोनो एक समयमें नही रहसकते है और उपादान कारणका सर्वथा नाश हो जानेपर भी कार्यकी उत्पत्ति नही होसकती है। यदि केवल ज्ञानवरूप ही जगत् माना जाय तो बाह्य अनेक पदार्थों का ज्ञान नही होसकैगा । इस प्रकार विचारनेपर बुद्धका फेलाया हुआ इंद्रजाल फटजाता है। व्याख्या-बौद्धाः किल प्रमाणात्तत्फलमेकान्तेनाऽभिन्नं मन्यन्ते । तथा च तत्सिद्धान्तः “उभयत्र तदेव ज्ञ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमं. ॥१२६॥ प्रमाणफलमधिगमरूपत्वात्" । उभयत्रेति प्रत्यक्षेऽनुमाने च, तदेव ज्ञानं प्रत्यक्षानुमानलक्षणं फलं कार्यम कुतोऽधिगमरूपत्वादिति परिच्छेदरूपत्वात् । तथा हि । परिच्छेदरूपमेव ज्ञानमुत्पद्यते । न च परिच्छेदादृतेऽन्यज् ज्ञानफलम्; अभिन्नाधिकरणत्वात्। इति सर्वथा न प्रत्यक्षानुमानाभ्यां भिन्नं फलमस्तीति। एतच्च न समीचीनं यतो यद्यस्मादेकान्तेनाऽभिन्नं तत्तेन सहैवोत्पद्यते । यथा घटेन घटत्वम् । तैश्च प्रमाणफलयोः कार्यकारणभावोऽभ्युपगम्यते । प्रमाणं कारणं फलं कार्यमिति । स चैकान्ताऽभेदे न घटते । न हि युगपदुत्पद्यमानयोस्तयोः सव्येतरगोविषाणयोरिव कार्यकारणभावो युक्तः, नियतप्राक्कालभावित्वात्कारणस्य; नियतोत्तरकालभावित्वात्कार्यस्य । एतदेवाह "न तुल्यकालः फलहेतुभावः" इति । फलं कार्य हेतुः कारणम् । तयोर्भावः स्वरूपं कार्यकारणभावः। स तुल्यकालः समानकालो न युज्यत इत्यर्थः। व्याख्यार्थ-बुद्धमतावलम्बी प्रमाणसे उत्पन्न हुए फलरूप ज्ञानको प्रमाणरूप ज्ञानसे सर्वथा अभिन्न मानते है। ऐसा ही उनके सिद्धान्तमें कहा है "दोनो प्रकार के (प्रत्यक्ष तथा अनुमानरूप) प्रमाणज्ञानमें ही फलरूप ( कार्यरूप) प्रत्यक्ष तथा अनुमानज्ञान भी गर्भित है । क्योंकि, ज्ञान जितना होता है वह सर्व अधिगम ( परिच्छेदरूप) अर्थात् फलरूप ही होता है" । इसी अभिप्रायको अनुमानद्वारा दिखाते है । ज्ञान जितना उपजता है वह सर्व परिच्छेदरूप अर्थात् फलरूप ही उपजता है । परिच्छेदरूपके सिवाय दूसरा कोई ज्ञानका फल है ही नहीं। क्योंकि, दूसरा जो कुछ फलरूप कल्पना किया जायगा वह सभी प्रमाणसे भिन्न स्था नमे रहनेवाला सिद्ध होगा । किंतु कारण तथा कार्यका आधार होना एक ही चाहिये । इस प्रकार प्रमाणरूप प्रत्यक्ष तथा अनुॐ मान ज्ञानोसे इसके फलरूप ( कार्यरूप ) प्रत्यक्ष तथा अनुमान ज्ञान किसी प्रकार भिन्न सिद्ध नही होते । इस प्रकार प्रमाणके फलरूप ज्ञानको प्रमाणज्ञानसे सर्वथा अभेदरूप मानना बौद्धोंका मत है सो ठीक नहीं है । क्योंकि, जो जिससे सर्वथा अभिन्न ७ के होता है वह उसके साथ ही उत्पन्न होता है। जैसे घट और घटपना अर्थात् घटमें रहनेवाले धर्म । ये दोनो एक ही है इसलिये * साथ ही उपजते है । और बौद्धोंने प्रमाण और प्रमाणके फलमें कार्यकारणरूप संबंध भी माना है। प्रमाण कारण है और प्रमाणका फल कार्य । यह कार्यकारणभाव सबंध भी प्रमाण तथा प्रमाणके फलको सर्वथा एकरूप माननेपर सिद्ध नही होसकता है। क्योंकि, दक्षिण (सीधे ) और वाम (वाये ) सीगके समान एकसाथ उपजनेवाले प्रमाण और प्रमाणके फलमें कार्यकारणपना किस है। ॥१२६॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार होसकता है ? क्योंकिः कार्यकी उत्पत्तिसे पहिले क्षणमें नियमसे कारण रह सकता है और कार्य नियमसे कारणके अनंतरवाले दूसरे क्षणमें ही व्यवधान रहित रह सकता है । यही अन्यत्र भी कहा है "एक ही कालमें फल (कार्य) तथा हेतु (कारण) नहीं रह सकते है।" फल अर्थात् कार्यके और हेतु अर्थात् कारणके खरूपको ही कार्यकारणभाव कहते है।सो यह कार्यकारणभाव समानकालमें संभव नहीं है। el अथ क्षणान्तरितत्वात्तयोः क्रमभावित्वं भविष्यतीत्याशङ्कयाह "हेतौ विलीने न फलस्य भावः" इति। हेतौ कारणे प्रमाणलक्षणे विलीने क्षणिकत्वादुत्पत्त्यनन्तरमेव निरन्वयं विनष्टे फलस्य प्रमाणकार्यस्य न भावः सत्ता निर्मूलत्वात् । विद्यमाने हि फलहेतावस्येदं फलमिति प्रतीयते । नान्यथाऽतिप्रसङ्गात् ।। __अब कार्यकारणोंमें क्षणमात्रका अन्तर पडनेसे क्रमवपिना होसकैगा ऐसी क्षणिकवादीकी आशंकाका "हेतौ विलीने न फलस्य भावः" ऐसा उत्तर देते है । अर्थात् क्षणिक होनेसे उत्पत्तिके वाद ही प्रमाणरूप हेतु ( कारण ) निरन्वय ( सर्वथा ) नष्ट होजानेपर प्रमाणके कार्यरूप फलकी निर्मूल अर्थात् कारणके विना ही उत्त्पत्ति होना असभव है । क्योकि | किसी भी कार्यरूप वस्तुका कारण विद्यमान रहनेपर ही यह इसका कार्य है ऐसी प्रतीति होसकती है। यदि कारणके विना भी Kल कार्यकी उत्पत्ति मानलीजाय तो विना माताके भी पुत्रकी उत्पत्ति होना इत्यादि अनेक अतिव्याप्तिरूप दोष उपस्थित होने लगेंगे। किं च हेतुफलभावः संबन्धः । स च द्विष्ठ एव स्यात् । न चानयोः क्षणक्षयैकदीक्षितो भवान् संवन्धं क्षमते ।। ततः कथमयं हेतुरिदं फलमिति प्रतिनियता प्रतीतिः? एकस्य ग्रहणेऽप्यन्यस्याऽग्रहणे तदसंभवात् "द्विष्ठसंवन्धसं-19 वित्तिनैकरूपप्रवेदनात् । द्वयोः स्वरूपग्रहणे सति संवन्धवेदनम्" इति वचनात् । तथा कार्यकारणभाव एक प्रकारका संबंध है। संबंध दो वस्तुओमें ही रहता है। और आपको सर्वथा क्षणक्षयकी वासनासे वासित होनेके कारण इन दोनोका ( प्रमाण और फलका) संबंध सहन नही हो सकता है इसीलिये किसी विवक्षित (निश्चित) पदार्थमें यह हेतु है, यह फल है ऐसी नियमित प्रतीति होना भी असंभव है। क्योंकि जब प्रत्येक पदार्थ क्षणध्वंसी ही माना जायगा तो कार्यकारणोंमेंसे एक समयमें एक ही उपस्थित रहसकता है और इसीलिये किसी एक समयमें कार्यकारणोमेंसे उस एकका ज्ञान होनेपर भी दूसरेका ज्ञान न होनेसे यह हेतु है, यह इसका फल है ऐसी प्रतीति होना असंभव है। "दो वस्तुओंमें रहनेवाले संबंधका Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादमं. ॥१२७॥ ज्ञान उन दोनों वस्तुओंका प्रथम ज्ञान होनेपर ही होसकता है, यदि उनमें से एक वस्तुका ही ज्ञान हो तो उस संबंधी ज्ञान कदापि नही हो सकता " ऐसा पूर्वाचार्योंका वचन है । यदपि धर्मोत्तरेण " अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणं तद्वशादर्थप्रतीतिसिद्धेः " इति न्यायविन्दुसूत्रं विवृण्वता भणितं “नीलनिर्भासं हि विज्ञानं यतस्तस्मान्नीलस्य प्रतीतिरवसीयते । येभ्यो हि चक्षुरादिभ्यो ज्ञानमुत्पद्यते न तद्वशात्तज्ज्ञानं नीलस्य संवेदनं शक्यतेवस्थापयितुं नीलसदृशं त्वनुभूयमानं नीलस्य संवेदनमवस्थाप्यते । न चात्र जन्यजनकभावनिवन्धनः साध्यसाधनभावो येनैकस्मिन्वस्तुनि विरोधः स्यात् । अपि तु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावेन । तत एकस्य वस्तुनः किंचिद्रूपं प्रमाणं किंचिलमाणफलं न विरुध्यते । व्यवस्थापनहेतुर्हि सारूप्यं तस्य ज्ञानस्य व्यवस्थाप्यं च नीलसंवेदनरूपम्" इत्यादि तदप्यसारम्; एकस्य निरंशस्य ज्ञानक्षणस्य व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकत्वलक्षणस्वभावद्वयाऽयोगात् व्यवस्थाप्य व्यवस्थापकभावस्यापि च सम्बन्धत्वेन द्विष्ठत्वादेकस्मिन्नसंभवात् । और भी - धर्मोत्तर नामक बौद्ध आचार्यने "ज्ञानके आकारके साथ अर्थकी समानता होनेसे ही ज्ञानमें प्रमाणता होती है। क्योंकि ज्ञानमें अर्थकी समानता होनेपर ही अर्थकी प्रतीति होती है" ऐसे अभिप्रायवाले न्यायविन्दु ग्रन्थके सूत्रका विवरण करते हुए “जिसमें नीलरूपका प्रतिभास हो ऐसा विज्ञान जिससे उत्पन्न होताहो उसीसे नीलरूपकी प्रतीतिका निश्चय होता है । और जिन चक्षुरादि इन्द्रियोंके द्वारा नीलादिका ज्ञान उत्पन्न होता है केवल उन इन्द्रियोंके ही वश वह ज्ञान नीलादि संवेदनका निश्चय नहीं करासकता है । और नीलके सदृश अनुभव किया हुआ नीलादिज्ञान ( अर्थके द्वारा ) तो नीलका सवेदन कराता है । भावार्थपदार्थकी समानता रखनेवाला ही ज्ञान पदार्थकी सहायतासे प्रमाण समझा जाता है और इन्द्रियादिककी सहायतासे उत्पन्न होनेपर भी वह ज्ञान इन्द्रियादिकके वशसे प्रमाणरूप नहीं होता। यहांपर जन्यजनकभावका आश्रय लेकर साध्यसाधनपना नही मानागया है जिससे कि एक वस्तु ( एक समय में ) परस्पर विरोध संभव हो । भावार्थ-यदि जन्यजनकभावकी अपेक्षा लेकर साध्यसा - धनपना यहां मानाजाता तो एक वस्तुमें साध्यसाधनपनेका विरोध आता । क्योंकि; एक समयमें एक वस्तु या तो साध्यरूप ही हो सकती है या साघनरूप ही । दोनोंरूप नहीं होसकती । इसीलिये हमने जन्यजनकभावकी अपेक्षा साध्यसाधनभाव यहां नहीं माना १ बौद्धोंके एक न्यायप्रन्थका नाम न्यायबिन्दु है । २ " अर्थसारूप्यमस्य प्रमाण तद्वशादर्थप्रतीतिसिद्धे " ऐसा न्यायबिन्दुका सूत्र है । रा. जै.शा. ॥१२७ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । और इसीलिये यहां परस्पर विरोधरूप दोष भी संभव नहीं है। किंतु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकपनेकी अपेक्षामात्रसे साध्यसाधनपना है । इससे एक ही वस्तुका कुछ स्वरूप प्रमाणरूप तथा कुछ प्रमाणके फलरूप माननेमें विरोध नहीं आसकता है। यहांपर ऐसी व्यव-|| स्था करनेका हेतु समानपना ( ज्ञान तथा वस्तुका ) ही है और इस ज्ञानसे नीलादिसंवेदनकी व्यवस्था कीजाती है।" इत्यादि वि-11 वरण ( व्याख्यान ) किया है परंतु वह भी असत्य है। क्योंकि ज्ञानखरूप एक निरंश भावमें व्यवस्था होने योग्य (व्यवस्थाप्य) तथा व्यवस्था करनेयोग्य ( व्यवस्थापक ) ऐसे दो खभावोंका समावेश किस प्रकार होसकता है क्योंकि; व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभाव भाभी एक प्रकारका संबंध होनेसे दो पदार्थों में ही रहसकता है । इसीलिये एकखभावमें दो खभावोंका होना असंभव है। किंचाऽर्थसारूप्यमर्थाकारता । तच्च निश्चयरूपमनिश्चयरूपं वा? निश्चयरूपं चेत्तदेव व्यवस्थापकमस्तु। किमुभयकल्पनया ? अनिश्चितं चेत्स्वयमव्यवस्थितं कथं नीलादिसंवेदनव्यवस्थापने समर्थम् ? अपि च केयमाकारता ? किमर्थग्रहणपरिणाम आहोस्विदर्थाकारधारित्वम् ? नाद्यः सिद्धसाधनात् । द्वितीयस्तु ज्ञानस्य प्रमेयाकारानुकर-19 जाणाज्जडत्वापत्त्यादिदोषाघातः । तन्न प्रमाणादेकान्तेन फलस्याऽभेदः साधीयान् । सर्वथा तादात्म्ये हि प्रमाणफल रोधात् । न हि सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलमिति सर्वथा तादात्म्ये सिद्ध्यत्यति-IN प्रसङ्गात् । थोडे समयके लिये यह पूर्वोक्त विचार छोड़ भी दिया जाय तो भी अर्थसारूप्यशब्दका अर्थ ज्ञानका पदार्थके आकार होजाना है। सो यह अर्थसारूप्य भी निश्चयरूप है अथवा अनिश्चयरूप ? यदि निश्चयरूप मानाजाय तो इस निश्चयरूपको ही व्यवस्थापक कहसकते है; फिर व्यवस्थाप्य व्यवस्थापक इस प्रकार दो भाव माननेकी क्या आवश्यकता है ? और यदि अर्थसारूप्यको अनिश्चयरूप माना जाय तो जो खयं अव्यवस्थित ( अनिश्चित ) है वह नीलादिसंवेदनकी निश्चय करानेकी व्यवस्था कैसे करसकता है ? अर्थात् नीलादिसंवेदनका व्यवस्थापक कैसे होसकता है ? और भी-अर्थसारूप्यका अर्थ जो अर्थाकारता किया सो वह अर्थाकारता क्या चीज है? क्या पदार्थको ग्रहण करनेका परिणाम है अथवा उस ज्ञेय पदार्थके आकाररूप होजाना है? आदिका पक्ष तो ठीक नही। क्योंकि, पदार्थको ग्रहणकरनेरूप परिणाम तो पूर्वसे ही सिद्ध है इसलिये सिद्धको साधनेसे सिद्धसाधननामक दोष उपस्थित होजाता है। यदि द्वितीय पक्ष अर्थात् पदार्थके आकाररूप ज्ञानका होजाना माना जाय तो ज्ञानमें प्रमेयाकारका परिणमन होनेसे योर्न व्यवस्था तद्भावविरा Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥१२८॥ 1 जड़त्वादिक अनेक दोष आते हैं । इसलिये सर्वथा प्रमाणसे उसके फलका अभेद सिद्ध नहीं होसकता है । प्रमाण और उसके फलका सर्वथा तादात्म्य संबंध माननेसे भी प्रमाण और फलकी व्यवस्था ( विभाग ) नही होसकती है । क्योंकि, एक खरूपमें परस्पर विरुद्ध दो खभावका होना असंभव है । सर्वथा तादात्म्य माननेपर ज्ञानमें पदार्थके समानपनेका होना तो प्रमाण और उसका निश्चय होना अथवा संवेदन होना फल, ये दो भाव नहीं होसकते है; नही तो एक जलादि पदार्थमें शीत तथा उप्ण भाव होना इत्यादि अनेकप्रकार अतिव्याप्ति दोष आनेकी संभावना होने लगेगी । ननु प्रमाणस्याऽसारूप्यव्यावृत्तिः सारूप्यमनधिगतिव्यावृत्तिरधिगतिरिति व्यावृत्तिभेदादेकस्यापि प्रमाणफलव्यवस्थेति चेन्नैवं; स्वभावभेदमन्तरेणाऽन्यव्यावृत्तिभेदस्याप्यनुपपत्तेः । कथं च प्रमाणस्य फलस्य चाऽप्रमाणाऽफलव्यावृत्त्याः प्रमाणफलव्यवस्थावत्प्रमाणान्तरफलान्तरव्यावृत्त्याप्यप्रमाणत्वस्याऽफलत्वस्य च व्यवस्था न स्यात् ? विजातीयादिव सजातीयादपि व्यावृत्तत्वाद्वस्तुनः । तस्मात्प्रमाणात्फलं कथंचिद्भिन्नमेवैष्टव्यं साध्यसाधनभावेन प्रतीयमानत्वात् । कदाचित् बौद्ध कहै कि प्रमाणमें असमानपनेका निषेध ही सारूप्य अर्थात् समानपना है और अज्ञानके अभावका ही नाम अधिगति अथवा प्रमाणका फलरूप ज्ञान है । इस प्रकार व्यावृत्ति (निषेध) का भेद होनेसे एक तथा निरंश ज्ञानमें भी प्रमाण तथा फलकी व्यवस्था होसकती है। परंतु बौद्धका यह कथन भी उचित नहीं है । क्योंकि; यथार्थमें स्वभावभेदके विना अन्य पदार्थोंसे व्यावृत्ति करनेमें भेद किस प्रकार होसकता है और प्रमाण तथा फलकी व्यवस्था जैसे अप्रमाण तथा अफल अथवा फलाभावकी व्यावृत्तिसे होती है तैसे ही प्रमाणान्तर अर्थात् अन्य प्रमाण तथा अन्यफल ( विवक्षित प्रमाणफलके अतिरिक्त दूसरे ) की व्यावृत्तिसे (निषेधसे ) अप्रमाणता तथा फलाभावकी व्यवस्था भी क्यो न हो ' क्योंकि, जैसे विजातीयसे वस्तुकी व्यावृत्ति होती है तैसे ही सजातीय वस्तुओं में भी एकसे दूसरेकी व्यावृत्ति होसकती है । इसलिये प्रमाणसे प्रमाणके फलको कथंचित् जुदा ही मानना चाहिये । क्योंकि, यह साध्य है, यह साधन है ऐसी जो जुदी २ प्रतीति होती है वह निष्कारण नही है । 2 १ एक वस्तुमें जो गुणगुणी, स्वभावस्वभाववान्, पर्यायपर्यायी आदिक अनेक अवस्था होती हैं उन अवस्थाभोके साथ जो वस्तुका सबध हो वह तादात्म्य है । रा. जै. शा ॥ १२८॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये हि साध्यसाधनभावेन प्रतीयेते ते परस्परं भिद्यते । यथा कुठारच्छिदिक्रिये इति । एवं यौगाभिप्रेतः प्रमाणात्फलस्यैकान्तभेदोऽपि निराकर्तव्यः, तस्यैकप्रमातृतादात्म्येन प्रमाणात्कथंचिदभेदव्यवस्थितेः प्रमाणतया परिNणतस्यैवात्मनः फलतया परिणतिप्रतीतेः; यः प्रमिमीते स एवोपादत्ते परित्यजत्युपेक्षते चेति सर्वव्यवहारिभिरस्खलितमनुभवात् । इतरथा स्वपरयोः प्रमाणफलव्यवस्थाविप्लवः प्रसज्यत इत्यलम् । जो साध्यसाधनरूपसे प्रतीत होते है वे सर्वथा परस्पर भिन्न ही होते है। जैसे-कुल्हाड़ी और उसके द्वारा किसीका काटना| (छेदनकर्म ) ये दोनो जुदे जुदे है । इस प्रकार नैयायिक (योगमती ) ने जो प्रमाण और प्रमाणके फलमें सर्वथा भेद कहाहै वह भी मानना उचित नहीं है । क्योंकि; निश्चय करनेवाले प्रमाता पुरुषके साथ एकरूप होकर ही प्रमाण तथा प्रमाणके फलकी प्रवृत्ति होती है। इसलिये प्रमाणसे प्रमाणका फल किसीअपेक्षा एकखरूप भी सिद्ध होता है। यह भी क्योंकि प्रमाणपनेसे परिणत हुए आत्माकी परिणति ही फलरूप प्रतीत होती है। आत्माके सिवाय दूसरी जगह फलकी परिणति नहीं होसकती है। यह भी क्योंकि जो आत्मा किसी पदार्थका निश्चय (प्रमिति ) करता है वही आत्मा ग्राह्य होनेपर उस पदार्थको ग्रहण करता है, हेय होनेपर छोड़ देता है अथवा उदासीन होनेपर उपेक्षा करदेता है; ऐसी अवाधित प्रतीति सर्व संसारको है। ऐसी प्रतीति यदि न हो तो अपने तथा परके प्रमाण फलकी व्यवस्थाका नाश होजाय । यहांपर इतना खंडन ही बहुत है। al अथ वा पूर्वार्द्धमिदमन्यथा व्याख्येयम् । सौगताः किलेत्थं प्रमाणयन्ति । सर्व सत् क्षणिकं; यतः सर्व तावद् घटादिकं वस्तु मुद्रादिसंनिधौ नाशं गच्छद् दृश्यते । तत्र येन स्वरूपेणान्त्यावस्थायां घटादिकं विनश्यति तच्चेस्वरूपमुत्पन्नमात्रस्य विद्यते तदानीमुत्पादानन्तरमेव तेन नष्टव्यमिति व्यक्तमस्य क्षणिकत्वम् । अथेदृश एव स्वभावस्तस्य हेतुतो जातो यत्कियन्तमपि कालं स्थित्वा विनश्यति । एवं तर्हि मुद्गरादिसंनिधानेऽपि एष एव ) तस्य स्वभाव इति पुनरप्यनेन तावन्तमेव कालं स्थातव्यम् । इति नैव विनश्येदिति । सोऽयमदित्सोर्वणिजःप्रतिदिनं पत्रलिखितश्वस्तनदिनभणनन्यायः । तस्मात् क्षणद्वयस्थायित्वेनाप्युत्पत्तौ प्रथमक्षणववितीयेऽपि क्षणे क्षणद्वयस्थायित्वात्पुनरपरक्षणद्वयमवतिष्ठेत । एवं तृतीयेऽपि क्षणे तत्स्वभावत्वान्नैव विनश्येदिति ।। अथवा इस ऊपर कहे हुए स्तोत्रके पहिले आधे भागका व्याख्यान दूसरी रीतिसे करते है।-सौगतलोग इस प्रकारसे Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादमं. ॥१२९॥ निश्चय करते है कि संपूर्ण सत्पदार्थ क्षणिक है। क्योंकि; सर्व ही घटादि वस्तु मूसल आदिक ऊपर गिरपडनेपर नष्ट होते हुए राज दीखते है। जिस खरूपसे अंतअवस्थामें घटादि वस्तु नष्ट होते है वही स्वरूप उत्पन्न होते समय भी पदार्थमें विद्यमान है इसलिये उत्पन्न होनेके अनंतर ही प्रत्येक पदार्थ नष्ट होजाना चाहिये । इस प्रकार सभी वस्तुओंमें क्षणध्वसीपना सिद्ध होता है। शङ्का–यदि अपनी उत्पत्तिके कारणभूत सहायकोंके द्वारा प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न ही ऐसा होता हो जो उत्पत्तिके अनंतर कुछ काल ठहरकर नष्ट होजाता हो तो क्षणध्वंसीपना खभाव क्यों माने? ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि, यदि वस्तुका खभाव क्षणध्वंसी न मानाजायगा तो मुद्रादिक (मूसल) पड़नेपर भी उस पदार्थका विद्यमान रहनेका खभाव वदल न सकेगा और इसीलिये उसको मूसल | वगैरह ऊपर गिरपड़नेपर भी जैसाका तैसा ही विद्यमान रहना चाहिये नष्ट न होना चाहिये। इस प्रकार यह सब नहीं देनेकी इच्छा al रखनेवाले वनियेका पत्रमें लिखे हुए ऋणको प्रत्येक दिवस आगामी कलदिन देनेका वायदा करना जैसा ही न्याय (कहावत ) । है । अर्थात् जिस समय किसी पदार्थका किसी कारणसे नाश होगा तभी हम पूछ सकते है कि यह पदार्थ नाशके कारण मिलनेपर | भी अभी नष्ट क्यों हुआ क्योंकि, अभी इसके नष्ट होनेका समय नहीं था इसलिये जैसाका तैसा ही ठहरारहना चाहिये था। इस दोषके भयसे यदि दो क्षण ठहरनेका स्वभाव भी माना जाय तो भी उत्पत्तिके वाद प्रथम समयके समान दूसरे समयमें भी दो क्षण ठहरनेका स्वभाव विद्यमान रहनेसे और भी आगे दो क्षणतक ठहरना चाहिये । इसीप्रकार फिर तीसरे आदिक क्षणों में भी दो क्षण ठहरनेका स्वभाव विद्यमान रहनेसे कभी नष्ट न होना चाहिये ।। स्यादेतत् "स्थावरमेव तत् स्वहेतोर्जातं परं वलेन विरोधकेन मुद्गरादिना विनाश्यते" इति तदसत् । कथं पुनरेतद् घटिष्यते "नच तद्विनश्यति स्थावरत्वाद्विनाशश्च तस्य विरोधिना वलेन क्रियत" इति? न ह्येतत्संभवति जी वति च देवदत्तो मरणं चास्य भवतीति । अथ विनश्यति तर्हि कथमविनश्वरं तद्वस्तु हेतोर्जातमिति ? न हि | घियते चाऽमरणधर्मा चेति युज्यते वक्तुम्। तस्मादविनश्वरत्वे कदाचिदपि नाशाऽयोगाद् दृष्टत्वाच नाशस्य नश्वव रमेव तद्वस्तु स्वहेतोरुपजातमङ्गीकर्त्तव्यम्। तस्मादुत्पन्नमात्रमेव तद्विनश्यति । तथा च क्षणक्षयित्वं सिद्धं भवति । ५ ॥१२९॥ ___ यदि कदाचित् ऐसा कहों कि पदार्थ तो अपने उत्पत्तिके कारणोसे ठहरनेका खभाव लेकर ही उत्पन्न होता है परंतु उसके विरोधी मूसल आदिकसे बलात्कार नष्ट किया जाता है परंतु यह भी असत्य है । क्योंकि ऐसा कहनेसे परस्पर विरुद्ध ये दो वचन Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नही घटसकैगे कि "वह नष्ट तो होता नही है क्योंकि वह स्थावर है परंतु बलवान् विरोधीसे उसका नाश होजाता है"। यह कथन सर्वथा झूठ है कि देवदत्त तो जीरहा है परंतु किसी कारणवश उसका मरण होरहा है। यदि नष्ट होता है तो वह वस्तु अपने कारणो द्वारा नवीन उत्पन्न होता हुआ भी अविनाशी कैसा ? मरता भी हो और अमर भी हो यह कहना नही वनसकता है। इसलिये यदि अविनाशी है तो कभी भी नाश न होना चाहिये परंतु नाश दीखता तो है इसलिये अपनी उत्पत्तिके कारणो द्वारा उत्पन्न होते समय ही वस्तु नश्वर मानना चाहिये । इस कहनेसे उत्पन्न होते ही वस्तुका नाश सिद्ध होता है। और इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थमें क्षणध्वंसीपना सिद्ध होता है। - प्रयोगस्त्वेवं “यद्विनश्वरस्वरूपं तदुत्पत्तेरनन्तराऽनवस्थायि । यथान्त्यक्षणवर्ति घटस्य स्वरूपम् । विनश्वरस्वरूपं च रूपादिकमुदयकाले" । इति स्वभावहेतुः । यदि क्षणक्षयिणो भावाः कथं तर्हि स एवायमिति प्रत्यभिज्ञा स्यात् ? उच्यते-निरन्तरसदृशाऽपरापरोत्पादादविद्यानुबन्धाच पूर्वक्षणविनाशकाल एव तत्सदृशं क्षणान्तरमुदयते । तेनाकारविलक्षणत्वाऽभावादव्यवधानाच्चात्यन्तोच्छेदेऽपि स एवायमित्यभेदाऽध्यवसायी प्रत्ययः प्रसूयते । अत्य न्तभिन्नेष्वपि लूनपुनरुत्पन्नकुशकेशादिषु दृष्ट एवायं स एवायमिति प्रत्ययः । तथेहापि किं न संभाव्यते ? सातस्मात्सर्वं सत् क्षणिकमिति सिद्धम् । अत्र च पूर्वक्षण उपादानकारणमुत्तरक्षण उपादेयम् । इति पराभिप्रायमङ्गी कृत्याह “न तुल्यकालः” इत्यादि। | इस प्रकरणमें अनुमान भी इस प्रकार वोला जासकता है । “जो विनश्वर है वह उत्पत्तिके अनतर भी ठहर नही सकता है । जैसे अंतसमयमें नष्ट होते हुए घड़ेका स्वरूप ठहर नही सकता है। इसी प्रकार अन्य भी रूपादिमय सर्व पदार्थ उदयके समय ही विनाशीक है इसलिये उत्पत्तिके अनंतर भी क्षणध्वंसी है अर्थात् ठहर नहीं सकते है"। इस प्रकार यह खभावहेतुवाला अनुमान है। यदि समग्र पदार्थ क्षणध्वंसी ही है तो यह वही है ऐसा प्रत्यभिज्ञान कैसे होता है ? (क्योंकि पूर्वकालमें देखे हुऐ पदार्थको ही दूसरी बार देखनेपर प्रत्यभिज्ञान होता है)। इस शंकाका समाधान यह है कि निरंतर एकसमान अनेक पर्यायोंकी उत्तरोत्तर उत्पत्ति होनेसे तथा १ अनुमानके साधनेवाले हेतु तीन प्रकार होते हैं एक कार्य हेतु, दूसरा स्वभाव हेतु और तीसरा सामान्यतो दृष्ट । जिस हेतुका साध्यके साथ Kalकार्यकारणभावादिक कोई भी संबंध-संभव नहीं हो -कितु स्वभावमात्र ही अविनाभावनियमका साधक हो वह स्वभाव हेतु है । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादम. रा.जै.शा. ११३०॥ अविद्याके वश होनेसे ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है कि यह वही है। पूर्व क्षणके नष्ट होते ही उसके समान दूसरा क्षण उत्पन्न हो- जाता है इस प्रकार कभी भी पूर्वाकारका नाश न दीखनेसे और पूर्व क्षणके नाश तथा उत्तर क्षणकी उत्पत्तिमें अंतर (व्यवधान) न पड़नेसे पूर्व पर्यायका सर्वथा नाश होनेपर भी वह ही यह है ऐसी अभेदबुद्धि उत्पन्न होसकती है। पहिले काटडाले हुए तथा फिरसे उत्पन्न हुए कुशा (त्रणविशेष), केशादिकोंकी पूर्वापर अवस्थाओमें अत्यन्त भेद होनेपर भी यह वही है ऐमा ज्ञान उत्पन्न होता हुआ जैसे दीखता है तैसे ही यहांपर (प्रकरणमें) भी क्यों सभव न हो? इस प्रकार सपूर्ण सत्पदार्थ क्षणिक ही हैं ऐसा सिद्ध हुआ। यहांपर (क्षणध्वंसी स्वभावमें) पूर्वक्षण तो उपादोन कारण है और उत्तरक्षण उसका कार्य (उपादेय) है । इस प्रकार जो नौद्धोका अभिप्राय है उसका निराकरण करनेके अभिप्रायसे ही आचार्यने उपरिके श्लोकमें "न तुल्यकालः" इत्यादि कहा है। की ते विशकलितमुक्तावलीकल्पा निरन्वयविनाशिनः पूर्वक्षणा उत्तरक्षणान् जनयन्तः किं स्वोत्पत्तिकाले एव जन यन्ति उत क्षणान्तरे ? न तावदाद्यः समकालभाविनोयुवतिकुचयोरिवोपादानोपादेयभावाऽभावात् । अतः साधूक्तः “न तुल्यकालः फलहेतुभावः” इति। न च द्वितीयः। तदानीं निरन्वयविनाशेन पूर्वक्षणस्य नष्टत्वादुत्तरक्षणजनने कुतः संभावनापि? न चानुपादानस्योत्पत्तिर्दृष्टा; अतिप्रसवात्। इति सुष्ठ व्याहृतं "हेत विलीने न फलस्य भावः" इति । पदार्थस्त्वनयोः पादयोः प्रागेवोक्तः । केवलमत्र फलमुपादेयं हेतुरुपादानं तद्भाव उपादानोपादेयभाव | इत्यर्थः। | वे सर्वथा खतब टूटी हुई मोतियोंकी मालाके समान उत्तरपर्यायको विना उत्पन्न किये ही सर्वथा नष्ट होते हुए पूर्वक्षणवर्ती जपर्याय क्या अपने उत्पत्तिके समय ही उत्तरक्षणवर्ती पर्यायोको उत्पन्न करदेते हैं अथवा उत्पत्तिसमयके वाद ? अपने उत्पत्तिसमयमें तो वे उत्तरक्षणवर्ती पर्यायोंको उत्पन्न कर नहीं सकते। क्योंकि युवतिके दोनो कुचोंके समान एक ही कालमें होनेवाले दो पदाथोंमें 7 उपादान तथा उपादेयपना अर्थात् कारणकार्यपना नहीं होसकता है। इसीलिये यह ठीक कहा है "न तुल्यकालः फलहेतुभावः।" अर्थात् एक ही समयमें कार्यको उत्पन्न करनेवाला उपादान कारण तथा उसका कार्य संभव नहीं होसकते है। दूसरे पक्षसे भी अर्थात् ४ खय उत्पन्न होनेके बाद भी उत्तरक्षणवर्ती पर्यायोंको उत्पन्न करना संभव नहीं है। क्योंकि उस दूसरेही क्षणमें उपादान कारणरूप 2. जो असत्य संसारको सत्यरूप अनुभव करावे वह अविद्या है। २ किसी भी उत्पन्न हुए पर्यायकी पूर्व अवस्थाको उसका उपादान कारण कहते हैं। ॥१३०॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वपर्यायका सर्वथा सम्बंधरहित नाश होचुकता है इसलिये अपनी उत्पत्तिके दूसरे समयमें जब खयं आप ही नहीं है तब उत्तरक्षणवर्ती पर्यायकी उत्पत्ति करना किस प्रकार संभव हो? और उपादानके विना किसीकी उत्पत्ति होती भी नही है। यदि होने लगे तो अतिव्याप्ति दोष आजायगा । अर्थात् विना उपादान कारणके भी यदि कार्यकी उत्पत्ति मानी जाय तो विना माताके पुत्रकी उत्पत्ति होना। इत्यादि प्रकारसे कार्यकारणादि नियमोका भंग होजायगा। इसीलिये यह ठीक कहा है " हेतौ विलीने न फलस्य भावः " अर्थात् उपादान कारणका सर्वथा ( निरन्वय ) नाश होनेपर कार्यकी उत्पत्ति नहीं होसकती है । इस आधे श्लोकका शब्दार्थ तो पहिले ही कह दिया था। यहां तो केवल फलरूप उपादेय अर्थात् कार्य और हेतुरूप उपादान कारणका कार्यकारणभाव ( उपादानोपादेयभाव) संबंधमात्र दिखाया है। | यच्च क्षणिकत्वस्थापनाय मोक्षाकरगुसेनानन्तरमेव प्रलपितं तत् स्याद्वादवादे निरवकाशमेव निरन्वयनाशवर्ज; कथंचित्सिद्धसाधनात् प्रतिक्षणं पर्यायनाशस्यानेकान्तवादिभिरभ्युपगमात् । यदप्यभिहितं न ह्येतत् संभवति जीवनाति च देवदत्तो मरणं चास्य भवतीति तदपि संभवादेव न स्याद्वादिनां क्षतिमावहति । यतो जीवनं प्राणधाकरणं मरणं चायुर्दलिकक्षयः। ततो जीवतोऽपि देवदत्तस्य प्रतिसमयमायुर्दलिकानामुदीर्णानांक्षयादुपपन्नमेव मरणम् । न च वाच्यमन्त्यावस्थायामेव कृत्स्नायुर्दलिकक्षयात् तत्रैव मरणव्यपदेशो युक्त इति; तस्यामप्यवस्थायां न्यक्षेण तत्क्षयाऽभावात् । तत्रापि ह्यवशिष्टानामेव तेषां क्षयो न पुनस्तत्क्षण एव युगपत्सर्वेषाम् । इति सिद्धं गर्भादारभ्य प्रतिक्षणं मरणमित्यलं प्रसङ्गेन। __अब क्षणिकपना सिद्ध करनेके अभिप्रायसे मोक्षाकरगुप्तने अभी हालमें जो कुछ प्रलाप किया है वह (नाश) भी स्याद्वादमय || कथनमें अवकाशरहित निरन्वय नाश छोड़कर पर्यायकी अपेक्षा सिद्ध होता है इसलिये किसी अपेक्षासे सिद्ध हुएका ही सिद्ध करना है। क्योंकि पर्यायका नाश अनेकान्तवादियोने भी माना ही है। और भी जो " यह नही संभव है कि देवदत्त जीरहा है और मरण भी उसका होता है। ऐसा दोष अभी पूर्वमें कहा गया है सो वह भी स्याद्वादियोंकेलिये हानिकारक नहीं क्योंकि; जीवन नाम प्राणधारणका है और मरण आयुके अंशोके नाश होनेका नाम है इसलिये प्राणधारण रहनेसे जीते हुए भी देवदत्तका प्रतिसमय उदय आनेवाले आयुके निषेकोका अर्थात् आयुकर्मके हिस्सोका फलदेनेके अनंतर क्षय होते रहनेसे प्रत्येक Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥१३१॥ समय मरण होना संभव है। आयुके अंतसमय ही संपूर्ण आयुकर्मके दलों ( हिस्सो ) का क्षय होनेसे उसी समय मरण कहना चाहिये यह कहना भी ठीक नही है। क्योंकि; उस अतअवस्थाके समय भी उनका नाश प्रत्यक्ष तो है नहीं; और उस समय क्षय भी आयुके उन्ही हिस्सोंका होता है जो प्रतिसमय क्षय होते होते उस समयतक अवशिष्ट रहजाते हैं; न कि उसी समय सपूर्ण आयुके भागोंका । इस कथन के द्वारा गर्भसे लेकर प्रत्येक समय मरण होना भी सिद्ध होता है । इसलिये अधिक कहना व्यर्थ है । अथवाऽपरथा व्याख्या । सौगतानां किलार्थेन ज्ञानं जन्यते । तच्च ज्ञानं तमेव स्वोत्पादकमर्थ गृह्णातीति "नाSकारणं विषयः” इति वचनात् । ततश्चार्थः कारणं ज्ञानं च कार्यमिति । एतच्च न चारु यतो यस्मिन् क्षणेऽर्थस्य स्वरूपसत्ता तस्मिन्नद्यापि ज्ञानं नोत्पद्यते; तस्य तदा स्वोत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात् । यत्र च क्षणे ज्ञानं समुत्पन्नं तत्रार्थोऽतीतः । पूर्वापरकालभावनियतश्च कार्यकारणभावः । क्षणातिरिक्तं चावस्थानं नास्ति । ततः कथं ज्ञानस्योत्पत्तिः ? कारणस्य विलीनत्वात् । तद्विलये च ज्ञानस्य निर्विषयताऽनुपज्यते; कारणस्यैव युष्मन्मते तद्विपयत्वात् । निर्विषयं च ज्ञानमप्रमाणमेवाकाशकेशज्ञानवत् । ज्ञानसहभाविनश्चार्थक्षणस्य न ग्राह्यत्वं तस्याऽकारणत्वात् । अत आह “न तुल्यकालः" इत्यादि । ज्ञानार्थयोः फलहेतुभावः कार्यकारणभावस्तुल्यकालो न घटते; ज्ञानसहभाविनोऽर्थक्षणस्य ज्ञानाऽनुत्पादकत्वात्; युगपद्भाविनोः कार्यकारणभावाऽयोगात् । अथ प्राचोऽर्थक्षणस्य ज्ञानोत्पादकत्वं भविष्यति तन्न; यत आह " हेतौ" इत्यादि । हेतावर्थरूपे ज्ञानकारणे विलीने क्षणिकत्वान्निरन्वयं विनष्टे न फलस्य ज्ञानलक्षणकार्यस्य भाव आत्मलाभः स्यात् । जनकस्यार्थक्षणस्यातीतत्वान्निर्मूलमेव ज्ञानोत्थानं स्यात् । अब दूसरे प्रकारसे इसीकी व्याख्या करते हैं । बुद्धमतावलंबियोंने पदार्थसे ज्ञानकी उत्पत्ति मानी है और वह ज्ञान अपने उत्पन्न करनेवाले पदार्थको ही जान सकता है ऐसा माना है। क्योंकि " ज्ञानको उत्पन्न करनेवाला ही ज्ञानका विषय होता है " ऐसा उनके शास्त्रका वचन है । इसलिये पदार्थ तो कारण और ज्ञान कार्य हुआ । परंतु यह मानना अच्छा नही है । क्योंकि; जिस समय पदार्थका स्वरूप विद्यमान है उस समय के अंततक भी ज्ञान नहीं उपजता है । सो भी क्योंकि; उस समय वह पदार्थ अपनी उत्पत्ति होनेमें ही लगा रहता है। और जिस ( दूसरे ) समय ज्ञान उत्पन्न होता है तब पदार्थ नष्ट होजाता है ( क्योंकि; प्रत्येक पदार्थ क्षणध्वंसी है ) । क्योंकि, कार्यकारणभावका यही नियम है कि क्रमसे पूर्वोत्तर कालमें होवें । और बौद्धमतमें रा. जै. शा. ॥१३१॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थकी स्थिति क्षणमात्रसे अधिक है ही नहीं। इसलिये ज्ञानकी उत्पत्ति कैसे हो? क्योंकि; कारणका तो नाश होचुका है। और जिससे ज्ञान उत्पन्न होता है उसके नाश होनेपर ज्ञान निर्विषय रहजाता है। क्योंकि तुम्हारे (बौद्धोंके) मतमें ज्ञानका कारण ही ज्ञानका विषय मानागया है । और निर्विषय ज्ञान आकाशमें दीखते हुए बालोके ज्ञानके समान अप्रमाण ही होता है । और उस ज्ञानके साथवाले क्षणमें उत्पन्न होनेवाला पदार्थ उस ज्ञानका विषय हो नही सकता है । क्योंकि वह उस ज्ञानका कारण ही नहीं है। (बौद्धमतमें कारणरूप पदार्थ ही ज्ञानका विषय मानागया है)। इसलिये मूलग्रन्थकार कहते है कि "न तुल्यकालः" इत्यादि । अर्थात् ज्ञान और पदार्थमें फल ( कार्य ) और हेतुपना अर्थात् कार्यकारणपना समान कालमें नहीं होसकता है । क्योंकि; ज्ञानके साथ साथ उत्पन्न होनेवाला पदार्थ उस ज्ञानको उत्पन्न नही करता है । सो भी क्योंकि; एक साथ उत्पन्न होनेवाले दो पदार्थों में | ( गायके दोनो सींगोके समान ) एकदूसरेका कार्यकारणपना संभव नहीं है । यदि कहा जाय कि उस ज्ञानसे पहिले उत्पन्न हुआ से उत्पन्न करदेगा सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि "हेतौ विलीने न फलस्य भावः " ऐसा पहिले कहचुके है। भावार्थ-हेतुका अर्थात् जो पदार्थ ज्ञानका कारण माना जाय उसका निरन्वय नाश होनेपर उस नष्ट हुए पदार्थसे फलकी (ज्ञानरूप कार्यकी) उत्पत्ति नहीं होसकती है किंतु उस ज्ञानको उत्पन्न करनेवाले पदार्थके नष्ट होजानेपर विनाकारण ही होगी।। | जनकस्यैव च ग्राह्यत्वे इन्द्रियाणामपि ग्राह्यत्वापत्तिः, तेषामपि ज्ञानजनकत्वात् । न चाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामथार्थस्य ज्ञानहेतुत्वं दृष्टं; मृगतृष्णादौ जलाभावेपि जलज्ञानोत्पादादऽन्यथा तत्प्रवृत्तेरसंभवात् । भ्रान्तं तज्ज्ञानमिति । चेन्ननु भ्रान्ताभ्रान्तविचारः स्थिरीभूय क्रियतां त्वया । सांप्रतं प्रतिपद्यस्व तावदनर्थजमपि ज्ञानम् । अन्वयेनार्थ-|| स्य ज्ञानहेतुत्वं दृष्टमेवेति चेन्न हि तद्भावे भावलक्षणोऽन्वय एव हेतुफलभावनिश्चयनिमित्तमपि तु तदभावेऽभावलक्षणो व्यतिरेकोपि । स चोक्तयुक्त्या नास्त्येव । | और उत्पन्न करनेवाले पदार्थको ही यदि प्रत्येक ज्ञान जान सकता हो तो जिस इंद्रियसे उत्पन्न होता है उसको भी क्यों न जाने क्योंकि; वह इंद्रिय भी उस ज्ञानको उत्पन्न करनेवालोमेंसे एक है । दूसरा दोष यह है कि जहां ज्ञान हो वहां उसको उपजाने । कावाला नियसे हो तथा जहां पदार्थ न होवहां ज्ञान भी न उपजता हो ऐसा अन्वयव्यतिरेकरूप नियम भी ज्ञानके प्रति पदार्थमें नहीं है। क्योंकि, ऊसर भूमिमें मरीचिका दीखनेपर उसमें जल समझकर प्रवृत्ति होनेलगती है इसलिये वहां जलज्ञान हुआ तो नि Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादम. ॥१३२॥ श्चित है परंतु उस जलज्ञानको पैदा करनेवाला जल है ही नहीं। यदि कहाजाय कि वह ज्ञान भ्रमरूप है तो भ्रमात्मक है या राज-शा. सच्चा है ऐसा विचार तो पीछेसे स्थिर होकर करलेना । सवसे प्रथम तो यह खीकार करना चाहिये कि ज्ञान पदार्थके विना भी । होसकता है। यदि कहो कि जहां ज्ञान होता है वहां कुछ नकुछ पदार्थ रहता ही है इसलिये ज्ञानका जनक पदार्थ ही है परंतु यह कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि जहां ज्ञान होता है वहां कुछ नकुछ पदार्थ रहता ही है इतने मात्रसे यह सिद्ध नहीं । होसकता है कि पदार्थ ही ज्ञानका जनक है। किंतु जहां पदार्थ न हो वहां ज्ञान भी न हो ऐसा नियम यदि मिलै तो यह स्वीकार र सकते है कि ज्ञानका जनक पदार्थ ही है । परंतु यह (व्यतिरेकरूप) नियम तो सिद्धही नहीं होता है ऐसा युक्तिपूर्वक अभी कहचुके हैं। ____ योगिनां चाऽतीताऽनागतार्थग्रहणे किमर्थस्य निमित्तत्वं? तयोरसत्त्वात् " ण णिहाणगया भग्गा पुंजो णत्थि अणागए। णिव्वुया व चिट्ठति आरग्गे सरिसोवमा (संस्कृतच्छाया-न निधानगता भग्नाः पुञ्जो नास्ति अनागतस्य। निर्वृताः नैव तिष्ठन्ति आराग्रे सर्पपोपमाः)" इति वचनात् । निमित्तत्वे चार्थक्रियाकारित्वेन सत्त्वादतीतानागतत्वक्षतिः । न च प्रकाश्यादात्मलाभ एव प्रकाशकस्य प्रकाशकत्वं प्रदीपादेर्घटादिभ्योऽनुत्पन्नस्यापि तत्प्रकाशकत्वात् । जनकस्यैव च ग्राह्यत्वाऽभ्युपगमे स्मृत्यादेः प्रमाणस्याऽप्रामाण्यप्रसङ्गस्तस्यार्थाऽजन्यत्वात् । न ) च स्मृतिने प्रमाणम्; अनुमानप्रमाणप्राणभूतत्वातः साध्यसाधनसम्बन्धस्मरणपूर्वकत्वात्तस्य । योगियोंके ज्ञानमें अतीत और आगामी पदार्थ भी झलकते है परंतु उस समय वे पदार्थ ही यदि नहीं है तो उस ज्ञानमें ५ निमित्तरूप कैसे होसकते है ? क्योंकि, ऐसा कहा भी है " जो पदार्थ नष्ट होगये वे किसी भंडारमें जमा नहीं है तथा जो अभी उत्पन्न ही नहीं हुए ऐसे आगामी होनेवाले पदार्थोंका भी कहीं ढेर नहीं लगा है । जो उत्पन्न होते हैं वे सूईकी अनीपर रक्खी हुई सरसोके समान चिरकालकेलिये ठहर नहीं सकते है"। और यदि अतीत तथा आगामी पदार्थ भी ज्ञानके जनक माने जाय । तो आवश्यकीय क्रियाके जनक होनेसे वे भी विद्यमान ही है ऐसा मानना चाहिये; न कि अतीत तथा आगामी। क्योंकि जब कारण ॥१३२। कारणके न रहनेपर कार्यका न उपजना इस नियमको व्यतिरेक कहते हैं। कार्यके होते हुए कारणका नियमसे उपस्थित रहना इस नियमको अन्वय कहते हैं। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विद्यमान हो तभी अपने कार्यको जनसकता है, जोखुद अपने शरीरसे ही विद्यमान नहीं है वह किसी कार्यको पैदा क्या करेगा? इस लिये यदि पदार्थको ज्ञानका कारण माने तो वे पदार्थ अतीत हों वा आगामी, परंतु सभी विद्यमान मानने पड़ेंगे; कोई भी अतीत तथा आगामी न रहसकैगा। यदि कहों कि प्रकाश होने योग्य पदार्थोंसे उपजना ही ज्ञानका (प्रकाशकका) प्रकाशकपना है परंतु यह कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि; दीपक पदार्थोसे उत्पन्न नही होकर भी उनका प्रकाश करता है । ज्ञान उसीको प्रकाशता है जो उसको पैदा करै ऐसा माननेसे और भी एक दोष आता है । वह यह है कि स्मृति अथवा व्याप्तिज्ञान किसी पदार्थ से उत्पन्न नहीं होते तो भी वे प्रमाण हैं परंतु जनकको प्रकाश करनेवाले ज्ञानको ही प्रमाण माननेवालोके लिये वे अप्रमाण ही रहैगे । स्मृतिज्ञान तो प्रमाण ही नही है ऐसा भी नहीं कहसकते हैं। क्योंकि स्मृति ही अनुमानप्रमाणका प्राण है; जब साध्यसाधनके अवि नाभाव संबंधका स्मरण होजाता है तभी अनुमान होता है; प्रथम नही । | जनकमेव च चेद् ग्राह्यं तदा स्वसंवेदनस्य कथं ग्राहकत्वम् ? तस्य हि ग्राह्यं स्वरूपमेव । न च तेन तजन्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । तस्मात्स्वस्वसामग्रीप्रभवयोर्घटप्रदीपयोरिवार्थज्ञानयोः प्रकाश्यप्रकाशकभावसंभवान्न ज्ञाननिमित्तत्वमर्थस्य । नन्वर्थाऽजन्यत्वे ज्ञानस्य कथं प्रतिनियतकर्मव्यवस्था ? तदुत्पत्तितदाकारताभ्यां हि सोपप द्यते । तस्मादनुत्पन्नस्याऽतदाकारस्य च ज्ञानस्य सर्वार्थान् प्रत्यविशेषात्सर्वग्रहणं प्रसज्येत । नैवं तदुत्पत्तिमन्तरेजाणाप्यावरणक्षयोपशमलक्षणया योग्यतयैव प्रतिनियतार्थप्रकाशकत्वोपपत्तेः । तदुत्पत्तावपि च योग्यताऽवश्यमेष्टव्या । अन्यथाऽशेषार्थसांनिध्ये तत्तदर्थाऽसांनिध्येपि कुतश्चिदेवार्थात् कस्यचिदेव ज्ञानस्य जन्मेति कौतस्कुतोऽयं विभागः? ___ यदि जनक पदार्थ ही ज्ञानका विषय होसकता है ऐसा माना जाय तो खानुभवनरूप ज्ञानका विषय कोनसा होगा ? यदि उस Kalज्ञानका खरूप ही उस ज्ञानका विषय माना जाय तो यह नियम टूटता है कि प्रत्येक ज्ञान अपने जनकको ही विषय करता है।। क्योंकि; अपनेसे ही अपनी उत्पत्ति होना संभव नही है । सो भी क्योंकि जब आप स्वयं होचुकै तब अपने उत्पन्न करनेको अपनेमें क्रिया पैदा करसकै और जब वह क्रिया होजाय तब अपनी उत्पत्ति होसकै। इस प्रकार एककी उत्पत्ति दूसरेकी उत्पत्ति होनेकेला आश्रित होनेसे तथा दूसरेकी उत्पत्ति एक पहिलेकी उत्पत्तिके आधीन होनेसे कोई भी क्रिया नहीं होसकती है। और जबतक उत्पन्न || Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं ॥१३३॥ करनेकी क्रिया ही न होगी तबतक अपनेसे अपनेकी उत्पत्ति कैसी । इसलिये जैसे दीपक अपनी भिन्न सामग्रीसे पैदा होकर भी राजै.शा, घटादिक पदार्थोको प्रकाशता है तैसे ज्ञान भी प्रकाशनेयोग्य पदार्थोंसे उत्पन्न न होकर ही पदार्थोंको प्रकाशता है। ज्ञान तथा ॐ पदार्थोमें कार्यकारणरूप संबंध नही है। पदार्थोंसे न उपजकर ही ज्ञान पदार्थोको प्रकाशता है यह माननेसे घड़ेका ज्ञान घड़ेको क ही प्रकाशता है अन्यको नही ऐसा नियम कैसे होसकैगा ! " जिस पदार्थको ज्ञान प्रकाशता है उसीसे उस ज्ञानकी उत्पत्ति तथा उसी पदार्थकासा उस ज्ञानका आकार जब हम मानते है तब तो यह नियम होसकता है कि घड़ेका ज्ञान घडेको ही प्रकाश सकता है । अन्यको नही । परंतु यदि ज्ञानकी उत्पत्ति नियत पदार्थसे न मानीजाय तथा उस ज्ञानका आकार भी जिसको वह प्रकाशता है। ) उसके समान न मानाजाय तो एक ज्ञान सभी पदार्थोको प्रकाशित क्यों नहीं करने लगै" । इस प्रकारकी जो शंका है वह सर्वथा - असत्य है। क्योंकि पदार्थोंसे उत्पन्न हुआ न माने तो भी योग्यताके अनुसार ज्ञानसे नियमित पदार्थका प्रकाश होना संभव है । जिस समय जिस विषयके ज्ञानको रोकनेवाला कर्म नष्ट होजाता है उस समय उसी विषयका ज्ञान प्रकाशित होसकता है अन्य नहीं। a यही ज्ञानकी योग्यता है । पदार्थसे ही ज्ञानकी उत्पत्ति माननेवालोको भी योग्यता अवश्य माननी पड़ती है। यदि न माने तो धू संपूर्ण पदार्थ समीपमें रहनेपर भी अथवा कोई कोई पदार्थ समीपमें न रहै तो भी किसी एक पदार्थसे किसीके आत्मामें तो ज्ञान Ka उत्पन्न होता है और किसीके आत्मामें नहीं यह नियम कैसे वनसकैगा ? • तदाकारता त्वर्थाकारसंक्रान्त्या तावदनुपपन्ना; अर्थस्य निराकारत्वप्रसङ्गात् ज्ञानस्य साकारत्वप्रसङ्गाच्च । १ अर्थेन च मूर्तेनामूर्तस्य ज्ञानस्य कीदृशं सादृश्यमित्यर्थविशेषग्रहणपरिणाम एव साऽभ्युपेया। ततः “अर्थेन । । घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् । तस्मात्प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता" इति यत्किञ्चिदेतत् । __ ज्ञानको पदार्थाकार मानना तो पदार्थके आकारका फेरफार होते रहनेसे असिद्ध ही है। यदि ज्ञानको पदार्थके आकार ही । 1 माना जाय तो पदार्थका आकार ज्ञानमें आजानेसे पदार्थ तो निराकार होजाना चाहिये और ज्ञान साकार (रूपी) होजाना चाहिये। परंतु ऐसा दीखता नही है । और मूर्तिमान् पदार्थके साथ अमूर्तिक ज्ञानकी समानता भी कैसी ? इसलिये किसी एक पदार्थको धु ॥१३३॥ ग्रहण करना, सवको नहीं ग्रहण करना यही ज्ञानकी पदार्थके साथ समानता माननी चाहिये । ऐसा सिद्ध होनेसे ही यह कहना ; भी किसी प्रकार सत्य होसकता है कि " जिस पदार्थके ज्ञानको रोकनेवाले कर्मका नाश होगया हो वही पदार्थ ज्ञानमें झलक Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है अन्य नही ऐसी योग्यताके सिवाय अन्य कुछ भी पदार्थकी समानता ज्ञानमें नहीं है। इसीलिये निश्चय करने योग्य पदार्थका निश्चय होजानेसे ज्ञानमें पदार्थकासा आकार होना कहसकते हैं।" | अपि च व्यस्ते समस्ते वैते ग्रहणकारणं स्याताम् ? यदि व्यस्ते तदा कपालाद्यक्षणो घटाऽन्त्यक्षणस्य जलचन्द्रो वा नभश्चन्द्रस्य ग्राहकः प्राप्नोति; यथासंख्यं तदुत्पत्तेस्तदाकारत्वाच्च । अथ समस्ते तर्हि घटोत्तरक्षण माणस्य ग्राहकः प्रसज्यते तयोरुभयोरपि सद्भावात् । ज्ञानरूपत्वे सत्येते ग्रहणकारणमिति चेत्तर्हि समानजातीयज्ञा ग्राहकत्वं प्रसज्येत तयोर्जेन्यजनकभावसनावात् । तन्न योग्यतामन्तरेणाऽन्यद् ग्रहणकारMणं पश्याम इति । और भी एक दोष यह है कि ज्ञानकी पदार्थसे उत्पत्ति होना तथा ज्ञानमें पदार्थकासा आकार होना ये दोनों पदार्थका नियत ज्ञान होनेमें जुदे जुदे कारण माने है अथवा मिलकर ? यदि एक एक कारण हैं अर्थात् कहींपर तो पदार्थसे उत्पत्ति होना ही नियत पदार्थके प्रकाशनेमें कारण है और कहींपर पदार्थकासा आकार होना ही कारण है तो घटकी प्रथम पर्यायसे तो घटकी अंतिम पर्याय उत्पन्न होती है इसलिये घटकी प्रथम पर्याय घटकी अंतिम पर्यायमें प्रकाशित होनी चाहिये और जो जलमें चंद्रमाका प्रतिबिंब पड़ता है उस प्रतिबिंबको असली चंद्रमाका ज्ञान होना चाहिये। क्योंकि; जलका चंद्रमा असली चंद्रमाका आकार ही है। परंतु घटका प्रथम पर्यायका घटकी अंतिम पर्यायको तथा जलचंद्रमाको असली चंद्रमाका ज्ञान नही होता है इसलिये पदार्थाकार तथा पदार्थसे उत्पत्ति ये जुदे जुदे तो नियत पदार्थके ज्ञान होनेमें कारण नही होसकते हैं । यदि कहों कि ज्ञान नियमित पदार्थको ही जानता है अन्यको नही इस नियममें ज्ञान जिस पदार्थको विषय करता है उस पदार्थकासा ज्ञानका आकार तथा उसी पदार्थसे उस ज्ञानकी उत्पत्ति होना ये दोनो मिलकर निमित्त हैं सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि; घड़ा फूटजानेपर उस घड़ेकी दूसरी अवस्थामें घड़ेका आकार तथा घड़ेसे उत्पत्ति ये दोनों कारण तो विद्यमान हैं परंतु तो भी वह दूसरी अवस्था उस घड़ेको जान नहीं सकती है। यदि ये दोंनो ही पदार्थका निश्चित ज्ञान होनेमें कारण होते तो यहां भी निश्चित ज्ञान होना चाहिये था । यदि कहों कि “ यदि जो ज्ञान किसी पदार्थसे उत्पन्न हुआ हो तथा उस पदार्थके ही आकारकासा हो तो वह ज्ञान उसी पदार्थको जानेगा जिससे वह उत्पन्न हुआ है तथा जिसका आकार उसमें पड़ा है किंतु यह नियम नहीं है कि कोई भी Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादमं. 19 वस्तु जिससे उत्पन्न हुई हो तथा जिसकासा आकार रखती हो उसको वह वस्तु जानसकै" सो यह कहना भी ठीक नहीं है। राजे-शा क्योंकि; पीछेसे उत्पन्न हुआ ज्ञान यद्यपि पहिले ज्ञानके सर्वथा सदृश है तथा उसीसे उत्पन्न हुआ है तथा खयं ज्ञानरूप भी है। ॥१३४॥ इसलिये सर्व कारण मिलते हैं तो भी प्रथम ज्ञानको जानता नहीं है परंतु बौद्धोंके कथनानुसार तो जानना ही चाहिये । इसलिये प्रत्येक ज्ञान अपने अपने विषयको ही जानता है अन्यको नहीं ऐसा नियम होंनेमें निमित्त कारण योग्यता ही है; योग्यताके सिवाय अन्य कोई भी निश्चायक नही दीखता है । अथोत्तरार्द्धं व्याख्यातुमुपक्रम्यते । तत्र च वाह्यार्थनिरपेक्ष ज्ञानाद्वैतमेव ये वौद्धविशेषा मन्वते तेपांप्रतिक्षेपः। तन्मतं चेदम् । ग्राह्यग्राहकादिकलङ्काऽनङ्कितं निष्प्रपञ्चं ज्ञानमात्रं परमार्थसत् । वाह्यार्थस्तु विचारमेव न क्षमते । तथा हि । कोऽयं वाह्योर्थः? किं परमाणुरूपः स्थूलावयविरूपो वा? न तावत्परमाणुरूपःप्रमाणाऽभावात् । प्रमाणं हि प्रत्यक्षमनुमानं वा ? न तावत्प्रत्यक्षं तत्साधनवद्धकक्षम् । तद्धि योगिनां स्यादस्मदादीनां वा? नाद्यम्; अत्यन्तविप्रकृष्टतया श्रद्धामात्रगम्यत्वात् । न हि द्वितीयमनुभववाधितत्वात् । न हि वयमयं परमाणुरयं परमाणुरिति स्वमेऽपि प्रतीमः स्तम्भोऽयं कुम्भोऽयमित्येवमेव नः सदैव संवेदनोदयात् । नाप्यनुमानेन तत्सिद्धिः; अणूनामतीन्द्रियत्वेन तैः सह अविनाभावस्य क्वापि लिङ्गे ग्रहीतुमशक्यत्वात् । ___ इस प्रकार चाल सूत्रमेंसे प्रथमके " न तुल्यकालः फलहेतुभावो हेतौ विलीने न फलस्य भावः" इन दो चरणोंका अर्थ " तो लिखा अब आगेके " न संविदद्वैतपथेऽर्थसंविद्विलूनशीर्ण सुगतेन्द्रजालम्" इन दो चरणोंका व्याख्यान लिखते है।" इन दो चरणोमें उन बौद्धोका खंडन है जो बाह्य पदार्थको सर्वथा न मानकर ज्ञानाद्वैत ही मानते हैं। वे ऐसा कहते है। कि यह जाननेका विषय है अथवा यह जाननेवाला है इत्यादि झगड़ोसे रहित, अनेक प्रकारके और भी प्रपंचोंसे रहित ज्ञानमात्र ही केवल यथार्थ वस्तु है । इसके सिवाय बाह्य वस्तु तो विचार करने पर ठहरता ही नहीं है अथवा सिद्ध ही नहीं होता है। कैसे नहीं सिद्ध होता है सो दिखाते हैं। बाह्य पदार्थ क्या वस्तु है ? क्या परमाणुरूप है अथवा स्थूल अवयवीरूप ? परमाणुरूप होने में तो कोई प्रमाण ही नही है। बौद्धलोग प्रमाण दो ही मानते हैं। एक तो प्रत्यक्ष और दूसरा अनुमान । यदि परमाणुरूप । मानने में कोई प्रमाण होतो बौद्धोंके अनुसार इन्ही दोमेंसे कोई एक होसकता है। यदि प्रत्यक्ष माने तो प्रत्यक्ष भी दो प्रकार है प्रथम ॥१३४॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिप्रत्यक्ष दूसरा हमलोगोंका साधारण प्रत्यक्ष । इन दोनोमेंसे योगिप्रत्यक्ष तो परमाणु साधने में उपयोगी हो नहीं सकता है क्योंकि; योगिप्रत्यक्ष अत्यंत परोक्ष होनेसे हमलोगों के गोचर ही नहीं है; केवल श्रद्धासे मानते आते हैं । अर्थात् जव श्रद्धामात्र ही गम्य है; अत्यंत परोक्ष होनेसे हमारे प्रयोजनमें ही नही आता है तो हम कैसे कह सकते हैं कि योगिप्रत्यक्षसे परमाणुरूप बाह्य पदार्थ भी जाना जासकता होगा ? हमलोगोंका प्रत्यक्ष भी परमाणुरूप बाह्य पदार्थको जाननेवाला मानना ठीक नहीं है । क्योंकि, हमलोगोंके इस साधारण प्रत्यक्षकी ऐसी शक्ति नहीं है जो इतने सूक्ष्म पदार्थको अपने गोचर करसकै । यह खंभ है यह घड़ा है इत्यादि स्थूल पदार्थों को ही हमलोग प्रत्यक्षसे समझ सकते हैं । प्रत्यक्षसे हमलोगों को यह परमाणु है यह परमाणु है इत्यादि निश्चय खनमें भी नहीं होसकता है । अनुमानज्ञान भी वहां ही प्रवर्तता है जहां उस अनुमानसे साधनेयोग्य विषयके नित्य ही साथ रहनेवाला हेतु किसी समय प्रत्यक्षसे निश्चित किया हो कि यह हेतु उस साध्यके साथ सर्वत्र और सदा रहता है । जो परमाणुरूप साध्य है वही यदि प्रत्यक्ष नही है तो उसके साथ किसी हेतुका रहना कैसे प्रत्यक्ष होसकता है ? इसीलिये अनुमान से भी परमाणुओंका सिद्ध होना दुर्लभ है । किं चामी नित्या अनित्या वा स्युः ? नित्याश्चेत्क्रमेणाऽर्थक्रियाकारिणो युगपद्वा ? न क्रमेण; स्वभावभेदेनाऽनित्यत्वापत्तेः । न युगपदेकक्षणे एव कृत्स्नार्थक्रियाकरणात् क्षणान्तरे तदभावादसत्त्वप्राप्तिः (तेः) । अनित्याश्चेत् क्षणिकाः कालान्तरस्थायिनो वा ? क्षणिकाचेत्सहेतुका निर्हेतुका वा ? निर्हेतुकाश्चेन्नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्यान्निरपेक्षत्वात् । अपेक्षातो हि कादाचित्कत्वम् । सहेतुकाश्चेत्किं तेषां स्थूलं किंचित्कारणं परमाणवो वा ? न स्थूलं; परमाणुरूपस्यैव बाह्यार्थस्याऽङ्गीकृतत्वात् । न च परमाणवः । ते हि सन्तोऽसन्तः सदसन्तो वा स्वकार्याणि कुर्युः ? सन्तश्चेत्कि - मुत्पत्तिक्षण एव क्षणान्तरे वा ? नोत्पत्तिक्षणे; तदानीमुत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात् तेषाम् । ये परमाणु किसी प्रमाणसे सिद्ध तो नहीं होते है परंतु फिर भी कुछ समयकेलिये मानलिये जांय तो भी इनका खरूप कैसा है ? क्या ये नित्य हैं अथवा अनित्य ? यदि नित्य हैं तो भी इनमेंसे एक एक की जो अनेक स्थूल पर्याय बनती हैं वे क्रम क्रमसे बनती। हैं अथवा एकसाथ ? इन परमाणुओंमें स्थूल पर्यायोंकी उत्पत्ति यदि क्रमसे मानी जाय तब तो अनेक समयोमें अनेक प्रकारके स्वभाव वदलने से ये परमाणु अनित्य ठहरते । क्योंकि; एक स्वभावका परिवर्तन होकर दूसरे खभावमें वस्तुका आजाना ही अनित्यपना Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३५॥ एकसाथ ही परिणमन होला स्थाद्वादम., है। कोई भी वस्तु सर्वथा तो नष्ट होती ही नहीं है । और यदि परमाणुओंसे जो पर्याय तीन कालमें परिणमनेवाली हैं उनका एकसाथ ही परिणमन होजाना माना जाय तो यह दोष आता है कि संपूर्ण पर्याय एक समयमें ही उत्पन्न होनी चाहिये । और । इसीलिये दूसरे समयोमें परिणमनेकेलिये कोई पर्याय अवशिष्ट न रहनेसे उन परमाणुओंका निरन्वय नाश ही होजाना चाहिये। कि प्रत्येक वस्तु प्रत्येक समयमें किसी नकिसी पर्यायरूप होकर ही ठहरती है; जब पर्याय ही वाकी नहीं हैं तो ठहरै { किस अवस्थापर ? इसलिये एक समयके अनंतर नाश होना ही चाहिये परंतु होता नहीं है । इसीलिये यदि परमाणुओंको के - अनित्य मानाजाय तो भी क्या क्षण क्षणमें उनका नाश होता है अथवा कुछ समय ठहरकर ? यदि क्षण क्षणमें नष्ट होनेवाले ( है तो क्या किसी हेतुके वश होकर अथवा हेतुके विना ही यदि हेतुके विना ही क्षण क्षणमें नष्ट होते है तो या तो सदा सतरूप ही मानने चाहिये अथवा असत्रूप ही। क्योंकि; अन्य निमित्तोंके विना जो निजका खभाव होता है वह सदा ही एकसाथ बनारहता है। एक समय जो सत्रूप है उनका दूसरे समयमें असत्रूप होजाना यह खभावभेद जो प्रत्येक समयमें बदलता रहता है वह किसी नकिसी भिन्न कारणसे ही बदल सकता है। इसीलिये यदि किसी कारणके वश होकर इनका नाश होना माना जाय । तो भी इनका कारण कोई स्थूल पदार्थ होसकता है अथवा वे ही परमाणु ? यदि स्थूल पदार्थ उस नाशका कारण माना जाय तो । स्थूल तो कोई बाह्य पदार्थ ही नहीं है; बाह्य पदार्थ जितना अंगीकार किया है उतना परमाणुरूप ही किया है। यदि परमाणु ही ___ माने जाय तो भी क्या वे सवरूप अथवा असत्रूप अथवा सत्असत् दोनोरूप होकर नाशरूप अपने कार्यको करसकते है ? यदि सत्ररूप होकर नाशरूप अपने कार्यको करसकते है ऐसा माना जाय तो भी क्या अपनी उत्पत्तिके समयमें ही नाश करते। हैं अथवा दूसरे क्षणमें अपनी उत्पत्तिके समयमें तो वे उपजनेमें ही व्यग्र रहते हैं इसलिये उस समय तो दूसरोका नाश कर नहीं सकते हैं । अर्थात् जो वस्तु जबतक सर्वथा पैदा ही नहीं होगई है किंतु उपज ही रही है तबतक वह किसी भी कार्यको क्या करसकती है ? कोई भी वस्तु खयं उत्पन्न होचुकनेके अनंतर ही किसी कार्यके करनेमें उद्यत होसकती है। ___ अथ "भूतियैषां क्रिया सैव कारणं सैव चोच्यते” इति वचनाद्भवनमेव तेषामपरोत्पत्तौ कारणमिति चे 'वं तर्हि रूपाणवो रसाणूनाम् । ते च तेषामुपादानं स्युरुभयत्र भवनाऽविशेषात् । न च क्षणान्तरे; विनष्टत्वात् ।। अथाऽसन्तस्ते तदुत्पादकास्तर्हि एकं स्वसत्ताक्षणमपहाय सदा तदुत्पत्तिप्रसङ्गस्तदसत्त्वस्य सर्वदाऽविशेषात् । सद । यदि सरूप होकर क्या वे सत्रूप अथवा असदार्थ जितना अंगीकार कियाः यदि स्थूल पदार्थ उस न इनका नाश होना माना जाता के अब “भूतिषी कस्व वयं उत्पन्न होचुका ही नहीं होगई है तु रहते हैं इसलिये उस समत्तिके समयमें ही नाश करे । पादकास्तहिं एक स्व तेषामुपादान " इति वचना करने में उद्यत होसकता वह किसी भी कार्यकार नहीं ॥१३५॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पक्षस्तु " प्रत्येक यो भवेद्दोषो द्वयो वे कथं न सः" इति वचनाद्विरोधाघ्रात एव । तन्नाणवः क्षणिकाः। V|| नापि कालान्तरस्थायिनः क्षणिकपक्षसदृक्षयोगक्षेमत्वात्। ॥ यदि "जो इनका उत्पन्न होना है वही तो क्रिया है तथा वही कारणरूप है। ऐसी किसीकी कहावत होनेसे उनकी उत्पत्ति होना धाही दूसरोकी उत्पत्तिका कारण माना जाय तो जो रूपके परमाणु तथा रसके परमाणुओंको बौद्धोने जुदा जुदा माना है वह मान ना भी व्यर्थ है। क्योंकि; एकसाथ उत्पन्न होनेवालोमें एक दूसरेका कार्यरूप तथा कारणरूप होजाना सर्वत्र समान है । अर्थात् जैसे एक परमाणु खयं उत्पन्न होते हुए भी दूसरे परमाणुकी उत्पत्तिमें सहकारी होसकता है तैसे रूपरसके परमाणु भी साथ उत्पन्न होते हुए एक दूसरेकी उत्पत्तिमें सहकारी होसकते है इसलिये रूपपरमाणु तथा रसपरमाणुओंको अपनी अपनी उत्पत्तिमें | जुदे जुदे कारण मानना व्यर्थ ही है । परंतु बौद्धलोग मानते अवश्य है। इन दोषोंके भयसे अपनी उत्पत्तिके समयमें ही ||सहकारी होना न मानकर उत्पन्न होनेके अनंतर दूसरे समयमें सहकारी होना मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, उत्पत्तिके अनं-IAYI तर दूसरे समयमें वह खयं ठहरता ही नही है; वह तो प्रथम ही नष्ट हो जाता है इसलिये नष्ट होनेपर सहकारी होना संभव || नही है । अब जिस दूसरे पक्षमें परमाणुओंको असरूप माना है उस पक्षके अनुसार यदि असत्रूप परमाणुओंको ही दूसरे परमाणुओंकी उत्पत्तिमें सहायक मानाजाय तो अपनी उत्पत्तिके समयको छोड़कर जब ये सहकारी परमाणु उत्पन्न होकर नष्ट होजांय तबसे सदा ही दूसरे परमाणुओंकी उत्पत्ति होती रहनी चाहिये। क्योंकि, असत्ररूप परमाणु जो उत्पत्तिके समयमें सहायक माने है वे असत्पनेकी अपेक्षा सदा ही एक सरीखे बने रहते हैं। तीसरे पक्षमें जो सत्असत् इन दोनोखरूप परमाणुओंको दूसरोकी उत्पत्ति में कारण | मानागया है वह सर्वथा दूषित है । क्योंकि ऐसा कहा है कि "जिस एक एक खभावके माननेमें जो दोष संभवते है वे दोष | |उन सव खभावोंके मिले हुए एक खभाव मानने में भी क्यों न संभव होंगे ? किं तु अवश्य होगे।" इसलिये नतो उत्पत्तिके समय काही नष्ट होनेवाले परमाणु दूसरे परमाणुओंके उपजनेमें सहायक होसकते हैं और न उत्पन्न होनेके अनंतर चिरकाल तक ठहरने वाले ही। क्योंकि उत्पत्तिके समय ही नष्ट होनेवाले परमाणओंको सहायक मानने में जो दोष संभवते हैं वे ही दोष चिरकालतक ठहरनेवालोमें भी संभवते है । किं चामी कियत्कालस्थायिनोऽपि किमर्थक्रियापराङ्मुखास्तत्कारिणो वा ? आये खपुष्पवदसत्त्वापत्तिः । उद Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥१३६॥ ग्विकल्पे किमसद्रूपं सद्रूपमुभयरूपं वा ते कार्यं कुर्युः ? असद्रूपं चेच्छशविषाणादेरपि किं न करणम् ? सद्रूपं चेत्सतोऽपि करणेऽनवस्था । तृतीयभेदस्तु प्राग्वद्विरोधदुर्गन्धः । तन्नाणुरूपोऽर्थः सर्वथा घटते । चिरस्थायी मानकर सहायक माननेमें और भी अधिक दोष ये आते है कि उत्पत्तिके अनंतर कितने ही कालतक ठहरते हुए भी परमाणु क्या प्रयोजनीभूत क्रियाओंसे परामुख होकर ठहरते है अथवा कुछ आवश्यकीय क्रियाओं को करते हुए ठहरते है ? यदि कुछ भी क्रिया न करते हुए ठहरे माने जांय तो यह ठहरना मानना आकाशके पुष्पसमान है । अर्थात् सच्चा ठहरना वही है जिससे कुछ भी प्रयोजनरूप कार्य होता रहै। जिसके द्वारा कुछ होता ही नही है उसके ठहरनेमें प्रमाण ही क्या है ? क्योंकि; जो विद्यमान होता है वह अवश्य कुछ नकुछ किया ही करता है । यदि कुछ करते हुए ही स्थित माने जाय तो भी क्या वह कार्य असत्रूप है वा सत्रूप है अथवा सत्असत् दोनोरूप है जिसको वे करते हैं ? यदि वह कार्य असतरूप है जिसको वे चिरस्थायी होकर करते हैं तो वे गधेके सींगोको भी क्यों नही बनाते ? क्योंकि; गधेके सींग भी ठीक वैसे ही असत्रूप है । यदि सत्रूपको करते है तो जो कार्य उत्पन्न होजाता है उसको भी करते ही रहेंगे। क्योंकि; सर्वथा जो सत् होता है उसीको वे करते हैं । इस प्रकार किये हुएको फिर भी करते करते विराम न मिलसकैगा । यदि सत् असत् दोनोरूपके कार्यको करते हुए माने जांय तो जैसा दोष प्रथम दिखा चुके हैं उसी प्रकारका यहां भी संभव है । अर्थात् जो सत्पक्ष तथा असत्पक्ष माननेमें दोष संभवते है वे सब यहां सत्भसत् दोनोरूप तीसरा पक्ष मानने में भी संभवते है । इसलिये परमाणुरूप बाह्य पदार्थ किसी प्रकार भी ६ संभव नहीं है । 1 नापि स्थूलावयविरूपः । एकपरमाण्वसिद्धौ कथमनेकतत्सिद्धिः ? तदभावे च तत्प्रचयरूपः स्थूलावयवी वाङमा - त्रम् । किं चायमनेकावयवाधार इष्यते । ते चावयवा यदि विरोधिनस्तर्हि नैकः स्थूलावयवी; विरुद्धधर्माध्यासात् । अविरोधिनश्चेत्प्रतीतिबाधःः एकस्मिन्नेव स्थूलावयविनि चलाचलरक्तारकाssवृतानावृता दिविरुद्धावयवानामुपलब्धेः । अब जो स्थूल पदार्थो को ही बाह्य पदार्थ मानते हैं उनका विचार करते हैं । स्थूलरूप बाह्य पदार्थ मानना भी युक्तिसंगत नही है । क्योंकि; अनेक परमाणुओंके समूहका नाम स्थूल अवयवी है सो यदि परमाणु ही सिद्ध नही है तो उन अनेक 23 ॥१३६॥ रा. जै.शा. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाणुओंके संचयरूप स्थूल पदार्थोंकी सिद्धि कहना केवल कहनेमात्र ही है। और भी दूसरा दोष यह है कि स्थूल पदार्थ अनेक परमाणुरूप अवयवों में रहनेवाला माना है; परंतु वे अवयव यदि परस्पर विरोधी है तो विरुद्धधर्मवाले उन अनेक परमाणुओंसे मिलकर एक स्थूल अवयवी पदार्थ कैसे बन सकता है ? क्योंकि उसके प्रत्येक अवयवोमें तो परस्पर जुदे जुदे रहनेका खभाव विद्यमान है। उन अवयवोंको परस्पर अविरोधी कहना तो सर्वथा प्रतीतिबाधित है। क्योंकि; एक ही अवयवीमें| कोई परमाणु चंचल है, कोइ अचल है, कोई लाल है, कोई सफेद है, कोई ढके हुए है और कोई खुले हुए है इत्यादि अनेक || परस्पर विरोधी धर्मवाले एक दूसरेके खभावसे सर्वथा प्रतिकूल दीखते हैं इसलिये उन सवोमें परस्पर विरोध ही प्रतीत होता है। | अपि चासौं तेषु वर्तमानः कात्स्न्र्येनैकदेशेन वा वर्तते? कात्स्न्यून वृत्तावेकस्मिन्नेवावयवे परिसमाप्तत्वादनेकावयववृत्तित्वं न स्यात्प्रत्यवयवं कात्स्न्येन वृत्तौ चावयविवहुत्वापत्तेः। एकदेशेन वृत्तौ च तस्य निरंशत्वाभ्युपगमवाधः || सांशत्वे वा तेंऽशास्ततो भिन्ना अभिन्ना वा? भिन्नत्वे पुनरप्यनेकांशवृत्तेरेकस्य कात्स्न्यैकदेशविकल्पानतिक्रमादनवस्था । अभिन्नत्वे न केचिदंशाः स्युः। इति नास्ति वाह्योर्थः कश्चित् । किन्तु ज्ञानमेवेदं सर्वं नीलाद्याकारेण प्रतिभाति । __ स्थूल अवयवीरूप बाह्य पदार्थ माननेमें और भी दोष दिखाते है।-अवयवीरूप बाह्य पदार्थ माननेवालेसे बौद्ध पूछ कि अवयवीरूप स्थूल पदार्थ जो परमाणुरूप अवयवोमें ठहरता है वह क्या अपने एक एक अवयवमें पूर्ण आकारसे ठहरता है अथवा उसका थोड़ा थोड़ा हिस्सा एक एक अवयवमें ठहरता है ? यदि एक एक अवयवमें समूचा वर्तता है तो समूचा आकार तो एक अवयवीका एक ही है इसलिये अपने एक ही अवयवमें रह सकेगा; सभी अवयवोमें उसका रहना मानना असंभव है। और यदि थोड़े समयके लिये यह भी मानलिया जाय कि एक अवयवी भी अपने सभी अवयवोमें समूचा समूचा रहता है तो वे सभी अवयव प्रत्येक अवयवीरूप ही मानने चाहिये । अर्थात् अवयव तो उसीको कह सकते है जो किसी पदार्थका || छोटासा हिस्सा हो । जिसमें पूरा स्थूलाकार वर्तता हो वह अवयव कैसा? वह तो अवयवी ही है। और अवयवी तथा छूटे छूटे समूहरूप परमाणुओंमें अंतर यही है कि अवयवी तो अनेक परमाणुओंका समूह होकर भी निरंश एक समझा जाता है परंतु छूटे परमाणुओंका ढेर एक होनेपर भी सब परमाणु जुदे जुदे रहते है । इसलिये यदि एक अवयवीका अपने एक एक अवयवमें| रहना पूरा पूरा न मानकर एक एक हिस्सेका माना जाय तो उसमें अंशोंकी कल्पना होनेसे उसको निरंश एक अवयवी नही | Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यादाट ॥१३७॥ कह सकते हैं। और यदि उसके भी अंश माने जाय तो वे अंश उस अवयवीसे कोई जुदी वस्तु है अथवा उस अवयवीरूप राजै. ही हैं ? यदि वे अश भी उस अवयवीसे जुदी वस्तु है तो वे अंशभी एक प्रकारके अवयवी ही हुए। क्योंकि, अवयवीके सिवाय कोईॐ बाह्य पदार्थ है ही नहीं । इसलिये वे अंशरूप अवयवी भी प्रत्येक अपने अपने अवयवोमेंसे एक एक अवयवमें हिस्सेवार रहेंगे। # क्योंकि; अवयवीका अपने अवयवोमें रहना हिस्सेवार ही ऊपर मान चुके है । इस प्रकार उत्तरोत्तर प्रत्येक अवयवके हिस्से करनेसे कहीं ठिकाना ही नहीं रहता है । यदि अवयवीके अवयवोको अवयवरूप ही माना जाय; अवयवीसे भिन्न न माना जाय। तो वे अवयव ही नहीं है। क्योंकि, अवयव तो एक एक हिस्सेका ही नाम है । भावार्थ-यदि अवयवीमें अवयवोंको ही माना जाय तो वह स्थूल अवयवी है ऐसा व्यवहार भी कैसे हो सकता है? क्योंकि; अनेक अवयव जिसमें हो उसीको स्थूल अवयवी कह सकते है । और यथार्थमें वही स्थूल हो सकता है जिसमें छोटे छोटे अनेक अवयव मिल गये हो। जो निरंश एक है वह स्थूल अवयवी कैसे कहा जा सकता है ? इसप्रकार स्थूल अवयवीरूप अथवा परमाणुरूप कोई भी बाह्य पदार्थ सिद्ध नहीं होता है। इसलिये बाह्य कुछ है ही नहीं। किंतु जो कुछ बाह्यमें नीलपीतादिकरूप भासता है वह सब ज्ञानका परिवर्तन है। __ वाह्यार्थस्य जडत्वेन प्रतिभासायोगात् । यथोक्तं "स्वाकारबुद्धिजनका दृश्या नेन्द्रियगोचराः"। अलङ्कारकारेGणाप्युक्तं “ यदि संवेद्यते नीलं कथं वाह्यं तदुच्यते ? न चेत्संवेद्यते नीलं कथं वाह्यं तदुच्यते? "। यदि वाह्योs ो नास्ति किंविषयस्तोयं घटपटादिप्रतिभास इति चेन्ननु निरालम्बन एवायमनादिवितथवासनाप्रवर्तितो निर्विषयत्वादाकाशकेशज्ञानवत्स्वमज्ञानवद्वेति । अत एवोक्तं “ नान्योऽनुभाव्यो बुध्यास्ति तस्या नानुभवोऽपरः। ॐ ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात्स्वयं सैव प्रकाशते । १। बाह्यो न विद्यते ह्यर्थों यथा वालैर्विकल्प्यते । वासनालुठितं चित्तमाभासं प्रवर्तते । २।" इति । यदि जो प्रतिभासता है वही बाह्य पदार्थ माना जाय तो भी वह तो जड़ है इसलिये उसका प्रतिभासित होना ही संभव नहीं है। ऐसा ही कहा है कि " दृश्यजातिवाले ज्ञानमय पदार्थ बुद्धिको पदार्थाकार उत्पन्न करते है" । अर्थात्-बाह्य ॥१३७ बौद्धोंने पदार्थ दोप्रकार माने हैं प्रथम दृश्य दूसरे विकल्प्य । दृश्य पदार्थ सर्व ज्ञानमय हैं और विकल्प्य वे हैं जो लोकोंकर बाग पदार्श- १ रूप मिथ्या कल्पित किये जाते हैं। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ कोई भी नहीं है; केवल विज्ञान ही बुद्धिको अनेकाकार करता रहता | अलंकार ग्रन्थके कर्ता बौद्धाचार्य धर्मकीर्तिने भी कहा है कि " जब नीलादिक आकार प्रतिभाससे ही जान पड़ता है तब उसको बाह्य पदार्थ क्यों कहना चाहिये ? और जब वह प्रतिभासित नही होता है तब उसको बाह्य पदार्थ क्यों कहना चाहिये । " अर्थात् जब प्रतिभासित होता है तब तो वह प्रतिभासरूप है इसलिये प्रतिभासको अंतरंग ज्ञानमय ही मानना चाहिये। तब तो बाह्य पदार्थ के होने में कोई प्रमाण ही नही है । और जब कुछ प्रतिभासित ही नहीं होता है तब कुछ है या नही इसीमें शंका है तो वह बाह्य पदार्थ है ऐसा कैसे कह सकते 2 बाह्य पदार्थ ही यदि नहीं है तो यह घड़ा हैं, यह पड़ा है इत्यादि ज्ञान क्यों होता है ऐसी शंका ठीक नहीं । क्योंकिः जैसे विना किसी बाह्य विषयके निरालंबन ही आकाशमें केश आदिकोका ज्ञान हो जाता है अथवा जैसे स्वममें जो ज्ञान होता है वह वस्तुके आलंबन विना ही होता है तैसे ही घटपटादिकका सर्वसामान्य ज्ञान भी बाह्य वस्तुके आलंबन विना अनादिकालसे साथ लगी हुई झूठी वासनाके कारण ही प्रवर्तता है । इसीलिये कहा है कि " जो बुद्धिमें प्रतिभासता है वह कोई बुद्धिसे अतिरिक्त पदार्थ नही है और न बुद्धिके अतिरिक्त अनुभव ही कोई वस्तु है । विषय विषयी भिन्न भिन्न न होनेसे खयं बुद्धि ही नानारूपसे प्रकाशित होती रहती है ॥ बाह्य कोई भी पदार्थ नही है जैसा कि मूर्ख लोगोने कल्पित कर रक्खा है । अनादिकालसे लगी हुई मिथ्या वासनासे वासित हुआ चित्त ही नानाप्रकारके पदार्थोंरूप परिणमता है । " तदेतत्सर्वमवद्यम् । ज्ञानमिति हि क्रियाशब्दस्ततो ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं ज्ञप्तिर्वा ज्ञानमिति । अस्य च कर्मणा भाव्यं; निर्विषयाया ज्ञप्तेरघटनात् । न चाकाशकेशादौ निर्विषयमपि दृष्टं ज्ञानमिति वाच्यं तस्याप्येकान्तेन निर्विषयत्वाऽभावात् । न हि सर्वथाऽगृहीतसत्यकेशज्ञानस्य तत्प्रतीतिः । स्वप्नज्ञानमप्यनुभूतदृष्टाद्यर्थविपयत्वान्न निरालम्वनम् । तथा च महाभाष्यकारः " अणुयदिट्ठचिंतिय सुयपयइवियारदेवयाणूवा । सुमिणस्स निमित्ताई पुकृष्णं पावं च णाऽभावो ( संस्कृतच्छाया - अनुभूतदृष्ट चिन्तितश्रुतप्रकृतिविकारदैविकाऽनूपाः । स्वप्नस्य निमित्तानि पुण्यं पापं च नाऽभावः ) " ॥ यश्च ज्ञानविषयः स च वाह्योऽर्थः । भ्रान्तिरियमिति चेच्चिरं जीव । भ्रान्तिर्हि | मुख्येऽर्थे क्वचिद् दृष्टे सति करणाऽपाटवादिना अन्यत्र विपर्यस्तग्रहणे प्रसिद्धा । यथा शुक्तौ रजतभ्रान्तिः । अर्थ| क्रियासमर्थेऽपि वस्तुनि यदि भ्रान्तिरुच्यते तर्हि प्रलीना भ्रान्ताऽभ्रान्तव्यवस्था । तथा च सत्यमेतद्वचः “आशा| मोदकतृप्ता ये ये चास्वादितमोदकाः । रसवीर्यविपाकादि तुल्यं तेषां प्रसज्यते । १ ।” 1 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. स्थाद्वादमं. ॥१३८॥ यह सव जो बौद्धका कहना है वह झूठ है। कैसे ? जाननेरूप क्रियाका नाम ज्ञान है। जिससे जाना जाय वह ज्ञान है जाय वह ज्ञान है अथवा जाननामात्र ही ज्ञान है । जिससे जाना जाय अथवा जाननामात्र ऐसा ज्ञानशब्दका अर्थ होनेसे इस ज्ञानका कर्म कोई न कोई अवश्य होना चाहिये । क्योंकि, विना किसी विषयके जानना कैसे हो सकता है ? यदि कहों कि जैसे आकाशमें केशोंका ज्ञान विना किसी विषयके भी होजाना सर्व जनोमे प्रसिद्ध है तैसे ही सर्वत्र भी विना विषयके ज्ञान हो सकता है परंतु यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि आकाशमें जो केशोंका ज्ञान होता है वह भी सर्वथा निर्विपय नहीं है । जिस मनुप्यने कभी भी सचमुचके के केश देखे नहीं हों उसको आकाशमें भी केशोंकी प्रतीति होना संभव नहीं है। अर्थात्-इस कहनेसे यह सिद्ध होता है कि जिसने प्रथम सच्चे केश देखे है उसीको आकाशमे भरे हुए अपरिमित सूक्ष्म रजआदिक केशादिरूप दीख सकते है। इसमें विपर्यय से होनेका कारण बहुत अंतरका (फासलेका) पडना है । इस प्रकार आकाशमें जो केशोंका दीखना है वह रज आदिक वस्तुओंमें विपरीत परिणया ज्ञान है, न कि निर्विषय । इसीप्रकार खम्मका ज्ञान भी जागृत अवस्थामें पहिले अनुभव किये पदार्थोंका ही होता है इसलिये निर्विपय नहीं है । यही महाभाष्यकारने कहा है " पहिले अनुभव किये, देखे, विचार किये तथा सुने हुए पदार्थ तथा वातपित्तादिजनित विकार तथा देवोकर विकारको प्राप्त किया मन तथा जलप्रधानदेश अथवा पापपुण्यके कारण ये सर्व स्खम आनेमें निमित्तकारण है । अर्थात् खममें वही वस्तु दीखती है जो पहिले सुनी हो देखी हो चितवन की हो तथा अनुभव की हो। और वातपित्तादिके विगड़नेपर भी मनमें नाना प्रकारकी चिंता तथा विचार उत्पन्न होनेसे खाम आता है । इत्यादि खप्न होनेके अनेक कारण मिलते है इसलिये स्वप्नकी उत्पत्ति विना कारणके ही मानना मिथ्या है।" और जो ज्ञानके विषय है वे सव बाह्य पदार्थ ही है। यदि ज्ञानमें जो पदार्थका दीखना है वह भ्रमरूप माना जाय तो भी भ्रम माननेवालेको हम चिरकाल जीता रहो ऐसा आशीर्वाद देते है । क्योंकि भ्रम माननेसे भी बाह्य पदार्थकी सिद्धि होती है। यदि किसीने एक समय किसी पदार्थको यथार्थ देखा हो | और पीछे इंद्रियमें रोगादि उत्पन्न हो जाय अथवा पदार्थ अत्यंत दूर पड़ा हो अथवा उजाला न हो इत्यादि ज्ञानके किसी कारणकी कमी होनेसे किसी दूसरे पदार्थको पहिले देखा हुआ पदार्थ मान लिया हो तो उस ज्ञानको भ्रम कहते है। जैसे है जिसने पहिले सच्ची चांदी देखी हो वह पीछे किसी कारणवश शीपको चांदी समझने लगे तो उसका वह ज्ञान भ्रमरूप है। परंतु यदि प्रत्येक सच्चे पदार्थके ज्ञानको भी भ्रम मानलिया जाय तो यह ज्ञान सच्चा है और यह झूठा है ऐसा निश्चय ही कैसे ॥१३८॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो सकैगा ? और यदि बाह्य पदार्थ कुछ माना ही नहीं जाय तो यह वचन भी सत्य हो जाय कि " जिसने मनके संकल्पमात्र लड्डू खाये हैं और जिसने सच्चे लड्डू खाये है उन दोनोका पेट भरना और बल वढना इत्यादिक फल समान हैं " । न चामून्यर्थदूषणानि स्याद्वादिनां बाधां विदधते; परमाणुरूपस्य स्थूलावयविरूपस्य चार्थस्याङ्गीकृतत्वात् । यच्च परमाणुपक्षखण्डने ऽभिहितं प्रमाणाऽभावादिति तदसत् । तत्कार्याणां घटादीनां प्रत्यक्षत्वे तेषामपि कथंचित्प्रत्यक्षत्वं योगिप्रत्यक्षेण च साक्षात्प्रत्यक्षत्वमवसेयम् । अनुपलब्धिस्तु सौक्ष्म्यात् । अनुमानादपि तत्सिद्धिः । यथा - सन्ति परमाणवः स्थूलावयविनिष्पत्त्यन्यथाऽनुपपत्तेरित्यन्तर्व्याप्तिः । न चाणुभ्यः स्थूलोत्पाद इत्येकान्तः स्थूलादपि सूत्रपटलादेः स्थूलस्य पटादेः प्रादुर्भावविभावनात्; आत्माकाशादेरपुद्गलत्वकक्षीकाराच्च । यत्र पुनर - णुभ्यस्तदुत्पत्तिस्तत्र तत्तत्कालादिसामग्रीसव्यपेक्षक्रियावशात्प्रादुर्भूतं संयोगातिशयमपेक्ष्येयमवितथैव । जो वा पदार्थविषयके दोष बौद्ध मतमें दिखाये है वे दोष स्याद्वादियों के मत में भी संभव हो सकते हों ऐसा नही है । क्योंकि; स्याद्वादियोंने तो परमाणु तथा स्थूल अवयवी ऐसे दोनो प्रकारके बाह्य पदार्थ माने है । और जो परमाणुरूप बाह्य पदार्थ के खंडनमें बौद्धने ऐसा कहा था कि "परमाणुको सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण न होनेसे परमाणुरूप कोई पदार्थ नही है" " सो यह कहना असत्य है । परमाणुओंसे बने हुए घड़ा महल मकानादि अनेक स्थूल पदार्थोंके दीखने से कारणरूप परमाणुका भी एक प्रकारसे दीखना सिद्ध है । और योगीजन तो परमाणुको भी साक्षात् प्रत्यक्ष देखते है । हम लोगोंको जो परमाणुका साक्षात् प्रत्यक्ष नहीं है सो तो परमाणु अत्यंत सूक्ष्म होनेसे नहीं है । अर्थात् - हम लोगोको यद्यपि सूक्ष्म होनेसे परमाणुका साक्षात् प्रत्यक्ष नहीं है तो भी जो परमाणुओंके स्थूलकायका प्रत्यक्ष होता है वह परमाणुओंका ही प्रत्यक्ष है । क्योंकि, जिसका प्रत्यक्ष होता है ऐसा स्थूल अवयवी क्या परमाणुरूप अवयवोंके विना ही उत्पन्न हो जाता है ? यदि विना अवयवोंके नही उत्पन्न होता है तो जब वह पूर्ण अवयवी दीखता है तब उसके अवयव दीखनेसे कैसे बच सकते है ? यदि अवयव न दीखते हों तो | अवयवोंका समूहरूप अवयवी भी दीख न सकैगा । जिसके अवयव तो भिन्न भिन्न रहनेपर न भी दीख सकै परंतु उनका समूह | होकर जब स्थूल एक पिंडरूप हो जाता है तब उसीको स्थूल अवयवी कहते है । अवयवी कोई भिन्न पदार्थ नही है । अनुमानसे भी परमाणु सिद्ध होता है । सोई दिखाते है । जबतक छोटे छोटे अवयवरूप पदार्थ न हों तबतक बड़े बड़े पदार्थ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ த. இ. है और अवयवोंसे अवयवी सर्वथा भिन्न नहीं है इस अपेक्षासे यदि अवयवी विचारा जाय तो अवयवीमें भी कथंचित् अनेकपना सिद्ध है । और जो बौद्धने यह शंका की कि अवयवी जिन अवयवोमें रहता है उनमेंसे प्रत्येकमें सर्वांगरूप वसता है अथवा एक एक अवयवमें एक एक अंशरूपसे वसता है सो इसका उत्तर यही है कि उसमें ऐसे दो विकल्प हम नही मानते है। क्योंकि; अपने अवयवोंमें वह ऐसे एक प्रकारके अभेदरूपसे वसता है कि जबतक अवयवी वना रहै तबतक अपने अवयवोंसे वह भिन्न नहीं होसकता है । अविष्वग्भावसंबंध भी ऐसे ही संबन्धको कहते है । अर्थात् गुणगुणी, पर्यायपर्यायी, अवयवअवयवीका परस्पर जो ऐसा संबंध होता है कि जबतक आधाररूप वस्तु (पर्याय या द्रव्य ) नष्ट न हो तबतक गुणगुणी, पर्यायपर्यायी तथा अवयवअवयवी परस्परमें छूट नही सकते है उसीको अविष्वग्भावसंबंध कहते है। किं च यदि वाह्योऽर्थो नास्ति किमिदानी नियताकारं प्रतीयते नीलमेतदिति । विज्ञानाकारोऽयमिति चेन्न ज्ञानाद्वहिर्भूतस्य संवेदनात् । ज्ञानाकारत्वे त्वहं नीलमिति प्रतीतिः स्यान्न त्विदं नीलमिति । ज्ञानानां प्रत्येकमाकारभेदात्कस्यचिदहमिति प्रतिभासः कस्यचिन्नीलमेतदिति चेन्न; नीलाद्याकारवदहमित्याकारस्य व्यवस्थितत्वाभावात् । तथा च यदेकेनाहमिति प्रतीयते तदेवाऽपरेण त्वमिति प्रतीयते । नीलाद्याकारस्तु व्यवस्थितः; सर्वरप्येकरूपतया ग्रहणात् । भक्षितहृत्पूरादिभिस्तु यद्यपि नीलादिकं पीतादितया गृह्यते तथापि तेन न व्यभिचार स्तस्य भ्रान्तत्वात् । स्वयं स्वस्थ संवेदनेऽहमिति प्रतिभासत इति चेन्ननु किं परस्यापि संवेदनमस्ति? कथमन्यथा जास्वशब्दस्य प्रयोगः ? प्रतियोगिशब्दो ह्ययं परमपेक्ष्यमाण एव प्रवर्तते ।। __ और यदि बाह्य पदार्थ है ही नही तो ऐसा निश्चयरूप ज्ञान किसका होता है कि यह नील पदार्थ है ? यदि कहों कि यह नील है ऐसा आकार विज्ञानका ही होता है तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा आकार तो अपने अंतःकरणके बाहिर जुदा पदार्थरूप दीखता है इसलिये विज्ञानरूप कैसा ? यदि विज्ञानाकार ही होता तो मै नील पदार्थ हूं ऐसी प्रतीति होनी चाहिये थी परंतु ऐसी प्रतीति तो होती ही नहीं है । यदि कहों कि ज्ञानोके प्रत्येक आकार जुदे जुदे होते है इसलिये किसी ज्ञानम तो ऐसा प्रतिभासता है कि मै हूं और किसी ज्ञानमें ऐसा प्रतिभासता है कि यह नील है सो यह कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार किसी एक नीलादिक बाह्य वस्तुका ज्ञान सवोंको समान ही होता है कि यह नियमपूर्वक नील है उस प्रकार . இ GUE க. வி. . தி Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाचित् कहो कि हम जो 'अपने आप ' ऐसा भेदरूप शब्द बोलते हैं वह भी भ्रमज्ञानके वश बोलते है तो हम पूछते है कि पदार्थ परस्पर भिन्नरूप जब प्रत्यक्षसे दीखते हैं तो परस्परका भेद झूठा क्यों है ? यदि कहो कि भेद दिखानेवाला प्रत्यक्ष भ्रमात्मक है क्योंकि; अनुमानसे अभेद सिद्ध होता है तो हम पूछते हैं कि वह कोनसा अनुमान है ? इस प्रश्नके उत्तर में बौद्ध अभेद साघनेवाले अनुमानको दिखाता है कि जो नियमसे सदा जिसके साथ ही मिलता है वह उससे भिन्न नही कहा जासकता है । जिस प्रकार असली आकाशगामी चंद्रमाके होते हुए ही जलमें पड़ा हुआ चंद्रमाका प्रतिबिंब दीखता है; जब असली चंद्रमा नही होता है तब जलमें उसका प्रतिबिंब भी नहीं दीखता है इसलिये असली चंद्रमाके अतिरिक्त वह प्रतिबिंब कोई भिन्न वस्तु नही है । इसी प्रकार जहां जिस समय जैसा पदार्थ दीखता है वहां उस समय ज्ञान भी तैसा ही प्रतीत होता है इसलिये पदार्थ भी ज्ञानके अतिरिक्त कोई भिन्न वस्तु नही है । यह अनुमान व्यापकानुपलब्धिनामक है । भावार्थ - जहां साध्यसे विपरीत धर्मके साथ जो कोई धर्म व्याप्त होसकै ऐसे धर्मकी जो उपलब्धि नही होना है उसीका नाम व्यापकानुपलब्धि है । जैसे यहां पर ज्ञान तथा विषयरूप पदार्थका अभेद साध्य है । ज्ञान तथा पदार्थका जो भेद मानना है वह साध्यसे विपरीत धर्म है । | उस विपरीत धर्मकी सिद्धि तभी होसकती है जब अभेदका साधक ' ज्ञान तथा पदार्थका साथ साथ मिलना ' ऐसा हेतु जो बौद्धने कहा है उससे विपरीत ' ज्ञान तथा पदार्थका साथ साथ न मिलना ' ऐसा हेतु मिलसकै । परंतु ऐसा हेतु मिलता ही नही है । क्योंकि; जुदे जुदे रहनेवाले नीले पीले आदिक धर्मोका एकसाथ मिलना संभव नही है । कभी नीलरूप ही मिलता है। और कभी पीतादिरूप ही । अब यहांपर सिद्धान्ती कहते हैं कि इस अनुमानसे बौद्ध जो अभेद सिद्ध करता है वह सिद्ध करना सर्वथा अयुक्त है । क्योंकि इस अनुमानका हेतु सच्चा हेतु नही किंतु संदिग्धानैकान्तिकनामक हेत्वाभास है । भावार्थ - संदिग्धानैकान्तिकनामक हेत्वाभास उस हेतुको कहते है जिसका रहना साध्यसे विरुद्ध धर्मके साथ भी संभव होसकै । सो ही | दिखाते है । -ज्ञान निजका तथा अन्य पदार्थोंका निश्चय कराता है सो अन्यका निश्चय कराना जो ज्ञानमें धर्म है उस धर्मके आश्रयसे तो ज्ञान अन्य बाह्य नीलादिकोका निश्चय कराता है और जो आत्मामें निजका निश्चय कराने रूप धर्म है उसकी | अपेक्षासे उस नीलादि ज्ञानरूप परिणत हुई बुद्धिको अपने आपमें निश्चय कराता है । बुद्धि नीलादिज्ञानमय परिणत हुई तभी कही जाती है जब यह नीलादि है इस प्रकार बाह्य पदार्थका प्रथम ही ज्ञान हुआ हो । नीलादिज्ञानमय परिणत हुई बुद्धिको जो । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्याद्वादमं. ॥१४०॥ (3 १ मैं हूं ऐसा ज्ञान किसी एक विषयमें सवोको समान नहीं होता है। एक जीव अपनेको मैं हूं ऐसा समझता है परंतु दूसरा उसीको मैं हूं ऐसा नहीं समझता है किंतु नू है ऐसा समझता है । परंतु नीलादिक किमी एका वस्तुका ज्ञान नव एकना ही होता है। इसलिये बाय वस्तुका जान अवश्य है । अर्थात् नीलादिक वा वस्तु यदि एक मनुष्यको यह ज्ञान हो कि यह सामनेकी वस्तु नीलरूपी है तो और भी दूसरे लोगोंको उसका ऐसा ही ज्ञान होगा कि यह नीली है । काचित् किमीको रोगादिके वश नीले पदार्थका पीतरूप भी ज्ञान हो तो भी वह ज्ञान अंतमें भ्रमरूप सिद्ध हो जाता है परंतु निर्विकार मनुष्यको सदा एक विषयमें सभीको एकसा ही ज्ञान होता है । इसलिये चाय पदार्थ अवश्य मानना चाहिये । नि कहाँ कि जब जीव स्वयं अपने आपका अनुभव करता है तब उसको में हूं ऐसा भागता है सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा | कहना तो तभी शोभित हो सकता है जब अपने सिवाय औरका भी ज्ञान माना हो । यदि ऐसा माना ही नहीं है; किंतु जो | कुछ है वह आप ही है ऐसा जब बौद्धोका मंतव्य है तो "अपने आपको ही अनुभवता है" ऐसा बोलना किनप्रकार ठीक माना जाय ? ' अपने आपको ऐसा शब्द प्रतियोगीशब्द कहा जाता है। प्रतियोगी शब्द उमीको कहते हैं जिसके बोलनेपर उससे उलटे भिन्न पदार्थका भी प्रतिबोध हो जाय। अपने आप ऐसा शब्द भी तभी बोला जा सकता है जब अपने आपके सिवाय अन्य भी पदार्थ माने जाय । क्योंकि 'अपने आप' शब्दका अर्थ यही हो सकता है कि दूसरा नही किंतु | अपने आप । इसलिये जहां अपने आपके सिवाय दूसरे पदार्थ माने ही नहीं हैं वहा अपने आप ऐसा बोलना ठीक नहीं है । स्वरूपस्यापि भ्रान्त्या भेदप्रतीतिरिति चेत् हन्त प्रत्यक्षण प्रतीतो भेदः कथं न वास्तवः ? भ्रान्तं प्रत्यक्षमिति चेन्ननु कुत एतत् ? अनुमानेन ज्ञानार्थयोरभेदसिद्धेरिति चेकिं तदनुमानमिति पृच्छामः ? यद्येन मह नियमनोपलभ्यते तत्ततो न भिद्यते । यथा सञ्च्चन्द्रादसच्चन्द्रः । नियमेनोपलभ्यते च ज्ञानेन सहार्थः । इति व्यापकाऽनु|पलब्धिः । प्रतिषेध्यस्य ज्ञानार्थयोर्भेदस्य व्यापकः सहोपलम्भानियमस्तस्याऽनुपलब्धिर्भिन्नयोनीलपीतयोर्युगपदुपलम्भनियमाभावात् । इत्यनुमानेन तयोरभेदसिद्धिरिति चेन्न । संदिग्धानैकान्तिकत्वेनास्यानुमानाभासत्वात् । ज्ञानं हि स्वपरसंवेदनम् । तत्परसंवेदनतामात्रेणैव नीलं गृह्णाति । स्वसंवेदनतामात्रेणैव च नीलवुद्धिम् । तदेवमनयोयुगपदग्रहणात्सहोपलम्भनियमोऽस्ति । अभेदश्च नास्ति । इति सहोपलम्भनियमरूपस्य हेतोर्विपक्षाद् व्यावृत्तेः संदिग्धत्वात् संदिग्धाऽनैकान्तिकत्वम् । ॥१४०॥ रा.जे.गा. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाचित कहो कि हम जो अपने आप ' ऐसा भेदरूप शब्द बोलते हैं वह भी भ्रमज्ञानके वश बोलते है तो हम पूछते है कि पदार्थ परस्पर भिन्नरूप जब प्रत्यक्षसे दीखते हैं तो परस्परका भेद झूठा क्यों हैं ? यदि कहो कि भेद दिखानेवाला प्रत्यक्ष भ्रमात्मक है क्योंकि अनुमानसे अभेद सिद्ध होता है तो हम पूछते है कि वह कोनसा अनुमान है? इस प्रश्नके उत्तरमें बौद्ध अभेद साधनेवाले अनुमानको दिखाता है कि जो नियमसे सदा जिसके साथ ही मिलता है वह उससे भिन्न नही कहा जासकता है। जिस प्रकार असली आकाशगामी चंद्रमाके होते हुए ही जलमें पड़ा हुआ चंद्रमाका प्रतिबिंब दीखता है। जब असली चंद्रमा नही होता है तब जलमें उसका प्रतिबिंब भी नही दीखता है इसलिये असली चंद्रमाके अतिरिक्त वह प्रतिबिंब कोई भिन्न वस्तु नहीं है। इसी प्रकार जहां जिस समय जैसा पदार्थ दीखता है वहां उस समय ज्ञान भी तैसा ही प्रतीत होता है इसलिये ला पदार्थ भी ज्ञानके अतिरिक्त कोई भिन्न वस्तु नही है । यह अनुमान व्यापकानुपलब्धिनामक है । भावार्थ-जहां साध्यसे विपरीत धर्मके साथ जो कोई धर्म व्याप्त होसकै ऐसे धर्मकी जो उपलब्धि नही होना है उसीका नाम व्यापकानुपलब्धि है। जैसे यहां पर ज्ञान तथा विषयरूप पदार्थका अभेद साध्य है। ज्ञान तथा पदार्थका जो भेद मानना है वह साध्यसे विपरीत धर्म है। उस विपरीत धर्मकी सिद्धि तभी होसकती है जब अभेदका साधक ' ज्ञान तथा पदार्थका साथ साथ मिलना' ऐसा हेतु जो बौद्धने कहा है उससे विपरीत 'ज्ञान तथा पदार्थका साथ साथ न मिलना' ऐसा हेतु मिलसकै । परंतु ऐसा हेतु मिलता ही नही है। क्योंकि; जुदे जुदे रहनेवाले नीले पीले आदिक धर्मोंका एकसाथ मिलना संभव नहीं है । कभी नीलरूप ही मिलता है और कभी पीतादिरूप ही । अब यहांपर सिद्धान्ती कहते है कि इस अनुमानसे बौद्ध जो अभेद सिद्ध करता है वह सिद्ध करना सर्वथा अयुक्त है। क्योंकि, इस अनुमानका हेतु सच्चा हेतु नही है किंतु संदिग्धानकान्तिकनामक हेत्वाभास है। भावार्थसंदिग्धानकान्तिकनामक हेत्वाभास उस हेतुको कहते है जिसका रहना साध्यसे विरुद्ध धर्मके साथ भी संभव होसकै । सो ही दिखाते है।-ज्ञान निजका तथा अन्य पदार्थोंका निश्चय कराता है सो अन्यका निश्चय कराना जो ज्ञानमें धर्म है उस धर्मके आश्रयसे तो ज्ञान अन्य बाह्य नीलादिकोका निश्चय कराता है और जो आत्मामें निजका निश्चय कराने रूप धर्म है उसकी || अपेक्षासे उस नीलादि ज्ञानरूप परिणत हुई बुद्धिको अपने आपेमें निश्चय कराता है । बुद्धि नीलादिज्ञानमय परिणत हुई तभी का कही जाती है जब यह नीलादि है इस प्रकार बाह्य पदार्थका प्रथम ही ज्ञान हुआ हो। नीलादिज्ञानमय परिणत हुई बुद्धिको जो Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ज्ञान खसवेदनधर्म द्वारा जताता है उसका ऐसा उदाहरण कहा है कि नीलादि ज्ञान जिसको हुआ है वह मै ( ज्ञान ) ही हूं। राजै.शा इस प्रकार जो प्रथम ही बाह्य पदार्थको जतानेवाला ' यह नीलादिक बाह्य पदार्थ है। ऐसा प्रथम ज्ञान तथा 'नीलादिकका ज्ञान ॥१४१॥ जिसको हुआ है वह मै ही हू' ऐसा दूसरा ज्ञान एक साथ ही चेतनामें परिणमते है, इनकी उत्पत्तिमें कालका अंतर नहीं है। इसलिये एकसाथ ही मिलना जिनका होता है वे परस्पर भिन्न नही होते ऐसा जो बौद्धने कहा था वह असत्य प्रतीत होता है। क्योंकि, ऊपर दिखाये हुए उदाहरणमें दोनो ज्ञानोका ग्रहण होना तो साथ ही है परंतु वे दोनो ज्ञान एक नहीं है किंतु जुदे जुदे है। इस प्रकार अभेद सिद्ध करने में बौद्धने जो 'एक साथ होना' ऐसा हेतु कहा था वह हेतु अभेदसे विपरीत भेदमें भी रहता . हो हुआ प्रतीत होनेसे संदेहसहित है । और इसीलिये इसको संदिग्धानकान्तिक कहा है। LG असिद्धश्च सहोपलम्भनियमो; नीलमेतदिति बहिर्मुखतयाऽर्थेऽनुभूयमाने तदानीमेवान्तरस्य नीलानुभवस्या ननुभवात् । इति कथं प्रत्यक्षस्यानुमानेन ज्ञानार्थयोरभेदसिद्ध्या भ्रान्तत्वम् ? अपि च प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वेनाsवाधितविषयत्वादनुमानस्यात्मलाभो, लब्धात्मके चानुमाने प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमित्यन्योन्याश्रयदोषोपि दुर्निवारः। अर्थाभावे च नियतदेशाधिकरणा प्रतीतिः कुतः? न हि तत्र विवक्षितदेशेऽयमारोपयितव्यो नान्यत्रेत्यस्ति नियमहेतुः। वासनानियमात्तदारोपनियम इति चेन्न; तस्या अपि तद्देशनियमकारणाभावात् । सति ह्यर्थसद्भावे यदेशो है' ऽथेस्तद्देशोऽनुभवस्तद्देशा च तत्पूर्विका वासना। बाह्यार्थाभावे तु तस्याः किंकृतो देशनियमः ? अथास्ति ।। तावदारोपनियमः। न च कारणविशेषमन्तरेण कार्यविशेषो घटते । बाह्यश्चार्थो नास्ति । तेन वासनानामेव वैचिव्यं तत्र हेतुरिति चेत्तद्वासनावैचित्र्यं बोधाकारादन्यदनन्यद्वा? अनन्यच्चेद्वोधाकारस्यैकत्वात्कस्तासां परस्परतो विशेषः? अन्यच्चेदर्थे कः प्रद्वेषो? येन सर्वलोकप्रतीतिरपन्हूयते । तदेवं सिद्धो ज्ञानार्थयोर्भेदः। Ko 'ज्ञान तथा पदार्थकी एक साथ उपलब्धि होना ( मिलना ) यह हेतु असिद्ध भी है। क्योंकि; जब यह नीलादि है ऐसा बाह्य पदार्थ भासता है तभी नीलादिकका जो अंतरंगमें ज्ञान उत्पन्न हुआ है उसका अनुभव नही होता है। इन दोनों ज्ञानोकी ॥१४॥ उत्पत्तिमें कालका अंतर पड़ता है। इसलिये ज्ञान और पदार्थमें परस्परका भेद जो प्रत्यक्षसे सिद्ध है उसको यह ऊपर दिखाया है। हुआ बौद्धका अनुमान भ्रमात्मक नहीं ठहरा सकता है। और भी दूसरा दोष यह है कि भेददर्शक जो प्रत्यक्ष है वह जब भ्रमात्मक (' Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध हो तब अभेद सिद्ध करना सच्चा होनेसे अभेद साधक ऊपर कहा हुआ अनुमान सत्य कहा जासकै और जब अभेदसाधक यह अनुमान सत्य सिद्ध हो तब भेद जतानेवाला प्रत्यक्ष भ्रमात्मक कहा जासकै । इस प्रकार अनुमानका सच्चापना तभी सिद्ध हो सकता है जब यह प्रत्यक्ष झूठा होजाय और जब अनुमान सच्चा सिद्ध होजाय तब यह प्रत्यक्ष झूठा सिद्ध होसकै । ऐसे दोषको अन्योन्याश्रय दोष कहते है । यह दोष दुर्निवार है । क्योंकि; जो दोनोंमेंसे कोई भी एक दूसरेके विना सिद्ध नही होसकता है वह किसी प्रकार भी सिद्ध नही होसकता है । और भी तीसरा दोष यह है कि यदि बाह्य पदार्थ कुछ है नही तो स्थानकी ऐसी निश्चय प्रतीति क्यों होती है कि अमुक वस्तु अमुक स्थानपर ही है अन्यत्र नही है । यदि बाह्य वस्तु है ही नही तो | किसी खास स्थानका ऐसा संकल्पमात्र भी नही होना चाहिये कि अमुक वस्तु अमुक स्थानपर ही है अन्यत्र नही है । अनादि का - लसे प्रवृत्त हुई झूठी वासनाओंकी प्रवृत्तिसे किसी खास स्थान में संकल्पमात्रका होजाना मानना भी ठीक नही है । क्योंकि; | ज्ञानके अतिरिक्त वासना भी कोई सच्ची भिन्न वस्तु नही है इसलिये वासनासे भी स्थानका संकल्प निश्चय करना असंभव है । | यदि ज्ञानके अतिरिक्त यथार्थमें कोई बाह्य पदार्थ हो तो जहांपर वह पदार्थ होगा वहां ही उस पदार्थकी वासना होना भी माना जासकता है। क्योंकि; वासना उत्पन्न करनेका हेतु वहां विद्यमान है । परंतु जब ऐसा बाह्य पदार्थ ही कोई नही है जिसके | कारण वासना उत्पन्न हो सकती है तो वासना भी उस स्थानपर है जिस स्थानपर पदार्थ माना जाता है ऐसा निश्चय किस प्रकार हो' । अब यहां पर बौद्ध कहता है कि अमुक वस्तु अमुक स्थानपर ही है अन्यत्र नही है ऐसा संकल्प होनेका भी कोई कारण अवश्य है । कारणोमें जबतक अंतर न हो तबतक कार्योंमें परस्पर भेद नही होसकता है । और स्थानके नियम करनेका कोई बाह्य कारण तो है ही नही यह बात हम प्रथम ही कहचुके है इसलिये इसका कारण कोई दूसरा ही होना चाहिये । वह दूसरा कारण इस जीवके साथ लगी हुई नाना प्रकारकी वासना ही है । परंतु यह बौद्धका कहना १ 'दो पदार्थोंकी सिद्धि परस्पर एक दूसरेके आश्रित हो उसको अन्योन्याश्रय दोष कहते हैं । इसका उदाहरण जैसे—एक ताला ऐसा होता है जो विना तालीके बंद तो होजाता है परंतु विना तालीके खुल नही सकता है । ऐसे तालेकी ताली तो कदाचित् भूलसे मकान के भीतर ही रहगई हो और वह ताला मकानके वाहरसे लगादिया हो तो फिर जब ताली मिलजाय तब ताला खुलै और प्रथम ताला खुलै तो ताली मिलसकै । ऐसे प्रसंगपर एक कार्य दूसरा कार्य हो जानेके आश्रित है इसलिये न तो ताला ही खुल सकता है और न ताली ही आसकती है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादम. ॥१४२॥ सर्वथा मिथ्या है। क्योंकि वे नाना प्रकारकी वासना ज्ञानके अतिरिक्त कोई अन्य वस्तु है अथवा ज्ञानमय ही है ? यदि ज्ञानसे राजै.शा. अभिन्न ज्ञानमय ही है तो ज्ञान तो एक प्रकार ही बौद्धोंने माना है फिर वासना ज्ञानसे अभिन्न होकर भी नाना प्रकारकी होजानेमें क्या कारण है ? यदि ज्ञान के अतिरिक्त वासना कोई अन्य पदार्थ है तो और भी बाह्य पदार्थ जो प्रत्यक्ष दीखते हैं उनके माननेमें क्या बुराई है जिससे कि सर्व जनोंकी प्रतीतिको मिथ्या ठहराते हो। इस प्रकार ज्ञान और बाह्य पदार्थोंमें परस्पर भेद सिद्ध हुआ। तथा च प्रयोगः । विवादाध्यासितं नीलादि ज्ञानाव्यतिरिक्तं विरुद्धधर्माध्यस्तत्वात् । विरुद्धधर्माध्यासश्च ज्ञानस्य शरीरान्तः अर्थस्य च बहिः, ज्ञानस्याऽपरकालेऽर्थस्य च पूर्वकाले वृत्तिमत्त्वात् ; ज्ञानस्य आत्मनः सकाशादर्थस्य च स्वकारणेभ्य उत्पत्तेः; ज्ञानस्य प्रकाशरूपत्वादर्थस्य च जडरूपत्वादिति । अतो न ज्ञानाद्वैतेsभ्युपगम्यमाने वहिरनुभूयमानार्थप्रतीतिः कथमपि संगतिमङ्गति न च दृष्टमपह्नोतुं शक्यमिति। अत एवाह स्तुतिकारः "न संविदद्वैतपथेऽर्थसंवित्" इति। सम्यगवैपरीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तुस्वरूपमनयेति संवित् । स्वसंवेदन पक्षे तु संवेदनं संचित् ज्ञानम्। तस्या अद्वैतम् । द्वयोर्भावो द्विता । द्वितैव द्वैतं प्रज्ञादित्वात् स्वार्थिकेऽणि न y द्वैतमद्वैतं बाह्यार्थप्रतिक्षेपादेकत्वम् । संविदद्वैतं ज्ञानमेकं तात्त्विकं न बाह्योऽर्थ इत्यभ्युपगम्यते इत्यर्थः। To अनुमानसे भी इसको इस प्रकार सिद्ध करते है कि विवादापन्न जो नीलादिक पदार्थ है वे अवश्य ज्ञानके अतिरिक्त कोई भिन्न वस्तु है । क्योंकि ज्ञान तथा उन नीलादि पदार्थोंमें परस्पर विरुद्ध धर्म देखे जाते हैं । वे विरुद्ध धर्म कोनसे है ? ज्ञान, तो शरीरके भीतर ही रहता है और ज्ञेय पदार्थ शरीरके बाहिर भी रहते है; ज्ञेय पदार्थ तो ज्ञानसे पहिले समय भी मिलता है। परंतु ज्ञान केवल ज्ञेय पदार्थ उत्पन्न होचुकनेपर ही मिलता है; ज्ञान तो आत्मासे उत्पन्न होता है तथा ज्ञेय पदार्थ अपने अपने [. भिन्न भिन्न कारणोंसे उपजते है; इसी प्रकार ज्ञान तो सर्व पदार्थोंको प्रकाशनेवाला है तथा ज्ञेय पदार्थ स्वयं जड़खरूप है इत्यादि । ॐ ज्ञान तथा ज्ञेय पदार्थों में परस्पर बहुतसे विरोधी धर्म है। इसलिये यदि ज्ञानके अतिरिक्त कुछ भी बाह्य पदार्थ न माने १. जायगे तो बाहिरके पदार्थोंकी जो खयं अपने अपने अनुभवसे प्रतीति होती है वह किसी प्रकार सिद्ध न होसकैगी। और ॥१४२॥ प्रत्यक्ष दीखते हुए बाह्य पदार्थोंका "बाह्य पदार्थ है ही नहीं" ऐसा विनायुक्ति निषेध करना भी सहज नहीं है। इसीलिये स्तुति- ' कर्ता श्रीहेमचन्द्राचार्य कहते है कि "न संविदद्वैतपथेऽर्थसंवित्" । अर्थात्-केवल ज्ञानाद्वैत यदि माना जाय तो बाह्य Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थोका दीखना असंभव है। 'सं' अर्थात् जैसा पदार्थ है तैसा 'वित्' अर्थात् जिसके द्वारा वस्तुखभाव जानाजाय उसको संवित् कहते हैं । और जहांपर अपने आपको जाननेका प्रकरण हो उस स्थानपर केवल जाननेमात्रका नाम संवित् अथवा ज्ञान है । ऐसी संवित्का अद्वैत क्या सो कहते हैं। दो पदार्थोंके रहनेका नाम द्विता है । द्विताको ही द्वैत भी कहते है। क्योंकि; द्विता शब्दका अर्थ द्वित्व है । यहांपर द्विताशब्दका जो कुछ अर्थ है उतने ही अर्थमात्रकी विवक्षामें द्विताशब्दके अनंतर व्याकरणके नियमानुसार "प्रज्ञादिभ्यः" सूत्रकर 'अण्' प्रत्यय हो जाता है । इस अणू प्रत्ययके होनेसे ही द्विताशब्दका 'द्वैत' व द्वैत अर्थात् परस्पर भेदरूप न हो उसका नाम अद्वैत है। बाह्य पदार्थोंको न मानकर सर्वको एक ज्ञानमय ही माननेका नाम अद्वैत है । पहिले कहचुके है कि संवित् नाम ज्ञानका है । इसलिये संवित् ही केवल सत्य है, अन्य कोई भी वाद्य पदार्थ यथार्थमें नहीं || है ऐसे ही विचारका नाम संविदऽद्वैत है। भावार्थ-जो कुछ दीखता है वह सर्व ज्ञान ही है; ज्ञानके अतिरिक्त और कुछ भी बाह्य पदार्थ सञ्चा नहीं है ऐसे विचारको संविदद्वैत कहते हैं। al तस्य पन्था मार्गः संविदद्वैतपथस्तस्मिन्। ज्ञानाद्वैतवादपक्ष इति यावत् । किमित्याह "नार्थसंवित्"। येयं वहिर्मुख तयाऽर्थप्रतीतिः साक्षादनुभूयते सा न घटते इत्युपस्कारः । एतच्चानन्तरमेव भावितम् । एवं च स्थिते सति किमित्याह " विलूनशीण सुगतेन्द्रजालम्" इति । सुगतो मायापुत्रस्तस्य सम्बन्धि तेन परिकल्पितं क्षणक्षयादि वस्तुजातमिन्द्रजालमिवेन्द्रजालं; मतिव्यामोहविधातृत्वात् । सुगतेन्द्रजालं सर्वमिदं विलूनशीर्णम् । पूर्व विलून पश्चात् शीर्ण विलूनशीर्णम् । यथा किंचित्तृणस्तम्बादि विलूनमेव शीर्यते विनश्यति एवं तत्कल्पितमिन्द्रजालं तृणप्रायं धारालयुक्तिशस्त्रिकया छिन्नं सद्विशीर्यत इति। संविदद्वैतरूप विचारके अनुसार प्रवर्तनेको संविदद्वैतपथ कहते है । संविदद्वैतपथ अर्थात् ज्ञानाद्वैतमत । इस संविदद्वैतपथके IN माननेमें कोनसा दोष आता है? पदार्थोका ज्ञान नहीं होसकता है । अर्थात् जो यह बाह्य पदार्थों की प्रतीति साक्षात् अनुभव की जाती है वह प्रतीति केवल ज्ञानाद्वैत माननेसे नही उत्पन्न होसकैगी। इसका विचार भी अभी करचुके हैं। इस कथनसे यह सिद्ध हुआ कि बाह्य पदार्थ भी अवश्य कोई सत्य पदार्थ है और जो बौद्ध लोग बाह्य पदार्थों को नहीं मानते है वह मानना झूठा है। यह |सिद्ध होनेसे क्या हुआ? सुगत (बुद्ध) का बनाया हुआ इंद्रजाल फट गया। सुगत अर्थात् मायापुत्र । समस्त पदार्थ क्षण क्षणमें नष्ट .ே இ. த. உதி தி. உ.உ. ம் உ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जै.शा. स्याद्वादम. ॥१४३॥ इसीलिया है। जिस प्रकार पूंसका बना कारण तीक्ष्ण युक्तिरूप छुरीसे थोड़ा साविधं बुद्धिदुर्विधं जनं धू होते हैं, किसी प्रकार भी स्थिर नहीं है इत्यादि जो सुगतद्वारा झूठी कल्पना कीगई है वह एक झूठे इंद्रजालके समान है। क्योंकि बाजीगरोका बनाया हुआ अनेक प्रकारका इंद्रजाल अर्थात् मायामयी झूठा तमासा जिस प्रकार थोड़े समयतक तो भोले मनुष्योंकी बुद्धिको मोहित करता है परंतु अंतमें शीघ्र ही छिन्न भिन्न हो जाता है उसी प्रकार बौद्धका रचाहुआ यह मायामयी • झुठा तमासा भी मोले मनुष्योंके चित्तको कुछ समयपर्यंत तो मोहित करता है परंतु विचार करनेपर शीघ्र ही विघट जाता है। इसीलिये इसका नाम सुगतका इन्द्रजाल है। विचार करनेपर प्रथम तो इस इंद्रजालके टुकड़े टुकड़े हो जाते है और पीछेसे सर्वथा नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार घूसका बनाहुआ स्तम्ब थोड़ासा छेदनेसे ही नष्ट हो जाता है उसी प्रकार यह सुगतका कल्पित किया हुआ इन्द्रजाल तृणोके समान निस्सार होनेके कारण तीक्ष्ण युक्तिरूप छुरीसे थोड़ासा छेदनेपर ही विघट जाता है। ____ अथ वा यथा निपुणेन्द्रजालिककल्पितमिन्द्रजालमवास्तवतत्तद्वस्त्वद्धतोपदर्शनेन तथाविधं वृद्धिदर्विध जनं विप्रतार्य पश्चादिन्द्रधनुरिव निरवयवं विलूनशीर्णतां कलयति तथा सुगतपरिकल्पितं तत्तत्प्रमाणतत्तत्फलाऽभेदक्षणक्षयज्ञानार्थहेतुकत्वज्ञानाऽद्वैताभ्युपगमादि सर्व प्रमाणाऽनभिज्ञं लोकं व्यामोहयमानमपि युक्त्या विचार्यमाणं विशरारुतामेव सेवत इति । अत्र च सुगतशब्द उपहासार्थः। सौगता हि शोभनं गतं ज्ञानमस्येति सुगत इत्युशन्ति । ततश्चाहो तस्य शोभनज्ञानता येनेत्थमयुक्तियुक्तमुक्तम् । इति काव्यार्थः। ___ अथवा जिस प्रकार चतुर वाजीगरने जो इन्द्रजाल बनाया हो वह यद्यपि झूठी वस्तुओंसे भरा हुआ है तो भी वह अद्धत वस्तु ओंके दिखानेसे थोड़े समयतक भोले मनुष्योंके मनको मोहित करता है परंतु पीछे इंद्रधनुपके समान विलीन होता हुआ दीखता है । उसी प्रकार जिसमें प्रमाण तथा प्रमाणके फलको अभिन्न कहा है एवं क्षण क्षणमें सबका नाश बतलाया है तथा ज्ञानके अतिरिक्त कोई बाह्य पदार्थ नहीं है इस प्रकारका उपदेश किया है ऐसा जो सुगतका बनाया हुआ इन्द्रजाल वह प्रमाणके खरूपको न समझनेवाले भोले मनुष्योंके चित्तको मोहित करता हुआ भी युक्ति पूर्वक विचारनेपर बिखर जाता है । इस श्लोकमें सुगत शब्द केवल हसी करनेके अभिप्रायसे लिखा गया है। क्योंकि, गत नाम ज्ञान। सु अर्थात् सच्चा जिसका ज्ञान हो वह सुगत है ऐसा सुगत 8 शब्दका अर्थ सुगतके शिप्योने किया है। परंतु धन्य है उसके सुज्ञानको जिसने इस प्रकार असंगत युक्तिशून्य उपदेश किया। इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। ॥१४३॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तत्त्वव्यवस्थापकप्रमाणादिचतुष्टयव्यवहारापलापिनः शून्यवादिनः सौगतजातीयास्तत्कक्षीकृतपक्षसाधकस्य प्रमाणस्याङ्गीकाराऽनङ्गीकारलक्षणपक्षद्वयेऽपि तदभिमतार्थाऽसिद्धिप्रदर्शनपूर्वकमपहसन्नाह। al प्रमाण, प्रमिति, प्रमेय तथा प्रमाता ये चारों पदार्थसिद्धि करनेके कारण है इसलिये इनके द्वारा ही व्यवहार प्रवर्तता है । ५|| कछ भी न माननेवाले शून्यवादी अर्थात् एक प्रकारके बौद्ध इन चारोंका निषेध करते है। परंतु वे शून्यताका मंडन भी किसी ल अनुमानादि प्रमाण द्वारा ही करते होंगे। वह अनुमानादि प्रमाण यदि सच्चा है तो सर्वथा शून्यता सिद्ध होना असंभव है। और यदि वह अनुमानादि प्रमाण भी सर्वथा झूठ है तो झूठे अनुमानादिसे कुछ सिद्ध हो नही सकता है इसलिये भी शन्यताकी सिटि होना असंभव है । इस प्रकार अब शून्यवादीकी हसी करते हुए आचार्य कहते है। विना प्रमाणं परवन्न शून्यः स्वपक्षसिद्धेः पदमश्नुवीत । कुप्येत्कृतान्तः स्पृशते प्रमाणमहो सुदृष्टं त्वदसूयिदृष्टम् ॥ १७॥ मलार्थ-अन्य वादी तो प्रमाणादिको मानते हैं इसलिये अपने इष्ट सिद्धान्तोंको सिद्ध करसकते है परंतु यह शून्यवादी उन परवादियोंके समान अपने शून्यवादको सिद्ध नहीं करसकता है। क्योंकि, जिससे सिद्धि होसकती है ऐसे प्रमाणादिको यह झूठा मानता है। और यदि यह शून्यवादी प्रमाणका आश्रय लेकर अपने सिद्धांतको साधै तो इसका शून्यतामय सिद्धान्त कोप करने लगै। क्योंकि, प्रमाणका आश्रय लेनेसे प्रमाण पदार्थ सिद्ध होजाता है इसलिये शून्यता नहीं रहसकती है। हे भगवन् ! आपके मतके साथ ईर्षा रखकर अपने नये नये मतोंका निरूपण करनेवालोने क्या अच्छा कहा है !!! अर्थात् ऐसा निरूपण किया। है कि जिसका सिद्ध होना ही कठिन है। __व्याख्या-शून्यः शून्यवादी प्रमाणं प्रत्यक्षादिकं विना अन्तरेण खपक्षसिद्धे स्वाभ्युपगतशून्यवादनिष्पत्तेः पदं प्रतिष्ठां नाचवीत न प्राप्नुयात् । किंवत् ? परवत् इतरप्रामाणिकवत् । वैधयेणायं दृष्टान्तः । यथा इतरे प्रामाणिकाः प्रमाणेन साधकतमेन स्वपक्षसिद्धिमनुवते एवं नायम् अस्य मते प्रमाणप्रमेयादिव्यवहारस्याऽपारमार्थिकत्वात् “सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्ध्यारूढेन धर्मधर्मिभावेन न वहिः सद Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा..शा. स्याद्वादम. ॥१४४॥ धू सत्त्वमपेक्षते" इत्यादिवचनात् । अप्रमाणकश्च शून्यवादाभ्युपगमः कथमिव प्रेक्षावतामुपादेयो भविष्यति? प्रेक्षा वत्त्वव्याहतिप्रसङ्गात् । अथ चेत्स्वपक्षसंसिद्धये किमपि प्रमाणमयमङ्गीकुरुते तत्रायमुपालम्भः-कुप्येदित्यादि। प्रमाणं प्रत्यक्षाद्यन्यतमत्स्पृशते आश्रयमाणाय प्रकरणादस्मै शून्यवादिने कृतान्तः तत्सिद्धान्तः कुप्येकोपं कुर्यात् । सिद्धान्तबाधः स्यादित्यर्थः । यथा किल सेवकस्य विरुद्धवृत्त्या कुपितो नृपतिः सर्वस्वमपहरति एवं तत्सिद्धान्तोऽपि शून्यवादविरुद्धं प्रमाणव्यवहारमङ्गीकुर्वाणस्य तस्य सर्वस्वभूतं सम्यग्वादित्वमपहरति । ___व्याख्यार्थ-शून्यवादी प्रत्यक्षादि प्रमाणका आश्रय विना लिये अपने माने हुए शून्यवादकी सिद्धि करनेकी प्रशंसाको नही । १ पासकता है । किस प्रकार ? जिस प्रकार अन्यवादी अपने सिद्धांतोंका मंडन कर प्रशंसा पाते हैं । यह दृष्टान्त प्रतिष्ठा न पानेवाले शून्यवादीकी अपेक्षा उलटा है । अर्थात्-अन्यवादी अपने सिद्धांतोको प्रमाणद्वारा सिद्धकर जैसी प्रशंसा पासकते हैं तैसी प्रशंसा यह शून्यवादी जबतक प्रमाणका आश्रय नही लैगा तबतक कभी नही पासकता है । क्योंकि, इसके मतमें प्रमाण की प्रमेयादिकका व्यवहार मानना ही जब झूठा बताया है तो शून्यवादकी सिद्धि कैसे होसकती है ? शून्यवादियोंके सिद्धान्तमें । । ऐसा कहा भी है कि "केवल बुद्धिमें यह धर्म है, यह धर्मी है इत्यादि कल्पना करनेमात्रसे ही यह संपूर्ण अनुमान अनुमेया दिका व्यवहार चलता है। किंतु किसी बाह्य पदार्थके होने न होनेकी अपेक्षा नहीं करता है"। इस कथनके अनुसार जिस शून्य६ वादकी सचाई किसी प्रमाणसे निश्चित ही नही होसकती है उस शून्यवादका आदर बुद्धिमानोंके पास किस प्रकार होसकता है ? • कदाचित् विना परीक्षा किये ही योग्य अयोग्यका विचार न करता हुआ जो कोई उसका ग्रहण करै तो वह मूर्ख समझना चाहिये। ६ यदि कदाचित् शून्यवादी अपना शून्यवाद सिद्ध करनेके अभिप्रायसे किसी प्रमाणको खीकार करै तो उसके ऊपर आगे कहा १. हुआ दोष आपड़ता है। वह दोष यह है कि प्रत्यक्षादि किसी प्रमाणका आश्रय लेते हुए शून्यवादीके ऊपर उसीका माना हुआ सिद्धान्त कोप करने लगेगा । अर्थात् शून्यवादपनेमें बाधा आजायगी । जिस प्रकार सेवकके विरुद्ध आचरणसे कुपित हुआ राजा सेवकका सर्वख हरलेता है उसी प्रकार शून्यवादरूपी सिद्धान्त शून्यवादके विरुद्ध प्रमाणादि आचरणको खीकार करते हुए। शून्यवादीको देखकर उस शून्यवादीका सर्वख हरलेगा । शून्यवादका भलेप्रकार निरूपण करना ही शून्यवादीका सर्वख है। ॥१४४॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NI किं च स्वागमोपदेशेनैव तेन वादिना शून्यवादः प्ररूप्यते इति स्वीकृतमागमस्य प्रामाण्यमिति कुतस्तस्य स्वप-IN ताक्षसिद्धिः? प्रमाणाङ्गीकरणात् । किं च प्रमाणं प्रमेयं विना न भवतीति प्रमाणाऽनङ्गीकरणे प्रमेयमपि विशीर्णम् । ततश्चास्य मूकतैव युक्ता न पुनः शून्यवादोपन्यासाय तुण्डताण्डवाडम्बरं; शून्यवादस्यापि प्रमेयत्वात् । अत्र च स्पृशिधातुं कृतान्तशब्दं च प्रयुञ्जानस्य सूरेरयमभिप्रायः। यद्यसौ शून्यवादी दूरे प्रमाणस्य सर्वथाङ्गीकारो यावप्रमाणस्पर्शमात्रमपि विधत्ते तदा तस्मै कृतान्तो यमराजः कुप्येत् । तत्कोपो हि मरणफलः । ततश्च स्वसिद्धान्तविरुद्धमसौ प्रमाणयन्निग्रहस्थानापन्नत्वान्मृत एवेति । सा और भी एक दोष यह है कि शून्यवादी जो शून्यवादका उपदेश करता है वह अपने आगमके कथनानुसार ही करता है इसलिये उसने अपने आगममें तो सत्यता खीकार कर ही ली तो फिर सर्वथा शून्यपना किस प्रकार सिद्ध होसकता है? क्योंकि एक आगमकी प्रमाणता तो वह स्वयं स्वीकार करचुका । और भी एक दूसरा दोष यह है कि प्रमाणकी सिद्धि प्रमेयके विना नही होसकती है इसलिये यदि शून्यवादी प्रमाणको नही माने तो प्रमेय पदार्थ भी सिद्ध नही हो सक यदि प्रमेय कुछ हैं ही नही तो शून्यवादकी सिद्धि करनेकेलिये अधिक प्रलाप करना भी वृथा है किंतु मौन ही धारण करना चाहिये । क्योंकि शून्यवाद भी एक प्रकारका प्रमेय है। भावार्थ-जब शून्यवादी ऐसा कहचुका है कि प्रमेयमात्र कुछ वस्तु नही है तो शून्यवादकी सिद्धि भी क्यों करनी चाहिये । यहांपर 'स्पृश' धातुके तथा 'कृतान्त' ( यमराज ) शब्दके लिखनेसे आचार्यका यह अभिप्राय है कि प्रमाणका खीकार करना तो दूर ही रहा किंतु यदि यह शून्यवादी प्रमाणका स्पर्शमात्र भी करैगा तो इसके ऊपर यमराज कोप करने लगेगा। भावार्थ-कृतान्त शब्दके अर्थ दो हैं प्रथम यमराज दूसरा सिद्धान्त अथवा मत ।। ऐसे दो अर्थवाले शब्दोके लिखनेसे कारिकाके अर्थकी दूसरी ध्वनि भी निकल सकती है । वह ध्वनि यही है कि जिस प्रकार यमराजका कोप होनेसे जीवकी मृत्यु हो जाती है उसी प्रकार यहां भी वह अपने शून्यवादसिद्धान्तके विरुद्ध जो प्रमाणोंको खीकार करता है उससे वह निग्रह स्थानमें पतित हुआ समझा जाता है। अर्थात् वह अपने शून्यवादमय मतके विरुद्ध प्रमाणरूप एक पदार्थकी सत्ताका खीकार करनेसे अपने सिद्धांतसे पतित समझा जाता है। अपने वचनपर स्थिर रहना ही तो प्रामाणिकका जीना है और उससे च्युत हो जाना ही उसका मरण समझना चाहिये। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. एवं सति ( अहोइत्युपहासप्रशंसायां ) तुभ्यमसूयन्ति गुणेषु दोषानाविष्कुर्वन्तीत्येवं शीलास्त्वदसूयिनस्तन्त्रा- राजै.शा. तरीयास्तैदृष्टं मत्यज्ञानचक्षुषा निरीक्षितं अहो सुदृष्टं साधु दृष्टम् ! विपरीतलक्षणयोपहासान्न सम्यगदृष्टमित्यर्थः। अत्राऽसूयधातोस्ताच्छीलिकणकप्राप्तावपि बाहुलकाण्णिन् । असूयाऽस्त्येषामित्यसूयिनस्त्वय्यऽसूयिनस्त्वदसूयिन इति मत्वर्थीयान्तं वा । त्वदसूयुदृष्टमिति पाठेऽपि न किंचिदचारु; असूयुशब्दस्योदन्तस्योदयनाद्यैायतात्पर्यपरिशुद्ध्यादौ मत्सरिणि प्रयोगादिति । इस प्रकार शून्यवादीका मत सदोष सिद्ध होनेपर 'अहो' शब्दसे उसकी हसी करते है । 'अहो' शब्दका अर्थ कहीपर तो हसी करना होता है और कहीपर प्रशंसा करना होता है । हे भगवन्! तुझारे विषयमें असूया करनेवाले अर्थात् तुझारे गुणोंमें | दोष प्रकट करनेकी इच्छा रखनेवाले अन्यमतोंके धारक लोगोने जो कुछ अपने खोटे मतिज्ञानरूपी नेत्रोंसे देखा है वह 'अहो' " अर्थात् विचार करते हुए हमको हसी आती है कि कितना यथार्थ देखा है !!! यहांपर हसी इसलिये आती है कि उन्होने जो देखा है वह कुछ भी ठीक नही देखा है । यथार्थ देखा है ऐसा यहांपर कहना भी हसी आनेके कारण ही है। यहापर 'त्वदऽसूयिदृष्टम्' इस पदमें जो ‘असूयि' शब्द है वह असूय धातुसे असूया करना है खभाव जिसका ऐसे अर्थमें बनता है। और यद्यपि यहा 'ण' प्रत्यय प्राप्त होनेसे 'असूयक' शब्द बनना चाहिये था परंतु उस णकप्रत्ययके प्रकरणमे बहुलताके अर्थका आश्रय लियागया है इसलिये 'असूय' धातुसे णिन् प्रत्यय होजानेपर 'असूयि' शब्द भी बनजाता है। व्याकरणशास्त्रमें बहुलता उसीका नाम है जिसका आश्रय लेनेसे नियमविरुद्ध प्रत्यय भी प्रयोगपरिपाटीके अनुसार हो जाते है। अथवा जिनमें असूया ) रहती हो वे असूयी है इस प्रकार 'असूया' शब्दसे तद्धितके प्रकरणकी मत्वर्थीय 'इन्' प्रत्यय करनेसे भी 'असूयी' शब्द बनजाता है । जो तुझारे गुणोमें असूया करते है उनको त्वदसूयी कहते है। त्वदसूयियोंकर देखे हुए पदार्थको त्वदसूयिदृष्ट कहते है । पूर्वोक्त कारिकामे कोई 'त्वदसूयुदृष्टम् । ऐसा पाठ भी मानते है परंतु कुछ हानिकारक नहीं है। क्योंकि; ईर्षासूचक उकारांत असूयु शब्दका उच्चारण उदयनादिक ग्रन्थकारोने भी अपने बनाये हुए न्यायतात्पर्यपरिशुद्धि आदिक ग्रन्थोमें किया है। ॥१४५॥ इह शून्यवादिनामयमभिसंधिः-प्रमाता प्रमेयं प्रमाणं प्रमितिरिति तत्त्वचतुष्टयं परपरिकल्पितमवस्त्वेव विचाॐ रासहत्वात्तुरङ्गशृङ्गवत् । तत्र प्रमाता तावदात्मा । तस्य च प्रमाणग्राह्यत्वाऽभावादभावः। तथा हि । न प्रत्यक्षेण Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्सिद्धिरिन्द्रियगोचराऽतिक्रान्तत्वात् । यत्तु अहङ्कारप्रत्ययेन तस्य मानसप्रत्यक्षत्वसाधनं तदप्यनैकान्तिक । तस्याहं गौरः श्यामो वेत्यादौ शरीराश्रयतयाप्युपपत्तेः । किं च यद्ययमहङ्कारप्रत्यय आत्मगोचरः स्यात्तदा न कादाचित्कः स्यादात्मनः सदा सन्निहितत्वात् । कादाचित्कं हि ज्ञानं कादाचित्ककारणपूर्वकं दृष्टम् । यथा सौदामनीज्ञानमिति । नाप्यनुमानेन अव्यभिचारिलिङ्गाऽग्रहणात् । आगमानां च परस्परविरुद्धार्थवादिनां नास्त्येव प्रामाण्यम् । तथा हि । एकेन कथमपि कश्चिदर्थो व्यवस्थापितोऽभियुक्ततरेणाऽपरेण स एवान्यथा व्यवस्थाप्यते । स्वयमव्यवस्थितप्रामाण्यानां च तेषां कथमन्यव्यवस्थापने सामर्थ्यम् ? इति नास्ति प्रमाता। ___ यहांपर शून्यवादी ऐसा कहते है कि प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण तथा प्रमिति ये चार तत्त्व जो अन्यवादियोंने कल्पित करलिये हैं वे सर्वथा झूठ है। क्योंकि; विचार करनेपर जिस प्रकार घोडेके सीग किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होते उसी प्रकार ये चारों तत्त्व भी सिद्ध नहीं होते है । इनमेंसे प्रमाता नाम आत्माका है। परंतु इस आत्माका किसी प्रमाणद्वारा ज्ञान न होनेसे यथार्थमें कुछ है ही नहीं। यही दिखाते है। प्रत्यक्षसे तो यह आत्मा जाना ही नही जासकता । क्योंकि इंद्रिय केवल रूप, रस, गध, KG स्पर्शवाले पदार्थोंको ही जान सकती है और इस आत्मामें रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं नहीं किंतु यह अरूपी है इसलिये इसको नही जान सकती है। और इस आत्माके आश्रय होनेवाले अहंकारका मानसिक प्रत्यक्ष होनेसे आत्माका मानसिक प्रत्यक्ष मानना भी असत्य है । क्योंकि मै गौरवर्ण हूं अथवा काला हू इस प्रकार जो अहंकार होता है वह शरीरका आश्रय लेकर भी उत्पन्न हो सकता है । जिस धर्मका जिसके साथ संबन्ध माना जाता है उसके अतिरिक्त किसी दूसरे पदार्थके साथ भी उसका संबन्ध यदि रह सकता हो तो उस धर्मको हेतु मानना व्यभिचारी है। और यदि अहंकारका ज्ञान आत्मामें ही होता हो तो कदाचित् ही न होना चाहिये किंतु सदा ही होते रहना चाहिये । क्योंकि, जिस आत्मामें यह उत्पन्न होता है वह आत्मा सदा विद्यमान रहता है । जो ज्ञान कदाचित् ही होता है, सदा नही होता है वह ज्ञान कदाचित् कदाचित् उत्पन्न होनेवाले कारणोंसे ही उत्पन्न होता हुआ देखा | जाता है। जैसे बिजलीका ज्ञान । इस प्रकार प्रत्यक्षसे आत्माकी सिद्धि होना तो असंभव है ही परंत अनमानसे क्योंकि जो आत्माके साथसे कभी बिछुड़ता न हो किंतु सदा साथ ही मिलता हो ऐसा कोई हेतु नहीं दीखता है। और आगम परस्पर विरुद्ध पदार्थों को कहनेवाले है इसलिये उनकी तो प्रमाणता होना ही दुर्लभ है । यही दिखाते है । एक शास्त्र जिस Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादम. ॥१४६॥ पदार्थको जिस प्रकार सिद्ध करता है उस पदार्थको दूसरा शास्त्र उस प्रकारसे अन्यथा ही साधता है । इस प्रकार जब शास्त्रोमें राजै.शा. परस्पर खयं ही प्रमाणता नही दीखती है तो वे दूसरे पदार्थोंका निश्चय किस प्रकार करासकते है ? इस प्रकार प्रमाता जो आत्मा माना गया है उसकी सिद्धि किसी प्रमाणसे भी नही होनेके कारण प्रमाता कोई वस्तु नहीं है। - प्रमेयं च वाह्योऽर्थः । स चानन्तरमेव वाह्यार्थप्रतिक्षेपक्षणे निलोठितः।प्रमाणं च स्वपराऽवभासि ज्ञानम् । तच्च प्रमेयाऽभावे कस्य ग्राहकमस्तु? निर्विषयत्वात् । किं चैतदर्थसमकालं तद्भिन्नकालं वा तद्ग्राहकं कल्प्येत ? आद्यपक्षे त्रिभुवनवर्तिनोऽपि पदार्थास्तत्राऽवभासेरन्; समकालत्वाविशेषात् । द्वितीये तु निराकारं साकारं वा तत्स्यात् ? प्रथमे प्रतिनियतपदार्थपरिच्छेदानुपपत्तिः। द्वितीये तु किमयमाकारो व्यतिरिक्तोऽव्यतिरिक्को वा ज्ञानात् ? अव्यतिरेके ज्ञानमेवायम् । तथा च निराकारपक्षदोपः। व्यतिरेके यद्ययं चिद्रूपस्तदानीमाकारोऽपि वेदकः स्यात् । तथा चायमपि निराकारः साकारो वा तद्वेदको भवेदित्यावर्त्तनेनानवस्था । अथाचिद्रूपः किमज्ञातो ज्ञातो वा तज्ज्ञापकः स्यात् ? प्राचीने विकल्पे चैत्रस्येव मैत्रस्यापि तज्ज्ञापकोऽसौ स्यात् । तदुत्तरे तु निराकारेण साकारेण वा ज्ञानेन तस्यापि ज्ञानं स्यादित्याद्यावृत्तावनवस्थैवेति । बाह्य पदार्थको प्रमेय कहते है। परंतु बाह्य पदार्थका विचार हालहीमें बाद्य पदार्थका खंडन करते समय करचुके है। अर्थात् उस प्रमेयका खंडन अभीहाल करचुके है। प्रमाण उसको कहते है जो अपना तथा परका जतानेवाला हो । परंतु जब प्रमेयरूप बाह्य पदार्थ ही कोई वस्तु नहीं है तो विषय न रहनेपर प्रमाण जताबेगा किसको ? और यदि प्रमेय तथा प्रमाण माने भी जाय तो क्या जब पदार्थ उत्पन्न होता है उसी समय प्रमाण उसको जानता है अथवा किसी दूसरे समय : यदि कहो कि पदार्थ जब उत्पन्न होता है तभी प्रमाण उस पदार्थको जानता है तो तीनो लोकमें होनेवाले सभी पदार्थ उस ज्ञानमें प्रतिभासित होने चाहिये । क्योंकि, समकालीन होनेसे जिस पदार्थको जिस समयमें जिस प्रकार जो ज्ञान जानता है उसी प्रकार से और भी पदार्थ जो उसी समय उत्पन्न होते है वे सर्व उस ज्ञानके समकालीन है। यदि कहो कि पदार्थ उत्पन्न होजानेके ३ ॥१४६॥ अनंतर प्रमाण उस पदार्थको जानता है तो क्या जिस ज्ञानसे पदार्थ जाना जाता है वह ज्ञान निराकार ही है अथवा उसका कुछ ६ आकार भी है ? यदि वह ज्ञान निराकार ही है तो जिसका कुछ आकार ही नहीं है उस ज्ञानमें प्रत्येक पदार्थका निश्चय होना है Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - कठिन है। अर्थात् यह अमुक है अथवा अमुक नहीं है ऐसा निश्चय उसीसे होसकता है जिसका कुछ आकार विद्यमान हो। और यदि यह किसी आकार सहित है तो भी वह ज्ञानका आकार उस ज्ञानसे कोई भिन्न वस्तु है अथवा अभिन्न ? यदि अभिन्न है तो वह ज्ञान ही है इसलिये ज्ञानके अतिरिक्त कोई भिन्नखरूप आकार न होनेसे ऊपर कहा हुआ निराकार पक्षका दोष यहां भी आसकता है। और यदि वह आकार ज्ञानके अतिरिक्त कोई भिन्न वस्तु है तो वह आकार चैतन्यखरूप है अथवा जडखरूप यदि चैतन्यखरूप है तो जिस प्रकार ज्ञान जिस पदार्थको जानता है उसी प्रकार यह ज्ञानका आकार भी | उस पदार्थको जानता होगा ऐसा मानना चाहिये । और जब ज्ञानका आकार भी पदार्थको जानता है ऐसा सिद्ध हुआ तब वह आकार भी खयं किसी दूसरे आकार सहित है अथवा निराकार है ? यदि निराकार है तो पदार्थों का निश्चय होना कठिन है। और यदि साकार है तो वह आकार चैतन्यस्वरूप है अथवा जड़खरूप यदि चैतन्यस्वरूप है तो जिस प्रकार ज्ञान तथा ज्ञानका प्रथम आकार पदार्थको जानते है उसी प्रकार वह आकारका आकार भी उस पदार्थको जानने लगेगा । इत्यादि पूर्वोक्त विकल्प ही उत्तरोत्तर फिर संभव होनेसे अनवस्था दोष आवैगा । उत्तरोत्तर विचार करते करते भी अंत न मिलनेको अनवस्था कहते हैं। और यदि वह ||आकार जड़स्वरूप है तो क्या वह आकार स्वयं अज्ञात रहकर ही ज्ञानद्वारा पदार्थके जाननेमें सहायक होता है होनेपर / यदि स्वयं अज्ञात रहकर ही पदार्थके जाननेमें सहायक है तो जो पदार्थ किसी एक प्राणीको जान पड़ता है उसका ज्ञान दूसरेको भी होना चाहिये । क्योंकि; ज्ञानका आकार खयं अज्ञातपनेकी अपेक्षा उस दूसरे प्राणीमें भी विद्यमान है। और यदि ज्ञात होकर पदार्थके ज्ञान होनेमें सहायक मानाजाय तो उस जड़खरूप आकारका ज्ञान किसी निराकार ज्ञानद्वारा हुआ है अथवा साकार ज्ञानद्वारा ? यदि किसी निराकार ज्ञानसे उस आकारका ज्ञान मानाजाय तो उस आकारका निराकार ज्ञानद्वारा निश्चय होना दुर्लभ है। इत्यादि प्रकारसे वारंवार पूर्वोक्त विकल्पोको ही लौटाते लौटाते कहींपर स्थिति नहीं रहसकती है इसलिये यहां भी अनवस्था दोष आता है। | इत्थं प्रमाणाऽभावे तत्फलरूपा प्रमितिः कुतस्तनी ? इति सर्वशून्यतैव परं तत्त्वमिति । तथा च पठन्ति “यथा ) यथा विचार्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा । यदेतत्स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्" । इति पूर्वपक्षः। विस्तरतस्तु प्रमाणखण्डनं तत्त्वोपप्लवसिंहादवलोकनीयम् । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाद्वादमं. ॥१४७॥ इस प्रकार जब प्रमाण ही सिद्ध नहीं होता तो प्रमाणके फलरूप प्रमितिकी क्या कथा ! इमलिये सर्वथा शून्यता मानना । ग.जैसा ही उत्तम सिद्धांत है । ऐसा ही कहा भी है "जैसा जैसा विचार करते है तैसा तैना ही पदार्थमा विलय होता जाता है। यदि कोई पूछ कि तुम प्रत्यक्ष दीखते हुए पदार्थोंका अभाव कैसे करसकते हो तो हम उत्तर देते है कि हम कुछ नहीं करते है परंतु * जब पदार्थोंका खरूप ही ऐसा है तो उसमें हमारा करना क्या है ? इस प्रकार शून्यवादी अपने मतका मंडन करता है। यदि विस्तारसे इसका विवेचन देखना हो तो तत्त्वोपप्लवसिंहनामक ग्रन्थसे देखलेना चाहिये । ४ अत्र प्रतिविधीयते । ननु यदिदं शून्यवादव्यवस्थापनाय देवानांप्रियेण वचनमुपन्यस्तं तच्छून्यमशून्यं वा ? शून्यं चेत्सर्वोपाख्याविरहितत्वात् खपुप्पणेव नानेन किंचित्साध्यते निषिध्यते वा । ततश्च निष्प्रतिपक्षा प्रमाणादितत्त्वचतुष्टयीव्यवस्था । अशून्यं चेत्मलीनस्तपस्वी शून्यवादः; भवदचनेनैव सर्वशून्यताया व्यभिचारात् । तत्रापि निष्कण्टकैव सौ भगवती । तथापि प्रामाणिकसमयपरिपालनार्थ किंचित्तत्साधनं दृष्यते । तत्र यत्ता५ वदुक्तं प्रमातुः प्रत्यक्षेण न सिद्धिरिन्द्रियगोचराऽतिक्रान्तत्वादिति तत्सिद्धसाधनम् । यत्पुनरहप्रत्ययेन तस्य । मानसप्रत्यक्षत्वमनैकान्तिकमित्युक्तं तदसिद्धम् अहं सुख्यहं दुःखीत्यन्तमुखस्य प्रत्ययत्य आत्मालम्बनतयैवोपपत्तेः । तथा चाहुः "सुखादि चेत्यमानं हि स्वतन्त्रं नानुभूयते । मतुवर्थानुवेधात्तु सिद्धं ग्रहणमात्मनः॥१इदं सुख मिति ज्ञानं दृश्यते न घटादिवत् । अहं सुखीति तु ज्ञप्तिरात्मनोऽपि प्रकाशिका । २।" यत्पुनरहं गौरोहं श्याम G इत्यादिवहिर्मुखः प्रत्ययः स खल्वात्मोपकारकत्वेन लक्षणया शरीरे प्रयुज्यते । यथा प्रियभृत्येऽहमितिक " व्यपदेशः। ____ अब इस शून्यबादीके मतका खंडन करते हैं। हम पूछते हैं कि इस शून्यवादीने सर्वशून्यता सिद्ध करनेकेलिये जो वचन बोला है वह भी कुछ है अथवा शून्यरूप ही है। यदि कुछ नहीं है किंतु शून्य ही है तो जिस प्रकार गधेके सीग कुछ न होनेसे कुछ नहीं कर सकते है उसी प्रकार इसके वचनसे भी अमरूप होनेके कारण न तो किसी शून्यवादादिककी सिद्धि होस ॥१४॥ y कती है और न किसी विद्यमान पदार्थका निषेध होसकता है। इसलिये ऐसे शून्यवचनद्वारा निषेध न होसफनेसे ही प्रमा १ अशून्यपक्षेऽपि । २ तवचतुष्टयी। ३ वेद्यमानम् । अनुरोधात् । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nणादि चारो विषयोंका होना निष्कंटक सिद्ध होता है । और यदि शून्यवादी अपने वचनको कुछ है ऐसा मानता हो तो विचारा उस | शून्यवादीका खेदखिन्न शून्यवाद ही नष्ट होजायगा। क्योंकि, जब उसीका वचन कुछ विद्यमान सत्तारूप पदार्थ है तो सर्वशून्यता कहां रही इसलिये अब भी हमारी प्रमाणादि चतुष्टयरूप भगवती अर्थात् वाणी निष्कंटक सिद्ध है। इस प्रकार यद्यपि हमारी वाणीका खण्डन शून्यवादीके वचनोसे नहीं होसकता है तो भी युक्तिपूर्वक विचार करनेवाले विद्वानोकी परिपाटीके अनुसार शून्यवादीके वचनोमें और भी दोष दिखाते हैं । शून्यवादीने सबसे प्रथम जो यह कहा कि प्रमाता जो आत्मा उसकी सिद्धि प्रत्यक्ष ज्ञानसे नही है क्योंकि आत्मा इंद्रियगोचर नही है सो यह कहना हमको भी इष्ट है । अर्थात् हम भी यही मानते हैं कि आत्मा इंद्रियगोचर न होनेसे प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है। परंतु जो यह कहा कि मै सुखी हू मै दुःखी हु इत्यादि अपने अंतरंगमें उत्पन्न हुए मानसिक प्रत्यक्षसे भी आत्मसिद्धि होना असभव है क्योंकि, ऐसा ममत्वका ज्ञान शरीरको अपना निज खरूप माननेसे भी होसकता है सो यह कहना असत्य है क्योंकि मै सुखी हू मै दुःखी हू ऐसा अंतरंगको विषयकरनेवाला ज्ञान आत्मामें ही उत्पन्न हो सकता है यही कहा भी है “ सुखादिकका जो अनुभव होता है वह आधारके विना नहीं होसकता है इसलिये सुखादिकके ज्ञानद्वारा उसके आधारभूत आत्माका भी प्रत्यक्ष होना सिद्ध होता है। यह सुख है अथवा दुःख है ऐसा जो ज्ञान होता है वह ऐसा नही मालुम पड़ता है जैसा कि घटादि बाह्य पदार्थोका ज्ञान मालुम पड़ता है। अर्थात् घटादिकोका ज्ञान तो बाहिरकी तरफको ऐसा होता है कि यह घड़ा अपनेसे भिन्न अमुक स्थानपर है परंतु मै सुखी हू यह सुखज्ञान घडेके समान वाहिरकी तरफ होता हुआ अनुभवमें नही आता है KOI किंतु भीतरकी तरफ खास आत्माके आलंबनपूर्वक ही होता है। इसलिये इस मानस प्रत्यक्षसे आत्माका प्रत्यक्ष सिद्ध होना अनु भवसे सिद्ध होता है"। और जो मै काला हू मै गौर हू इत्यादि शरीरको माननेवाला ज्ञान होता है वह प्रयोजनके वश होकर शरीर में आरोपित किया है; न कि यथार्थमें शरीरादिक ही अहंकारके आधार है। आरोपित करनेका निमित्त भी यह है कि आत्माके सुख दुःख होनेमें शरीर सहकारी है तथा आत्माके अत्यंत निकट है । अर्थात्-यह निमित्त पाकर ही आत्मामें होनेवाले अहंकारको हमलोग शरीरके आश्रित समझते है । निमित्तके विना भी यदि एकका दूसरेमें आरोपण होसकता हो तो आरोपण करते करते कभी छुटकारा ही न मिलसकै । इस आत्माके अहंकाररूप धर्मका जिसका कि शरीरमें आरोपण होता है ठीक ऐसा ही मानना है जैसा प्यारे नोकरको मानना कि यह नोकर जुदा नही है कि मेरा ही शरीर है। T Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा. स्थाद्वादमं. ॥१४८॥ यच्चाहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वं तत्रेयं वासना ।-आत्मा तावदुपयोगलक्षणः। स च साकाराऽनाकारोपयोगयोरन्यतरस्मिन्नियमेनोपयुक्त एव भवति । अहंप्रत्ययोऽपि चोपयोगविशेष एव । तस्य च कर्मक्षयोपशमवैचिच्यादिन्द्रियाऽनिन्द्रियालोकविषयादिनिमित्तसव्यपेक्षतया प्रवर्त्तमानस्य कादाचित्कत्वमुपपन्नमेव । यथा वीजं सत्यामप्यङ्करोपजननशक्तौ पृथिव्युदकादिसहकारिकारणकलापसमवहितमेवाङ्करं जनयति; नान्यथा । न चैतावता तस्याङ्करोत्पादने कादाचित्केऽपि तदुत्पादनशक्तिरपि कादाचित्की; तस्याः कथंचिन्नित्यत्वात् । एवमात्मनः सदा सन्निहितत्वेऽप्यहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् । यदप्युक्तं तस्याऽव्यभिचारि लिङ्गं किमपि नोपलभ्यत इति तदप्यसारं; साध्याऽविनाभाविनोऽनेकस्य लिङ्गस्य तत्रोपलव्धेः। ' अहंकारकी उत्पत्तिका कारण जो आत्मा है सो तो सदा ही विद्यमान है इसलिये यदि अहंकार आत्मामें होता हो तो सदा ही होना चाहिये परंतु सदा नहीं होता है सो क्यों ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है कि उपयोग नाम चेतनाका है । वह चेतना दोपकार है प्रथम निराकार दूसरी साकार । साकार चेतनाको ज्ञान कहते है और निराकारको दर्शन अथवा दर्शनोपयोग। ये ज्ञान दर्शन तो चेतनागुणके पर्याय हैं और चेतना सदा शाश्वता है और इन पर्यायोका मूल कारण है । पर्याय तो क्षणभंगुर | होते है परंतु गुण सदा विद्यमान रहता है तथा उसमें सदा कोई न कोई पर्याय उपजता तथा नष्ट होता ही रहता है। इसलिये चेतनाकी ज्ञान दर्शनरूप साकारनिराकार पर्यायोमेसे कोई न कोई पर्याय आत्मामें सदा होता ही रहता है। अहंकार भी एक प्रकारका ज्ञानरूप उपयोग है । आत्मामें बंधे हुए कर्मोमेंसे जिस समय जैसे ज्ञानावरण कर्मका क्षय तथा अनुदय होता है वैसा ही इन्द्रिय, मन तथा प्रकाशादिकोके सहारेसे इस आत्मामें ज्ञान उत्पन्न होता है । इस प्रकार आत्मामें ज्ञानोत्पत्तिकी शक्ति सदा रहनेपर भी ज्ञानके उत्पन्न होनेमें अनेक कारणोकी आवश्यकता होनेके कारण जब सर्व कारण मिलते है तभी ज्ञान प्रकट होसकता धू है, सदा नहीं। जैसे बीजमें अंकुर उत्पन्न करनेकी शक्ति यद्यपि सदा विद्यमान है तो भी अंकुरकी उत्पत्ति तभी होसकती है जब उत्पन्न होनेके योग्य मट्टी पानी आदिक सपूर्ण कारण एकत्रित होजाय । जबतक संपूर्ण कारण न मिलै तबतक अंकुरकी उत्पत्ति होना यद्यपि असंभव है तो भी उत्पत्ति न होनेसे ही ऐसा नही कहसकते है कि अंकुर उत्पन्न करनेकी शक्ति भी बीजमें कदाचित् ही होती है । क्योंकि, सभी शक्ति द्रव्यकी अपेक्षा सदा शाश्वती रहती है। इसी प्रकार यद्यपि आत्मा सदा सनिकट ॥१४८॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यमान रहता है तो भी ज्ञान तभी होसकता है जब संपूर्ण कारण एकत्रित होजाते है । और जो यह कहा कि इस आत्माको जतानेवाला एक भी ऐसा हेतु नही मिलता है जो आत्माके विना कही रह न सकता हो सो यह कहना भी मिथ्या है। क्योंकि, ऐसे अनेक हेतु मिलते है जो आत्माके अतिरिक्त कही रह ही नहीं सकते। all तथा हि । रूपाद्युपलब्धिः सकर्तृका क्रियात्वात् । छिदिक्रियावत् । यश्चास्याः कर्त्ता स आत्मा । न चात्र चक्षु रादीनां कर्तृत्वं; तेषां कुठारादिवत् करणत्वेनाऽस्वतन्त्रत्वात् । करणत्वं चैषां पौगलिकत्वेनाऽचेतनत्वात् परप्रेर्यजात्वात् प्रयोक्तृव्यापारनिरपेक्षप्रवृत्त्यभावात् । यदीन्द्रियाणामेव कर्तृत्वं स्यात्तदा तेषु विनष्टेषु पूर्वाऽनुभूतार्थस्मृ तेर्मया दृष्टं स्पृष्टं घ्रातमास्वादितं श्रुतमिति प्रत्ययानामेककर्तृकत्वप्रतिपत्तेश्च कुतः संभवः? किं चेन्द्रियाणां स्वस्वविषयनियतत्वेन रूपरसयोः साहचर्यप्रतीतौ न सामर्थ्यम् । अस्ति च तथाविधफलादे रूपग्रहणानन्तरं तत्सहचरितरसानुस्मरणं दन्तोदकसंप्लवाऽन्यथानुपपत्तेः । तस्मादुभयोर्गवाक्षयोरन्तर्गतः प्रेक्षक इव द्वाभ्यामिन्द्रियाभ्यां रूपरसयोर्दशी कश्चिदेकोऽनुमीयते । तस्मात्करणान्येतानि । यश्चैषां व्यापारयिता स आत्मा। lal अब उन हेतुओंको दिखाते है । रूपादिक गुणोका जो नेत्रादि द्वारा प्रत्यक्ष होता है वह प्रत्यक्ष कर्ता के बिना नही होसकता है। क्योंकि वह प्रत्यक्ष एक प्रकारकी क्रिया है। जैसे कुल्हाडीसे काटनेरूप जो क्रिया है वह बिना किसी कर्ताके नही होसकती है। जो इस देखने जानने आदिक क्रियाओंका कर्ता है उसीका नाम आत्मा है। और जिस प्रकार कुल्हाडीसे काटनेमे कुल्हाडी खय काटनेवाली नही है उसी प्रकार इंद्रियोंकी सहायतासे देखने जाननेमें भी इंद्रिय स्वयं देखने जाननेवाली नही होसकती किन्तु देखने जाननेवाला कोई और ही होना चाहिये। क्योंकि इन्द्रिया जैसे काटनेमें कुल्हाडी करणरूप होनेसे किसीके| परतन्त्र ही रहती है तैसे परतंत्र हैं। करण उसको कहते है जो खयं जडरूप होकर किसीकी प्रेरणासे ही कार्य करता हो किंतु जब प्रेरणा | करनेवाला न हो तब स्वतंत्र कुछ नहीं करसकता हो । यह करणका स्वरूप इंद्रियोंमें भी घटता है इसलिये इद्रियां भी करण ही है।.. कर्ता अपना कार्य करनेमें खतंत्र होता है; जब चाहता है तव प्रवर्तता है और जब नहीं चाहता है तब नही प्रवर्तता है । यह कर्ताका खरूप इंद्रियोंमें नही घटता है इसलिये इंद्रियां खयं कर्ता नही हैं । यदि इंद्रियां ही खयं कर्ता हों तो जिस इंद्रियसे जिस II किसी वस्तुका अनुभव पहिले किया था उस वस्तुके अनुभवका स्मरण तभीतक होना चाहिये जबतक वह इंद्रिय बनी रही हो।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादम. क्योंकि, जो अनुभवका कर्ता होता है वही उसका स्मरण करसकता है । परंतु उस इंद्रियके नष्ट होजानेपर भी ऐसा स्मरण होता रा.जै.शा. का कि मैने संघा था, देखा था, सुना था इत्यादि; अथवा ऐसा ज्ञान भी होता है कि जिसने सूंघा था, देखा था. सुना था वह मै ॐ ॥१४९॥ी । और भी एक दोष यह है कि इंद्रियोंमेंसे प्रत्येकका विषय नियत है जैसे नेत्र रूपको ही जान सकते है, कान शब्दको ही । सुन सकते है इत्यादि । किसी भी इंद्रियकी ऐसी शक्ति नहीं है जो किसी एक ही इंद्रियसे रूपरसादिक सभी विषयोंका अनभव || होसकै। परंतु रूप रसादिक अनेक विषयोका अनुभव कोई एक करता अवश्य है, नही तो आमका रूप देखनेके अनंतर ही जीभपर पानी क्यों आजाता है ? अर्थात् यदि अपने अपने विषयको वे इंद्रिय ही जाननेवाली हों, दूसरा कोई एक सवोका अनुभवकरतान हो तो जब जिव्हा रसको चाखचुकै तभी उसपर पानी आना चाहिये परंतु देखते है कि सुन्दर फलके देखनेमात्र ही जिव्हापर पानी आजाता है। इसलिये गवाक्षगत प्रेक्षकके समान सर्व इंद्रियोंमें तथा मनमें रहकर प्रेरणा करनेवाला इंद्रियों के अतिरिक्त कोई दूसरा N"पदार्थ भी है। इस प्रकार इंद्रिय तो परतत्र होनेसे कारण ही है किंतु इंद्रियोंको प्रेरणा करनेवाला आत्मा एक भिन्न वस्तु सिद्ध हुआ। O तथा साधनोपादानपरिवर्जनद्वारेण हिताऽहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका विशिष्टक्रियात्वाद्रथक्रियावत् । शरीरं च प्रयत्नवदधिष्ठितं विशिष्टक्रियाश्रयत्वाद्रथवत् । यश्चास्याधिष्ठाता स आत्मा सारथिवत्। तथात्रैव पक्षे इच्छापूर्वकविकृतवाय्वाश्रयत्वाद् भस्त्रावत् । वायुश्च प्राणापानादिः। यश्चास्याधिष्ठाता स आत्मा भस्त्राध्मापयितृवत् । तथाऽत्रैव पक्षे इच्छाधीननिमेषोन्मेषवदवयवयोगित्वाद्दारुयन्त्रवत् । तथा शरीरस्य वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणं च प्रयत्नवत्कृतं; वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणत्वाग्रहवृद्धिक्षतभग्नसंरोहणवत् । वृक्षादिगतेन वृद्ध्यादिना व्यभिचार इति चेन्न तेषामपि एकेन्द्रियजन्तुत्वेन सात्मकत्वात् । यश्चैषां कर्त्ता स आत्मा गृहपतिवत् । वृक्षादीनां च सात्मकत्वमाचाराङ्गादेरवसेयं किंचिद्वक्ष्यते च । ___ तथा हितकी साधनरूप सामग्रीके ग्रहण करनेमें और अहितके उपजानेवाली सामग्रीके छोड़नेमें जो चेष्टा होती है वह किसी न न किसी प्रयत्न द्वारा ही होसकती है। क्योंकि, वह चेष्टा भी एक प्रकारकी क्रिया है। क्रिया जितनी होती है वे सर्व किसी न ॥१४९॥ किसी प्रयत्नसे ही होती है। जैसे रथके चलनेकी जो क्रिया है वह हाकनेवालेके प्रयत्नसे अथवा बैल घोड़ोंके खीचनेरूप प्रयत्नसे होती है । जबतक यह प्रयत्न न किया जाय तबतक यह क्रिया भी नही होसकती है। और जो शरीर है वह जैसे रथ रथके चलनेकी Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / क्रियाका आधार है तैसे आधार है। जो इस शरीरको हिताहितके लिये हलाता चलाता है वह आत्मा ही है। जैसे रथके हांकनेवाला सारथी । और भी जैसे जब कोई चलानेवाला होता है तभी भातडीमेसे जितना वायु चाहिये उतना निकलता है नही तो नही तैसे शरीरका प्राणापानादिक वायु इच्छानुकूल तभी चल सकता है जब कोई इस शरीररूप भस्त्राको हलानेवाला हो। जिस प्रकार भातडीको हलानेवाला कोई प्राणी होता है उसी प्रकार प्राणापानादि वायुको इच्छानुकूल चलानेवाला आत्मा है । और भी इसी प्रसंगपर एक तीसरा अनुमान यह है कि इस शरीरके नेत्रादिक अंगोमें सकोच विस्तार करनेकी अथवा खोलने बंदकरने की जो चेष्टा है वह किसी न किसी शरीरके अतिरिक्त कारण बिना नही होसकती है। जैसे लकड़ीके बने हुए बहुतसे खिलोने ऐसे होते है जो दवानेसे खुल जाते है तथा हाथ ढीला करदेनेपर फिर बंद होजाते है । इसलिये वे खिलोने जिस प्रकार हाथकी प्रेरणा बिना खुल नहीं सकते तथा बंद नहीं होसकते है उसी प्रकार आत्माके बिना शरीरके नेत्रादिक अंगोका खुलना बंदहोना असंभव है। और भी आत्माकी सिद्धि करने में एक अनुमान यह है कि शरीरकी वृद्धि हानि होनेपर तथा किसी अंगउपांगके भग्न होजानेपर भी फिरसे उसकी पूर्ति होना इत्यादिक जो कार्य है वे किसी न किसी प्रयत्नशील कारणके बिना नहीं होसकते है । क्योंकि ये वृद्धिहानिरूप शरीरके कार्य भी एक प्रकार टूटेफुटेकी मरम्मत होजानेके समान है । जैसे घरका || बनाना ढाइदेना तथा टूटनेफूटनेपर मरम्मत करना किसी प्राणीके बिना नहीं होसकता तैसे ही किसी विशेष कर्ताके बिना शरीरकी नहानि वृद्धि तथा घावका पुरना इत्यादि कार्य नहीं होसकते है। वृक्षादिकोमें भी जो कुछ वृद्धि हानि होती है वह किसी न किसी एकेन्द्रिय जीवके रहनेपर ही होती है । जब जीव नही रहता है तब वृक्षादिकोंका घटना बढना भी बंद हो जाता है। इसलिये वृक्षादिकोंकी हानिवृद्धिसे भी हमारे इस अनुमानमें बाधा नही है। जैसे घरका स्वामी घरके बनाने बिगाडनेवाला होता है तैसे जो इस घटने बढनेकों करनेवाला है वही आत्मा है । वृक्षादिकोमें जो जीव माने जाते है उनका निश्चय आचारांगादि शास्त्रोंसे करलेना चाहिये तथा हम भी कुछ कहैगे। All तथा प्रेयं मनः अभिमतविषयसम्बन्धनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद्दारकहस्तगतगोलकवत् । यश्चास्य प्रेरकः स आत्मा इति । तथा आत्मचेतनक्षेत्रज्ञजीवपुरुषादयः पर्याया न निर्विषयाः पर्यायत्वाद् घटकुटकलशादिपर्यायवत् । व्यतिरेके षष्ठभूतादिः । यश्चैषां विषयः स आत्मा । तथाऽस्त्यात्मा असमस्तपर्यायवाच्यत्वात् । यो योऽप्साङ्केतिकशु Lesson Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥ १५०॥ पर्यायवाच्यः स सोऽस्तित्वं न व्यभिचरति । यथा घटादिः । व्यतिरेके रारविषाणनभोऽम्भोरुहादयः । तथा सुखादीनि द्रव्याश्रितानि गुणत्वाद्रूपवत् । योऽसौ गुणी स आत्मा । इत्यादिलिङ्गानि । तस्मादनुमानतोऽप्यात्मा | सिद्धः। आगमानां च येषां पूर्वापरविरुद्धार्थत्वं तेषामप्रामाण्यमेव । यस्त्वाप्तप्रणीत आगमः न प्रमाणमेव कपच्छेदतापलक्षणोपाधित्रयविशुद्धत्वात् । कपादीनां च स्वरूपं पुरस्ताद्वक्ष्यामः । / 1 ही नेता है। ऐसा नहीं प्रकार गोलाका और भी इस विषय अनुमान दिखाते है । अभिमत कार्योंकी तरफ जो मन दौडता है वह किसी न किसी दौडता है । क्योंकि जब दौडता है तब किसी बाछित पदार्थपरीचता है। ऐसा नहीं है कि दो निम्ति पदा पर भी पहुच जाता हो। जैसे बालकके हाथका गोला । यह गोला हा फेका जान वहादी है कि गोला फेका तो पूर्व दिशाकी तरफ जाय और पड़ना हो पश्चिम दिशा । इसलिये है उसी प्रकार मनको चलानेवाला आत्मा है । ओर भी आत्मा, चेतन, वन, जीव तथा पुरुष इत्यादिको प किसी द्रव्यके बिना उत्पन्न नहीं हो सकते है। क्योंकि पर्याय जितने होते है किसी न किसी उसके ही होते है। जैसे सरचा कलश इत्यादि पर्याय मृत्तिकाद्रव्यके हैं। तथा जिनका कोई आप इस नहीं मिलता है वे मनसुन कुछ होने दी नही । जैसे छट्टा भूत । छडे भूतका कोई मूलकारण नहीं है इसलिये छानून ने कहा है, मन कोई वस्तु नही है | आत्मा चेतन पुरुष इत्यादि नामवाले पर्यायोंका जो मूलकारण है उनका नाम आया है। तथा और भी कहते है । किसी विकृत पर्यायका नाम न होकर शुद्ध निर्विकार वा वान होनेने वाच्य अव कोई न कोई वस्तु है । जो जो शब्द विनासकेत शुद्ध वस्तुके वाचक होते है वे वे अपनी अपनी वस्तुकी सत्ता को कभी नहीं छोड़ते । जैसे घड़ा आदि । और जो शब्द किसी मकेतितमात्र वस्तुके वाचक होते है उन शब्दों के वायरूप पदार्थ कुछ भी नहीं होते है । जैसे गये। | सीग तथा आकाश कमल । तथा जो सुरादुगादिक है वे एक प्रकारके गुण अथवा समान है इसलिये उनका ना कुछ न कुछ अवश्य होना चाहिये | क्योंकि; गुण अथवा समायोंकी खिति किसी के बिना नहीं होती। जो उन आय है वही ॥ १५०॥ आत्मा है । इत्यादि अनेक सायनोसे आत्मा सिद्ध होता है इसलिये अनुमानसे भी जीवद्रव्य सिद्ध है। और आगमोम जो परस्पर विरुद्धता कही यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि सभी आगम तो परस्पर विरुद्ध पर्थको कहते ही नहीं है। जिन आगमो 1 " } रा.जै. खा. (4 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्पर विरुद्ध अर्थ दीखता हो वे अप्रमाण ही है । परंतु मोहके नाश होजाने से जिनमें सत्य बोलना प्रकट हुआ है तथा ज्ञानावरणीय कर्मका अत्यंत क्षय होजानेसे सर्वज्ञपना प्रकट हुआ है ऐसे आप्त भगवान्ने जो आगम कहे है वे प्रमाण है । क्योंकि; आप्तकथित शास्त्रोंमें कष ( जीवोंकी हिंसा ), छेद तथा ताप इत्यादिके द्वारा दुष्कर्मोका सर्वथा निषेध किया है । जिन शास्त्रोमें किसी स्थानपर तो हिंसादिकसे पाप तथा कहीपर पुण्य होना कहा हो उन्ही में परस्पर वचनविरोध संभव है । परंतु जिन शास्त्रोंमें हिसादिक करनेवालेको सर्वथा पापी ही कहा हो वे शास्त्र किसी प्रकार अप्रमाण नही होसकते है । कष, छेद तथा तापका खरूप आगे चलकर ३२ वें श्लोकके अर्थमें कहगे | न च वाच्यमाप्तः क्षीणसर्वदोषस्तथाविधं चाप्तत्वं कस्यापि नास्तीतिः यतो रागादयः कस्यचिदत्यन्तमुच्छिद्यन्ते अस्मदादिषु तदुच्छेदप्रकर्षापकर्षोपलम्भात् सूर्याद्यावर कजलदपटलवत् । तथा चाहुः “देशतो नाशिनो भावा दृष्टा निखिलनश्वराः । मेघपङ्क्त्यादयो यद्वदेवं रागादयो मताः" इति । यस्य च निरवयवतयैते विलीनाः स एवातो भगवान् सर्वज्ञः । अथाऽनादित्वाद्रागादीनां कथं प्रक्षय इति चेन्न; उपायतस्तद्भावात्; अनादेरपि सुवर्णमलस्य क्षारमृत्पुटपाकादिना विलयोपलम्भात् तद्वदेवानादीनामपि रागादिदोषाणां प्रतिपक्षभूतरत्नत्रयाभ्यासेन विल्योपपत्तेः । क्षीणदोषस्य च केवलज्ञानाव्यभिचारात्सर्वज्ञत्वम् । तत्सिद्धिस्तु-ज्ञानतारतम्यं क्वचिद्विश्रान्तं तारतम्यत्वादाकाशपरिमाणतारतम्यवत् । तथा सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात् क्षितिधरकन्धराधिकरणधूमध्वजवत् । एवं चन्द्रसूर्योपरागादिसूचकज्योतिर्ज्ञानाविसंवादान्यथाऽनुपपत्तिप्रभृतयोsपि हेतवो वाच्याः । तदेवमाप्तेन सर्वविदा प्रणीत आगमः प्रमाणमेव । तदप्रामाण्यं हि प्रणायकदोषनिबन्धनं; " रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोपास्तस्याऽनृतकारणं किं स्यात्" इति वचनात् । प्रणेतुश्च निर्दोषत्वमुपपादितमेव । इति सिद्ध आगमादण्यात्मा “एगे आया" इत्यादिवचनात् । रागादि संपूर्ण दोष जिसके नष्ट होगये हों वह आप्त है। ऐसा आप्त होना असंभव नही है । रागादिक संपूर्ण दोष किसी जीवमें अत्यंत नष्ट होसकते है । क्योंकि; उन रागादि भावोंकी हमलोगों में हीनाधिकता होती दीखती है । जिन विकारों की कभी कही पर हीनाधिकता दीखती है वे विकार कभी कहीपर सर्वथा नष्ट भी होजाते है । जिस प्रकार सूर्यके प्रकाशको रोकनेवाले | Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम ॥१५१॥ रा.जै.शा मेघपटलोंकी कभी कहीं हीनाधिकता होती दीखती है इसलिये कभी कहींपर उनका सर्वथा नाश भी होजाता है। अन्यत्र भी यह कहा है "जिन विकारोंकी क्रमक्रमसे कभी हानि कभी वृद्धि होती है उनका कभी सर्वथा नाश भी होजाता है ऐसा नियम है। जिस प्रकार मेघपटल कभी बढते कभी घटतेहुए दीखते है इसलिये कभी सर्वथा नष्ट भी होजाते है उसी प्रकार जीवके रागद्वेषादिक दोष भी कभी किसी जीवमें बढ़ते हैं तथा कभी घटते हैं इसलिये इनका कभी सर्वनाश भी होसकता है। जिस जीवके । रागादिक दोष सर्वथा विलीन होगये हों वही सर्वज्ञ आप्त भगवान् है। कदाचित् कहों कि जिन रागादिक दोषोंका जीवके साथ - अनादि कालसे सबंध है वे किसी प्रकार क्षीण नहीं हो सकते है परंतु यह कहना अयोग्य है। उपाय करनेसे उनका भी नाश / होसकता है । जबतक सुवर्ण खानिसे निकालकर शुद्ध नहीं किया हो तबतक उसमें जो किट्टिमा संसक्त होरही है वह अनादि कालसे ही होरही है परंतु जब उसको सुहागे अग्नि आदिकोका पुट देकर शुद्ध करते है तब सुवर्ण तथा किट्टिमा भिन्न भिन्न 12 होकर सुवर्ण सर्वथा शुद्ध होजाता है । इसी उदाहरणके अनुसार यद्यपि जीवके साथ रागादिक अनादि कालसे संसक्त होरहे है परंतु जब आत्मरूपी मलिन सुवर्णको रत्नत्रयरूपी अग्निपुटमें रखकर शुद्ध किया जाता है तब रागादिक तथा आत्मा भिन्न भिन्न होकर आत्मद्रव्य सर्वथा निर्दोष होसकता है। और जब दोप क्षीण होजाते है तब केवलज्ञान उपजता ही है। जिस स्वभावकी वृद्धि कुछ कुछ होती रहती है उसकी कहीं पूर्ण वृद्धि होजाना भी संभव है। इसी नियमके अनुसार ज्ञान गुणकी वृद्धि भी जो उत्तरोत्तर एकसे दूसरेमें अधिक होती हुई दीखती है वह किसी जीवमें सर्वोत्कृष्ट भी हो सकती है। जैसे आकाशको नांपनेपर बढता हुआ ही दीखता है परंतु इसकी भी वृद्धि कहींपर सर्वोत्कृष्ट है। केवलज्ञान होना इस अनुमानसे संभव है। तथा और भी कई अनुमानोंसे सर्वज्ञके ज्ञानकी सिद्धि होती है। कैसे खभावसूक्ष्म जो दृष्टिसे प्रत्यक्ष न होसकै ऐसे परमाणु आदिक, जिनके वीचमें बहुतसा व्यवधान पड़ा हो ऐसे सुमेरु आदिक तथा जिनमें कालका बहुतसा अंतर पड़गया हो ऐसे रामरावणादिक पदार्थ भी किसीको प्रत्यक्ष दीखने चाहिये । क्योंकि, अनुमानसे जब हम विचार करते है तब उनका होना सिद्ध होता है । जैसे यद्यपि पर्वतपर होनेवाली अग्नि हमको कभी कभी प्रत्यक्ष नहीं होती तो भी धूम देखकर अनुमानसे उसको सिद्ध करलेते है इसलिये वह हमको प्रत्यक्ष न होनेपर भी किसी न किसीको प्रत्यक्ष होसकती है उसी प्रकार यद्यपि परमाणु आदिक हमको प्रत्यक्ष नहीं है तो भी अनुमान द्वारा सिद्ध होनेसे किसी न किसीको प्रत्यक्ष भी अवश्य होने चाहिये । इसी प्रकार जो चंद्रसूर्यके ग्रहण आदिक । अनुमान द्वारा सिमी किसी न किसीको प्रत्यक्षतते भी धूम देखकर अनुमा होना सिद्ध होता है क पदार्थ भी किसामा व्यवधान । । सिद्ध होनेसे किसी न किस्मात्यक्ष होसकती है उसी मानसे उसको सिद्ध करसे यद्यपि पर्वतपर होनेवाली ॥१५॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भविष्यत् विषयोंको सत्य जतानेवाले ज्योतिष्क शासको जानता है वह ग्रहण पड़नेके पहिले ही कह देता है कि अमुक समय ग्रहण पड़ेगा । और वह कहना सत्य होता है। ऐसे शास्त्रोंको वही बना सकता है जो खय सर्वज्ञ हो । इत्यादि हेतुओंसे भी सर्वज्ञज्ञानका होना प्रमाणसिद्ध है । जिस जीवमें ऐसा केवलज्ञान होगया हो उसकर बनाये हुए शास्त्र किसी प्रकार भी अप्रमाण नहीं होसकते है । शास्त्र वे ही अप्रमाण होते है जिनके बनानेवाले स्वयं निर्दोष न हों । कहा भी है कि "रागके द्वेषके अथवा मोहके वश होजानेपर वचन झूठ बोला जाता है। जिसमें ये दोप ही नहीं रहे वह असत्य किस प्रकार बोल | ॐ सकता है?" । हमने यह तो पहिले ही कहा था कि हमारे शास्त्रोके बनानेवालोमें कर्मों के नाश हो जानेसे दोष सर्वथा नष्ट हो| चुके है । ऐसे निर्दोष हमारे शास्त्रोंमें “आत्मा अकेला है" इत्यादि वचनोके मिलनेसे आगमप्रमाणसे भी जीवद्रव्य सिद्ध है। तदेवं प्रत्यक्षानुमानागमैः सिद्धः प्रमाता । प्रमेयं चानन्तरमेव वाह्यार्थसाधने साधितम् । तत्सिद्धौ च 'प्रमाणं | y ज्ञानं तच्च प्रमेयाभावे कस्य ग्राहकमस्तु निर्विषयत्वात्' इति प्रलापमानं; करणमन्तरेण क्रियासिद्धेरयोगाल्लवना दिषु तथा दर्शनात् । यच्चार्थसमकालमित्याद्युक्तं तत्र विकल्पद्वयमपि स्वीक्रियत एव । अस्मदादिप्रत्यक्षं हि सम, कालार्थाकलनकुशलं स्मरणमतीतार्थस्य ग्राहकं शब्दानुमाने च त्रैकालिकस्याप्यर्थस्य परिच्छेदके । निराकारं || चैतद्वयमपि । न चातिप्रसङ्गः स्वज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषवशादेवास्य नैयत्येन प्रवृत्तेः। शेषविकल्पानामस्वीकार एव तिरस्कारः। प्रमितिस्तु प्रमाणस्य फलं स्वसंवेदनसिद्धैव । न ह्यनुभवेऽप्युपदेशापेक्षा । फलं ) च द्विधानन्तर्यपारम्पर्यभेदात् । तत्रानन्तर्येण सर्वप्रमाणानामज्ञाननिवृत्तिः फलम् । पारम्पर्येण केवलज्ञानस्य तावत् * फलमौदासीन्यं शेषप्रमाणानां तु हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः। इति सुव्यवस्थितं प्रमात्रादिचतुष्टयम् । ततश्च "नासन्न सन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वमाध्यात्मिका विदुः" इत्युन्मत्तभापितम् । इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम इन तीनो प्रमाणोसे प्रमाताका (आत्माका) होना सिद्ध है । जिन बाह्य विषयोंको | ज्ञान जानता है उनका होना तो अभी पहिले सिद्ध कर चुके है। इसलिये यह कहना केवल निर्हेतुक बकना है कि जब वाह्य | पदार्थ ही कोई चीज नही है तो जो प्रमाणज्ञान है वह किसको जानै ? जितनी क्रिया होती है वे किसी न किसी करणके विना नहीं होसकती। जैसे वृक्षका काटना किसी कुल्हाड़ीसे ही हो सकता है। जबतक कुल्हाड़ी न हो तबतक वृक्ष कट नहीं सकता है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥१५२॥ जानना भी एक प्रकारकी क्रिया है इसलिये यह भी बिना किसी करणके नही होसकती है। और जो यह पूछा कि जिन पदार्थोको जानना हो उनके साथ साथ ही उनको जाननेवाला ज्ञान उपजता है अथवा उनके बाद 2 सो हम दोनो तरहसे मानते है। हमलोगोंका प्रत्यक्ष तो जो विद्यमान पदार्थ हों उन्हीको जानसकता है और स्मरणज्ञान वीती हुई वस्तुको ही जानसकता है परंतु शब्द सुननेसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान तथा अनुमानज्ञान तीनो कालके पदार्थों को जान सकते है। ये दोनो प्रकारके | ज्ञान यद्यपि निराकार ही है तो भी अतिव्याप्ति दोष नहीं है । और जो निराकार माननेमें यह दोष बतलाया था कि किसी पदार्थका इस प्रकार निश्चय नहीं होसकैगा कि यह घड़ा ही; अन्य कुछ नहीं है अथवा यह अमुक ही है अन्य कुछ के नहीं है सो यह दोष मानना भी भूल है । क्योंकि, ज्ञान किसी समय भी हो परंतु उसी पदार्थको जानसकता है जिसके ज्ञानको रोकनेवाला ज्ञानावरण कर्म तथा वीर्यातराय कर्म कुछ नष्ट होगया हो । इन शंकाओंके अतिरिक्त जो शका है वे सब आडम्बरमात्र है इसलिये उनको स्वीकार न करना ही शून्यवादीका तिरस्कार है। इस प्रकार प्रमाणका जो शून्यवादीने खंडन किया था वह मिथ्या हुआ। और प्रमाणका फल प्रमिति है, उस प्रमितिका अनुभव स्वयमेव होता है । जिस वस्तुका खयमेव । - अनुभव होसकता है उसका अनुभव उपदेशसे कराना व्यर्थ है। प्रमाणके फल दो प्रकारके है पहिला साक्षात् दूसरा परंपरासे उत्पन्न होनेवाला । इनमेंसे किसी पदार्थसबंधी अज्ञानका नाश हो जाना प्रमाणका साक्षात् फल है। केवलज्ञानका परंपरा फल संसारसे उदासीनता होना है और शेषके अल्पज्ञानियोके प्रत्येक ज्ञानका परंपरा फल इष्टानिष्ट पदार्थों में ग्रहण तथा त्यागकी बुद्धि उत्पन्न होना है तथा मध्यस्थ पदार्थमें मध्यस्थ भाव हो जाना परंपरा फल है। इस प्रकार प्रमाता आत्मा तथा प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति इन चारों प्रकारके पदार्थोकी सिद्धि प्रमाणद्वारा होचुकी । इसलिये “न तो पदार्थ सवरूप ही है; न असत्रूप ही है, न सत् असत् दोनोरूप ही है और न सत् असत्के अभावस्वरूप ही है किंतु अध्यात्म विषयके ज्ञाताओंने इन चारो प्रकारकी कथनीसे जुदा कोई विलक्षण ही तत्त्व माना है" इस प्रकारका जो कहना है वह उन्मत्तकासा कहना है। ५ किं चेदं प्रमात्रादीनामवास्तवत्वं शून्यवादिना वस्तुवृत्त्या तावदेष्टव्यम्। तच्चासौ प्रमाणादभिमन्यतेऽप्रमाणाद्वा? न तावदप्रमाणात्तस्याऽकिंचित्करत्वात् । अथ प्रमाणात् तन्न। अवास्तवत्वग्राहकं प्रमाणं सांवृतमसांवृतं वा स्यात्? यदि सांवृतं' कथं तस्मादवास्तवाद्वास्तवस्य शून्यवादस्य सिद्धिः? तथा च वास्तव एव समस्तोऽपि प्रमात्रा१ अनिरूपिततत्त्वार्थी प्रतीति. सवृतिर्मता । तत्वार्थका निरूपण न करनेवाली प्रतीतिको सवृति कहते हैं। ॥१५२॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्यवहारः प्राप्तः । अथ तद्ग्राहकं प्रमाणं स्वयमसांवृतं तर्हि क्षीणा प्रमात्रादिव्यवहाराऽवास्तवत्वप्रतिज्ञा तेनैव व्यभिचारात् । तदेवं पक्षद्वयेऽपि इतो व्याघ्र इतस्तटीति न्यायेन व्यक्त एव परमार्थतः स्वाभिमतसिद्धिविरोधः । इति काव्यार्थः । इस प्रकार शून्यवादीका कथन प्रथम तो किसीप्रकार सिद्ध ही नही होता परंतु तो भी जो प्रमाण प्रमाता आदिकोंको झूठा कहा है वह क्या किसी प्रमाणके बलसे कहा है अथवा प्रमाणके विना ही ? यदि किसी प्रमाणके विना ही कहा है तो विना प्रमाण कहनेसे तो कुछ सिद्ध हो नही सकता । और यदि किसी प्रमाणके बलसे कहा है तो पदार्थको असत्यरूप कल्पनामात्र जाननेवाला प्रमाण क्या सांवृत प्रमाण है अथवा असांवृत ' जो यथार्थमें तो कुछ हो नहीं किंतु कल्पनामात्रसे माना गया हो वह सांवृत कहाजाता है । सो यदि उस प्रमाणको सांवृत माना हो तो उस असत्यार्थ प्रमाणसे सच्चे शून्यवादका निश्चय कैसे हो सकता है ? | इसलिये जब शून्यवादको जाननेवाला प्रमाण ही झूठा है तब हमारा प्रमाताआदि संपूर्ण व्यवहार मानना ही सच्चा प्रतीत होता है । और यदि शून्यवादको जाननेवाला प्रमाण सच्चा है तो सर्वथा शून्यवादका कहना मिथ्या हुआ। क्योंकि; एक प्रमाण तो तुमने अपने मुखसे ही स्वीकार किया । इस प्रकार न तो प्रमाणसे सिद्धि हो सकती है और न प्रमाणके विना । दोनो ही पक्ष माननेमें दोष है । 'एक तरफ भागते है तो व्याघ्र खड़ा है और दूसरी तरफ देखते है तो नदी बह रही है' इस न्यायके अनुसार दोनो ही पक्षके माननेमें शून्यवादीको अपना शून्यवाद छोड़कर हमारा प्रमाता आदिका व्यवहार सत्य मानना पड़ता है । क्योंकि; किसी प्रकार भी शून्यवाद सिद्ध नही होता । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ । अधुना क्षणिकवादिन ऐहिकामुष्मिकव्यवहाराऽनुपपन्नार्थसमर्थनमविमृश्य कोरितं दर्शयन्नाह । क्षणिकवादीने पदार्थके खरूपका जैसा उपदेश किया है उससे न तो इस लोककी और न परलोककी व्यवस्था बन सकती है | इसलिये वह उपदेश विचार किये विना ही किया है ऐसा दिखाते हुए अब कहते है । - कृतप्रणाशाऽकृतकर्मभोगभवप्रमोक्षस्मृतिभङ्गदोषान् । उपेक्ष्य साक्षात् क्षणभङ्गमिच्छन्नहो महासाहसिकः परस्ते ॥ १८ ॥ १ 'कारिताकारितं' इति खपुस्तकपाठ. । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१५३॥ नही किये हुए काँका ग.जे.शा. : स्याद्वादम. मूलार्थ-यदि वस्तुका खभाव क्षणभंगुर ही माना जाय तो पूर्वकृत कमौका फल विना भोगे ही नाग हो जायगा; स्वयं नहीं किये हुए काका फल भी भोगना पड़ेगा; ससारका, मोक्षका तथा स्मरणशक्तिका नाग होनायगा । अनुभवसिद्ध इन : दोषोंको नही गिनता हुआ आपके विरुद्ध मानता हुआ क्षणिकवादी जो वस्तुका अल्प क्षणभंगुर होना ही मानता है। हे भगवन् ! वह उसकी बडी धृष्टता समझनी चाहिये। व्याख्या-कृतप्रणाशदोपमकृतकर्मभोगदोपं भवभङ्गदोपं प्रमोक्षभगदोपं स्मृतिभङ्गदोपमित्येतान् साक्षादित्य नुभवसिद्धान् उपश्यानादृत्य साक्षात्कुर्वन्नपि गजनिमीलिकामवलम्बमानः सर्वभावानां क्षणभामुदयानन्तरवि| नाशरूपक्षणक्षयितामिच्छन् प्रतिपद्यमानरते तव परःप्रतिपक्षी वनाशिकः[ मीगत इत्यर्थः] अहो महासाहसिकः।। सहसा अविमर्शात्मकेन वलेन वर्तते साहसिकः । भाविनमनर्थमविभाव्य यः प्रवर्तते म एवमुच्यते । महांश्चासौ ! साहसिकश्च महासाहसिकोऽत्यन्तमविमृश्य प्रवृत्तिकारी । इति मुकुलितार्थः । व्याख्यार्थ-पूर्वकृत कर्माका फल भोगे बिना ही नाश हो जाना, खयं नहीं किये हुए कमौका भी फल भोगने पड़ना, संसारका नाश हो जाना, मोक्षका नाग हो जाना तथा स्मरणशक्तिका नाग हो जाना इन अनुभवसिद्ध दोपोको नहीं गिनकर" 18 संपूर्ण वस्तुओंको क्षणभंगुर माननेवाला तुम्मारा प्रतिपक्षी बौद्ध देखो ! बडा साहसी है !! जिन संगारमोक्षादिक मपूर्ण विषयोको IY क्षणिकवादी खयं मानता है उन्हीका अभाव सर्वथा क्षणभगुरगना माननेसे होता है तो भी जसे हनी नेत्र मूंदकर सब कुछ करता है तैसे ही मसारमोक्षादि संपूर्ण विषयोंका अनुभव करता हुआ तथा वस्तुकी स्थिति क्षणभगुर माननेसे संमारमोक्षादि । ) कुछ भी नहीं सिद्ध हो सकते है ऐसा समत्रता हुआ भी जो वस्तुको उत्पत्तिके अनंतर क्षण क्षणमें नष्ट होते हुए मानता है सोही । दोपोंकी तरफ ध्यान नही देना है। भावार्थ-हे भगवन् ! वस्तुका क्षण क्षणगे विनाश होना माननेवाला गह एक प्रकारका बौद्ध । IN आपके मतका द्वेषी है। क्योंकि, आपकी युक्तिरो तो वस्तुका सरूप कयंचित् नित्य तथा रुथनित् अनित्य सिद्ध होता है परतु .. टाइसने वस्तुका स्वरूप सर्वथा क्षणश्चमी माना है और यह मानना उमके ही आचरणमे दृषित सिद्ध होता है। आगे आनेवाले कप्टोको .. र विचारे विना ही अपनी शिरजोरीसे जो सहमा प्रवृन से उसको साहसी कहते है । इस बौदकी भी ऐसी ही प्रवृत्ति है। क्योकि ? संपूर्ण वस्तुओं को धजाना, मोक्षका नाममोगे बिना ही नाम हो । ॥२५३॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षणभंगुरपना युक्तिसे बाधित होता है तो भी क्षणभंगुरताको ही मानता है । यह साहसियोंमें भी महासाहसी है। क्योंकि, यह सर्वथा ही विचार न करता हुआ धृष्टतासे कार्य करनेवाला है । इस प्रकार इस कारिकाका संक्षिप्त अर्थ है। HT विवृतार्थस्त्वयम्। चौद्धा बुद्धिक्षणपरम्परामात्रमेवात्मानमामनन्ति;न पुनमौक्तिककणनिकराऽनुस्यूतैकसूत्रवत्त दन्वयिनमेकम् । तन्मते येन ज्ञानक्षणेन सदनुष्ठानमसदनुष्ठानं वा कृतं तस्य निरन्वयविनाशान्न तत्फलोपभोगः। यस्य च फलोपभोगस्तेन तत्कर्म न कृतम् । इति प्राच्यज्ञानक्षणस्य कृतप्रणाशः स्वकृतकर्मफलाऽनुपभोगात् । उत्तरज्ञानक्षणस्य चाऽकृतकर्मभोगः स्वयमकृतस्य परकृतस्य कर्मणः फलोपभोगादिति । अत्र च कर्मशब्द उभयत्रापि योज्यः । तेन कृतप्रणाश इत्यस्य कृतकर्मप्रणाश इत्यर्थो दृश्यः। वन्धानुलोम्यान्चेत्थमुपन्यासः । तथा भवभङ्गदोकपः। भव आर्जवीभावलक्षणः संसारस्तस्य भङ्गो विलोपः स एव दोपः क्षणिकवादे प्रसज्यते । परलोकाभावप्रसङ्ग ) इत्यर्थः परलोकिनः कस्यचिदभावात् । परलोको हि पूर्वजन्मकृतकर्मानुसारेण भवति । तच्च प्राचीनज्ञानक्षणानां । || निरन्वयं नाशात्केन नामोपभुज्यतां जन्मान्तरे ? यच्च मोक्षाकरगुप्तेन “यच्चित्तं तच्चित्तान्तरं प्रतिसंधत्ते यथेदा-1 नीन्तनं चित्तं, चित्तं च मरणकालभावि" इति भवपरम्परासिद्धये प्रमाणमुक्तं तद् व्यर्थ; चित्तक्षणानां निरवशेषना-11. शिनां चित्तान्तरप्रतिसंधानाऽयोगात् । द्वयोरवस्थितयोहि प्रतिसंधानमुभयानुगामिना केनचित्क्रियते । यश्चानयोः प्रतिसंधाता स तेन नाभ्युपगम्यते । स ह्यात्माऽन्वयी। न च प्रतिसंधत्ते इत्यस्य जनयतीत्यर्थः; कार्यहेतुप्रसङ्गात् । तेन वादिनाऽस्य हेतोः स्वभावहेतुत्वेनोक्तत्वात् । स्वभावहेतुश्च तादात्म्ये सति भवति । भिन्नकालभाविनोश्च चित्तचित्तान्तरयोः कुतस्तादात्म्यम् ? युगपद्भाविनोश्च प्रतिसन्धेयप्रतिसन्धायकत्वाऽभावापत्तिः। युगपद्भावित्वेऽविशिष्टेऽपि किमत्र नियामकं यदेकः प्रतिसन्धायकोऽपरश्च प्रतिसन्धेय इति ? अस्तु वा प्रतिसन्धानस्य जननमर्थः सोऽप्यनुपपन्नस्तुल्यकालत्वे हेतुफलभावस्याऽभावात् । भिन्नकालत्वे च पूर्वचित्तक्षणस्य विनष्टत्वादुत्तरचित्तक्षणः कथमुपादानमन्तरेणोत्पद्यताम्? इति यत्किश्चिदेतत् । l अब इसका अर्थ विस्तारसे कहते है। बौद्धलोग विचारके क्षणोकी परंपराको ही केवल आत्मा मानते है। और मोतियोके प्रत्येक नगोंमें प्रवेश पानेवाले सूतके डोराके समान प्रत्येक क्षणके साथ सबंध रखनेवाले अनाद्यनंत ऐसे किसी एक नित्य आत्माको नहीं। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमं. ॥१५४॥ मानते हैं। बौद्धमतमें ऐसा माना गया है कि विचारके जिस क्षणने कुछ सत्खरूप अथवा असत्वरूप कार्य किया है उस क्षणका आगेकी पर्यायोंकी तरफ सबंधरहित सर्वथा नाश हो जाता है इसलिये अपने आपको अपने कृत्यका फल खयं नहीं भोगना पड़ता है। जिसको उस कृत्यका फल भोगना पड़ता है वह एक नवीन ही उत्पन्न होता है इसलिये उसका वह कर्म किया हुआ नहीं होता । इसप्रकार जिस पहिले क्षणने कर्म किया था उसको भोगना न पड़ा किंतु वह यों ही नष्ट हो गया इसलिये किये हुए कर्मका फल भोगेविना ही नष्ट हो जाना सिद्ध हुआ। तथा जिस आगेके ज्ञान क्षणने स्वयं उस कर्मको किया । नहीं था उसको उसका फल भोगना पड़ा इसलिये वयं नहीं किये हुए कर्मका भी फल भोगना सिद्ध हुआ। इस कारिकामे कृतप्रणाश' शब्द जो पड़ा हुआ है उसका अर्थ किये हुए का नाश हो जाना होता है । परंतु यह शंका बनी ही रहती है । कि ऐसा क्या किया है जिसका नाश हो जायगा ? इस शंकाकी निवृत्ति करनेकेलिये आगे कहे हुए 'अकृतकर्मभोग' पदसे SN 'कर्म' शब्द लेकर 'कृतप्रणाश' शब्दके वीचमें भी जोड़ देना चाहिये और फिर ऐसा अर्थ करना चाहिये कि पूर्वकृत जो कर्म है ) उसका नाश फल भोगेविना ही हो जायगा । रचनाकी रीति सरल होनेसे भी प्रकरणानुसार यह अर्थ हो सकता है । तथा । क्षणिकपना माननेसे जिसका चारो गतिओंमें परिभ्रमण करना खरूप है ऐसा संसार भी सिद्ध न होसकैगा । अर्थात् परलोकका अभाव हो जायगा । क्योंकि, जब सभीका स्वभाव क्षणभगुर माना गया है तब परलोक जानेके लिये वचा कोन रहेगा। जीव इस जन्ममें जैसा कर्म करता है उसीके अनुसार परलोकमें जाकर सुख दुःख भोगता है। परंतु बौद्धमतमें तो ऐसी नित्य कोई चीज ही नहीं है जो जन्मान्तरमें जाकर सुखदुःख भोगनेकेलिये बनी रहै। क्योंकि; जो पूर्वके ज्ञानक्षण है वे आगे उत्पन्न होनेवाले क्षणोंके साथ कुछ भी सबध न रखकर पहिले ही नष्ट हो जाते है इसलिये जन्मांतरमें जानेके लिये ऐसा कोन वचता है जो वहांके सुखदुःख भोगै? और जो मोक्षाकरगुप्तने इस दोषके दूर करनेके अभिप्रायसे यह कहा कि जो कोई चेतनाका क्षण होता है वह आगेके दूसरे चैतन्यक्षणमें अपने खरूपका संस्कार उत्पन्न करके ही नष्ट होता है । जिस प्रकार जीवनके मध्यका प्रत्येक चैतन्यक्षण आगेके चैतन्यक्षणमें सस्कार डालकर ही नष्ट होता दीखता है। मरणके अंतसमयमें । ॥१५४॥ होनेवाला चैतन्यक्षण भी एक चैतन्यक्षण है इसलिये वह भी आगामी परलोकके प्रथम चैतन्यक्षणमें अपने सपूर्ण सस्कारको जोड़कर ही नष्ट होता है। इस प्रकार परिपाटी दिखलानेसे मोक्षाकरगुप्तने यह सिद्ध किया कि बौद्धमतके अनुसार भी. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षणको अपने पूर्वकृत कर्मोका शुभाशुभ फल परलोकमें भोगना पड़ता है। परंतु इस परिपाटीका दिखाना व्यर्थ है क्योंकि जब यापूर्वके चैतन्यक्षण सर्वथा नष्ट होते जाते है तब आगेके चैतन्यक्षणोंसे पूर्वके चैतन्यक्षणोंका संबंध होना ही असंभव है । जब पूर्वापरकी दोनो वस्तु एक समयमें विद्यमान हों तब कदाचित् दोनोंमें प्रवेश रखनेवाली किसी एक शक्तिके द्वारा एक दूसरेके सामर्थ्यका संबंध तथा परिवर्तन हो सकता है । जो दोनो पर्यायोंमें अर्थात् चैतन्यक्षणों में संबंध करानेवाला आत्मद्रव्य है उसको बौद्धोने अंगीकार ही नहीं किया है। आत्मा ही सदा शाश्वता है इसलिये वही एक पर्यायके शुभाशुभ कर्मके फलादिको दूसरे पर्यायोमें परिवर्तन करासकता है। आगेके पर्यायमें पूर्व धर्मका परिवर्तन कराना अर्थात् पैदा कराना यह अर्थ मानना भी बौद्धको इष्ट नहीं है। क्योंकि; पैदा होनेमें तो कार्यकारणभाव संबंध होनेसे कार्यहेतु होजाता है और बौद्धने इसको माना खभाव हेतु ही है। सो पहिले कहचुके है । खभावहेतु वहां ही होता है जहां तादात्म्य संबंध हो। और तादात्म्य संबंध तभी सं-भव है जब पूर्वापरके चैतन्यक्षण एकसाथ विद्यमान रहै । जहां पूर्वापरके चैतन्यक्षण सर्वथा भिन्न भिन्न समयवर्ती मानेगये हैं वहां उनका तादात्म्य संबंध कैसे होसकता है ? और यदि एक समयमें भी पूर्वापर चैतन्यक्षणोको विद्यमान मानलिया जाय तो भी यह निश्चय नहीं होसकता है कि अमुक चैतन्यक्षण तो अपने संपूर्ण सामर्थ्यका परिवर्तन करनेवाला है तथा अमुकमें परिवर्तन होता है। मनाक्योंकि, वे चैतन्यक्षण सभी एकसे है; परस्पर उनमें कुछ अंतर नहीं है इसलिये यह विभाग कैसे होसकेगा कि इसमें तो साम Wका परिवर्तन किया जायगा और इसके सामर्थ्यका परिवर्तन होगा। अच्छा! कुछ समयकेलिये ऐसा विभाग होना मानकर सामर्थ्यका परिवर्तन मान भी लियाजाय तो भी उस सामर्थ्यका परिवर्तन होना असंभव है । क्योंकि एक ही समयमें कार्य और कारणका होना अनुचित है। यदि उन दोनोंका समय भिन्न भिन्न मानाजाय तो भी जब पूर्वका चित्तक्षण नष्ट होचुका तो उत्तरके चित्तक्षणकी उत्पत्ति विना उपादान कारणके कैसे होसकैगी? इस प्रकार विचारनेसे बौद्धमतानुसार परलोकका होना सिद्ध नहीं होता। तथा प्रमोक्षभङ्गदोषः । प्रकर्षेणाऽपुनर्भावेन कर्मवन्धनान्मुक्तिः प्रमोक्षस्तस्यापि भङ्गः प्राप्नोति । तन्मते तावदात्मैव नास्ति । कः प्रेत्य सुखीभवनार्थ यतिष्यते ? ज्ञानक्षणोऽपि संसारी कथमपरज्ञानक्षणसुखीभव लघटिष्यते ? न हि दुःखी देवदत्तो यज्ञदत्तसुखाय चेष्टमानो दृष्टः । क्षणस्य तु दुःखं स्वरसनाशित्वात्तेनैव सार्द्ध दध्वंसे । सन्तानस्तु न वास्तवः कश्चिद् । वास्तवत्वे त्वात्माभ्युपगमप्रसङ्गः। ATACIP Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद्वादम. ॥१५५॥ इसी प्रकार मोक्षका भी अभाव होजाता है। कर्मबंधके ऐसे नाश होजानेका नाम मोक्ष है जिसका फिर बंध न हो। ऐसे मोक्षका होना बौद्धमतके अनुसार असंभव है। प्रथम तो उसके मतमें आत्मा कोई वस्तु ही नही मानागया है इसलिये आगामी भवमें सुखी होनेके लिये प्रयत्न ही कोन करेगा जबतक संसार है तबतक जो ज्ञानक्षणरूप पर्याय माने है उनमेंसे भी प्रतिसमय पूर्वके सर्वथा नष्ट होते जाते है और आगेके नवीन उपजते रहते हैं। उनमें परस्पर कोई संबंध नहीं है इसलिये वे भी सुखी होनेकी | चेष्टा नहीं कर सकते हैं। चेष्टा वही करता है जिसको आगे चलकर सुखी होनेकी आशा हो । केवल दूसरोंके सुखी होनेके लिये कोई भी प्रयन नहीं करता है। जब उनमेंसे कोई भी ज्ञानक्षण नहीं ठहर सकता है किंतु सभी नष्ट होनेवाले है तो सुखी होनेकेलिये . प्रयत्न कोन करै । और प्रत्येक ज्ञानक्षणका सुखदुःख भी उसीके साथ नष्ट हो जाता है, आगे चलता नहीं है । इस दोषके दूर करनेके लिये यदि सब ज्ञानक्षणोमें सुखदुःखको पहुचानेवाली एक वासना मानीजाय तो जिस मतमें कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है उसमें वासना भी कोई स्थिर पदार्थ सिद्ध नहीं होसकता, जिसके द्वारा- सव क्षणों में सुखदुःखोंकी संतान चलती रहै । यदि वासनाको सच्ची तथा नित्य मानते हों तो वह आत्मा ही है । नाममात्रका भेद है। अपि च वौद्धा निखिलवासनोच्छेदे विगतविषयाकारोपप्लवविशुद्धज्ञानोत्पादो मोक्ष इत्याहुस्तच्च न घटते; कारणाऽभावादेव तदनुपपत्तेः । भावनाप्रंचयो हि तस्य कारणमिष्यते । स च स्थिरैकाश्रयाऽभावाद्विशेषानाधायकः प्रतिक्षणमपूर्ववदुपजायमानो निरन्वयविनाशी गगनलङ्घनाभ्यासवदनासादितप्रकर्षों न स्फुटाऽभिज्ञानजननाय प्रभवतीत्यनुपपत्तिरेव तस्य । समलचित्तक्षणानां स्वाभाविक्याः सदृशारम्भणशक्तेरसदृशारम्भं प्रत्यशक्तेश्चाकस्मादनुच्छेदात् । किं च समलचित्तक्षणाः पूर्व स्वरसपरिनिर्वाणाः । अयमपूर्वो जातः । सन्तानश्चैको न विद्यते । ५' वन्धमोक्षौ चैकाधिकरणौः न विषयभेदेन वर्तते । तत्कस्येयं मुक्तिर्य एतदर्थ प्रयतते? अयं हि मोक्षशब्दो १ सर्व क्षणिकमित्याद्युपदिष्टार्थविषयधारावाहिकबुद्धिसंतानोद्भवो भावनाप्रचयस्तस्या अपि वहुत्वम् ॥ २ ननु स्थायिसंस्काराभावेऽपि पूर्वपूर्वज्ञानक्षणत्वसित एवोत्तरोत्तरक्षण उत्पद्यते रक्तकर्पासबीजसंतानवदित्याह समलेति ॥ ३ ननूपदेशजन्यज्ञानप्रवाहस्य सदशारम्भणेऽपि प्रथम परोक्षतयेत्यLG स्य निर्मलस्यान्ते निर्मलतमस्य साक्षात्काराध्यायकतया न दोप इत्यत आह कि चेति ॥ ॥१५५॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Malवन्धनविच्छेदपर्यायः । मोक्षश्च तस्यैव घटते यो वद्धः । क्षणक्षयवादे त्वन्यः क्षणो बद्धः क्षणान्तरस्य च मुक्तिरिति मोक्षाऽभावः प्राप्नोति । १२।। KI और बौद्ध जो मोक्षका खरूप ऐसा मानते हैं कि सपूर्ण वासनाओंका नाश होजानेपर नष्ट होगया है विपयोंका मलिन संबंध जिसमें ऐसी विशुद्ध ज्ञानकी उत्पत्ति ही मोक्ष है सो यह खरूप बनता नही है । क्योंकि जब कारण ही नही हो तो कार्य कैसे उपजसकता है ? भावनाओंके संचयको उसका कारण माना है सो वह कोई अविनाशी एक आश्रयरूप न होनेसे कुछ विशेषता पैदा नही करसकता तथा वह प्रत्येक नवीन नवीन ही उत्पन्न होता है तथा निरन्वय ही नष्ट होजाता है तथा जिस प्रकार गगनका कितना ही उहंगन क्यों न किया जाय परंतु अंत नही आता उसी प्रकार वह भी कितनी ही बार क्यों न उपज |विनश ले परंतु उसकी उत्पत्तिका अंत नहीं आता ऐसे उस ज्ञानक्षणसे किसी भी स्पष्ट सचे ज्ञानकी उत्पत्ति नही होसकती है इसलिये ऐसा शुद्ध ज्ञान होना असंभव ही है। भावार्थ-जब शुद्ध ज्ञानकी उत्पत्ति ही संभव नहीं है तो मोक्ष कहांसे हो? क्योंकि शुद्ध ज्ञानकी| उत्पत्तिका ही नाम मोक्ष है। और जो संसारदशामें होनेवाले मलिन ज्ञानक्षण है उनसे केवल मलिन ज्ञानक्षणोकी ही उत्पत्ति होसकती है; शुद्ध ज्ञानक्षणोकी उत्पत्ति होना संभव नहीं है । अर्थात् अशुद्ध ज्ञान क्षण उत्पन्न करनेमात्रकी उनमें खाभाविक शक्ति विद्यमान है। क्योंकि, प्रत्येक बीज अपने सजातीय फलको ही पैदा करसकता है; विजातीयको कभी नही करसकता है। और जब उसका सदा मलिन ज्ञानक्षण उपजाना ही खभाव है तो अकस्मात् उसका नाश होजाना भी संभव नहीं है। भावार्थ-समल ज्ञानलक्षणोका सर्वथा नाश होकर नबीन शुद्ध ज्ञानकी उत्पत्तिरूप मोक्षका होना असंभव ही है। और भी एक दोष यह है कि संसारदशामें होनेवाले मलिन ज्ञानक्षण तो सर्वथा अपने खरूपसे नष्ट होचुके तथा पीछेसे शुद्ध ज्ञानक्षणकी जो उत्पत्ति है वह निर्मूल ही है और पूर्ववर्ती तथा इन शुद्ध ज्ञानक्षणोमें रहनेवाला कोई एक संतान संभव नहीं है । जब संसारदशाके मलिन ज्ञानक्षणोका| नक्षणरूप मोक्षदशाके साथ कोई संबंध ही नही रहा तो संसारीक अवस्था तो किसी अन्यकी ही थी तथा मोक्ष किसी IN अन्यका ही हुआ ऐसा मानना पड़ेगा। यथार्थमें मोक्ष उसीका होना चाहिये जिसकी पहिले संसारीक अवस्था रही हो। क्योंकि, बंधनसे छूटनेका नाम मोक्ष है इसलिये जो बंधता है वही छूटसकता है जिसका कभी बंध ही नहीं हुआ वह छूटेगा किससे? और जब संसारदशावाला जो बंधा है वह तो छूटता ही नही है तो वह प्रयत्न भी किसलिये करेगा? जो कोई प्रयत्न Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. स्याद्वादमं करता है वह अपने ही सुखी होनेकेलिये, नकि दूसरेकेलिये । क्षणिक बौद्धोंके मतमें बंधता तो पहिला क्षण है और छूटता है N दूसरा इसलिये बंधे हुएकी मोक्षका तो अभाव ही रहा । ॥१५६॥ ___ तथा स्मृतिभङ्गदोषः । तथा हि । पूर्वबुद्ध्याऽनुभूतेऽर्थे नोत्तरबुद्धीनां स्मृतिः संभवति; ततोऽन्यत्वात्सन्ताना न्तरबुद्धिवत् । न ह्यन्यदृष्टोऽर्थोऽन्येन स्मर्यते । अन्यथा एकेन दृष्टोऽर्थः सर्वैः स्मर्यंत । स्मरणाऽभावे च कौतस्कुती प्रत्यभिज्ञाप्रसूतिः ? तस्याः स्मरणानुभवोभयसंभवत्वात् । पदार्थप्रेक्षणप्रबुद्धप्राक्तनसंस्कारस्य हि प्रमातुः स एवायमित्याकारेणेयमुत्पद्यते । अथ स्यादयं दोषो यद्यविशेषेणान्यदृष्टमन्यः स्मरतीत्युच्यते किं त्वन्यत्वेऽपि कार्यकारणभावादेव च स्मृतिः। भिन्नसंतानबुद्धीनां तु कार्यकारणभावो नास्ति; तेन संतानान्तरा णां स्मृतिर्न भवति । न चैकसांतानिकीनामपि वुद्धीनां कार्यकारणभावो नास्ति येन पूर्वबुद्ध्यनुभूतेऽर्थे तदुत्तरN बुद्धीनां स्मृतिर्न स्यात् । तदप्यनवदातम्; एवमपि अन्यत्वस्य तदवस्थत्वात् । न हि कार्यकारणभावाभिधानेऽपि तदपगतं; क्षणिकत्वेन सर्वासां भिन्नत्वात् । न हि कार्यकारणभावात् स्मृतिरित्यत्रोभयप्रसिद्धोऽस्ति दृष्टान्तः। तथा क्षणिकपना माननेसे स्मरण भी न होसकैगा ऐसा दोष आता है । जैसे एक बुद्धिके विचारको दूसरेकी बुद्धि नहीं समझ a सकती है क्योंकि वे दोनो बुद्धि परस्पर भिन्न है उसी प्रकार बुद्धिके प्रथम क्षण आगेके क्षणोको नहीं जानसकते है क्योंकि 12 वे पूर्वोत्तर कालवर्ती सभी बुद्धिक्षण परस्परमै भिन्न है । जो वस्तु जिस किसीने देखी हो उसका स्मरण उसके अतिरिक्त अन्य कोई भी नहीं करसकता है। यदि एकके देखे हुएका दूसरा भी सरण करसकता हो तो एकने जो चीज देखी है उसका स्मरण सभीको होना चाहिये । इस प्रकार जब आगेके बुद्धिक्षणोमें स्मरण ही नही होसकता है तो प्रत्यभिज्ञान कहांसे होगा क्योंकि IN प्रत्यभिज्ञान नामा ज्ञान तभी होता है जब पहिले देखे हुएका स्मरण हुआ हो तथा वर्तमानमें पहिलेके समान किसी चीजको KO अथवा विलक्षणको अथवा उसी चीजको अथवा अन्य प्रकारकी किसी चीजको प्रत्यक्ष देखा हो । भावार्थ-पहिले देखे हुएका स्मरण तो जैसे 'वह था' तथा वर्तमान किसीका ऐसा अनुभव करना जैसे 'यह है' ऐसे स्मरण तथा अनुभवके बाद उत्पन्न होने वाले जोड़रूप एक ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते है। जैसे वह यह है अथवा उससे यह भिन्न है अथवा यह उसके समान ही है, ॥१५६॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | इत्यादि । किसी वर्तमान वस्तुको देखनेसे जब पूर्वका स्मरण उठता है तभी उसके वाद प्रत्यभिज्ञान उपजता है । यहांपर बौद्ध कहता है कि " यदि हम बिना किसी संबंध के ही अन्यकर देखे हुएका अन्यको स्मरण होना मानें तो ऊपर दिखाया हुआ दोष आसकै परंतु हम तो कार्यकारणपना जिनमें पाया जाता हो उन्हीमें परस्पर एक दूसरेका स्मरण होना मानते है । जो संतान भिन्न भिन्न है उनमें परस्पर कार्यकारणपना ही नही है इसलिये उनमें एकके देखे हुएका दूसरेको स्मरण नही हो सकता है । कितु जो बुद्धिक्षण एक ही संतानमें उत्पन्न होते है उनमें पूर्वका बुद्धिक्षण तो कारण होता है और पीछे उत्पन्न हुआ कार्य होता है इसलिये उस कार्यकारणपनेके संबंधसे उन एक संतानवर्ती बुद्धिक्षणों में स्मरण होसकता है" । यह भी बौद्धका कथन ठीक नहीं है । क्योंकि; एक संतानवाले क्षणोंमें कार्यकारणरूप सबंध माननेसे भी कुछ भिन्नता मिट नही जाती है । भिन्नता तो तब न रहै जब सभी क्षण एकरूप हों । जब सभी क्षण परस्पर भिन्न हैं, क्षण क्षणमें नष्ट होते जाते है तत्र कार्यकारणरूप संबंध माननेसे भी परस्परका भेद मिट नही सकता है। और जहां कार्यकारणपना हो वहां चाहै परस्पर भेद हो तो भी | पहिलेके देखे हुएका दूसरेको स्मरण होसकता है ऐसा कोई दृष्टान्त भी नही है जिसका दोनो पक्षों में आदर होसकै । अथ "यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव संधत्ते कर्पासे रक्तता यथा" इति कर्पासे रक्तता| दृष्टान्तोऽस्तीति चेत्तदसाधीयः साधनदूषणयोरसंभवात् । तथा हि । अन्वयाद्यसंभवान्न साधनम् । न हि कार्यकारणभावो यत्र तत्र स्मृतिः कर्पासे रक्ततावदित्यन्वयः संभवति । नापि यत्र न स्मृतिस्तत्र न कार्यकारणभाव इति व्यतिरेकोऽस्ति । असिद्धत्वाद्यनुद्भावनाच्च न दूषणम् । न हि ततोऽन्यत्वादित्यस्य हेतोः कर्पासे रक्ततावदित्यनेन कश्चिद्दोषः प्रतिपाद्यते । किं च यद्यन्यत्वेऽपि कार्यकारणभावेन स्मृतेरुत्पत्तिरिष्यते तदा शिष्याचार्यादिबुद्धीनामपि कार्यकारणभावसद्भावेन स्मृत्यादिः स्यात् । अथ नायं प्रसङ्ग एकसंतानत्वे सतीति विशेषणादिति चेत्तदप्ययुक्तः भेदाऽभेदपक्षाभ्यां तस्योपक्षीणत्वात् । क्षणपरम्परातस्तस्याऽभेदे हि क्षणपरम्परैव सा । तथा च | संतान इति न किंचिदतिरिक्तमुक्तं स्यात् । भेदे त्वपारमार्थिकः पारमार्थिको वाऽसौ स्यात् ? अपारमार्थिकत्वेऽस्य तदेव दूषणमकिंचित्करत्वात् । पारमार्थिकत्वे स्थिरो वा स्यात् क्षणिको वा ? क्षणिकत्वे संतानिनिर्विशेष Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादम. ॥१५॥ एवायमिति किमनेन स्तेनभीतस्य स्तेनान्तरशरणस्वीकरणानुकरणिना। स्थिरश्चेदात्मैव संज्ञाभेदतिरोहितः प्रति-नाराजै.शा पन्नः। इति न स्मृतिर्घटते क्षणक्षयवादिनाम् । तदभावे चाऽनुमानस्याऽनुत्थानमित्युक्तं प्रागेव । ___ कदाचित् कहों कि “जिस सतानमें कर्मोकी वासना होती है उसी संतानद्वारा उन कर्मोंका फल भोगा जाता है । जैसे जिस कपासके बीजमें लालिमा होती है उसके बोनेपर उसीसे उपजे कपासमें लालिमा आती है। यह कपासलालिमाका दृष्टांत मिलता है परंतु इस दृष्टांतसे न तो कुछ सधसकता है और न किसी वचनमें बाधा पड़सकती है। कार्यकारणपना जहां जहां होता है वहां वहां स्मरण उत्पन्न होता है जैसे कपास और लालिमा ऐसा अन्वय नहीं संभवता है तथा जहां स्मृति नहीं होती वहां कार्यकारणपना भी नहीं होता ऐसा व्यतिरेक भी नहीं घटता है। जहां अन्वय व्यतिरेक संभव हों वहां ही हेतु सिद्ध होसकता है । यदि अन्वयव्यतिरेक ही नहीं होसके तो कार्यकारणरूप हेतु किस प्रकार सिद्ध होसकता है ? जब हेतु सिद्ध हो तभी कार्यकारणपना होनेसे स्मृति होना भी संभव होसकता है । और हमने जो यह कहा था कि जिनमें परस्पर भेद होता है उनमें एकके देखे No हुए पदार्थ की दूसरेको स्मृति होना असंभव है सो इस वचनमें कपास लालिमाके दृष्टांतसे कुछ असिद्धतादिक दोष भी ॐआते नहीं दीखते, जो हमारा कहना असत्य होजाय । और भी एक दोष यह है कि यदि कार्यकारणपनके संबंधमात्रसे के भिन्न भिन्न वस्तुओंमें भी स्मृति उपजसकती हो तो शिष्यको गुरु पढ़ाता है इसलिये शिष्यकी बुद्धि तो कार्य है तथा गुरुकी। बुद्धि कारण है सो यहां भी गुरुके अनुभव किये पदार्थोंका शिष्यको स्मरण होना चाहिये परंतु होता नही है सो क्यों? एक संतानमें ही कार्यकारणरूप संबंधके द्वारा स्मरणका होना मानना भी युक्तिसंगत नही है क्योंकि, जब संतान और बुद्धिक्षणोंमें परस्पर भिन्नता अभिन्नताका विचार करनेलगते है तो सतान कोई चीज सिद्ध नहीं होती । कैसे ? यदि क्षणपरंपरा तथा संतानमें परस्पर अभेद मानाजाय तो क्षणपरंपरा ही रही, सतान कोई भिन्न वस्तु नही ठहरी इसलिये संतानसे कोई अपूर्व कार्य होना असंभव है; जो कुछ कार्य होगा वह क्षणपरंपरासे ही होगा। और यदि क्षणपरंपरासे संतान कोई भिन्न वस्तु ५ है तो भी वह सचमुच कुछ है अथवा कल्पनामात्र ही है ? यदि कल्पनामात्र ही है तब तो फिर भी कुछ कर नहीं सकती है। ॥१५७॥ Ad और यदि सचमुच कोई चीज है तो वह स्थिर है अथवा बुद्धिक्षणादिवत् वह भी क्षणिक है? यदि सतान भी क्षणिक है तब यू तो जैसे क्षणपरंपरामें दोष है तैसे ही दोष इसमे भी संभव होसकते है इसलिये ऐसी संतानके माननेसे भी क्या प्रयोजन ? यह Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानना तो ऐसा ही है जैसा एक चोरसे भयभीत होकर दूसरे चोरका शरण लैना । यदि वह स्थिर है तो नाम बदलकर आत्मा ही स्वीकार किया समझना चाहिये । इस प्रकार जबतक क्षणिकपना मानाजायगा तबतक स्मृति होना असंभव ही है । स्मरण न होनेसे अनुमान भी न होसकैगा यह दोष तो पहिले ही दिखा चुके है । अपि च स्मृतेरभावे निहितप्रत्युन्मार्गणप्रत्यर्पणादिव्यवहारा विशीर्येरन् । “इत एकनवतेः कल्पे शक्त्या मे पुरुषो | हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः" इति वचनस्य च का गतिः । एवमुत्पत्तिरुत्पादयति, स्थितिः। स्थापयति, जरा जर्जरयति, विनाशो नाशयति इति चतुःक्षणिकं वस्तु प्रतिजानाना अपि प्रतिक्षेप्याः । क्षणचतुष्कानन्तरमपि निहितप्रत्युन्मार्गणादिव्यवहाराणां दर्शनात् । तदेवमनेकदोषापातेऽपि यः क्षणभङ्गमभिप्रैति तस्य महत् साहसम् । इति काव्यार्थः । परंतु एक और भी दोष यह संभव है कि यदि स्मृति नही रहेगी तो जो धरोहर रखदी गई है उसको मागेगा कौन तथा पीछा देगा कौन? ऐसे व्यवहारोंका नाश ही होजायगा । और " अबसे इक्यानवैमें कल्पमें मैने बलात्कारसे एक पुरुष मारड़ाला था उसी कर्मके खोटे फलसे हे भिक्षुको ! यह मेरा पैर छिदा है " इस वचनके विषय में क्या उत्तर होसकैगा ? इसी प्रकार जो उत्पत्ति स्थिति जरा तथा मरणके क्रमसे चार क्षण पर्यंत वस्तुकी स्थिति मानते हैं उनका कहना भी अनुचित है । प्रथम क्षणमें तो वस्तुकी उत्पत्ति, दूसरे स्थितिक्षणमें वस्तुकी स्थिति, तीसरे जराक्षणमें वस्तुकी अवस्था जर्जरित होना तथा चोथे मरणक्षण में वस्तुका नाश ऐसे चार क्षण ही वस्तु रहसकती है ऐसा वे कहते हैं परंतु यह कहना दूषित है । क्योंकि, चार क्षणके अनंतर भी रक्खी हुई धरोहरका लैना दैना देखा जाता । इस प्रकार अनेक दोष आते हुए भी जो क्षणभंगुरता मानता है उसका बड़ा | भारी साहस समझना चाहिये । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ । अथ तथागताः क्षणक्षपक्षे सर्वव्यवहारानुपपत्तिं परैरुद्भावितामाकर्ण्यत्थं प्रतिपादयिष्यन्ति यत्पदार्थानां क्षणिकत्वेऽपि वासनावललब्धजन्मना ऐक्याध्यवसायेन ऐहिकामुष्मिकव्यवहारप्रवृत्तेः कृतप्रणाशादिदोषा निरवकाशा एवेति । तदाकूतं परिहर्तुकामस्तत्कल्पितवासनायाः क्षणपरम्परातो भेदाभेदानुभयलक्षणे पक्षत्रयेप्यघ| टमानत्वं दर्शयन् स्वाभिप्रेतभेदाभेदस्याद्वादमकामानपि तानङ्गीकारयितुमाह । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादम. ॥१५८॥ क्षणभंगुरता माननेमें सर्व व्यवहारोंका लोप होजानेका दोष जो बौद्धोंके ऊपर लगायागया उसकी मरंमत बौद्ध इस प्रकार रा.जै.शा. करेंगे कि यद्यपि संपूर्ण पदार्थ क्षणभगुर है तो भी वासनाके बलसे उत्पन्न हुए अभदज्ञानसे इस लोक तथा परलोक संबधी सपूर्ण व्यवहार चल सकते हैं इसलिये पूर्वकृत कर्मों का नाश होजायगा इत्यादिक दोष कहना असत्य है। बौद्धोंकी इस आशंकाको दूर करनेकी इच्छासे आचार्य महाराज बौद्धकी कल्पना की हुई वासना क्या क्षणपरंपरासे भिन्न है अथवा अभिन्न है अथवा भिन्न भी नही है तथा अभिन्न भी नहीं है ऐसी तीनो कल्पनाओंमेंसे किसी भी कल्पनाके माननेमें बासनाकी सिद्धि नही होती ऐसा दिखाते हुए जैनधर्ममें माने हुए कथंचित् भेदाभेद नही चाहते हुए भी बौद्धोंको मानने पड़ते है ऐसा कहते है। सा वासना सा क्षणसन्ततिश्च नाऽभेदभेदाऽनुभयैर्घटेते। ततस्तटाऽदर्शिशकुन्तपोतन्यायात्त्वदुक्तानि परे श्रयन्तु ॥ १९॥ मृलार्थ-सर्वथा एकता मानना अथवा परस्पर भेद ही मानना अथवा भेदाभेद दोनो ही न मानना ऐसे तीन पक्षोंकी कल्पना बौद्धमतमें हो सकती है। परंतु इन तीनो पक्षोमेंसे किसी भी पक्षके माननेसे बौद्धकर संकल्पित कीहुई वासना तथा प्रतिसमय उत्पन्न और नष्ट होते हुए ज्ञानक्षणोकी शृंखला सिद्ध नही होसकती है, इसलिये हे अर्हन् ! जैसे समुद्रके बीच जहाजसे उड़े हुए पक्षीको जब जहाजके अतिरिक्त कोई भी शरण नही दीखता है तब जहाजका ही उसको शरण लेना पड़ता है तैसे बौद्धोंको अपने ५ सिद्धान्तका खडन होजानेसे आपकर कहे हुए कथंचित् भेदाभेदरूप सिद्धातका ही शरण लेना चाहिये। ___ व्याख्या-सा शाक्यपरिकल्पिता त्रुटितमुक्तावलीकल्पानां परस्परविशकलितानां क्षणानामन्योऽन्यानुस्यूतप्रत्ययजनिका एकसूत्रस्थानीया सन्तानापरपर्याया वासना। वासनेति पूर्वज्ञानजनितामुत्तरज्ञाने शक्तिमाहुः। सा च क्षणसन्ततिस्तदर्शनप्रसिद्धा प्रदीपकलिकावन्नवनवोत्पद्यमानापरापरसदृशक्षणपरम्परा । एते द्वे अपिल अभेदभेदाऽनुभयैन घटते । न तावदभेदेन तादात्म्येन ते घटते । तयोहि अभेदे वासना वा स्यात् क्षणपरम्परा ॥१५८ वा; न द्वयम् । यद्धि यस्मादभिन्नं न तत्ततः पृथगुपलभ्यते । यथा घटाद्धटस्वरूपम् । केवलायां वासनायामन्वयिस्वीकारः । वास्याऽभावे च किं तया वासनीयमस्तु ? इति तस्या अपि न स्वरूपमवतिष्ठते । क्षणपरम्परामात्रा Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ङ्गीकरणे च प्राश्च एव दोषाः । न च भेदेन ते युज्येते । सा हि भिन्ना वासना क्षणिका वा स्यादक्षणिका वा ? क्षणिका चेत्तर्हि क्षणेभ्यस्तस्याः पृथक्कल्पनं व्यर्थम् । अक्षणिका चेदन्वयिपदार्थाभ्युपगमेनागमबाधः । तथा च पदार्थाअन्तराणां क्षणिकत्वकल्पनाप्रयासो व्यसनमात्रम् । व्याख्यार्थ - प्रथम ज्ञानक्षणसे आगे के दूसरे ज्ञानक्षणों में उत्पन्न होती हुई शक्तिको वासना कहते हैं । टूटी हुई मोतियोंकी मालामेंसे | विखिरे हुए मोतियोंके समान परस्पर जुदे जुदे ज्ञानक्षणों का एक दूसरेमें मिले हुएकासा ज्ञान करानेवाली वासना बौद्धमतावलंबियोने मानी है । यह वासना संपूर्ण ज्ञानक्षणों में इस प्रकार प्रविष्ट रहती है जिस प्रकार मोतियोंकी माला में डोरा। इसीका दूसरा नाम संतान है। और दीपककी लौके समान सदा नये नये उत्पन्न होते हुए पूर्वोत्तर पर्यायोंमें एकसी जो ज्ञानक्षणोकी अर्थात् प्रत्येक समयवर्ती ॐ ज्ञानके पर्यायोंकी श्रेणी है उसीको बौद्धसिद्धांतवाले क्षणसंतति कहते हैं । ये दोनो ही क्षणसंतति तथा वासना न तो अभेददृष्टि | माननेसे ही संभव होसकती है और न भेदपक्ष अर्थात् अनेकता माननेसे और न भेदाभेद दोनो ही न माननेसे । जब अभेदपक्ष मानते हैं तब तो संपूर्ण संसार ही एकरूप है इस लिये यह वासना है और यह क्षणसंतति है ऐसा भेदव्यवहार नही बनसकता । जब संपूर्ण विश्वको अभेदरूप मान चुके तब या तो वासना ही एक चीज मानलीजाय या क्षणसंतति ही । अभेदरूप संपूर्ण | विश्वको मानते हुए यह नहीं कहसकते हैं कि वासना तथा क्षणसंतति दोनो ही भिन्न भिन्न वस्तु हैं । जो वस्तु जिससे अभिन्न है उसकी प्रतीति उससे भिन्न होकर कभी नही होसकती है । जैसे घड़ा और घड़ेका आकार ये दोनो अभिन्न है; घड़ेका स्वरूप घड़ेके अतिरिक्त कोई भिन्न वस्तु नही है इसलिये घड़े के खरूपका घड़ेके अतिरिक्त कही अन्यत्र भान नहीं होता । इस प्रकार जब दोनो जुदे सिद्ध नहीं होते तब यदि केवल वासना ही खीकार करे तो वासनामें एक अनुगामीपना धर्म रहता है सो जब वासित करने योग्य कोई भिन्न पदार्थ ही नहीं है तो वासनाका अन्वय कहांपर रहैगा और अपनी वासनासे किसको वासित करैगा ? इस | प्रकार केवल वासना माननेपर तो वासनाका स्वरूप भी नहीं बनता है और यदि केवल क्षणसंतति ही मानीजाय तो क्षणसंततिमें आनेवाले दोष पहिले ही कह चुके हैं। और दोनोंमें भेद माननेपर भी वासना तथा क्षणसंतति सिद्ध नही होसकती हैं। क्योंकि, वासनाको | भिन्न मानकर भी क्या क्षणसंतति की तरह क्षणिक माना है अथवा नित्य ? यदि वासना भी क्षणिक है तो क्षणसंततिके अतिरिक्त वासनाकी कल्पना करना ही व्यर्थ है । अर्थात् यदि चिरस्थायी सब क्षणोंमें रहनेवाली एक वासना नही मानीजाय तो पहिले क्षणवर्ती Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ।। १५९ ।। पुण्यपापादिक आगे के दूसरे क्षणोंमें न पहुंच सकैगे किंतु फल बिना दिये ही पुण्यपापादिक क्षणनाशके साथ साथ नष्ट होजांयगे । इसलिये पहिले अनुभवको तथा पुण्यपापादिकोंको आगेके क्षणों में पहुंचानेकेलिये ही वासनाकी कल्पना की गई है । यह वासना नित्य होनेसे ही आगेके क्षणोंमें पहिले क्षणोंके पुण्यपापादिकोंको पहुंचा सकती है। परंतु यदि यह भी क्षण क्षणमें नष्ट होनेवाली मानीजाय तो स्मरण तथा पुण्यपापादिक क्षणनाशके साथ साथ नष्ट होजानेका जो दोषारोपण किया था वह दोषारोपण वासना माननेपर भी ज्योंका त्यों बना रहता है इसलिये वासनाका मानना न मानना बराबर है । इस भयसे यदि वासनाको नित्य ही मानने लगे तो इस नित्य पदार्थ के स्वीकार होनेसे बौद्धों के सिद्धांतमें बाधा आती है। क्योंकि, बौद्धोंके सिद्धांत में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है । और जब वासनाको नित्य मानलिया तो अन्य पदार्थों को भी नित्य माननेमें क्या बाघा है जो क्षणिक सिद्ध करनेके लिये इतना प्रयास उठानेका व्यसन लगा रक्खा है । अनुभयपक्षेणापि न घटेते । स हि कदाचिदेवं ब्रूयात्-नाहं वासनायाः क्षणश्रेणितोऽभेदं प्रतिपद्ये न च भेदं; किं त्वनुभयमिति तदप्यनुचितं; भेदाऽभेदयोर्विधिनिषेधरूपयोरेकतरप्रतिषेधेऽन्यतरस्यावश्यं विधिभावात् । अन्यतरपक्षाभ्युपगमस्तत्र च प्रागुक्त एव दोषः । अथवाऽनुभयरूपत्वेऽवस्तुत्वप्रसङ्गः । भेदाऽभेदलक्षणपक्षद्वयव्यतिरिक्तस्य मार्गान्तरस्य नास्तित्वात् । अनार्हतानां हि वस्तुना भिन्नेनवा भाव्यमभिन्नेन वा तदुभयाऽतीतस्य बन्ध्यास्तनन्धयप्रायत्वात् । एवं विकल्पत्रयेऽपि क्षणपरम्परावासनयोरनुपपत्तौ पारिशेष्याद्भेदाभेदपक्ष एव कक्षीकरणीयः । न च "प्रत्येकं यो भवेदोषो द्वयोर्भावे कथं न सः" इति वचनादत्रापि दोषतादवस्थ्यमिति वाच्यं; कुक्कुटसर्प नरसिंहादिवज्जात्यन्तरत्वादनेकान्तपक्षस्य । यदि कदाचित् बौद्ध कहै कि न तो मै वासनामें क्षणसंततिसे भेद ही मानता हूं और न अभेद ही मानता हूं किंतु भेदाभेद दोनोंका अभाव मानता हूं तो यह भी बौद्धका कथन अयोग्य है । क्योंकि, भेद तथा अभेद ये दोनो ऐसे धर्म है कि एकके निषेधसे दूसरा आही जाता है इसलिये भेदको न माने तो अभेद आपडता है और अभेदको न माने तो भेद आपडता है । दोनोका निषेध कदापि नहीं होसकता । और भेदाभेदमेंसे किसी एकको माने तो प्रत्येकके दोष ऊपर दिखा ही चुके है । और यदि भेदाभेद का अभाव माना ही जाय तो दोनोंके निषेध करनेपर कुछ रहेगा ही नहीं किंतु सर्वाभाव होजायगा । क्योंकि; रा. जै-शान ॥१५९॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ की सिद्धि या तो भेदरूपसे ही होसकती और या अभेद मानकर ही । वस्तुकी स्थिति करने का भेदाभेद छोड़कर अन्य कोई मार्ग नहीं है । जो आर्हत मतको नहीं मानते है वे या तो वस्तुको भेदरूपसे ही साधसकते है या अभेदरूपसे ही । जैसे बांझके सुत होना संभव नहीं है तैसे उनके लिये भेदाभेद के अतिरिक्त वस्तु साधनेका कोई भी मार्ग संभव नहीं है । इस प्रकार तीनो पक्षोके माननेमें दोषारोपण होसकता है। एक भी पक्ष ऐसा नहीं है जिसके माननेसे क्षणसंतति तथा वासना सिद्ध होसकै इसलिये हताश | होकर कथंचित् भेदाभेदपक्ष ही मानना पड़ता है । " जो दोष प्रत्येक जुदे जुदे पक्ष माननसे आता है वह दोष उन दोनोंके | समुदायरूप एक पक्ष माननेसे भी आवेगा " इस वचनके अनुसार जो दोष एक एक भेद अथवा अभेद पक्षके माननेसे आते है वे कथंचित् भेदाभेद माननेमें भी आसकते हैं ऐसा कहना भी असत्य है । क्योंकि; जैसे कुक्कुटसर्प या नरसिंह पर्यायमें न तो | केवल कुक्कुट या नरकासा ही रूप रहता है और न सर्प या सिंहकासा ही किंतु दोनोंसे विलक्षण ही होता है उसी प्रकार कथंचित् भेदाभेदरूप अनेकांतवादका खरूप एक एक पक्षोंकी अपेक्षा कुछ निराला ही है । नन्वार्हतानां वासनाक्षणपरम्परयोरङ्गीकार एव नास्ति । तत्कथं तदाश्रयभेदाभेदचिन्ता चरितार्था इति चेन्नैवम् । | स्याद्वादवादिनामपि हि प्रतिक्षणं नवनवपर्यायपरम्परोत्पत्तिरभिमतैव । तथा च क्षणिकत्वम् । अतीताऽनागतवर्तमानपर्यायपरम्परानुसन्धायकं चान्वयिद्रव्यम् । तच्च वासनेति संज्ञान्तरभाक्त्वेऽप्यभिमतमेव । न खलु नामभे| दाद्वादः कोऽपि कोविदानाम् । सा च प्रतिक्षणोत्पदिष्णुपर्यायपरम्पराऽन्वयिद्रव्यात्कथंचिद्भिन्ना कथंचिदभिन्ना च । तथा तदपि तस्याः स्याद्भिन्नं स्यादभिन्नम् । इति पृथक्प्रत्ययव्यपदेशविषयत्वाद्भेदो द्रव्यस्यैव च तथा तथा | परिणमनादभेदः । एतच्च सकलादेशविकला देशव्याख्याने पुरस्तात्प्रपञ्चयिष्यामः । जैनोंने जब वासना तथा क्षणसंतति ये दोनो पदार्थ ही नही माने है तो बे परस्पर भिन्न है अथवा अभिन्न ऐसा विचार करने की उनको क्या आवश्यकता है' यह शंका करना उचित नहीं है । क्योंकि, स्याद्वादियो ने भी प्रतिक्षण नये नये पर्यायोंकी उत्पत्ति | मानी है इसलिये तो क्षणिकता अथवा क्षणसंतति मानना सिद्ध होता है और जो एक द्रव्यके अतीत अनागत वर्तमान काल संबंधी | संपूर्ण पर्यायोंको एकरूप रखनेवाला है उसको अन्वयिद्रव्य कहा है तथा उसीको वासना नामसे भी कहसकते है । नाममात्रका | भेद होनेसे विद्वानोमें विवाद कभी नहीं होता । वह प्रत्येक क्षणोंमें उपजनेवाली पर्यायोंकी शृंखला अन्वयिद्रव्यसे Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E रा जै.शा. स्थाद्वादम. ॥१६॥ ( वासनासे) कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है। इसी प्रकार अन्वयिद्रव्य भी पर्यायपरंपरासे (क्षणपरंपरासे ) कथंचित् | मिन्न कथंचित् अभिन्न है। जो प्रत्येक पर्यायका ज्ञान जुदा जुदा होता है वह निर्मूल नहीं है इसलिये तो प्रत्येक पर्याय भिन्न भिन्न है परंतु वे संपूर्ण पर्याय होते एक ही द्रव्यके है इसलिये पर्याय तथा अन्वयि द्रव्य एक दूसरेसे अभिन्न है । इस कथंचित् / भेदाभेदका खुलासा आगे चलकर सकलादेश विकलादेशका व्याख्यान करते समय करेंगे। । अपि च वौद्धमते वासनापि तावन्न घटते इति निर्विषया तत्र भेदादिविकल्पचिन्ता। तल्लक्षणं हि पूर्वक्षणेनोत्तरक्षणस्य वास्यता। न चाऽस्थिराणां भिन्नकालतयान्योन्याऽसंवद्धानां च तेषां वास्यवासकभावो युज्यते; स्थिरस्य संवद्धस्य च वस्त्रादेमंगमदादिना वास्यत्वं दृष्टमिति । अथ पूर्वचित्तसहजाच्चेतनाविशेषात्पूर्वशक्तिविशिष्टं चित्तमु. उत्पद्यते । सोऽस्य शक्तिविशिष्टचित्तोत्पादो वासना । तथा हि । पूर्वचित्तं रूपादिविपयं प्रवृत्तिविज्ञानं यत्तत्पवि धम् । पञ्च रूपादिविज्ञानान्यऽविकल्पकानि । पष्ठं च विकल्पविज्ञानम् । तेन सह जातः समानकालश्चेतनाविशेपोऽहङ्कारास्पदमालयविज्ञानम्। तस्मात्पूर्वशक्तिविशिष्टचित्तोत्पादो वासनेति । तदपि न; अस्थिरत्वाद्वासकेनाsसम्बन्धाच्च । यश्चासौ चेतनाविशेषः पूर्वचित्तसहभावी स न वर्तमाने चेतस्युपकारं करोति । वर्तमानस्याऽशक्याऽपनेयोपनेयत्वेनाऽविकार्यत्वात् । तद्धि यथाभूतं जायते तथाभूतं विनश्यति इति । नाप्यनागते उपकारं करोति; तेन सहासंबद्धत्वात् । असंवद्धं च न भावयतीत्युक्तम् । तस्मात् सौगतमते वासनापिन घटते । अत्र च स्तुतिकारेणाऽभ्युपेत्यापि तामन्वयिद्रव्यव्यवस्थापनाय भेदाभेदादिचर्चा विवरितेति भावनीयम् । और भी एक दोष यह है कि बौद्धमतमें वासना भी नहीं सिद्ध होती है इसलिये जब क्षणसंततिके अतिरिक्त कोई पदार्थ ल ही नहीं है तो भेदाभेदका झगड़ा बिना आधार करना व्यर्थ है । पूर्व क्षणके धर्मोका उत्तर क्षणोंमें आजाना ही वासना मानी गई ॐ है। परंतु जो क्षण स्वयं अस्थिर हैं तथा जुदे जुदे समयोमें उपजनेसे एक दूसरेसे मिल नहीं सकते है उन क्षणोंमेंसे यह क्षण तो वासना पैदा करनेवाला है तथा इस क्षणमें वासना पैदा होती है ऐसा कथन कैसे बनसकता है ? जो वस्त्रादि स्वयं स्थिर हों । तथा जिनका कस्तूरी आदिकके साथ संबंध भी होसकता हो उन्हीमें कस्तूरी आदिकोकी वासना होती हुई दीखती है । यहापर बौद्ध कहता है कि पूर्वचित्तक्षणके साथ साथ उत्पन्न हुए एक प्रकारके चैतन्यके द्वारा पूर्वकीसी शक्तिसहित दूसरा चित्तक्षण ॥१६॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | उपजता है । पूर्वकीसी शक्तिविशिष्ट आगेके चिचक्षणका उत्पन्न होना ही वासना है । पहिला जो रूपादिक ग्रहण करनेवाला चित्तक्षण है उसको प्रवृत्तिविज्ञान कहते है और वह छह प्रकारका होता है । रूपरसाादिकके ग्रहण करनेवाले पांच विज्ञान तो निर्विकल्पक हैं और छट्टा विज्ञान सविकल्पक है । इन्ही ज्ञानोको चित्त कहते है । जिस ज्ञानमें विशेषाकाररूप नाना प्रकारके भिन्न भिन्न पदार्थ प्रतिभासित हों वह तो सविकल्पक कहाता है और जिसमें सब कुछ विज्ञानमय अभिन्न ही दीखै वह निर्विकल्पक कहाता है । विकल्प नाम भेदका है । उस छह प्रकारके ज्ञानके साथ साथ उत्पन्न हुआ और अहंकारको उपजानेवाला तथा | आलयविज्ञान जिसका दूसरा नाम है ऐसा जो एक प्रकारका चैतन्य है उससे पूर्वकीसी शक्तिविशिष्ट एक चित्तकी उत्पत्ति होती है । वासना भी उसीको कहते है । यह सव बौद्धका कहना सर्वथा अयोग्य है । क्योंकि; जो वासनाको पैदा करता है वह स्वयं अस्थिर है तथा जिसमें वासना उपजाई जाती है उसके साथ मिल भी नही सकता है । और जो यह पूर्वचित्तके समयमें उत्पन्न होनेवाला चैतन्यविशेष है वह वर्तमान कालवर्ती चित्तमें कुछ भी उपकार नही कर सकता है । क्योंकि; जो वर्तमानमें माना जाता है उसके खरूपमें न तो किसी धर्मका नाश होना ही संभव है और न किसी धर्मकी उत्पत्ति होना । वह तो जैसा उपजता है। तैसा ही नष्ट होजाता है । इस प्रकार वर्तमानके चित्तक्षणमें तो पूर्व चित्तक्षणद्वारा उपकार होना असंभव है ही किंतु आगामी चित्तक्षण में भी पूर्वके चित्तक्षणद्वारा उपकार होना असंभव ही है । क्योंकि; आगामी चित्तक्षणके साथ उसका कुछ भी सबंध नही होसकता है। जो स्वयं असंबद्ध है अर्थात् जो जिसके साथ मिल नही सकता है वह उसमें किसी प्रकारकी वासना भी नही पहुचा सकता है। ऐसा कहचुके है । इस प्रकार सौगत मतमें वासनाकी सिद्धि होना असंभव है । स्तुतिकर्ता श्रीहेमचंद्राचार्यने वासनाको स्वयं मानकर भी जो यहांपर भेदाभेदकी चर्चा की है वह सदासे अखंड प्रवर्तते हुए अविनाशी द्रव्यकी सिद्धि करनेकेलिये ही की है। | ऐसा समझना चाहिये । अथोत्तरार्धव्याख्या । तत इति पक्षत्रयेऽपि दोषसद्भावात्त्वदुक्तानि भवद्वचनानि भेदाभेदस्याद्वादसंवादपूतानि परे कुतीर्थ्याः प्रकरणान्मायातनयाः श्रयन्तु आद्रियन्ताम् । अत्रोपमानमाह तटादशत्यादि । तटं न पश्य - | तीति तदाऽदर्शी यः शकुन्तपोतः पक्षिशावकस्तस्य न्याय उदाहरणं तस्मात् । यथा किल कथमप्यपारपारावारान्तःपतितः काकादिशकुनिशावको बहिर्निर्जिगमिषया प्रवहणकूपस्तम्भादेस्तदप्राप्तये मुग्धतयोड्डीनः समन्ताज्जलैका Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादम. राज ॥१६॥ र्णवमेवावलोकयंस्तटमदृष्दैव निर्वेदाव्यावृत्य तदेव कृपस्तम्भादिस्थानमाश्रयते; गत्यन्तराऽभावात् । एवं तेऽपि कुर्ती र्थ्याः प्रागुक्तपक्षत्रयेऽपि वस्तुसिद्धिमनासादयन्तस्त्वदुक्तमेव चतुर्थ भेदाऽभेदपक्षमनिच्छयापि कक्षीकुर्वाणास्त्वच्छासनमेव प्रतिपद्यन्ताम् । नहि स्वस्य बलविकलतामाकलय्य बलीयसः प्रभोः शरणाश्रयणं दोपपोपाय नीतिशालिनाम्। त्वदुक्तानीति वहुवचनं सर्वेषामपि तन्त्रान्तरीयाणां पदे पदेऽनेकान्तवादप्रतिपत्तिरेव यथाऽवस्थितपदार्थप्रतिपादनौपयिकं नान्यदिति ज्ञापनार्थम्, अनन्तधर्मात्मकस्य सर्वस्य वस्तुनः सर्वनयात्मकेन स्याद्वादेन विना यथावद् ग्रहीतुमशक्यत्वात् ; इतरथाऽन्धगजन्यायेन पल्लवग्राहिताप्रसङ्गात् । | अब वांकी रहे हुए आधे श्लोकका व्याख्यान करते है। इससे अर्थात् पक्षत्रयमें दोप होनेसे अन्य कुत्सित धोंके प्रवर्तकोंको भी आपके दिखाये हुए कथचित् भेदाभेदरूप स्याद्वादवचनोंका ही आश्रय लेना चाहिये। यहांपर अन्य कुत्सित धर्मोके प्रवर्तकोंको ऐसा सामान्य शब्द होनेपर भी प्रकरणके वशसे बुद्धमतावलंबी ही समझना चाहिये । अर्थात्-बौद्धादिकोंके वचन सर्वथा भेदरूप अथवा अभेदरूप अथवा अनुभयरूप ही है इसलिये उन वचनोमें नाना प्रकारके दोष सभव हैं और आपके वचन कथचित् भेदाॐ भेदरूप स्याद्वादगर्भित होनेसे किसी प्रकार भी दूपित नही है इसलिये परवादियोको झख मारकर अंतमें आपके ही वचन स्वीकार | करने पड़ते है । अब यहांपर अख मारकर अंतमें आपके ही वचन किस प्रकार स्वीकार करने पड़ते है इस वातको 'तटादर्शि' के इत्यादि कहकर दृष्टांत द्वारा समझाते है । समुद्रके किनारेसे बहुत दूर पहुच जानेसे जिस पक्षीके बच्चेको किनारा नहीं दीखता हो उसको तटादर्शि शकुंतपोत कहते है । उसीका यहापर दृष्टात है । किसी पक्षीका बच्चा जहाजके मस्तूलपर वेठा रहकर किसी प्रकार अथाह तथा विशाल समुद्र के बीच में पहुचजानेपर बाहिर निकलनेकी इच्छासे किनारेपर आनेके लिये मूर्खताके कारण जहाजके 4 मस्तूलसे जब उड़जाता है और चारो तरफ जल ही जल देखता है किंतु किनारा किधर भी नही दीखता है तब जिस प्रकार पुरुषार्थहीन होकर फिरसे लौटकर उसी मस्तूलका सहारा लेता है। क्योंकि वहां दूसरा कोई शरण ही नही है । उसी प्रकार कुत्सित मतोंके प्रवर्तक बौद्धादिक भी जब पूर्वोक्त भेदादि तीनो पक्षोमेंसे किसी पक्षसे भी वस्तुसिद्धि नही करसकते है तब जिस कथंचित् भेदाभेदरूप चौथे पक्षका आपने उपदेश किया है उसीका आश्रय नही चाहते हुए भी झख मारकर लेते हुए आपके मतका सहारा लेते हैं । अपने बलकी हीनता देखकर अपनेसे अधिक बलवान् खामीका शरण लेना कुछ भी नीतिविरुद्ध पक्षस भी वस्तुसिटि ॥१६ १ पदश किया है उसी ते हैं। अपने Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है । स्तोत्रमें जो " त्वदुक्तानि” ऐसा बहुवचनांत पद पड़ा है उससे यह सूचित होता है कि और भी संपूर्ण कुमतवादी लोग प्रत्येक स्थानपर स्याद्वादका शरण लेकर ही यथार्थ वस्तुका प्रतिपादन करसकते है । जबतक आपके ( अर्हत्के) स्याद्वादका शरण नही लैगे तबतक कदापि निर्दोष वस्तुखरूप नहीं कहसकते हैं । क्योंकि; प्रत्येक वस्तुमें धर्म अनतो है; किसी धर्मका ज्ञान किसी नयसे होसकता है और किसी धर्मका किसी नयसे; एक नयसे संपूर्ण धर्मोका ग्रहण होना असंभव है इसलिये संपूर्ण | नयस्वरूप स्याद्वाद के माने बिना यथावत् वस्तुका ज्ञान होना असंभव है । यदि स्याद्वादका शरण न लेवै तो अंधगजन्यायके अनुसार वस्तुके एक एक अशका ही ज्ञान होसकैगा; और वस्तुका संपूर्ण स्वरूप ग्रहण करना असंभव ही रहैगा । । जन्मके अंधे मनुष्य, हाथीका खरूप जानलेनेकी इच्छासे हाथीके पास यदि जावै और उनमें से कोई तो टटोलकर हाथीकी पूंछ पकड़ै, कोई कान, कोई सूंड तथा कोई पैर तो इस प्रकार हाथीका एक एक अंग जांचकर पूंछ पकड़नेवाला तो हाथीका स्वरूप पूंछकासा कहैगा और कान पकड़नेवाला कानकासा, सूंड़ पकड़नेवाला सूंड़कासा तथा पैर पकड़नेवाला हाथीका स्वरूप खंभसरीखा कहैगा । इसी प्रकार जिस जन्मांधने जिस अंगको टटोला होगा वह उस हाथीका स्वरूप उसी अंगसमान कहैगा । इसीको अंधगजन्याय कहते हैं । यदि यहां विचार किया जाय तो जो अंधे मनुष्योंने हाथीका स्वरूप कहा है वह सर्वथा झूठा नही है। क्योकि; हाथीके एक एक अंगकी अपेक्षा वह खरूप हाथीका ही है, अन्य किसीका नहीं है । परंतु यदि हाथीके पूर्ण स्वरूपका विचार करते है तो जो एक एक अंधने कहा है उतना ही पूर्ण खरूप नही है । पूर्ण स्वरूप तो उन सब अंधोके कहे हुए खरूपोंको | मिलादेनेपर ही होता है । इसी प्रकार जन्मांधोंके समान कुमतवादियोंनें अनेक अंगोविशिष्ट हाथीके सदृश अनेक धर्मविशिष्ट जो वस्तु है उसका खरूप एक एक धर्मका ही आश्रय लेकर कहा है । किसीने सर्वथा भेद ही वस्तुका स्वरूप माना है किसीने अभेद | ही; किसीने नित्य ही; किसीने अनित्य ही, किसीने उभयात्मक ही तथा किसीने अवाच्य ही । इस प्रकार वस्तुका एक एक धर्म लेकर नाना प्रकारसे परस्पर विरुद्ध वस्तुखरूप कहा है । यद्यपि ये सपूर्ण वस्तुखरूप एक एक धर्मकी अपेक्षासे सच्चे है परंतु यदि पूर्ण स्वरूप विचारा जाय तो उतना ही नहीं है । किंतु उन सपूर्ण स्वरूपोंको मिलानेपर यथार्थ वस्तुका खरूप सिद्ध होता है। और इसीका नाम कथंचित् अथवा अनेकान्त अथवा स्याद्वाद है । श्रयन्तीति वर्तमानान्तं केचित्पठन्ति, तत्राप्यदोषः । अत्र च समुद्रस्थानीयः संसारः । पोतसमानं त्वच्छासनम् । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. यादा कूपस्तम्भसन्निभः स्याद्वादः। पक्षिपोतोपमा वादिनः। ते च स्वाभिमतपक्षप्ररूपणोडयनेन मुक्तिलक्षणतटप्राप्तये कृतप्रयत्ना अपि तस्मादिष्टार्थसिद्धिमपश्यन्तो व्यावृत्य स्याद्वादरूपकूपस्तम्भालडून्ततावकीनशासनप्रवहणोपसर्पण॥१६२॥ मेव यदि शरणीकुर्वते तदा तेषां भवार्णवादहिनिष्क्रमणमनोरथः सफलतां कलयति। नाऽपरथा। इति काव्यार्थः। इस स्तोत्रमें कोई तो 'श्रयन्ति' अर्थात् आश्रय लेते है ऐसा वर्तमान कालके अर्थका जतानेवाला शब्द मानते है और कोई 'श्रयन्तु' I अर्थात् आश्रय लेवै ऐसा आज्ञार्थसूचक शब्द मानते हैं परंतु दोनो ही शब्द निर्दोष है । दृष्टान्तमें जहांपर समुद्र है वहांपर दान्तिमें संसार है तथा जहाजके स्थानमें आपका शासन है, मस्तूलके स्थानमें स्याद्वाद है, पक्षिके बच्चेके समान वादी जन A है। इसका अभिप्राय यह है कि, वे वादी अपने अपने अभिमत पक्षोंका निरूपण करनेरूप उड़ानसे मोक्षरूप तटपर पहुचने । के लिये प्रयत्न करते हुए भी जब इष्टसिद्धिकी पूर्ति होते नहीं देखते हैं तब यदि लौटकर स्याद्वादरूपी मस्तूलसे सुशोभित आपके शासनरूपी जहाजका शरण लेवै तो संसाररूपी समुद्र के बाहिर निकलनेका उनका मनोरथ पूर्ण होसकता है । अन्यथा यह मनोरथ पूर्ण होना असंभव है । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। ___एवं क्रियावादिनां प्रावादुकानां कतिपयकुग्रहनिग्रहं विधाय साम्प्रतमक्रियावादिनां लोकायंतिकानां मतं सर्वाधमत्वादन्ते उपन्यस्यन् तन्मतमूल्यस्य प्रत्यक्षप्रमाणस्यानुमानादिप्रमाणान्तरानङ्गीकारेऽकिश्चित्करत्वप्रदर्शनेन तेषां प्रज्ञायाः प्रमादमादर्शयति ।। इस प्रकार क्रियावादी वादियोंके कुछ दुराग्रहोंका खंडन कर अब अक्रियावादी अर्थात् नास्तिक चार्वाकोंका मत अत्यन्त अधम होनेके कारण सबके अंतमें दिखाते हुए चार्वाकने अपने मतमें जो प्रत्यक्ष प्रमाण माना है वह अनुमानादि प्रमाणोंके मानने बिना 0 कुछ कार्यकारी नही होसकता है ऐसा दिखाकर चार्वाकोकी बुद्धिका प्रमाद प्रगट करते हैं। विनाऽनुमानेन पराभिसन्धिमसंविदानस्य तु नास्तिकस्य न साम्प्रतं वक्तुमपि क चेष्टा क्व दृष्टमात्रं च हहा प्रमादः ॥२०॥ मूलार्थ-अनुमानके विना माने वह नास्तिक हमलोगोंका अभिप्राय भी नहीं समझ सकता है इसलिये हमारे सामने उसको ॥१६॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलना भी नहीं चाहिये । क्योंकि, प्रत्यक्षसे केवल देखा हुआ पदार्थ ही जाना जासकता है, हमारी चेष्टाका जानलेना असंभव ही है। इसलिये वह केवल प्रत्यक्ष प्रमाणको मानकर जो हमारे मतका खंडन करता है सो उसका बड़ा भारी प्रमाद है। | व्याख्या-प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिति मन्यते चार्वाकः; तत्र संनह्यते । अनु पश्चालिङ्गलिगिसम्बन्धग्रहणस्मरणा-10 नन्तरं मीयते परिच्छिद्यते देशकालस्वभावविप्रकृष्टोऽर्थोऽनेन ज्ञानविशेषेणेत्यनुमानम् । प्रस्तावात्स्वार्थानुमानम् । तेनानुमानेन लैङ्गिकप्रमाणेन विना पराभिसन्धिं पराभिप्रायमसंविदानस्य सम्यगजानानस्य तुश वादिभ्यो भेदद्योतनार्थः । पूर्वेषां वादिनामास्तिकतया विप्रतिपत्तिस्थानेषु क्षोदः कृतः । नास्तिकस्य तु वक्तुमपि नौचिती । कुत एव तेन सह क्षोदः?.इति तुशब्दार्थः। नास्ति परलोकः पुण्यं पापमिति वा मतिरस्य "नास्तिकास्तिकदैष्टिकम्" इति निपातनान्नास्तिकः। तस्य ] नास्तिकस्य लोकायतिकस्य वक्तुमपि न साम्प्रतं वचनमप्युच्चारयितुं नोचितम् । ततस्तूष्णीम्भाव एवाऽस्य श्रेयान् । दूरे प्रामाणिकपरिषदि प्रविश्य प्रमाणोपन्यासगोष्ठी। ___ व्याख्यार्थ-चार्वाक जो एक प्रत्यक्षको ही प्रमाण मानता है उसका अब खंडन किया जाता है । 'अनु' नाम पीछेसे अर्थात् चिन्ह और चिन्हविशिष्टके प्रथम जाने हुए परस्पर अविनाभावरूप संबंधका स्मरण होनेके अनंतर, दूर देशवर्ती तशा परोक्ष कालवी अथवा परमाणु आदिक खभावसूक्ष्म वस्तुओंका जिस ज्ञानके द्वारा निश्चय कियाजाय वह अनुमान है। विशेष यह है कि अनुमान दो प्रकारका होता है; एक स्वार्थानुमान और दूसरा परार्थानुमान । परोपदेशके विना ही जो अनुमान हो वह खार्थानुमान कहाता है और जो अनुमान दूसरेके समझानेकेलिये शब्दद्वारा बोलाजाता है वह परार्थानुमान कहाता है । यहांपर प्रसगवश खार्थानुमान ही लेना चाहिये । जबतक वह इस अनुमान प्रमाणको न मानै तबतक दूसरोंके अभिप्रायको भलेप्रकार नहीं जानसकता है। इसलिये अन्यवादी अनुमानादि प्रमाणोद्वारा परलोकादिको माननेवाले होनेसे ऊहापोह करनेके तो योग्य है परंतु यह नास्तिक चार्वाक बोलनेके भी योग्य नहीं है, ऊहापोह करना तो दूर ही रहा । इस प्रकार पहिले जिन वादियोंका खंडन करचुके है उनकी अपेक्षा इस नास्तिकका मंतव्य अधिक तुच्छ जो दिखाया गया है वह 'तु' शब्दके बलसे। अर्थात्-उपर्युक्त स्तोत्रमें 'तु' शब्द जोपड़ा है उसीसे यह अभिप्राय झलकता है। पुण्य पाप परलोकादिक अदृष्ट वस्तु सब झूठ है ऐसी जिसकी मति है। वह नास्तिक कहाता है। इसी अर्थमें व्याकरणके "नास्तिकास्तिकदैष्टिकम्" इस निपातसूत्रसे नास्तिक शब्द बनाया गया है। इस चार्वाक Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥१६३॥ ५ नास्तिकको ऐसे प्रसंगपर सत्यवादियों के समुदायमें घुसकर प्रमाणके विषयका विचार करना तो दूर ही रहा किंतु वचन कहनेका राजै.शा. भी अधिकार नहीं है । अर्थात् ऐसे प्रसंगपर इसको चुप रहना ही उचित है। वचनं हि परप्रत्यायनाय प्रतिपाद्यते । परेण चाप्रतिपित्सितमर्थ प्रतिपादयन्नमा सतामवधेयवचनो न भवत्युन्मत्तवत् । ननु कथमिव तूष्णीकतैवास्य श्रेयसी? यावता चेष्टाविशेपादिना प्रतिपाद्यस्याऽभिप्रायमनुमाय सुकरमेवानेन वचनोच्चारणमित्याशङ्कयाह "क चेष्टा क दृष्टमात्रं च" इति । केति बृहदन्तरे।चेष्टाइङ्गितं पराभिप्रायरूपस्यानुमेयस्य लिङ्गम् । व च दृष्टमात्रम् । दर्शनं दृष्ट, भावे ते। दृष्टमेव दृष्टमानं प्रत्यक्षमात्रम् । तस्य लिङ्गनिरपे-) क्षप्रवृत्तित्वात् । अत एव दूरमन्तरमेतयोः। न हि प्रत्यक्षेणातीन्द्रियाः परचेतोवृत्तयः परिज्ञातुं शक्यास्तस्यैन्द्रियकत्वात् । मुखप्रसादादिचेष्टया तु लिगभूतया पराभिप्रायस्य निश्चयेऽनुमानप्रमाणमनिच्छतोऽपि तस्य चलादापतितम् । तथा हि । मदचनश्रवणाऽभिप्रायवानयं पुरुपस्ताहग्मुखप्रसादादिचेष्टाऽन्यथाऽनुपपत्तेरिति । अतश्च हहा प्रमादः। हहा इति खेदे । अहो तस्य प्रमादः प्रमत्तता, यदनुभूयमानमप्यनुमानं प्रत्यक्षमात्रागीकारेणापन्हुते।। दूसरोंको विश्वास करानेकेलिये ही वचन कहाजाता है। जिस अभिप्रायको दूसरे जानना चाहते है उसको न समझकर अन्य अर्थको जब यह नास्तिक सिद्ध करने लगेगा तब उन्मत्तके वचनके समान इसके वचनका निरादर ही होगा; न कि प्रशसा । अर्थात् इसलिये चुप रहना ही अच्छा है। यहांपर नास्तिक कहता है कि मुझे चुप क्यों रहना चाहिये ? क्योंकि प्रतिपादन करनेयोग्य वादीके अभिप्रायको चेष्टादिके द्वारा समझकर सहज ही उसके विषयमें युक्तिसंगत बोलसकता हूं। नास्तिककी यह शंका सुनकर आचार्य उत्तर देते है कि; कहां तो चेष्टा देखकर अभिप्राय समझलेना और कहां केवल प्रत्यक्षसे देखना । (केवल प्रत्यक्षसे देखलेना "दृष्टमात्र" शब्दका अर्थ है । दृष्ट नाम देखने का है। यहांपर 'दृष्ट' शब्दमें भाववाचक प्रत्यय किया गया है।) अर्थात् सामान्य रीतिसे इंद्रियोंद्वारा देखलेना और चेष्टा देखकर अभिप्राय समझलेना इन दोनोमें बड़ा अंतर है। चेष्टा तो परके। आंतरंग अभिप्रायका अनुमान कराने हेतु होती है और जो केवल किसी प्रत्यक्ष वस्तुका देखना है वह हेतुके विना सहज ही ॥१६॥ | होसकता है इसलिये इन दोनो ज्ञानोमें बडा भारी अंतर है। यहांपर 'क' शब्द रखनेसे दोनो ज्ञानोमें बडा भारी अतर, दिखाया गया है । दूसरे वादियोके मानसिक विकारोका जो कि अन्य जनोकी इंद्रियोंके गोचर नहीं है जान लेना प्रत्यक्ष ज्ञानसे नहीं Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होसकता है। क्योंकि, प्रत्यक्षसे वही पदार्थ जाना जासकता है जो इंद्रियगोचर हो । यदि मुखकी प्रसन्नता आदिक चेष्टाके द्वारा दूसरोका विचार समझा जाता हो तो नहीं चाहते हुए भी नास्तिकको अनुमानप्रमाण खीकारना पड़ेगा । क्योंकि चेष्टा एक प्रकारका हेतु अथवा चिन्ह है । चिन्हको देखनेसे जो ज्ञान उपजता है उसीको अनुमान ज्ञान कहते है । चेष्टा देखकर जाना हुआ पदार्थज्ञान यदि वचन द्वारा कहा जाय तो अनुमान ही प्रतीत होता है । जैसे-नास्तिक विचार करता है कि मेरे वचनको यह वादी अवश्य सुनना चाहता है । क्योंकि, यदि नहीं चाहता होता तो इस वादीके मुखकी चेष्टा ऐसी न होती। अर्थात्यह अनुमान लिखनेसे यह कहना स्पष्ट होता है कि जो चेष्टा देखनेसे अभिप्राय समझा जाता है वह अनुमान ही है । इसलिये हहा अर्थात् बड़े खेदकी बात है कि नास्तिकका यह बड़ा प्रमाद है जो अनुमान प्रमाणका अनुभव करते हुए भी केवल प्रत्यक्षको ही प्रमाण मानकर अनुमानको खीकार नही करता है। अत्र च संपूर्वस्य वेत्तेरकर्मकत्वे एवात्मनेपदम् । अत्र तु कर्मास्ति । तत्कथमत्रानश्? अत्रोच्यते । अत्र संवेदितुं ॥ शक्तः संविदान इति कार्य " वयःशक्तिशीले” इति शक्तौ शानविधानात् । ततश्चायमर्थोऽनुमानेन विना पराभिसंहितं सम्यग्वेदितुमशक्तस्येति । एवं परबुद्धिज्ञानाऽन्यथाऽनुपपत्त्याऽयमनुमानं हठादङ्गीकारितः। __संविदानस्य ' ऐसा शब्द जो स्तुतिकर्ताने बोला है वह सं' पूर्वक विद धातुके आगे आनश् प्रत्यय होनेपर बनता है और यह आनश् प्रत्यय आत्मनेपद होनेपर ही होसकता है । संपूर्वक विद धातु यदि अकर्मक हो तभी व्याकरणमें आत्मनेपदी करनेकी आज्ञा है । क्रियाके द्वारा प्राप्त होनेवाले भावको कर्म कहते है । जैसे अमुक मनुष्य दूध पीता है । यहांपर पीनेरूप क्रियाके द्वारा प्राप्त होनेवाला दूध है इसलिये दूध ही कर्म है । इसी प्रकारसे जो धातु किसी कर्मका संबंध रखता हो वह सकर्मक कहा || जाता है । जिस धातुका कोई कर्म संभव नहीं होता वह अकर्मक कहाता है। संविद धातुका इस श्लोकमें जब 'पराभिसन्धिम्' अर्थात् दूसरोके अभिप्रायको ऐसा कर्म विद्यमान है तब संविद धातुके आगे आनश् प्रत्यय किस प्रकार होसकता है और यदि आनश प्रत्यय नहीं किया जायगा तो 'संविदानस्य' यह शब्द किस प्रकार वनेगा? इसका उत्तर ।-यहांपर इस शब्दको इस || प्रकार बनाना चाहिये कि जो 'संवेदितुं' अर्थात् जाननेकेलिये समर्थ हो वह संविदान है। यहांपर "वयःशक्तिशीले" इस सूत्रकर सामर्थ्य अर्थमें शान प्रत्यय करनेसे संविदान शब्द वनसकता है । अर्थात् इस सूत्रकर शान प्रत्यय करनेमें अकर्मक धातुके आगे Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै.शा. स्याद्वादम.काही हो ऐसा नियम नहीं है। सामर्थ्य अर्थमे सिद्ध होनेके कारण संविदान शब्दका ऐसा अर्थ करना चाहिये कि अनुमानके विना वह नास्तिक दूसरोंके अभिप्रायोंको भलेप्रकार समझने में असमर्थ है । इस प्रकार वह नास्तिक अनुमान प्रमाण जबतक खीकार न ॥१६४॥ करै तबतक दूसरोके अभिप्राय जानना दुर्लभ है। इस प्रकार विना इच्छा भी इसको अनुमान प्रमाण खीकार कराया। । तथा प्रकारान्तरेणाप्ययमङ्गीकारयितव्यः । तथा हि । चार्वाकः काश्चित् ज्ञानव्यक्तीः संवादित्वेनाऽव्यभिचा रिणीरुपलभ्यान्याश्च विसंवादित्वेन व्यभिचारिणीः, पुनः कालान्तरे तादृशीतराणां ज्ञानव्यक्तीनामवश्यं धूप्रमाणेतरते व्यवस्थापयेत् । न च सन्निहितार्थवलेनोत्पद्यमानं पूर्वापरपरामर्शशून्यं प्रत्यक्षं पूर्वापरकालभाविनीनां ज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्थापकं निमित्तमुपलक्षयितुं क्षमते । न चायं स्वप्रतीतिगोचराणामपि ज्ञान"व्यक्तीनां परं प्रति प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा व्यवस्थापयितुं प्रभवति । तस्माद्यथादृष्टज्ञानव्यक्तिसाधर्म्यद्वारेणेदानी न्तनज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याऽप्रामाण्यव्यवस्थापकं परप्रतिपादकं च प्रमाणान्तरमनुमानरूपमुपासीत । परलोका* दिनिषेधश्च न प्रत्यक्षमात्रेण शक्यः कर्तु संनिहितमात्रविषयत्वात्तस्य । परलोकादिकं चाप्रतिपिध्य नायं सुख* मास्ते । प्रमाणान्तरं च नेच्छतीति डिम्भहेवाकः। को अब प्रकारांतरसे भी चार्वाकको अनुमानादि प्रमाण अगीकार कराते है । चार्वाक किसी समय कुछ ज्ञानोको सत्य होनेके . कारण प्रमाणभूत मानकर तथा जो ज्ञान झूठे थे उनको अप्रमाणभूत मानकर फिर कभी दूसरे समय जब पूर्ववत् ५ सत्य असत्य ज्ञानोको देखता होगा तब उनको अवश्य ही पहिलेकी तरह प्रमाणभूत या अप्रमाणभूत ठहराता होगा । परंतु जिसमें पूर्वापर अवस्थाओंका संमेलनरूप ज्ञान होना असंभव है किंतु जो केवल वर्तमान कालवर्ती विषयको ही जानसकता है ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञानसे पूर्वापर कालवर्ती प्रमाण किंवा अप्रमाणरूप ज्ञानोमें प्रमाणताका तथा अप्रमाणताका निश्चय ठहराना अशक्य है। भावार्थ-पहिलेके ज्ञानसदृश इस वर्तमान ज्ञानको देखकर प्रमाण किंवा अप्रमाण ठहराना केवल प्रत्यक्ष ज्ञानका कार्य नहीं है। ॥१६४॥ । क्योंकि; पहिले सरीखा ही यह है इत्यादि पूर्वोत्तर विषयोंका जोड़रूप ज्ञान होना प्रत्यक्षका कार्य नहीं है। प्रत्यक्ष केवल वर्तमान कालके विषयको ही जानसकता है कि यह है इत्यादि । जो पूर्वोत्तर समयवर्ती दो पदार्थोंका मिला हुआ ज्ञान होता है वह ज्ञान भिन्न ही है । उसको प्रत्यक्ष नहीं कहसकते हैं । इसीलिये वह जुदा ही प्रमाण मानना पडता है । तथा यह नास्तिक चार्वाक उन यक्षमात्रेण शयायव्यवस्थापकं परमतिपदभवति । तस्माद्या Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानोको अपनी प्रतीतिके गोचर होनेपर भी दूसरोंके सन्मुख उन ज्ञानोकी प्रमाणता तथा अप्रमाणताका प्रतिपादन केवल प्रत्यक्ष द्वारा नहीं करसकता है। इसलिये अपने वर्तमान ज्ञानोंमें पहिले ज्ञानोंकी समानताका स्मरण करनेसे जिस प्रमाणके द्वारा अपने आपको उन ज्ञानोमें प्रमाणता अप्रमाणताका निश्चय होसकै तथा दूसरोके प्रति भी जिसके द्वारा उन ज्ञानोकी प्रमाणता अप्रमाणताका निश्चय करासकै ऐसा प्रत्यक्षके अतिरिक्त एक दूसरा ही प्रमाणज्ञान खीकार करना चाहिये । और जो ऐसा ज्ञान स्वीकार किया जायगा वह पूर्वोत्तरकी समानता देखकर समानताके द्वारा 'यह ज्ञान पूर्ववत् प्रमाण अथवा अप्रमाण है' इस प्रकारका होगा। ऐसा ज्ञान करानेमें मूल कारण पूर्वोत्तर समयवर्ती ज्ञानोकी समानताका विचार होना ही है और इसलिये हम| || ऐसे ज्ञानको जो वर्तमान ज्ञानमें पूर्वोत्तरकी समानताके विचारबलद्वारा प्रमाणता अप्रमाणता ठहरा सकता है; अनुमान ही| कहेंगे। क्योंकि; अविनाभावी हेतुके दीखनेसे जो अप्रकट वस्तुका अंदाज होजाता है उसीको अनुमान कहते हैं। यहांपर भी पूर्वोत्तर ज्ञानोकी समानताके विचाररूप हेतुके द्वारा प्रमाणता अप्रमाणतारूप अप्रकट विषयका निश्चय किया जाता है इसलिये ऐसे ज्ञानको अनुमान ही कहसकते हैं। इस प्रकार चार्वाकको यह अनुमान प्रमाण भी स्वीकार करना पड़ता है। परलोकादिकोका जो चार्वाक निषेध करता है वह भी प्रत्यक्ष प्रमाणमात्रसे होना असंभव है । क्योंकि; समीपमें विद्यमान रक्खे हुए पदार्थको ही प्रत्यक्ष समझ सकता है । जो वस्तु परोक्ष है उसको प्रत्यक्ष नहीं जान सकता है । और जबतक यह नास्तिक परलोकादिकका निषेध न करलेगा तबतक इसको चैन पड़ना दुर्लभ है। परंतु जिन अनुमानादिक प्रमाणोंसे निषेध हो-110 सकता है उनको यह खीकार नहीं करता है इसलिये इसका विचार बच्चेकीसी चेष्टा है। किं च प्रत्यक्षस्याप्यर्थाऽव्यभिचारादेव प्रामाण्यम् । कथमितरथा स्नानपानाऽवगाहनाद्यर्थक्रियाऽसमर्थे मरुमरीचिकानिचयचुम्बिनि जलज्ञाने न प्रामाण्यम् ? तच्चार्थप्रतिवद्धलिङ्गशब्दद्वारा समुन्मजतोरनुमानागमयोरप्यमार्थाऽव्यभिचारादेव किं नेष्यते ? व्यभिचारिणोरप्यनयोर्दर्शनादप्रामाण्यमिति चेत् प्रत्यक्षस्यापि तिमिरादिदोषाशानिशीथिनीनाथयुगलावलम्बिनोऽप्रमाणस्य दर्शनात् सर्वत्राऽप्रामाण्यप्रसङ्गः । प्रत्यक्षाभासं तदिति चेदितरत्रापि तुल्यमेतदन्यत्र पक्षपातात् । एवं च प्रत्यक्षमात्रेण वस्तुव्यवस्थाऽनुपपत्तेस्तन्मूला जीवपुण्याऽपुण्यपरलोकनिषेधादिवादा अप्रमाणमेव । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाहादम.. और यह यदि प्रत्यक्षको प्रमाण मानसकता है तो उसी स्थानपर कि जहां प्रत्यक्षसे देखा हुआ विषय झूठा न हो। यदि जागा इस प्रकारसे प्रत्यक्षको प्रमाण न मानता हो तो जिससे स्नान, पीना, गोते लगाना आदिक प्रयोजन नहीं सधसकते हैं ऐसी भी ॥१६५ मृगतृष्णामें जो जलका ज्ञान होजाता है उसको भी प्रमाण क्यों नही मानता है ? भावार्थ-इससे यह स्पष्ट है कि सत्य पदार्थका जतानेवाला होनेसे ही प्रत्यक्ष ज्ञानको चार्वाकने प्रमाण माना है। और जब ऐसा है तो इष्ट पदार्थके बिना न रहनेवाले हेतुके द्वारा उत्पन्न अनुमानको तथा सत्य विषय कहनेवाले शब्दोके द्वारा उत्पन्न हुए आगमज्ञानको भी प्रमाण क्यों नहीं मानना चाहिये। अर्थात्-अवश्य मानना चाहिये । क्योंकि इनसे भी निश्चित किया हुआ विषय प्रत्यक्षके समान ही सच्चा होता है। और यदि कहों कि, अनुमान तथा आगम कहीं कहींपर झूठे भी दीखते हैं इसलिये ये दोनो प्रमाण नहीं है तो हम पूछते हैं कि क्या प्रत्यक्ष कहीं भी झूठा नहीं होता ? प्रत्यक्षसे भी जिसके तिमिरादि नेत्ररोग होजाता है उसको एक चंद्रमाके दो दीखते हैं इसलिये उसका प्रत्यक्ष अप्रमाण देखकर संपूर्ण प्रत्यक्षोंको अप्रमाण कहना पड़ेगा। और जो कहों कि वह प्रत्यक्ष तो प्रत्यक्ष ही नहीं है किंतु प्रत्यक्षाभास है और हम प्रमाण मानते हैं सो तो प्रत्यक्षको मानते हैं इसलिये नेत्ररोगादिके कारण एक चंद्रमाके दो दीखभनेवाले ज्ञानसे हमारे मंतव्यमें कुछ बाधा नहीं है तो इसी प्रकार यदि पक्षपात कुछ नहीं है तो अनुमान तथा आगम भी जब झूठे होते है तब वे अनुमानाभास तथा आगमाभास है और जब सच्चे होते हैं तब वे ही प्रमाण है ऐसा मानलेना चाहिये। इस प्रकार जब वस्तुओंकी व्यवस्था केवल प्रत्यक्षसे होना असंभव है तब जो चार्वाकने प्रत्यक्षमात्रसे ही जीव, पुण्य, पाप, तथा परलोकादिकोंका निषेध किया है वह निषेध करना मिथ्या ठहरता है। क्योंकि जो वस्तु प्रत्यक्षके गोचर ही नहीं है उनका प्रत्यक्षसे न दीखनेके । कारण निषेध करना बड़ी मारी मूर्खता है। ____एवं नास्तिकाभिमतो भूतचिद्वादोऽपि निराकार्यः। तथा च द्रव्यालङ्कारकार उपयोगवर्णने “न चायं भूत धर्मः सत्त्वकठिनत्वादिवन्मद्याङ्गेषु भ्रम्यादिमदशक्तिवद्धा प्रत्येकमनुपलम्भात् । अनभिव्यक्तावात्मसिद्धिः"। थ। इसी प्रकार नास्तिकोने जो प्रत्यक्षसे आत्मद्रव्य न दीखनेके कारण पृथिवी जल वायु अमि तथा आकाश इन पांचो भूतोके एकत्रित होनेसे ही चैतन्यका उत्पन्न होना मानलिया है वह भी असत्य है ऐसा दिखा ते है। द्रव्यालङ्कारके कर्ताने भी चेतनाका ॥१६५॥ वर्णन करते समय यही कहा है कि "यह चैतन्य पृथिव्यादि पांच भूतोका विकार नहीं है। क्योंकि जो पांचो भूतोंके धर्म, Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हैं वे प्रत्यक्ष अनुभवमें आते हैं। जैसे पृथिव्यादिकोकी सत्ता (अस्तित्व), कठिनता शीतउष्णादिक स्पर्श तथा छोटापन बड़ापन आदिक धर्म प्रत्यक्ष दीखते है तथा मदिराकी शक्ति भी चक्कर आजानेपर स्पष्ट दीखती है। इसी प्रकार यदि चैतन्य का भी पृथिव्यादिकोंका धर्म होता तो किसी न किसीमें अवश्य दीखता परंतु किसीमें भी नहीं दीखता है। यदि कहीं कि यह चैतन्य धर्म छुपा रहता है तो हम कहते हैं कि जिसके आश्रय वह छुपा है वही आत्मा है। कायाकारपरिणतेभ्यस्तेभ्यः स उत्पद्यते इतिचेत्कायपरिणामोऽपि तन्मात्रभावी न कादाचित्कः। अन्यस्त्वात्मैव स्यात् । अहेतुत्वे न देशादिनियमः । मृतादपि च स्यात् । शोणिताद्युपाधिः सुप्तादावप्यस्ति, न च सतस्तलस्योत्पत्तिः; भूयोभूयःप्रसङ्गात् । अलब्धात्मनश्च प्रसिद्धमर्थक्रियाकारित्वं विरुध्यते । असतः सकलशक्तिविकलस्य | कथमुत्पत्तौ कर्तृत्वमन्यस्यापि प्रसङ्गात् । तन्न भूतकार्यमुपयोगः। | यदि कहों कि जब पृथिव्यादिक शरीररूप परिणमते है तभी उनमें चैतन्य उत्पन्न हो जाता है तो हम पूछते हैं कि कायका परिणमन यदि पृथिव्यादिकोके मिलनेसे ही होजाता हो तो सदा क्यों नहीं रहता है? कभी कभी क्यों होता है ? यदि पृथिव्या दिकोके अतिरिक्त कोई और भी कारण है तो वह आत्मा ही है । अथवा-यदि कहों कि कायाकार परिणत होनेसे पृथिव्यादिक Kalभूतोमें चैतन्यकी उत्पत्ति होजाती है तो हम पूछते है कि यदि चेतनाकी उत्पत्ति होनेमें भूतोंका कायरूप परिणमन होना ही कारण है तो कायरूप परिणाम मृतक होनेपर भी विद्यमान है परंतु उसमें चैतन्यका आविर्भाव क्यों नहीं होता है ? यदि और भी कुछ || जकारण मानते हों तो वह आत्मा ही है। यदि चैतन्य उत्पन्न होनेका आत्मरूप एक विशेष कारण न हो तो किसी स्थानमें ज्ञान होता है और किसीमें नहीं ऐसा नियम नहीं होसकैगा तथा मृतक शरीरसे भी ज्ञान उत्पन्न होने लगेगा। यदि कहों कि जबतक शरीरमें रक्तस्राव रहता है तभी तक ज्ञान होसकता है तो हम पूछते हैं कि मुझे तो रक्तस्राव क्षीण होजाता है परंतु कासोते हुएके रक्तस्राव बना रहनेपर भी ज्ञान क्यों नहीं होता? और भी एक दोष यह है कि यदि आत्मा न माने तो जो क्रिया आत्माके बिना किसीसे हो नही सकती है ऐसी प्रश्नोत्तर आदिक क्रिया नहीं होनी चाहिये। जिसमें कोई भी शक्ति नहीं रहसकती ऐसा सकलसामर्थ्यशून्य अभावरूप पदार्थ किसी भी कार्यकी उत्पत्तिका कर्ता नही होसकता है । यदि अभाव | Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा. या सादादम. भी चैतन्यरूप कार्य की उत्पत्तिका कर्ता हो तो गधेके सींग भी उसके कर्ता होने चाहिये । इसलिये चैतन्यकी उत्पत्ति पृथिव्या दिकोसे नहीं होसकती है। ॥१६६॥ hd कुतस्तर्हि सुप्तोत्थितस्य तदुदयः? असंवेदनेन चैतन्यस्याऽभावात्।नजाग्रदवस्थाऽनुभूतस्य स्मरणात् । असंवे- 10 दनं तु निद्रोपघातात्। कथं तर्हि कायविकृतौ चैतन्यविकृतिः? नैकान्तः श्वित्रादिना कश्मलवपुपोऽपि वुद्धिशुद्धे, अविकारे च भावनाविशेषतःप्रीत्यादिभेददर्शनात् शोकादिना बुद्धिविकृतौ कायविकाराऽदर्शनाच्च । परिणामिना विना च न कार्योत्पत्तिः। न च भूतान्येव तथा परिणमन्ते; विजातीयत्वात् काठिन्यादेरनुपलम्भात् । शंका-पृथिव्यादि भूतोसे चैतन्यकी उत्पत्ति न मानकर आत्मासे ही माननेपर भी जो जीव सोतेसे उठता है उसके फिरसे चैतन्यकी उत्पत्ति कहांसे होगी ? क्योंकि पूर्व चैतन्यका तो सोते समय नाश हो चुकता है। और यह ऊपर तुमने ही कहा है कि; जिसमें जिस शक्तिका अभाव है उसमें उसकी उत्पत्ति उपादान कारण बिना कदापि नहीं होसकती है। उत्तर-यह चावाककी शंका ठीक नहीं है। क्योंकि जो जागृत अवस्थामे अनुभव किया था उसीका सोतेसे उठनेपर स्मरण होता है । सोते समय भी | चैतन्य शक्तिका नाश नहीं होजाता है किंतु निद्राके तीब्र उदयसे उस चैतन्यका आच्छादन होजाता है। कदाचित् शंका हो कि ५ कायका हास होनेके साथ चैतन्यका भी हास क्यों होता है? परंतु यह शंका उचित नहीं है। क्योंकि ऐसा ही सर्वथा नियम | नहीं है कि कायमें विकार हो तो बुद्धिमें भी विकार होता ही हो। जिसके श्वेत कोढ होता है उसकी भी बुद्धि खच्छ देखी जाती है। और जहां कायमें विकार कुछ होता ही नहीं है तहां भी जिसमें बड़ा रागथा उसमेंसे वैराग्य आदिक भावना भानेपर बुद्धि विरक्त होते दीखती है तथा जिसमें पहिले द्वेष था उसमें प्रीति होते दीखती है । इसी प्रकार शोकादिके कारण बुद्धि तो मलिन । होते दीखती है परंतु शरीरमें कुछ अंतर पड़ता ही नहीं है। इस प्रकार शरीरके साथ तो ज्ञानका अन्वयव्यतिरेक बनता नहीं है परंतु जो परिणाम होता है वह किसी न किसी परिणामीका आलंबन लिये बिना निर्हेतुक नहीं हो सकता है इसलिये ज्ञानरूप क परिणामका मूल आधार कोई दूसरी वस्तु है अवश्य । और पृथिव्यादिकोका चैतन्यरूप परिणमन होना मानना ठीक नहीं है। क्योंकि पृथिव्यादिक जड़ जातिके है और ज्ञान जड़से उलटा चैतन्य जातिका है । विजातीयसे विजातीयकी उत्पत्ति कभी 2 ॥१६६॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती नहीं है । और यदि चैतन्य धर्म पृथिव्यादिकोका परिणाम रूप हो तो उसके साथ साथ कठोरता आदिक धर्म भी जो पृथिव्यादिकोंके हैं मिलने चाहिये परंतु चैतन्यके साथ साथ कठिनतादि धर्म कहीं नहीं मिलते हैं । अणव एवेन्द्रियग्राह्यत्वरूपां स्थूलतां प्रतिपद्यन्ते तज्जात्यादि चोपलभ्यते । तन्न भूतानां धर्म्मः फलं वा उपयोगः । तथा भवांश्च यदाक्षिपति तदस्य लक्षणम् । स चात्मा स्वसंविदितः । भूतानां तथाभावे बहिर्मुखं स्यानौरोऽहमित्यादि तु नान्तर्मुखं; वाह्यकरणजन्यत्वात् । अनभ्युपगतानुमानप्रमाणस्य चात्मनिषेधोऽपि दुर्लभः । धर्मः फलं च भूतानामुपयोगो भवेद्यदि । प्रत्येकमुपलम्भः स्यादुत्पादो वा विलक्षणात् । १ । इति काव्यार्थः । जो प्रथम रूप होते है वे ही कभी निमित्त पाकर इंद्रियोंके विषयभूत होनेयोग्य स्थूलपना धारण करलेते हैं परंतु जाति जो अणुअवस्थामें थी, स्थूल होनेपर भी वही दीखती है, जातिमें भेद नहीं होता है । उपयोग तो पुद्गलसे एक भिन्न ही जातिका है इसलिये पृथिव्यादि भूतोंसे उपयोगकी उत्पत्ति नहीं होसकती है । और आप जिस ज्ञानका आक्षेप करते हैं वही आत्माका चिन्ह है । और वह आत्मा अपने अपने ही अनुभवसे जान पड़ता है । और जो भूतोंसे इसकी उत्पत्ति हो तो मै गौरवर्ण हूं इत्यादि प्रतीति अंतरंगकी तरफ ही क्यों होती है? बाहिरकी तरफ ही होनी चाहिये । क्योंकि गौरादिकका ज्ञान बाह्य इंद्रियोंसे ही होता है। और जो अनुमानको प्रमाण ही नहीं मानता है वह अरूपी पदार्थका निषेध भी कैसे करसकता है । "उपयोग यदि भूतका ही धर्म अथवा कार्य हो तो प्रत्येकको उसका अनुभव होना चाहिये तथा विजातीय पदार्थसे भी विजातीयकी उत्पत्ति होनी चाहिये परंतु ऐसा होता नही है ।" ऐसा कहा भी है । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ । 1 एवमुक्तयुक्तिभिरेकान्तवादप्रतिक्षेपमाख्याय साम्प्रतमनाद्यऽविद्यावासनाप्रवासितसन्मतयः प्रत्यक्षोपलक्ष्यमाणमप्यनेकान्तवादं येवमन्यन्ते तेषामुन्मत्ततामाविर्भावयन्नाह । यहां पर्यंत नाना प्रकारकी युक्तियां कहकर एकांत पक्षोका खंडन किया । अब यह दिखाते हैं कि; अनादिकालसे साथ लगे हुए अज्ञान और मोहके वश होकर जिन जीवोने अपनी बुद्धि दुराग्रहसे मलिन कररक्खी है वे अनेकांतवादको प्रत्यक्षसे देखते हुए भी अंगीकार नहीं करते हैं इसलिये वे उन्मत्त हो रहे हैं । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहादम रा.जै.शा ॥१६७॥ प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगिस्थिरैकमध्यक्षमपीक्षमाणः। जिन! त्वदाज्ञामवमन्यते यः स वातकी नाथ पिशाचकी वा ॥२१॥ मूलार्थ-हे जिनेंद्र प्रभो ! प्रतिसमय उत्पन्न होते तथा नष्ट होते तथा द्रव्यत्वकी अपेक्षा सदा स्थिर रहते हुए वस्तुओंको प्रत्यक्ष देखता हुआ भी जो इसी प्रकारका जिसमें उपदेश किया गया है ऐसे आपके शासनको अंगीकार नहीं करता है वह या तो पागल है अथवा किसी भूतने उसको घेरलिया है। ___ व्याख्या-प्रतिक्षणं प्रतिसमयमुत्पादेनोत्तराकारस्वीकाररूपेण विनाशेन च पूर्वाकारपरिहारलक्षणेन युज्यत इत्येवंशीलं प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगि । किं तत् ? स्थिरैकं कर्मतापन्नम् । स्थिरमुत्पादविनाशयोरनुयायित्वात् त्रिकालवर्ति यदेकं द्रव्यं स्थिरैकम् । एकशब्दोत्र साधारणवाची। उत्पादे विनाशे च तत्साधारणमन्वयिद्रव्यत्वात् ।। यथा चैत्रमैत्रयोरेका जननी साधारणेत्यर्थः । इत्थमेव हि तयोरेकाधिकरणता; पर्यायाणां कथंचिदनेकत्वेऽपि धु तस्य कथंचिदेकत्वात्। एवं त्रयात्मकं वस्तु अध्यक्षमपीक्षमाणःप्रत्यक्षमवलोकयन्नपि हे जिन रागादिजैत्र! त्वदाज्ञा (आ सामस्त्येनानन्तधर्मविशिष्टतया ज्ञायन्तेऽवबुद्ध्यन्ते जीवादयः पदार्था यया सा आज्ञा आगमः शासनम् । धू तवाज्ञा त्वदाज्ञा तां त्वदाज्ञां) भवत्प्रणीतस्याद्वादमुद्रां यः कश्चिदविवेकी अवमन्यतेऽवजानाति (जात्यपेक्षमेकवचनमवज्ञया वा) स पुरुषपशुतकी पिशाचकी वा। वातो रोगविशेषोऽस्यास्तीति वातकी। वातकीव वातकी। वातूल इत्यर्थः। एवं पिशाचकीव पिशाचकी। भूताविष्ट इत्यर्थः। अत्र वाशब्दः समुच्चयार्थ उपमानार्थो वा । स पुरुपापशदो वासकिपिशाचकिभ्यामधिरोहति तुलामित्यर्थः।। ___व्याख्यार्थ-प्रत्येक समय उत्पादमें अर्थात् उत्तर कालवी पर्यायके धारण करनेमें तथा विनाशमें अर्थात् पहिले पर्यायके विनाश होने में जो संयुक्त रहता हो उसको प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगि कहते हैं। ऐसी क्या चीज ? स्थिरैक । अर्थात् स्थिर नाम सदा उत्पत्ति धु और विनाशोमें साथ रहनेवाला ऐसा जो एक अर्थात् द्रव्य है वह स्थिरैक कहाता है। यहांपर एक शब्दका अर्थ साधारण है । ५ उत्पत्ति तथा विनाशोमें द्रव्य सदा एक ही बना रहता है । जैसे चैत्र और मैत्रकी एक ही माता है अर्थात् जो माता चैत्रकी है ॥१६७॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही मैत्रकी है। इसी प्रकार उत्पत्ति तथा विनाश जिसके होते हैं वह वस्तु सदा एक ही है। अर्थात् पर्याय तो परस्परमें कथंचित् भिन्न हैं परंतु उन संपूर्ण पर्यायोका आश्रय द्रव्य कथंचित् एक ही है । भावार्थ-उत्पत्ति तथा विनाशरूप पर्यायोकी अपेक्षा दायद्यपि प्रत्येक द्रव्य उत्पत्ति विनाश सहित है तो भी वे उत्पत्ति विनाश ऐसे नहीं होते हैं कि जिसका नाश हो उसका सर्वथा नाश ही होजाय; कुछ वचै ही नही; तथा जिसकी उत्पत्ति हो उसकी उत्पत्ति जड़के विना ही होजाय । किंतु जो उत्पत्ति और नाश होते हैं वे ऐसे ही होते हैं जिनसे एक अवस्थासे द्रव्यकी दूसरी तीसरी आदिक अवस्था बदलती जाती है। इसीलिये प्रत्येक द्रव्यमें उत्पचि विनाशरूप धर्म होकर भी स्थिरपना एक ऐसा धर्म है जिसके बलसे द्रव्य सदा ही किसी न किसी अवस्थामें विद्यमान बना रहता है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय ध्रौव्य इन तीनो धर्मो कर सदा सहित है । और हे जिन ! अर्थात् रागादि दोषोंके नाश करनेवाले भगवन् ! इसी प्रकारसे वस्तुका प्रत्यक्ष अवलोकन करता हुआ भी जो कोई अदि || उपदेशी हुई स्याद्वादरूप आज्ञाकी अवहेलना करता है वह मनुष्याकारधारी पशु या तो वातकी है अथवा पिशाचकर दवाया हुआ है । यहांपर आपकी आज्ञा ऐसा अर्थ त्वदाज्ञा शब्दका होता है। 'आ' नाम पूर्णरूपसे अर्थात् वस्तुके जितने धर्म हैं उन | संपूर्ण धर्मो सहित जीवादि पदार्थ जिसके द्वारा 'ज्ञायन्ते' नाम जाने जाते हैं उसको आज्ञा कहते हैं । आगम, शासन उपदेशादि भी आज्ञाको ही कहते हैं। आपकी जो आज्ञा है उसको त्वदाज्ञा कहते है । यद्यपि अवज्ञा करनेवाले बहत है तो भी जो 'जो कोई ' ऐसा एक कोई ही ग्रहण किया है सो यह एकवचन अवज्ञा करनेवालोके समूह की अपेक्षासे कहा है अथवा तिरस्कारकी दृष्टि से एकवचन कहा है । जिसको बक बादका रोग होजाता है उसको बातकी अथवा वातुल कहते हैं। वह विना परीक्षा किये ही कुछ न कुछ बका करता है। जो अविवेकी आपके वचनोकी अवज्ञा करता है वह भी वातुलके समान ही है इसलिये उसको भी वातकी कहा है। इसी प्रकार पिशाचकी भी उसको कहते हैं जिसको पिशाच दवालेता है अर्थात् जो भूतोंकर घिरा हुआ हो । पिशाचोंकर घिरा हुआ मनुष्य जिस प्रकार विना विचारे ही कुछ न कुछ प्रलाप करता है उसी प्रकार आपके वचनोकी अवज्ञा करनेवाला भी पिशाचकीके समान बुरे भलेका कुछ विचार न करता हुआ आपकी अवज्ञा करता है इसलिये पिशाचकीके समान ही है। इस स्तोत्रमें जो 'वा' शब्द पड़ा है उसका अर्थ या तो समुच्चय करना है अथवा उपमान है । | अर्थात् वातकी शब्दका अर्थ वायल और पिशाचकी शब्दका अर्थ पिशाचोंकर घिरा हुआ होता है परंतु यहांपर वायलके Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादन. ॥१६॥ जै.शा. समान तथा मूत पिशाचोंकर घिरे हुएके समाम वह है ऐसा समानपना दिखानेवाला अर्थ'वा' शब्दका होता है। अर्थात् वह अधमरा पुरुष बातकी तथा पिशाचकीकी समानता रखता है। ___“वातातीसारपिशाचात्कश्चान्तः" इत्यनेन मत्वर्थीयः कश्चान्तः। एवं पिशाचकीत्यपि । यथा किल वातेन पिशाचेन वाक्रान्तवपुर्वस्तुतत्त्वं साक्षात्कुर्वन्नपि तदावेशवशादन्यथा प्रतिपद्यते एवमयमप्येकान्तवादापस्मारपरवश इति । ___ “वाताऽतीसारपिशाचात्कश्चान्तः" इस व्याकरणके सूत्रकर वात शब्दसे तथा पिशाच शब्दसे 'वात अथवा पिशाच जिसको लगा हो' ऐसे मत्वर्थमें इन् प्रत्यय तथा उस प्रत्ययके पहिले उस शब्दके अंतमें क प्रत्यय होकर बातकी पिशाचकी शब्द बनते है। ५ जिस प्रकार वातकर अथवा भूतपिशाचोंकर घिरा हुआ मनुष्य प्रत्येक चीजको प्रत्यक्ष देखता हुआ भी बात अथवा भूतपिशाचोंके वश होकर कुछ अन्यथा ही समझता तथा बकने लगता है उसी प्रकार आपका निंदक भी एकांतवादरूपी मृगीरोगके अथवा भूत भू पिशाचौके परवश होनेसे कुछ अन्यथा ही मानता तथा बकता है। ___ अत्र च जिनेति साभिप्रायम् । रागादिजेतृत्वाद्धि जिनः । ततश्च यः किल विगलितदोषकालुष्यतयाऽवधेयवचनस्यापि तत्रभवतः शासनमवमन्यते तस्य कथं नोन्मत्ततेति भावः। नाथ हे स्वामिन् । अलब्धस्य सम्यग्दर्शनादेलेम्भकतया लब्धस्य च तस्यैव निरतिचारपरिपालनोपदेशदायितया च योगक्षेमकरत्वोपपत्तेनोथः। तस्यामन्त्रणम् । ___ इस स्तोत्रमें जो संबोधनवाचक जिनशब्द कहा है वह कुछ विशेष प्रयोजनकेलिये है । रागादि दोषोको जीतनेसे जिन कहते हैं । रागादि दोष नष्ट होजानेसे झूठ बोलना आदिक दोष आपके नष्ट होगये है और इसीलिये आप पूज्य है तथा आपके वचन आदरणीय हैं। ऐसे आपके पथ्यरूप शासनका जो तिरस्कार करता है वह उन्मत्त नहीं है तो कैसा है ? ऐसा भावार्थ है। नाथ अर्थात् हे खामिन्! ऐसा शब्द इसलिये रक्खा है कि नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शनादिरूपी तीन रनोंको देनेवाले तथा जिसको ॥१६॥ प्राप्त हो चुके हैं उसको अतीचार रहित पालन करनेका उपदेश देनेवाले होनेसे आप सुखशातिके दाता है और इसीलिये आपको नाथ कहते हैं। प्रार्थना करते समय आपको पुकारनेमें हे नाथ! ऐसा कहा है। CAMERCEDEOS Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतत्त्वं चोत्पादव्ययधौव्यात्मकम् । तथा हि । सर्वं वस्तु द्रव्यात्मना नोत्पद्यते विपद्यते वा परिस्फुटमन्वयदर्शनात् । लूनपुनर्जातनखादिष्वन्वयदर्शनेन व्यभिचार इति न वाच्यं; प्रमाणेन वाध्यमानस्याऽन्वयस्याऽपरिस्फुटत्वात् । न च प्रस्तुतोऽन्वयः प्रमाणविरुद्धः सत्यप्रत्यभिज्ञानसिद्धत्वात् " सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणेक्षणेऽन्यत्व - मथ च न विशेषः । सत्योश्चित्यपचित्योराकृतिजातिव्यवस्थानात्” इति वचनात् । ततो द्रव्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्य वस्तुनः । पर्यायात्मना तु सर्व वस्तुत्पद्यते विपद्यते च अस्खलितपर्यायानुभवसद्भावात् । न चैवं शुक्ले शङ्खे पीतादिपर्यायाऽनुभवेन व्यभिचारस्तस्य स्खलद्रूपत्वात् । न खलु सोऽस्खलद्रूपो येन पूर्वाकारविनाशाऽजहधृ| तो त्तराकारोत्पादाऽविनाभावी भवेत् । न च जीवादौ वस्तुनि हर्पामपदासीन्यादिपर्यायपरम्परानुभवः स्खलद्रूपः | कस्यचिद्वाधकस्याऽभावात् । वस्तुका स्वरूप उत्पाद व्यय धौव्य सहित ही है । सभी वस्तु द्रव्यखभावसे न तो उपजती है और न विनशती है । क्योंकि अपने प्रत्येक पर्यायमें द्रव्यका परिवर्तन प्रत्यक्ष दीखता है । ' जो नख केशादिक काटनेपर भी बढ जाते है वे भी पहिलेकेसे ही दीखते हैं परंतु यथार्थमें वे जिस प्रकार दूसरे है उसी प्रकार सभी पर्याय जो उत्पन्न होते है वे नवीन ही होते हैं । उनमें पहिले द्रव्यका परावर्तन मानना मिथ्या है ' ऐसी शंका करना अयोग्य है । क्योंकि; नख केशादिकोमें तो | विचारने पर प्रमाणसे बाधा दीखती है इसलिये वहांपर फिरसे उपजे नख केशादिक पहिलोंकी अपेक्षा भिन्न ही है परंतु जहां पर द्रव्यका अपने प्रत्येक पर्यायो में पहुंचते रहना प्रत्यक्ष अनुभवमें आता है वहां पर भी द्रव्यका परावर्तन न मानना बड़ी मूर्खता है । प्रत्येक वस्तु में पूर्व द्रव्यका अनुवर्तन होना कुछ प्रमाण बाधित नहीं है । क्योंकि; पहिले जिसको देखते हैं उसको दूसरे समय देखने पर | ऐसा सच्चा प्रत्यभिज्ञान ज्ञान प्रकट होता है कि यह वही है जो पहिले देखा था । ऐसा कहा भी है कि " संपूर्ण व्यक्तियोंमें सदा क्षण क्षण में कुछ भेद होता रहता है परंतु सर्वथा भिन्नता नही होती है । क्योंकि; आकार तथा जातिका ही फेर फार होता | दीखता है । भावार्थ- द्रव्यका संपूर्ण नाश कभी नहीं होता है ।" इसलिये द्रव्यखरूपकी अपेक्षा सभी वस्तु सदा स्थिर है । पर्यायोंकी अपेक्षा सभी वस्तु उपजती तथा विनशती रहती है । पर्यायोंकी उत्पत्ति विनाशका भी अनुभव सदा ही अबाध्य होता । यद्यपि शुक्ल शंखमें पीलेपनेका भी कभी अनुभव होजाता है परंतु वह अनुभव जिस प्रकार झूठा है उसी प्रकार सभी पर्यायोके Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद्वादमं. ॥१६९॥ अनुभव भी झूठे ही होंगे ऐसा नही है । आपको ही झूठी भासती है तथा अन्य प्रतीति किसीको झूठी नही भासती है क्योंकि; जिस प्रकार शंखमें पीलेपनकी जो प्रतीति होती थी वह रोग दूर होनेपर अपने मनुष्योंको भी वह झूठी प्रतिभासती है उस प्रकार सभी पर्यायोंके उत्पत्ति नाशक । शखमें जो पीलापन किसीको दीखने लगता है वह कभी कभी; किंतु सदा ही नही दीखता है । इसलिये उस पीलापनको तो पूर्वाकारके विनाशरूप तथा उत्तर आकारके उत्पादरूप उत्पत्तिविनाशका आधार नहीं मानते है परंतु इस प्रकार जीवादि सभी वस्तुओं में हर्ष क्रोध उदासीनता या घट पटादिक पर्यायोंकी शृङ्खला झूठी नही कह सकते है । क्योंकि, किसी भी मनुष्यको उनके अनादि आधारभूत द्रव्यमें बाधा नहीं दीखती है । ननुत्पादादयः परस्परं भिद्यन्ते न वा ? यदि भिद्यन्ते कथमेकं वस्तु त्र्यात्मकम् ? न भिद्यन्ते चेत्तथापि कथमेकं त्रयात्मकम् ? तथा च "यद्युत्पादादयो भिन्नाः कथमेकं त्रयात्मकम् । अथोत्पादादयोऽभिन्नाः कथमेकं त्रयात्मकम्” । इति चेत्तदयुक्तं कथंचिद्भिन्नलक्षणत्वेन तेषां कथंचिद्भेदाऽभ्युपगमात् । तथा हि । उत्पादविनाशधौव्याणि स्याद्भिन्नानि भिन्नलक्षणत्वाद्रूपादिवदिति । न च भिन्नलक्षणत्वमसिद्धम् । असत आत्मलाभः सतः सत्तावियोगो, द्रव्यरूपतयानुवर्त्तनं च खलूत्पादादीना परस्परमसंकीर्णानि लक्षणानि सकललोकसाक्षिकाण्येव । अब वादी पूछता है कि उत्पाद विनाश तथा स्थिरता परस्परमें भिन्न है अथवा अभिन्न ? यदि भिन्न है तो एक ही वस्तु उत्पाद व्यय धौव्य इन तीनों धर्मरूप किस प्रकार होसकती है ? क्योंकि, जो परस्पर भिन्न है वे एकस्वरूप नही होसकते है । और यदि ये तीनो धर्म अभिन्न है तो भी एक वस्तुके तीन स्वरूप किस प्रकार होसकते है ? क्योंकि; जो उत्पत्ति विनाश तथा स्थिरतापनेसे अभिन्न है वह एक समयमें या तो उत्पत्तिसहित ही होसकती है या विनाशसहित अथवा स्थिर ही रहसकती है । परस्पर विरुद्ध तीनो धर्मोंका एक वस्तुमें एक ही समयमें रहना असंभव है । यही कहा है “ यदि उत्पादादि धर्म परस्पर भिन्न हैं तो एक वस्तु तीनोंमय किस प्रकार होसकती है ! और यदि उत्पादादि धर्म परस्पर अभिन्न हैं तो भी एक वस्तु तीनों खरूपवाली किस प्रकार होसकती है ?" । यह शंका जो वादीनें की है वह ठीक नही है। क्योंकि, वे धर्म कथंचित् अर्थात् अपने अपने लक्षण प्रयोजनादिकी अपेक्षा ही भिन्न है, न कि सर्वथा । इसलिये उनमें परस्परका भेद कथंचित् ही माना गया है । कथचित् भेद सिद्ध करने के लिये अनुमान दिखाते है । उत्पत्ति, विनाश तथा स्थिरता ये तीनो धर्म कथंचित् भिन्न रा. जै.शा. ॥१६९॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। क्योंकि इन तीनों धर्मों के लक्षण परस्पर भिन्न है। जैसे रूपगुणका लक्षण भिन्न होनेसे वह द्रव्यके संपूर्ण धर्मोंसे भिन्न होता है। इनका भिन्न भिन्न लक्षण भी असंभव नहीं है । असत् आकारका उपजना तो उत्पत्तिधर्मका लक्षण है तथा विद्यमान आकारका वियोग होजाना व्यय खभावका लक्षण है तथा द्रव्यरूपकी अपेक्षा कभी भी नष्ट न होकर सदा अपने संपूर्ण पर्यायोंमें वर्तना स्थिरताका किंवा प्रौव्यधर्मका लक्षण है। तीनों धर्मोके ये लक्षण परस्पर जुदे है तथा इन लक्षणोंकी प्रतीति संर मनुष्योंको सदा ही होती है। K न चामी भिन्नलक्षणा अपि परस्पराऽनपेक्षाः खपुष्पवदसत्त्वापत्तेः । तथा हि । उत्पादः केवलो नास्ति स्थि-17 तिविगमरहितत्वात् कूर्मरोमवत् । तथा विनाशः केवलो नास्ति स्थित्युत्पत्तिरहितत्वात् तद्वत् । एवं स्थितिः || केवला नास्ति विनाशोत्पादशून्यत्वात्तद्वदेव । इत्यन्योऽन्यापेक्षाणामुत्पादादीनां वस्तुनि सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम् । तथा // allचोक्तं “घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् । १। पयोव्रतो INन दद्ध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । २॥” इति काव्यार्थः। परस्पर भिन्न भिन्न लक्षणवाले होकर भी ये तीनों एक दूसरेकी अपेक्षारहित स्वतत्र सिद्ध नहीं है; नहीं तो आकाशके फूलोंकी तरह कुछ ठहर ही नहीं सकते । यही दिखाते है। जिसमें स्थिति विनाश न हों ऐसा कोई उत्पाद धर्म अकेला नही है । जिस प्रकार कछुएकी पीठपर वालोका नाश तथा वालोकी स्थिति नहीं है इसलिये उनकी उत्पत्ति भी अकेली नहीं है। तथा स्थिति और उत्पत्ति रहित नाश भी कही अकेला नही रहता है । इसी प्रकार केवल स्थिति भी कोई चीज नही है। इन दोनो अनुमानोमें भी कछुएकी पीठपरके बाल ही उदाहरणरूप ह । अर्थात् जिस प्रकार कछुएपर वाल नही होते उसी प्रकार स्थिति, उत्पत्ति, विनाश ये तीनों धर्मोमेंसे विना दो धर्मोके अकेले किसी धर्भका भी रहना सभव नहीं है। इस प्रकार सदा संपूर अपेक्षा लेकर ही प्रत्येक धर्मका रहना सिद्ध होता है । श्रीसमन्तभद्र स्वामीने ऐसा ही कहा है "सुनारकी दुकानपर तीन मनुष्य सुवर्ण खरीदनेकी इच्छासे आये परंतु उनमेंसे एक मनुष्यको तो सुवर्णके बने हुए कलशकी, दूसरेको सुवर्णके मुकुटकी तथा तीसरेको साधा सुवर्ण लेनेकी इच्छा थी । वहा आकार तीनोने सुवर्णका बना हुआ कलश तोड़ते हुए तथा मुकुट बनाते हुए सुनारको देखा तो उनके चित्तमें तीन प्रकारके परिणाम जुदे जुदे हुए। ये तीन प्रकारके परिणाम जो तीनोके हुए वे Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादभं. ॥ १७० ॥ रा. जै.शा. निष्कारण नही हुए । कलश चांहनेवालेके परिणाम तो शोकातुर होगये। क्योंकि, उसको जिसकी चांह थी वही तोड डाला गया । जिसको मुकुटकी इच्छा थी वह मुकुट बनते हुए देखकर प्रसन्न हुआ। क्योंकि, उसकी इच्छा पूर्ण होनेवाली जानपड़ती थी । जिसको साधा सुवर्ण लेनेकी इच्छा थी वह न तो प्रसन्न हुआ और न शोकातुर हुआ । क्योंकि, साधा सुवर्ण उसका सदा ही विद्यमान था । जब चाहता तभी लेसकता था । भावार्थ उन तीनो मनुष्योंके जो तीन प्रकारके परिणाम हुए वे किसी न किसी जुदे जुदे कारणसे ही हुए। वे कारण पर्यायकी उत्पत्ति नाश तथा किसी अपेक्षा स्थिरता ही थे । यदि ये कारण जुदे जुदे न होते तो तीनो मनुष्योंके परिणाम भिन्न भिन्न न होते । क्योंकि, कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति होना असंभव है । इसलिये ये तीनों ही धर्म कथंचित् भिन्न भिन्न है । तथा ये तीनों ही धर्म एक सुवर्णरूप द्रव्यके है, प्रत्येक अंग जुदे जुदे नही है इसलिये इस अपेक्षासे ये तीनो धर्म अभिन्न भी है ।" अन्य प्रकारसे भी इनका भेदाभेद दिखाते हुए श्रीसमन्तभद्रस्वामीने एक दूसरा उदाहरण दिखाया है " जिसने दूध पीनेका नियम किया हो वह दही नही खासकता है तथा जिसने दही खानेमात्रकी प्रतिज्ञा की हो वह दूध नही पीसकता है और जिसने गोरसमात्र छोडदिया हो वह न दूध पीता है और न दही खाता है । भावार्थ - जिस प्रकार यद्यपि दूध तथा दही ये दोनो ही एक गोरसके पर्याय है तो भी कथंचित् परस्पर भिन्न | है । यदि भिन्न न होते तो जिसने दूधमात्रका ग्रहण करना नियत करलिया है वह दही भी क्यों नहीं खाता तथा जिसने दही खानेमात्रकी प्रतिज्ञा की है वह दूध भी क्यों नहीं पीता एवं सभी वस्तुओंके उत्पत्ति विनाश कथंचित् परस्पर भिन्न है । और जिस प्रकार गोरसका त्यागनेवाला न दहीं खाता है, न दूध पीता है । क्योंकि, गोरस द्रव्यकी अपेक्षा दही दूध आदि सभी एकरूप है । उसीप्रकार सभी वस्तु द्रव्यस्वभावकी अपेक्षासे विचार करनेपर एकरूप ही है ।" इस प्रकार इस स्तोत्रका अर्थपूर्ण हुआ । अथान्ययोगव्यवच्छेदस्य प्रस्तुतत्वादास्तां तावत्साक्षाद्भवान् । भवदीयप्रवचनावयवा अपि परतीर्थिकतिरस्कारबद्धकक्षा इत्याशयवान् स्तुतिकारः स्याद्वादव्यवस्थापनाय प्रयोगमुपन्यस्यन् स्तुतिमाह । अपरंच अन्य कर्मादि उपाधियोंका सबध दूर होजानेसे साक्षात् आपका तो कहना ही क्या है परंतु आपने जिन शास्त्रोंका ॥ १७० ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा युक्तियोंका उपदेश किया है उनके अंश भी परवादियोंका तिरस्कार करनेके लिये कटिबद्ध हैं ऐसा आशय दिखाते हुए स्तुति कर्ता श्रीहेमचंद्राचार्य स्याद्वादकी सिद्धि करनेके लिये अनुमानप्रयोगरूप स्तुति करते हैं । अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् । इति प्रमाणान्यपि ते कुवादिकुरङ्गसंत्रासनसिंहनादाः ॥ २२ ॥ मूलार्थ - वस्तुका जो सच्चा खरूप है वह अनंतधर्मात्मक ही है । इस प्रकार यदि न माना जाय तो वस्तुकी सत्ताका वर्णन करना भी दुर्लभ होजाय । इस प्रकार कहनेवाले आपके प्रमाण भी कुवादीरूप मृगों को ऋरत करनेके लिये केसरीकी गर्जना के समान हैं । व्याख्या- तत्त्वं परमार्थभूतं वस्तु जीवाजीवलक्षणमनन्तधर्मात्मकमेव । अनन्तास्त्रिकालविपयत्वादपरिमिता ये धर्माः सहभाविनः क्रमभाविनश्च पर्यायास्त एवात्मा स्वरूपं यस्य तदनन्तधर्मात्मकम् । एवकारः प्रकारान्तरव्यवच्छेदार्थः । अत एवाह " अतोऽन्यथा" इत्यादि । अतोऽन्यथा उक्तप्रकारवैपरीत्येन सत्त्वं वस्तुतत्त्वमसूपपादम् । सुखेनोपपाद्यते घटनाकोटिसंटङ्कमारोप्यते इति सूपपादम् । तथा असूपपादम् । दुर्घटमित्यर्थः । अनेन साधनं दर्शितम् । तथा हि । तत्त्वमिति धर्मि । अनन्तधर्मात्मकत्वं साध्यो धर्मः । सत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति हेतुः अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणत्वाद्धेतोः । अन्तर्व्याप्त्यैव साध्यस्य सिद्धत्वाद् दृष्टान्तादिभिर्न प्रयोजनम् । | यदनन्तधर्मात्मकं न भवति तत्सदपि न भवति । यथा वियदिन्दीवरम् । इति केवलव्यतिरेकी हेतुः साधर्म्य - | दृष्टान्तानां पक्षकुक्षिनिक्षिप्तत्वेनान्वयायोगात् । व्याख्यार्थ-तत्त्व अर्थात् सत्यार्थभूत जीव अजीवादि वस्तु, अनंतधर्मात्मक ही है । अनंत अर्थात् त्रिकालवर्ती होनेसे अपरिमित जो सहभावी तथा क्रमभावी पर्यायरूप धर्म हैं वे ही जिसका आत्मा अर्थात् स्वरूप हो उसको अनंतधर्मात्मक कहते हैं । | इस स्तोत्रमें अनंतधर्मात्मक शब्दके अनंतर जो 'एव' शब्द है उससे यहा पर ऐसा अर्थ होता है कि जीवादि तत्त्व अन्य प्रकार नहीं है किंतु अनंतधर्मखरूप ही है । इसी अभिप्रायसे "अतोन्यथा सत्त्वमसूपपादम् " ऐसा कहा है । अर्थात् वस्तु जो अनंतधर्मात्मक कहा है उसके सिवाय दूसरी रीति से वस्तुतत्त्वका प्रतिपादन करना कठिन है । जिसका प्रतिपादन अनायाससे । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग. .सा. स्याद्वादम. ॥१७॥ करसकै अर्थात् सिद्ध करसकै उसको सूपपाद कहते है। और जो मूपपाद न हो किंतु अत्यंत दुमाध्य हो वह अमुपपाद या दुर्घटना कहाता है। 'अतोन्यथा सत्त्वमसूपपादम्' इस वाक्यसे अनुमानका हेतुभूत अग दिखाया है। स्तोत्रमें कहा हुआ तत्त्व शब्द तो धर्मी है, अनंतधर्मात्मक कहना है सो साध्यधर्म है और 'सत्त्वकी सिद्धि अन्यथा नहीं होसकती है' यह वचन हेतु है। क्योंकि साध्यके अतिरिक्त न मिलना ही हेतुका मुख्य लक्षण है । अर्थात्-तत्त्व अनंतधर्मात्मक ही है। क्योंकि दूसरे प्रकारसे मत्त्वकी सिद्वि नहीं होसकती है । इस प्रकारसे अनुमानका वचन इस स्तोत्रमंसे बनसकता है । यहांपर हेतु और साध्यकी व्याप्तिका जब विचार करते है तभी अनंतधर्मात्मकरूप साध्यकी सिद्वि भी स्पष्ट होजाती है इसलिये दूसरे दृष्टांत उपनय निगमन कहनेकी कुछ आवश्यकता नहीं है । भावार्थ-साध्यके अतिरिक्त कहीं दूसरे स्थानपर हेतुके नहीं मिलनेको व्याप्ति कहते हैं। व्याप्तिका विनार करनेसे हेतुके। 1 होनेपर साध्यका होना निश्चित होजाता है । जैसे जहा जहापर धूआ होता है वहां वहांपर अग्नि अवश्य मिलती है । रसोईके ) घरमें धूआ है इसलिये अग्नि भी है । इस प्रकार निश्चय होजानेपर जहां हम धूआ देखते है वहां ही अमिका निधय कर लेते है। धू इसी प्रकार अनंतधर्मात्मकपना जहां न होगा वहां सत्त्व भी न होगा अथवा सत्त्व होगा वहां अनतधर्मात्मकपना अवश्य। होगा इत्यादि निश्चय होनेसे ही सपूर्ण वस्तुओंमें अनंतधर्मात्मकपना निश्चित होसकता है इसलिये दृष्टांतादि नहीं दिखाये हैं। जो अनतधर्मात्मक नहीं होता वह सत्रूप भी नहीं होता। जैसे आकागका कमल । आफागकमलमें अनतधर्म नहीं है इसलिये वह सत्खरूप भी नहीं है । इस प्रकार यह हेतु केवलव्यतिरेकी है । क्योंकि, जितने अनतधर्मसहित वस्तु इस हेतुके अन्वयरूप दृष्टांत होसकते है वे सब साध्य अवस्थामें पड़े हुए है अर्थात् अभी उन सबको तो साधना ही है इसलिये अन्वयी दृष्टान्त नहीं होनेसे व्यतिरेकी दृष्टात कहना पड़ा है। साध्य जहा न मिले वहां हेतु भी यदि न मिले तो ऐसे उदाहरणको व्यतिरेकी दृष्टान्त कहते हैं । जहां हेतु हो वहां साध्य भी हो ऐसे उदाहरणको अन्वयी दृष्टान्त कहते है। ॥१७॥ अनन्तधात्मकत्वं चात्मनि तावत्साकाराऽनाकारोपयोगिता कर्तृत्वं भोकृत्वं प्रदेशाष्टकनिश्चलता अमूर्त्तत्वमसंख्यातप्रदेशात्मकता जीवत्वमित्यादयः सहभाविनो धर्माः ।हर्पविषादशोकसुखदुःखदेवनरनारकतिर्यक्त्व | यस्तु क्रमभाविनः। धर्मास्तिकायादिष्वप्यसंख्येयप्रदेशात्मकत्वं गत्याद्युपग्रहकारित्वं मत्यादिज्ञानविषयत्वं तत्तद Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वच्छेदकाऽवच्छेद्यत्वमवस्थितत्वमरूपित्वमेकद्रव्यत्वं निष्क्रियत्वमित्यादयः । घटे पुनरामत्वं पार्कजरूपादिमत्त्वं धू पृथुबुनोदरत्वं कम्बुग्रीवत्वं जलादिधारणाहरणादिसामर्थ्य मत्यादिज्ञानज्ञेयत्वं नवत्वं पुराणत्वमित्यादयः । एवं • सर्वपदार्थेष्वपि नानानयमताऽभिज्ञेन शाब्दानाऽऽर्थीश्च पर्यायान् प्रतीत्य वाच्यम् । अनंतधर्म जो प्रत्येक द्रव्यमें कहे है वे दो प्रकारके होते है। एक सहभावी दूसरे क्रमभावी । जो द्रव्यके साथ सदाकाल रहै वे तो सहभावी कहे जाते हैं और जो निमित्त पाकर अथवा यों ही क्रमसे उत्पन्न तथा नष्ट होते रहै उनको क्रमभावी कहते है। ॐ क्रमभावियोंका दूसरा नाम पर्याय और सहभावियोंका दूसरा नाम गुण है । जीवद्रव्यके अनंत धर्मोमेंसे साकार अनाकार उपयोग अथवा ज्ञान दर्शन तथा कर्तापना, भोक्तापना, आठ मध्य प्रदेशोकी निश्चलता, अमूर्तिकपना, असंख्यात प्रदेशीपना, तथा जीव त्वादिक धर्म तो सहभावी है और हर्ष, विषाद, शोक, सुख, दुःख, देवपना, मनुष्यपना, नारकपना तथा तिर्यचपर्यायादिक * क्रमभावी है । धर्म, अधर्म, लोकाकाश द्रव्योंमें असंख्यात प्रदेशी होना तथा गति, स्थिति, अवकाशदान आदिक उपकार होना, मति श्रुत केवल ज्ञानोंके विषयभूत होसकना तथा निश्चय करनेवाले ज्ञानसे भिन्न २ निश्चित होना, जैसाका तैसा स्थित रहना, 'y अरूपीपना, एकद्रव्यपना तथा क्रियारहित होना इत्यादि अनंतो धर्म है । पुद्गल द्रव्योंमें भी इसी प्रकार एक एकमें अनंतो धर्म | है। जैसे घड़ेमें कच्चापन, पक्कापन, पकनेपर रूपादिकका बदलना, मोटे चौडे पेटवाला होना, कंवु फलकीसी ग्रीवावाला होना, जल रखने लाने आदिककी शक्ति सहित होना, मतिज्ञानादिक ज्ञानोंके विषय होना, नवीनता तथा जीर्णता होना इत्यादिक धर्म है। इसी प्रकार और भी संपूर्ण पदार्थोमें नाना प्रकारकी नयात्मक कथनीके अनुसार समझनेवालोको शब्दसंबंधी तथा अर्थसंबंधी पर्याय विचारकर कहने चाहिये। __ अत्र चात्मशब्देनानन्तेष्वपि धर्मेष्वनुवर्तिरूपमन्वयिद्रव्यं ध्वनितम् । ततश्च “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” इति व्यवस्थितम् । एवं तावदर्थेषु शब्देष्वपि उदात्ताऽनुदात्तस्वरितविवृतसंवृतघोषवदघोषताऽल्पप्राणमहाप्राणतादयस्तत्तदर्थप्रत्यायनशत्त्यादयश्चावसेयाः। अस्य हेतोरसिद्धविरुद्धानैकान्तिकत्वादिकण्टकोद्धारः स्वयमभ्यूह्यः । __ यहांपर आत्मा कहनेसे अनंतो धमि सदा अनुवर्तनेवाला अन्वयिद्रव्य समझा जाता है । भावार्थ-इसी प्रकार कुछ धर्म तो| १ एतद्विशेषणं नास्त्येव कपुस्तके। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमः काव्यके नित्य साथ रहनेवाले होते है और कुछ उत्पन्न तथा नष्ट भी होते रहते हैं। इसलिये जो सत् है वह सदा उत्पाद व्यय धौव्या राजै.शा. इन तीनो धर्मोंकर सहित रहता है ऐसा सिद्ध हुआ। जिस प्रकार एक एक पदार्थमें अनंतो धर्म होते हैं उसी प्रकार उन ॥१७२॥ अर्थोवाले शब्दोमेंसे प्रत्येक शब्दमें भी जिसका उच्चारण ऊंचा हो ऐसा उदात्त धर्म, जिसका उच्चारण नीचेसे हो ऐसा अनुदात्त | धर्म, उदात्त अनुदात्तोका मिला हुआ खरित धर्म तथा जिसके उच्चारणसे गला फूलै ऐसा विवृत धर्म, जिससे न फूलै ऐसा संवृत धर्म | तथा घोषवत् धर्म, अघोष धर्म, अल्पप्राण धर्म तथा महाप्राण आदिक तथा अपने अर्थोको प्रतिभासित कराने आदिककी शक्ति, इत्यादिक अनेक धर्म होते है । ' अन्यथा सत्की सिद्धि होना असंभव है। ऐसे इस हेतुमें यदि कोई असिद्धता विरुद्धता अनैकान्तिकता आदिक दोपरूपी कांटे डाले तो उसका निवारण करदेना पाठकोकी वुद्धिपर ही छोडते हैं। इत्येवमुल्लेखशेखराणि ते तव प्रमाणान्यपि न्यायोपपन्नसाधनवाक्यान्यपि (आस्तां तावत्साक्षात्कृतद्रव्या यनिकायो भवान् यावदेतान्यपि) कुवादिकुरङ्गसन्त्रासनसिंहनादाः । कुवादिनः कुत्सितवादिन एकांशग्राहकनयानुयायिनोऽन्यतीर्थिकास्त एव संसारवनगहनवसनव्यसनितया कुरङ्गा मृगास्तेषां सम्यक्त्रासने सिंहनादान इव सिंहनादाः । यथा सिंहस्य नादमात्रमप्याकये कुरङ्गास्त्रासमासूत्रयन्ति तथा भवत्प्रणीतैवंप्रकारप्रमाणवचनान्यपि श्रुत्वा कुवादिनस्त्रासमश्नुवते । प्रतिवचनप्रदानकातरता विभ्रतीति यावत् । एकैकं त्वदुपज्ञं प्रमाणमन्ययोगव्यवच्छेदकमित्यर्थः। | हे प्रभो ! आपने तो संपूर्ण द्रव्य, पर्यायोको प्रत्यक्ष जानलिया है इसलिये आपकी तो बात ही दूर रही परंतु पूर्वोक्त रीतिसे ॥ स्याद्वादका भले प्रकार निरूपण करनेवाले आपके न्याययुक्त हेतुओंके वचन ही कुवादीरूप हरिणोको त्रस्त करनेकेलिये सिहनादके समान है हैं । मुख्यताकी अपेक्षा लेकर एक २ धर्मको ही सर्वथा कहनेवाले एक एक नयके अनुगामी जो कुवादी अर्थात् खोटे मतोका प्रतिपादन करनेवाले तथा खोटे मतोके चलानेवाले है वे ही यहापर संसाररूपी गहन वनमें वास करनेके रोचक होनेसे मृगसमान है। इन 6 ॥१७२॥ मृगोंको खूब भयभीत करनेकेलिये आपके युक्तिपूर्ण वचन सिंहनादके समान है। यद्यपि यथार्थमें सिंहनाद नहीं है तो भी सिंहनादसे |जिस प्रकार मृग भयभीत होजाते है उसी प्रकार आपके वचनोसे बड़े बडे कुवादिरूपी मृग त्रस्त होजाते है इसलिये सिंहनादके समान Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होनेसे आपके वचनोको सिंहनाद ही कहते है । यहांपर आपके युक्तिपूर्ण वचनोंका प्रत्युत्तर न देसकना ही कुवादियोंका भयभीत होजाना है। अर्थात् आपका कहा हुआ एक एक भी हेतु दूसरे वादियोंके मतका खण्डन करनेवाला है। ॥ अत्र प्रमाणानीति बहुवचनमेवंजातीयानां प्रमाणानां भगवच्छासने आनन्त्यज्ञापनार्थम्, एकैकस्य सूत्रस्य । सर्वोदधिसलिलसर्वसरिद्वालुकाऽनन्तगुणार्थत्वात् तेषां च सर्वेषामपि सर्वविन्मूलतया प्रमाणत्वात् । अथ वा इत्यादिबहुवचनान्ता गणस्य संसूचका भवन्तीति न्यायादिति शब्देन प्रमाणवाहुल्यसूचनात्पूर्वार्द्ध एकस्मिन्नपि । प्रमाणे उपन्यस्ते उचितमेव बहुवचनम् । इति काव्यार्थः। __यहांपर जो " प्रमाणानि" ऐसा बहुवचन कहा है उससे यह समझना चाहिये कि आपके शासनमें एक एक विषयके खण्डन करनेकेलिये अनंतो प्रमाण है । क्योंकि; संपूर्ण समुद्रोकी जलबिंदुओसे तथा संपूर्ण नदियोंकी वालुकासे भी अनंत गुणा|| एक एक द्वादशांग सूत्रका अर्थ है । और वे सभी सूत्र तथा उनके अर्थ सर्वज्ञभाषित होनेसे प्रमाण है । अथवा यदि किसी चीजके नामके आगे इति आदि या बहुवचनान्त शब्द बोले जाते है तो उनसे' इत्यादि ' ऐसे समूह अर्थकी सूचना समझी जाती है ऐसा व्यवहार है। इसलिये चाहें श्लोकके ऊपरी भागमें "अतोन्यथा सत्त्वमसूपपादम् ” यह एक ही प्रमाण लिखा है | परंतु इति शब्दसे और भी बहुतसे प्रमाणोंका संग्रह होसकता है इसलिये “ प्रमाणानि" ऐसा बहुवचन ही कहना उचित है। इस प्रकार इस श्लोकका अर्थ पूर्ण हुआ। | अनन्तरमनन्तधात्मकत्वं वस्तुनि साध्यं मुकुलितमुक्तम् । तदेव सप्तभङ्गीप्ररूपणद्वारेण प्रपञ्चयन् भगवतो निरतिशयं वचनातिशयं च स्तुवन्नाह । | जो अनंतरके पहिले श्लोकमें वस्तु अनंत धर्मात्मक है ऐसा संक्षेपसे प्रतिपादन किया था उसीको अब सप्तभंगोंकी प्ररूपणाद्वारा विस्तारते हुए तथा भगवान्के वचनोका अनुपम अतिशय वर्णन करते हुए आचार्य कहते है। अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम् । आदेशभेदोदितसप्तभङ्गमदीदृशस्त्वं बुधरूपवेद्यम् ॥ २३ ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादादम. मलार्थ-विस्तारकी विवक्षा न की जाय तो वस्तु पर्यायरहित है तथा विस्तारसे कहनेपर वस्तु द्रव्यखरूपसे रहित है; अर्थात्- राजै.शा. + सब पर्याय ही पर्याय है। इस प्रकार द्रव्यपर्यायोंकी भिन्न भिन्न अपेक्षासे जिन भेदोंका वर्णन कियागया है तथा जिनका विचार बड़े बड़े उत्कृष्ट विद्वान् ही करसकते है ऐसे सप्तभेदोंका खरूप, हे भगवन् ! आपने ही दिखाया। व्याख्या-समस्यमानं संक्षेपेणोच्यमानं वस्त्वपर्ययमविवक्षितपर्यायम् । वसन्ति गुणाः पर्याया अस्मिन्निति वस्तु धर्माधर्माकाशपुद्गलकालजीवलक्षणं द्रव्यषट्कम् । अयमभिप्रायः। यदैकमेव वस्तु आत्मघटादिकं चेतनाऽचेतनं सतामपि पोयाणामविवक्षया द्रव्यरूपमेव वस्तु वक्तुमिष्यते तदा संक्षेपेणाभ्यन्तरीकृतसकलपर्यायनिकायत्वल y क्षणेनाभिधीयमानत्वादपर्ययमित्युपदिश्यते । केवलद्रव्यरूपमित्यर्थः । यथात्माऽयं घटोऽयमित्यादिः पर्यायाणां । द्रव्याऽनतिरेकात् । अत एव द्रव्यास्तिकनयाः शुद्धसंग्रहादयो द्रव्यमात्रमेवेच्छन्ति पर्यायाणां तदविष्वग्भूतत्वात्। पर्ययः पर्यवः पर्याय इत्यनान्तरम् । अद्रव्यमित्यादि(दौ) चः पुनरर्थे । स च पूर्वमाद्विशेषद्योतने भिन्नक्रमश्च। विविच्यमानं चेति । विवेकेन पृथग्रूपतयोच्यमानं पुनरेतद्वस्तु अद्रव्यमेव । अविवक्षितान्वयिद्रव्यं केवलपयोय रूपमित्यर्थः। M समस्यमान वस्तु पर्यायरहित है । अर्थात् जब वस्तुका सामान्य विवक्षासे विचार करते है तब वस्तुमें पर्यायोंकी अपेक्षा छोड़कर शुद्ध द्रव्यका ही आश्रय लिया जाता है। जैसे वस्तु सदा शुद्ध निर्विकार तथा अनाद्यनंत है । ऐसा विचार तभी होता है जब द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यता की जाती है। क्योंकि; द्रव्यशब्दका अर्थ उत्पत्ति विनाशको छोड़कर शुद्ध अनुत्पन्न तथा अविनाशीपनेसे रहना है। जिसमें गुण और पर्याय वास करते हों वह वस्तु है । धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, काल तथा / y जीव इन छह द्रव्योंको ही वस्तु कहते हैं। सारांश यह है कि चेतनरूप आत्मद्रव्यमे किवा जड़रूप घटादिक वस्तुमधु अनंतो पर्याय होनेपर भी उनकी अपेक्षा नहीं करके जब एक अखंड द्रव्यरूप ही कहनेकी इच्छा होती है तब जिसमें संपूर्ण पयोयोंका समुदाय अपेक्षित न किया गया हो ऐसे संक्षेपद्वारा कहनेके कारण पर्यायरहित केवल अखंड द्रव्यरूप ही वस्तु कहा ॥१७३॥ जाता है। क्योंकि यह आत्मा है यह घड़ा है इत्यादिरूप जो पर्याय है वे सव द्रव्यखरूप ही हैं; द्रव्यसे भिन्न नहीं है। इसीलिये । शुद्ध संग्रह आदिक द्रव्यार्थिक नय सदा द्रव्यमात्रकी अपेक्षा रखते हैं। क्योंकि; द्रव्योमें ही पर्यायोंका अंतर्भाव होजाता है। पथव, Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यय अथवा पर्याय इन तीनों शब्दोका अर्थ एक ही है। 'अद्रव्यमेतच्च' इसमें जो 'च' शब्द कहा है उसका अर्थ और, अथवा पुनः है। सो इस च शब्दसे यहां ऊपरकी अपेक्षा कुछ विशेषता और अपूर्वता झलकती है। अर्थात् जब संक्षेपसे देखते है। तब तो वस्तु पर्यायरहित दीखती है और जब विस्तारपूर्वक देखते है तब अनुगतशील द्रव्यको छोड़कर पर्यायरूप ही दीखती| है । जब अनादिसे अनंतकालतक चलनेवाले अनुयायी द्रव्यपनेकी अपेक्षा नही लेते है तब वह वस्तु केवल पर्यायरूप ही है । l यदा ह्यात्मा ज्ञानदर्शनादीन् पर्यायानधिकृत्य प्रतिपर्यायं विचार्यते तदा पर्याया एव प्रतिभासन्ते न पुनरात्माख्यं किमपि द्रव्यम् । एवं घटोऽपि कुण्डलौष्ठपृथुबुध्नोदरपूर्वापरादिभागाद्यवयवापेक्षया विविच्यमानः पर्याय || एव न पुनर्घटाख्यं तदतिरिक्तं वस्तु । अत एव पर्यायास्तिकनयानुपातिनः पठन्ति “भागा एव हि भासन्ते संनिविष्टास्तथा तथा । तद्वान्नैव पुनः कश्चिन्निर्भागः संप्रतीयते” इति । ततश्च द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वेऽपि वस्तुनो द्रव्यनयार्पणया पर्यायनयाऽनर्पणया च द्रव्यरूपता । पर्यायनयार्पणया द्रव्यनयानर्पणया च पर्यायरूपता। उभयनयार्पणया च तदुभयरूपता । अत एवाह वाचकमुख्यः “अर्पितानर्पितसिद्धेः" इति। एवंविधं द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु त्वमेवादीदृशस्त्वमेव दर्शितवान् । नान्य इति काकावधारणावगतिः। __ जब ज्ञानदर्शनादिक पर्यायोंसहित आत्माका विचार करते है तब ज्ञानदर्शनादिक पर्यायोंके सिवाय ऐसा कुछ भी नहीं दीख|ता है जो जुदा आत्मद्रव्य मानाजाय । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्योमें भी जब घड़ेकी तरफ देखते है तो कुछ गहरापन, मट्टीका समूह, पाचोड़ा मोटा पेट, आगे पीछेके हिस्से इत्यादि हिस्सोंके सिवाय अन्य कुछ भी नही दीखता है । इन पर्यायोंके अतिरिक्त कोई| दूसरी वस्तु घड़ा नहीं है। इसीलिये पर्यायार्थिक नयकी तरफ मुख्यतासे झुकनेवाले कहते है कि "यथायोग्य स्थानोमें लगे हुए। अंश ही सर्वत्र दीखते है। उन संपूर्ण अंशोंका आधार कोई दूसरा एक अवयवी नही दीखता है। इसलिये वस्तु यद्यपि द्रव्यका पर्याय इन दोनो नयखरूप है परंतु जब द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यता तथा पर्यायार्थिक नयकी अप्रधानता लेते है तव वस्तु अना धनंत द्रव्यखरूप समझमें आता है। और जब पर्यायार्थिक नयकी तो योजना करते हैं किंतु द्रव्यार्थिककी नही करते है तब वस्तु पर्यायखरूप समझा जाता है । और जब दोनों नयोंकी अपेक्षा करते हैं तब वस्तुका स्वरूप द्रव्यात्मक भी समझा जाता है तथा पर्यायात्मक भी समझा जाता है। इसलिये शास्त्रकर्ताओंमें प्रधान तत्त्वार्थ सूत्रके कर्ता श्रीउमाखामी कहते हैं कि "नयोंकी अपेक्षा || al Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥१७॥ राजै.शा. तथा उपेक्षा करनेसे द्रव्यपयोयादिखरूपोंकी सिद्धि होती है"। इस प्रकारसे वस्तुमें द्रव्यपना, पर्यायपना हे भगवन् ! आपने ही दिखाया y है, अर्थात् और किसीने भी नहीं दिखाया है । इस प्रकार काकु ध्वनिसे दूसरोमें वस्तुका खरूप दिखानेका निषेध होजाता है। नन्वन्याभिधानप्रत्यययोग्यं द्रव्यमन्याभिधानप्रत्ययविषयाश्च पर्यायाः। तत्कथमेकमेव वस्तूभयात्मकमित्याशङ्कय विशेषणद्वारेण परिहरति-आदेशभेदेत्यादि । आदेशभेदेन सकलादेशविकलादेशलक्षणेन आदेशद्वयेन उदिताः प्रतिपादिताः सप्तसंख्या भङ्गा वचनप्रकारा यसिन् वस्तुनि तत्तथा । ननु यदि भगवता त्रिभुवनवन्धुना निर्वि शेषतया सर्वेभ्य एवंविधं वस्तुतत्त्वमुपदर्शितं तर्हि किमर्थं तीर्थान्तरीयास्तत्र विप्रतिपद्यन्ते इत्याह "वुधरूपवेद्यम्" " इति । वुध्यन्ते यथावस्थितं वस्तुतत्त्वं सारेतरविषयविभागविचारणया इति वुधाः। प्रकृष्टा बुधा वुधरूपा नैसनिकाधिगमिकाऽन्यतरसम्यग्दर्शनविशदीकृतज्ञानशालिनःप्राणिनः। तैरेव वेदितुं शक्यं वेद्यं परिच्छेद्यम् । न पुनः स्वस्वशास्त्रतत्त्वाभ्यासपरिपाकशाणानिशातबुद्धिभिरप्यन्यैः तेषामनादिमिथ्यादर्शनवासनादूपितमतितया यथास्थितवस्तुतत्त्वाऽनववोधेन बुधरूपत्वाऽभावात् । तथा चागमः "सदसदविसेसणाउ भवहेउजहच्छिओवलंभाउ । णाणफलाभावाउ मिच्छादिहिस्स अण्णाणं"। (संस्कृतच्छाया-सदऽसदऽविशेषणात् भवहेतुयथास्थितोपलम्भात्। ज्ञानफलाभावात्, मिथ्यादृष्टेः अज्ञानम् )। शंका-पायोंका नाम तथा ज्ञान अन्य ही होता है और द्रव्यका नाम तथा ज्ञान कुछ अन्य प्रकार ही होता है। फिर एक ही वस्तु द्रव्य पर्याय इन दोनो खरूपमय कैसे होसकती है? इस शकाका उत्तर "आदेशभेदोदितसप्तभङ्गम्" इस विशेषणकर देते है । अर्थात्-स्तुतिकर्ताने जो श्लोकमें आदेशभेद इत्यादि विशेषण लिखा है उससे उपर्युक्त शंका नही रहती है । सकलादेश तथा विकलादेश जो दो आदेश हैं उनके द्वारा सात प्रकारकी जिस कथनशैलीसे वस्तुखरूप दिखाया गया है उससे वस्तुखरूप कथचित् द्रव्यखरूप भी होसकता है और कथंचित् पर्यायखरूप तथा उभयखरूप भी होसकता है । शङ्का-जो तीनो लोकके 1 बंधु ऐसे श्रीभगवान्ने यदि सामान्यपनेकर सभीको वस्तुखरूपका ऐसा उपदेश दिया था तो जो अन्य मतोंके प्रवर्तानेवाले वादी है। वे विवाद क्यों करते है ? इसी शंकाके उत्तरमें "वुधरूपवेद्यम्" ऐसा कहा है। अर्थात्-इस सूक्ष्म तत्त्वको वे ही समझसकते है जो अच्छे विद्वान् हों । सार तथा असारका विवेकपूर्वक विचार करनेवाले जो यथावत् वस्तुखरूपको समझसकते है उनको बुध । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते है । जो बुधोंमें प्रकृष्ट हों वे बुधरूप कहलाते हैं। जो जाना जा सकता हो निश्चय किया जा सकता हो ऐसे वस्तुखरूपको वेद्य कहते हैं । अर्थात्-खतःखभाव ही उपजनेवाले अथवा किसी दूसरेके उपदेशसे उपजनेवाले सम्यग्दर्शनके द्वारा जिनका ज्ञान निर्मल होचुका है वे ही जीव वस्तुका सच्चा खरूप समझ सकते हैं; न कि अन्य भी मनुष्य जो कि अपने अपने शास्त्रोमें कहे हुए तत्त्वोंका अभ्यास करनेसे बुद्धिको परिपक्क शाण (शाम) पर तीक्ष्ण नहीं करसके है। क्योंकि अनादि मिथ्यादर्शन कर्मकी वासनासे उनकी बुद्धि इतनी मलिन होरही है कि यथावत् वस्तुका खरूप समझ नहीं सकते है और इसीलिये वे विद्वान् होकर भी यथार्थ विद्वान् नहीं है । मिथ्यादर्शन कर्म उसको कहते है जिसका उदय होनेपर जीव दुराग्रह न छोड़सकै तथा सञ्चा वस्तुस्वरूप INन समझ सकै। आगममें भी यही कहा है कि "सत् असत्का विवेक न होनेसे, संसारके कारणरूप कर्मोका बंध जैसाका तैसा विद्यमान रहनेसे तथा सच्चे ज्ञानफलका अभाव रहनेसे मिथ्यादृष्टी जीव सब अज्ञानी ही है"। N अत एव तत्परिगृहीतं द्वादशाङ्गमपि मिथ्याश्रुतमामनन्ति; तेषामुपपत्तिनिरपेक्षं यदृच्छया वस्तुतत्त्वोपलम्भ संरम्भात् । सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं तु मिथ्याश्रुतमपि सम्यक्श्रुततया परिणमते । सम्यग्दृशां सर्वविदुपदेशानुसारिप्रवृत्तितया मिथ्याश्रुतोक्तस्याप्यर्थस्य यथावस्थितविधिनिषेधविषयतयोन्नयनात् । तथा हि । किल वेदे “अजैर्यष्टव्यम्" इत्यादिवाक्येषु मिथ्यादृशोऽजशब्दं पशुवाचकतया व्याचक्षते । सम्यग्दृशस्तु जन्माऽप्रायोग्यं त्रिवार्षिक यवव्रीह्यादि पञ्चवार्षिकं तिलमसूरादि सप्तवार्षिकं कङ्गुसर्षपादि धान्यपर्यायतया पर्यवसाययन्ति । अत एव च भगवता श्रीवर्द्धमानस्वामिना, विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञास्तीत्यादिऋचः श्रीमदिन्द्रभूत्यादीनां द्रव्यगणधरदेवानां जीवादिनिषेधकतया प्रतिभासमाना अपि तद्व्यवस्थापकतया || व्याख्याताः। इसीलिये यदि उनने द्वादशांगोंको भी पढा हो परंतु तो भी उनके ज्ञानको आचार्योने मिथ्याश्रुत ही माना है। क्योंकि, वे युक्ति तथा नयकी अपेक्षा छोड़कर इच्छानुकूल वस्तुखरूपकी प्राप्तिका प्रयत्न करते है । जिनको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो चुका है उनका मिथ्या व श्रुतज्ञान भी सच्चा श्रुतज्ञान होजाता है। क्योंकिः सम्यग्दृष्टी अपनी प्रवृत्ति सर्वज्ञ कथित मार्गके अनुसार ही रखते है इसलिये || मिथ्या शास्त्रोंके कहे हुए वचनोंको भी जैसा कुछ विधिनिषेधरूप सर्वज्ञदेवका उपदेश है उसके अनुसार ही घटालेते हैं। जैसे वेदमें Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्धादम. ॥१७५॥ लिखा है कि "अजोंसे यज्ञ करना चाहिये"। ऐसे ऐसे वचनोमें जहां अजशब्द आता है वहां उसका अर्थ मिथ्यादृष्टी तो बकरा धू करते है परंतु सम्यग्दृष्टी कहते है कि जो उपज नहीं सकै ऐसे तीन वर्षके पुराने जौ, धान आदिक तथा पांच वर्षवाले तिल मसूर 6 आदिक तथा सात वर्षके पुराने कांगनी सरसो आदिक धान्य अजशब्दका अर्थ है । और इसी प्रकार पीछेसे गणधर होनेवाले श्रीइन्द्रभूति आदिक विद्वान् वेद की जिन ऋचाओंके अर्थद्वारा जीवतत्त्वका निषेध करते थे उन्हीके अर्थद्वारा चोवीसवे तीर्थकर श्रीमहावीर खामीने जीवतत्त्वका मंडन किया था। उनमेंसे प्रथम ऋचा यह है कि “ विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्ति".। भावार्थ-इसके दो अर्थ होसकते हैं। एक तो ऐसा होसकता है जिससे जीवतत्त्वका निषेध होजाताहै; दूसरा ऐसा होसकता है जिससे जीवतत्त्वका मंडन होजाताहै । इनमेंसे पहिला अर्थ जो इंद्रभूतिने किया था वह यह है कि विज्ञानमय आत्मा पांचो भूतोंसे ही उत्पन्न होता है और उन्हीमें विलीन होजाता है । इसलिये परलोक कुछ नहीं है। इसीका दूसरा अर्थ श्रीवर्द्धमान खामीने ऐसा किया कि ज्ञानका समूह इन पांच भूतोंका निमित्त पाकर ५ उपजता है और उनके पर्यायोंकी पलटनके साथ साथ ही वह ज्ञान बदलजाता है और उसका नाम भी पहिला नही रहता है। तथा स्मार्ता अपि "न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेपा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला" इति श्लोकं पठन्ति । अस्य च यथाश्रुतार्थव्याख्यानेऽसंवद्धप्रलाप एव । यस्मिन् हि अनुष्ठीयमाने दोषो नास्त्येव तस्मान्निवृत्तिः कथमिव महाफला भविष्यति? इज्याध्ययनदानादेरपि निवृत्तिप्रसङ्गात् । तस्मादन्यदैदंपर्यमस्य श्लोकस्य। तथा हि । न मांसभक्षणे कृतेऽदोषोऽपि तु दोष एव । एवं मद्यमैथुनयोरपि । कथं नादोप इत्याह-यतः प्रवृत्तिरेषा भूतानाम् । प्रवर्तन्त उत्पद्यन्तेऽस्यामिति प्रवृत्तिरुत्पत्तिस्थानं भूतानां जीवानाम् । तत्तज्जीवसंसक्तिहेतुरित्यर्थः। । इसी प्रकार स्मृतिकार कहते है कि "न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला"। । इसका प्रगट अर्थ यह होता है कि मांसभक्षणमें दोष नहीं है और न मद्य पीनेमें न मैथुन करनेमें । क्योंकि प्राणियोंकी प्रवृत्ति ही इस तरफ चली आती है। परंतु इसके त्यागनेसे अवश्य महान् फल होता है । परंतु ऐसा अर्थ करनेसे ऐसा समझा जाता है कि, धू । ऐसा कहनेवाला कोई विना विचारे ही बकनेवाला है । क्योंकि जिसकी प्रवृत्ति करनेसे कुछ पाप नहीं होता उसके त्यागनेसे । ॥१७५॥ र प्रवृत्तिा भूतानाम् । प्रस्तान दीपो न मये न च मैग्ने । प्राचिरेका नाना व्यकि, प्राधियोंकी इति । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान् पुण्य भी कैसे होगा ? नहीं तो देवगुरुकी पूजन, पठन पाठन तथा दानादि कमोंको छोड़नेसे भी कुछ पाप न होना चाहिये। || इसलिये इस श्लोकका ऐसा अर्थ करना चाहिये कि; मांस भक्षण करने में अदोष अर्थात् पुण्य नहीं है किंतु पाप ही होता है। इसी प्रकार मद्य मैथुनमें भी अदोष नहीं है किंतु दोष ही है । अदोष क्यो नहीं है ? क्योंकि; मांस मद्य मैथुनमें जीवोकी प्रवृत्ति अर्थात् उत्पत्ति होती रहती है। जीव जिसमें प्रवतै अर्थात् उत्पन्न हों उसको प्रवृत्ति कहते हैं। जीवोंकी उत्पत्तिके स्थानका नाम प्रवृत्ति है। अर्थात् मांस मद्य मैथुन इन तीनोंमें जीव सदा ही उपजते रहते हैं। का प्रसिद्धं च मांसमद्यमैथुनानां जीवसंसक्तिमूलकारणत्वमागमे । “ आमासु य पक्कासु य विपच्चमाणासु मांसपे सीसु । आयंतियमुववाओ भणियो दुणिगोयजीवाणं (संस्कृतच्छाया-आमासु च पक्वासु च विपच्यमानासु मांसपेशीषु । आत्यन्तिकमुपपादो भणितः तु निगोतजीवानाम् )। १। मजे महुमि मंसमि णवणीयझि चउत्थए । उप्पजंति अणंता तव्वण्णा तत्थ जंतूणो (मद्ये मधौ मांसे नवनीते चतुर्थे । उत्पद्यन्ते अनन्ताः तद्वर्णाः तत्र जन्तवः)।२। मेहुणसण्णारूढो णवलक्ख हणेइ सुहुमजीवाणं । केवलिणा पण्णत्ता सदहियन्वा सयाकालं ||(मैथुनसंज्ञारूढो नवलक्षं हन्ति सूक्ष्मजीवानाम् । केवलिना प्रज्ञापिताः श्रधातव्याः सदाकालम्)।३। तथा नाहि । इत्थीजोणीए संभवंति वेइंदिया उ जे जीवा । इक्को व दो व तिण्णि व लक्खपुहुत्तं उ उक्करसं (स्त्रीयोनौ संभवन्ति द्वीन्द्रिया तु ये जीवाः। एको वा द्वौ वा त्रयो वा लक्षपृथक्त्वं तु उत्कृष्टम्)।४। पुरिसेण सह गयाए तसिं जीवाण होइ उदवणं । वेणुगदिलुतेणं तत्तायसिलागणाएणं (पुरुषेण सह गतायां तेषां जीवानां भवति ||४||उद्दवनम् । वेणुकदृष्टान्तेन च तप्तायसशलाकापातेन)।५।" संसक्तायां योनौ द्वीन्दिया एते शक्रशो वास्तु गर्भजपञ्चेन्द्रिया इमे "पंचिंदिया मणुस्सा एगणरभुत्तणारिंगभसि । उकस्सं णवलक्खा जायंती एगहेलाए (पञ्चेन्द्रिया मनुष्या एकनरभुक्तनारीगर्भे । उत्कृष्ट नवलक्षा जायन्ते एकहेलायाम् )। ६ । णवलक्खाणं| || मझे जायइ एक दुण्हे य सम्मत्ती। सेसा पुण एमेव य विलयं वच्चंति तत्थेव (नवलक्षानां मध्ये जायते एको द्वौ वा समस्तौ । शेषाः पुनः एवमेव च विलयं व्रजन्ति तत्रैव )।७।” तदेवं जीवोपमर्दहेतुत्वान्न मांसभक्षणादिकमदुष्टमिति योगः। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम ॥१७६॥ और आगममें भी मांस मद्य मैथुनको जीवोंकी उत्पत्तिका मूलकारण कहा है। "कचेमें पक्केमें पकते हुएमें तथा अन्य भी मांसकी राजै.शा प्रत्येक अवस्थाओमें निगोत जीवोंकी अप्रमाण उत्पत्ति होती रहती है। १। मद्य, मधु, मांसमें तथा चौथे नवनीतमें रगकी अपेक्षा उसीके समान अनतो जंतु उत्पन्न होते है ।२। मैथुन कर्ममें नौ लाख सूक्ष्म जीवोंका घात होना सर्वज्ञ भगवानने कहा है ॐ इसलिये उसका श्रद्धान सदा करना चाहिये । ३" अव योनिके जीवोका विचार करते है। "स्त्रीकी योनिमें द्वीन्द्रिय जीव कभी एक कभी दो कभी तीन इसी प्रकार अधिकसे अधिक कभी कभी नौ लाख तक उत्पन्न हो जाते है। ४ । जैसे अग्निसे तपाई हुई लोहेकी सलाई वासकी नलीमें डालनेसे नलीमें पड़े हुए तिल जल जाते है तैसे ही पुरुष जब संभोग करने लगता ) है तब योनिमें जितने जीव होते है उन सवोका नाश हो जाता है। " साक्षत योनिके द्वीन्द्रिय जीवोंकी संख्या तो धू ऊपर कही। अब रज और वीर्यके मेलसे उत्पन्न होनेवाले पंचेन्द्रियोंकी गिनती कहते हैं । “एक वार नारीका भोग करनेसे उस पू a समय उस गर्भमें पंचेद्रिय मनुष्य कभी कभी नौ लाख पर्यन्त भी एकदम उत्पन्न हो जाते हैं । ६ । उन नौ लाखमेंसे एक या दो 6 तो जी जाते है; अवशिष्ट यों ही नष्ट हो जाते है । ७।" इस प्रकार जीवहिंसाका कारण होनेसे मांसभक्षणादिक निर्दोष नही 1 समझना चाहिये। अथवा भूतानां पिशाचप्रायाणामेषा प्रवृत्तिः। त एवात्र मांसभक्षणादौ प्रवर्तन्ते न पुनर्विवेकिन इति भावः। तदेवं मांसभक्षणादेर्दुष्टतां स्पष्टीकृत्य यदुपदेष्टव्यं तदाह "निवृत्तिस्तु महाफला"। तुरेवकारार्थः “तुः स्याद्भेदेऽवधारणे” इति वचनात् । ततश्चैतेभ्यो मांसभक्षणादिभ्यो निवृत्तिरेव महाफला स्वर्गापवर्गफलप्रदा; न पुनःप्रवृत्तिरपीत्यर्थः। अत एव स्थानान्तरे पठितं “वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः। मांसानि च न खादेद्यस्तयोहै स्तुयं भवेत्फलम् । १। एकरात्रोपितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः । न सा ऋतुसहस्रेण प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर"। मद्यपाने तु कृतं सूत्रानुवादैस्तस्य सर्वविगर्हितत्वात् । तानेवंप्रकारानर्थान् कथमिव वुधाभासास्तीर्थिका वेदितुमहेन्तीति कृतं प्रसङ्गेन। ॥१७६॥ ____ अथवा "प्रवृत्तिरेपा भूतानां" इसका अर्थ ऐसा करना चाहिये कि, भूत अर्थात् पिशाच राक्षसादिकोंकी ही यह दुष्ट प्रवृत्ति है, वे ही मांसभक्षण आदिक दुष्कर्म करते है, न कि विवेकी मनुष्य । इस प्रकार मासभक्षणादिक दुष्कर्मोको सदोष ठहरा कर Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||अब कर्तव्य क्या है सो कहते है । उससे निवृत्ति करनेसे ही महान् फल होता है । 'तु' शब्दका अर्थ भेद भी होता है तथाला निश्चय भी होता है ऐसा कहा है । सो यहांपर जो 'तु' शब्द 'निवृत्तिस्तु' इस स्थानपर पड़ा है उसका अर्थ निश्चय कराना है। | इसीलिये 'निवृत्तिस्तु' शब्दका अर्थ निवृत्ति ही ऐसा किया है। स्वर्ग मोक्षके फलको यहांपर महाफल कहा है। तु शब्दका नि-IN |श्चय अर्थ माननेसे निवृत्ति ही महान् फल देनेवाली है, न कि प्रवृत्ति ऐसा अभिप्राय सूचित होता है । इसीलिये एक दूसरे प्रसंगपर भी कहा है कि "सौ वर्ष पर्यंत प्रत्येक वर्षमें एक मनुष्य यज्ञ करै तथा दूसरा मांसभक्षण नही करै तो उन दोनोंका फल समान होगा। १ । हे युधिष्ठिर ! एकरात्रिपर्यत भी ब्रह्मचर्य व्रत पालनेवालेकी जैसी उत्तम गति होती है तैसी हजार यज्ञ करनेवालेकी भी नही होती। २" मद्यपान तो लोकमें ही निंद्य है उसका निषेध सूत्रानुवादमें करना व्यर्थ है। इस प्रकारसे जो ऐसे अर्थ हो सकते है उनको वे कैसे समझ सकते है जो खयं मतप्रवर्तक तो बनते हैं तथा विद्वान् बनते है परंतु यथार्थमें विद्वान् नही है । इतना कहना ही वश है। NI अथ केऽमी सप्तभङ्गाः ? कश्चायमादेशभेद इति ? उच्यते । एकत्र जीवादी वस्तुनि एकैकसत्त्वादिधर्मविषयप्र नवशादविरोधेन प्रत्यक्षादिवाधापरिहारेण पृथग्भूतयोः समुदितयोश्च विधिनिषेधयोः पर्यालोचनया कृत्वा स्याच्छब्दलाञ्छितो वक्ष्यमाणैः सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभङ्गीति गीयते । तद्यथा। स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिकल्पनया प्रथमो भङ्गः। स्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः। स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः। स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः। स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः । स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः। स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च सप्तमः। तत्र स्यात्कथंचित्स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेणास्त्येव सर्व कुम्भादि न पुनः परद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण । AL सप्तभङ्गी किस प्रकार है और आदेशोका भेद क्या वस्तु है ? उत्तर-जीवादि किसी एक पदार्थमें अस्तित्वादि धर्मों से का किसी एक एक धर्मकी मुख्यतासे प्रश्न उठनेपर पृथक् पृथक् अथवा मिले हुए विधि निषेध धर्मोंका प्रत्यक्षादि प्रमाणकी बाधा Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥१७७॥ रहितविचार पूर्वक, 'स्यांत्' शव्दसे चिन्हित ऐसी वचनरचना को सप्तभंगी कहते है । क्योंकि वह वचनरचना सात प्रकार ही हो सकती है । वह रचना ऐसी होनी चाहिये जिसके कहने में प्रत्यक्षादि किसी प्रमाणद्वारा विरोध नही आता हो । वे सात मंग इस प्रकार हैं । --- किसी धर्मकी अपेक्षा संपूर्ण वस्तु अस्तिरूप ही है। अर्थात् है ही ऐसे विधिधर्मकी कल्पनाकी मुख्यतासे प्रथम मंग है । किसी अपेक्षासे संपूर्ण वस्तु नास्तिरूप ही है । अर्थात् नही ही है यह निषेधधर्मकी मुख्यतासे दूसरा भंग हैं । किसी अपेक्षा है और किसी अपेक्षा नही ही है ऐसा क्रमसे विधिनिषेधकी कल्पना मुख्य करनेपर तीसरा भंग होता है । किसी अपेक्षा वस्तु अवक्तव्य ही है ऐसा एकसाथ विधि निषेधोंकी मुख्यता करनेसे चौथा भंग होता है। किसी अपेक्षा अस्तिरूप होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ऐसा पांचवां भंग सामान्य विधिकी कल्पनासे तथा एक ही समय विधिनिषेध दोनोंकी मुख्यता करनेसे होता है । किसी अपेक्षा वस्तु नास्तिरूप होकर भी जब अवक्तव्य होता है तब सामान्य निषेधधर्मकी मुख्यतासे तथा विधिनिषेध दोनोंकी एक साथ मुख्यता समझनेसे छट्ठा भंग होता है। किसी अपेक्षा वस्तु अस्तिनास्ति तथा अवक्तव्यरूप है ऐसा भंग सातवां | होता है । जब क्रमसे भी विधिनिषेधकी मुख्यता कीजाती है तथा युगपत् भी विधिनिषेध की मुख्यता कीजाती है तब क्रमकी तब या तो स्यात् या कथंचित् अपेक्षा अस्तिनास्तिरूप होकर भी उसी समय युगपत् दोनो धर्मोकीभी मुख्यता रखनेसे कथंचित् अस्तिनास्तिरूप तथा अवक्तव्यरूप मिलकर सातवां भंग होता है । भावार्थ - कथंचित् अथवा स्यात् शब्दका अर्थ 'मुखसे स्पष्ट नहीं कही हुई किसी एक इष्ट अपेक्षा से' ऐसा होता है । सो जब अपेक्षाको स्पष्ट नहीं कहकर संक्षेपसे किसी धर्मको कहना होता शब्द जोडकर बोलते है और जब अपेक्षाको स्पष्ट कहना होता है तब कथंचित् या स्यात् शब्द न कहकर केवल उस विवक्षाको दिखाकर विधिनिषेध करदेते है । जैसे—जब सक्षेपसे कहना होता है तब विवक्षा न कहकर केवल स्यात् अथवा कथंचित् शब्दद्वारा ही इस प्रकार बोला जाता है कि; स्यात् द्रव्य अस्तिरूप है, कथंचित् द्रव्य अस्तिरूप है अथवा किसी अपेक्षासे वस्तु अस्तिरूप है। परंतु जब इसी विवक्षाको स्पष्ट कहना होता है तब ऐसा कहते है कि घड़ा आदिक कोई भी वस्तु अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावोंकी अपेक्षासे अस्तिरूप है; न कि दूसरे द्रव्योंके द्रव्य क्षेत्र काल भावोंकी अपेक्षासे । रा. जै.शा. तथा हि । कुम्भो द्रव्यतः पार्थिवत्वेनास्तिः नाप्यादिरूपत्वेन । क्षेत्रतः पाटलिपुत्रकत्वेन; न कान्यकुलादिवेन । कालतः शैशिरत्वेन; न वासन्तिकादित्वेन । भावतः श्यामत्वेन; न रक्तादित्वेन । अन्यथेतररूपापत्त्या 1120011 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । स्वरूपहानिप्रसङ्ग इति । अवधारणं चात्र भङ्गेऽनभिमतार्थव्यावृत्त्यर्थमुपात्तम् । इतरथाऽनभिहिततुल्यतैवास्य | वाक्यस्य प्रसज्येत; प्रतिनियतस्वार्थाऽनभिधानात् । तदुक्तं "वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये । कर्तव्यम-al न्यथाऽनुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित्" । | जैसे घड़ेको द्रव्यकी अपेक्षा देखते है तो पृथिवीपनेकी अपेक्षा अस्तिरूप है किंतु जलादिकी अपेक्षा अस्तिरूप नहीं है। क्षेत्रका विचार करनेपर पटना आदि किसी एक क्षेत्रकी अपेक्षा है बाकी दूसरे क्षेत्रोंकी अपेक्षा नही है । कालसे शीतादि किसी एक समयकी अपेक्षा है। शेष वसन्तादि अन्य समयोंकी अपेक्षा नही है । वस्तुके गुणोंको भाव कहते है। भावों में से किसी एककी अपेक्षा जब विचारते है तो वह घड़ा अपने श्यामादि गुणोंमेंसे विवक्षित एक गुणकी अपेक्षा है किंतु उसीमें रहनेवाले अन्य अविवक्षित गुणोंकी अपेक्षा नहीं है । यदि वस्तुको खकीय द्रव्य क्षेत्र काल भावोंकी अपेक्षा ही अस्तिरूप न मानकर बिना विवक्षाके ही अस्तिरूप माना जाय तो उस वस्तुके पिंडसे औरोंकी व्यावृत्ति नही होसकैगी और फिर इसीलिये उस वस्तुके स्वरूपका अभाव | होजायगा। क्योंकि, वस्तुका खरूप तभीतक स्थिर रहसकता है जबतक उसके खरूपसे दूसरोके खरूपोंमें भिन्नता प्रतीत होती रहै। इसीलिये अमुक वस्तु स्यात् अस्तिरूप ही है इत्यादि वाक्योंमें जो 'ही' शब्दसे निश्चय कराते है वह इसीलिये कि अमुकमें | अमुकके सिवाय अन्य वस्तुओंका भेद प्रतीत होता रहै । यदि 'ही' शब्द नहीं कहाजाय तो किसी एकका निश्चय न होनेसे जिस वस्तुकी इच्छा नही है वह वस्तु भी इच्छित वस्तुके बोलनेपर समझी जाने लगेगी । सो ही कहा है "वाक्यमें जो दूसरोंके निषेधरूप निश्चय करानेवाला 'ही' शब्द बोला जाता है वह अनिच्छित वस्तुओंको इच्छितसे भिन्न समझानेके लिये बोला जाता है और बोलना ही चाहिये । यदि नही बोलाजाय तो किसी एकके बोलनेसे जो इष्ट है उसके अतिरिक्त जो इच्छित नहीं है वह भी समझा जाने लगेगा । क्योंकि; अमुक है ऐसे विधिरूप वचनसे यदि अमुकका ही विधान और दूसरोंका निपेध होसकै तो निश्चय होजाय परंतु अमुक है इतने वचनमात्रसे दूसरोंका निषेध और अपना विधान हो नहीं सकता है। इसलिये 'ही' के विना किसी वचनसे किसी एक वस्तुका निश्चय नही होसकता है। तथाप्यस्त्येव कुम्भ इत्येतावन्मात्रीपादाने कुम्भस्य स्तम्भाद्यस्तित्वेनापि सर्वप्रकारेणास्तित्वप्राप्तेः प्रतिनियतस्वरूपानुपपत्तिः स्यात् । तत्प्रतिपत्तये स्यादिति शब्दः प्रयुज्यते । स्यात्कथंचित्स्वद्रव्यादिभिरेवायमस्ति; न परद्रव्या. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद्वादम. रा.जै.शा. ॥१७८॥ दिभिरपीत्यर्थः । यत्रापि चासौ न प्रयुज्यते तत्रापि व्यवच्छेदफलैवकारवद् बुद्धिमद्भिः प्रतीयत एव । यदुक्तं सोऽप्रयक्तोऽपि वा तज्ज्ञैः सर्वत्राप्रतीयते । यथैवकारोऽयोगादिव्यवच्छेदप्रयोजनः" । इति प्रथमो भङ्गः। यहांपर शंका होसकती है कि घड़ा है ही इस प्रकार बोलनेसे ही यदि अभिप्राय समझा जाता है तो स्यात् शब्द बोलनेकी क्या आवश्यकता है। परंतु यह शंका योग्य नहीं है। क्योंकि, 'ही' शब्द जो निश्चयवाचक है वह जब 'है' क्रियाके साथ जोडदिया जाता है तब घड़ेके अस्तित्व धर्मका तो निश्चय होजाता है कि घड़ा है ही किंतु नास्तिधर्मका निश्चय नही होसकता कि घड़ा ही है अन्य कुछ नही है। क्योंकि, निश्चयवाचक जो 'ही' शब्द लगाया गया है वह 'है' के साथ लगाया गया है, नकि घड़ेकेॐ साथ । इसलिये फिर भी अन्य वस्तुओंसे घड़ेकी जुदायगी प्रतीत होना दुर्लभ है। इसलिये स्यात् शब्द लगाकर ही प्रत्येक वाक्य छ बोलना चाहिये । भावार्थ-स्यात् शब्दके कहनेसे यह फल होगा कि विधि अथवा निषेधकी मुख्यतासे जो वस्तु बोला जायगा उससे । उसीका विधिनिषेध होगा, अन्यका नहीं । जैसे यह घडा ही है अन्य कुछ नहीं है । यहाँपर इस विधिवाक्यसे घड़ेकी ही विधि ) एक होती है और अन्य सवोंका निषेध होता है । और जो 'है' के साथ 'ही' शब्द बोला जायगा उसका यह फल होगा कि जो Y अमुक वस्तु अस्तिरूप बोली है तो अस्तिरूप ही है निषेधरूप नही है और यदि निषेधरूप ही बोली है तो वह निषेधरूप ही है; विधिरूप नहीं है । जैसे घड़ा है ही ऐसे वाक्यसे यही अर्थ समझा जाता है कि यह घड़ा अस्तिरूप ही है। इस प्रकार प्रत्येक वाक्यमें स्यात् शब्द भी बोलना चाहिये तथा 'ही' शब्द भी बोलना चाहिये । इसीसे यह निर्दोष अर्थ होसकता है कि अमुक वस्तु स्यात् अथवा कथंचित् अथवा खकीय द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा ही है, अन्यकी अपेक्षा नही है । एवं यदि वह अस्तिरूप कहा है तो अस्तिरूप ही है, नास्तिरूप नहीं है । जहापर स्यात् शब्दका मुखसे उच्चारण नहीं किया जाता है वहांपर भी उसको ऊपरसे समझ लेते है । जैसे अन्यका निषेध करनेवाला 'एव' अथवा 'ही' शब्द न बोलनेपर भी वाक्यमें उसका वैसा ही ( अभिप्राय बुद्धिमान् ऊपरसे समझ लेते है । यही कहा है "जिस वाक्यमें स्यात् शब्द नही बोला जाता है वहांपर भी अभिप्रायसे स्यात् शब्दका अर्थ बुद्धिमानोको प्रतीत होजाता है । जैसे जिस वाक्यमें 'एव' अथवा 'ही' शब्द नहीं बोला जाता है उसमें प्रकरणवश बुद्धिमानोंको 'ही' का अर्थ ऊपरसे झलक जाता है । यह प्रथम भा हुआ। स्यात्कथंचिन्नास्त्येव कुम्भादिः । स्वद्रव्यादिभिरिव परद्रव्यादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वाऽनिष्टौ हि प्रतिनियतस्व ॥१७८॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपाऽभावाद्वस्तुप्रतिनियतिर्न स्यात् । न चास्तित्वैकान्तवादिभिरत्र नास्तित्वमसिद्ध मिति वक्तव्यं कथंचित्तस्य वस्तुनि युक्तिसिद्धत्वात्साधनवत् । न हि क्वचिदनित्यत्वादौ साध्ये सत्त्वादिसाधनस्यास्तित्वं विपक्षे नास्तित्वमन्तरेणोपपन्नं; तस्य साधनत्वाऽभावप्रसङ्गात् । तस्माद्वरतुनोऽस्तित्वं नास्तित्वेनाविनाभूतं नास्तित्वं च तेनेति । विवक्षावशाच्चाऽनयोःप्रधानोपसर्जनभावः। एवमुत्तरभङ्गेष्वपिज्ञेयं “अर्पिताऽनर्पितसिद्धेः" इति वाचकवचनात्। इति द्वितीयः। ___ अब दूसरा भंग कहते है। किसी अपेक्षा घटादि समस्त वस्तु नास्तिरूप ही है। जिस प्रकार खद्रव्यादिकी अपेक्षा वस्तु अस्तिरूप होती है उसी प्रकार यदि परकीय द्रव्यादिकी अपेक्षा भी अस्तिरूप ही मानीजाय अर्थात् उसमें नास्तित्व धर्म माना ही न जाय तो किसी भी वस्तुका भेदभावसे भिन्न भिन्न ज्ञान न होसकै । और इसीलिये वस्तुका निश्चय होना दुर्लभ होजाय ।। जो लोग वस्तुमें सदा सर्वथा अस्तित्व धर्म ही मानते है वे भी ऐसा नही कहसकते है कि वस्तुमें नास्तित्व धर्म है ही नहीं। क्योंकि, जैसे एक ही हेतुमें किसी अपेक्षा अस्तित्व तथा किसी अपेक्षा नास्तित्व धर्म ऐसे दोनो ही धर्म दीखते है उसी प्रकार वस्तुओंमें भी नास्तित्व धर्म युक्तिसे किसी प्रकार सिद्ध होसकता है। जो सत्त्वादिरूप हेतु अनित्यत्वादिरूप साध्यमें अस्तिरूप है वही विपक्षकी अपेक्षा नास्तिरूप है । जिसमें साध्य न रहता हो उसको विपक्ष कहते है। ऐसे विपक्षमें जबतक जिस हेतुका || अभाव सिद्ध न होगा तबतक उस हेतुका साध्यके साथ रहना भी असंभव है । क्योंकि, जो विपक्षमें व्यावृत्ति दिखाये विना ही | साध्यस्थल में रहता हो वह हेतु नहीं होसकता है । भावार्थ-जब साध्यस्थानकी अपेक्षा हेतुमें अस्तित्व तथा विपक्षकी अपेक्षा || |नास्तित्व धर्म संभव होता हो तभी उस हेतुको हेतु कहसकते है । यदि हेतुमें विपक्षकी अपेक्षा नास्तित्व धर्म यथार्थमें ही न हो तो वह हेतु विपक्षसे व्यावृत्त रहता है ऐसा कहना भी बन न सके। क्योंकि जो यथार्थमें व्यावृत्तिधर्म सहित नहीं है उसको ऐसा कैसे कह सकते है कि यह अमुकसे व्यावृत्त है। क्योंकि; वस्तुको जितने नामोंसे बोलसकते है उतने धर्म उसमें अवश्य ही होने चाहिये । किसी वस्तुमें किसी एक धर्मको न मानते हुए भी उस वस्तुको उस नामसे पुकारना कितनी मूर्खता है ।। मह अथवा जिन शब्दोको विशेषणरूप बनाकर वस्तुको पुकारते हैं उनको यथार्थमें उस वस्तुके धर्म न मानना कितनी मूर्खता है ! इसलिये यह सिद्ध है कि प्रत्येक वस्तमें अस्तित्वधर्म नास्तित्व धर्मके साथ और नास्तित्व अस्तित्वके साथ नियमसे रहनेवाले Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जै.शा. स्थाद्वादम ॥१७९॥ " अविनाभावी धर्म है । विवक्षाके वश कभी नास्तित्व धर्मको उदासीनरूप देखते हुए अस्तित्व धर्मको प्रधान देखते हैं तथा कभी • अस्तित्व धर्मको अमुख्य रखकर नास्तित्व धर्मको प्रधान मानने लगते है । भावार्थ-इसीलिये एक पदार्थको कभी अस्तिरूप भ कहते है और कभी नास्तिरूप कहते है। "अर्पित तथा अनर्पित नयोंकी अपेक्षासे वस्तुमें भंग हो सकते है" इस प्रकार ग्रन्थकर्ता ओंमें मुख्य श्रीउमास्वामीके वचनानुसार और भी तीसरे आदिक भंगोमें अस्तित्व नास्तित्व धर्मोकी प्रधानता अप्रधानता ॐ समझलेना चाहिये । इस प्रकार दूसरा भग हुआ। तृतीयः स्पष्ट एव । द्वाभ्यामस्तित्वनास्तित्वधर्माभ्यां युगपत्प्रधानतयाऽर्पिताभ्यामेकस्य वस्तुनोऽभिधित्सायां तादृशस्य शब्दस्याऽसंभवादवक्तव्यं जीवादिवस्तु । तथा हि । सदसत्त्वगुणद्वयं युगपदेकत्र सदित्यनेन वक्तुमशक्यं तस्याऽसत्त्वप्रतिपादनाऽसमर्थत्वात् । तथाऽसदित्यनेनापि; तस्य सत्त्वप्रत्यायनसामर्थ्याऽभावात् । न च पुष्पदन्तादिवत्साङ्केतिकमेकं पदं तद्वक्तुं समर्थः तस्यापि क्रमेणार्थद्वयप्रत्यायने सामोपपत्तेः शतृशानयोः संकेतितसच्छन्दवत् । अत एव द्वन्द्वकर्मधारयवृत्त्योर्वाक्यस्य चन तद्वाचकत्वम् । इति सकलवाचकरहितत्वादवक्तव्यं वस्तु युगपत्सदसत्त्वाभ्यां प्रधानभावाप्र्पिताभ्यामाक्रान्तं व्यवतिष्ठते । न च सर्वथाऽवक्तव्यम् । अवक्तव्यशब्देनाप्यनभिधेयत्वप्रसङ्गात् । इति चतुर्थः । शेपास्त्रयः सुगमाभिप्रायाः। तीसरा भग स्पष्ट ही है । अर्थात् जब क्रमसे अस्तित्व और नास्तित्व धर्मकी मुख्यता करते है तब वस्तुका स्वरूप अस्तिनास्तिरूप रहता है । इसलिये वस्तु कथंचित् अस्तिनास्ति ऐसे दोनोरूप है। यह तीसरा भंग हुआ। चौथा भंग कथचित् अवक्तव्यखरूप है। VI जब अस्तित्व नास्तित्व दोनो धर्मोको एक समयमे प्रधान समझते है तब इन परस्परविरुद्ध दोनो धर्मोका एक साथ कहनेवाला कोई भी शब्द न मिलनेसे वस्तुका खरूप अवक्तव्य होजाता है । क्योंकि जितने शब्द हैं उनमेंसे कुछ तो ऐसे है जो वस्तुके किसी ॐ धर्मका अस्तित्वमात्र कहसकते है और कुछ ऐसे है जो नास्तित्वको ही जता सकते है। जो अस्तित्व दिखानेवाले शब्द है वे ना- मैं स्तित्व धर्मको नहीं कह सकते है और जो नास्तित्व धर्मको कहते है उनसे अस्तित्व धर्म कहाजाना असभव है। और जिस प्रकार पुष्पदंत शब्द सकेतित होनेसे किसी विशेषको जतानेवाला है उस प्रकार भी कोई एक शब्द ऐसा संकेतित नहीं है जिसके द्वारा " एक साथ परस्पर विरुद्ध धर्मोंका कहना, समझना होसकता हो ।जो कोई माना भी जाय तो वह क्रमसे ही परस्पर विरुद्ध अर्थोको ॥१७९॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह सकता है, एक साथ नही । जिस प्रकार व्याकरणमें 'शतृ' और 'शान' इन दो प्रत्ययोंकी 'सत्' संज्ञा रक्खी गई है और उसके बोलनेपर 'शत्रू शान' प्रत्यय समझे भी जाते हैं परंतु समझे क्रमसे ही जाते है । 'शतृ' और 'शान' ये दोनो प्रत्यय एक साथ नहीं समझे जाते हैं। या तो 'सत्' संज्ञा सुननेके अनंतर पहिले 'शत्रु' और पीछे 'शान' का बोध होता है और या पहिले 'शान' | पीछे 'शतृ' का । इसीप्रकार द्वन्द्व अथवा कर्मधारय समासके द्वारा परस्पर विरुद्ध धर्मोके वाचक दो शब्दोको मिलाकर एक कर | लेनेके अनंतर भी अथवा एक वाक्यद्वारा परस्पर विरुद्ध दो धर्मोके वाचक दो शब्द बोलनेपर भी एक साथ दोनो धर्मोका | कहना समझना असंभव ही है । इसलिये एक साथ परस्परविरुद्ध दो धर्मोंको बोलनेकी अपेक्षा - एक साथ दो धर्मों का कहनेवाला कोई | शब्द न होनेसे वस्तुका खरूप कथंचित् अवक्तव्य रहता है। वस्तुका अवक्तव्य खरूप कथंचित ही संभवता है किंतु सर्वथा अवक्तव्य भी नहीं है । यदि सर्वथा अवक्तव्य खरूप होता तो अवक्तव्य शब्दसे कहना भी कठिन होजाता । यह चौथा भंग हुआ । स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यान्नास्ति अवक्तव्य तथा स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य ये पांचवें छट्ठे सातवें भंग सुगम | भावार्थ - इन तीनोका स्वरूप जो कुछ कहना था वह ऊपरके कथनसे ही गतार्थ होजाता है और कुछ विशेष कहना नहीं है । न च वाच्यमेकत्र वस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानाऽनन्तधर्माभ्युपगमेनानन्तभङ्गीप्रसङ्गादसङ्गतैव सप्तभङ्गीति; विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुन्यनन्तानामपि सप्तभङ्गीनामेव संभवात् । यथा हि सदसत्त्वाभ्यामेवं सामान्यविशेषाभ्यामपि सप्तभयेव स्यात् । तथा हि । स्यात्सामान्यम् । स्याद्विशेषः । स्यादुभयम् । | स्यादवक्तव्यम् । स्यात्सामान्याऽवक्तव्यम् । स्याद्विशेषावक्तव्यम् । स्यात्सामान्यविशेषाऽवक्तव्यमिति । न चात्र | विधिनिषेधप्रकारौ न स्त इति वाच्यं; सामान्यस्य विधिरूपत्वाद्विशेषस्य च व्यावृत्तिरूपतया निषेधात्मकत्वात् । अथ वा प्रतिपक्षशब्दत्वाद्यदा सामान्यस्य प्राधान्यं तदा तस्य विधिरूपता विशेषस्य च निषेधरूपता । यदा | विशेषस्य पुरस्कारस्तदा तस्य विधिरूपता इतरस्य च निषेधरूपता । एवं सर्वत्र योज्यम् । अतः सुष्ठुकं अनन्ता अपि सप्तभज्य एव भवेयुरिति । ज़ब एक एक वस्तुमें अनंतो अनंतो धर्म हैं और सभी विधीयमान निषिध्यमान हैं तब यदि अनंतो ही भंग होसकते हैं तो सप्तभंगी ही क्यों कहना चाहिये ? यह शंका अनुचित है । क्योंकि, चाहें - कितने ही धर्मोंको अस्तिनास्तिरूप कहा जाय परंतु Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. 1186011 | विधिनिषेधकी अपेक्षा प्रत्येक धर्मके भंग सात ही होंगे । इसलिये सब धर्मोकी सप्तभङ्गी चाहें अनंतो हों परंतु प्रत्येक धर्मके विधिनिषेधकी अपेक्षा सप्तभङ्गी ही कहना उचित है । जिस प्रकार सत् असत् धर्मोकी सप्तभंगी हो सकती है उसी प्रकार सामान्य विशेष इन दो धर्मों की भी सप्तभङ्गी होसकती है । जैसे— प्रत्येक वस्तु कथंचित् सामान्य है, कथंचित् विशेष है, कथंचित् सामान्यविशेष इन दोनोखरूप है, कथंचित् अवक्तव्य है, कथंचित् सामान्य होकर भी अवक्तव्य है; कथंचित् विशेष होकर भी अवक्तव्य है तथा कथंचित् | सामान्य विशेषरूप होकर भी अवक्तव्य है । कदाचित् कहों कि इसमें विधि तथा निषेध नही होसकते है सो भी कहना ठीक नही है । क्योंकि, सामान्य धर्म तो सदा अस्तिरूप है और विशेष धर्म दूसरोका निषेधकर्ता होने से नातिरूप है। इसलिये जैसे अस्ति नास्ति धर्मोमें विधि निषेधकी अपेक्षा सात भग होसकते है उसी प्रकार सामान्य विशेष धर्मों में भी सात भंग होसकते हैं । अथवा इस प्रकार भी इनमें विधि निषेध कहे जा सकते हैं कि ये दोनो सामान्य विशेष शब्द एक दूसरे के विरुद्ध है इसलिये जब सामान्य धर्मकी तो प्रधानता करते है और विशेष धर्मकी अप्रधानता रखते है तब सामान्य तो विधिरूप होजाता है और विशेष धर्म नास्तिरूप होजाता है। और जब विशेषको मुख्य समझकर सामान्यको अमुख्य समझते है तब विशेष धर्म विधिरूप होजाता है और सामान्य निषेधरूप होजाता है। इसलिये स्यात्सामान्य है स्यात् विशेष है इत्यादि प्रकार से सात भंग होसकते है । इसी प्रकार और भी संपूर्ण धर्मो में सात सात भंग घट सकते है । इसीलिये ठीक कहा है कि "अनतो धर्मो में भी विचार करनेपर प्रत्येक के सात सात ही भंग होने से यदि अनंतो भी होंगी तो सप्तभंगी ही होंगी” । प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्य पर्यनुयोगानां सप्तानामेव संभवात् । तेषामपि सप्तत्वं; सप्तविधतज्जिज्ञासानियमात् । तस्या अपि सप्तविधत्वं; सप्तधैव तत्संदेहसमुत्पादात् । तस्यापि सप्तविधत्वनियमः स्वगोचर वस्तुधर्माणां सप्तविधत्वस्यैवोपपत्तेरिति । प्रत्येक पर्यायकी अपेक्षा भंग सात ही इसलिये होते है कि प्रत्येक पर्याय में जिनको कहसकते है ऐसे समाधान अथवा उत्तर सात ही होते है । उत्तर सात ही इसलिये होते है कि उन स्वरूपोंके जानने की इच्छा सात प्रकारसे ही होती है । जाननेकी इच्छा भी सात प्रकार ही इसलिये होती है कि, उस विषयके संदेह सात प्रकारके ही उठते है । और सदेह भी अधिक इसलिये नही उठते कि, प्रत्येक वस्तुमें संभवने योग्य धर्म सात ही है । रा०जै०या ॥१८० Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || इयं च सप्तभङ्गी प्रतिभङ्गं सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा च । तत्र सकलादेशः प्रमाणवाक्यम् । तल्लक्षणं चेदम् । प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधात्मकवस्तुनः कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा यौगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेशः । अस्यार्थः-कालादिभिरष्टाभिः कृत्वा यदभेदवृत्तेधर्मधर्मिणोरपृथग्भावस्य प्राधान्यं तस्मात्कालादिभिर्भिन्नात्मनामपि धर्मधर्मिणामभेदाध्यारोपाद्वा समकालमभिधायकं वाक्यं सकलादेशः। तद्विपरीतस्तु विकलादेशो नयवाक्यमित्यर्थः । अयमाशयः। यौगपद्येनाऽशेषधर्मात्मकं वस्तु कालादिभिरभेदप्राधान्यवृत्त्याऽभेदोपचारेण वा प्रतिपादयति सकलादेशः तस्य प्रमाणाधीनत्वात् । विकलादेशस्तु क्रमेण भेदोपचाराद्भेदप्रा धान्याद्वा तदभिधत्ते तस्य नयात्मकत्वात् । al प्रत्येक सप्तभंगीके प्रत्येक भंगमें कभी सकलादेश खभाव पाया जाता है और कभी विकलादेशरूप स्वभाव पाया जाता है प्रमाणरूप ज्ञानके सूचक वाक्यको सकलादेश कहते हैं और नयरूप ज्ञानके सूचक वाक्यको विकलादेश कहते हैं। प्रमाणरूप ज्ञानसे जाने हुए अनंतधर्मस्वरूप वस्तुको कालादिक आठ निमित्तोंकी अपेक्षासे अथवा अभिन्न भावके संकल्पकी अपेक्षा लेकर एकसाथ कहनेवाला जो वचन हो, जैसे अमुक वस्तु अनंत धर्मात्मक है, उसीको प्रमाणरूप वचन अथवा सकलादेश कहते है । सारांश | यह है कि; वस्तुमें जितने धर्म होते है वे सभी कालादिक आठ निमित्तोंकी अपेक्षा अभिन्न समझे जाते है। सो उन संपूर्ण धर्मो में | तथा उनके धर्मियोंमें परस्पर कालादिकी अपेक्षा अभेद मानकर अभेद भावको प्रधानकर अथवा कालादिसे जो धर्मधर्मी परस्पर अभिन्न | हो रहे है उनमें अभेद दृष्टिका ही आरोपण प्रधान करके संपूर्ण धर्मधर्मी के समूहको जो वचन एक समयमें कहै उसको सकलादेश कहते है। और जो लक्षण प्रयोजनादिक निमित्तोंकी अपेक्षा लेकर वस्तुके धर्मधर्मियोंको भिन्न भिन्न कहनेवाला वाक्य होता है उसको विकलादेश अथवा नयवाक्य कहते है । भावार्थ-सकलादेश तो कालादिकृत अभेदभाव लेकर अथवा भेदरूप उपचार कर एक ही समयमें बस्तुके संपूर्ण धर्मोको एकरूप प्रतिपादन करता है। क्योंकि वह सकलादेशरूप वस्तु प्रमाणज्ञानका ही विषय है । और जो विकलादेश है वह भेद दृष्टिका आरोपण करके अथवा भेदभावकी प्रधानता मानकर क्रमसे एक एक धर्मको लेकर वस्तुखरूपका कथन भिन्नरूप करता है। क्योंकि; विकलादेश वस्तु नयाधीन है। प्रमाणज्ञानतो युगपत् अनंतो Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥१८१ ॥ धर्मो सहित वस्तुको अभेदरूपसे जानता है और जो नयरूप ज्ञान होता है वह वस्तुके एक एक धर्मका क्रमसे ग्रहण करता है । | इसीलिये प्रमाणके विपयको तो सकलादेश कहते है और नयात्मक ज्ञानके विपयको विकलादेश कहते है । कः पुनः क्रमः? किं च यौगपद्यम् ? यदाऽस्तित्वादिधर्माणां कालादिभिर्भेदविवक्षा तदैकशब्दस्यानेकार्थप्रत्यायने | शक्त्यभावात्क्रमः । यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि शब्देनैकधर्मप्र|त्यायनमुखेन तदात्मकतामापन्नस्याऽनेकाशेपधर्मरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्भवाद्यौगपद्यम् । क्रमसे जानना इस शब्दका अभिप्राय तो क्या है और प्रमाण युगपत् समस्त धर्मोंको जानता है ऐसे वाक्यमें जो युगपत् शब्द कहा | उसका अभिप्राय क्या है ? जब एक वस्तुमें रहनेवाले अस्तित्व नास्तित्व आदिक अनंतो धर्मोमं लक्षण प्रयोजनादि कारणो द्वारा भेद| भावकी कल्पना कीजाती है तब एक शब्द के बोलनेसे अनेक धर्मोका प्रतिबोध नही हो सकता है । क्योंकि; उस समय धर्म तो परस्पर " भिन्न भिन्न माने हुए है और एक शब्द अनेक धर्मोका वाचक हो नही सकता है । इसलिये एक वचनसे एक साथ प्रतिपादन न होसकने के कारण प्रत्येक धर्मको क्रमसे ही अनेक शब्दोंद्वारा कहना पड़ता है । इसीको क्रमसे जानना कहते है । और जब उन्ही संपूर्ण धर्मोंको कालादिकी अपेक्षा अभिन्न मानकर सबको एकरूप मानते है तब सभी धर्म एकरूप विवक्षित होनेसे एक ही समय में एक ही शब्दद्वारा पुकारे जा सकते हैं । परंतु तब भी एक शब्द जो बोलते है वह होता किसी न किसी एक ही धर्मका वाचक है किंतु उस एक धर्मकी मुख्यता करके बोलनेसे उसका अर्थ संपूर्ण धर्मोका समुदाय माना जाता है । क्योंकि, उस समय संपूर्ण धर्मोको एकखरूप ही मान रक्खा है । इसीका नाम युगपत् है । अर्थात् एक धर्मकी मुख्यता करके एक शब्द बोलनेपर भी अभेद विवक्षासे संपूर्ण धर्मो में अभेद समझ लेना ही युगपत्शब्दका अर्थ है । के पुनः कालादयः ? कालः आत्मरूपम्, अर्थः, संबन्धः, उपकारः, गुणिदेशः, संसर्गः, शब्द इति । तत्र (2) स्याज्जीवादिवस्त्वस्त्येवेत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेपानन्तधर्मा वस्तुन्येकत्रेति तेषां कालेनाऽभेदवृत्तिः । (२) यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपं तदेवान्यानन्तगुणानामपीति आत्मरूपेणाऽभेदवृत्तिः । ( ३ ) य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवाऽन्यपर्यायाणामित्यर्थेनाऽभेदवृत्तिः । ( ४ ) य एव चाऽवि - ष्वग्भावः कथंचित्तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धोऽस्तित्वस्य स एव शेषविशेषाणामिति सम्बन्धेनाऽभेदवृत्तिः । ( ५ ) रा. जै. शा ॥ १८१ ॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य एव चोपकारोऽस्तित्वेन स्वानुरक्तत्वकरणं स एव शेषैरपि गुणैरित्युपकारेणाऽभेदवृत्तिः । (६) य एव गुणिनः संवन्धी देशः क्षेत्रलक्षणोऽस्तित्वस्य स एवान्यगुणानामिति गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तिः। (७) य एव चैकवस्त्वात्म नाऽस्तित्वस्य संसर्गः स एव शेषधर्माणामिति संसर्गेणाऽभेदवृत्तिः। अविष्वग्भावेऽभेदः प्रधानं भेदो गौणः || जासंसर्गे तु भेदः प्रधानमभेदो गौण इति विशेषः । (८) य एव चास्तीति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकःला कास एव शेषाऽनन्तधर्मात्मकस्यापीति शब्देनाऽभेदवृत्तिः पर्यायार्थिकनयगुणभावे द्रव्यार्थिकनयप्राधान्यादुपपद्यते । NI वे कालादि आठ कारण कोनसे है जिनके द्वारा धर्म धर्मी आदि अनेक भेदरूप वस्तुमें भी अभेद प्रतीत होता है। काल, आत्मरूप || अर्थ, संबन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग, शब्द ये अभेद दिखानेके आठ कारण है ।(१) इनमेंसे जीवादि वस्तु कथंचित् अस्तिरूप । है ऐसा शब्द बोलनेपर जितने समयतक उस जीवादि किसी एक द्रव्यमें अस्तित्व धर्मकी प्रधानता मानी गई हो उतने समयतका बाकीके भी अन्य धर्म उस एक वस्तुमें है इसलिये काल की अपेक्षा वे सर्व अभिन्नरूप है ऐसा मानना चाहिये। (२)जिस प्रकारसे अस्तित्व धर्म उस वस्तुमें वस्तुखरूप है उसी प्रकार और गुण भी उस वस्तुमें वस्तुखरूप ही होकर रहते हैं इसलिये निजपनेकी अपेक्षा वे सर्व एक ही अथवा अभिन्न ही है । (३) द्रव्यनामक जो पदार्थ अस्तित्व धर्मका आश्रय है वही और भी बाकीके अनंतो धौंका अथवा पर्यायोंका आश्रय है इसलिये अर्थ या पदार्थकी अपेक्षा उन सवोंमें अभेद है। (४) जिस होता ऐसा जो द्रव्यके साथ कथंचित् तादात्म्यरूप संबंध अस्तित्वका है वही और गुणोंका भी है इसलिये संबंधकी अपेक्षा वस्तुके धर्म जाधर्मी आदिक खभाव अभिन्न हैं । (५) अस्तित्व धर्मकरिके निज खरूपमें जिस उपकारके द्वारा अनुराग पैदा होता है उसी उपकारके || द्वारा अन्य धर्मो करिके भी वस्तुके खरूपमें अनुराग होता है इसलिये उपकारकी अपेक्षा वस्तुमें अभेदभाव है। (६) जिसमें गुण वसते है ऐसा द्रव्यरूप देश अथवा क्षेत्र जो एक अस्तित्व गुणका है वही क्षेत्र बाकीके अन्य गुणोंका भी है इसलिये गुणविशिष्ट | all | द्रव्यरूप क्षेत्रकी अपेक्षा संपूर्ण धर्मोमें परस्पर अभेदभाव है। (७) एक वस्तुपनेकी अपेक्षा जो अस्तित्वगुणका संसर्ग है वही || और भी शेष गुणोंका संसर्ग है इसलिये संसर्गकी अपेक्षा अभिन्नपना है । यद्यपि वस्तुको संबंधकी अपेक्षा भी ऊपर अभिन्नरूप ही मानचुके है परंतु जब संबधकी अपेक्षा वस्तु और उसके सपूर्ण धर्मोको अभिन्नरूप सिद्ध करते है तब उन सवोमें अविष्वग्भाव माननेसे अभेदविवक्षा प्रधान कीजाती है और भेदभाव अप्रधान रक्खा जाता है। किंतु जब संसर्गकी अपेक्षा अभेदभाव देखते है| Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. राजै.शा. ॥१८२॥ तब भेदभाव तो मुख्य रक्खा जाता है और अभेदभाव अमुख्य रक्खा जाता है। यही संसर्ग तथा संबंधमें अपूर्वता है। (८) धू जो अस्ति अथवा है ऐसा शब्द अस्तित्व धर्मवाले वस्तुको जताता है उसीसे बाकीके अनतो धर्मोंका आश्रयभूत वस्तु भी जताया जाता है इसलिये शब्दकी अपेक्षा भी अनंतो धर्म तथा उसका आधार वस्तु ये सर्व परस्पर अभिन्नरूप है। अर्थात् एक ही ॐ शब्दसे एक वस्तुके संपूर्ण धर्मोका बोध होजाता है इस लिये वस्तुके संपूर्ण अंश अभिन्न अथवा एकरूप ही है। जब पर्यायोंके आविर्भावकी अपेक्षा तो अमुख्य समझी जाती हो और अखडरूप द्रव्यकी अपेक्षा रखनेवाली विवक्षाकी प्रधानता मानी जाती हो तब यह आठों प्रकारका अभेदभाव बनसकता है। 0 द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायार्थिकप्राधान्ये तु न गुणानामभेदवृत्तिः संभवति; समकालमेकत्र नानागुणानाम संभवात् । संभवे वा तदाश्रयस्य तावद्धाभेदप्रसङ्गात् । नानागुणानां सम्बन्धिन आत्मरूपस्य च भिन्नत्वात् आत्मरूपाऽभेदे तेषां भेदस्य विरोधात् । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वादन्यथा नानागुणाश्रयत्वस्य विरोधात् । सम्ब न्धस्य च सम्बन्धिभेदेन भेददर्शनान्नानासम्बन्धिभिरेकत्रैकसम्बन्धाऽघटनात् । तैः क्रियमाणस्योपकारस्य च शू प्रतिनियतरूपस्याऽनेकत्वात् अनेकैरुपकारिभिः क्रियमाणस्योपकारस्य विरोधात् । गुणिदेशस्य च प्रतिगुणं भे दात्तदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशाऽभेदप्रसङ्गात् । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गि भेदात्तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात् । शब्दस्य प्रतिविषयं नानात्वात्सर्वगुणानामेकशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्तेः शब्दान्तर वैफल्यापत्तेश्च । को और जब द्रव्यार्थिक अपेक्षा की अप्रधानता तथा पर्यायोंके आविर्भावकी मुख्यता ली जाती है तब संपूर्ण गुणोंमें परस्पर अमे दभाव नहीं बनसकता है । क्योंकि; (१) एक ही समयमें नाना भावोका होना असंभव है और यदि हों भी तो उन भिन्न भिन्न भावोंके आश्रयरूप जो द्रव्य है वह भी उतने ही भेदरूप होजायगा । (२) और संपूर्ण गुणोंके खरूपमें तथा उनके आश्रयरूप द्रव्यमें परस्पर अनेकपना है । यदि उन गुणोंमें परस्पर भेद न हो तो वे गुण भिन्न भिन्न न गिने जाने चाहिये । (३) और उन गुणोंका आश्रयभूत जो द्रव्य है वह भी नानाप्रकार है। यदि नानारूप न हो तो नाना गुणोंका आश्रय किस प्रकार बनसकै ? (४) और जो अनेक संबंधियोंको संबद्ध रखनेवाले संबंध है वे भी अनेक होने चाहिये । क्योंकि; एक वस्तुमें ॥१८२॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ला अनेक संबंधियोंको संबद्ध रखना एक संबंधके द्वारा नही होसकता है। (५) और उन अनेक गुणों करके किया हुआ उपकार | है वह भी प्रत्येक गुणका जुदा जुदा खरूप होनेसे अनेक प्रकार ही होगा । क्योंकि जो उपकार अनेक उपकारियोकर किया जाता है वह एकरूप नहीं होसकता। (६) जो प्रत्येक गुणका क्षेत्र है वह भी कथंचित् भिन्न भिन्न ही होना चाहिये । क्योंकि यदि क्षेत्र अभिन्न होगा तो उसमें रहनेवाले भिन्न भिन्न प्रयोजनके धारक संपूर्ण गुण भी क्षेत्रकी अपेक्षा एकरूप होजायगे।। (७) इसी प्रकार संसर्ग भी उन प्रत्येक संसर्गियोंकी अपेक्षा भिन्न भिन्न ही है जिनको कि वे मिलाये रखते है। यदि उन गुणोंको मिले हुए रखनेवाला संसर्ग एक ही होता तो मिले हुए जों अनेक गुण है वे भी संपूर्ण एक ही होजाते। (८) इसी प्रकार अस्तित्वादि प्रत्येक धर्मके वाचक शब्द भी भिन्न भिन्न है। यदि संपूर्ण गुणोंका अथवा धर्मोका वाचक एक ही शब्द होता तो संपूर्ण धर्म एक शब्दके ही वाच्य अर्थ होजाते । और जब एक शब्दके अनेको वाच्य अर्थ होजाते तो अन्य || शब्दोंका बोलना भी व्यर्थ होजाता । III तत्त्वतोऽस्तित्वादीनामेकत्र वस्तुन्येवमभेदवृत्तेरसंभवे कालादिभिर्भिन्नात्मनामभेदोपचारः क्रियते । तदेता भ्यामभेदवृत्त्यभेदोपचाराभ्यां कृत्वा प्रमाणप्रतिपन्नाऽनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः समसमयं यदभिधायकं वाक्यं । स सकलादेशः प्रमाणवाक्यापरपर्यायः । नयविषयीकृतस्य वस्तुधर्मस्य भेदवृत्तिप्राधान्याद् भेदोपचाराद्वा क्रमेण यदभिधायक वाक्यं स विकलादेशो नयवाक्यापरपर्याय इति स्थितम् । ततः साधूक्तमादेशभेदोदितसप्त-10 भङ्गम् । इति काव्यार्थः। इस प्रकार पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे यदि विचार किया जाय तो यथार्थमें अस्तित्वादि जो अनेकों धर्म हैं वे एक किसी वस्तुमें| अभेदभावसे नही रहसकते है किंतु कालादि आठों कारणोंके द्वारा परस्पर भिन्नखरूप ही रहैगे। और जब ये इस प्रकार सर्वे [भिन्नखरूपही है तब इनमें कार्यवाहीरूप प्रयोजनके वश अभेदभावका उपचार अथवा आरोप अथवा कल्पना करनी पडती है । इस प्रकार द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यता लेकर पहिले दिखाये हुए अभेदभावके कारण अथवा जब पर्यायार्थिक नयकी मुख्यता लेते है तब अभेदभाव समयमें नही बनसकता है इसलिये प्रयोजनवश आरोपित किये हुए अभेदरूपके कारण अनंतधर्मात्मक वस्तुका एक ही || कहनेवाला जो वाक्य हो वह सकलादेश है । इसीका दूसरा नाम प्रमाणवाक्य है । और नयरूप ज्ञानसे जिसका जानना होता है| Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्साद्वाद. ऐसा जो एकदेशरूप वस्तुका एक धर्म है उसको जो वाक्य भेदभावकी अथवा भेदरूप उपचार की प्रधानता लेकर प्रतिपादन करै वह विकलादेश है । इसीको नयवाक्य भी कहते हैं । इस प्रकार सकलादेश तथा विकलादेश सिद्ध होनेसे यह कहना भी सिद्ध ॥१८३॥ होता है कि सकलादेश विकलादेशरूप आदेशोमेंसे कभी किसीका और कभी किसीका सहारा लेनेसे वस्तुके खरूपमें सात सात IAO) भंग होजाते हैं । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। ___अनन्तरं भगवद्दर्शितस्याऽनेकान्तात्मनो वस्तुनो वुधरूपवेद्यत्वमुक्तम् । अनेकान्तात्मकत्वं च सप्तभङ्गीप्ररूपणेन सुखोन्नेयं स्यादिति सापि निरूपिता । तस्यां च विरुद्धधर्माध्यासितं वस्तु पश्यन्त एकान्तवादिनोऽबुधरूपा विरोधमुद्भावयन्ति । तेषां प्रमाणमार्गाच्यवनमाह। ___अभी पहिले यह कहा कि जिसका प्रतिपादन भगवान् सर्वज्ञने किया ऐसा वस्तुका अनेकान्तात्मक खरूप अच्छे विद्वानोके विचारमें ही आसकता है । और अनेकांतात्मकपनेका ज्ञान सप्तभङ्गीरूप स्याद्वादका प्ररूपण करनेसे ही भलेप्रकार होसकता है क इसलिये पीछे से सप्तभङ्गीका निरूपण भी किया । परंतु नाना प्रकारके अस्तित्व नास्तित्व आदिक परस्परविरुद्ध धर्मोसहित वस्तुको देखते हुए अज्ञानी एकान्तपक्षपाती जन उसमें विरोध समझते हैं । सो अब यह दिखाते हैं कि वे प्रमाणके सच्चे - मार्गसे च्युत है। उपाधिभेदोपहितं विरुद्ध नार्थेष्वसत्त्वं सदवाच्यते च । इत्यप्रबुद्ध्यैव विरोधभीता जडास्तदेकान्तहताः पतन्ति ॥२४॥ मूलार्थ-परस्पर विरुद्ध जो अस्तित्व नास्तित्व तथा अवक्तव्य ये तीन धर्म पदार्थमें आरोपित किये गये हैं वे यद्यपि विवक्षाके 2 वश ठीक हैं इसलिये विरुद्ध नहीं हैं परंतु विवक्षाओंका विचार न करनेवाले तथा एकांतपक्षोंके धारण करनेसे जिनकी बुद्धि कुंठित होगई है तथा जो विरोधको देखकर भयभीत हैं ऐसे मूर्ख मनुष्य मार्गसे पतित होरहे हैं। व्याख्या-अर्थेषु पदार्थेषु चेतनाचेतनेष्वसत्त्वं नास्तित्वं न विरुद्धं न विरोधावरुद्धम् । अस्तित्वेन सह । ॥१८३॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोधं नाऽनुभवतीत्यर्थः । न केवलमसत्त्वं न विरुद्धं किं तु सदवाच्यते च । सच्चाऽवाच्यं च सदवाच्ये।। || तयोर्भावौ सदवाच्यते । अस्तित्वाऽवक्तव्यत्वे इत्यर्थः । ते अपि न विरुद्धे । EL व्याख्यार्थ-चेतन अचेतनरूप पदार्थोंमें रहनेवाला असत्व अर्थात् नास्तित्व धर्म विरोधसहित नहीं है। अर्थात् हमने जो चेतन और जड़रूप संपूर्ण पदार्थोमें नास्तित्व धर्मका आरोपण किया है उसका अस्तित्व धर्मके साथ रहनेसे कुछ विरोध नहीं है। केवल || अस्तित्वके साथ रहनेसे नास्तित्व धर्म ही विरोधरहित हो ऐसा नहीं है किंतु अस्तित्व तथा अवक्तव्य धर्म भी विरोधरहित ही है। अस्तित्वधर्मविशिष्ट वस्तुको सत् कहते है और जो एक साथ विरोधी धर्मोके कारण बोला न जासकै उसको अवाच्य अथवा अवक्तव्य कहते हैं। इन दोनो धर्मोको जब इकठ्ठा बोलते है तब सदऽवाच्य कहते है। इन दोनो धर्मोके भावको जब मिलाकर Jes कहै तो सदवाच्यता कहते है और यदि जुदा जुदा कहै तो सत्त्व तथा अवाच्यत्व अथवा अस्तित्व तथा अवक्तव्यत्व कहते हैं । ये भी दोनो धर्म ऐसे विरोधी नही हैं जो एक वस्तुमें एक साथ न रहसकते हों।। तथा हि । अस्तित्वं नास्तित्वेन सह न विरुध्यते । अवक्तव्यत्वमपि विधिनिषेधात्मकमन्योऽन्यं न विरुध्यते । अथ वा अवक्तव्यत्वं वक्तव्यत्वन साकं न विरोधमुद्वहति । अनेन च नास्तित्वाऽस्तित्वाऽवक्तव्यत्वलक्षणभङ्गत्रयेण|| सकलसप्तभड्या निर्विरोधतोपलक्षिता; अमीषामेव त्रयाणां मुख्यत्वाच्छेषभङ्गानां च संयोगजत्वेनाऽमीष्वेवान्तर्भावादिति । ___ अब ऊपरके कथनको स्पष्ट करते हैं। अस्तित्वधर्मका नास्तित्वधर्मके साथ रहने में विरोध नही है । अवक्तव्यत्व धर्मका विधिया निषेधरूप अस्तित्व तथा नास्तित्व इन दोनो धर्मोके साथ विरोध नही है। अथवा अस्तित्व तथा नास्तित्व धर्म वक्तव्यरूप है इसलिये यों भी कह सकते हैं कि अवक्तव्यत्व धर्मका वक्तव्यत्वधर्मों के साथ रहने में कुछ विरोध नहीं है। इन तीनो| भंगोमें परस्पर अविरोध होनेसे सातो ही भगोमें अविरोध समझ लेना चाहियें। क्योंकि, ये तीन ही भंग मुख्य है, बाकीके IPI चार भंग तो इन्ही तीनोंके संयोगोंसे उपजते हैं इसलिये उनका इन्हीमें अंतर्भाव होजाता है। __नन्वेते धर्माः परस्पर विरुद्धाः। तत्कथमेकत्र वस्तुन्येषां समावेशः संभवति ? इति विशेषणद्वारेण हेतुमाह "उपाधिभेदोपहितम्" इति । उपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकारास्तेषां भेदो नानात्वं तेनोपहितमर्पितम् ( असत्त्वस्य Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥१८४॥ | राजै.शा. विशेषणमेतत् ) उपाधिभेदोपहितं सदर्थेष्वसत्त्वं न विरुद्धम् । सदवाच्यतयोश्च वचनभेदं कृत्वा योजनीयम् । उपाधिभेदोपहिते सती सदवाच्यते अपि न विरुद्धे । कदाचित् ऐसी शंका होसकती है कि ये धर्म परस्पर विरुद्ध है इसलिये इन तीनोंका एक एक पदार्थमें समावेश कैसे होसकता है? इसलिये विरोध न आनेमें हेतुरूप विशेषण कहते हुए उत्तर देते हैं कि "उपाधिभेदोपहितम्" । अर्थात् ये धर्म उपाधियोंके कारण ॐ माने गये हैं इसलिये इनमें परस्पर विरोध नहीं है । विवक्षित किसी वस्तुमें खयं रहकर उसको शेष अनेक वस्तुओंमेंसे जुदा करने२ वाला जो धर्म होता है उसको उपाधि कहा है । अथवा नाना प्रकारके भिन्न भिन्न धर्मों का नाम उपाधि है। उस उपाधिके अनेक भेदोमेंसे किसी एक भेदके वश सत्रूप पदार्थोमें स्थापित किया हुआ जो असत्व है वह विरोधी नही होसकता है । यहांपर उपाधिभेदोपहितम्' ऐसा जो कहा वह नास्तित्वका विशेषण है तथा विरोध न आनेदेनेके लिये हेतु भी है। अर्थात् यह विशेषण हेतुरूप इसलिये है कि सत् पदार्थमें जो नास्तित्व धर्मका स्थापन है वह किसी न किसी व्यावर्तक धर्मके रहनेसे अवश्य मानना पडता है इसलिये अविरोध सिद्ध हो । वहांपर उपाधिका ही नाम व्यावर्तक धर्म है। इसी प्रकार अस्तित्व धर्म तथा अवक्तव्यत्व धर्ममें भी उपाधिके कारण ही अविरोध विचार लेना चाहिये । अर्थात् नाना प्रकारकी उपाधियोंमेंसे किसी एक उपाधिका आश्रय होनेसे ही अस्तित्व तथा अवक्तव्यत्वका भी नास्तित्व धर्मके साथ रहनेमें विरोध नही रहता। 20 अयमभिप्रायः-परस्परपरिहारेण ये वर्तेते तयोः शीतोष्णवत्सहाऽनवस्थानलक्षणो विरोधः। न चात्रैवं; सत्त्वा ऽसत्त्वयोरितरेतरमविष्वग्भावेन वर्त्तनात् । न हि घटादौ सत्त्वमसत्त्वं परिहृत्य वर्तते पररूपेणाऽपि सत्त्वप्रसङ्गात् । तथा च तद्व्यतिरिक्तार्थान्तराणां नैरर्थक्यं तेनैव त्रिभुवनार्थसाध्यार्थक्रियाणां सिद्धेः। न चाऽसत्त्वं सत्त्वं परिहत्य वर्तते स्वरूपेणाऽप्यसत्त्वप्राप्तेः । तथा च निरुपाख्यत्वात्सर्वशून्यतेति। तदा हि विरोधः स्याद्ययेकोपाधिकं सत्त्वमसत्त्वं च स्यात् । न चैवं; यतो न हि येनैवांशेन सत्त्वं तेनैवाऽसत्त्वमपि । किं त्वन्योपाधिक सत्त्वमन्योपाधिकं पुनरसत्त्वम् । स्वरूपेण हि सत्त्वं पररूपेण चासत्त्वम् । ॥१८४॥ साराश यह है कि, शीतउष्णताकी तरह जो धर्म परस्परमेंसे एक दूसरेको हठाकर ही रहते है; किंतु एकसाथ रहते ही नही है । उन धर्मोका ही एक साथ न रहनेरूप विरोध कहाजासकता है। परंतु यहापर ऐसा नही है कि एक साथ सत्त्व असत्व धर्म रहते। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही न हों। क्योंकिः सत्व असत्त्व धर्मोको हम एक दूसरेके साथ अभेदभावसे रहते हुए प्रत्यक्ष देखते है । घड़े आदिकोमें जो घडे आदिकोकी सत्ता रहती है वह असत्ताको छोड़कर कभी नहीं रहती है। यदि सर्वथा सत्ता ही रहै तो उस पदार्थके अतिरिक्त 0 अन्य पदार्थोंकी अपेक्षा भी उस पदार्थका अस्तित्व होना चाहिये । और जो दूसरोकी अपेक्षा भी उसमें अस्तित्व रहेगा अर्थात् || वह पदार्थ दूसरोकी अपेक्षा भी अस्तिरूप माना जायगा तो उसके अतिरिक्त दूसरे पदार्थोंका रहना मानना ही निरर्थक है। क्योंकि वह एक ही पदार्थ तीनो लोकोंके संपूर्ण पदार्थ खरूप होनेसे उसीसे संपूर्ण कार्य सिद्ध होसकते हैं। इस प्रकार जैसे सत्व धर्म असत्वको छोड़कर नहीं रहसकता है तैसे ही असत्व धर्म भी सत्वको छोड़कर नही रहसकता है। क्योंकि सर्वथा असत्व ही हो अर्थात् जैसे धू पर पदार्थोंकी अपेक्षा प्रत्येक वस्तुमें असत्त्व धर्म रहता है तैसे ही यदि निज खरूपकी अपेक्षा भी असत्त्व ही रहेगा तो किसी वस्तुकी सत्ता ही न रहसकेगी और फिर कुछ न रहनेसे सर्वशून्यता होजायगी। और दूसरी बात यह है कि विरोध तभी! आसकता है जब कि सत्त्व तथा असत्त्व ये दोनो धर्म एक किसी अपेक्षासे ही मानेजाय । परंतु ऐसा नहीं है। क्योंकि जिस 10 अंशकी अपेक्षा वस्तुको अस्तिरूप मानते है उसीकी अपेक्षा नास्तिरूप नही मानते है किंतु नास्तिखरूप किसी अन्य अपेक्षासे मानते हैं और अस्तिरूप किसी अन्य अपेक्षासे । अर्थात् निजखरूपकी अपेक्षा तो वस्तुको अस्तिरूप मानते हैं तथा निजसे भिन्न वस्तुओंकी| अपेक्षा उसी वस्तुको नास्तिखरूप मानते है। दृष्टं ह्येकस्मिन्नेव चित्रपटावयविनि अन्योपाधिकं तु नीलत्वमन्योपाधिकाश्चेतरे वर्णाः। नीलत्वं हि नीलीY रागाद्युपाधिकं वर्णान्तराणि च तत्तद्रञ्जनद्रव्योपाधिकानि । एवं मेचकरक्तेऽपि तत्तद्वर्णपुद्गलोपाधिकं वैचित्र्यम वसेयम् । न चैभिदृष्टान्तैः सत्त्वासत्त्वयोभिन्नदेशत्वप्राप्तिश्चित्रपटाद्यवयविन एकत्वात्तत्रापि भिन्नदेशत्वाऽसिद्धेः । पू कथंचित्पक्षस्तु दृष्टान्ते दार्टान्तिके च स्याद्वादिनां न दुर्लभः। अन्यत्र भी इसी प्रकार देखा जाता है। कई रंगोसे रंगा हआ जो चित्र वस्त्र होता है उसमें जो नीलापन दीखपडता है वह तो किसी दूसरी चीजके संबंधसे तथा अन्य जो रंग होते है वे अपनी अपनी कुछ जुदी जुदीही सामग्रियोंसे होते है। इसी प्रकार काला पीला इन दो वर्णोंका जो रंगा हुआ वस्त्र होता है उसमें भी जो जुदे जुदे रंग है वे अपनी अपनी जुदी सामग्रियोंसें ही हुए है। भावार्थ-यद्यपि एक ही आधारमें अपनी अपनी अपेक्षा तो संपूर्ण रंग विद्यमान है परंतु अन्य रंगोंकी अपेक्षा अन्य - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै. खाद्वादर ॥१८५ रंगोंका अभाव भी मानना ही पड़ता है। यदि दूसरों की अपेक्षा भी अभाव नही मानाजाय तो संपूर्ण रंग एक ही होजाने चाहिये। और यदि सर्वथा असत्त्व ही मानाजाय कितु अपनी अपेक्षा भी सत्त्व नही मानाजाय तो सवोंका अभाव ही होजाय । इसलिये निज निजकी अपेक्षा तो उनमेंसे प्रत्येकका सत्त्व रहता है और परखरूपोंकी अपेक्षा असत्त्व रहता है । चित्रविचित्र वस्त्रोंके दृष्टातसे । ऐसा भी नहीं सिद्ध होता है कि सत्त्व तथा असत्त्व ये दोनो धर्म है तो अवश्य परंतु भिन्न भिन्न स्थानपर रहते हो । क्योंकि चित्रवस्त्रादि जो है वह अनेक रंगोका आश्रय होकर भी अखंड एक ही है और इसीलिये उन सपूर्ण रंगोका आधार एक ही । माना जाता है, नकि भिन्न भिन्न । और फिर स्याद्वादियोके पाससे कथंचित् बोलना तो कही छूट ही नहीं गया है । दृष्टांतमें और दाष्टौतमें भी वह विद्यमान है । अर्थात् हम न तो अनेक रंगोके आधारभूत वस्त्रको ही सर्वथा एक कहते है और न सत्त्व यू असत्वके आश्रयको ही सर्वथा अभिन्न कहते है किंतु कथंचित् सत्व असत्वका आश्रय एक है और कथंचित् जुदे जुदे है। एवमप्यपरितोपश्चेदायुष्मतस्तबैकस्यैव पुंसस्तत्तदुपाधिभेदापितृत्वपुत्रत्वमातुलत्वभागिनेयत्वपितृव्यत्वभ्रातृव्यत्वादिधर्माणां परस्परविरुद्धानामपि प्रसिद्धिदर्शनात् किं वाच्यम् ? एवमवक्तव्यत्वादयोऽपि वाच्याः। इत्युक्तप्रकारेण उपाधिभेदेन वास्तवं विरोधाऽभावमप्रबुद्ध्यैवाऽज्ञात्वैव (एवकारोऽवधारणे। स च तेपां सम्यग्ज्ञानस्याभाव एव न पुनर्लेशतोऽपि भाव इति व्यनक्ति) ततस्ते विरोधभीताः सत्त्वाऽसत्त्वादिधर्माणां वहिर्मुखशेमुष्या सं| भावितो यो विरोधः सहाऽनवस्थानादिस्तस्माद्धीतास्त्रस्तमानसाः । अत एव जडास्तात्त्विकभयहेतोरभावेऽपि तथाविधपशुवद्भीरुत्वान्मूर्खाः परवादिनस्तदेकान्तहताः । तेषां सत्त्वादिधर्माणां य एकान्त इतरधर्मनिषेधेन । ॐ स्वाभिप्रेतधर्मव्यवस्थापननिश्चयस्तेन हता इव हताः पतन्ति स्खलन्ति । पतिताश्च सन्तस्ते न्यायमार्गाक्रमणेना| समर्था न्यायमार्गाध्वनीनानां च सर्वेषामप्याक्रमणीयतां यान्तीति भावः। __ हे चिरंजीव ! यदि इतनेपर भी तुमे संतोप नहीं हुआ तो जो पिता होना, पुत्र होना, मामा होना, भानजा होना, काका होना, तथा भतीजा होना इत्यादि धर्म परस्पर विरुद्ध होनेपर भी जो एक ही पुरुषमें संबंधके वश पाये जाते है उनके विषयमें क्या कहोंगे? भावार्थ-जिस प्रकार ये धर्म विरुद्ध होकर भी एक पुरुपमें रहसकते है उसी प्रकार अस्तित्व नास्तित्वादि धर्म भी एक एक वस्तुमें रहसकते है । इसी प्रकार अवक्तव्यत्वादि धर्म मी समझलेने चाहिये । इस प्रकार हमने जो संबधके विशेषपनेसे सच्चा विरोधाभाव ॥१८५। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिखाया है उसको नहीं समझकर ही वादी विरोधसे भयभीत होरहे हैं। अर्थात् सूक्ष्मरूपसे विचार न करनेसे अस्तित्व नास्तित्वादिक धर्मोका बाह्य स्थूल विचार करनेवाली दृष्टिके द्वारा जो परस्पर साथ न रहसकनेरूप दोष संभवता है उससे वे त्रस्त होचुके है। इसीलिये वे जड़ है अर्थात् भयका सच्चा कारण न होनेपर भी वे विना हेतु अज्ञानी पशुओंके समान डरते है इसलिये वे परवादी मुर्ख हैं और एकांतपक्ष धारण करनेके कारण खिन्न होरहे हैं। अर्थात् उन सत्वादि धर्मोमेसे अनिच्छित धर्मका सर्वथा निषेध करके इच्छित धर्मको सिद्ध करनेरूप जो एकान्त पक्षपात है उसके धारनेसे जैसे कोई हतशक्ति होकर पड़जाता है उसी प्रकार अनेक दोष दीखनेपर हताश होकर गिर पड़ते है। और गिरते हुए न्यायमार्गका आक्रमण करनेमें असमर्थ होनेसे उस मार्गमें गमन करते हुए पथिको द्वारा पददलित होते हैं। NI यद्वा पतन्तीति प्रमाणमार्गतश्च्यवन्ते । लोके हि सन्मार्गच्युतः पतित इति परिभाष्यते । अथ वा यथा वज्रा दिप्रहारेण हतः पतितो मूर्छामतुच्छामासाद्य निरुद्धवाक्प्रसरो भवति एवं तेऽपि वादिनः स्वाऽभिमतैकान्तवादेन । का युक्तिसरणिमननुसरता वज्राशनिप्रायेण निहताः सन्तः स्याद्वादिनां पुरतोऽकिंचित्करा वाङमात्रमपि नोच्चार-1] यितुमीशत इति। NI अथवा पड़नेका अर्थ न्यायमार्गसे च्युत होना करना चाहिये। जगत्में उसको पतित कहते हैं जो सत्मार्गसे च्युत होजाता है। अथवा जैसे वज्रादिकसे ताड़ित होनेपर मनुष्य भूमिपर गिर पड़ता है और अधिक मूर्छाको प्राप्त होजानेसे एक वचन भी नही बोल-16 सकता है उसी प्रकार एकान्तपक्षपाती कुवादी भी युक्तिमार्गका अनुसरण न करनेरूप स्वयं माने हुए एकान्तवादरूपी वज्रपातसे ताड़ित होकर स्याद्वादियोंके सन्मुख निस्तेज हो जाते है और एक वचनका भी उच्चारण नही करसकते है । स्तुतिके जो का 'अप्रबुद्ध्यैव' शब्दमें 'एव' शब्द मिला हुआ है उसका निश्चयरूप अर्थ होता है और उससे उनका ज्ञान सर्वथा मिथ्या ही है; किंतु लेशमात्र भी सच्चा नही है ऐसा सूचित होता है। अत्र च विरोधस्योपलक्षणत्वाद्वैयधिकरण्यमनवस्था संकरो व्यतिकरः संशयोऽप्रतिपत्तिविषयव्यवस्थाहानिरित्येतेऽपि परोद्भाविता दोषा अभ्यूह्याः। तथा हि । सामान्यविशेषात्मकं वस्त्वित्युपन्यस्ते परे उपालब्धारो भव न्ति । यथा सामान्यविशेषयोविधिप्रतिषेधरूपयोर्विरुद्धधर्मयोरेकत्राऽभिन्ने वस्तुन्यसंभवाच्छीतोष्णवदिति विरो Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमा धः । न हि यदेव विधेरधिकरणं तदेव प्रतिषेधस्याधिकरणं भवितुमर्हति एकरूपतापत्तेः । ततो वैयधिकरण्यमपि राजै.शा. भवति । अपरं च येनात्मना सामान्यस्याधिकरणं येन च विशेषस्य तावप्यात्मानौ एकेनैव स्वभावेनाधिकरोति ।। ॥१८६॥ द्वाभ्या वा स्वभावाभ्याम् ? एकेनैव चेत्तत्र पूर्ववद्विरोधः । द्वाभ्यां वा स्वभावाभ्यां सामान्यविशेषाख्यं खभा |वद्वयमधिकरोति तदाऽनवस्था। तावपि स्वभावान्तराभ्या तावपि स्वभावान्तराभ्यामिति । । मूल स्तुतिमें एक विरोधका ही निराकरण किया है परंतु वह संकेतमात्र है, इसलिये वादीके दिखाये हुए वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति तथा विषयव्यवस्थाहानि इन दोषोंका भी निराकरण ऊपरसे विचारना चाहिये । वस्तु सामान्यविशेषात्मक है ऐसा हमारे कहनेपर अन्यवादी दोष उठाते है कि विधि तथा निषेधरूप जो सामान्य और विशेष धर्म हैं वे शीत उष्णताके समान एक स्थानमें नही रहसकते है इसलिये विरोध सभव होता है।जो वस्तु अस्तित्वका आधार है वही प्रतिषेध धर्मका आधार नहीं होसकती, नही तो विधि और निषेध एक ही होजायंगे। इस प्रकार वैयधिकरण्य दोष भी आता है। और जिस Y के स्वरूपसे वस्तु सामान्य धर्मका आश्रय है तथा जिस स्वरूपसे विशेष धर्मका आश्रय है उन दोनों खरूपोंको वह जो वस्तु अपने 1 अधीन रखती है सो अपने किसी एक ही स्वभावसे अथवा जुदे जुदे खभावोंसे ? यदि एक ही स्वभावसे उन दोनो स्वरूपोंको धारती है तो पूर्व कहे अनुसार विरोध सभव है और जुदे जुदे खभावोंसे यदि उन सामान्यविशेषरूप दो खभावोंको वह वस्तु V अपनेमें धारती हो तो आगे भी ऐसे ही दो दो खभाव मानने पड़ेंगे इसलिये कहीं स्थिति ही न रहेगी। क्योंकि, उन दो खभा वोंको धारण करनेकेलिये भी अन्य दो खभाव मानने ही चाहिये तथा फिर भी उन दो खभावोंको धारनेकेलिये दूसरे दो खभाव मानने चाहिये । इस प्रकार कही भी ठिकाना नही रहेगा । इसीको अनवस्था दोष कहते है। येनात्मना सामान्यस्याधिकरणं तेन सामान्यस्य विशेषस्य च, येन च विशेपस्याधिकरणं तेन विशेषस्य सामान्यस्य चेति संकरदोषः । येन स्वभावेन सामान्यं तेन विशेषो, येन विशेषस्तेन सामान्यमिति व्यतिकरः । ततश्च वस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्तेः संशयः। ततश्चाऽप्रतिपत्तिः । ततश्च प्रमाणविषयव्यवस्थाहानिरिति । एते च दोषाः स्याद्वादस्य जात्यन्तरत्वान्निरवकाशा एव । अतः स्याद्वादमर्मवेदिभिरुद्धरणीयास्तत्तदुपपत्तिभिरि | स्वतन्त्रतया निरपेक्षयोरेव सामान्यविशेषयोर्विधिप्रतिषेधरूपयोस्तेपामवकाशात् । ६॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाद्वादम. कथंचित् अस्तिरूप है और कथंचित् नास्तिखरूप है । भावार्थ- इस चतुर्थ भेदके दो पक्षोसे यह दिखाया है कि एक ही वस्तु राजै.शा. कथंचित् विद्यमानरूप तथा कथंचित् अभावरूप है। ॥१८॥ | हे विपश्चितां नाथ संख्यावतां मुख्य! इयमनन्तरोक्ता निपीततत्त्वसुधोद्गतोद्भारपरम्परा तवेति प्रकरणात्सामकाद्वा गम्यते । तत्त्वं यथावस्थितवस्तुस्वरूपपरिच्छेदस्तदेव जरामरणापहारित्वाद्विवुधोपभोग्यत्वान्मिथ्यात्वविपोमिनिराकरिष्णुत्वादान्तराहादकारित्वाच्च पीयूषं तत्त्वसुधा । नितरामनन्यसामान्यतया पीता आस्वादिता या तत्त्वसुधा तस्या उद्गता प्रादुर्भूता तत्कारणिका उद्गारपरम्परा उद्गारश्रेणिरिवेत्यर्थः। यथा हि कश्चिदाकण्ठं पीयूपरसमापीय तदनुविधायिनीमुद्गारपरम्परां मुञ्चति तथा भगवानपि जरामरणापहारितत्त्वामृतं स्वैरमास्वाद्य तद्रसानुविधायिनी प्रस्तुताऽनेकान्तवादभेदचतुष्टयीलक्षणामुद्गारपरम्परां देशनामुखेनोद्गीर्णवानित्याशयः। । हे विद्वानोके नाथ! अर्थात् प्रख्यात पण्डितोके मुखिया ! यह अभी कही जो स्यान्नित्यानित्यादिरूप व्याख्या है वह ऐसी भास-|| जाती है मानों आपने जो तत्वरूपी सुधाका पान किया है उससे उठी हुई उद्गारोकी परंपरा है। प्रकरणवश अथवा आपके संबंधकास वर्णन होनेसे हम जानते है कि वह उद्गारपरंपरा आपकी ही है। जिस प्रकार पदार्थ है उनका उसी प्रकार निश्चय करनेको तत्व कहते हैं । जरामरणका नाश करनेवाला होनेसे, विवुधोका ( विद्वान् तथा पण्डितोका ) उपभोग्य होनेसे, मिथ्यात्वरूपी विषको || निर्विष करनेवाला होनेसे तथा हृदयको आल्हादकारी होनेसे यह तत्वज्ञान ही अमृत है। भावार्थ-जिसके पीनेसे बुढापा न हो । तथा मरण न हो उसीको सुधा कहते हैं । तथा विबुध नाम विद्वानोंका तथा देवोंका है सो जिस प्रकार सुधाको विबुध पीते हैं अर्थात् देवता पीते हैं उसी प्रकार इस तत्वरूपी सुधाको भी विवुध पीते हैं अर्थात् विद्वान् पीते है। जिस तत्वसुधाको दूसरे नहीं पीसके हैं ऐसी तत्वसुधाको जो आपने पीया है उसमेंसे उत्पन्न हुए उद्गारोंकी यह परंपरा समझनी चाहिये जो स्यादस्ति स्यान्नास्ति इत्यादि वचन निकले है । सारांश यह है कि जिस प्रकार कोई प्राणी गलेतक अमृत पीकर पीछे वारंवार डकार लेता है उसी Mal॥१८८॥ प्रकार भगवान्ने भी खाधीन होकर जरामरणका नाशक तत्वरूपी अमृत पीकर उसके अनंतर उपदेशके वहाने होनेवाली अनेकांतके अंशरूप स्यादस्ति स्यान्नास्ति, स्यान्नित्यं स्यादनित्यम् , स्याद्वक्तव्यं खादवक्तव्यम् , स्यात्समानं स्यादसमानम् ऐसे चारभेदरूप यह उद्गारोंकी परंपरा निकाली है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. ॥१८७॥ सपूर्ण दोषोंका ग्रहण इसी विरोधशब्दसे होसकता है। ऐसा अर्थ माननेपर 'विरोवसे भयभीत होकर' ऐसे गन्दका अर्थ | रा.जै.शा. ऐसा ही करना चाहिये कि 'विरोध वैयधिकरण्य अनवस्था आदिक जो दोप संभव होसकते है उनसे भयभीत होकर' । इस प्रकार ॐ सामान्य दोषवाची विरोध शब्दसे ही संपूर्ण दोषोंका ग्रहण होसकता है । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। ___ अथाऽनेकान्तवादस्य सर्वद्रव्यपर्यायव्यापित्वेऽपि मूलभेदापेक्षया चातुर्विध्याभिधानद्वारेण भगवतस्तत्त्वाऽमृतरसास्वादसौहित्यमुपवर्णयन्नाह। यद्यपि अनेकान्तवाद संपूर्ण द्रव्य पर्यायोंमें व्यापता है परंतु मुख्य भेदोंकी अपेक्षा उसको चार प्रकारसे दिखाते हुए तथा भगवान्ने तत्वरूपी अमृतरसका आखादन कराकर हमारा अत्यंत हित किया इस वातका वर्णन करते हुए अब बोलते है। स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव ॥ विपश्चितां नाथ निपीततत्त्वसुधोद्गतोद्गारपरम्परेयम् ॥ २५॥ मलार्थ-हे विद्वानोके शिरोमणि प्रभो! आपने जो अनेकान्त तत्वरूपी अमृतको पीया उसीसे यह उद्गार उत्पन्न हुआ है कि एक ही वस्तु कथंचित् नश्वर है कथंचित् नित्य है, कथंचित् समान है, कथंचित् असमान है, कथंचित् वक्तव्य है कथंचित् ॐ अवक्तव्य है, कथंचित् सत्रूप है और कथंचित् असत्रूप है। व्याख्या-स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकमष्टास्वपि पदेषु योज्यम् । तदेवाधिकृतमेवैकं वस्तु स्यात्कथंचिन्नाशि विनशनशीलमनित्यमित्यर्थः । स्यान्नित्यमविनाशधर्मीत्यर्थः । एतावता नित्यानित्यलक्षणमेकं विधानम् । तथा स्यात्सदृशमनुवृत्तिहेतुसामान्यरूपम् । स्याद्विरूपं विविधरूपं विसदृशपरिणामात्मकं व्यावृत्तिहेतुविशेषरूपमित्यर्थः। ५ अनेन सामान्यविशेषरूपो द्वितीयः प्रकारः। व्याख्यार्थ-अनेकान्त अर्थका प्रकाशक जो 'स्यात्' अव्यय पद है उसको आठो ही वचनोंके साथ लगाना चाहिये । जैसे ॥१८७॥ १ (१) स्यात् नाशि, (२) स्यात् नित्यम् , (३) स्यात् सदृशम् , (४) स्याद्विसदृशम् , (५) स्याद्वाच्यम् , (६) स्यात् न वा च्यम् , (७) स्यात् सत् , (८) स्यात् असत् ऐसे आठो ही पक्षों में स्यात् शब्द लगाया जाता है। जो प्रत्येक लिङ्गोका, Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक वचनका तथा प्रत्येक विभक्तीका संबन्ध होनेपर अपने आकारको न बदलै उसको अव्यय कहते हैं। अव्यय है सो शब्दोका | एक भेद है। श्लोकमें जो 'तदेव' शब्द पड़ा है उसका अर्थ ऐसा होता है कि-वही प्रकरणगत एक वस्तु । स्यात् शब्दका अर्थ कथचित् होता है । अर्थात् एक ही वस्तु कथंचित् नाशरूप खभावकरि सहित है। भावार्थ-अनित्य है । यह तो प्रथम पक्षका अर्थ हुआ। दूसरे पक्षका अर्थ ऐसा है कि स्यात् नित्य है अर्थात् जो वस्तु अनित्य थी वही कथंचित् अविनश्वरधर्म सहित है। इन दो पक्षोके कहनेका यह अभिप्राय हुआ कि एक ही वस्तु नित्यानित्यपने करि सहित है अर्थात् कथंचित् नित्यानित्यपना वस्तुका एक प्रकार लक्षण है । यह नित्यानित्यपना वस्तुका एक अंग है । तीसरे पक्षमें जो स्यात् सदृश कहा है उसका अर्थ ऐसा है कि वही एक वस्तु कथंचित् साधारण धर्म विशिष्ट है । जिस समानतारूप धर्मके द्वारा वस्तुके प्रत्येक पर्यायमें तथा अन्य वस्तुओंमें भी समानपना भासता हो उसी धर्मको साधारण धर्म अथवा अनुवृत्तिहेतु सामान्य कहते है। चतुर्थ पक्षका अर्थ ऐसा है कि वहीं एक वस्तु कथंचित् असमान है । जिस धर्मके देखनेसे उस धर्मविशिष्ट वस्तुको अन्य वस्तुओंसे भिन्न समझ सकते है उस धर्मको असमान अथवा विशेष या विसदृश अथवा व्यावृत्तिहेतु असाधारण धर्म कहते हैं। इन दूसरे दो पक्षोके वर्णनसे वस्तुका सामान्यविशेषात्मकपना दूसरा खरूप बताया है। तथा स्याद्वाच्यं वक्तव्यम् । स्यान्न वाच्यमवक्तव्यमित्यर्थः। अत्र च समासेऽवाच्यमिति युक्तं तथाप्यवाच्यपदं योन्यादौ रूढमित्यसभ्यतापरिहारार्थ न वाच्यमित्यसमस्तं चकार स्तुतिकारः । एतेनाभिलाप्याऽनभिलाप्यस्वरूपस्तृतीयो भेदः। तथा स्यात्सद् विद्यमानमस्तिरूपमित्यर्थः । स्यादसत्तद्विलक्षणमिति । अनेन सदसदाख्या चतुर्थी विधा। इसी प्रकार पांचवें छटे पक्षोंका यह अर्थ है कि वही वस्तु कथंचित् वाच्य है तथा कथंचित् नहीं वाच्य है; अर्थात् अवक्तव्य है। यहांपर श्लोकमें यदि स्तुतिकर्ता चाहते तो 'वाच्य नहीं' इन दो शब्दोंकी जगह 'अवाच्य' ऐसा संक्षिप्त एक शब्द भी] कहसकते थे परंतु लोकमें अवाच्य शब्दका अर्थ कुत्सित योनि आदिक होता है इसलिये संक्षिप्त एक शब्द न कहकर नहीं वाच्य | ऐसे दो शब्द ही कहे हैं। इन तृतीय दो पक्षोके कहनेसे वस्तुका ऐसा खरूप प्रतिभासित होता है कि वस्तुको कथंचित् तो| वचनद्वारा कहसकते है और कथंचित् कह ही नहीं सकते है। इसी प्रकार सातवें तथा आठवें भंगोसे यह दिखाते है कि वस्तु Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादमयंचित् अग्निरूप है और कथनित् नाम्निमरूप है । भावार्थ-पम नतु भेद को भोग मा दिवा विपक्षी बन्नु । गजे.या. कवंचित् विद्यमानरूप नथा कथंनित् अभाररूप है। ॥१८॥ हे विपश्चितां नाथ संख्यावतां मुख्य! इयमनन्तगेक्का निपीतनत्वगुधोजनोहासारम्पग नोति प्रकरणात्मानपाद्वा गम्यते । तत्वं यथावस्थितवस्तुबम्पपरिच्छेदस्तदेव जगमगणापहारिवादियोपभोग्यत्वान्निध्यात्वविरो-" मिनिराकरिष्णुत्वादान्तराहादकारित्वाच पीयूपं तन्यमुधा । नितरामनन्यमानान्गनया पीना आन्यादिना या ।। तत्त्वसुधा तस्या उद्गता प्रादुर्भुता तरकारणिका उदारपरम्परा उद्धार श्रेणिनित्यर्थः । वसा हि कश्चिदारुण्ठं पीयूष ! रसमापीय तदनुविधायिनीमुद्गारपरम्परां मुशनि तथा भगवानपि जरामरणापारिनचामृतं बरमान्याय तद्रसानुविधायिनी प्रस्तुताऽनेकान्तवादभेदचतुष्टयीलक्षणामुगारपरम्परां देशनानुनोद्गीण यानित्याशयः। . हे विद्वानोके नाय! अर्थात् प्रध्यान पण्डितोके दुनिया ! या जनी कही जो सामन्यागिन्याविरमागासली नाम ती है मानों आपने जो नत्वरूपी सुवाका पान लिया उसने उठी मागेही प ता चला वर्णन होनेसे हम जानते है कि वाद उद्गारपरंपग आपकी राशिम पर पानी पर निभा करने को तत कहते हैं । जरामरणका नाश करनेगला होनसे, नियोहा (पिलान् तथा परियोग) उपभोग्य होनेने, मिनापकीपिको निर्विप करनेवाला होनेमे तथा उदयको मालाकारी होने का नलगानदीनन । भार्थ-नाम पीनेमे गुम्पा नहो तथा मरण न हो उसीको मुभा कहते हैं। तथा बुिध नाम मिमनोनया देinमोमि प्रकारको पाने है अयोन्। देवता पीते हैं उसी प्रकार इन नत्वरूपी मुभाको भी विष पीने मशीन पिरान् पीमि नगनुमामो मरे नी पीन है प्रेमी तत्वसुधाको जो आपने पीया उगमेंगे उत्पज हुए. उमारोही यह परंपरा मगरनी नाहिये जो मामि म्यागामि इत्यादि वनन निकले हैं । सारांश यह है कि जिस प्रकार कोई पाणी गोता अन पीकर पीछे वागार कार लेता है उनी । प्रकार भगवान्ने भी साधीन होकर जरामरणका नाशक तत्वरूपी भगत पीकर उसके अनंतर उपदेन नहाने होनेवाली अनेकां ॥१८॥ कातके अंशरूप स्पादनि स्यान्नामि, म्यानित्यं स्यादनित्यम्, साहलयं सादरका , गासमाने म्पादनमानम् मे चारभेदम्प! यह उद्गारोंकी परंपरा निकाली है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ वा यैरेकान्तवादिभिर्मिथ्यात्वगरल भोजनमातृप्ति भक्षितं तेषां तत्तद्वचनरूपा उद्गारप्रकाराः प्राक्प्रदर्शिताः। यैस्तु पचेलिमप्राचीनपुण्यप्राग्भारानुगृहीतैर्जगद्गुरुवदनेन्दुनिःस्यन्दि तत्त्वामृतं मनोहत्य पीतं तेषां विपश्चितां यथार्थवादविदुषां हे नाथ इयं पूर्वदलदर्शितोल्लेखशेखरा उद्द्वारपरम्परेति व्याख्येयम् । अथवा ऐसा अर्थ करना चाहिये कि जिन एकान्तवादियोंने मिथ्यात्वरूपी विषभोजन तृप्तिपर्यत खाया है उन सबके वचनो द्वारा निकले हुए नाना प्रकारके उद्गार तो पहिले दिखा चुके है परंतु विपाक समयको प्राप्त हुए पूर्ववद्ध कर्मोंके भारसे अनुगृहीत जिन मनुष्योने जगद्गुरु भगवान्‌के मुखचंद्रसे झरता हुआ वचनरूपी तत्वामृत पीया उन यथार्थ वक्ता विद्वानोंके मुखसे निकली हुई जिसका कि श्लोकके पहिले आधे हिस्सेमें उच्चारण किया है ऐसी यही सर्वोत्कृष्ट उद्गारपरंपरा है । एते च चत्वारोऽपि वादास्तेषु तेषु स्थानेषु प्रागेव चर्चिताः । तथा हि । आदीपमाव्योमेति वृत्ते नित्याऽनित्यवादः । अनेकमेकात्मकमिति काव्ये सामान्यविशेषवादः । सप्तभङ्गयामभिलाप्याऽनभिलाप्यवादः सदसद्वादश्च । इति न भूयः प्रयासः । इति काव्यार्थः । इन स्यान्नित्य स्यात् अनित्यादि चारो ही वादोको हम यथाप्रसंग दिखाचुके है इसलिये फिरसे दिखानेका प्रयास करना व्यर्थ है । 'आदीपमाव्योम' इत्यादि पांचवें काव्य में तो नित्यानित्यवादका विवेचन है; 'अनेकमेकात्मकम्' इत्यादि चौदहवें काव्यमें दूसरे सामान्यविशेषरूप वादका विचार है और चौवीसवें काव्यकी व्याख्यामें तीसरे वक्तव्यअवक्तव्यखरूपका निरूपण है तथा चौथे अस्तिनास्तिवादका भी प्रतिपादन वहां ही है। इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ । इदानीं मित्यानित्यपक्षयोः परस्परदूषण प्रकाशनबद्धलक्षतया वैरायमाणयोरितरेतरोदीरितविविधहेतुहेतिसंनिपातसंजातविनिपातयोरयत्नसिद्धप्रतिपक्षप्रतिक्षेपस्य भगवच्छासनसाम्राज्यस्य सर्वोत्कर्षमाह । अब यह दिखाते है कि जो सर्वथा नित्य तथा अनित्यपक्ष माननेवाले और परस्पर दोष दिखाना ही है मुख्य कर्तव्य जिन्होंका ऐसे तथा जो एक दूसरेका खंडन करनेकी इच्छासे नानाप्रकारके हेतुवचनरूपी शस्त्रोंका प्रहार करनेसे भूमिपर वैरियोंके समान पड़ते हुए ऐसे जो, हे भगवन् ! आपके वादी है उनका निराकरण आपसके खंडन करनेसे ही बिना प्रयत्न होजाता है इसलिये आपके शासनका वैभव सर्वोत्कृष्ट स्वयमेव हो रहा है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. राजै.शा. ॥१८९॥ य एव दोषाः किल नित्यवादे विनाशवादेऽपि समास्त एव । परस्परध्वंसिषु कण्टकेषु जयत्यधृष्यं जिनशासनं ते ॥२६॥ मूलार्थ सर्वथा नित्यपक्ष माननेमें जैसे दोप संभवते है तैसे ही सर्वथा अनित्य मानने में भी संभवते है । भावार्थ-जिस रि सर्वथा अनित्यवाद माननेमें नित्यवादी कुछ दूषण दिखाता है उसीप्रकार सर्वथा नित्यपक्षमें अनित्यपक्षवाला भी कुछ दूषण 7 दिखाता है इसलिये एकदूसरेसे ही उन दोनोंका निराकरण होजाता है । इस प्रकार हे भगवन् । कंटकोका नाश परस्पर ही होजा-198 नेपर आपका जिनशासन विनापरिश्रम यों ही विजयलक्ष्मीको प्राप्त होरहा है। __ व्याख्या-किलेति निश्चये। य एव नित्यवादे नित्यैकान्तवादे दोपा अनित्यैकान्तवादिभिः प्रसञ्जिताः क्रम५ योगपद्याभ्यामर्थक्रियाऽनुपपत्त्यादयस्त एव विनाशवादेऽपि क्षणिकैकान्तवादेऽपि समास्तुल्या नित्यैकान्तवादि भिः प्रसज्यमाना अन्यूनाधिकाः । तथा हि । * व्याख्यार्थ-लोकमें जो 'किल' शब्द पड़ा है उसका अर्थ 'निश्चयसे' ऐसा होता है । जो दोप सर्वथा नित्यपक्ष मान नेमें सर्वथा अनित्य पक्ष माननेवालोंने दिखाये है वे ही अनित्यपक्षमें अर्थात् सर्वथा क्षणिकपक्ष माननेंमें नित्यपक्षवालोने दिखाये है। वे ही कहनेसे ऐसा अभिप्राय है कि दोनो पक्षोंमें समान ही दोप संभव है; न तो हीन हैं और न अधिक । कमसे अथवा एकसाथ * प्रयोजनीभूत क्रियाओंका न होसकना इत्यादि वे दूषण है। नित्यवादी प्रमाणयति 'सर्व नित्यं सत्त्वात् । क्षणिके सदसत्कालयोरर्थक्रियाविरोधात्तल्लक्षणं सत्त्वं नावस्थां वनातीति । ततो निवर्तमानमनन्यशरणतया नित्यत्वेऽवतिष्ठते । तथा हि । क्षणिकोऽर्थः सन्वा कार्य कुर्यादसन्वा ? गत्यन्तराऽभावात् । न तावदाद्यः पक्षः, समसमयवर्तिनि व्यापाराऽयोगात् सकलभावानां परस्परं कार्यकारणभावप्राप्त्याऽतिप्रसङ्गाच्च । नापि द्वितीयः पक्षः क्षोदं क्षमते; असतः कार्यकरणशक्तिविकलत्वात् । अन्यथा शशविपाणादयोऽपि कार्यकरणायोत्सहरन् विशेषाऽभावात्' इति । नित्यवादी अनित्यवादीसे कहता है कि सत् होनेके कारण सपूर्ण वस्तु नित्य ही है। जो नित्य होता है वही सत् या अस्तिरूप ॥१८॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहसकता है। जो क्षणिक होगा अर्थात् क्षणक्षणमात्रमें नष्ट होजाता होगा वह न तो अपने रहते हुए ही कोई क्रिया करसकता है जिससे || कि कुछ प्रयोजन सधै; और न नष्ट होनेपर ही। इसलिये वस्तुको क्षणिक माननेसे किसी प्रकार भी स्थिरता नहीं होसकती है। इइ प्रकार अनेक दूषण संभव होनेसे तथा अन्य शरण न दीखनेपर लौटकर नित्यपक्षमें ही विश्वास जमता है । भला क्षणिक पदार्थ अपनी स्थितिके समय ही कार्योको करता है कि नष्ट होजानेके बाद? क्योंकि उसमें दूसरा विचार तो हो ही नही सकता है। पदार्थ विद्यमान रहनेके समय उस पदार्थसे कार्यकी उत्पत्ति होना मानना तो ठीक नहीं। क्योंकि, क्षणिक पदार्थ जिस समय उत्पन्न होता है उसी समय ठहरता है, फिर तो नष्ट ही होजाता है इसलिये जबतक खयं भी उत्पन्न नही होचुका है किंतु उत्पन्न होरहा है तबतक दूसरेको उत्पन्न किस प्रकार करसकता है ? भावार्थ-प्रत्येक वस्तुसे कुछ कार्य तभी होसता है जब वह वस्तु उत्पन्न होचुकती है। और यदि कार्यके साथ उपादान कारणरूप पर्यायका कुछ संवन्ध ही नहीं होता किंतु पूर्व पर्याय आगेकी कोई पर्याय उत्पन्न किये बिना ही नष्ट होजाता हो तो समग्र वस्तु परस्परमें भी एक दूसरेके कार्यकारणरूप क्यों नही होजाते 2 इस प्रकार क्षणिक पदार्थसे || उत्पत्तिके समय कार्य उत्पन्न होना तो हो नहीं सकता है परंतु पदार्थ नष्ट होजानेके अनंतर भी उस नष्ट हुए पदार्थसे किसी| Halकार्यकी उत्पत्ति होना असंभव ही है। क्योंकि जब कारणरूप पदार्थ खयं ही विद्यमान नहीं है तब दूसरे कार्योंको क्या उत्पन्न करैगा ? नही तो खरघोषके सीगोसे भी कुछ कार्य उत्पन्न होनेलगे तो कौन रोकैगा ? क्योंकि, असत्पनेसे दोनोमें कुछ विशेषता तो है नाहीं नहीं। इस प्रकार नित्यवादी अनित्यपना माननेमें दोष दिखाता है। अनित्यवादी नित्यवादिनं प्रति पुनरेवं प्रमाणयति 'सर्व क्षणिक सत्त्वात् , अक्षणिके क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधादर्थक्रियाकारित्वस्य च भावलक्षणत्वात् । ततोऽर्थक्रिया व्यावर्त्तमाना स्वक्रोडीकृतां सत्तां व्यावशर्तयेदिति क्षणिकसिद्धिः। न हि नित्योऽर्थोऽर्थक्रियां क्रमेण प्रवर्तयितुमुत्सहते, पूर्वार्थक्रियाकरणस्वभावोपमर्द-al द्वारेणोत्तरक्रियायां क्रमेण प्रवृत्तेः; अन्यथा पूर्वक्रियाकरणाऽविरामप्रसङ्गात् । तत्स्वभावप्रच्यवे च नित्यता | प्रयाति; अतादवस्थ्यस्याऽनित्यतालक्षणत्वात् । ___ अब अनित्यवादी नित्यवादीके समक्ष इस प्रकार अपना अनित्यपना सिद्ध करता है कि सत्रूप होनेसे संपूर्ण पदार्थ क्षणिक ही हैं। यदि क्षणिक न मानकर नित्य ही माने जाय तो जिससे कुछ प्रयोजन सधसकता हो ऐसी क्रिया न तो क्रमसे ही उपजसकती है और Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादमं. रा.जै.शा ॥१९॥ नित्य पूर्वक्रिया होती कि न एकसाथ । जो प्रयोजनकारी क्रियाका होना है वह तो कूटस्थरूप स्थितिको बदलनेवाला ही है । क्योंकि, जो पदार्थमें क्रियाका धु परिवर्तन होता है वह तबतक नही संभव है जबतक उस पदार्थका खयं परिवर्तन न माना जाय । इसलिये जो प्रयोजनभूत क्रिया बदलेगी वह अपने साथ रहनेवाली सत्ताको अवश्य बदलादेगी। और जब सत्ता बदलेगी तब क्षणिकपना होगा ही। जो पदार्थ सर्वथा सदा नित्य है अर्थात् कूटस्थ है उसके द्वारा प्रयोजनीभूत क्रियाकी उत्पत्ति क्रमसे तो हो नहीं सकती है। क्योंकि, जब पूर्वमें प्रवर्तती हुई क्रियाका नाश होजायगा तमी पहिली क्रिया बदलकर दूसरी क्रिया होसकैगी । जब पदार्थ सर्वथा नित्य है तो उसमें न तो पूर्व क्रियाका नाश ही संभव है और न उत्तरक्रियाकी उत्पत्ति ही संभव है । यदि पूर्वक्रियाका विनाश हुए बिना ही उत्तर क्रियाका प्रादुर्भाव होता हो तो प्रत्येक पदार्थकी पूर्वक्रिया नष्ट ही न होती किंतु चलती ही रहतीं । और यदि पूर्व क्रियाका नाश होकर उत्तर क्रियाकी उत्पत्ति होना मानते है तो पूर्वखभावका नाश होना ही अनित्यपना है इसलिये नित्यपना नहीं रहता है । क्योंकि, जैसाका तैसा न रहनेको ही अनित्यता कहते है। ___ अथ नित्योऽपि क्रमवर्तिनं सहकारिकारणमर्थमुदीक्षमाणस्तावदासीत् । पश्चात् तमासाद्य क्रमेण कार्य कुर्यादिति चेन्न; सहकारिकारणस्य नित्येऽकिंचित्करत्वात्, अकिञ्चित्करस्यापि प्रतीक्षणेऽनवस्थाप्रसङ्गात् । नापि यौगपद्येन नित्योऽर्थोऽर्थक्रियां कुरुते; अध्यक्षविरोधात् । न ह्येककालं सकलाः क्रियाः प्रारभमाणः कश्चिदुपलभ्यते । करोतु वा। तथाप्याद्यक्षणे एव सकलक्रियापरिसमाप्तर्द्वितीयादिक्षणेष्वकुर्वाणस्याऽनित्यता बलादाढौकते; करणाकरणयोरेकस्मिन्विरोधात्' इति। शंका-जिससे कार्य उत्पन्न होनेवाला है वह चाहै नित्य ही है परंतु प्रत्येक उपादानकारण सहकारी कारणों की प्रतीक्षा अवश्य करता है और सहकारी पदार्थ क्रमवर्ती होते है इसलिये सहकारी जब मिलते है तभी उपादान कारण कार्यको जन सकता है, किंतु पहिले नही । इस प्रकार नित्य पदार्थसे भी क्रमपूर्वक कार्यकी उत्पत्ति होना अनुचित नहीं है। उत्तर-यह कहना ठीक नही है। ॐ y क्योंकि जो सर्वथा कूटस्थ है उसमें सहकारी भी कुछ फेरफार नहीं करसकता है। और जो कुछ कर ही नहीं सकता है उसकी सहायताकी भी प्रतीक्षा यदि नित्यपदार्थ कार्य उत्पन्न करनेमें करै तो कहीं ठिकाना ही नही रहै । कदाचित् नित्यवादी कहेगा कि नित्य पदार्थ जो कुछ क्रिया करनी होती है उनको एकसाथ ही करदेता है परंतु यह कहना भी मिथ्या है। क्योंकि, प्रयोजनकारी ॥१९॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया सर्वत्र क्रमसे ही होती दीखती है । ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं दीखता है जो अपनेसे उत्पन्न होनेवाली संपूर्ण क्रियाओंको एकसाथ ही पैदा करदे । अथवा एकसाथ ही संपूर्ण क्रियाओंको करदेता हो तो भी आदिके समयमें ही संपूर्ण क्रिया होजानेसे द्वितीयादि समयोंमें निष्क्रिय मानना पड़ेगा इसलिये निवारण करते करते भी अनित्यता आपड़ती है । क्योंकि; एकतरहके खभाववाला पदार्थ उसीको कहसकते है जिसमें करनेरूप न करनेरूप आदिक खभावोमेंसे कोई एक ही स्वभाव सदा शाश्वता रहता IN हो । जिस पदार्थमें कभी तो क्रिया करनेरूप खभाव पाया जाता है और कभी नहीं करनेरूप, वह कूटस्थ नित्य कैसे होसकता है | खभावोंका परिवर्तन होते रहनेको ही अनित्यता कहते है। तदेवमेकान्तद्वयेऽपि ये हेतवस्ते युक्तिसाम्याद्विरुद्धं न व्यभिचरन्तीत्यविचारितरमणीयतया मुग्धजनस्य ध्याभय पोलादयन्तीति विरुद्धा व्यभिचारिणोऽनैकान्तिका इति । अत्र च नित्यानित्यैकान्तपक्षप्रतिक्षेप एवोक्तः। पलक्षणलाध सामान्यविशेषाद्यकान्तवादा अपि मिथस्तल्यदोपतया विरुद्धा व्यभिचारिण एव हेतूनुपस्पृशन्तीति परिणावनीयम्। IN पक्ष गायनमा निराशनित्य दोनों ही पक्षोंके माननेमें जो एक दूसरेके ऊपर दोपारोपण करके दोनों पक्षोंको सदोष ठहराने में अनेक व विसाल नागंपूर्ण मौकी सुस्कियां दोनों ही तरफ घटनेसे समान है। और दोनो तरफ समान होने के कारण दोनों ही पक्षोमें| जयगरी विशेष भावामागे संगणन विकता तथा जबतक पूर्ण विचार न किया जाय तभीतक रमणीय मालम पड़नेसे भोले | मायाको नाकर भगा दी गलिगे ये है भनेकान्निक भी है । जिम हेतुके सुननेसे पक्ष साध्यमें सच्चे झूठेपनेका साभाोने लगतानगीन ग दपर निशानित्य एकान्त पक्षका खण्डन तो नाम लेकर किया है परंतु | Vाग लेना विजिगी कार का मामान्य विशेषादि तीनों एकान्तवाद भी एक दगरेके साथ विनार ] मोगरगामविकान्तवाक भी हेतु नियमसे विरुद्ध है सो निनार करलेना चाहिये। यायायते--परम्परेत्यादिन काटकर शुद्रशत्रुग्वेकान्तबादिपु परमारगिए मत्म, पर-ITH यान्तीगीला: गन्दोगमन्दवादिति परस्परभ्यंमिनस्ने', हे जिन! ते तव शामना चल्लान् मन्ते विनामगुपयान्तीलगवंतीला गुन्धोपमन्दतदिति परस साझादप्रन्पणनिपुणं द्वादशालीमा गनिमाकानां कण्टकानां व भिमाकानां कण्टकानां स्ववमुन्दियावेनवाभावादायमपग S सीप गिरणानित्य जिम हेनुके मन रमणीय मालूम पडने व्याख्यागते-पगारेलावनारोक भीतीनों एकान्तबाद भी नाम लेकर किया है परंतु । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जै.शा. भवनीयं "शक्तार्हे कृत्याश्चेति" कृत्यविधानाद्धर्षितुमशक्यं धर्पितुमनह वा जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते । यथा कश्चिमहाराजः पीवरपुण्यपरीपाकः परस्परं विगृह्य स्वयमेव क्षयमुपेयिवत्सु द्विषत्सु अयत्नसिद्धनिष्कण्टकत्वं समृद्ध राज्यमुपभुञ्जानः सर्वोत्कृष्टो भवत्येवं त्वच्छासनमपि । इति काव्यार्थः। अब श्लोकके बाकी रहे आधे हिस्सेका भी अर्थ दिखाते हैं। वह आधा श्लोक "परस्परध्वंसिषु कण्टकेपु जयत्यधृष्यं जिनशासनं ते" यह है । ऐसे पूर्वोक्त प्रकारसे कंटकोंका अर्थात् एकान्तवादी क्षुद्र शत्रुओंका सुन्द उपसुन्द नामक दो राक्षसोंके समान परस्परसे ही नाश होजानेपर, हे जिनेन्द्र ! जिसने स्याद्वादका निरूपण पूर्णतया किया है ऐसा द्वादशांगरूपी आपका शासन अर्थात् उपदेश अजेय है । क्योंकि, जो पराभव करनेकी वांछा करनेवाले शत्रु है उनका उच्छेद स्वयमेव ही होगया है। 'शक्ता कृत्याश्च' है इस सूत्रकर 'क्यप् प्रत्यय होकर सिद्ध होनेसे 'अधृष्य' शब्दका अर्थ ऐसा होता है कि जिसका पराभव नही होसकता है उसको । अधृष्य कहते है । अधृष्य होनेसे ही यह आपका शासन सबोंसे उत्कृष्ट मानाजाता है। जिस प्रकार जिसके पुण्यकर्मका पाक तीव्रतासे होरहा है ऐसा कोई नरपति शत्रुओंके परस्पर लड़कर नष्ट होजानेपर परिश्रमके विना ही निष्कंटक समृद्ध राज्यको भोगता हुआ सर्वोत्कृष्ट होजाता है उसी प्रकार आपका शासन उस नृपतिके समान खयमेव सर्वोत्कृष्ट हो रहा है । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। अनन्तरकाव्ये नित्यानित्यायेकान्तवादे दोषसामान्यमभिहितम् । इदानी कतिपयतद्विशेपानामग्राहं दर्शयंस्तस्मरूपकाणामसद्भूतोद्भावकतयोद्वत्ततथाविधरिपुजनजनितोपद्रवमिव परित्रातुर्धरित्रीपतेस्त्रिजगत्पतेः पुर भुवनत्रयं प्रत्युपकारकारितामाविष्करोति ।। इस ऊपरके काव्यमें नित्यअनित्य आदिक एकांत पक्षोंके मानने में संभव होते हुए दोप सामान्यपनेसे तो दिखा दिये । Y परंतु यह स्पष्ट नहीं कहा कि वे दोष कोन कोनसे हैं । इसलिये अब उनमेंसे कुछ दोपोंके नाम दिखाते हुए यह भी दिखाते है । कि जिस प्रकार प्रजापर शत्रु जो नानाप्रकारके उपद्रव खड़े करते है उनसे रक्षाकरनेवाले नृपतिका प्रजाके ऊपर महान् उपकार समझा जाता है उसी प्रकार हे भगवन् । जिन नित्य अनित्य आदिक झूठे पक्षोंका कुवादी प्रतिपादन करते है उन कुमासे तीनों जगत्की रक्षा करनेवाले आपका तीनों लोकके प्रति बड़ा उपकार है। ॥१९ ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैकान्तवादे सुखदुःखभोगौ न पुण्यपापे न च बन्धमोक्षौ । दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं परैर्विलुप्तं जगदप्यशेषम् ॥ २७ ॥ मूलार्थ – एकान्तपक्षोंके माननेसे न तो सुख दुःखका भोगना ही बनसकता है और न पुण्य पाप तथा बन्धन मोक्ष ही बनसकते है । इसलिये खोटे युक्तिवादमें जो रुचि है वह खनके समान है और उस खझसे इन शत्रुओंने जगत्का नाश कररक्खा है । व्याख्या - एकान्तवादे नित्याऽनित्यैकान्तपक्षाभ्युपगमे न सुखदुःखभोगौ घटेते, न च पुण्यपापे घटेते न चवन्धमोक्षौ घटेते । पुनः पुनर्नञः प्रयोगोऽत्यन्ताऽघटमानतादर्शनार्थः । तथा हि । एकान्तनित्ये आत्मनि तावत् सुखदुःखभोगौ नोपपद्येते । नित्यस्य हि लक्षणमप्रच्युताऽनुत्पन्न स्थिरैकरूपत्वम् । ततो यदात्मा सुखमनुभूय स्वकारणकलापसामग्रीवशाद्दुःखमुपभुङ्क्ते तदा स्वभावभेदादनित्यत्वापत्त्या स्थिरैकरूपताहानिप्रसङ्गः । एवं दुःखमनुभूय सुखमुपभुञ्जानस्यापि वक्तव्यम् । व्याख्यार्थ – नित्य अनित्य आदिक एकांत पक्षोंके स्वीकार करनेसे सुखदुःखों का भोगना सिद्ध नही होसकता है; तथा पुण्य पाप नहीं सिद्ध होसकते है और वन्ध मोक्ष भी संगत नहीं होसकते है । श्लोकमें यद्यपि एकवार 'न' लिखनेसे ही काम चलसकता था परंतु तो भी जो तीनवार 'न' लिखा है उससे अत्यंत असंगतपना दिखाया है। अर्थात् ऐसा जताया है कि एकान्तपक्ष माननेसे किसी प्रकार भी बन्धमोक्षादि संभव नहीं होसकते है । यदि सर्वथा नित्यता ही मानी जाय; किसी प्रकारका भी उत्पत्ति | विनाश न मानाजाय तो आत्मामें सुख दुःखका होना ही असंभव है । क्योंकि; सर्वथा नित्य उसको कहते है जो किसी प्रकार भी अपने प्राचीन परिणामोंको नही छोड़े तथा नवीन परिणामोंका ग्रहण नहीं करै । सो यदि सुख दुःखोंकी उत्पत्ति आत्मामें मानोगे तो जब आत्मा किसी कारणसे उत्पन्न हुए सुखका अनुभव करके किसी कारणवश उत्पन्न हुए दुःखका अनुभव करने लगेगा तभी स्वभावमें भेद पड़नेसे अनित्यता आखड़ी होगी और स्थिर एकरूप रहनेवाली नित्यता नही रहसकेगी । इसीप्रकार जब | दुःखरूप परिणामोंको छोड़कर सुखका अनुभव करेगा तब भी स्वभावका परिवर्तन होनेसे नित्यता नही रहसकैगी किंतु अनित्यता आखड़ी होगी । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजै शा. याद्वादमं. ॥१९२॥ के अथाऽवस्थाभेदादयं व्यवहारः। न चावस्थासु भिद्यमानास्वपि तद्वतो भेदः, सर्पस्येव कुण्डलार्जवाद्यवस्था सु । इति चेन्ननु तास्ततो व्यतिरिक्ता अव्यतिरिक्ता वा? व्यतिरेके तास्तस्येति संवन्धाऽभावोऽतिप्रसङ्गात् ? ॐ अव्यतिरेके तु तद्वानेवेति तदवस्थितैव स्थिरैकरूपताहानिः। कथं च तदेकान्तैकरूपत्वेऽवस्थाभेदोऽपि भवेदिति ? कदाचित् कहो कि सुखदुःखादिरूप अवस्थाओंमें भेद पड़नेसे यह केवल व्यवहार मानाजाता है कि यह पदार्थमें भेद हुआ परंतु वास्तवमें विचारा जाय तो जिस प्रकार सर्प कभी सीधा होजाता है, कभी कुण्डलाकार होजाता है परंतु उन अवस्थाओंके पलटनेसे कुछ सर्पमें फेरफार नहीं मानाजाता है उसीप्रकार अवस्थाओंमें परिवर्तन होनेपर भी अवस्थावाले पदार्थों में कुछ भी परिवर्तन नहीं होता है। परंतु यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि जो अवस्थाएं पदार्थोंमें बदलती रहती है वे पदार्थोंसे कोई भिन्न चीज है अथवा पदार्थमय ही होती है ? यदि भिन्न चीज हैं तो वे अवस्थाएं उन्ही पदार्थोंकी है जिनसे वे उपजती है ऐसा कहनेके लिये कोंनसा संबन्ध दोनोंके वीचमें दीखता है जिस संबन्धसे ऐसा कहसकै ? और यदि कोई संबन्ध नही है तो वे अवस्थाएं जिसमें नहीं हुई हैं उसकी भी वे अवस्था मानीजावै तो कोन रोकसकता है ? और यदि उस पदार्थमय ही है, भिन्न नहीं है तो 9 अवस्थाओंमें परिवर्तन होनेसे उस पदार्थमें भी परिवर्तन होना मानना ही चाहिये। इस प्रकार फिर भी नित्यतामें बाधा आपड़ती है । और यदि पदार्थको सर्वथा एकरूप ही माने तो अवस्थाओंमें परिवर्तन होना भी किस प्रकार होसकता है ? किं च सुखदुःखभोगौ पुण्यपापनिर्वत्त्यौं । तन्निर्वर्तनं चार्थक्रिया । सा च कूटस्थनित्यस्य क्रमेणाऽक्रमेण वा नोपपद्यत इत्युक्तप्रायम् । अत एवोक्तं "न पुण्यपापे" इति । पुण्यं दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभं कर्म । पापं हिंसादिक्रियासाध्यमशुभं कर्म । ते अपि न घटेते प्रागुक्तनीतेः। तथा न बन्धमोक्षौ । वन्धः कर्मपुद्गलैः सह प्रतिप्रदेश मात्मनो वन्ह्ययःपिण्डवदन्योऽन्यसंश्लेषः। मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयः । तावप्येकान्तनित्ये न स्याताम् । वन्धो हि संयोधू गविशेषः। स चाऽप्राप्तानां प्राप्तिरितिलक्षणः। प्राक्कालभाविनी अप्राप्तिरन्यावस्था । उत्तरकालभाविनी प्राप्तिश्चा न्या। तदनयोरप्यवस्थाभेददोषो दुस्तरः। . इसीप्रकार सुखदुःखोंका भोगना जो होता है वह पुण्यपापके उदयसे होता है और पुण्य पापकी उत्पत्ति शुभाशुभ क्रियाओंके ॐ करनेसे होती है । इसलिये जो आत्मा सदा कूटस्थ एकरूप है उसमें न तो क्रमसे और न एकसाथ ही वह क्रिया होसकती है जिसके ॥१९२॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होनेसे पुण्य पाप उत्पन्न होसकै । ऐसी क्रिया क्यों नही होसकती है इस शंकाका उत्तर अभी दे चुके है । जब पुण्य पाप बांधनेवाली क्रिया ही नहीं होगी तब पुण्य पापका बँधना असंभव ही है। इसीलिये कहा है कि " न पुण्यपापे" । अर्थात् जिस प्रकार सुखदुःखोंका होना असंभव है उसीप्रकार पुण्यपापका होना भी असंभव है । पुण्य तो उसको कहते है जो दानादि शुभ कार्य करनेसे शुभ कर्म बंधता | हिंसादि अशुभ कार्योंसे बंधनेवाले अशुभ कर्मको पाप कहते है । इसीप्रकार जीवका बंधना छूटना भी नहीं होसकता है । जिस प्रकार अझिसे तपाने पर लोहेके गोलामें अभि ऐसी प्रविष्ट होजाती है कि गोलेका एक अंश भी बचा नहीं रहता उसीप्रकार जो आत्माके प्रत्येक प्रदेशमें कर्मपुद्गलोंका एक दूसरेको जकड़कर अन्योन्य प्रवेशरूप ऐसा संबन्ध होजाता है जिसके होनेसे कर्म तथा आत्मामें कुछ भी भेदभाव नही रहता, उसीका नाम बंध है । ऐसा बंधन छूटजानेका नाम ही मोक्ष है। बंघ तथा मोक्ष ये दोनो ही सर्वथा आत्माको नित्य माननेसे नही होसकते है । क्योंकि; बंधन तो एक प्रकारके संबंधको कहते है । सो संबंध तभी कहाजाता है जब कोई दो वस्तु पहिले तो जुदी जुदी हों और पीछे मिलगयी हों । इनमें से जबतक | दोनो वस्तु एकत्र नही मिली है तबतक तो एक अपूर्व ही अवस्था है और जब संयोग होजाता है तब एक दूसरी ही अवस्था हो | जाती है । पूर्वापर समयवर्ती ये दोंनो अवस्थायें सर्वथा भिन्न भिन्न हैं । सदा अवस्थाओंमें परिवर्तन होना सर्वथा नित्यताकी अपेक्षा कुछ उलटा ही है । अर्थात् परिवर्तन तभी होसकता है जब वस्तुमें किसी प्रकार अनित्यता मानली जाय । कथं चैकरूपत्वे सति तस्याकस्मिको वन्धनसंयोगः ? वन्धनसंयोगाच्च प्राक्किं नायं मुक्तोऽभवत् ? किं च तेन वन्धनेनासौ विकृतिमनुभवति न वा ? अनुभवति चेच्चर्मादिवदनित्यः । नानुभवति चेन्निर्विकारत्वे सता असता वा तेन गगनस्येव न कोप्यस्य विशेषः । इति वन्धवैफल्यान्नित्यमुक्त एव स्यात् । ततश्च विशीर्णा जगति वन्धमोक्षव्यवस्था । तथा च पठन्ति “ वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नश्चर्मण्यस्ति तयोः फलम् । चर्मोपमश्चेत्सोऽनित्यः खतुल्यश्चेदसत्फलः " । बन्धाऽनुपपत्तौ मोक्षस्याप्यनुपपत्तिर्वन्धनविच्छेदपर्यायत्वान्मुक्तिशब्दस्येति । और जब वस्तुओं में फेरफार तो है ही नही तो विनाकारण अकस्मात् बंधनका सयोग किस प्रकार होगा ? और बंधनसयोग | जबतक नही हुआ है तभीसे उस जीवकी मुक्ति मानी जाय तो क्या हानि है ? क्योंकि; शुद्ध अवस्थाका ही नाम मुक्ति है । और हम नित्यवादीसे पूछते है कि जब जीव बंधता है तब उस बंधनसे जीवमें कुछ भी विकार होता है अथवा नही ? यदि 1 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥१९३॥ विकार होता है तो जिस प्रकार बँधने पर चर्ममें विकार होजाता है इसलिये वह अनित्य है उसी प्रकार जीवमें भी बँधने पर विकार होजाता है इसलिये जीवको अनित्य मानना चाहिये । और यदि बॅघनेसे जीवमें कुछ विकार उपजता ही नही तो उनको बँधनेपर बँधा तथा बंध टूटने पर मुक्त भी नही कहना चाहिये । जैसे- किसी वस्तुमें कैसा ही उत्पाद विनाश होता रहै परंतु वहांका गगन सदा निर्विकार रहता है इसलिये वह सदा ही शुद्ध मानागया है । इसी प्रकार बधन निष्फल होनेसे आत्मा सदा ही मुक्त रहना चाहिये । और जब बंधमोक्ष कुछ है नही तो जगत् में बंध मोक्षकी व्यवस्था मानना ही मिथ्या ठहरता है । यही कहा है " वर्षा होनेसे तो गीलापन तथा गरमी पडनेसे कठोरता चमड़े में ही होजाती है; गगनमें नही । इसलिये यदि आत्मा गगनके समान है तो बंधमोक्ष होना निष्फल है और यदि चर्मके समान है तो अनित्यता सिद्ध होती है "। इस प्रकार जब बंधन कोई चीज नही है तो मोक्ष कहना भी अनुचित है । क्योकि, वधके विच्छेद होजानेका नाम ही मोक्ष है । एवमनित्यैकान्तवादेऽपि सुखदुःखाद्यनुपपत्तिः । अनित्यं हि अत्यन्तोच्छेदधर्मकम् । तथाभूते चात्मनि पुण्योपादानक्रियाकारिणो निरन्वयं विनष्टत्वात् कस्य नाम तत्फलभूतसुखानुभवः ? एवं पापोपादानक्रियाकारिणोऽपि निरवयवनाशे कस्य दुःखसंवेदनमस्तु ? एवं चान्यः क्रियाकारी अन्यश्च तत्फलभोक्तेत्य समञ्जसमापद्यते । अथ " यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव सन्धत्ते कर्पासे रक्तता यथा " इति वचनान्नासमञ्जसमित्यपि वाङ्मात्रं; सन्तानवासनयोरवास्तवत्वेन प्रागेव निर्लोठितत्वात् । तथा पुण्यपापे अपि न घटेते । तयोर्ह्यर्थक्रिया सुखदुःखोपभोगः । तदनुपपत्तिश्चानन्तरमेवोक्ता । ततोऽर्थक्रियाकारित्वाऽभावात्तयोरप्यघटमानत्वम् । इसी प्रकार सर्वथा क्षणिकता माननेसे भी सुखदुःखादिककी उत्पत्ति होना असंभव ही दीखता है। जिसका एक अंशमात्र अथवा एक धर्ममात्र भी शेष न रहै किंतु सर्वनाश हो जानेवाले पदार्थको यहांपर बौद्धोने अनित्य माना है। इस प्रकारसे संपूर्ण ही पदार्थ बौद्धमतानुसार अनित्य हैं । सो जो ऐसा आत्मा है तो जिस आत्माने पुण्यकर्मका अथवा पापकर्मका उपार्जन किया उसका दूसरे ही समय यदि सर्वथा नाश होजायगा तो पुण्यकर्मसे मिलनेवाले सुखका अथवा पापकर्मसे मिलनेवाले दुःखका अनुभव कोन करेगा ? यदि कहो कि आगेका आत्मा जो नवीन उत्पन्न होगा वह इस सुखदुःखका अनुभव करेगा तो जिसने किया वह तो भोगने ही नही पाया तथा जिसने कुछ भी नही किया उसको भोगना पडा सो यह प्रवृत्ति अनुचित है। और ऐसा होनेपर रा. जै. शा ॥१९३॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N/ कुछ नियम भी नही रहेगा कि अमुकके किये हुएको अमुक ही भोगै । " जिस संतानमें जिस कर्मकी वासना उत्पन्न होती है उस कर्मका फल उसी संतानमें होता है । जैसे जिस लाल कपाससे जो तंतु बनते है उस लाल कपासकी लालिमा भी उन्ही तंतुओंमें आती है; दूसरोमें नही" इस वचनके अनुसार आगेके नियमित आत्मामें उस पूर्व कर्मका फल होजाना असंगत नही है। बौद्धका यह उत्तर भी योग्य नहीं है। क्योंकि संतान तथा वासना जब सभी झूठे है तो सुखदुःखादि कैसे होसकता है ? यह विचार पहिले ही करचुके है। इसीप्रकार पुण्य पाप भी क्षणिकपना माननेसे नही बनसकते है । सुखदुःखका भोगना ही पुण्यपापरूप कर्मोकी प्रयोजनीभूत क्रिया है वह किसी प्रकार भी नही बनसकती है इस बातको सर्वथा नित्य मानने में दोप दिखाते समय अभी कह चुके है ।सो जिस प्रकार सर्वथा नित्य मानने में सुखदुःखोंका भोगना नही बनसकता है उसी प्रकार सर्वथा क्षणिक मानने में भी नही बनसकता है । इसलिये जब सुखदुःखोके भोगनेरूप क्रिया ही नही होसकती है तब पुण्यपापका बँधना भी कैसे संभव हो ? किं चानित्यः क्षणमात्रस्थायी । तस्मिंश्च क्षणे उत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात्तस्य कुतः पुण्यपापोपादानक्रियार्जनम् ? द्वितीयादिक्षणेषु चावस्थातुमेव न लभते । पुण्यपापोपादानक्रियाऽभावे च पुण्यपापे कुतो निर्मूलत्वात् ? तदसत्त्वे । च कुतस्तनः सुखदुःखभोगः। आस्तां वा कथंचिदेतत् । तथापि पूर्वक्षणसदृशेनोत्तरक्षणेन भवितव्यम्उपादानाऽनुरूपत्वादुपादेयस्य । ततः पूर्वक्षणाद् दु:खितादुत्तरक्षणः कथं सुखित उत्पद्यते? कथं च सुखितात्ततः स| दुःखितः स्यात् ? विसदृशभागतापत्तेः। एवं पुण्यपापादावपि । तस्माद्यत्किंचिदेतत् । | और बौद्ध अनित्य उसको मानते है जो एक क्षणमात्रके अनंतर ही नष्ट होजाता हो । सो प्रथम एक क्षणपर्यत तो वह उपजनेमें| लाही लगा रहता होगा इसलिये उसी समय पुण्यपापका उपार्जन तो कर ही नही सकता है । और प्रथम क्षणके अनंतर वह ठहर ही नही सकता है जो पुण्यपाप बॉधनेकी कुछ क्रिया करै । और यदि पुण्य पाप बॉधनेवाली क्रिया नही हुई तो निर्हेतुक पुण्य-1 पापका बंध कहांसे होगा और यदि पुण्यपापका बंध नही हुआ हो तो सुखदुःखोका भोगना कहांसे होगा? अब भला थोड़े समयके लिये यह मान भी लिया जाय कि पुण्यपापका बंध जिस किसी प्रकार हो जाता है, तो भी जैसा पूर्व समयमें आत्मा नष्ट हुआ| है, आगेका आत्मा भी तैसा ही उत्पन्न होना चाहिये । यदि पूर्वका आत्मा सुखी है तो आगेका सदा सुखी ही उपज यदि पहिला दुःखी है तो उस संतानमें उत्तरोत्तरके आत्मा सब दुःखी ही उपजने चाहिये। क्योंकि पूर्वका आत्मा उपादान कारण है। - Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जै.शा. याद्वादम. ॥१९४॥ तथा उत्तरका आत्मा उसका उपादेय है । अर्थात् कार्य है। सो कार्यकारणोमें ऐसा नियम होता है कि जैसा उपादान कारण होगा तैसा ही कार्य उपजैगा । इसलिये जो आत्मा सुखी है उसके अनंतरका आत्मा कभी दु.खी नही होसकैगा और जो पहिला) । दुःखी है उससे आगेका आत्मा कभी सुखी नही होसकैगा; नहीं तो यदि सुखीसे दुःखी तथा दुःखीसे सुखी भी होजायगा तो उपादानके समान ही कार्य होता है ऐसा नियम नही रह सकैगा । इसीप्रकार पुण्यपापमें भी समझना चाहिये । अर्थात् जिसके पास पुण्यका संचय है उसके पास कभी पापका संचय नही होसकैगा तथा जो पापी है वह कभी पुण्यात्मा नही होसकैगा; नही तो उपादानकारणसदृश ही कार्य होता है ऐसा नियम टूट जायगा । ऐसे दोष आनेसे क्षणिक मानना व्यर्थ है। एवं वन्धमोक्षयोरप्यसंभवः। लोकेऽपि हि य एव वद्धः स एव मुच्यते । निरन्वयनाशाऽभ्युपगमे चैकाधिकरणत्वाऽभावात्सन्तानस्य चावास्तवत्वात् कुतस्तयोः संभावनामात्रमपीति? परिणामिनि चात्मनि स्वीक्रियमाणे सर्व निर्वाधमुपपद्यते " परिणामोऽवस्थान्तरगमनं न च सर्वथा ह्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामम स्तद्विदामिष्टः" इति वचनात् । y इसीप्रकार बंध मोक्ष मानना भी नहीं बनसकता है । संसारमें भी जो प्रथम बँधा होता है वही कदाचित् छूटता है । जब नाश होनेपर कुछ भी नही बचता है किंतु सर्वथा नाश होजाता है ऐसा मानागया है तो बँधनेवाला तथा छूटनेवाला ये दोनो एकरूप नही कहेजा सकते है । तथा संतान भी कोई सच्ची वस्तु नही है इसलिये बंधमोक्षकी संभावना भी करना असंभव है । और यदि एक ही आत्मा मानकर प्रतिक्षण नवीन नवीन उत्पन्न होनेवाले तथा पूर्वपूर्वके नष्ट होनेवाले जो है उनको * उस आत्माके परिणामविशेष ही बौद्ध मानते हों तो सभी निर्वाध सिद्ध होजाता है। ऐसा कहा भी है कि "एक अवस्थाको छोडकर दूसरी अवस्था धारण करनेका नाम परिणाम है । न तो कोई भी द्रव्य सदा कूटस्थ एक अवस्थाविशिष्ट ही रहती है और न सर्वथा सदा विनाश ही होता रहता है। किंतु प्रत्येकका परिणमन या पर्याय होते रहना ही विद्वानोंको इष्ट है। पातञ्जलटीकाकारोऽप्याह " अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्ती धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः" इति । एवं 9. सामान्यविशेषसदसदभिलाप्याऽनभिलाप्यैकान्तवादेष्वपि सुखदुःखाद्यभावः स्वयमभियुक्तैरभ्यूह्यः। पतञ्जलिके ग्रन्थकी टीका करनेवालेने भी कहा है कि " ध्रुवपरिणामविशिष्ट वस्तुमें एक धर्मका विलय होकर दूसरे धर्मका ॥१९४॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादुर्भाव होना ही परिणाम है "। यहांपर जिस प्रकार सर्वथा नित्य अथवा अनित्य माननेमें दोष दिखाये हैं उसी प्रकार सर्वथा सामान्य, विशेष, सत्, असत्, वक्तव्य अथवा अवकव्य खरूप माननेमें भी सुखदुःखादिकका नही होसकना विद्वानोको स्वयं | विचार लेना चाहिये । अथोत्तरार्द्धव्याख्या । एवमनुपपद्यमानेऽपि सुखदुःखभोगादिव्यवहारे परैः परतीर्थिकैरथ च परमार्थतः शत्रुभिः | ( परशब्दो हि शत्रुपर्यायोऽप्यस्ति ) दुर्नीतिवादव्यसनासिना । नीयते एकदेशविशिष्टोऽर्थः प्रतीतिविषयमाभिरिति नीतयो नयाः । दुष्टा नीतयो दुतियो दुर्नयाः । तेषां वदनं परेभ्यः प्रतिपादनं दुर्नीतिवादः । तत्र यद्व्यसनमत्या| सक्तिरौचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावत्, दुर्नीतिवादव्यसनम् । तदेव सद्बोधशरीरोच्छेदनशक्तियुक्तत्वादसिरिवासिः कृपाणो दुर्नीतिवादव्यसनासिः । अब लोकके उत्तरार्धका व्याख्यान करते हैं । इस प्रकार एकान्त पक्षोंके माननेमें सुखदुःखादि व्यवहार सिद्ध नही होते हुए भी अन्य धर्मोंके प्रवर्तक जनोने उस दुर्नीतिवादके व्यसनरूपी खड्गसे संपूर्ण संसारका नाश कर रक्खा है । प्रार्थना करनेका | प्रयोजन यह है कि; हे भगवन्! आप उनसे रक्षा करो । 'पर' शब्दका अर्थ शत्रु होता है । अथवा लोकमें पड़े हुए उस ' पर ' | शब्दका अर्थ परमार्थके शत्रु होता है । क्योंकि, शत्रु जिस प्रकार अपने शत्रुका सर्वथा नाश करनेवाला होता है उसी प्रकार इन्होने खोटे मार्गोंका प्रतिपादन करके जगत् के जीवोको अपायके मार्गमें लगाकर अत्यंत दुःखी कररक्खा है। एक अंश अथवा धर्म | विशिष्ट वस्तुका निश्चय जिनके द्वारा हो उनको नीति अथवा नय कहते है । नयको ही विवक्षा अथवा अपेक्षा भी कहते हैं । ये ही नीति यदि खोटी अपेक्षारूप हों तो इनको दुर्नय कहते हैं । दुर्नयोको दूसरोंके आगे जो कहना सो दुर्नीतिवाद है । इस दुर्नीतिवादमें व्यसन अथवा अत्यंत आसक्तता रेखनेका नाम दुर्नीतिवादव्यसन है । अर्थात् व्यसन उसका नाम है जिसके होनेपर उचित अनुचितका विचार नही करते हुए ही प्रवृत्ति हो । यह जो दुर्नीतिवादव्यसन है वह एक प्रकार खनके समान है । क्योंकि; सच्चा ज्ञानरूपी शरीर इसके चलानेसे कट जाता है । खड्गको असि कहते है । इसीलिये इसको दुर्नीतिवादव्यसनासि कहा है । । तेन दुर्नीतिवादव्यसनासिना करणभूतेन दुर्नयप्ररूपणहेवाकखङ्गेन । एवमित्यनुभवसिद्धं प्रकारमाह । अपि| शब्दस्य भिन्नक्रमत्वादशेषमपि जगन्निखिलमपि त्रैलोक्यं, तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश इति त्रैलोक्यगतजन्तुजातं विलुप्तं; Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादादमः सम्यग्ज्ञानादिभावप्राणव्यपरोपणेन व्यापादितम् । तत्रायस्वेत्याशयः । सम्यग्ज्ञानादयो हि भावप्राणाः प्रावच-16 रा.जै.शा. निकैीयन्ते । अत एव सिद्धेष्वपि जीवव्यपदेशः । अन्यथा हि जीवधातुः प्राणधारणार्थेऽभिधीयते । तेषां च ॥१९५॥ दशविधप्राणधारणाऽभावादजीवत्वप्राप्तिः । सा च विरुद्धा । तस्मात्संसारिणो दशविधद्रव्यप्राणधारणाज्जीवाः सिद्धाश्च ज्ञानादिभावप्राणधारणादिति सिद्धम् । दुर्नयस्वरूपं चोत्तरकाव्ये व्याख्यास्यामः । इति काव्यार्थः। इस दुर्नीति वादरूपी खड्गके द्वारा एक दोका नहीं किंतु अशेष जगतका घात होरहा है । 'एवं' शब्द जो पड़ा है उसका अर्थ अनुभवसिद्ध होता है। श्लोकमें जो 'जगदपि' ऐसा शब्द पड़ा है उसमेंसे 'अपि' शब्द 'अशेष' शब्दके साथ लगानेसे अर्थ ठीक बनता है । भावार्थ-एक दो नहीं किंतु अशेष ही जगत् अर्थात् त्रैलोक्यमें होनेवाले जीवोका समूह इसने विलुप्त करदिया है । अर्थात् सम्यग्ज्ञानरूप भावप्राणोंका घातकर उन जीवोंका नाश करदिया है। प्राणों के घात होनेका ही नाम मृत्यु है । एक द्रव्यप्राण और एक भावप्राण ऐसे प्राण दोप्रकार हैं । ५ इंद्रिय, ३ बल (मन, वचन, काय), १ श्वासोच्छ्रास तथा १ आयु इन दशको द्रव्यप्राण कहते है । सम्यग्ज्ञानादिकोको प्रवचनके ज्ञाताओने भावप्राण कहा है। जो प्राण धारण करते है वे जीव कहे जाते है । प्राण धारणकरना जिसका अर्थ है ऐसे जीव धातुसे जीव शब्द बनता है । ससारी जीव तो द्रव्यप्राणोंसे जीते है इसलिये उनको जीव कहते है । सिद्धात्मा भावप्राणों की अपेक्षा जीते है इसलिये उनको भी जीव कहसकते है। यदि द्रव्य प्राणोंके धारण करनेवाले ही जीव कहलाते तो सिद्ध जीव जीव ही नही कहे जाते । परंतु सिद्धोकों जीव नही कहना सर्वथा विरुद्ध है। इसलिये संसारी जीवोंको दशप्रकार द्रव्यप्राणोंकी अपेक्षा तथा मुक्त जीवोंको भावप्राणों की अपेक्षा जीव कहना चाहिये ऐसा सिद्ध है । दुर्नयका खरूप इस काव्यमें स्पष्ट नहीं किया है किंतु आगेके काव्यमें कहेगे । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। ___ साम्प्रतं दुर्नयनयप्रमाणप्ररूपणद्वारेण “प्रमाणनयैरधिगमः" इति वचनाजीवाऽजीवादितत्त्वाऽधिगमनि| बन्धनानां प्रमाणनयानां प्रतिपादयितुः स्वामिनः स्याद्वादविरोधिदुर्नयमार्गनिराकरिष्णुमनन्यसामान्य वचनातिशयं स्तुवन्नाह । ॥१९५॥ अब खोटे नय, सच्चे नय तथा प्रमाणके खरूपका प्रतिपादन करते हुए आचार्य अर्हन् भगवान्की इस प्रकार स्तुति करते है किप्रमाण नयसे जीवादि पदार्थोंका निश्चय होता है इस अभिप्रायवाले " प्रमाणनयैरधिगमः" इस वचनके अनुसार जिन प्रमाण Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयोंको जीव अजीवादि तत्त्वोंका ज्ञान होनेमें असाधारण कारण माना है उन प्रमाणनोंका प्रतिपादन करनेवाले अहेन् भगवान्क या वचन असाधारण महिमाके धारक है तथा इन वचनोंसे स्याद्वादके विरोधी दुर्नयोंका मार्ग नष्ट होजाता है। सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधाऽर्थो मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणैः । ___ यथार्थदर्शी तु नयप्रमाणपथेन दुर्नीतिपथं त्वमास्थः॥ २८॥ मूलार्थ-दुर्नयके द्वारा तो ऐसा निश्चय होता है कि पदार्थ सत्रूप ही है तथा सम्यक् नयके द्वारा ऐसा निश्चय होता है कि पदार्थ सतरूप है; एवं प्रमाणके द्वारा ऐसा निश्चय होता है कि पदार्थ कथंचित् सत्रूप है। एवं सच्चे मार्गको यथार्थ देखनेवाले आपने ही सच्चे नयप्रमाणद्वारा दुर्नयका निराकरण किया है । | व्याख्या-अर्यते परिच्छिद्यत इत्यर्थः पदार्थस्त्रिधा त्रिभिः प्रकारैर्मीयेत परिच्छिद्येत । विधौ सप्तमी । कैस्त्रिभिः प्रकारैरित्याह दुनीतिनयप्रमाणैः। नीयते परिच्छिद्यते एकदेशविशिष्टोऽर्थ आभिरिति नीतयो नयाःदुष्टा नीतयो दुर्नीतयो दुर्नया इत्यर्थः। नया नैगमाद्याः। प्रमीयते परिच्छिद्यतेऽर्थोऽनेकान्तविशिष्टोऽनेनेति प्रमाणं स्याद्वादाकात्मकं प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणम् । दुनीतयश्च नयाश्च प्रमाणे च दुर्नीतिनयप्रमाणानि तैः। व्याख्यार्थ-'ऋ' धातुका अर्थ निश्चय करना है। इसलिये जिसका निश्चय किया जासकै उसको अर्थ अथवा पदार्थ कहते है। इस पदार्थका निश्चय तीन प्रकारसे होसकता है। प्रथम तो दुर्नयसे, दूसरा सुनयसे तथा तीसरा प्रमाणसे। जिनसे वस्तुके एक एक अंशोंका निर्णय होजाता हो वे नीति या नय कहाते हैं। खोटी नीतियोंको दुर्नीति अथवा दुर्नय कहते है । सुनय अथवा समीचीन नय वे हैं जो तत्त्वार्थसूत्रके प्रथमाध्यायके अंतमें नैगम, संग्रह, व्यवहारादि नाम लेकर कहे गये है। संपूर्ण धर्मविशिष्ट वस्तुका जिसके द्वारा निश्चय होता हो वह प्रमाण कहाता है। यह प्रमाणज्ञान स्याद्वादरूप होता है । इसके सामान्य भेद दो है, पहिला प्रत्यक्ष दूसरा परोक्ष । दुर्नीति, नय तथा प्रमाणको जब संस्कृत भाषामें एक साथ मिलाकर बोलना चाहते है तब 'दुर्नीतिनयप्रमाणानि' ऐसा बोलते हैं। सारांश यह है कि प्रमाणके द्वारा तो वस्तुका सर्वाग ज्ञान होता है किंतु नयोंके द्वारा एक एक धर्मका ही ज्ञान होता है। कुनयोंसे भी वस्तुके एक एक धर्मका ही ज्ञान होता है परंतु जो वह एक है वही जब सर्व अंशरूप |मान लिया जाता है तब उसी निश्चायक नयको कुनय कहते है। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वादमं. ॥१९६|| केनोल्लेखेन मीयेतेत्याह सदेव सत्स्यात्सदिति । सदित्यव्यतत्वान्नपुंसकत्वम् । यथा किं तस्या गर्भे जातमिति। सदेवेति दुर्नयः। सदिति नयः। स्यात्सदिति प्रमाणम् । तथा हि । दुर्नयस्तावत्सदेवेति ब्रवीति । अस्त्येव घट इति अयं वस्तुन्येकान्ताऽस्तित्वमेवाभ्युपगच्छन्नितरधर्माणां तिरस्कारेण स्वाभिप्रेतमेव धर्म व्यवस्थापयति । दुर्नयत्वं चास्य मिथ्यारूपत्वात् । मिथ्यारूपत्वं च तत्र धर्मान्तराणां सतामपि निवात् । GI दुर्नीति, सुनीति तथा प्रमाणके द्वारा जो पदार्थका तीन प्रकारसे निश्चय होता है उसका स्वरूप कैसा है ऐसा प्रश्न होनेपर " सदेव, सत्, स्यात् सदिति " ऐसा उत्तर देते है । इसका अर्थ यह है कि, पदार्थ सत्रूप ही है ऐसा एकान्तरूप ज्ञान कुनयके द्वारा होता है । सुनयके द्वारा जो ऐसा ज्ञान होता है कि पदार्थ सरूप है उसमें तथा उपर्युक्त कुनयके ज्ञानमें इतना ही अंतर | है कि कुनयजन्य ज्ञान तो एक विवक्षित धमको छोड़कर वाकी धर्मोंका निषेध करता है किंतु जो सुनयजन्य ज्ञान होता है उसमें मुख्य तो एक विवक्षित धर्म ही रहता है परंतु वाकीके अमुख्य धर्मोंका भी उदासीनरूपसे ग्रहण किया जाता है । जैसे कुनयसे । का तो ज्ञान होता है कि पदार्थ सत् ही है। अर्थात् सत्को छोड़कर अन्य कोई भी धर्म पदार्थमें नही है । सुनयसे जो ज्ञान होता है ||उसका उदाहरण ऐसा है कि पदार्थ सत्रूप है । अर्थात् केवल सत्रूप ही नहीं है; उसमें धर्म तो अनंतो हैं परंतु अमुक समयपर । विवक्षित धर्म सत्त्व ही है। प्रमाणद्वारा जो ज्ञान होता है उसका उदाहरण ऐसा है कि पदार्थ कथंचित् सत्रूप है। अर्थात् कथंचित् कहनेसे पदार्थमें असत्वादि धर्म भी रहते प्रतीत होते है । ' सत् शब्द है सो यहांपर नपुंसकलिङ्ग है । नपुंसलिङ्गी शब्दका उच्चामारण यहां इसलिये किया है कि सत्शब्दका अर्थ यहांपर कोई खास पदार्थ नही है किंतु सामान्य सभी सतरूप पदार्थ उसके वाच्य थाहै। सामान्य अर्थकी विवक्षा होनेपर शब्द नपुंसकलिङ्गी ही बोला जाता है। जैसे अमुक स्त्रीके गर्भ में क्या हुआ? । 'क्या हुआ' | इसमें भी क्या (किम् ) शब्द जो है वह नपुसकलिङ्गी ही है। यहांपर जो दुर्नय है वह प्रत्येक पदार्थको एक धर्मविशिष्ट ही मनाता है। जैसे घड़ा केवल सत्रूप ही है। यहां यह दुर्नय वस्तुमें एक मात्र अस्तित्व धर्मका ही निरूपण करता हुआ शेष धर्मोके निषेधपूर्वक विवक्षित धर्मको ही पदार्थका खरूप बतलाता है। खोटा नय होनेसे इसको दुर्नय कहते है । विवक्षित धर्मको माछोड़कर बाकीके विद्यमान् धर्मोंका भी यह अपलाप करता है इसलिये इस नयको खोटा कहते हैं। तथा सदित्युल्लेखवान्नयः। स ह्यस्ति घट इति घटे स्वाभिमतमस्तित्वधर्म प्रसाधयन् शेषधर्मेषु गजनिमीलिका ॥१९६ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है मालम्बते । न चास्य दुर्नयत्वं धर्मान्तराऽतिरस्कारात् । न च प्रमाणत्वं स्याच्छब्देनाऽलाञ्छितत्वात् । स्यात्सदिति | स्यात्कथंचित्सद्वस्तु इति प्रमाणम् । प्रमाणत्वं चास्य दृष्टेष्टाऽवाधितत्वाद्विपक्षे बाधकसद्भावाच्च । सर्व हि वस्तु | स्वरूपेण सत् पररूपेण चाऽसदित्यसकृदुक्तम् । सदिति दिङ्मात्र दर्शनार्थम् । अनया दिशा असत्त्वनित्यत्वाऽनित्य| त्ववक्तव्यत्वाऽवक्तव्यत्वसामान्य विशेषाद्यपि बोद्धव्यम् । अन्य धर्मो उदासीन होकर सत्यधर्मका प्रतिपादन करनेवाला नय समिचीन नय कहा जाता है । इसका उदाहरण जैसे कि 'घड़ा है' ऐसा वचन कहनेवाला घड़े में रहनेवाले बाकीके अनंतो धर्मोंकी तरफ हस्तीके देखनेके समान उदासीनता से देखता हुआ विवक्षित अस्तित्व धर्मको मुख्य देखता है । यह नय भी यद्यपि एक धर्मको ही मुख्यतासे देखता है तो भी दुर्नय नही है । क्योंकि; बाकी के धर्मोंको चाहे उदासीनतासे ही देखता है परंतु तो भी निषेध नहीं करता है । इस नयको प्रमाण ज्ञान भी नही कह सकते है । क्योंकि; स्यात्शब्द छोड़कर इसको बोला है । अर्थात् प्रमाणज्ञान तभी समझा जाता है जब स्यात् शब्द अथवा कथंचित् शब्द लगाकर कहा जाय । अमुक वस्तु कथंचित् सत् है ऐसे ही ज्ञानको प्रमाण कहते है । ऐसे ज्ञानको प्रमाण इसलिये कहते है कि | इसमें प्रत्यक्ष परोक्षादि किसी ज्ञानसे भी बाधा नही आती है तथा जो प्रमाणद्वारा निश्चय हो जाता है उससे विरुद्ध मानने में | अनेक प्रकारकी बाधा दीख पड़ती है । यह बात स्थान स्थानपर कही है कि सभी वस्तु अपने द्रव्यादि चतुष्टयखरूपकी अपेक्षा तो | सत् है तथा परद्रव्यादि चतुष्टयखरूपकी अपेक्षा असत् है । सत् धर्म तो यहां दृष्टान्तमात्र दिखाया है किंतु इसी प्रकार असत्वधर्म तथा नित्यत्व, अनित्यत्व, वक्तव्यत्व, अवक्तव्यत्व, सामान्य, विशेषादि धर्म भी समझलेने चाहिये । इत्थं वस्तुस्वरूपमाख्याय स्तुतिमाह - यथार्थदर्शीत्यादि । दुर्नीतिपथं दुर्नयमार्ग तुशब्दस्य अवधारणार्थस्य | भिन्नक्रमत्वात्त्वमेव आस्थस्त्वमेव निराकृतवान् । न तीर्थान्तरदैवतानि । केन कृत्त्वा ? नयप्रमाणपथेन । नयप्रमाणे उक्तस्वरूपे । तयोर्मार्गेण प्रचारेण । यतस्त्वं यथार्थदर्शी । यथार्थोऽस्ति तथैव पश्यतीत्येवंशीलो यथार्थदर्शी । वि - | | मलकेवलज्योतिषा यथावस्थितवस्तुदशीं । तीर्थान्तरशास्तारस्तु रागादिदोषकालुष्यकलङ्कितत्वेन तथाविधज्ञाना| भावान्न यथार्थदर्शिनः । ततः कथं नाम दुर्नयपथमथने प्रगल्भन्ते ते तपस्विनः ? इस प्रकार वस्तुका स्वरूप कहकर स्तुतिकर्ता 'यथार्थदर्शी ' इत्यादि वचनद्वारा भगवत्की स्तुति करते है । 'तु' शब्द उप Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादान ॥१९७॥ युक्त श्लोकमें जहां पड़ा है वहा ही उसका संबंध नहीं होता किंतु 'त्वमास्थः' इस स्थानमें पड़े हुए 'त्वम्' ऐसे शब्दके साथ राजै.शा. होता है । तथा इस 'तु' शब्दका अर्थ 'ही' अथवा 'निश्चय' होता है। इसलिये श्लोकके अन्तिम भागका अर्थ ऐसा करना चाहिये । कि आप ही दुर्नयरूप खोटे मार्गके मिटानेवाले हों; अन्य कोई भी देव दुर्नयरूप खोटे मार्गको नहीं मिटा सकता है। कैसे 2 3 के सच्चे नय प्रमाणका मार्ग दिखानेसे । नय प्रमाणोंका स्वरूप कह ही चुके है। इन नय प्रमाणोंका सच्चा प्रकास करना ही नय प्रमा णोंके मार्गका दिखाना है । आप सच्चे मार्गको दिखानेवाले इसीसे सिद्ध है कि आप यथार्थदर्शी है। जैसा कुछ पदार्थ है उसको जो तैसा ही देखता हो उसको यथार्थदर्शी कहते है । निर्मल केवलज्ञानरूपी ज्योतिकर आपने ही वस्तुका यथावस्थित खरूप देखा है, और जो अन्यमतोंके प्रवर्तक है वे रागद्वेषादि दोषोंसे कलंकित रहनेके कारण सच्चा ज्ञान नहीं पासके है और इसीलिये वे यथार्थदर्शी नही है । यथार्थदर्शी न होनेसे वे वेचारे दुर्नयरूप खोटे मार्गका निराकरण भी नहीं कर सकते है। न हि स्वयमनयप्रवृत्तः परेपामनयं निषे मुद्धरतां धत्ते । इदमुक्तं भवति । यथा-कश्चित्सन्मार्गवेदी परोपकारदुर्ललितः पुरुषश्चौरश्वापदकण्टकाद्याकीर्ण मार्ग परित्याज्य पथिकानां गुणदोषोभयविकलं दोपाऽस्पृष्टं गुणयुक्तं च मार्गमुपदर्शयति एवं जगन्नाथोऽपि दुर्नयतिरस्करणेन भव्येभ्यो नयप्रमाणमार्ग प्ररूपयतीति । जो खयं ही अनीति मार्गमें पड़ा है वह दूसरोको अनीतिमार्गसे अलग नहीं कर सकता है । कहनेका अभिप्राय यह है कि ५ जिस प्रकार कोई पुरुष सच्चे मार्गको जानता हुआ और परोपकार करनेमें तत्पर होता हुआ जीवोंको खोटे मार्गसे बचानेकी इच्छाकर चोर सिंह व्याघ्रादि भयानक जंतुओंसे तथा कंटक आदि दुःखदाई चीजोसे भरा हुआ मार्ग छुड़ाकर पथिकोको ऐसा मार्ग दिखा देता है जो गुणदोष रहित हो अथवा दोषरहित गुणसहित हो; उसी प्रकार जगत्के नाथ जिनेन्द्र भगवान् भी दुर्नयोंका खंडन १ करते हुए भव्योंको सच्चा नयप्रमाणरूप मार्ग दिखाते है। ___ आस्थ इत्यस्यतेरद्यतन्यां "शास्त्यस्तिवक्तिख्यातेर इत्यङि "श्वयत्यस्तवचपतःश्वास्थवोचपप्तम्" इति स्थादेशे "स्वरादेस्तासु" इति वृद्धौ रूपम् । ॥१९७॥ __ श्लोकके अंतमें जो 'आस्थः' पद है उसका अर्थ निराकरण करना है । अस् धातुके आगे अद्यतनी अथवा लुड् लकारवाचक भूतकालिक प्रत्ययके अर्थमें 'शास्त्यस्तिवक्तिख्यातेरङ्' इस सूत्रसे अङ् प्रत्यय होकर पीछे 'श्वयत्यस्तिवचपतः श्वास्थवोचपप्तम्' Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सूत्र से असके स्थान में अस्थ आदेश होकर पीछे जब 'खरादेस्तासु' इस सूत्रकर अस्थके ह्रख अकारको दीर्घ हो जाता है तब 'आस्थः ' ऐसा पद बनजाता है । मुख्यवृत्त्या च प्रमाणस्यैव प्रामाण्यम् । यच्चात्र नयानां प्रमाणतुल्यकक्षताख्यापनं तत्तेषामनुयोगद्वारभूततया प्रज्ञापनाङ्गत्वज्ञापनार्थम् । चत्वारि हि प्रवचनाऽनुयोगमहानगरस्य द्वाराणि । उपक्रमो मिक्षेपोऽनुगमो मयाश्चेति । एतेषां च स्वरूपमावश्यकभाष्यादेर्निरूपणीयम् । इह तु नोच्यते ग्रन्थगौरवभयात् । अत्र चैकत्र कृतसमासान्तः पथिन्शब्दोन्यत्र चाऽव्युत्पन्नः पथशब्दोऽदन्त इति पथशब्दस्य द्विःप्रयोगो न दुष्यति । यद्यपि यथार्थ देखा जाय तो मुख्यपनेसे प्रमाणज्ञानमें ही प्रमाणपना रहता है परंतु तो भी जो नयोंको प्रमाणके तुल्य कहा है सो यह अभिप्राय जतानेके लिये कहा है कि नय जो पदार्थका सच्चा स्वरूप दिखानेवाले माने गये है वे अनुयोगोंके द्वार होनेकी अपेक्षा ही माने गये है । प्रवचन अनुयोगरूपी विशाल नगर में प्रवेश पानेके चार द्वार हैं; उपक्रम, निक्षेप, अनुगम तथा नय । इन द्वारोंका खरूप जानना हो तो आवश्यकभाष्यादि ग्रन्थोंमें कहा है; वहांसे जान लेना । यहांपर ग्रन्थ बढ जानेके भयसे नहीं कहा है । इस लोकमें एक स्थानपर तो समासान्त 'पथिन्' शब्द है तथा दूसरे स्थानपर अव्युत्पन्न अकारान्त 'पथ' शब्द है इसलिये पथ शब्दको दो बार लिखना अनुचित नही है । अथ दुर्नयनयप्रमाणस्वरूपं किञ्चिन्निरूप्यते । तत्रापि प्रथमं नयखरूपं तदनधिगमे दुर्नयस्वरूपस्य दुष्परिज्ञानत्वात् । अत्र चाचार्येण प्रथमं दुर्नयनिर्देशो यथोत्तरं प्राधान्यावबोधनार्थः कृतः । तत्र प्रमाणप्रतिपन्नार्थैकदेशप|रामर्शो नयः । अनन्तधर्माध्यासितं वस्तु स्वाभिप्रेतैकधर्मविशिष्टं नयति प्रापयति संवेदन कोटिमारोहयतीति नयः । प्रमाणप्रवृत्तेरुत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थः । अब दुर्नय, नय तथा प्रमाणका निरूपण कुछ करना चाहिये उसमें भी सबसे प्रथम नयका खरूप दिखाना चाहिये । क्योंकि जबतक नयका खरूप नहीं दिखावेंगे तबतक दुर्नयका खरूप समझना कठिन है । श्लोक में आचार्य महाराजने प्रथम दुर्नय, फिर नय तथा अंतमें प्रमाण शब्द रक्खा है सो इसका अभिप्राय यह है कि प्रमाणता तथा मुख्यता उत्तरोत्तर अधिक है । अर्थात् दुर्नय तो अप्रमाण है नय किसी अपेक्षा प्रमाण है तथा प्रमाण सर्वथा ही प्रमाण है । प्रमाणद्वारा निश्चित किये हुए पदार्थके Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाद्वादमं. ॥१९८॥ एक अंशका जो विचार करना है वह नय है । वस्तु तो प्रत्येक अनंत धर्मसहित है परंतु विवक्षित किसी एक धर्मरूप उस वस्तुको राजै शा. जो सिद्ध करै अथवा आरोपित करै वह नय है । अर्थात् प्रत्येक वस्तु अनंतो धर्मवाली होती है उनमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्यता करके किसी वस्तुको उसी एक विवक्षित धर्ममय कहना तथा मानना सो नय है। नय सदा तभी प्रवर्तता है तथा उसी वस्तुमें प्रवर्तता है जब जो वस्तु प्रमाणज्ञानद्वारा जानी जा चुकती है। नयाश्चानन्ता अनन्तधर्मत्वाद्वस्तुनस्तदेकधर्मपर्यवसितानां वक्तुरभिप्रायाणां च नयत्वात् । तथा च वृद्धाः “जावइया वयणपहा तावइया चेव हुँति नयवाया" इति । तथापि चिरन्तनाचार्यैः सर्वसंग्राहिसप्ताभिप्रायपरिकल्पनाद्वारेण सप्त नयाः प्रतिपादिताः। तद्यथा । नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूता इति । कथमेषां सर्वग्राहकत्वमिति चेदुच्यते । अभिप्रायस्तावदर्थद्वारेण शब्दद्वारेण वा प्रवर्तते; गत्यन्तराऽभावात् । तत्र ये केचनार्थनिरूपणप्रवणाः प्रमात्रभिप्रायास्ते सर्वेऽप्याये नयचतुष्टयेऽन्तर्भवन्ति । ये च शब्दविचारचतुरास्ते शब्दादिनयत्रये इति। नय वस्तुके उसी एक धर्मको ग्रहण करता है जो वक्ताको इष्ट हो । प्रत्येक वस्तुमें धर्म अनंतो होते है इसलिये नय भी ॐ अनंतो ही हो सकते है । पूर्वाचार्योंने ऐसा ही कहा है कि "जितने प्रकारसे वचन बोले जा सकते है उतने ही प्रकारके नय हैं"। इस प्रकार यद्यपि नय बहुत है परंतु उन संपूर्ण नयोंका अभिप्राय वक्ष्यमाण सात प्रकारके भेदोंमें ही अन्तर्गत हो जाता है इसलिये पूर्वाचार्योंने नयोंको संक्षेपसे सातप्रकार ही कहा है; नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत । इन्ही सात ) प्रकारोमें संपूर्ण नयोंके अभिप्राय जिस प्रकार अन्तर्हित हो सकते है सो दिखाते है। अभिप्रायका प्रगट करना या तो किसी पदार्थके द्वारा हो सकता है अथवा किसी शब्द द्वारा हो सकता है। तीसरा तो कोई मार्ग ही नही है। इनमेसे जो * अभिप्राय ऐसे है जिनका प्रगट करना पदार्थोद्वारा हो सकै वे तो सर्व आदिके चार नयोंमें गर्भित हो जाते है और जो विचार शब्दद्वारा प्रगट हो सकते है उनका अन्तर्भाव अंतके शब्दादि तीन नयोमें होता है। ॥१९८॥ तत्र नैगमः सत्तालक्षणं महासामान्यमवान्तरसामान्यानि च द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादीनि तथाऽन्त्यान्विशेषान्सकलाऽसाधारणरूपलक्षणानऽवान्तरविशेषांश्चाऽपेक्षया पररूपव्यावर्त्तनक्षमान सामान्यादत्यन्तविनिलुंठितस्वरूपान Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिप्रैति । इदं च स्वतन्त्र सामान्यविशेषवादे क्षुण्णमिति न पृथक्प्रयत्नः । प्रवचनप्रसिद्धनिलयनप्रस्थदृष्टान्तद्वयगम्यश्चायम् । संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते । एतच्च सामान्यैकान्तवादे | प्राक् प्रपञ्चितम् । इन सातोंमेंसे आदिका जो नैगम नय है वह सत्रूप महासामान्यको तथा द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्वादिरूप अवान्तर सामान्योको एवं प्रत्येक स्थूल पदार्थोंमें रहनेवाले विशेषोंको तथा जिनका खरूप सामान्य धर्मकी अपेक्षा सर्वथा उलटा और अपेक्षा करनेपर जिसके द्वारा एक दूसरेका भेदभाव प्रतीतिगोचर होता हो ऐसे सूक्ष्म अवान्तर विशेष धर्मो को ग्रहण करता है । अर्थात् संपूर्ण प्रकार के सामान्य धर्म तथा समग्र प्रकारके विशेष धर्मोंको यह नैगम नय अभेदभावसे स्वीकार करता है । भावार्थ — — यह नय सामान्यविशेषधर्मसहित पदार्थको सामान्यभावसे ग्रहण करता है; किसी भी धर्मको छोड़ता नहीं है। जहांपर सामान्य | विशेष धर्मोंको सर्वथा भिन्न भिन्न माननेवालोंका विचार किया है वहांपर ही सामान्यविशेषात्मकपनेका विवेचन कर चुके हैं और वही विषय नैगम नयका है इसलिये यहांपर फिरसे इसका विचार नहीं करते । इस नैगम नयके दो दृष्टान्त शास्त्रों में प्रसिद्ध है; उन्हीसे इसका खुलासा ज्ञान होता है। उन दो दृष्टान्तों में पहिला तो निलयनका है और दूसरा पंसेरी ( पांचसेरी ) का है । | संग्रह नय जो दूसरा है वह संपूर्ण विशेष धर्मोकी आकांक्षा छोड़कर किसी सामान्य धर्मकी मुख्यता लेकर जितनेमें वह सामान्य धर्म रहता हो उस संपूर्ण विषयको ग्रहण करता है । इस नयके विषयका आलोचन भी सर्वथा सामान्यरूप पदार्थ | माननेवालेका खंडन करते समय कर आये है. । व्यवहारस्त्वेवमाह । यथा लोकग्राहमेव वस्त्वस्तु । किमनया अदृष्टाऽव्यवह्रियमाणवस्तुपरिकल्पनकष्टपिष्टिकया ? यदेव च लोकव्यवहारपथमवतरति तस्यैवाऽनुग्राहकं प्रमाणमुपलभ्यते; नेतरस्य । न हि सामान्यमनादि - | निधनमेकं संग्रहाऽभिमतं प्रमाणभूमिस्तथानुभवाऽभावात् सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसङ्गाच्च । नापि विशेषाः परमाणुलक्षणा: क्षणक्षयिणः प्रमाणगोचरास्तथा प्रवृत्तेरभावात् । तस्मादिदमेव निखिललोकाऽवाधितं प्रमाणप्रसिद्धं किय|त्कालभाविस्थूलतामाविभ्राणमुदकाद्याहरणाद्यर्थक्रियानिर्वर्तनक्षमं घटादिकं वस्तुरूपं पारमार्थिकम् । पूर्वोत्तरकाल| भावितत्पर्यायपर्यालोचना पुनरज्यायसी ; तत्र प्रमाणप्रसराऽभावात् प्रमाणमन्तरेण विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 स्याद्वादम. ॥ १९९॥ तीसरा व्यवहार नय ऐसा कहता है कि वस्तु उतने मात्र ही है जिसनी लौकिक व्यवहारमें काम आती है तथा जिस विस प्रकार लोक व्यवहारमें मानी जाती है। जिसका दर्शनमात्र भी नही है तथा जो लोकोंके व्यवहारमें हो भी आती नहीं हो ऐसी वस्तुकी कल्पना करनेका कष्ट उठाने से क्या प्रयोजन जितनी कुछ वस्तु लोकव्यवहारमें आवश्यकीय हैं उन्हीका प्रमाणद्वारा निश्चय होता है । जो लोकव्यवहारके मार्गमें नही आती उसका प्रमाणद्वारा निश्चय भी नहीं होता है । अर्थात् लोकव्यवहारमें जो कुछ वस्तु आवश्यकीय होती है वह विशेषरूप ही होती है । जो अनादिनिधन संग्रहनयका विषयभूत एकत्वरूप सामान्य माना गया है उसका किसी प्रकार भी अनुभव से निश्चय नहीं होता । अर्थात् व्यवहार दृष्टिसे देखते है तो सभी वस्तु विशेषरूप ही कार्यक्षेत्रमें उपयोगी जान पडती है। यदि सामान्य धर्मका भी जीवोको अनुभव होता हो तो वे मनुष्य सर्वदर्शी अर्थात् सर्वज्ञ होजाने चाहिये । क्योंकि; जिस सामान्य धर्मका अवलोकन होना माना जायगा वह सामान्य सभी चराचर त्रिलोक तथा त्रिकालवर्ती पदार्थोमं विद्यमान रहनेवाला है । जो क्षण क्षणमें नष्ट माने जाते हैं ऐसे परमाणुरूप सर्वथा विशेष पदार्थ भी प्रमाणसे निश्चित नहीं होते । क्योंकि, यदि ऐसे पदार्थ भी प्रमाणगोचर होते तो उनमें जीवोंकी प्रवृत्ति भी उसके अनुकूल ही दीखती, परंतु ऐसे पदार्थोंको विषय करनेवाली लोकोंकी प्रवृत्ति नहीं दीखती है इसलिये ऐसे पदार्थ है ही नहीं जिनका कि क्षण क्षणमें विध्वंस होता रहता हो । अवस्तुत्वाच्च तेषां किं तद्गोचरपर्यालोचनेन । तथा हि । पूर्वोत्तरकालभाविनो द्रव्यविवर्त्ताः क्षणक्षयिपरमाणुलक्षणा वा विशेषा न कथंचन लोकव्यवहारमुपरचयन्ति । तन्न ते वस्तुरूपा लोकव्यवहारोपयोगिनामेव वस्तुत्वात् । अत एव पन्था गच्छति, कुण्डिका स्रवति, गिरिर्दह्यते, मञ्चाः क्रोशन्तीत्यादिव्यवहाराणां प्रामाण्यम् । तथा च वाचकमुख्यः “ लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहारः " इति । इसलिये लोगोको यही निर्वाध प्रतीति होरही है कि जो वस्तु कुछ समयतक ठहरनेवाली स्थूल पर्याय धार रही हों तथा जिनके द्वारा जल लाने आदिक कर्म होसकते हो वे ही यथार्थमें पदार्थ है। पूर्वोत्तर पर्यायोंकी कल्पना करके उनमें सदा रहनेवाला कोई एक शाश्वता पदार्थ मानना निस्सार है । क्योंकि ऐसा माननेमें कोई भी प्रमाण काम नहीं देता है । और जिसमें प्रमाण प्रवेश 1 नहीं कर सकता है उसका सिद्ध होना कठिन है । तथा ऐसा कोई एक अनाद्यनिधन पदार्थ ही नहीं है जिसमें नाना प्रकार के दृष्टिगोचर पर्याय होते हुए अनुभवमें आते हों। क्योंकि; विचार करनेपर ऐसा कोई भी पदार्थ सिद्ध नहीं होता । पूर्वोत्तर कालमें रा. शा. ॥ १९९॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 होनेवाले पर्यायोंका आश्रयभूत ऐसा कोई एक एक पदार्थ अथवा क्षणक्षण में नष्ट होंनेवाले परमाणुखरूप विशेष पदार्थ किसी भी लौकिक उपयोग में नहीं आते हैं इसलिये वे यथार्थमें सत्यार्थ पदार्थ ही नहीं है । क्योंकि; सच्चे पदार्थ वे ही है जो लौकिक प्रयोजनमें आ सकते है । इसीलिये मार्ग चलता है; कुंडी वहती है, पर्वत जल रहा है, पलंग चिल्लाते इत्यादि लौकिक व्यवहार प्रमाणभूत माने जाते है । ग्रन्थकर्ताओंके शिरोमणि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके कर्ताने भी ऐसा ही कहा है "जो लौकिक व्यवहारके अनुसार हो, जिसका शरण उपचार हो तथा जिसका लौकिक प्रयोजन अधिक हो वह व्यवहार नय है" । ऋजुसूत्रः पुनरिदं मन्यते । वर्तमानक्षणविवर्त्येव वस्तुरूपं नाऽतीतमनागतं च । अतीतस्य विनष्टत्वादनाग| तस्याऽलब्धात्मला भत्वात्खरविषाणादिभ्योऽविशिष्यमाणतया सकलशक्तिविरहरूपत्वान्नार्थक्रियानिर्वर्तनक्षमत्वम् । तदभावाच्च न वस्तुत्वं; यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसदिति वचनात् । वर्तमानक्षणालिङ्गितं पुनर्वस्तुरूपं | समस्तार्थक्रियासु व्याप्रियत इति तदेव पारमार्थिकम् । तदपि च निरंशमभ्युपगन्तव्यम्; अंशव्याप्तेर्युक्तिरिक्तत्वात्ः | एकस्याऽनेकस्वभावतामन्तरेणाऽनेकस्वावयवव्यापनाऽयोगात् । अनेकस्वभावतैवाऽस्त्विति चेन्न विरोधव्याघ्राघातत्वात् । तथा हि । चौथा ऋजुसूत्र न मानता है कि न तो अतीत ही वस्तुका खरूप है और न आगामी ही, किंतु जो शुद्ध वर्तमान समय में | विद्यमान है वही वस्तुका खरूप है। जो बीत चुका है वह तो विनष्ट हो चुकनेसे तथा जो आगामी है वह अभी पैदा ही नहीं हुआ है इससे ये दोनो प्रकारके पर्याय सर्वथा गधेके सींगोके ही समान है । इसलिये संपूर्ण सामर्थ्यरहित होने से इनके द्वारा | किसी भी प्रयोजनकारी क्रियाकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । यदि इससे प्रयोजनकारी क्रिया ही नही हो सकती है तो यह वस्तु कैसा ? ऐसा कहा भी है कि " जो अर्थक्रियाकारी होता है उसीको यथार्थमें वस्तु कहना चाहिये " । और जो वस्तु वर्तमान क्षणमें विद्यमान होता है वही संपूर्ण प्रयोजनीभूत क्रियाओंको करता है इसलिये उसीको यथार्थ वस्तु कहना उचित है । वर्तमानकालीन भी जो निरंश हों वही वस्तु कहा जा सकता है । क्योंकि; अनेक अंशविशिष्ट किसी एक वस्तुको माननेमें कोई प्रमाण ही नही है । यदि एक ही वस्तु अपने अनेक अवयवोंमें व्याप्त होती हुई मानी जाय तो वह अनेक प्रकारके स्वभाव धारण किये विना नहीं व्याप्त हो सकती है और एक ही वस्तुमें अनेक स्वभावोंका होना असंभव है । और यह कहना भी ठीक Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज-शा. स्थाद्वादम-कानही है कि एक वस्तुमें अनेक खभाव यदि रहै तो क्या हानि है। क्योंकि; एक ही वस्तुमें यदि अनेक स्वभावोंकी सत्ता मानी जायगी तो उस वस्तुको विरोधरूपी व्याघ्र सूंघने लगैघा । उस विरोधको आगे दिखाते है। ॥२०॥ l यद्येकः स्वभावः कथमनेकोऽनेकश्चेत्कथमेकः? एकाऽनेकयोः परस्परपरिहारेणाऽवस्थानात् । तस्मात्स्वरूपनिमग्नाः परमाणव एव परस्परोपसर्पणद्वारेण कथंचिन्निचयरूपतामापन्ना निखिलकार्येषु व्यापारभाजः। इति त एव स्वलक्षणं, न स्थूलतां धारयत् पारमार्थिकमिति । एवमस्याभिप्रायेण यदेव स्वकीयं तदेव वस्तु, न परकीयम्; अनुपयोगित्वादिति। all अनेक खभाव एक ही वस्तुमें माननेसे विरोध आने लगता है । क्योंकि जितने स्वभाव होते है वे एक दूसरेसे विरुद्ध होते "है । यदि विरुद्धखभाववाले न हों तो उन खभावोमें अनेकपना ही कैसा ? और जो परस्पर विरुद्ध खभाववाले होते है वे एक स्थानमें किसी प्रकार नहीं रह सकते हैं । तथा यदि एक ही स्वभाव है तो अनेक खभाव कैसे ? और यदि अनेक खभाव है तो उनको एक कैसे कह सकते है क्योंकि; एकपना तथा अनेकपना ये दोनों धर्म परस्परमें विरोधी होनेसे एक स्थानमें नहीं रह सकते है। किंतु एक स्थानमें एक ही रहेगा। इसलिये अपने अपने खरूपमें निमग्न ऐसे परमाणु ही परस्परमें एक दूसरेके साथ निमित्त पाकर इकट्ठे होते हुए संपूर्ण कार्योंको करते है और इसलिये वे शुद्ध परमाणु ही यथार्थ वस्तु है; न कि जो स्थूल रूपको | धारण करते है ऐसे कोई स्थूल पदार्थ परमार्थ वस्तु हो । इस प्रकार जब इस नयकी अपेक्षा देखते है तो जितना शुद्ध एक एक निज वस्तु है वही केवल सच्ची वस्तु है और जो पररूप है अथवा जो अनेक परमाणुओंके समूहसे उत्पन्न हुई दीखती है वह ४ कोई सच्ची वस्तु नही है। क्योंकि, ऐसी वस्तुका कुछ उपयोग नहीं हो सकता है। सच्चा उपयोग परमाणुओंसे ही हो सकता है। शब्दस्तु-रूढितो यावन्तो ध्वनयः कस्मिंश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते; यथेन्द्रशक्रपुरन्दरादयः सुरपतौ तेषां सर्वेपामप्येक मर्थमभिप्रेति किल । प्रतीतिवशाद्यथा शब्दाऽव्यतिरेकोऽर्थस्य प्रतिपाद्यते तथैव तस्यैकत्वमनेकत्वं वा प्रतिपादनीयम् । न चेन्द्रशक्रपुरन्दरादयः पर्यायशब्दा विभिन्नार्थवाचितया कदाचन प्रतीयन्ते; तेभ्यः सर्वदैकाकारपरामशी 'सुरपतौ ' इति पाठो नास्त्येव खपुस्तके । ॥२०॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तेरस्खलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात् । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति; शव्द्यते आहूयतेऽनेनाऽभिप्रायेणार्थ इति निरुक्तादेकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीनां प्रयोगात् । पांचवें शब्दनयकी प्रधानता होनेपर जितने कुछ शब्द रूढिके वशसे किसी एक पदार्थमें लगसकते है उन संपूर्ण शब्दोंका वाच्य अर्थ एक ही समझा जाता है। जैसे इंद्र, शक्र-पुरंदरादिक शब्द एक इन्द्रनामक देवोंके राजामें लगसकते है इसलिये| इन संपूर्ण शब्दोंका अर्थ एक देवराज ही मानना सो शब्दनय है। जिस प्रकार वाचक शब्दसे पदार्थको अभिन्न मानते है।। क्योंकि, प्रतीति ऐसा ही खीकार करती है। उसी प्रकार प्रतीतिगोचर होनेके कारण उन संपूर्ण शब्दोंके अर्थको भी एक मानसकते है। इन्द्र, शक, पुरंदर आदिक जो पर्यायवाची शब्द होते है उनके अर्थ जुदे जुदे प्रतीत नहीं होते । क्योंकि उनमेंसे किसी भी। एक शब्दके वोलनेसे उसी एक पदार्थकी प्रतीति होती है तथा लाना लेजाना आदिक क्रिया भी उसी एक की होती दीखती है। इसलिये जितने पर्यायवाची शब्द होते है उन सवोंका वाच्य अर्थ एक ही होना चाहिये। 'शब्द' धातुका अर्थ वोलना है। जिस Kला अभिप्रायसे अर्थ कहाजाता है उसको शब्द कहते है ऐसा शब्दनयका अर्थ करनेसे यह समझ सकते हैं कि जितने पर्यायवाची | शब्द होते है वे सब एक ही अभिप्रायकी मुख्यतासे बोले जाते है इसी लिये उन सब शब्दोका अर्थ एक ही समझना चाहिये ।। AT यथा चाय पर्यायशब्दानामेकमर्थमभिप्रेति तथा तटस्तटी तटमिति विरुद्धलिङ्गलक्षणधर्माभिसंवन्धाद्वस्तुनो भेदं चाभिधत्ते । न हि विरुद्धधर्मकृतं भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्माऽयोगो युक्तः। एवं संख्याकालकारIN|| कपुरुषादिभेदादपि भेदोऽभ्युपगन्तव्यः । तत्र संख्या एकत्वादिः । कालोऽतीतादिः । कारकं कादि । पुरुषः प्रथमपुरुषादिः। शब्द नय जिस प्रकार पर्यायवाची अनेक शब्दोंका अर्थ एक समझाता है उसीप्रकार विरुद्ध लिगवाले शब्दोंके वाच्य अर्थको लिङ्गभेदके कारण भिन्न भिन्न भी प्रतीत कराता है । जैसे पुल्लिङ्ग तट शब्दका अर्थ कुछ अन्य है तथा स्त्रीलिङ्गवाले तटी शब्दका | अर्थ कुछ जुदा है और नपुंसकलिङ्गवाले तट शब्दका कुछ और ही है। जिस वस्तुमें विरुद्ध धर्मके कारण भेदका अनुभव होता ||| हो वह विरुद्धधर्मवाला नही है ऐसा कहना असगत है । क्योंकि यथार्थमें यदि उस वस्तुमें एक दूसरी वस्तुकी अपेक्षा विरुद्ध धर्म नही रहता हो तो उन दोनोंमें भेद दृष्टिगत क्यों हो?। जिस प्रकार एक ही शब्दमें लिङ्गका भेद होनेसे उसके अर्थ भेद Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. राजै.शा. ॥२०१॥ माना जाता है उसीप्रकार संख्या, काल, कारककी तथा पुरुषादिकी अपेक्षा गब्दोमें भेद होनेसे भी अर्थमें भेद मानाजाता है। * संख्या तो एकवचनादि । जैसे पुरुप (एक ) है, पुरुष ( दो अथवा बहुत ) है । कालका भेद अतीतकालादि-जैसे वह है, वह था, वह होगा। कारक कर्ता कर्म करणादि । जैसे 'वह भागता है' इस वाक्यमे तो 'वह' शब्द कर्ताकारक है और 'उसको * खाता है' यहांपर 'उसको' शब्द कर्मकारक है। पुरुष-प्रथम पुरुप, मध्यम पुरुप, उत्तम पुरुष । जैसे 'वह है' यहापर प्रथम पुरुष है; 'तू है' यहांपर मध्यम पुरुष है तथा 'मै हू' यहांपर पुरुष उत्तम है । इसी प्रकार सर्वत्र लिङ्गादिके भेदसे शब्दोंके अर्थमें परस्पर भेद मानाजाता है। समभिरूढस्तु पर्यायशब्दानां प्रविभक्तमेवार्थमभिमन्यते । तद्यथा। इन्दनादिन्द्रः। परमैश्वर्यमिन्द्रशब्दवाच्यं परमार्थतस्तद्वत्यर्थे । अतद्वति पुनरुपचारतो वर्तते। न वा कश्चित् तद्वान्; सर्वशब्दानां परस्परविभक्तार्थप्रतिपादितया आश्रयाश्रयिभावेन प्रवृत्त्यसिद्धेः। ___छट्ठा समभिरूढ नय पर्यायवाची शब्दोंके अर्थको परस्पर भिन्न भिन्न मानता है । इंद्रशब्दका यथार्थ अर्थ परम ऐश्वर्य होता है। इसलिये जिसमें परम ऐश्वर्य संभव हो उसीको इंद्र मानना समभिरूढ नयका कर्तव्य है। क्योकि इन्द्रशब्दका वाच्य अर्थ जो परम K ऐश्वर्य है वह यथार्थमें उसीमें मिलसकता है जिसमे परम ऐश्वर्य सचमुच हो। जिसमें परम ऐश्वर्य नहीं है उसको इंद्र कहना उपचारमात्र है । सचमुचमें देखा जाय तो जिसमें परम ऐश्वर्य नहीं है उसको इन्द्र कहना ही नहीं चाहिये । क्योंकि; यथार्थमें वह परम ऐश्वर्यवाला है ही नही । सो भी क्योकि; जितने शब्द है वे सब अलग अलग अर्थको कहनेवाले होनेसे जिसमें किसी शब्दका वाच्य अर्थ संभव न हो उसमें उस वाच्य अर्थका आश्रयपना होनेमात्रसे ही उस शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होसकती है। / भावार्थ-जब समभिरूढ नयकी अपेक्षा की जाती है तब किसी शब्दकी कहीपर भी इतनेमात्रसे प्रवृत्ति नही हो जाती कि - अमुक पदार्थमें यद्यपि उस शब्दका वाच्यरूप धर्म तो नही है परतु इसमें स्थापना आदिकसे आरोपित होस ता है इसलिये उस व धर्मका आश्रय होनेसे उस शब्दका वाच्य अमुक होसकता है। किंतु समभिरूढ नयकी अपेक्षा किसी भी शब्दकी तभी प्रवृत्ति होती है जब उस शब्दका वाच्यरूप धर्म उस पदार्थमें सचमुच विद्यमान हो। म एवं शकनाच्छकः, पूरणात्पुरन्दर इत्यादिभिन्नार्थत्वं सर्वशब्दानां दर्शयति प्रमाणयति च । पर्यायशब्दा । ॥२०॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN अपि भिन्नार्थाः प्रविभक्तव्युत्पत्तिनिमित्तकत्वात् । इह ये ये प्रविभक्तव्युत्पत्तिनिमित्तकास्ते ते भिन्नार्थाः । यथेन्द्रपशुपुरुषशब्दाः । विभिन्नव्युत्पत्तिनिमित्तकाश्च पर्यायशब्दा अपि । अतो भिन्नार्था इति ।। जिस प्रकार इन्द्रशब्द जहांपर अपना वाच्य अर्थ हो वहापर ही प्रवृत्त होता है उसी प्रकार शकशब्द तथा पुरंदरादि शब्द भी जिसमें खार्थ दीखता हो उसीमें प्रवृत्त हो सकते है। शक्रगव्दका अर्थ सामर्थ्यसहित होना है। पुरोंको जो दारण अर्थात् विदारण करता हो उसको पुरंदर कहते है । इसी प्रकार और भी जिस जिसके जितने जितने पर्यायवाचक शब्द होते है वे सव । समभिरूढ नयकी अपेक्षा परस्पर भिन्न भिन्न अाँको ही दिखाते हैं तथा भिन्न भिन्न ही निश्चय कराते हैं। क्योंकि जितने गन्द्र है उन सवोंकी व्युत्पत्ति अर्थात् शब्द साधनेकी प्रक्रिया सर्वथा भिन्न भिन्न है। जिनके बनानेकी शैली परस्पर भिन्न होती है वे परस्पर भिन्न ही देखे जाते हैं । जैसे इन्द्र, पशु पुरुप, आदिक शब्द जुदी जुदी प्रकृति प्रत्यय आदि सामग्रीसे बनते हैं इसलिये C. इनके अर्थ सर्वथा जुदे जुदे ही दीखते है । सो जैसे इन्द्र, पशु, पुरुषादि शब्द परस्पर भिन्न प्रक्रियासे बनते हैं उसीप्रकार पर्याय-12 वाची शब्द भी भिन्न प्रकृति प्रत्ययादिकोंसे बनते हैं इसलिये पर्यायवाची शब्दोके अर्थ भी परस्पर भिन्न ही होने चाहिये। एवंभूतः पुनरेवं भापते । यस्मिन्नर्थे शब्दो व्युत्पाद्यते स व्युत्पत्तिनिमित्तमों यदैव प्रवर्तते तदैव तं शब्द धू प्रवर्तमानमभिप्रैति, न सामान्येन । यथोदकाद्याहरणवेलायां योपिदादिमस्तकारूढो विशिष्टचेष्टावानेव घटोभि धीयते, न शेपो; घटशव्दव्युत्पत्तिनिमित्तशून्यत्वात् पदादिवदिति । अतीतां भाविनी वा चेप्टामङ्गीकृत्य सामान्ये५ नैवोच्यत इति चेन्न; तयोविनष्टाऽनुत्पन्नतया शशविपाणकल्पत्वात् । एवंभूत नय ऐसा कहता है कि जितने अर्थकी वाचकता लेकर जो शब्द व्याकरण द्वारा बनाया जाता है उतना अर्थ जब प्रकट होता हुआ दीखता हो तभी उस शब्दका प्रयोग करना उचित है; जबतक उस अर्थकी उत्पत्ति नहीं हुई हो तबतक उस शब्दकी किसी स्थानमें प्रवृत्ति करना उचित नहीं है। जैसे जिस समय घड़ा जलसे भरा हुआ किसीके मस्तकपर रक्खा हुआ आता दीखै तभी उसको घड़ा कहना एभूत नयकी अपेक्षासे सत्य है। किंतु जो घड़ा जब ऐसी अवस्थाम नही है तब उसको घड़ा कहना एवंभूतकी अपेक्षा उचित नहीं है। क्योंकि घडाशब्द व्याकरण रारा इसी अर्थमें बनाया जाता है। इसीप्रकार पटादि शब्द भी तभी उपयोगमें लाने चाहिये जब उनका वाच्य अर्थ प्रगट होरहा हो। जो पदार्थ किसी पर्यायरूप परिणत होचुका हो| Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादम.की अथवा होनेवाला हो उसकी भूत या भावी चेष्टा वर्तमानमें गधेके सीगसमान असत्रूप है अर्थात् वर्तमानमें कुछ है ही नहीं। राजै.शा. " इसलिये ऐसी भूत या भावी पर्यायोंकी चेष्टाका बहाना लेकर किसी पदार्थमें उस भूत भावी पर्यायके वाचक शब्दका प्रयोग करना y ॥२०२॥ सर्वथा अनुचित जान पड़ता है। ॐ तथापि तद्द्वारेण शब्दप्रवर्तने सर्वत्र प्रवर्तयितव्यो विशेपाऽभावात् । किं च यद्यतीतवय॑च्चेष्टापेक्षया घटशVब्दोऽचेप्टावत्यपि प्रयुज्येत, कपालमृत्पिण्डादावपि तत्प्रवर्तनं दुर्निवारं स्याद्विशेपाऽभावात् । तस्माद्यत्र क्षणे व्युत्पत्तिनिमित्तमविकलमस्ति तस्मिन्नेव सोऽर्थस्तच्छन्दवाच्य इति । ___ यदि वर्तमानमें किसी शब्दके वाच्यरूप पर्यायका अभाव रहनेपर भी केवल भूत भावी पर्यायोंकी कल्पनाकर उस पर्यायरूप मानकर वह उस शब्दका वाच्य मानना ठीक हो तो सभी शब्दोंका प्रयोग सभी पदार्थोंमें करना चाहिये । क्योंकि, प्रत्येक सभी पुद्गल कभी न कभी विवक्षित पर्यायरूप होगया ही होगा; नही तो आगे होजायगा । और यदि अतीत अनागत चेष्टाओंकी 4 अपेक्षा लेकर भी वर्तमानमें घड़ेकी चेष्टा न होनेपर भी घड़े घड़ाशब्दका प्रयोग होसकता हो तो जवतक घडा बना ही नही है तबतक कपाल मट्टी आदि अवस्थाओंमें भी घड़ाशब्द क्यों नही बोलाजाता ? क्योंकि; भूत भावी घटचेष्टाकी अपेक्षा जैसी * कपाल मट्टी आदिकोंकी अवस्था है तैसी ही जब घडा अपनेरूप चेष्टा नही कररहा हो तवकी अवस्था है । इसलिये जिस समय किसी शब्दकी व्युत्पत्तिका निमित्तकारण परिपूर्ण विद्यमान मिलता हो उसी समय उस शब्दका उपयोग करना उचित है । अत्र संग्रहश्लोकाः। अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नयः ।१। सद्रूपताऽनतिक्रान्तं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व संगृह्णन् संग्रहो मतः।२। व्यवहारस्तु * तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थितिम् । तथैव दृश्यमानत्वाद्व्यापारयति देहिनः । ३ । तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्याच्छुद्धपर्याय- संश्रिता । नश्वरस्यैव भावस्य भावात् स्थितिवियोगतः । ४ । विरोधिलिङ्गसंख्यादिभेदाभिन्नस्वभावताम् । तस्यैव {} मन्यमानोऽयं शब्दः प्रत्यवतिष्ठते । ५ । तथाविधस्य तस्यापि वस्तुनः क्षणवर्तिनः। ब्रूते समभिरूढस्तु संज्ञाभेदेन 0 है भिन्नताम् । ६ । एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वादेवंभूतोऽभिमन्यते । ७। ॥२० ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब इन नयोंके विषयमें संग्रह किये हुए श्लोकों का अर्थ लिखते है । अभेदभावका ज्ञान करानेवाला सामान्य धर्म तो अन्य तथा विशेषरूप धर्म कुछ जुदा ही है ऐसा ज्ञान नैगमनयके द्वारा होता है । १ । सत्त्व धर्मको नही छोड़ता हुआ यह जगत् अपने अपने भावरूप प्रवर्तता है इसलिये सत्त्व धर्मकी अपेक्षा मुख्यकर संग्रह नय सभी जगत्को एकरूप ग्रहण करता है ऐसा मानागया है । २ । व्यवहारनय उसी सत्ताको प्रत्येक वस्तुमें भिन्न भिन्नरूपसे मनाता हुआ जीवोंको व्यवहार कराता है । क्योंकि, व्यवहार दृष्टिसे सभी वस्तु जुदी जुदी ही दीखती हैं । ३ । ऋजुसूत्र नय व्यवहार नयके विषयमेंसे भी जो शुद्ध वर्तमान कालवर्ती होता है उसीका आश्रय लेता है । क्योंकि, प्रत्येक पदार्थ अपनी स्थिति पूरी करके नष्ट होता हुआ ही दीखता है इसलिये संपूर्ण पदार्थ नश्वर स्वभाववाले ही है । भावार्थ- स्थिति पूर्ण करके सभी नष्ट होते है । इसलिये जिस किसीकी जितने कालकी स्थिति है। | उतने कालतक ही उस वस्तुको उसरूप मानना चाहिये । ४ । परस्पर विरोधी लिङ्ग संख्या आदिकोंका भेद होनेसे वस्तु भी भिन्न भिन्न स्वभावको धारण करती है ऐसा माननेवाला शब्द नय है । ५ । इस प्रकार के तथा क्षणस्थायी वस्तुको फिर भी संज्ञाओंके भेदसे भिन्न भिन्न माननेवाला समभिरूढ नय है । ६ । वस्तु एक ही शब्दका वाच्य सदा नही बना रहता है । क्योंकि, वस्तुमें | जैसी जैसी क्रिया बदलती है तैसी तैसी ही वस्तुकी अवस्था भी बदलती जाती हैं ऐसा एवंभूत नय मानता है । ७ । एत एव च परामर्शा अभिप्रेतधर्मावधारणात्मकतया शेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्तमाना दुर्नयसंज्ञामनुवते । | तद्बलप्रभावितसत्ताका हि खल्वेते परप्रवादाः । तथा हि । नैगमनयदर्शनानुसारिणौ नैयायिकवैशेषिकौ । संग्रहाभिप्रायप्रवृत्ताः सर्वेऽप्यद्वैतवादाः सांख्यदर्शनं च । व्यवहारनयानुपाति प्रायश्चार्वाकदर्शनम् । ऋजुसूत्राकूतप्रवृत्तबुद्धयस्ताथागताः । शब्दादिनयावलम्बिनो वैयाकरणादयः । ये सम्यक् नयोंकर दिखाये हुए अभिप्राय ही विवक्षित धर्मोंके निश्चयरूप होकर जब बाकीके अविवक्षित धर्मोका तिरस्कार करते हुए प्रवर्तते हैं तब दुर्नय नाम पाते है । परवादी लोगोंकी उत्पत्ति भी इन्ही दुर्नयरूप अभिप्रायोंकी मुख्यता धारण करनेसे हुई है । नैयायिक तथा वैशेषिक दर्शनवाले तो खोटे नैगम नयके पक्षपाती है । संपूर्ण अद्वैतवादी तथा सांख्यमती संग्रह - नयकी प्रधानता पकड़ने से प्रवृत्त हुए है । व्यवहारनयका पक्षपाती प्रायः चार्वाकदर्शनवाला है । बौद्धलोगोंने ऋजुसूत्रनयका ही केवल अवलंबन ले रक्खा है । शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत नयोंको सर्वथा माननेवाले वैयाकरणी आदिक है । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावादम. ॥२०३॥ उक्तं च सोदाहरणं नयदुर्नयस्वरूपं श्रीदेवसूरिपादैः । तथा च तद्न्थः "नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयी- / राजै.शा. कृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशीदासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेपो नयः" इति । स्वाभिप्रेतादंशादितरांशापलापी पुनर्नयाभासः। स व्याससमासाभ्यां द्विप्रकारः । व्यासतोऽनेकविकल्पः। समासतस्तु द्विभेदो; द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । आद्यो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदात् त्रेधा । धर्मयोधर्मिणोधर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगमः। सञ्चैतन्यमात्मनीति धर्मयोः । वस्तुपर्यायवद्रव्यमिति धर्मिणोः। क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्मधर्मिणोः। धर्मद्वयादीनामैकान्तिकपार्थक्याभिसंधिर्नेगमाभासः। यथात्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्पर मत्यन्तपृथग्भूते। अ उदाहरण सहित सम्यक् नय तथा दुर्नयोंका खरूप श्रीदेवमूरि महाराजने भी कहा है। उनके ग्रन्थमें इस प्रकार कहा है कि-जो श्रुत प्रमाणके विषयभूत हुए पदार्थके एक अंशका ग्रहण करै तथा वाकीके सभी अंशोंमें उदासीन रहै ऐसे वक्ताके एक प्रकारके अभिप्राय को नय कहते है । विवक्षित अशको ग्रहणकर वाकीके अशोंका सर्वथा निषेध करनेवालेको नयाभास कहते है । वह नय विस्तार सक्षेपके भेदोंकी अपेक्षा दो प्रकारका है । विस्तारकी अपेक्षा तो अनेक भेद होते है परंतु संक्षेपसे देखा जाय तो मूल भेद दो है, * पहिला द्रव्यार्थिक दूसरा पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिकके नैगम, संग्रह, व्यवहार ये तीन भेद है। दो धर्मोंमें अथवा दो धर्मियोंमें या एक धर्म एक धर्मीमें प्रधानताकी अपेक्षा करनेको नैगम अथवा नैकगम कहते हैं। सत्त्व और चैतन्य ये दोनों धर्म आत्मामें है ऐसे विचारमें तो दो धर्मों की प्रधानता है । तथा वस्तु और पर्याय जिसमें हों वह द्रव्य है ऐसे वचनमें दो धर्मियोंकी मुख्यता है । | क्योंकि, वस्तु भी धर्मी है तथा पर्याय भी एक प्रकारका धर्मी ही है। विपयासक्त जीव क्षणमात्रकेलिये सुखी होजाता है इस एक वाक्यमें जीव तो धर्मी तथा सुखीपना धर्म ये दोनो प्रधान है। दो धर्मोमें, धर्मधर्मियोंमें अथवा दो धर्मियों में जो सर्वथा भेदभाव | दिखावै उसको नैगमाभास अथवा खोटा नैगमनय कहते है। जैसे आत्मासे सत्त्व धर्म तथा चैतन्य धर्म सर्वथा भिन्न है। ___सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः । अयमुभयविकल्पः, परोऽपरश्च । अशेपविशेषेष्वौदासीन्यं भजमा ॥२०॥ नः शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परः संग्रहः । विश्वमेकं सदविशेपादिति यथा । सत्ताऽद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान्निराचक्षाणस्तदाभासः। यथा सत्तैव तत्त्वं ततः पृथग्भूतानां विशेषाणामदर्शनात् । द्रव्यत्वादीन्यवान्तर Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्यानि मन्वानस्तद्देदेषु गजनिमीलिकामवलम्बमानः पुनरपरसंग्रहः । धर्माधर्माकाशकालपुद्गलद्रव्याणामैक्यं द्रव्यत्वाऽभेदादित्यादिर्यथा । तद्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निढुवानस्तदाभासः । यथा द्रव्यत्वमेव तत्त्वं ततोऽर्थान्तरभूतानां द्रव्याणामनुपलब्धेः । all केवल सामान्य धर्मका ग्रहण करानेवाला संग्रह नय है । इसके दो भेद है; एक महासंग्रह दूसरा अवान्तर संग्रह । संपूर्ण || विशेष धर्मोंपर उदासीन होकर लक्ष्य न देता हुआ केवल सत्रूप शुद्ध द्रव्यको जो सच्चा मानता हो उस नयको महासंग्रह कहते है। जैसे सामान्य सत्त्व धर्मकी अपेक्षा संपूर्ण विश्व एक है । सत्तासामान्यको केवल स्वीकार करनेवाला तथा बाकीके अन्य धर्मोका निषेध करनेवाला जो एक सत्तासामान्यरूप विचार है वह महासंग्रहाभास है । जैसे सत्ता ही केवल सच्चा तत्त्व या पदार्थ है। क्योंकि; सत्ताके सिवाय जो विशेष धर्म मानेजाय उन धर्मोंका कुछ भी अवलोकन नही होता है। द्रव्यत्वादि अवान्तर सामान्य धर्मोको मनानेवाला तथा उन सामान्य धर्म के साथ रहनेवाले विशेष विशेप धर्मों की तरफ हस्तिकी दृष्टिक समान नहीं देखनेवाला अवान्तरसंग्रह या अपरसंग्रह कहाता है। जैसे द्रव्यत्व धर्मकी अपेक्षा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गलादि सभी द्रव्य एक है। केवल द्रव्यत्वादि सामान्य धर्मोको स्वीकार करता हुआ जो उन सामान्य धर्मोंके साथके विशेप विशेप धर्मोको निषेधता हो बह अपरसंग्रहाभास है । जैसे द्रव्यत्व ही सच्चा तत्त्व है । क्योंकि; द्रव्यत्वसे भिन्न द्रव्यका कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होता। __ संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वमवहरणं येनाऽभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः । यथा यत्सत्तद्रव्यं पर्यायो वेत्यादिः । यः पुनरपारमार्थिकं द्रव्यपर्यायप्रविभागमभिप्रेति स व्यवहाराभासः । यथा चार्वाकदर्शनम् । CI संग्रहनयके द्वारा जो एकरूप माने जाते है उनमें जो विचार ऐसा खीकार कराता हो कि व्यवहारके अनुकूल यह जुदा जुदा है उसको व्यवहारनय कहते हैं । जैसे जो संग्रहकी अपेक्षा एक सत्रूप कहा है वह द्रव्य है या पर्याय ? यह नय और भी इसी प्रकारके भेदोंको ठीक मानता है । जो द्रव्यपर्यायादिकोंमें झूठा भेद मानता है वह व्यवहारनय भास समझा जाता है । जैसे चार्वाकका मत । इस प्रकार द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक ऐसे दो भेदोंमेंसे द्रव्यार्थिकके जो तीन भेद किये थे उनका तथा उनसे उलटे मिथ्या नयोंका तो उदाहरणसहित वर्णन हुआ, अब पर्यायार्थिक नयके भेद कहते हैं। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बा स्थाद्वादम. । ॥२०४॥ पर्यायार्थिकश्चतुर्की । ऋजुसूत्रः शब्दः समभिरूढ एवंभूतश्च । ऋजु वर्तमानक्षणस्थायि पर्यायमात्रं प्राधान्यतः राजै.शा. सूत्रयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रः। यथा सुखविवर्तः सम्प्रत्यस्तीत्यादिः । सर्वथा द्रव्याऽपलापी पुनस्तदाभासः। यथा । ताथागतमतम् । कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः । यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादिः। तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभासः । यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकालाः शब्दा भिन्नमेवार्थमभिदधति भिन्नकालशब्दत्वात्ताहसिद्धाऽन्यशब्दवदित्यादिः। पर्यायार्थिक नयके भेद चार है। ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ, एवंभूत । ऋजु अर्थात् केरल वर्तमान क्षणवर्ती पर्यायको जो प्रधानतासे ग्रहण करता हो उस अभिप्रायको ऋजुसूत्र कहते है । जैसे सुखीपना इस समय है । अर्थात् इस समय सुखी है, ५॥ इस समय दुःखी है इत्यादि वर्तमान पर्यायरूप जैसा हो तैसा कहनेका नाम ऋजुसूत्र है। जो सर्वथा अनादिनिधन द्रव्यका निषेध कर केवल पर्यायोंको ही अपने अपने समयमें सच्चा मानता है वह ऋजुसूत्राभास है। जैसे बौद्वोंका मत । कालादिके, भेदोंसे जो शब्दोंमें भेद पड़ता है उसके द्वारा जो वाच्य वस्तुको भी भिन्न भिन्न मानता है वह शब्दनय है। जैसे सुमेरु यद्यपि त्रिकालवी है परंतु 'सुमेरु' था इस वाक्यका अर्थ तो परोक्ष भूतकालके आश्रयसे कुछ जुदा ही है; तथा 'सुमेरु होगा इस वाक्यका अर्थ जुदा ही है; एवं 'सुमेरु है' इस वाक्यका अर्थ कुछ और ही है । इस शब्दभेदका आश्रय लेकर जो वस्तुको सर्वथा जुदा ही मानता है वह शब्दनयाभास है । जैसे ' सुमेरु है, सुमेरु था, सुमेरु होगा' इत्यादि जुदे जुदे कालवाची शब्दोंका अर्थ सर्वथा जुदा जुदा ही होता है । क्योंकि, और भी ऐसे बहुतसे शब्द है जो भिन्नकालोके कारण अर्थमें भेद डालते है इसलिये कालभेटके कारण अर्थमें भेद होना ही चाहिये । पर्यायशब्देपु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थ समभिरोहन समभिरूढः । इन्दनादिन्द्रः, शकनाच्छकः पूर्दारणात अन्दर इत्यादिषु यथा । पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कक्षीकुर्वाणस्तदाभासः । यथेन्द्रशक्रपुरन्दर इत्यादयः ॥२०४॥ शब्दा भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात्करिकुरङ्गतुरङ्गशब्दवदित्यादिः। शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रिया१ विशिष्टमर्थ वाच्यत्वेनाऽभ्युपगच्छन्नेवंभूतः। यथेन्दनमनुभवन्निन्द्रः, शकनक्रियापरिणतः शक्रः, पूरणप्रवृतः Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पुरन्दर इत्युच्यते । क्रियाऽनाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपंस्तु तदाभासः । यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यं । वस्तु नैव घटशब्दवाच्यं घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तभूत क्रियाशून्यत्वात्पढवदित्यादिः । पर्यायवाची शब्दों में भी शब्दसिद्धिविषयक भेद है इसलिये उनके वाच्य अर्थोंको जुदा मनानेवाला समभिरूढ नय है । जैसे परम ऐश्वर्यकी अपेक्षा इन्द्र कहना उचित है, शक्तिकी अपेक्षा शक्र कहना उचित है, पुरोंको विदीर्ण करनेवालेकी अपेक्षा पुरंदर | कहना ठीक है । इत्यादि और भी जो पर्यायवाची शब्द होते हैं वे सब शब्दभेदके कारण कुछ न कुछ भेद ही दिखाते हैं पर्यायवाची शब्दोंको सर्वथा ही भिन्न भिन्न अर्थ कहनेवाला मानना समभिरूढाभास है । जैसे हस्ती घोड़ा हरिण आदिक शब्द | भिन्न भिन्न होनेसे जिस प्रकार अपने अर्थको भी भिन्न भिन्न दिखाते हैं उसीप्रकार इन्द्र शक्र पुरंदरादिक शब्द भी भिन्न भिन्न होनेसे अर्थको सर्वथा जुदा ही दिखाते है । किसी पदार्थमें जब किसी शब्दके वाच्यरूप कार्यकारी क्रिया होरही हो तभी उस पदार्थको जो उस शब्द के अर्थरूप कहना सो एवंभूत है । जैसे जिस समय परम ऐश्वर्यका अनुभव कररहा हो उसी समय इन्द्रको | इन्द्र कहना तथा शक्तिरूप क्रियाका जिस समय अनुभव कररहा हो तब उसी इन्द्रको शक्र कहना एवं जब पुरोंको विदार रहाहो तब उसी इन्द्रको पुरंदर कहना उचित है । भावार्थ - जब पदार्थ जिस क्रियारूप परिणत न होरहा हो उस समय यद्यपि यह नय | उस पदार्थको उस क्रियारूप कहता नही है परंतु उस क्रियाका उस पदार्थमेंसे निषेध भी नही करदेता है किंतु उस विषयसे उस | समय उदासीन रहता है । और जो एवंभूत नयाभास है वह जिस क्रियारूप पदार्थ परिणत होता है उसको उस क्रियावाचक शब्दके अतिरिक्त अन्य शब्दोंका वाच्यरूप होनेसे रोकता है । जैसे जिस समय घड़ा अपने योग्य क्रियामें लगाहुआ न हो उस समय उसको घड़ा कभी नहीं कहना चाहिये । क्योंकि, उस समय उसमें जिस क्रियाके द्वारा वह घड़ा कहाता है वह क्रिया है ही नही । यदि अपनी क्रियासे शून्य वस्तु भी उस शब्दका वाच्य अर्थ होसकती हो तो वस्त्रमें भी घड़ा शब्दका प्रयोग क्यों नहीं होता ! । एतेषु चत्वारः प्रथमेऽर्थनिरूपणप्रवणत्वादर्थनयाः । शेषास्तु त्रयः शब्दवाच्यार्थगोचरतया शब्दनयाः पूर्वः पूर्वो नयः प्रचुरगोचरः परः परस्तु परिमितविषयः । इन सातो नयोंमेंसे आदिके जो चार नय है वे तो शब्दके आश्रयकी मुख्यता न रखकर केवल अर्थका आश्रय मुख्यतासे Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाद्वादमं. ॥२०५॥ लेकर प्रवृत्त होते हैं इसलिये अर्थनय कहाते हैं और बाकीके तीन नय मुख्यतासे शब्दका आश्रय लेकर ही प्रवर्तते है इसलिये वे शब्दनय कहाते हैं । इन सातो नयोंमेंसे जो पूर्व पूर्वके है वे उत्तरोंकी अपेक्षा विपयका ग्रहण अधिक अधिक करते है और उनमें जो उत्तरके है वे पूर्व पूर्व नयकी अपेक्षा अल्प विषयवाले है । सन्मात्र गोचरात्संग्रहान्नैगमो भावाभावभूमिकत्वाद् भूमविषयः । सद्विशेषप्रकाशकाद् व्यवहारतः संग्रहः समस्तसत्समूहोपदर्शकत्वाद्बहुविषयः । वर्तमानविषयादृजुसूत्राद्व्यवहारस्त्रि कालविषयावलम्बित्वादनल्पार्थः । कालादिभेदेन भिन्नार्थोपदर्शिनः शब्दादृजुसूत्रस्तद्विपरीतवेदकत्वान्महार्थः । प्रतिपर्यायशब्दमर्थभेदमभीप्सतः समभिरूढाच्छन्द स्तद्विपर्ययानुयायित्वात्मभूतविषयः । प्रतिक्रियं विभिन्नमर्थं प्रतिजानानादेवंभूतात्समभिरूढस्तदन्यथार्थस्थापकत्वान्महागोचरः । संग्रह केवल सत्धर्मका ही ग्रहण करता है और नैगम नय सत् असत् दोनों धर्मोंका ग्रहण करता है इसलिये संग्रहकी अपेक्षा नैगमका विषय बहुत है । सत्ता धर्मके किसी विशेष अंशका ग्रहण करनेवाले व्यवहारकी अपेक्षा सग्रह नय संपूर्ण सत्ताविशिष्टका प्रकाशक होनेसे अधिक विषयवाला है । ऋजुसूत्र नय केवल वर्तमान कालवर्ती पर्यायको ही प्रकाशता है इसलिये तीनो कालवत वस्तुको प्रकाशनेवाला व्यवहार नय इस नयसे अधिक विषयवाला है । लिङ्ग सख्या कालादिके भेदसे वर्तमान कालवर्ती पर्यायोंमें भी शब्द नय भेद दिखाता है इसलिये इसकी अपेक्षा वर्तमान पर्यायमें अभेद रखनेवाला ऋजुसूत्र नय महाविषयवाला है । शब्द नय पर्यायवाची शब्दों में अभेदभाव दिखाता है तथा समभिरूढ नय पर्यायवाची शब्दोंमें परस्पर भेद प्रकाशता है इसलिये समभिरूढ नयकी अपेक्षा शब्द नयका विषय बहुत है । समभिरूढ नय कुछ क्रियाओं का परिवर्तन होनेसे अर्थ में भेद नही मानता है परंतु एवंभूत क्रियाओंके भेदसे एक ही वस्तुको भिन्न भिन्न मानता है इसलिये एवंभूतकी अपेक्षा समभिरूढका विषय बड़ा है । नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभङ्गीमनुव्रजतीति विशेषार्थिना नयानां नामान्वर्थविशेषलक्षणाक्षेपपरिहारादिचर्चस्तु भाष्यमहोदधिगन्धहस्तिटीकान्यायावतारादिग्रन्थेभ्यो निरीक्षणीयः । प्रमाणं तु सम्यगर्थनिर्णयलक्षणं सर्वनयात्मकं स्याच्छन्दलाञ्छितानां नयानामेव प्रमाणव्यपदेशभाक्त्वात् । तथा च श्रीविमलनाथस्तवे श्री समन्तभद्रः “नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यत स्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः” इति । छ रा. जै.शा. ॥२०५॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणवाक्योंके समान नयवाक्य भी अपने अपने विषयों में विधिनिषेधके कर्ता संभव होनेसे सप्त भंगरूप होसकते है इसलिये जिनको इस विषयमें अधिक जानना हो उनको इन नयोंके नाम, नामके अनुसार सार्थक भिन्न भिन्न लक्षण, शंका, समाधान आदि विषयोंका विचार भाष्यमहोदधि, गन्धहस्ति टीका, न्यायावतारादि ग्रंथोद्वारा जानलेना चाहिये । जो सच्चे अर्थका निर्णय करनेवाला हो तथा संपूर्ण नयोंके समुदायरूप अर्थको कहता हो उसको प्रमाण कहते है । क्योंकि; स्यात्शव्द लगाकर उच्चारण करनेसे नयवाक्योंका ही प्रमाण नाम होजाता है । यही तेरहवें तीर्थकर श्रीविमलनाथ की स्तुति करते हुए श्रीसमन्तभद्रखामीने कहा है कि "जिस प्रकार रसायनके योगसे लोह इच्छित फल देने लगता है उसीप्रकार 'स्यात्' शब्द लगानेसे ये आपके कहे हुए नय ही अभिमत फलके दाता होजाते है इसलिये हितेच्छु जन आपको नमस्कार करते है”। तच्च द्विविधं प्रत्यक्षं परोक्षं च । तत्र प्रत्यक्षं द्विधा; सांव्यवहारिकं पारमार्थिकं च । सांव्यवहारिक द्विविधमिटन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तभेदात् । तद्वितयमवग्रहेहावायधारणाभेदादेकैकशश्चतुर्विकल्पम् । अवग्रहादीनां स्वरूपं । सुप्रतीतत्वान्न प्रतन्यते । पारमार्थिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेक्षम् । तद्विविधं; क्षायोपशमिकं क्षायिकं च । आद्यमवधिमनःपर्यायभेदाद् द्विधा । क्षायिकं तु केवलज्ञानमिति । परोक्षं च स्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहाऽनुमानागमभेदात्पञ्चप्रकारम् । ऐसा जो प्रमाण है उसके दो प्रकार है। प्रत्यक्ष तथा परोक्ष। फिर प्रत्यक्षके भी दो भेद है एक सांव्यवहारिक दूसरा पारमार्थिक ।। एक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष तो ऐसा है जिसमें इंद्रियोंकी सहायता लेनी पड़ती है और दूसरा ऐसा सांव्यहारिक है जिसमें केवल मनकीमी सहायता लेनी पड़ती है । उस सपूर्ण सांव्यहारिक प्रत्यक्षके चार चार भेद होते हैं; अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा । भावार्थ-ये चारो भेद प्रत्येक सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें उत्पन्न होसकते है । एक ही विषयके ज्ञानमें उत्तरोत्तर जैसी जैसी अधिक दृढता होती है तैसे तैसे ही उस ज्ञानके ये उत्तरोत्तर नाम रक्खे गये है। इनका स्वरूप सुगम है इसलिये यहां नहीं दिखाते हैं । जो परमार्थिक प्रत्यक्ष कहा है उसकी उत्पत्ति कुछ इन्द्रियादिकी अपेक्षा लेकर नही होती किंतु सहायरहित केवल साक्षात् आत्मासे ही होती है। इस पारमार्थिकके भी दो भेद हैं; एक क्षायोपशमिक पारमार्थिक दूसरा क्षायिक पारमार्थिक । अवधि तथा Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमः ॥२०६॥ मनःपर्याय ये दो तो क्षायोपशमिक पारमार्थिक हैं तथा केवलज्ञान क्षायिक पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । परोक्ष प्रमाण पांच प्रकारका राजै.शा. | है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, ऊह (तर्क), अनुमान तथा आगमज्ञान । । तत्र संस्कारप्रबोधसम्भूतमनुभूतार्थविपयं तदित्याकारं वेदनं स्मृतिः। तत्तीर्थकरविम्वमिति यथा । अनुभवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूर्ध्वतासामान्यादिगोचरं संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । यथा तज्जातीय एवायं गोपिण्डो, गोसदृशो गवयः, स एवायं जिनदत्त इत्यादिः। किसी समय किसी पदार्थका अनुभव करनेके बाद जो सस्कार होजाता है उसका उद्भव होनेसे उसी अनुभव किये हुए पदार्थका 'वह' ऐसा याद आना सो स्मृति अथवा स्मरण है । जैसे वह तीर्थकरका प्रतिबिम्ब । वर्तमान समयमें किसी वस्तुको प्रत्यक्ष देखनेपर तथा पहिले देखे हुए किसी सदृश या विलक्षण आदि वस्तुके याद आनेपर वर्तमान देखे हुए तथा स्मरण किये हुए पदार्थों में जो जोड़रूप ज्ञान होता है उसको प्रत्यभिज्ञान कहते है। जैसे पूर्वकासा ही यह गोपिंड है, तथा गौके समान ही यह गवय है। एव यह वही जिनदत्त है । अर्थात्-'वह' ऐसा तो सरणांश है तथा 'यह ऐसा वर्तमानाश प्रत्यक्ष है । इन दोंनो ज्ञानोंके ay हो जानेपर पीछेसे एक ज्ञान ऐसा होता है जिसके द्वारा पूर्वके देखे हुए पदार्थसे वर्तमानके पदार्थमें या तो समानता दीखती है । Ka या भेद प्रतीत होता है अथवा एकताकी प्रतीति होती है । जैसे अमुक वस्तु पूर्व देखे हुएसे भिन्न है अथवा वैसा ही है या वही है इत्यादि अनेक प्रकारसे प्रतीति होती है । सादृश्य दिखानेवाले प्रत्यभिज्ञानमें जिस सादृश्यका ज्ञान होता है कि यह वैसा ही है, वह सादृश्य धर्म दो प्रकारका है, एक तिर्यक् सामान्य तथा दूसरा ऊर्द्धतासामान्य । वर्तमान कालवर्ती एक जातिके पदार्थों में * रहनेवाली समानताको तिर्यक् सामान्य कहते है । जैसे यह गौ इस गौके समान है । एक ही पदार्थके क्रमवर्ती सपूर्ण पर्यायोमें रहनेवाली समानताको ऊर्द्धतासामान्य कहते है । जैसे एक ही पुद्गल अनेक पर्यायोंमें क्रमसे परिवर्तन करता है सो उन संपूर्ण के पर्यायोमें परस्पर उस एक पुद्गलकी अपेक्षा समानता है। ___ उपलम्भाऽनुपलम्भसम्भवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसम्बन्धाद्यालघनमिदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकारं * संवेदनमूहस्तर्काऽपरपर्यायः । यथा यावान् कश्चिद्धूमः स सर्वो वह्नौ सत्येव भवतीति, तस्मिन्नसत्यसौ न भवत्ये ॥२०६॥ धू वेति वा । अनुमानं द्विधा स्वार्थ परार्थ च । तत्राऽन्यथाऽनुपपत्त्येकलक्षणहेतुग्रहणसंवन्धस्मरणकारणकं साध्य Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञानं स्वार्थम् । पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात् । आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः। उपचा रादाप्तवचनं चेति । स्मृत्यादीनां च विशेषस्वरूपं स्याद्वादरत्नाकरात साक्षेपपरिहारं ज्ञेयमिति। न तीनों कालमें होनेवाले साध्य साधनादि पदार्थोमेंसे कुछका तो प्रत्यक्ष हुआ हो तथा कुछका प्रत्यक्ष नहीं हुआ हो परंतु साध्य साधनादि किसी संबंधका आलंबन मिलनेसे यह रहनेपर ही यह रहसकता है इत्यादि प्रकारसे सभीमें उत्पन्न होनेवाला जो ज्ञान है वह ऊह है । इसीका दूसरा नाम तर्क है । जैसे जितना धुंआ है वह अग्नि होनेपर ही होसकता है और यदि अग्नि न हो तो कभी नही होसकता है । ऊह ज्ञान जिनमें होचुका है उनमेंसे धूमादि हेतुके देखनेपर अग्निआदि साध्यका ज्ञान होना या ऐसा वचन कहकर ज्ञान कराना अनुमान है। यह अनुमान दो प्रकारका है, खार्थ तथा परार्थ। जिसको साध्य माना हो उसके कहीं अन्यत्र जो नहीं मिलसकै ऐसे असाधारण लक्षणवाले हेतुके देखनेपर ऊहज्ञानके द्वारा साध्यके साथ रहनेका संवन्ध याद आनेपर जो उस साध्यका ज्ञान होता है वह खार्थ अनुमान है । जिस स्थलमें हेतु देखकर साध्यका निश्चय करना हो उस स्थलको पक्ष ) कहते है । पक्ष हेतु आदिक बोलकर दूसरेको साध्य जतानेका नाम परार्थानुमान है । दूसरेके ज्ञानका कारण होनेसे इस कारणरूप वचनको कार्यरूप ज्ञान मानकर उपचारसे अनुमान कहते है। भावार्थ-यथार्थमें ज्ञान ही प्रमाण होता है, वचनादि यथार्थ प्रमाण नही है । क्योंकि; जो अज्ञानका विरोधी होता है वही अज्ञानका नाश करके किसी विषयका ज्ञान उत्पन्न करासकता है। ||जो स्वयं अज्ञानखरूप है वह अज्ञानके नाशमें असाधारण कारण नहीं होसकता है। ज्ञान ही अज्ञानका विरोधी है इसलिये वही || यथार्थ प्रमाण होसकता है । अनुमान भी एक प्रमाण ही है । यथार्थवक्ताका वचन सुनकर उत्पन्न हुआ ज्ञान आगमप्रमाण है । उपचारसे आप्तके वचनोंको भी प्रमाण कहते हैं । स्मृत्यादि परोक्ष प्रमाणोंका विशेष खरूप शंकासमाधान सहित जानना हो स्थाद्वादरत्नाकर नामक ग्रन्थसे जानलेना चाहिये । प्रमाणान्तराणां पुनरर्थापत्त्युपमानसम्भवप्रातिभैतिह्यादीनामत्रैवान्तर्भावः । सन्निकर्षादीनां तु जडत्वादेव न प्रामाण्यमिति । तदेवंविधेन नयप्रमाणोपन्यासेन दुर्नयमार्गस्त्वया खिलीकृतः । इति काव्यार्थः। | प्रमाणके इन प्रत्यक्ष परोक्ष भेदोंके अतिरिक्त जो अर्थापत्ति, उपमान, संभव, प्रातिभ, ऐतिह्य आदिक भेद कहे जाते हैं उन N|| सर्बोका इन्हीमें अंतर्भाव होजाता है । और जो इंद्रिय अर्थके संन्निकर्षादिकोंको अथवा इंन्द्रियादिकोंको प्रमाण मानते है वह तो Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥२०७॥ मानना ही उचित नहीं है। क्योंकि; संन्निकर्षादिक जड़खरूप होंनेसे प्रमाण नहीं होसकते । इस प्रकार हे भगवन् ! आपने सच्चे नय प्रमाणका स्वरूप दिखाकर दुर्नयका मार्ग रोक दिया है । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ । इदानीं सप्तद्वीपसमुद्रमात्रो लोक इति वावदूकानां तन्मात्रलोके परिमितानामेव सत्त्वानां सम्भवात् परिमितात्मवादिनां दोषदर्शनमुखेन भगवत्प्रणीतं जीवाऽनन्त्यवादं निर्दोपतयाऽभिष्टुवन्नाह । अब जो केवल सातद्वीपसमुद्रप्रमाणही लोक मानते है उनको इतने बडे लोकमें परिमित जीव ही संभव होसकते है इसलिये जीवोंकोभी अक्षय अनंत न मानकर परिमित ही मानना पडता है सो उनके माननेमें दोप दिखाते हुए आचार्य इस बात की स्तुति करते हैं कि हे भगवन् ! आपने जो जीवोंको अनंतो बताये है वही बताना निर्दोष है । मुक्तोऽपि वाऽभ्येतु भवं भवो वा भवस्थशून्योऽस्तु मितात्मवादे | षड्जीवकार्यं त्वमनन्तसंख्यमाख्यस्तथा नाथ यथा न दोषः ॥ २९ ॥ मूलार्थ - संख्यातमात्र ही जीवोंको माननेवालोंके मतमें या तो मुक्त हुआ जीव फिरसे इसी संसारमें आफसता माना गया होगा या यह संसार किसी दिन मुक्तिमें जीव सदा चलते जाते है इसलिये जीवोंसे खाली होजायगा । भावार्थ - यह दोष दूसरोंके मतोंमें ही संभव है । हे भगवन् ! आपने जीवोके छह मूल भेद बताकर एक एक भेद की अपेक्षा जीवोंकी संख्या अक्षयानंत बताई है इसलिये यही उपदेश ऐसा है जिसमें किसी प्रकारसे भी दोष नही है । व्याख्या - मितात्मवादे संख्यातानामात्मनामभ्युपगमे दूपणद्वयमुपतिष्ठते । तत्क्रमेण दर्शयति । मुक्तोऽपि वाभ्येतु भवमिति । मुक्तो निर्वृतिप्राप्तः । सोऽपि वा ( अपिर्विस्मये । वा शब्द उत्तरदोषापेक्षया समुच्चयार्थः । यथा देवो वा दानवो वेति । ) भवमभ्येतु संसारमभ्यागच्छतु । इत्येको दोपप्रसङ्गः । भवो वा भवस्थशून्योऽस्तु । भवः संसारः । स वा भवस्थशून्यः । संसारिभिर्जीवैर्विरहितोऽस्तु भवतु । इति द्वितीयो दोपप्रसङ्गः । व्याख्यार्थ - आत्माओं को परिमित माननेवालोने जो जीवोंकों संख्यात ही माना है उसमें दो दोप आसकते है । उन दोनों दोषोंको क्रमसे दिखाते है । पहिला दोष तो यह है कि मुक्तिको प्राप्त हुआ जीव भी फिरसे संसारमें आफसेगा। यहांपर 'मुक्तोपि ' रा. जै.शा. ॥२०७॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दके साथ जो 'अपि' शब्द है उसका अर्थ विस्मय होना है । तथा जो 'वाऽभ्येतु' में 'वा' शब्द पड़ा है उसका अर्थ आगे | दोपका समुच्चय करना है । जिस प्रकार 'देव है या दानव,' ऐसा अर्थ होनेपर संस्कृत भाषामें 'देवो वा दानवो वा' ऐसा बोला | जाता है । यहांपर भी ऐसा अभिप्राय है कि मुक्त हुआ भी जीव, आश्चर्य है कि फिर संसारमें आफसै । यह तो पहिला दोष हुआ। दूसरा दोष यह है कि मोक्ष जाते जाते यह संसार संसारी जीवोंसे कभी खाली होजायगा। भवशब्दका ही अर्थ संसार है। सो भवस्थ जीवोंसे यह भव शून्य होजायगा । अर्थात् संसारी जीवोंसे यह संसार खाली होजायगा। यह दूसरा दोष है। all इदमत्राकृतं 'यदि परिमिता एवात्मानो मन्यन्ते तदा तत्त्वज्ञानाऽभ्यासप्रकर्षादिक्रमेणापवर्ग गच्छत्सु तेषु संभाव्यते खलु स कश्चित्कालो यत्र तेषां सर्वेषां निर्वृतिः। कालस्याऽनादिनिधनत्वादात्मनां च परिमितत्वात् संसावारस्य रिक्तता भवन्ती केन वार्यताम् ? समुन्नीयते हि प्रतिनियतसलिलपटलपरिपूरिते सरसि पवनतपनातपनज नोदश्चनादिना कालान्तरे रिक्तता। न चायमर्थः प्रामाणिकस्य कस्यचित्प्रसिद्धः संसारस्य स्वरूपहानिप्रसङ्गात् । तत्स्वरूपं ह्येतद्यत्र कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः संसरन्ति समासाएंः संसरिष्यन्ति चेति । सर्वेषां च निर्वृतत्वे संसारस्य वा रिक्तत्वं हठादभ्युपगन्तव्यम् । । यहांपर ऐसा तर्क होता है कि यदि संसारमें जीव परिमित ही मानेगये है तो जब मोक्षका कारणरूप तत्त्वज्ञान वढने लगेगा। तब जीव क्रम क्रमसे मोक्षको जानेलगैगे सो संभावना होती है कि किसी दिन संपूर्ण संसारी जीवोंकी मुक्ति होजायगी। क्योंकि काल तो अनादि अनंत है तथा संसारी जीव परिमित हैं इसलिये कभी न कभी अवश्य संपूर्ण जीव मोक्षमें पहुच रहेगे। ऐसा ला होनेसे फिर संसारको संसारी जीवोंसे खाली होते हुए कोन रोकसकता है ? ऐसा देखाजाता है कि नीचेसे किसी निश्चित ऊंचाई || तक जो सरोवर जलसे भरा होता है वह कुछ.समयमें वायुसे तथा सूर्यकी गरमीसे तथा मनुष्योंके उलीचने आदि कारणोंसे जलरहित होजाता है । संसारी जीवोंसे संसारका खाली होजाना यह दोषरूप इसलिये माना है कि ऐसा होना किसी भी प्रमाणवेत्ताको पसंद नहीं है । क्योंकि; यदि ऐसा ही हो तो संसारके खरूपकी ही हानि होजायगी। जिसमें पडे हुए कर्मके परवश जीव संसरण अर्थात् परिभ्रमण करते आये है तथा कर रहे हैं और इसी प्रकार सदा करते रहेंगे वह संसार है । यही संसारका Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादम. ॥२०॥ खरूप है । परिमित होनेसे किसी समय जब सभी जीव इस संसारसे निकलकर मुक्त होनेवाले है तब तो अगत्या यह संसार है। राजै.शा. उनसे रिक्त कहना पड़ेगा । क्योंकि, उत्तर देनेका दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है। मुक्तैर्वा पुनर्भवे आगन्तव्यम् । न च क्षीणकर्मणां भवाधिकारः "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः" इति वचनात् । 7 जो संसारका खाली होना भी नही मानते तथा जीवोंको परिमित ही मानते है उनको मुक्त हुए जीवोंका ससारमें फिरसे लौटना मानना चाहिये । परंतु यथार्थमें विचार किया जाय तो जो कर्मोंका नाश करके मुक्त होगये है वे फिर संसारमें नहीं आसकते । है। क्योंकि, उनके यहां आनेका कारण कोई बाकी नहीं रहा है। संसारमें भ्रमानेके कारण कर्म है सो वहां उन कर्मोंका सर्वथा । नाश होचुका है। कहा भी है कि "जिस प्रकार कोई बीज जो उपजानेका कारण है यदि सर्वथा जलजाय तो फिर उससे अंकुर नहीं ऊगसकता है उसी प्रकार यदि कर्मरूपी बीज जो कि संसारकी उत्पत्तिका कारण है, सर्वथा दग्ध होजाय तो फिर उससे जीवमें संसाररूपी अंकुर नहीं निकल सकता है"। भू आह च पतञ्जलिः “सति मूले तद्विपाको जात्यायु गाः" इति । एतट्टीका च "सत्सु क्लेशेषु कर्माशयो विपाM कारम्भी भवति, नोच्छिन्नक्लेशमूलः । यथा तुषावनद्धाः शालितण्डुला अदग्धवीजभावाः प्ररोहणसमर्था भवन्ति नाऽपनीततुषा दग्धबीजभावा वा। तथा क्लेशावनद्धः कर्माशयो विपाकप्ररोही भवति; नाऽपनीतक्लेशो न दग्धबीजभावो वेति । स च विपाकस्त्रिविधो जातिरायुर्भोगः" इति । . वैदिक योगमतके प्रवर्तक पतंजलिने भी कहा है कि "मूल कारण रहनेपर ही जाति, आयु तथा भोग होते हैं । ये जाति, है आयु, भोग उसी मूल कारणके विपाकरूप है" । इसकी टीका इस प्रकार है कि “जबतक क्लेश रहते है तभीतक कर्मोंकी शक्ति - अपना विपाकफल देसकती है । जब क्लेशरूप मूल कारणका उच्छेद होजाता है तब कर्मोंका विपाकफल नहीं होसकता। ॥२०८॥ जिस प्रकार शाली चावलोंपरसे जबतक ऊपरका तुप नहीं उतार दिया जाता है तभीतक उनमें बीजपना बनारहता है और वोनेपर , वे उपज सकते हैं परंतु जब उनके ऊपरसे तुष उतार दिया जाय तो बीजपनेका नाश होजानेसे वे उपज नहीं सकते है। उसी प्रकार Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबतक कर्मशक्ति क्लेशोंसे बंधी है तभीतक संसाररूपी अंकुर उत्पन्न करसकती है; जब क्लेश छूट जानेसे कर्ममेंसे वीजपना नष्ट होजाता है तब उससे विपाक फल नहीं होसकता। उस विपाकके भेद तीन है; जाती, आयु तथा भोग। | अक्षपादोऽप्याह “न प्रवृत्तिः प्रतिसंधानाय हीनक्लेशस्य" इति। एवं विभङ्गज्ञानिशिवराजर्षिमतानुसारिणो दूषलायित्वोत्तरार्द्धन भगवदुपज्ञमपरिमितात्मवादं निर्दोषतया स्तौति षड्जीवेत्यादि । त्वं तु हे नाथ अनन्तसंख्य|||मनन्ताख्यसंख्याविशेषयुक्तं षड्रजीवकायम्। KEL न्यायदर्शनके मुख्य प्रवर्तक अक्षपादने (कणादने) भी ऐसा ही कहा है कि जिसके क्लेश क्षीण होगये हैं उसकी प्रवृत्ति भी बंधका कारण नहीं है" । इस प्रकार पहिले आधे श्लोक द्वारा विभंग (खोटे) ज्ञानवाले शिवराज ऋषिके मतानुसारियोंको सदोष ठहराकर श्लोकके उत्तर आधे भागद्वारा निर्दोष सिद्ध होनेके कारण भगवत्कथित जीवोंकी अनंतताके उपदेशकी स्तुति करते है। "षड्जीवकायं त्वमनन्तसंख्यमाख्यस्तथा नाथ ! यथा न दोषः" यह श्लोकका उत्तर भाग है। इसका अर्थ-हे नाथ ! आपने ही संपूर्ण छह प्रकारके जीवोंकी अनंतनामक एक प्रकारकी अपरिमित संख्या बताई है और वह ऐसी है कि जिसमें किसी प्रकारका दोष आही नही सकता है। ___ अजीवन् जीवन्ति जीविष्यन्ति चेति जीवा, इन्द्रियादिज्ञानादिद्रव्यभावप्राणधारणयुक्ताः। तेषां ["संघे वानूमर्चेइति चिनोतेञि आदेश्च कत्वे कायः समूहो जीवकायः पृथिव्यादिः। षण्णां जीवकायानां समाहारः षड्रजी-1 विकायम् । पात्रादिदर्शनान्नपुंसकत्वम् । अथवा षण्णां जीवानां कायः प्रत्येक संघातः षड्जीवकायः। तं षड्जी-|| लवकायम् । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसलक्षणषड्जीवनिकायं तथा तेन प्रकारेण आख्यः, मर्यादया प्ररूपितवान्, | यथा येन प्रकारेण न दोषो, न दूषणमिति । जात्यपेक्षमेकवचनम् । प्रागुक्तदोषद्वयजातीया अन्येऽपि दोषा यथा|||| न प्रादुष्यन्ति तथा त्वं जीवानन्त्यमुपदिष्टवानित्यर्थः । 'आख्यः' इति आङ्पूर्वस्य ख्यातेरडि सिद्धिः । त्वमित्येकवचनं चेदं ज्ञापयति यजगद्गुरोरेवैकस्येदृक्प्ररूपणसामर्थ्य, न तीर्थान्तरशास्तृणामिति । जो भूत कालमें भी जीते रहे अर्थात् प्राण विशिष्ट वने रहे, वर्तमान में भी प्राणविशिष्ट है तथा आगे भी प्राण सहित रहेंगे उनको जीव कहते है । अर्थात् जो इंद्रियादि दश द्रव्यप्राणोंद्वारा तथा चेतनाआदि भावप्राणोंके द्वारा जीते हों वे जीव है। - Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादादम.M" सधे वाऽनू" इस व्याकरणसूत्र के अनुसार 'चि' धातुके आगे 'यम्' प्रत्यय होनेने तथा 'न'को 'क' करदेनेसे काय दादरा .ज.प्रा. बनजाता है । कायका अर्थ समूह होता है। ऊपर को हुए. जीवोके मनहीको जीपाय करते। पृथिवी, जल, अमि, वायु,': ॥२०९|| वनस्पति ये पाच स्थावर तथा त्रस ऐसे छह कार्योंके जोरोके ममूहको परजीवकाय मदते हैं। याकरणमें जहापर समूह नर्थ देर । अनेक शब्दोका समास (सग्रह) दिखाया है वापर ऐसा कहा है कि पानशब्दादि कतने ऐसे गन्द जो समागमें ननदलिज ही होजाते हैं। उन्ही पात्रादि शब्दों में पद्जीवकार गन्द्रको माना गदापर नपुनामी पदीया ऐसा कहा है। अथवा । समूह अर्थमं समास न करके इस प्रकारसे समास करनेपर शब्द पुटिन ही बना रहेगा कि सदनातकेजीयोका जो प्रत्येक सघात है उसको पड्जीयकाय कहते हैं। पुलिली रहनेसे यपि पन्तीव कायः ऐसा होना नादिये परंतु इन सोने गह गन्न कर्मकारकरूप रक्खागया है इसलिये पुलिन्न होनेपर भी चर्मकारक पदीय काय' पेमा महागया है। राव शब्द नातिवानक 'माने जाते है तब वे एक वचनात ही रारो जाते हैं। यहाएर भी जातिकी उपेक्षाही पनीरकाय' प्रेमा पकाननान्त माहे।। सारांश-जीयोंको परिमित माननेमें मभव जो दोष है वे नया और भी अनेक दोषम प्रफार वर्णन करनेमे नही आगते ।। उस प्रकारसे आपने जीवोका वर्णन किया है। आर्यकन्या भानुके आने पर प्रत्यय -गानेने भूनकारके वर्ष, नाम्य.' ऐमा क्रियापद बनता है । 'लम्' गन्दको एक बननान्न सनेसे यह अभिप्राय प्रस्ट होता है कि ऐसे निर्दोष उपदेश रनेका सामर्थ्य एकमात्र त्रिजगद्गुरुका (आपका) दी है न कि अन्य भी पों या मनोरे उपदेश करनेकालोका । ___ पृथिव्यादीनां पुनर्जीवत्वमित्थं साधनीयम् । यथा मात्मिका विद्यमशिलादिस्पा पृथिवी; ठेदे ममानधातुत्यानादर्भाऽबरवत् । भौममम्भोऽपि सात्मकं क्षतभूमजातीयस्य स्वभावस्य सम्भवात् शालूरवत् । आन्तरिक्षमपि सात्मकम् । अभ्रादिविकारे स्वतः सम्भूय पातात् मत्स्यादिवत् । ___ छह कायके जीव बताते हुए बीतने जो पृथिवीनीयादिफ जीव को है उनकी सिदि इस प्रकारसे करनी चाहिये कि जैसे मूंगा । पापाणादि जो पृथिवी है वह सजीय है। क्योंकि जैसे काटनेपर डाम, तुर उप माना है उसी प्रकार इगो भी काटनेपर ) ॥२०॥ इसमें पहिलेके समान मूगा या पाषाणादि फिरसे ऊग आते हैं। इसी प्रकार भूमिका जल भी सनीय है। क्योंक्ति ममिके जलका दरिया, रति जियपुग्मकपाट । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में डककी तरह ऐसा खभाव है जैसा कि खोदी हुई भूमिका । अर्थात् मेंडकका भी खोदी हुई भूमिके समान खभाव होता है और वह सजीव है उसी प्रकार जब भूमिके जलका भी ऐसा ही स्वभाव है तो वह भी सजीव ही होना चाहिये । एवं जो आकाशमें होनेवाला जल है वह भी सजीव है। क्योंकि मेघरूप विकार उत्पन्न होनेपर जिस प्रकार अपने आप ही उपजकर मछली ऊपरसे गिरती है उसी प्रकार मेघविकार होनेपर जल भी स्वयं बनकर नीचे गिर पड़ता है । अर्थात् मछलीका ऐसा स्वभाव है और सजीव है उसी प्रकार जब जलका भी ऐसा ही खभाव है तो इसलिये जल भी सजीव ही होना चाहिये। MT तेजोऽपि सात्मकमाहारोपादानेन वृद्ध्यादिविकारोपलम्भात् पुरुषाङ्गवत् । वायुरपि सात्मकः अपरप्रेरितत्वे तिर्यग्गतिमत्वान्दोवत् । वनस्पतिरपि सात्मकः छेदादिभिग्लान्यादिदर्शनात् पुरुषाङ्गवत् । केषांचित् स्वापाङ्गनोपश्लेषादिविकाराच्च । अपकर्षवतश्चैतन्याद्वा सर्वेषां सात्मकत्वसिद्धिराप्तवचनाच्च । त्रसेषु च कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिषु न केषांचित्सात्मकत्वे विगानमिति । | अमि भी सजीव है । क्योंकि; जिस प्रकार आहार मिलनेसे शरीरके अंग बढते है, चंचल होते है, इत्यादि और भी धर्म स्फुरा|यमाण होते हैं तथा जब आहार नही मिलता तब हतशक्ति होजाते है उसीप्रकार अग्नि भी जब लकड़ी आदि आहार मिलता है तब बढता है, चंचल होता है, शक्तिशाली दीखता है और जब आहारादि नही मिलता तब क्षीणशक्ति निस्तेज होजाता है LG अर्थात्-ऐसे खभाववाले जब शरीरके अंग सजीक होते हैं तो ऐसे ही स्वभाववाला अग्नि भी सजीव क्यों न मानना चाहिये? एवं वायु भी सजीव है। क्योंकि; जैसे किसी दूसरेके हांकनेपर गौ इधर उधर चलने लगती है उसी प्रकार वायु भी दूसरेकी प्रेरणासे इधर उधर चलने लगता है । अर्थात्-ऐसे धर्मवाला जैसे गौ सजीव है उसी प्रकार ऐसे खभाववाला होनेसे वायु भी सजीव ही होना चाहिये । वनस्पति भी सजीव ही है। क्योंकि, सजीव पुरुषके अंग जिस प्रकार काटनेसे मलिनता आदि धारण करलेते है। IMAGI उसी प्रकार वनस्पति भी काटने छेदनेपर मलिनतादि धारलेता है इसलिये सजीव पुरुषके अंगोके होनेसे यह भी सजीव ही होना चाहिये। तथा कुछ वनस्पतियोमें प्राणियोके समान निद्रासे किंवा स्त्रीके आलिङ्गनादिसे विकार | चेष्टामें होती दीखती है । और जिन जिन जीवो भी चेतना शक्ति घटती हुई है उन उन जीवोमें चेतनाकी हीनाधिकता दीखनेसे तो पृथिव्यादि सभीमें सजीवपना सिद्ध होसकता है। एवं आप्त भगवानके उपदेशसे भी सवोमें सजीवपना मानना चाहिये। ॐES Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥२१०॥ क्योंकि, आप्त उसीका नाम है जो असत्यवादी न हो । सजीव हैं उनमें तो जीव मानना किसीको अनिष्ट ही जीवपना अच्छी तरह सिद्ध होता है । दो इन्द्रियवालोको आदि लेकर कृमि, चीटी, भ्रमर, मनुष्यादिक जो नही है । इस प्रकार जिनको जिनेन्द्रदेवने जीव कहा है उन सवोमें यथा च भगवदुपक्रमे जीवाऽनन्त्ये न दोपस्तथा दिग्मात्रं भाव्यते । भगवन्मते हि षण्णां जीवनिकायानामेतदपबहुत्वम् । सर्व स्तोकास्त्रसकायिकाः । तेभ्योऽसंख्यातगुणास्तेजः कायिकाः । तेभ्यो विशेषाधिका पृथ्वीका - यिकाः । तेभ्यो विशेषाधिका अप्कायिकाः । तेभ्यो विशेषाधिका वायुकायिकाः । तेभ्योऽनन्तगुणा वनस्पतिकाविकास्ते च व्यावहारिका अव्यावहारिकाश्च । अब जिनेन्द्र ने जो जीवोका उपदेश अनंतरूपसे किया है उसमें किसी प्रकारका दोष जैसे नही आवै उसी प्रकारसे कुछ दिखाते है । भगवत ने छहो कार्यों के जीवोमें परस्पर इस प्रकार संख्याकी हीनाधिकता कही है कि सब कायोसे थोड़े त्रस कायके जीव है । त्रसोसे असंख्यात गुणे अधिक अग्निकायिक जीव है। उनसे अधिक पृथिवीकायिक है । पृथिवीकायिकोसे कुछ अधिक जलकायिक है । जलकायिकोसे कुछ अधिक वायुकायिक है । उनसे अनन्तगुणे वनस्पतिकायिक है । वे वनस्पति कुछ तो व्यवहारराशिमें रहनेवाले है और कुछ व्यवहारराशिसे भिन्न निगोदनामक राशिमें बसरहे है । "गोला य असंखिज्जा असंखणिग्गोय गोलओ भणिओ । इक्विक्वणिगोयम्हि अणन्तजीवा मुणेयवा । १ । सिज्झति जत्तिया खलु इह संववहारजीवरासीदो। एंति अणाइवणरसइरासीदो तत्तिआ तह्नि । २।” इति वचनात् यावन्तश्च यतो गच्छन्ति मुक्ति जीवास्तावन्तोऽनादिनिगोदवनस्पतिराशेस्तत्रागच्छन्ति । " गोल असंख्यातो है और एक एक गोलमें असंख्यातो निगोद है । तथा एक एक निगोदमें अनंतो अनंतो जीव मानने चाहिये । १ । व्यवहार राशिमेसे जितने जीव मुक्त होजाते है उतने ही जीव अनादि निगोद नामक वनस्पतिराशिसे निकलकर व्यवहारराशिमें आजाते है । २ ।" इस वचनके अनुसार जितने जीव व्यवहारराशिसे मोक्षको जाते है उतनोका । १ । सिध्यन्ति यावन्त खलु इह १ गोलाश्च असख्याता असंख्य निगोद गोल. भणित । एकैकस्मिन् निगोदे अनन्तजीवा ज्ञातव्या सभ्यवहारजीवराशित. । आयान्ति अनादिवनस्पतिराशित. तावन्त तस्मिन् । २ । इतिच्छाया । रा. जै०या० ॥२१॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SADE SH ही निगोदराशिसे व्यवहार राशिमें आजाना सिद्ध है । भावार्थ-वनस्पति कायके दो भेद हैं; पहिला साधारण दूसरा प्रत्येक। जिस all वनस्पतिमें एक शरीरके अनंतो जीव खामी हो तथा उन अनंतो जीवोका एक ही आहार हो, एक ही श्वासोच्छ्रास हों उनको साधारण कहा है। साधारणोके अतिरिक्त सभी वनस्पति प्रत्येक कहेजाते हैं। साधारणका दूसरा नाम निगोद है। ये निगोद दो प्रकारके हैं, पहिले नित्य दूसरे इतर । जो जीव अनादिकालसे निगोदमें ही रहरहे हैं उनको नित्यनिगोद कहते है। नित्यनिगोद राशिसे निकलकर अन्य पर्यायोको धारकर फिर भी कभी निगोदराशिमें जो पहुंच जाता है उसको इतर निगोद कहते है। नित्यनिगोदके अतिरिक्त जितने जीव है उनको व्यवहार राशिवाले कहते है और जो नित्यनिगोदके जीव हैं उनको व्यवहारराशिसे भिन्न कहते है । निगोद जीवोके एक एक समूहकों भी निगोद ही कहते है। ऐसे असंख्यों निगोद एक एक पिंडमें रहते है। उन पिंडोंको गोल कहा है। || न च तावता तस्य काचित्परिहाणिर्निगोदजीवाऽनन्त्यस्याऽक्षयत्वात् । निगोदस्वरूपं च समयसागरादवगन्त-10 व्यम् । अनाद्यनन्तेऽपि काले ये केचिन्निवृता निर्वान्ति निर्वास्यन्ति च ते निगोदानामनन्तभागेऽपि न वर्त्तन्ते | धनाऽवर्तिषत न वय॑न्ति । ततश्च कथं मुक्तानां भवागमनप्रसङ्गः ? कथं च संसारस्य रिक्तताप्रसक्तिरिति ? अभि-1| प्रेतं चैतदन्ययूथ्यानामपि । यथा चोक्तं वार्त्तिककारेण “अत एव च विद्वत्सु मुच्यमानेषु सन्ततम् । ब्रह्माण्डलोकजीवानामनन्तत्वादशून्यता।१ । अन्त्यन्यूनातिरिक्तत्वैर्युज्यते परिमाणवत् । वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामस म्भवः । २।" इति काव्यार्थः। - इस प्रकार निगोदराशिसे सदा निकलते रहनेपर भी निगोद जीव समाप्त नहीं होसकते है। क्योंकि; उनको अक्षय अनंत कहा है। शास्त्रोंमें सागर नामक एक संख्या मानी गयी है उससे निगोद जीवोंका प्रमाण मालुम करलेना चाहिये ।। जितने कुछ जीव अनादिकालसे निकलते जारहे है और अनंतकाल तक आगे भी निकलते रहैगे वे सब मिलाकर विचारनेसे निगोदराशिके अनंतवें भागप्रमाण भी नहीं हुए हैं तथा न होंगे। इसलिये मुक्त हुए जीवोंको फिर संसारमें लौटनेका क्या। कारण है ? अन्य धर्मवालोने भी इस बातको खीकार किया है । वार्तिककारने कहा है- "इसीलिये संसारसे ज्ञानी जीवोंकी निरंतर मुक्ति होते रहने पर भी संसारी जीवराशि अनंतरूप होनेसे कभी उसका अंत नहीं आसक्ता है। १। जिस वस्तुका Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जै.शा. स्याद्वादम. २११॥ संख्यातरूप परिमाण होता है उसीका किसी समय अंत आसकता है, वही घट जाती है तथा कभी समाप्त भी होजाती है परंतु ) जो वस्तु अपरिमेय होती है उसका न तो कभी अंत ही आता है, न वह घटती ही है और न कभी समाप्त ही होती है । २।" इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। o अधुना परदर्शनानां परस्परविरुद्धार्थसमर्थकतया मत्सरित्वं प्रकाशयन् सर्वज्ञोपज्ञसिद्धान्तस्याऽन्योन्यानुगतसर्वनयमयतया मात्सर्याऽभावमाविर्भावयति । अब यह दिखाते हैं कि जितने अन्य दर्शन है वे सब एक दूसरेसे विरुद्ध अर्थको कहनेवाले होनेसे एक दूसरेसे द्वेष रखते है और अर्हन् सर्वज्ञ देवका कहा हुआ दर्शन सापेक्ष होकर विचारनेपर परस्पर सव दर्शनोंसे मिलता हुआ है इसलिये इसमें मत्सरभावका नाम भी नहीं है। अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः ॥ नयानशेषानविशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥३०॥ मलार्थ-जिस प्रकार अन्य दर्शनोंमें यह हमारा पक्ष है तथा यह विरुद्ध पक्ष है ऐसा दुराग्रह होनेसे अन्य दर्शन मत्सरभाव रखते है उस प्रकार आपके दर्शनमें मत्सरभाव नहीं है। क्योंकि; संपूर्ण नयोंको या परस्पर विरुद्ध विचारोंकों आप अपेक्षावश एकसमान देखते है। व्याख्या-प्रकर्षणोद्यते प्रतिपाद्यते स्वाभ्युपगतोऽर्थी यैरिति प्रवादाः। यथा येन प्रकारेण परे भवच्छासनादन्ये प्रवादा दर्शनानि मत्सरिणः, अतिशायने मत्वर्थीयविधानात्सातिशयाऽसहनताशालिनः क्रोधकषायकलुपितान्तःकरणाः सन्तः पक्षपातिन इतरपक्षतिरस्कारेण स्वकक्षीकृतपक्षव्यवस्थापनप्रवणा वर्तन्ते । y. व्याख्यार्थ-अपने इष्ट अर्थका जिनमें प्र अर्थात् अत्यंत, वाद अर्थात् प्रतिपादन किया जाता हो उनको प्रवाद कहते है। मत या दर्शनको प्रवाद कहते हैं । जिस प्रकार आपके मतके सिवाय अन्य मत परस्परमें ईर्ष्या द्वेष रखते है उस प्रकार आपके y मतमें किसीके साथ भी द्वेषभाव नहीं है । मत्सरी शब्द जो मूल श्लोकमें है उसमें मतु प्रत्ययके अर्थवाला इन् प्रत्यय अतिशय १ 'उस प्रकार' इत्यादि वचन, संबंध मिलानेकेलिये लिखा है। ॥२१॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पना दिखानेके लिये हुआ है इसलिये मत्सरी शब्दका अर्थ ऐसा करना चाहिये कि वे दर्शन परस्परमें अत्यंत असहनशील है । अर्थात्-क्रोधकपायके द्वारा अंतःकरणमें कलुषित होनेसे वे अपने अपने ही दर्शनों के पक्षपाती है और अपनेसे भिन्न पक्षोंका तिरस्कार करते हुए अपने माने हुए पक्षके मंडन करनेमें सदा उद्यत रहते है। | कस्माद्धेतोर्मत्सरिण इत्याह-अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् । पच्यते व्यक्तीक्रियते साध्यधर्मवैशिष्ट्येन हेत्वादिभिरिति पक्षः-कक्षीकृतधर्मप्रतिष्ठापनाय साधनोपन्यासः । तस्य प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपक्षः। पक्षस्य प्रतिपक्षो विरोधी पक्षः। तस्य भावः पक्षप्रतिपक्षभावः। अन्योऽन्यं परस्परं यः पक्षप्रतिपक्षभावःपक्षप्रतिपक्षत्वमन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावस्तस्मात् । तथा हि । य एव मीमांसकानां नित्यः शब्द इति पक्षः स एव सौगतानां प्रतिपक्षस्तन्मते शब्दस्याऽनित्यत्वात् । य एव सौगतानामनित्यः शब्द इति पक्षः स एव मीमांसकानां प्रतिपक्षः। एवं सर्वप्रयोगेषु योज्यम्। किस कारण वे पक्षपाती होरहे है इस शंकाका उत्तर कहते हैं।-अपने तथा परके माने हुए दर्शनोंमें परस्पर पक्ष प्रतिपक्षका दुराग्रह रखनेसे वे पक्षपाती होरहे है । अमुक है सो साध्यरूप धर्मकर सहित है इस प्रकार जो हेतु आदिकोंके द्वारा प्रगट किया जाता है वह पक्ष कहाता है। अर्थात्-खीकार किया हुआ विचार जहांपर हेतुआदिकोंके द्वारा साधाजाय, या पुष्ट किया | जाय वह पक्ष कहाता है । जिसमें उस साध्यविचारके विरुद्ध विचाररूप धर्म मिलते हों कितु वह साध्य न मिलता हो उसको कहते है । पक्षका जो प्रतिपक्ष हो अर्थात् विरोधी पक्ष हो वह पक्षप्रतिपक्ष कहाता है। इसीकी प्रधानताको पक्षप्रतिपक्षभाव कहते है । एक दूसरेमें जो पक्षप्रतिपक्षपना रखना है वही अन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभाव कहाजाता है । इसीके होनेसे | वे एक दूसरेके द्वेषी है । कैसे ? मीमासकोका जो नित्य शब्द माननेका पक्ष है वही बौद्धोंकेलिये प्रतिपक्ष है । क्योंकि बौद्धमतमें शब्दको सर्वथा अनित्य माना है। बौद्धोका जो शब्दको अनित्य मानना पक्ष है वह मीमासकोकेलिये प्रतिपक्ष हुआ। इसी प्रकार अन्यवादोमें भी विरोध आता है सो विचार करलेना चाहिये। । तथा तेन प्रकारेण, ते तव [सम्यक् एति गच्छति शब्दोऽर्थमनेनेति " पुन्नाम्नि घेः"] समयः संकेतः । यद्वा सम्यगवैपरीत्येनाय्यन्ते ज्ञायन्ते जीवाऽजीवादयोऽर्था अनेनेति समयः सिद्धान्तः । अथ वा सम्यगयन्ते गच्छन्ति जीवादयः पदार्थाः स्वस्मिन् रूपे प्रतिष्ठां प्रामुवन्ति अस्मिन्निति समय आगमः। - Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. इस प्रकारसे जैसा इन अन्य दर्शनोंमें परस्पर पक्षप्रतिपक्षके दुराग्रहसे द्वेष होरहा है तैसा तुझारे समयमें अर्थात् दर्शनमें नही ) है। जिसके जाननेसे शब्दका अर्थ ठीक ठीक जानाजाय उसको समय कहते है। यहांपर 'सम्' पूर्वक 'इ' धातुका उपर्युक्त अर्थकी विवक्षामें 'पुन्नाम्नि घे.' इस व्याकरणके सूत्रकर समय शब्द बना है। ऐसा विग्रह करनेपर समयका अर्थ संकेत होता है। अथवा सम्यक् अर्थात् जैसेके तैसे जीव अजीवादि पदार्थ जिसके द्वारा जाने जासकते है उसको समय कहते है। ऐसी ) विवक्षा होनेपर समय शब्दका अर्थ सिद्धात होता है । अथवा जीवादि पदार्थ जिसमें यथावत् कहे हों अर्थात् अपने अपने खरूपमें स्थिति पाते हुए जिसमें वर्णन किये हों उसको समय कहते है । ऐसा अर्थ लेनेपर समय शब्दका अर्थ आगम है। न पक्षपाती नैकपक्षानुरागी । पक्षपातित्वस्य हि कारणं मत्सरित्वं परप्रवादेपूक्तम् । त्वत्समयस्य च मत्सरित्वाभावान्न पक्षपातित्वम् । पक्षपातित्वं हि मत्सरित्वेन व्याप्तम् ।व्यापकं च निवर्तमानं व्याप्यमपि निवर्तयतीति मत्सyरित्वे निवर्तमाने पक्षपातित्वमपि निवर्त्तते इति भावः। 'तव समयः' इति वाच्यवाचकभावलक्षणे सम्बन्धे षष्ठी। ___ यह आपका समय पक्षपाती नहीं है अर्थात् किसी एक पक्षमें अनुराग नहीं करता है । पक्षपाती होनेका कारण मत्सर भावका होना है। वह मत्सरभाव अन्य वादियोंमें ही है। आपके समयमें मत्सरभाव न होनेसे पक्षपात भी नहीं है। मत्सरभाव होनेसे ही Ke पक्षपात होता है । इसीको न्याय शैलीसे ऐसा कहसकते है कि मत्सरभाव व्यापक है और पक्षपात व्याप्य है। जहांपर व्यापक * अर्थात् बहुदेशव्यापी धर्म नहीं रहता है, वहांपरसे उसी व्यापकके अन्तर्गत रहनेवाला व्याप्य धर्म भी अवश्य निवृत्त होजाता है। * इसलिये मत्सरभाव छूट जानेपर पक्षपात तो अवश्य ही निवृत्त होजाना चाहिये । संस्कृतमें जितने शब्द वोलेजाते है वे किसी न किसी विभक्तीको लगाकर ही बोले जाते है ऐसा नियम है। 'तव समयः' अर्थात् तुहमारा समय यहांपर जो 'तव' शब्द बोलागया है वह भी षष्ठी विभक्ती जोडनेसे ही बनता है । षष्ठी विभक्ती किसी न किसीका संबंध होनेपर होती है। यहांपर 'तव' शब्दमें भीवाच्यवाचकरूप संबध होनेसे पष्ठी विभक्ती हुई है। अर्थात् समय तो आपफर कहागया है इसलिये वाच्यरूप है तथा आप उसके वक्ता होनेसे वाचक है । इस प्रकार 'तव' और 'समय' इन दोनों शब्दोंमें वाच्यवाचकभाव संबंध होनेसे तव शब्द षष्ठीविभक्त्यन्त है। सूत्रापेक्षया गणधरकर्तृकत्वेऽपि समयस्यार्थापेक्षया भगवत्कर्तृकत्वाद्वाच्यवाचकभावो न विरुध्यते "अत्थंभासइ २१२॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा णिउणं” इति वचनात् । अथवा उत्पादव्ययध्रौव्यप्रपञ्चः समयः तेषां च भगवता साक्षान्मातृकापदरूपतयाऽभिधानात् । तथा चार्षम् “उप्पण्णे इवा विगमे इवा धुवे इवा" इत्यदोषः।। हे भगवन् ! सूत्रोंकी रचना करनेका कर्ता यदि देखाजाय तो गणधरदेव ही कर्ता है जो आपके पास रहते है और आपकर उपदेशे हए अर्थको समझसकते है। परंतु उन सूत्रोमें जिस अर्थका वर्णन है वह अर्थ आपने ही अपनी दिव्य ध्वनिद्वारा प्रकाशित किया था इसलिये यथार्थमें उसका मूल कर्ता तलासाजाय तो आप ही हैं। इस प्रकार आपके साथ समयका वाच्यवाचकभाव संबध मानना अनुचित नहीं है। ऐसा कहा भी है कि "अर्थका प्रतिबोध तो अर्हत् केवली ही कराते है किंतु सूत्रोंकी रचना अपनी निपुण मतिसे गणधरदेव करते है" । अथवा उत्पाद व्यय ध्रौव्यके प्रपंचको ही समय कहसकते है। और उत्पाद व्यय ध्रौव्यका | खरूप भगवानने स्वयं अपने मुखसे अक्षररूप कहा ही है । आर्ष वाक्य भी ऐसा मिलता है कि "उत्पन्न भी होता है विनष्ट भी| का होता है तथा स्थिर भी रहता है"। इसलिये समयका भगवान् केवलीके साथ वाच्यवाचकरूप सबंध कहने में कुछ दोष नहीं है।। | मत्सरित्वाऽभावमेव विशेषणद्वारेण समर्थयति 'नयानशेषानविशेपमिच्छन्' इति । अशेषान् समस्तान् नयान् नगमादीन् अविशेष निर्विशेष यथा भवत्येवमिच्छन्नाकाङ्क्षन् सर्वनयात्मकत्वादनेकान्तवादस्या यथा विशकलितानां मुक्तामणीनामेकसूत्राऽनुस्यूतानां हारव्यपदेश एवं पृथगभिसन्धीनां नयानां स्याद्वादलक्षणैकसूत्रप्रोतानां श्रुता-19 ख्यप्रमाणव्यपदेश इति । ननु प्रत्येकं नयानां विरुद्धत्वे कथं समुदितानां निर्विरोधिता ? उच्यते । यथा हि समीचीनं मध्यस्थ न्यायनिर्णतारमासाद्य परस्परं विवदमाना अपि वादिनो विवादाद्विरमन्ति एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सार्वज्ञं शासनमुपेत्य स्याच्छब्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तयः सन्तः परस्परमत्यन्तसुहृद्रूपतयाऽवतिष्ठन्ते। 'नयानशेषानविशेषमिच्छन्' इस वचनसे भगवत्की प्रशंसा करते हुए इसी वचनसे ऐसा दिखाते है कि आपमें मत्सरता नही है। संपूर्ण नैगमादि नयोंको केवल सामान्य दृष्टिसे आप चाहते हैं। क्योंकि आपके वचन अनेकांतरूप हैं और अनेकांत संपूर्ण नयों के समूहको कहते है । जिस प्रकार विखरे हुए मोतियोंको एक सूतमें पिरोदेनेसे हार बनजाता है उसी प्रकार भिन्न भिन्न पड़े हुए नयरूप मोतियोंको स्याद्वादरूपी एक सूतमें पिरोदेनेसे उसकी 'श्रुतप्रमाण' संज्ञा होजाती है। शंका-यदि प्रत्येक नया Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जै.शा. स्थाद्वादम. ॥२१३॥ जा भिन्न भिन्न रहनेपर विरोधी हैं तो सवोंको मिलादेनेपर भी विरोध कैसे मिट सकता है ? उत्तर-जिस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए वादियोंको यदि कोई मध्यस्थ युक्तिपूर्वक निर्णय करनेवाला मिलजाता है तो वे विवाद छोड़कर शांत होजाते है उसी प्रकार नय भी परस्परमें शत्रुता धारण करते है परंतु जब सर्वज्ञ देवका शासन पाकर स्यात्शब्दके मिल जानेसे परस्परका विरोधभाव छोड़कर शान्त होजाते है तब वे ही नय परस्परमें अत्यंत मैत्रीभाव धारणकरके ठहरजाते है। | एवं च सर्वनयात्मकत्वे भगवत्समयस्य सर्वदर्शनमयत्वमविरुद्धमेव नयरूपत्वाद्दर्शनानाम् । न च वाच्यं तर्हि भगवत्समयस्तेषु कथं नोपलभ्यत इति; समुद्रस्य सर्वसरिन्मयत्वेऽपि विभक्तासु तास्वनुपलम्भात् । तथा च वक्तवचनयोरक्यमध्यवस्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादाः "उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः। न च तासु भवान्प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः"। इस प्रकार हे भगवन् ! आपका दर्शन सर्व नयखरूप होनेसे संपूर्ण दर्शनोसे अविरुद्ध है। क्योंकि; एक एक नयखरूप ही संपूर्ण ) दर्शन हैं। ऐसा होनेसे ऐसी शंका होना सहज है कि यदि भगवत्का दर्शन संपूर्ण दर्शनखरूप है तो वह संपूर्ण भिन्न भिन्न दर्शनोमें क्यों - पूनही दीखता? परंतु यह शंका ठीक नहीं। क्योंकि संपूर्ण नदियोका समूह ही समुद्र है परंतु भिन्न भिन्न वहती हुई नदियोंमें वह Mo नही दीखता है । बोलनेवालेमें तथा उसके वचनोंमें परस्पर अभेदभाव मानकर श्रीसिद्धसेन दिवाकर भी ऐसा ही कहते है कि 4 "यद्यपि जिस प्रकार संपूर्ण नदिया समुद्रमें मिलती है उसी प्रकार संपूर्ण दर्शन आपके दर्शनमें तो मिलते है परंतु तो भी जिस " प्रकार भिन्न भिन्न रहनेवाली नदियोंमें समुद्र नहीं दीखता उसी प्रकार आप का दर्शन भी उन भिन्न भिन्न दर्शनोंमें नहीं दीखता। ___ अन्ये त्वेवं व्याचक्षते 'यथा अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात्परे प्रवादा मत्सरिणस्तथा तव समयः सर्वनयान्मध्यस्थतयाऽङ्गीकुर्वाणो न मत्सरी। यतः कथंभूतः? पक्षपाती। पक्षमेकपक्षाभिनिवेशं पातयति तिरस्करोतीति पक्षपाती रागस्य जीवनाशं नष्टत्वात् ।' अत्र च व्याख्याने मत्सरीति विधेयपदं, पूर्वस्मिंश्च पक्षपातीति विशेपः। अत्र च क्लिष्टाऽक्लिष्टव्याख्यानविवेको विवेकिभिः स्वयं कार्यः । इति काव्यार्थः। ___ कोई इस प्रकार भी इस श्लोकका अर्थ करते है कि 'जिस प्रकार अन्य वादियोंके मतोंमें पक्ष प्रतिपक्षका दुराग्रह होनेसे परस्पर मत्सरभाव रहता है उस प्रकार आपका मत सर्वमतखरूप होनेसे मध्यस्थ होजानेके कारण मत्सरभाववाला नहीं है। क्योंकि आपका ॥२१॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत पक्षपाती कहा जाता है। अर्थात् जो एक पक्षके दुराग्रहको नष्ट कर देता हो अर्थात् हठको तिरस्कार दृष्टिसे देखता हो वह | पक्षपाती कहा जाता है। इन दोनों व्याख्यानोमें अंतर यह है कि इस व्याख्यामें 'मत्सरी-अर्थात् मत्सरभाववाला' इस पदको विधेय किया है और प्रथम व्याख्या में 'पक्षपाती' शब्द विधेयरूप था। इन दोनो व्याख्यानोंमें कोनसा सरल है तथा कोनसा कठिन है ऐसा विचार बुद्धिमानोंको खयं करलेना चाहिये । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। | इत्थंकारं कतिपयपदार्थविवेचनद्वारेण स्वामिनो यथार्थवादाख्यं गुणमभिष्टुत्य समग्रवचनातिशयव्यावर्णने स्वस्याऽसामर्थ्य दृष्टान्तपूर्वकमुपदर्शयन्नौद्ध त्यपरिहाराय भजयन्तरतिरोहितं स्वाभिधानं च प्रकाशयन्निगमनमाह । इस प्रकार अर्हन् भगवान्कर कहे हुए पदार्थोंमें से कुछ पदार्थोंकी यथार्थताका विवेचन करते हुए आचार्य, भगवान्का यथार्थ वक्तापना जो गुण है उसकी स्तुति करते हैं और भगवानके संपूर्ण वचनोंका अतिशय कहनेमें अपनी असमर्थता दृष्टांतपूर्वक दिखाते || हुए अपनेमें उद्धतताका अभाव दिखानेके लिये अपने अभिप्रायको व्यंगरूपसे छिपाकर प्रकाशित करते हुए उपसंहार करते है। वाग्वैभवं ते निखिलं विवेक्तुमाशास्महे चेन्महनीयमुख्य। लङ्घम जङ्घालतया समुद्रं वहेम चन्द्रद्युतिपानतृष्णाम् ॥ ३१॥ मूलार्थ-हे पूज्यशिरोमणे ! तुमारे वचनोंका संपूर्ण वैभव यदि हम विवेचन करना चाहें तो समझना चाहिये कि दौड़कर ||| क समुद्र तरना चाहते हैं अथवा चन्द्रमाकी चांदनी पीनेकी तृष्णा करते है। भावार्थ-यह कार्य उसी प्रकार असंभव है कि जिस || प्रकार जघाओंसे समुद्रका तरना या चुरलूसे चन्द्रकान्तिका पीना । व्याख्या-विभव एव वैभवम् । प्रज्ञादित्वात्स्वार्थेऽण् । विभोर्भावः कर्म चेति वा वैभवम् । वाचां वैभवं वाग्वैभवं वचनसंपत्प्रकर्षम् । विभोर्भाव इति पक्षे तु सर्वनयव्यापकत्वं; विभुशब्दस्य व्यापकपर्यायरूपतया रूढत्वात् । ते तव संवन्धिनं निखिलं कृत्स्नं विवेक्तुं विचारयितुं चेद्यदि वयमाशास्महे इच्छामः-। व्याख्यार्थ—'प्रज्ञादि' सूत्रद्वारा स्वार्थवाची अण् प्रत्यय होनेपर विभव शब्दका ही वैभव होजाता है। अथवा विभुका अर्थात् Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमं. ॥२१४॥ व्यापीका जो विभुपना या व्यापीका जो कर्तव्य हो सो भी वैभव कहाता है। क्योंकि, विभु शब्दका प्रचलित अर्थ व्यापी होता है । वचनोंका जो वैभव है उसको वाग्वैभव कहते है । वाग्वैभव शब्दका अर्थ वचनरूप संपत्तिकी अधिकता होता है । जब वैभव शब्दका अर्थ विभुका विभुपना करते हैं और विभु शब्दका अर्थ व्यापक मानते है तब वाग्वैभव शब्दका अर्थ 'संपूर्ण नयवचनोमें व्यापकपन ' ऐसा होता है । इसका वाक्यार्थ यों है कि आपका संपूर्ण वचनवैभव विचारनेकेलिये यदि हम आशा करै । तो समझना चाहिये कि समुद्रको तरना चाहते है इत्यादि । हे महनीयमुख्य ! | महनीयाः पूज्याः पञ्च परमेष्ठिनः । तेषु मुख्यः प्रधानभूतः आद्यत्वात् । तस्य संवोधनम् । ननु सिद्धेभ्यो हीनगुणत्वादर्हतां कथं वागतिशयशालिनामपि तेषां मुख्यत्वम् ? न च हीनगुणत्वमसिद्धं प्रव्रज्याऽवसरे सिद्धेभ्यस्तेषां नमस्कार करणश्रवणात् "काऊण णमुक्कारं सिद्धाणमभिग्गहंतु सो गिण्हे” इति श्रुतकेवलिवचनात् । मैवम् अर्हदुपदेशेनैव सिद्धानामपि परिज्ञानात् । तथा चार्षम् "अरहन्तुवएसेणं सिद्धा णज्झति तेण अरिहाई” इति । ततः सिद्धं भगवत एव मुख्यत्वम् । महनीय पूज्यको कहते है । सो पाचो ही पैरमेष्ठी पूज्य है परंतु उन पांचो में सबसे प्रथमके होनेसे आपको उन सर्वोसे प्रधान मानकर हे महनीयमुख्य ऐसा संबोधन कहा है। शंका- यद्यपि अर्हन्तो में उपदेशका माहात्म्य विद्यमान है परंतु सिद्धोंसे तो भी गुणोंकी अपेक्षा हीन ही है इसलिये सवोंमें मुख्य कैसे होसकते है' दीक्षाके समय वे सिद्धों को नमस्कार करते है इसलिये सिद्धोंकी अपेक्षा गुणोंमें हीनता तो प्रगट ही है। ऐसा श्रुतकेवलियोंका वचन भी मिलता है कि “सिद्धोंको नमस्कार करके वे दीक्षा ग्रहण करते है ।" उत्तर - अर्हत्केवलीके उपदेश से ही सिद्धों का परिचय होता है। ऋषियोंने ऐसा कहा भी है कि "अर्हत् के उपदेशसे ही सिद्ध जान पड़ते हैं इसलिये अर्हन्त भगवान् ही सबसे मुख्य है" । इस प्रकार अर्हन् ही सबकी अपेक्षा मुख्य सिद्ध हुए । यदि तव वाग्वैभवं निखिलं विवेक्तुमाशास्महे ततः किमित्याह लमेत्यादि । तदा इत्यध्याहार्यम् । तदा १ यह वाक्यखद सबधकी योजना के लिये ऊपरसे लिखा है। २ अर्हन्- जिन्होंने चार घाति कर्म नष्ट करके फिर केवल प्रत्यक्षज्ञान प्रगट किया हो । सिद्ध- अष्टकर्मरहित । आचार्य दीक्षा के तथा सबके स्वामी । उपाध्याय जो पढ़ें पढावें । साधु-सामान्य मुनिजन । इन्ही पाचोको पचपरमेष्ठी कहते हैं । ३ श्रुतकी जहापर अवधि है वहातक श्रुतको जाननेवाले साधु श्रुतकेचली कहाते हैं । रा. जै.शा. ॥२१४ ॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नजङ्घालतया जाविकतया वेगवत्तया समुद्रं लङ्घम किल। समुद्रमिवातिक्रमामः। तथा वहेम धारयेम। चन्द्रद्युतीनां चन्द्रमरीचीनां पानं चन्द्रद्युतिपानम्। तत्र तृष्णा तर्षोऽभिलाष इति यावत् चन्द्रद्युतिपानतृष्णा। ताम् । उभयत्रापि सम्भावने सप्तमी । यथा कश्चिञ्चरणचङ्कमणवेगवत्तया यानपात्राद्यन्तरेणापि समुद्र लवितुमीहते । यथा च कश्चिः। चन्द्रमरीचीरमृतमयीः श्रुत्वा चुलुकादिना पातुमिच्छति । न चैतद्वयमपि शक्यसाधनम् । तथा न्यक्षेण भवदीयवाग्वैभववर्णनाकाक्षाप्यशक्यारम्भप्रवृत्तितुल्या। आस्तां तावत्तावकीनवचनविभवानां सामस्त्येन विवेचनवि धानम् । तद्विषयाकाक्षापि महत्साहसमिति भावार्थः। AMI यदि आपके वचनवैभवका अच्छीतरह विवेचन करना हम चाहै तो किस प्रकार असंभव है सो 'लड्डेम' इत्यादि शब्दोंद्वारा दिखाते है । इस श्लोकमें 'यदि' अर्थका वाचक 'चेत्' शब्द तो है किंतु जहां यदि शब्द आता है वहां तो या तदा शब्द भी अवश्य आता है परंतु यह तो या तदा शब्द श्लोकमें नहीं है इसलिये ऊपरसे समझलेना चाहिये । 'लड्डेम' इत्यादि शब्दोंका अर्थ कहते है कि तो दौड़कर शीघ्र ही हम समुद्रको तरना चाहते हैं। अर्थात् यह संपूर्ण गुणोंका जो वर्णन करना है सो मानों, समुद्र तरना है। और भी मानों, चंद्रद्युति जो चंद्रकिरणे है उनके पीनेकी तृषा अर्थात् अभिलाष करना है। वहेरे I'लंघेम' इन दोनों धातुओंके शब्दोमें जो लिड् लकार हुआ है वह संभावना अर्थमें हुआ है। लिङ् लकारको ही कुछ व्याकरणोंमें || सप्तमी कहते है। जिस प्रकार कोई मनुष्य जहाजके बिना पैदल दौड़कर ही समुद्रको लांघनेकी वांछा करता हो या कोई मनुष्य चन्द्रकिरणोंको अमृतमयी सुनकर चुरल आदिकसे पीना चाहता हो परंतु ये दोनों ही कार्योका सिद्ध होना असंभव है उसी प्रकार आपके वचनवैभवके पूरी तौरसे वर्ण करनेकी आकांक्षाभी ठीक ऐसी ही है जैसा कि अशक्य कार्यके प्रारंभ करनेका उत्साह होता है । भावार्थ-आपके वचनरूप वैभवोंका पूर्णतया वर्णन करना तो दूर ही रहा किंतु उसकी आकांक्षा करना भी बड़ा साहस है। अथवा लघि शोषणे इति धातोर्लक्षेम शोषयेम समुद्रं जङ्घालतया अतिरंहसा । अतिक्रमणार्थलऽस्तु प्रयोगे । दुर्लभं परस्मैपदमनित्यं वा आत्मनेपदमिति । अत्र चौद्धत्यपरिहारेऽधिकृतेऽपि यदाशास्महे इत्यात्मनि बहुवचनमाचार्यः प्रयुक्तवास्तदिति सूचयति-यद्विद्यन्ते जगति मादृशा मन्दमेधसो भूयांसः स्तोतारः। इति बहुवचनमात्रेण न खल्वहङ्कारः स्तोतरि प्रभौ शङ्कनीयः। प्रत्युत निरभिमानताप्रासादोपरि पताकारोप एवाऽवधारणीयः। इति काव्यार्थः । एष्वेकत्रिंशतिवृत्तेषूपजातिच्छन्दः। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जै.शा. खाद्वादम. ॥२१५॥ अथवा लघु धातुका शोपना अर्थ है तथा जड्डालताका अर्थ शीघ्रता है। इसलिये 'जड्डालतया समुद्रं लड्डेम' का अर्थ ऐसा होना चाहिये कि समुद्रको शीघ्रतासे शोषना चाहते है। उल्लंघन करने अर्थमें जो लवि धातु है वह परस्मैपदी नहीं है और 'लड्डेम' यह शब्द परमैपदका ही बनता है इसलिये शोषणार्थक परस्मैपदी 'लघि' धातुका यह शब्द बना हुआ समझना चाहिये। अथवा यदि आत्मनेपद होना अनित्य मानाजाय तो जिसका उलंघन करना अर्थ है ऐसे लद्धि धातुका भी यह शब्द बनसकता है। इस श्लोकमें यद्यपि 'आशामहे' इस पदके देखनेसे ज्ञात होता है कि ग्रन्थकर्ता आचार्यने अपने विपयमें उद्धताका निषेध दिखाते हुए भी अपनेमें बहुवचनका उपयोग किया है परंतु इस बहुवचनसे उद्धतता नही झलकती है किंतु यह दीखता है कि जिनेन्द्रकी स्तुति करनेवाले मुझसमान मंदबुद्धि इस जगत्में बहुत है। इसलिये उद्धतताकी शंका करना तो उचित नहीं है किंतु उलटा निरभिमानतारूप महलके ऊपर इस वचनसे पताकाका आरोपण होता है ऐसा समझना चाहिये। भावार्थ-यहांपर बहुवचनान्त क्रियाशब्द कहनेसे निरहंकारताकी और भी विशेषता दीखती है । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। अबतकके इकतीस श्लोकोमें उपजाति नामक छन्द है। स एवं विप्रतारकैः परतीर्थिकैयामोहमये तमसि निमज्जितस्य जगतोऽभ्युद्धरणेऽव्यभिचारिवचनतासाध्येनाऽन्य योगव्यवच्छेदेन भगवत एव सामर्थ्य दर्शयन् तदुपास्तिविन्यस्तमानसानां पुरुषाणामौचितीचतुरतांप्रतिपादयति । ॐ इस प्रकार अन्य दर्शनवाले ठगोकर विस्तारित व्यामोहरूपी अन्धकारमें डूबे हुए जगत्का उद्धार करनेमें बाधारहित असाधारण कारणरूप आपके ही वचनोसे अन्य मतोका निराकरण होसकता है इसलिये हे भगवन् ! आपका ही ऐसा उद्धार करनेमें साममर्थ्य है ऐसा दिखाते हुए हेमचन्द्राचार्य यह कहते है कि इसलिये आपकी उपासना करने में जिन्होने मन लगा रक्खा है वे पुरुष ही अपने कर्तव्यमें चतुर समझने चाहिये। इदं तत्त्वाऽतत्त्वव्यतिकरकरालेऽन्धतमसे जगन्मायाकारैरिव हतपरैर्हा विनिहितम् । ॥२१५॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदुद्धर्तुं शक्तो नियतमविसंवादिवचन स्त्वमेवातस्त्रातस्त्वयि कृतसपर्याः कृतधियः ॥ ३२॥ मलार्थ-खेद है कि इंद्रजाली सरीखे अधम अन्य दर्शनवालोने तत्त्व अतत्वका मिश्रण होजानेसे भयंकर ऐसे अंधकारमें यह जगत् डालरक्खा है सो इस जगत्का उद्धार करनेकेलिये आप ही समर्थ है । क्योंकि आपके वचन विसंवादरहित है। हे जगत्के रक्षक ! इसीलिये बुद्धिमान् लोग आपकी सेवा करते है। ___ व्याख्या-इदं प्रत्यक्षोपलभ्यमानं जगद्विश्वम्। उपचाराजगद्वतः जनः। हतपरैः [हता अधमा ये परे तीर्थान्तरीया हतपरे तैः]मायाकारैरिवैन्द्रजालिकैरिव [शाम्बरीयप्रयोगनिपुणैरिवेति यावत् ] अन्धतमसे निविडान्धकारे [हा इति खेदे] विनिहितं विशेषेण निहितं स्थापितं पातितमित्यर्थः। अन्धं करोतीत्यन्धयति । अन्धयतीत्यन्धम्। तच्च तत्तमश्चेत्यन्धतमसम् । “समवान्धात्तमसः" इत्यत्प्रत्ययः। तस्मिन्नन्धतमसे । कथंभूतेऽन्धतमसे इति? | द्रव्यान्धकारव्यवच्छेदार्थमाह-तत्त्वाऽतत्त्वव्यतिकरकराले।। __ व्याख्यार्थ-यह, अर्थात् प्रत्यक्ष दीखता हुआ विश्व। विश्वशब्द उपचारसे विश्ववर्ती जनोको कहता है। अधमको हत कहते है |Tal और अन्य दर्शनवालोको यहांपर पर कहा है इसलिये हत तथा पर शव्दके मिलानेसे हतपर शब्द बनजाता है । औरका और दिखानेवाले जादूगरको मायाकार कहते है। 'हा' शब्द खेद अर्थमें आता है। इसलिये ऐसा अर्थ होना चाहिये कि प्रत्यक्ष | दीखते हुए इन संसारी जनोको इंद्रजालीके समान अन्यथा प्रतीति करानेवाले अधम अन्य दर्शनवालोने, खेद है कि; अत्यन्त | निविड़ अन्धकारमें सर्वथा पटक रक्खा है । जो अंधा बनादे उसको भी अंध कहते है। अंधा करनेवाला जो तम हो वह लाअन्धतमस कहाता है। यहांपर अन्धशब्द पूर्व रखकर तथा तमसू शब्द आगे रखकर मिलानेपर "समऽवाऽन्धात्तमसः" इस सूत्रकर अ प्रत्यय होजाता है और वह प्रत्यय तमसके अंतमें मिलकर अन्धतमस शब्द बना देता है । इस अंधकारको कोई बाह्य अंधकार न समझले इसलिये कहते हैं कि यह अन्धकार कैसा है कि जो तत्व अतत्वके मिश्रण होजानेसे भयानक होरहा है। तत्त्वं चाऽतत्त्वं च तत्त्वातत्त्वे । तयोर्व्यतिकरो व्यतिकीर्णता व्यामिश्रता स्वभावविनिमयस्तत्त्वाऽतत्त्वव्यतिकरः। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वादम. राजै.शा. ॥२१६॥ तेन कराले भयङ्करे । यत्रान्धतमसे तत्त्वेऽतत्त्वाभिनिवेशोऽतत्वे च तत्त्वाभिनिवेश इत्येवंरूपो व्यतिकरः संजायत ४ इत्यर्थः। अनेन च विशेपणेन परमार्थतो मिथ्यात्वमोहनीयमेवान्धतमसं तस्यैवेदक्षलक्षणत्वात् । तथा च ग्रन्थान्तरे प्रस्तुतस्तुतिकारपादाः “अदेवे देवबुद्धिा गुरुधीरगुरौ च या।अधर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात्"। ततोयमर्थो-यथा किलैन्द्रजालिकास्तथाविधसुशिक्षितपरव्यामोहनकलाप्रपञ्चास्तथाविधमौपधीमन्त्रहस्तलाघवादिप्रायं किंचित्प्रयुज्य परिपज्जनं मायामये तमसि मजयन्ति तथा परतीर्थिकैरपि तादृक्प्रकारदुरधीतकुतर्कयुक्तीरुपदिश्य जगदिदं व्यामोहमहान्धकारे निक्षिप्तमिति । ___तत्व अतत्वके मिलादेनेसे तत्वातत्व शब्द होता है। इन तत्वातत्वोका व्यतिकर अर्थात् इनके स्वभावका फेरफार होजानेसे यह अन्धतमस भयंकर होरहा है। इस अन्धतमसके होनेसे तत्व में अतत्वका अभिनिवेश और अतत्वमें तत्वका आग्रह उत्पन्न होता है। अर्थात् इस पूर्वोक्त प्रकारसे बुद्धिकी विपरीतता होजाती है। इस विशेषणके कहनेसे यथार्थ विचारा जाय तो मिथ्यात्वमोहनीय नामक कर्म ही अन्धतमस है ऐसा मालुम पड़ जाता है। क्योंकि उसीका ऐसा खरूप कहागया है। सोई स्तुतिकर्ता श्रीहेमचन्द्रा चार्यने खयं एक दूसरे ग्रन्थमें कहा है "अदेवको देव मानना, अगुरुको गुरु मानना तथा अधर्मको धर्म मानना ही मिथ्यात्व है। 1 क्योंकि, यह मानना विपर्यय है और विपर्ययको ही मिथ्यात्व कहते है" । इससे यह अभिप्राय स्पष्ट हुआ कि अन्य लोगोको ५ व्यामोहित करनेवाली नाना कला जिन्होने सीखी है ऐसे जादूगर, जिससे मनुप्य मोहित हों ऐसे मंत्र औषधि या हाथ की सफाई ५ आदि कुछ दिखाकर जिस प्रकार दर्शक लोगोको मायामयी अंधकारमें पटक देते है उसी प्रकार अन्य दर्शनबालोने भी जिनके * प्रयोगसे लोग विभ्रममें पड़जाय ऐसे अध्ययन किये हुए कुतर्क या कुयुक्तियों का उपदेश करके इस जगत्को विभ्रमरूपी महान् है MM अंधकारमें पटक रक्खा है। तज्जगदुद्धर्तुं मोहमहान्धकारोपप्लवात् क्रष्टुं नियतं निश्चितं त्वमेव । नान्यः शक्तः समर्थः । किमर्थमित्थमेकस्यैव भगवतः सामर्थ्यमुपवर्ण्यते ? इति विशेषणद्वारेण कारणमाह-अविसंवादिवचनः । कपच्छेदतापलक्षणपरीक्षात्रयविशुद्धत्वेन फलप्राप्तौ न विसंवदतीत्येवंशीलमविसंवादि । तथाभूतं वचनमुपदेशो यस्याऽसावविसंवा ॥२१६॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवचनः । अव्यभिचारिवागित्यर्थः । यथा च पारमेश्वरी वागू न विसंवादमासादयति तथा तत्र तत्र स्याद्वाद - साधने दर्शितम् । I ऐसे पतित जगत्का उद्धार करनेको केवल आप ही समर्थ हैं, अन्य कोई भी समर्थ नही है ऐसा निश्चय हो चुका है । क्यो आप ही इस कार्यको पूरा करने के लिये समर्थ है, किंतु अन्य कोई नही है इस शंकाका उत्तर विशेषणद्वारा देते है कि आपके बचन विसंवाद रहित सच्चे है । अर्थात् - आपके ही वचन विसवादरहित है इसलिये आप ही जगत्‌का उद्धार करसकते है । कष, छेद, ताप इन तीन प्रकारोंकी परीक्षासे आपके वचन विशुद्ध ठहरचुके है इस लिये फलकी प्राप्तिके विषयमें आपके वचनोमें कुछ विरोध नही है । इसीलिये इन वचनोको अविसवादी कहा है । इस प्रकार जिसका वचन या उपदेश अविसंवादी हो वह अविसंवादिवचन कहाता है । अर्थात्- आपके वचन ऐसे है कि जिनमें किसी प्रकार भी असत्यता नही ठहरसकै । आपके वचनोंमें जिस प्रकार असत्यता नहीं आती उस प्रकारका निरूपण स्थान स्थानपर स्याद्वादके बलसे करते आये है । कषादिस्वरूपं चेत्थमाचक्षते प्रावचनिकाः “पाणवहाईआणं पावडाणाण जो उ पडिसेहो । झाणऽज्झयणाईणं जो य विही एस धम्मको । १ । वज्झाणुडाणेणं जेण ण वाहिज्जए तयं णियमा । संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्मम्हि छेउत्ति । २ । जीवाइभावबाओ बंधाइपसाहगो इहं तावो । एएहिं परिसुद्धो धम्मो धम्मत्तणमुवेइ । ३ ।” कष छेद तापका स्वरूप धर्मशास्त्र के ज्ञाताओंने इस प्रकार कहा है । - " प्राणवधआदिक पापस्थानोंका जो निषेध तथा ध्यान | अध्ययन आदिक कर्मोंकी जो आज्ञा वह धर्मकष है । १ । जिस बाह्य क्रियासे धर्म के विषय में बाधा न पहुचसकै अर्थात् - मलिनता न आसकै किंतु निर्मलता वढती रहै उसको धर्मके विषयमें छेद कहते है । २ । जिससे बंध छूट जाय या नवीन बंध न हो ऐसा | जीवादि पदार्थोंका जिसमें कथन हो वह धर्म विषयमें ताप समझना चाहिये । ३ ।” तीर्थान्तरीयाप्ता हि न प्रकृतपरीक्षात्रयविशुद्धवादिन इति ते महामोहान्धतमसे एव जगत्पातयितुं समर्थाः, १ संस्कृतच्छाया - प्राणवधादीना पापस्थानानां यस्तु प्रतिषेध. । ध्यानअध्ययनादीनां यश्च विधिः एप धर्मकपः ॥ १ ॥ बाह्यानुष्ठानेन येन न बाध्यते तन्नियमात् । संभवति च परिशुद्धः स पुनः धर्मे छेद इति ॥ २ ॥ जीवादिभाववाद बन्धाद्यऽपसाधक इह तापः । एभिः परिशुद्ध. धर्मः धर्मत्वमुपैति ॥ ३ ॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा.जै.शा. याद्वादम ॥२१७॥ न पुनस्तदुद्धर्तुम्। अतः कारणात्। कुतः कारणात्? कुमतध्वान्तार्णवान्तःपतितभुवनाऽभ्युद्धारणाऽसाधारणसामर्थ्य- लक्षणात्।हेत्रातस्त्रिभुवनपरित्राणप्रवीण!त्वयि काक्वाऽवधारणस्य गम्यमानत्वात् त्वय्येव विपये,न देवान्तरे कृतधियः[ करोतिरत्र परिकर्मणि वर्तते । यथा हस्तौ कुरु पादौ कुरु इति । कृता परिकार्मिता तत्त्वोपदेशपेशलतत्तच्छास्त्राभ्यासप्रकपेण संस्कृता धीवुद्धिर्यपां ते कृतधियश्चिद्रूपाः] पुरुषाः कृतसपर्याः। प्रादिकं विनाप्यादिकर्मणो गम्यमानत्वात् कृता कर्तुमारब्धा सपर्या सेवाविधियस्ते कृतसपर्याः। आराध्यान्तरपरित्यागेन त्वय्येव सेवाहेवा. कितां परिशीलयन्ति । इति शिखरिणीच्छन्दोऽलंकृतकाव्यार्थः॥ समाप्ता चेयमन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तवनटीका ॥ अन्य धर्मोके प्रवर्तक लोग कप, छेद, ताप रूप तीन परीक्षाओंद्वारा विशुद्ध वचन बोलनेवाले नही हे इसलिये वे लोग जगत्को महामोहमयी अंधकारमें गिरा तो सकते है परंतु उनसे जीवोंका उद्धार होना असभव है । नाना प्रकारके कुमतरूपी समुद्री | पडे हुए लोगोंका उद्धार करनेमे असामान्य सामर्थ्यके धारक होनेसे, हे त्रिजगदुद्वारक प्रभो ! अन्य देवोंकी नहीं कितु आपकी A ही विद्वानोंने सेवा करना प्रारंभ किया है । ' कृतधियः' शब्दका अर्थ विद्वान् है। क्योंकि, जिनमें तत्वोपदेश भलेप्रकार हो ऐसे शास्त्रोंका अभ्यास अत्यंत करनेसे जिनकी बुद्धि निर्मल होगई है उनको ‘कृतधियः' या ज्ञानी कहते है। यहांपर 'कृ' धातुका अर्थ परिकर्म है। जैसे हाथोंको कर, पैरोको कर' इन वाक्योंका अर्थ हाथ पैरोको ठीक करना होता है । सेवा | G करना प्रारंभ किया है ऐसा अर्थ ' कृतसपर्याः ' शब्दका होता है । इसमें जो कृतशब्द है उसका अर्थ प्रारंभ करना है । क्योंकि, 'प्र' आदिक कोई उपसर्ग न लगानेपर भी 'कृ'धातुका अर्थ यहां प्रारंभ करना है ऐसी प्रतीति यहा हो जाती है। विद्वानोंने आपकी ही M सेवा करना विचारा है, अन्य किसीकी नहीं ऐसा निश्चय काकुरूप ध्वनिसे होजाता है । अर्थात्-विद्वानोने दूसरोंकी आराधना छोडकर आपकी ही सेवा करनेमें बुद्धि लगाई है। इस प्रकार शिखरिणी छन्दवाले इस अतिम काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। इति स्याद्वादमंजरीहिदीभापानुवादः । ॥२१७॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ ॥ श्रीटीकाकारस्य प्रशस्तिः॥ येषामुज्ज्वलहेतुहेतिरुचिरः प्रामाणिकाध्वस्पृशां हेमाचार्यसमुद्भवस्तवनभूरर्थः समर्थः सखा । तेषां दुर्नयदस्युसभवभयाऽस्पृष्टात्मनां संभवत्यायासेन विना जिनागमपुरप्राप्तिः शिवश्रीप्रदा ॥१॥ चातुर्विद्यमहोदधेर्भगवतः श्रीहेमसूरेगिरां गम्भीरार्थविलोकने यदभवद् दृष्टिः प्रकृष्टा मम । द्राघीयः समयादराग्रहपराभूतप्रभूतावमं तन्नूनं गुरुपादरेणुकणिकासिद्धाञ्जनस्योर्जितम् ॥ २॥ अन्यान्यशास्त्रतरुसंगतचित्तहारिपुष्पोपमेयकतिचिन्निचितप्रमेयैः ।। ब्धां मयान्तिमजिनस्तुतिवृत्तिमेनां मालामिवामलहृदो हृदये वहन्तु ॥ ३॥ प्रमाणसिद्धान्तविरुद्धमत्र यत्किंचि|दुक्तं मतिमान्द्यदोषात् । मात्सर्यमुत्सार्य तदार्यचित्ताः प्रसादमाधाय विशोधयन्तु ॥ ४॥ उर्व्यामेष सुधाभुजां गुरुरिति त्रैलोक्यविस्तारणे यत्रेयं प्रतिभाभरादनुमितिर्निर्दम्भमुज्जृम्भते । किं चामी विबुधाः सुधेति वचनोद्गारं यदीयं मुदा शंसन्तः प्रथयन्ति तामतितमां संवादमेदस्विनीम् ॥५॥ नागेन्द्रगच्छगोविन्दवक्षोऽलंकारकौस्तु-Ilas भाः। ते विश्ववन्द्या नन्द्यासुरुदयप्रभसूरयः ॥ ६॥ युग्मम् । श्रीमलिषेणसूरिभिरकारि तत्पदगगनदिनमणिभिः। || वृत्तिरियं मनुरविमितशाकान्दे दीपमहसि शनौ ॥ ७॥ श्रीजिनप्रभसूरीणां साहाय्योद्भिन्नसौरभा । श्रुतावुत्तंसतु| सतां वृत्तिः स्याद्वादमञ्जरी ॥८॥ विभ्राण किल निर्जयाजिनतुलां श्रीहेमचन्द्रप्रभौ तदृब्धस्तुतिवृत्तिनिर्मितिमि-11 पाद्भक्तिर्मया विस्तृता । निर्णेतुं गुणदूषणे निजगिरां तन्नार्थये सज्जनान् तस्यास्तत्त्वमकृत्रिमं बहुमतिः सास्त्यत्र सम्यग् यतः॥९॥ IFI प्रामाणिकोंके मार्गमें चलनेवाले जिन मनुष्योंके लिये हेतुरूपी तेजसे प्रकाशवान् तथा श्रीहेमचंद्राचार्यके स्तवनसे उत्पन्न हुआ|| || ऐसा सामर्थ्यधारी मित्र विद्यमान है उन मनुष्योंको दुर्नय रूपी चौरोंसे भय नहीं होसकता है इसलिये मोक्षलक्ष्मीरूप फलके देनेपावाले जिनागमरूपी पुरकी प्राप्ति विना परिश्रम होसकती है। १। महासमुद्रके समान चारविद्यारूपी जलके धारक भगवान् Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टी. प्रश. स्साद्वादमश्रीहेमचंद्राचार्यकी वाणीका गंभीर अर्थ देखनेकेलिये जो मेरी दृष्टि समर्थ हुई तथा बड़े बड़े सिद्धान्तोंका आदरपूर्वक ग्रहण करनेमें उपस्थित हुए प्रबल विघ्नोंका नाश हुआ वह सर्व गुरुके चरणकमलोंकी धूलिरूप सिद्ध अंजनका ही माहात्म्य है ।२। जुदे ॥२१८॥ जुदे शास्त्ररूपी वृक्षोंमें लगे हुए प्रमेयरूपी पुष्पोंके गुच्छोंसे बनाई हुई मालाके समान अंतिमजिनस्तुतिकी इस टीकाको देखकर विशुद्धमति सज्जन अपने हृदयमें धारण करै । ३। प्रमाण अथवा सिद्धान्तके विरुद्ध जो कुछ मैने यहांपर अल्पमति होनेके कारण कहा हो उसको सरलचित्त सज्जन वैरभाव न रखकर प्रसन्नतापूर्वक शोधलें ।४। तीनों लोकमें विस्तरी हुई बुद्धि देखकर जिसके विषयमें लोग यह अनुमान करते है कि पृथ्वीके ऊपर यह ( हेमचंद्राचार्य ) देवताओंका गुरु बृहस्पति ही 1 है । और जिसके निकले हुए वचनोंको यह सुधा है ऐसा प्रशसते हुए ये विद्वान् संवादसे पुष्ट हुई उस वाणीकी अत्यंत ख्याति । IN करते है । ५। तथा नागेन्द्र गच्छरूपी विष्णुके गलेको शोभित करनेवाले कौस्तुभ मणिके समान ऐसे लोकपूज्य श्रीउदयप्रभ सूरि जयवंते प्रवर्ते । ६ । आकाशरूपी इनके पदको सूर्यके समान प्रकाशित करनेवाले श्रीमल्लिपेण सूरिने यह वृत्ति शकाब्द १२१४ के दिवालीके दिन पूर्ण की ।श्रीजिनप्रभसूरिकी सहायतासे उत्पन्न हुआ है सुगंध जिसमें ऐसी यह स्याद्वादमंजरीMa नामक वृत्ति सत्पुरुषोंके कौँको मंजरीके समान शोभित करै।८। विजय करनेसे जिनेन्द्रकी तुलना रखनेवाले श्रीहेमचंद्र प्रभुकी 9 मैने उनकी बनाई हुई स्तुतिकी वृत्ति बनानेके बहानेसे भक्ति की है इसलिये अपनी वाणीके गुणदोषोंका निर्णय करानेके लिये मै Ko सज्जनोंसे प्रार्थना नहीं करता हू । क्योंकि, बहुमति होना ही वाणीका अकृत्रिम भूषण है और वह भूषण इसमें भले प्रकार | विद्यमान है। ॥२१८॥ इति श्रीटीकाकारप्रशस्ति । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- _