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________________ स्थाद्वादमः काव्यके नित्य साथ रहनेवाले होते है और कुछ उत्पन्न तथा नष्ट भी होते रहते हैं। इसलिये जो सत् है वह सदा उत्पाद व्यय धौव्या राजै.शा. इन तीनो धर्मोंकर सहित रहता है ऐसा सिद्ध हुआ। जिस प्रकार एक एक पदार्थमें अनंतो धर्म होते हैं उसी प्रकार उन ॥१७२॥ अर्थोवाले शब्दोमेंसे प्रत्येक शब्दमें भी जिसका उच्चारण ऊंचा हो ऐसा उदात्त धर्म, जिसका उच्चारण नीचेसे हो ऐसा अनुदात्त | धर्म, उदात्त अनुदात्तोका मिला हुआ खरित धर्म तथा जिसके उच्चारणसे गला फूलै ऐसा विवृत धर्म, जिससे न फूलै ऐसा संवृत धर्म | तथा घोषवत् धर्म, अघोष धर्म, अल्पप्राण धर्म तथा महाप्राण आदिक तथा अपने अर्थोको प्रतिभासित कराने आदिककी शक्ति, इत्यादिक अनेक धर्म होते है । ' अन्यथा सत्की सिद्धि होना असंभव है। ऐसे इस हेतुमें यदि कोई असिद्धता विरुद्धता अनैकान्तिकता आदिक दोपरूपी कांटे डाले तो उसका निवारण करदेना पाठकोकी वुद्धिपर ही छोडते हैं। इत्येवमुल्लेखशेखराणि ते तव प्रमाणान्यपि न्यायोपपन्नसाधनवाक्यान्यपि (आस्तां तावत्साक्षात्कृतद्रव्या यनिकायो भवान् यावदेतान्यपि) कुवादिकुरङ्गसन्त्रासनसिंहनादाः । कुवादिनः कुत्सितवादिन एकांशग्राहकनयानुयायिनोऽन्यतीर्थिकास्त एव संसारवनगहनवसनव्यसनितया कुरङ्गा मृगास्तेषां सम्यक्त्रासने सिंहनादान इव सिंहनादाः । यथा सिंहस्य नादमात्रमप्याकये कुरङ्गास्त्रासमासूत्रयन्ति तथा भवत्प्रणीतैवंप्रकारप्रमाणवचनान्यपि श्रुत्वा कुवादिनस्त्रासमश्नुवते । प्रतिवचनप्रदानकातरता विभ्रतीति यावत् । एकैकं त्वदुपज्ञं प्रमाणमन्ययोगव्यवच्छेदकमित्यर्थः। | हे प्रभो ! आपने तो संपूर्ण द्रव्य, पर्यायोको प्रत्यक्ष जानलिया है इसलिये आपकी तो बात ही दूर रही परंतु पूर्वोक्त रीतिसे ॥ स्याद्वादका भले प्रकार निरूपण करनेवाले आपके न्याययुक्त हेतुओंके वचन ही कुवादीरूप हरिणोको त्रस्त करनेकेलिये सिहनादके समान है हैं । मुख्यताकी अपेक्षा लेकर एक २ धर्मको ही सर्वथा कहनेवाले एक एक नयके अनुगामी जो कुवादी अर्थात् खोटे मतोका प्रतिपादन करनेवाले तथा खोटे मतोके चलानेवाले है वे ही यहापर संसाररूपी गहन वनमें वास करनेके रोचक होनेसे मृगसमान है। इन 6 ॥१७२॥ मृगोंको खूब भयभीत करनेकेलिये आपके युक्तिपूर्ण वचन सिंहनादके समान है। यद्यपि यथार्थमें सिंहनाद नहीं है तो भी सिंहनादसे |जिस प्रकार मृग भयभीत होजाते है उसी प्रकार आपके वचनोसे बड़े बडे कुवादिरूपी मृग त्रस्त होजाते है इसलिये सिंहनादके समान
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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