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________________ वच्छेदकाऽवच्छेद्यत्वमवस्थितत्वमरूपित्वमेकद्रव्यत्वं निष्क्रियत्वमित्यादयः । घटे पुनरामत्वं पार्कजरूपादिमत्त्वं धू पृथुबुनोदरत्वं कम्बुग्रीवत्वं जलादिधारणाहरणादिसामर्थ्य मत्यादिज्ञानज्ञेयत्वं नवत्वं पुराणत्वमित्यादयः । एवं • सर्वपदार्थेष्वपि नानानयमताऽभिज्ञेन शाब्दानाऽऽर्थीश्च पर्यायान् प्रतीत्य वाच्यम् । अनंतधर्म जो प्रत्येक द्रव्यमें कहे है वे दो प्रकारके होते है। एक सहभावी दूसरे क्रमभावी । जो द्रव्यके साथ सदाकाल रहै वे तो सहभावी कहे जाते हैं और जो निमित्त पाकर अथवा यों ही क्रमसे उत्पन्न तथा नष्ट होते रहै उनको क्रमभावी कहते है। ॐ क्रमभावियोंका दूसरा नाम पर्याय और सहभावियोंका दूसरा नाम गुण है । जीवद्रव्यके अनंत धर्मोमेंसे साकार अनाकार उपयोग अथवा ज्ञान दर्शन तथा कर्तापना, भोक्तापना, आठ मध्य प्रदेशोकी निश्चलता, अमूर्तिकपना, असंख्यात प्रदेशीपना, तथा जीव त्वादिक धर्म तो सहभावी है और हर्ष, विषाद, शोक, सुख, दुःख, देवपना, मनुष्यपना, नारकपना तथा तिर्यचपर्यायादिक * क्रमभावी है । धर्म, अधर्म, लोकाकाश द्रव्योंमें असंख्यात प्रदेशी होना तथा गति, स्थिति, अवकाशदान आदिक उपकार होना, मति श्रुत केवल ज्ञानोंके विषयभूत होसकना तथा निश्चय करनेवाले ज्ञानसे भिन्न २ निश्चित होना, जैसाका तैसा स्थित रहना, 'y अरूपीपना, एकद्रव्यपना तथा क्रियारहित होना इत्यादि अनंतो धर्म है । पुद्गल द्रव्योंमें भी इसी प्रकार एक एकमें अनंतो धर्म | है। जैसे घड़ेमें कच्चापन, पक्कापन, पकनेपर रूपादिकका बदलना, मोटे चौडे पेटवाला होना, कंवु फलकीसी ग्रीवावाला होना, जल रखने लाने आदिककी शक्ति सहित होना, मतिज्ञानादिक ज्ञानोंके विषय होना, नवीनता तथा जीर्णता होना इत्यादिक धर्म है। इसी प्रकार और भी संपूर्ण पदार्थोमें नाना प्रकारकी नयात्मक कथनीके अनुसार समझनेवालोको शब्दसंबंधी तथा अर्थसंबंधी पर्याय विचारकर कहने चाहिये। __ अत्र चात्मशब्देनानन्तेष्वपि धर्मेष्वनुवर्तिरूपमन्वयिद्रव्यं ध्वनितम् । ततश्च “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” इति व्यवस्थितम् । एवं तावदर्थेषु शब्देष्वपि उदात्ताऽनुदात्तस्वरितविवृतसंवृतघोषवदघोषताऽल्पप्राणमहाप्राणतादयस्तत्तदर्थप्रत्यायनशत्त्यादयश्चावसेयाः। अस्य हेतोरसिद्धविरुद्धानैकान्तिकत्वादिकण्टकोद्धारः स्वयमभ्यूह्यः । __ यहांपर आत्मा कहनेसे अनंतो धमि सदा अनुवर्तनेवाला अन्वयिद्रव्य समझा जाता है । भावार्थ-इसी प्रकार कुछ धर्म तो| १ एतद्विशेषणं नास्त्येव कपुस्तके।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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