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________________ ग. .सा. स्याद्वादम. ॥१७॥ करसकै अर्थात् सिद्ध करसकै उसको सूपपाद कहते है। और जो मूपपाद न हो किंतु अत्यंत दुमाध्य हो वह अमुपपाद या दुर्घटना कहाता है। 'अतोन्यथा सत्त्वमसूपपादम्' इस वाक्यसे अनुमानका हेतुभूत अग दिखाया है। स्तोत्रमें कहा हुआ तत्त्व शब्द तो धर्मी है, अनंतधर्मात्मक कहना है सो साध्यधर्म है और 'सत्त्वकी सिद्धि अन्यथा नहीं होसकती है' यह वचन हेतु है। क्योंकि साध्यके अतिरिक्त न मिलना ही हेतुका मुख्य लक्षण है । अर्थात्-तत्त्व अनंतधर्मात्मक ही है। क्योंकि दूसरे प्रकारसे मत्त्वकी सिद्वि नहीं होसकती है । इस प्रकारसे अनुमानका वचन इस स्तोत्रमंसे बनसकता है । यहांपर हेतु और साध्यकी व्याप्तिका जब विचार करते है तभी अनंतधर्मात्मकरूप साध्यकी सिद्वि भी स्पष्ट होजाती है इसलिये दूसरे दृष्टांत उपनय निगमन कहनेकी कुछ आवश्यकता नहीं है । भावार्थ-साध्यके अतिरिक्त कहीं दूसरे स्थानपर हेतुके नहीं मिलनेको व्याप्ति कहते हैं। व्याप्तिका विनार करनेसे हेतुके। 1 होनेपर साध्यका होना निश्चित होजाता है । जैसे जहा जहापर धूआ होता है वहां वहांपर अग्नि अवश्य मिलती है । रसोईके ) घरमें धूआ है इसलिये अग्नि भी है । इस प्रकार निश्चय होजानेपर जहां हम धूआ देखते है वहां ही अमिका निधय कर लेते है। धू इसी प्रकार अनंतधर्मात्मकपना जहां न होगा वहां सत्त्व भी न होगा अथवा सत्त्व होगा वहां अनतधर्मात्मकपना अवश्य। होगा इत्यादि निश्चय होनेसे ही सपूर्ण वस्तुओंमें अनंतधर्मात्मकपना निश्चित होसकता है इसलिये दृष्टांतादि नहीं दिखाये हैं। जो अनतधर्मात्मक नहीं होता वह सत्रूप भी नहीं होता। जैसे आकागका कमल । आफागकमलमें अनतधर्म नहीं है इसलिये वह सत्खरूप भी नहीं है । इस प्रकार यह हेतु केवलव्यतिरेकी है । क्योंकि, जितने अनतधर्मसहित वस्तु इस हेतुके अन्वयरूप दृष्टांत होसकते है वे सब साध्य अवस्थामें पड़े हुए है अर्थात् अभी उन सबको तो साधना ही है इसलिये अन्वयी दृष्टान्त नहीं होनेसे व्यतिरेकी दृष्टात कहना पड़ा है। साध्य जहा न मिले वहां हेतु भी यदि न मिले तो ऐसे उदाहरणको व्यतिरेकी दृष्टान्त कहते हैं । जहां हेतु हो वहां साध्य भी हो ऐसे उदाहरणको अन्वयी दृष्टान्त कहते है। ॥१७॥ अनन्तधात्मकत्वं चात्मनि तावत्साकाराऽनाकारोपयोगिता कर्तृत्वं भोकृत्वं प्रदेशाष्टकनिश्चलता अमूर्त्तत्वमसंख्यातप्रदेशात्मकता जीवत्वमित्यादयः सहभाविनो धर्माः ।हर्पविषादशोकसुखदुःखदेवनरनारकतिर्यक्त्व | यस्तु क्रमभाविनः। धर्मास्तिकायादिष्वप्यसंख्येयप्रदेशात्मकत्वं गत्याद्युपग्रहकारित्वं मत्यादिज्ञानविषयत्वं तत्तद
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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