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तथा युक्तियोंका उपदेश किया है उनके अंश भी परवादियोंका तिरस्कार करनेके लिये कटिबद्ध हैं ऐसा आशय दिखाते हुए स्तुति कर्ता श्रीहेमचंद्राचार्य स्याद्वादकी सिद्धि करनेके लिये अनुमानप्रयोगरूप स्तुति करते हैं ।
अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् ।
इति प्रमाणान्यपि ते कुवादिकुरङ्गसंत्रासनसिंहनादाः ॥ २२ ॥
मूलार्थ - वस्तुका जो सच्चा खरूप है वह अनंतधर्मात्मक ही है । इस प्रकार यदि न माना जाय तो वस्तुकी सत्ताका वर्णन करना भी दुर्लभ होजाय । इस प्रकार कहनेवाले आपके प्रमाण भी कुवादीरूप मृगों को ऋरत करनेके लिये केसरीकी गर्जना के समान हैं ।
व्याख्या- तत्त्वं परमार्थभूतं वस्तु जीवाजीवलक्षणमनन्तधर्मात्मकमेव । अनन्तास्त्रिकालविपयत्वादपरिमिता ये धर्माः सहभाविनः क्रमभाविनश्च पर्यायास्त एवात्मा स्वरूपं यस्य तदनन्तधर्मात्मकम् । एवकारः प्रकारान्तरव्यवच्छेदार्थः । अत एवाह " अतोऽन्यथा" इत्यादि । अतोऽन्यथा उक्तप्रकारवैपरीत्येन सत्त्वं वस्तुतत्त्वमसूपपादम् । सुखेनोपपाद्यते घटनाकोटिसंटङ्कमारोप्यते इति सूपपादम् । तथा असूपपादम् । दुर्घटमित्यर्थः । अनेन साधनं दर्शितम् । तथा हि । तत्त्वमिति धर्मि । अनन्तधर्मात्मकत्वं साध्यो धर्मः । सत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति हेतुः अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणत्वाद्धेतोः । अन्तर्व्याप्त्यैव साध्यस्य सिद्धत्वाद् दृष्टान्तादिभिर्न प्रयोजनम् । | यदनन्तधर्मात्मकं न भवति तत्सदपि न भवति । यथा वियदिन्दीवरम् । इति केवलव्यतिरेकी हेतुः साधर्म्य - | दृष्टान्तानां पक्षकुक्षिनिक्षिप्तत्वेनान्वयायोगात् ।
व्याख्यार्थ-तत्त्व अर्थात् सत्यार्थभूत जीव अजीवादि वस्तु, अनंतधर्मात्मक ही है । अनंत अर्थात् त्रिकालवर्ती होनेसे अपरिमित जो सहभावी तथा क्रमभावी पर्यायरूप धर्म हैं वे ही जिसका आत्मा अर्थात् स्वरूप हो उसको अनंतधर्मात्मक कहते हैं । | इस स्तोत्रमें अनंतधर्मात्मक शब्दके अनंतर जो 'एव' शब्द है उससे यहा पर ऐसा अर्थ होता है कि जीवादि तत्त्व अन्य प्रकार नहीं है किंतु अनंतधर्मखरूप ही है । इसी अभिप्रायसे "अतोन्यथा सत्त्वमसूपपादम् " ऐसा कहा है । अर्थात् वस्तु जो अनंतधर्मात्मक कहा है उसके सिवाय दूसरी रीति से वस्तुतत्त्वका प्रतिपादन करना कठिन है । जिसका प्रतिपादन अनायाससे ।