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स्याद्वादभं. ॥ १७० ॥
रा. जै.शा. निष्कारण नही हुए । कलश चांहनेवालेके परिणाम तो शोकातुर होगये। क्योंकि, उसको जिसकी चांह थी वही तोड डाला गया । जिसको मुकुटकी इच्छा थी वह मुकुट बनते हुए देखकर प्रसन्न हुआ। क्योंकि, उसकी इच्छा पूर्ण होनेवाली जानपड़ती थी । जिसको साधा सुवर्ण लेनेकी इच्छा थी वह न तो प्रसन्न हुआ और न शोकातुर हुआ । क्योंकि, साधा सुवर्ण उसका सदा ही विद्यमान था । जब चाहता तभी लेसकता था । भावार्थ उन तीनो मनुष्योंके जो तीन प्रकारके परिणाम हुए वे किसी न किसी जुदे जुदे कारणसे ही हुए। वे कारण पर्यायकी उत्पत्ति नाश तथा किसी अपेक्षा स्थिरता ही थे । यदि ये कारण जुदे जुदे न होते तो तीनो मनुष्योंके परिणाम भिन्न भिन्न न होते । क्योंकि, कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति होना असंभव है । इसलिये ये तीनों ही धर्म कथंचित् भिन्न भिन्न है । तथा ये तीनों ही धर्म एक सुवर्णरूप द्रव्यके है, प्रत्येक अंग जुदे जुदे नही है इसलिये इस अपेक्षासे ये तीनो धर्म अभिन्न भी है ।" अन्य प्रकारसे भी इनका भेदाभेद दिखाते हुए श्रीसमन्तभद्रस्वामीने एक दूसरा उदाहरण दिखाया है " जिसने दूध पीनेका नियम किया हो वह दही नही खासकता है तथा जिसने दही खानेमात्रकी प्रतिज्ञा की हो वह दूध नही पीसकता है और जिसने गोरसमात्र छोडदिया हो वह न दूध पीता है और न दही खाता है । भावार्थ - जिस प्रकार यद्यपि दूध तथा दही ये दोनो ही एक गोरसके पर्याय है तो भी कथंचित् परस्पर भिन्न | है । यदि भिन्न न होते तो जिसने दूधमात्रका ग्रहण करना नियत करलिया है वह दही भी क्यों नहीं खाता तथा जिसने दही खानेमात्रकी प्रतिज्ञा की है वह दूध भी क्यों नहीं पीता एवं सभी वस्तुओंके उत्पत्ति विनाश कथंचित् परस्पर भिन्न है । और जिस प्रकार गोरसका त्यागनेवाला न दहीं खाता है, न दूध पीता है । क्योंकि, गोरस द्रव्यकी अपेक्षा दही दूध आदि सभी एकरूप है । उसीप्रकार सभी वस्तु द्रव्यस्वभावकी अपेक्षासे विचार करनेपर एकरूप ही है ।" इस प्रकार इस स्तोत्रका अर्थपूर्ण हुआ ।
अथान्ययोगव्यवच्छेदस्य प्रस्तुतत्वादास्तां तावत्साक्षाद्भवान् । भवदीयप्रवचनावयवा अपि परतीर्थिकतिरस्कारबद्धकक्षा इत्याशयवान् स्तुतिकारः स्याद्वादव्यवस्थापनाय प्रयोगमुपन्यस्यन् स्तुतिमाह ।
अपरंच अन्य कर्मादि उपाधियोंका सबध दूर होजानेसे साक्षात् आपका तो कहना ही क्या है परंतु आपने जिन शास्त्रोंका
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