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यादाटमाना है। और जो गुण होता है, वह गुणी ( अपने आधाररूप पदार्थ) को छोड़कर नहीं रहता है, इसकारण अनुमान किया जाता है राज.श
कि आत्मा सर्वव्यापक है अर्थात् आत्माके अदृष्टगुणको सर्वत्र देखनेसे अनुमान होता है कि अदृष्टका धारक आत्मा सर्वव्यापक है। समाधान-ऐसा मत कहो। क्योंकि आत्माका अदृष्टगुण सर्वगत है; इस मतको सिद्ध करनेमें कोई प्रमाण नहीं है। यदि
कहो कि; अग्निका ऊचा जलना अर्थात् अग्निकी शिखाका ऊचा जाना और वायुका तिर्यक् (तिरछा) गमन करना अदृष्टका KII किया हुआ है, यह प्रमाण है ही है। भावार्थ-अग्नि सर्वत्र अदृष्टके बलसे ऊर्द्ध गमन करता है और वायु भी सर्वत्र अदृष्टके ।।
वशसे तिरछा गमन करता है। अतः यह प्रमाण अदृष्टको सर्वगत सिद्ध करता है, सो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि जैसे ह अग्निमें दग्ध करने (जलाने ) की शक्ति खभावसे है अर्थात् जैसे अग्निका दग्धकरना खभाव है, उसी प्रकार अग्निका ऊर्द्धगमन-11 रूप तथा वायुका तिर्यक्गमनरूप भी स्वभाव है । यदि कहो कि; अमिमें जो दहनशक्ति ( जलानेकी ताकत) है; वह भी अदृष्टकी कराई हुई है अर्थात् अदृष्टके बलसे ही अग्निमें दहनशक्ति उत्पन्न होती है तो तीनलोककी विचित्रताके रचनेमें भी वह अदृष्ट ही। सूत्रधारकीसी तरह आचरण करैः ईश्वरकी कल्पनासे क्या है ? भावार्थ-यदि तुम (वैशेषिक ) पदार्थोके खभावोंको भी अदृष्टसे उत्पन्न हुए मानते हो तो फिर 'तीन जगतकी विचित्राको रचनेवाला ईश्वर है । यह तुम्हारी कल्पना व्यर्थ है । क्योंकि अदृष्टसे ही तीनलोककी विचित्रता हो जावेगी । इसकारण यह हेतु असिद्ध नहीं है। भावार्थ-'आत्मा सर्वगत नहीं है; क्योंकि सर्वत्रानुपलभ्यमानगुण ( सवस्थानोंमें नहीं मिलनेवाले गुणोंका धारक) है। इस अनुमानके प्रयोगमें जो सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणरूप हेतु दिया है; वह असिद्ध नहीं है । क्योकि आत्माके गुण सब जगह नहीं मिलते है । और यह सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणरूप हेतु अनेकान्तिक भी नहीं है । क्योंकि, साध्यसाधनकी व्याप्तिका ग्रहण करनेसे व्यभिचार नहीं होता है। भावार्थ-असर्वगतरूप साध्य ।
और सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणवरूप साधन (हेतु), इन दोनोके 'जो जो सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणका धारक है, वह वह असर्वगत है इस लाप्रकारसे परस्पर व्याप्ति होती है। तथा विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि विपक्षसे अत्यंत व्यावृत्त है। भावार्थ-साध्य जो असर्वगत है; उसके अभावरूप सर्वगतपनेको धारण करने वाला जो कोई है, वह विपक्ष कहलाता हैउस विपक्षसे यह सर्वत्रानुपलभ्यमानगुण
॥६१॥ लारूप हेतु अत्यत व्यावृत्त ( सर्वथा भिन्न ) है, इस कारण यह हेतु विरुद्ध भी नहीं है । और आत्माके बुद्धि आदि गुण है; वे शरीरमें ही मिलते है। इस कारण गुणी (आत्मा) को भी शरीरमें ही रहना चाहिये । इस प्रकार आत्मा शरीरप्रमाण है; यह सिद्ध हो गया।