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स्याद्वादमं. ॥२०७॥
मानना ही उचित नहीं है। क्योंकि; संन्निकर्षादिक जड़खरूप होंनेसे प्रमाण नहीं होसकते । इस प्रकार हे भगवन् ! आपने सच्चे नय प्रमाणका स्वरूप दिखाकर दुर्नयका मार्ग रोक दिया है । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ ।
इदानीं सप्तद्वीपसमुद्रमात्रो लोक इति वावदूकानां तन्मात्रलोके परिमितानामेव सत्त्वानां सम्भवात् परिमितात्मवादिनां दोषदर्शनमुखेन भगवत्प्रणीतं जीवाऽनन्त्यवादं निर्दोपतयाऽभिष्टुवन्नाह ।
अब जो केवल सातद्वीपसमुद्रप्रमाणही लोक मानते है उनको इतने बडे लोकमें परिमित जीव ही संभव होसकते है इसलिये जीवोंकोभी अक्षय अनंत न मानकर परिमित ही मानना पडता है सो उनके माननेमें दोप दिखाते हुए आचार्य इस बात की स्तुति करते हैं कि हे भगवन् ! आपने जो जीवोंको अनंतो बताये है वही बताना निर्दोष है ।
मुक्तोऽपि वाऽभ्येतु भवं भवो वा भवस्थशून्योऽस्तु मितात्मवादे | षड्जीवकार्यं त्वमनन्तसंख्यमाख्यस्तथा नाथ यथा न दोषः ॥ २९ ॥
मूलार्थ - संख्यातमात्र ही जीवोंको माननेवालोंके मतमें या तो मुक्त हुआ जीव फिरसे इसी संसारमें आफसता माना गया होगा या यह संसार किसी दिन मुक्तिमें जीव सदा चलते जाते है इसलिये जीवोंसे खाली होजायगा । भावार्थ - यह दोष दूसरोंके मतोंमें ही संभव है । हे भगवन् ! आपने जीवोके छह मूल भेद बताकर एक एक भेद की अपेक्षा जीवोंकी संख्या अक्षयानंत बताई है इसलिये यही उपदेश ऐसा है जिसमें किसी प्रकारसे भी दोष नही है ।
व्याख्या - मितात्मवादे संख्यातानामात्मनामभ्युपगमे दूपणद्वयमुपतिष्ठते । तत्क्रमेण दर्शयति । मुक्तोऽपि वाभ्येतु भवमिति । मुक्तो निर्वृतिप्राप्तः । सोऽपि वा ( अपिर्विस्मये । वा शब्द उत्तरदोषापेक्षया समुच्चयार्थः । यथा देवो वा दानवो वेति । ) भवमभ्येतु संसारमभ्यागच्छतु । इत्येको दोपप्रसङ्गः । भवो वा भवस्थशून्योऽस्तु । भवः संसारः । स वा भवस्थशून्यः । संसारिभिर्जीवैर्विरहितोऽस्तु भवतु । इति द्वितीयो दोपप्रसङ्गः ।
व्याख्यार्थ - आत्माओं को परिमित माननेवालोने जो जीवोंकों संख्यात ही माना है उसमें दो दोप आसकते है । उन दोनों दोषोंको क्रमसे दिखाते है । पहिला दोष तो यह है कि मुक्तिको प्राप्त हुआ जीव भी फिरसे संसारमें आफसेगा। यहांपर 'मुक्तोपि '
रा. जै.शा.
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