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लक्षणको अपने पूर्वकृत कर्मोका शुभाशुभ फल परलोकमें भोगना पड़ता है। परंतु इस परिपाटीका दिखाना व्यर्थ है क्योंकि जब यापूर्वके चैतन्यक्षण सर्वथा नष्ट होते जाते है तब आगेके चैतन्यक्षणोंसे पूर्वके चैतन्यक्षणोंका संबंध होना ही असंभव है । जब
पूर्वापरकी दोनो वस्तु एक समयमें विद्यमान हों तब कदाचित् दोनोंमें प्रवेश रखनेवाली किसी एक शक्तिके द्वारा एक दूसरेके सामर्थ्यका संबंध तथा परिवर्तन हो सकता है । जो दोनो पर्यायोंमें अर्थात् चैतन्यक्षणों में संबंध करानेवाला आत्मद्रव्य है उसको बौद्धोने अंगीकार ही नहीं किया है। आत्मा ही सदा शाश्वता है इसलिये वही एक पर्यायके शुभाशुभ कर्मके फलादिको दूसरे पर्यायोमें परिवर्तन करासकता है। आगेके पर्यायमें पूर्व धर्मका परिवर्तन कराना अर्थात् पैदा कराना यह अर्थ मानना भी बौद्धको इष्ट नहीं है। क्योंकि; पैदा होनेमें तो कार्यकारणभाव संबंध होनेसे कार्यहेतु होजाता है और बौद्धने इसको माना खभाव हेतु ही है। सो पहिले कहचुके है । खभावहेतु वहां ही होता है जहां तादात्म्य संबंध हो। और तादात्म्य संबंध तभी सं-भव है जब पूर्वापरके चैतन्यक्षण एकसाथ विद्यमान रहै । जहां पूर्वापरके चैतन्यक्षण सर्वथा भिन्न भिन्न समयवर्ती मानेगये हैं वहां उनका तादात्म्य संबंध कैसे होसकता है ? और यदि एक समयमें भी पूर्वापर चैतन्यक्षणोको विद्यमान मानलिया जाय तो भी यह निश्चय
नहीं होसकता है कि अमुक चैतन्यक्षण तो अपने संपूर्ण सामर्थ्यका परिवर्तन करनेवाला है तथा अमुकमें परिवर्तन होता है। मनाक्योंकि, वे चैतन्यक्षण सभी एकसे है; परस्पर उनमें कुछ अंतर नहीं है इसलिये यह विभाग कैसे होसकेगा कि इसमें तो साम
Wका परिवर्तन किया जायगा और इसके सामर्थ्यका परिवर्तन होगा। अच्छा! कुछ समयकेलिये ऐसा विभाग होना मानकर सामर्थ्यका परिवर्तन मान भी लियाजाय तो भी उस सामर्थ्यका परिवर्तन होना असंभव है । क्योंकि एक ही समयमें कार्य और कारणका होना अनुचित है। यदि उन दोनोंका समय भिन्न भिन्न मानाजाय तो भी जब पूर्वका चित्तक्षण नष्ट होचुका तो उत्तरके चित्तक्षणकी उत्पत्ति विना उपादान कारणके कैसे होसकैगी? इस प्रकार विचारनेसे बौद्धमतानुसार परलोकका होना सिद्ध नहीं होता।
तथा प्रमोक्षभङ्गदोषः । प्रकर्षेणाऽपुनर्भावेन कर्मवन्धनान्मुक्तिः प्रमोक्षस्तस्यापि भङ्गः प्राप्नोति । तन्मते तावदात्मैव नास्ति । कः प्रेत्य सुखीभवनार्थ यतिष्यते ? ज्ञानक्षणोऽपि संसारी कथमपरज्ञानक्षणसुखीभव लघटिष्यते ? न हि दुःखी देवदत्तो यज्ञदत्तसुखाय चेष्टमानो दृष्टः । क्षणस्य तु दुःखं स्वरसनाशित्वात्तेनैव सार्द्ध
दध्वंसे । सन्तानस्तु न वास्तवः कश्चिद् । वास्तवत्वे त्वात्माभ्युपगमप्रसङ्गः।
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