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________________ | अतः काष्टघटनरूप एक अर्थक्रियाको करनेसे बढई और कुठार ये दोनों किसी अपेक्षासे अभिन्न भी है । अतः तुम ' ये दोनों भिन्न ही है ' ऐसा कैसे कहते हो । इसी प्रकार आत्मा भी ' विवक्षित ( अमुक ) अर्थको इस ज्ञानसे जानूंगा' इस प्रकारके ज्ञानग्रहणरूप परिणामसे सहित हुआ ज्ञानको ग्रहण करके पदार्थको जानता है । और जब ऐसा हुआ तो पदार्थके जाननेरूप एक अर्थके साधक होनेसे ज्ञान और आत्मा ये दोनों भी अभिन्न ही सिद्ध हुए । इस प्रकार कर्त्ता और करण के अभेद सिद्ध होने पर हम प्रश्न करते है कि; वह संवित्ति ( जानते ) रूप कार्य क्या ? आत्मामें स्थित है; अथवा विषय ( जिस पदार्थको आत्मा जानता है, उस ) में स्थित है; इसका उत्तर कहना चाहिये । यदि कहो कि; संवित्तिरूप कार्य आत्मामें स्थित है; तब तो हमारा मनोरथ सिद्ध होगया अर्थात् हम जैनी भी जाननेरूप कार्यको आत्मामें ही मानते है । यदि कहो कि; विषयमें स्थित है; तो आत्माके सुख-दुख आदिका अनुभव कैसे प्रतीत होता है ? । उत्तरमें कदाचित यह कहो कि विषयमें विद्यमान जो संवित्ति है; । उससे आत्माके अनुभव होता है, तो वह अनुभव उस एक आत्माके ही क्यों होता है अन्य आत्माओंके क्यों नहीं होता है कारण कि, भेदका अविशेष है अर्थात् जैसे विषयस्थितसंवित्ति से दूसरे आत्मा भिन्न है, वेसे ही वह आत्मा भी भिन्न है । 1 1 अथ ज्ञानात्मनोरभेदपक्षे कथं कर्तृकरणभाव इति चेत्-ननु यथा सर्प आत्मानमात्मना वेष्टयतीत्यत्र ' अभेदे यथा कर्तृकरणभावस्तथात्रापि ' । अथ परिकल्पितोऽयं कर्तृकरणभाव इति चेद्वेष्टनावस्थायां प्रागवस्थाविलक्षणग| तिनिरोधलक्षणार्थक्रियादर्शनात्कथं परिकल्पितत्वम् । न हि परिकल्पनाशतैरपि शैलस्तम्भ आत्मानमात्मना वेष्टयतीति वक्तुं शक्यम् । तस्मादभेदेऽपि कर्त्तृकरणभावः सिद्ध एव । किञ्च चैतन्यमितिशब्दस्य चिन्त्यतामन्वर्थः । चेतनस्य भावश्चैतन्यम् । चेतनञ्चात्मा त्वयापि कीर्त्यते । तस्य भावः स्वरूपं चैतन्यम् । यच्च यस्य स्वरूपं न तत्ततो भिन्नं भवितुमर्हति । यथा वृक्षाद्वृक्षस्वरूपम् । ज्ञान और आत्माके अभेद माननेमें कर्तृकरणभाव तो उत्तर यह है कि, सर्प आपको अपनेसे | वेढता ( घेरता ) है ' यहां पर जैसे कर्त्ता और करणके अभेद होने पर भी कर्तृकरणभाव है; उसी अब यदि तुम ( वैशेषिक ) ऐसा प्रश्न करो कि, कर्त्ता है, यह करण है ऐसी व्यवस्था कैसे होगी, १ ख ग पुस्तकयोरेप पाठो न विद्यते । कैसे होगा अर्थात् यह वेष्टित करता है अर्थात् प्रकार 6 आत्मा ज्ञानसे
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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