________________
राजै.शा.
यादा कूपस्तम्भसन्निभः स्याद्वादः। पक्षिपोतोपमा वादिनः। ते च स्वाभिमतपक्षप्ररूपणोडयनेन मुक्तिलक्षणतटप्राप्तये
कृतप्रयत्ना अपि तस्मादिष्टार्थसिद्धिमपश्यन्तो व्यावृत्य स्याद्वादरूपकूपस्तम्भालडून्ततावकीनशासनप्रवहणोपसर्पण॥१६२॥ मेव यदि शरणीकुर्वते तदा तेषां भवार्णवादहिनिष्क्रमणमनोरथः सफलतां कलयति। नाऽपरथा। इति काव्यार्थः।
इस स्तोत्रमें कोई तो 'श्रयन्ति' अर्थात् आश्रय लेते है ऐसा वर्तमान कालके अर्थका जतानेवाला शब्द मानते है और कोई 'श्रयन्तु' I अर्थात् आश्रय लेवै ऐसा आज्ञार्थसूचक शब्द मानते हैं परंतु दोनो ही शब्द निर्दोष है । दृष्टान्तमें जहांपर समुद्र है वहांपर
दान्तिमें संसार है तथा जहाजके स्थानमें आपका शासन है, मस्तूलके स्थानमें स्याद्वाद है, पक्षिके बच्चेके समान वादी जन A है। इसका अभिप्राय यह है कि, वे वादी अपने अपने अभिमत पक्षोंका निरूपण करनेरूप उड़ानसे मोक्षरूप तटपर पहुचने ।
के लिये प्रयत्न करते हुए भी जब इष्टसिद्धिकी पूर्ति होते नहीं देखते हैं तब यदि लौटकर स्याद्वादरूपी मस्तूलसे सुशोभित आपके शासनरूपी जहाजका शरण लेवै तो संसाररूपी समुद्र के बाहिर निकलनेका उनका मनोरथ पूर्ण होसकता है । अन्यथा यह मनोरथ पूर्ण होना असंभव है । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। ___एवं क्रियावादिनां प्रावादुकानां कतिपयकुग्रहनिग्रहं विधाय साम्प्रतमक्रियावादिनां लोकायंतिकानां मतं सर्वाधमत्वादन्ते उपन्यस्यन् तन्मतमूल्यस्य प्रत्यक्षप्रमाणस्यानुमानादिप्रमाणान्तरानङ्गीकारेऽकिश्चित्करत्वप्रदर्शनेन तेषां प्रज्ञायाः प्रमादमादर्शयति ।।
इस प्रकार क्रियावादी वादियोंके कुछ दुराग्रहोंका खंडन कर अब अक्रियावादी अर्थात् नास्तिक चार्वाकोंका मत अत्यन्त अधम होनेके कारण सबके अंतमें दिखाते हुए चार्वाकने अपने मतमें जो प्रत्यक्ष प्रमाण माना है वह अनुमानादि प्रमाणोंके मानने बिना 0 कुछ कार्यकारी नही होसकता है ऐसा दिखाकर चार्वाकोकी बुद्धिका प्रमाद प्रगट करते हैं।
विनाऽनुमानेन पराभिसन्धिमसंविदानस्य तु नास्तिकस्य
न साम्प्रतं वक्तुमपि क चेष्टा क्व दृष्टमात्रं च हहा प्रमादः ॥२०॥ मूलार्थ-अनुमानके विना माने वह नास्तिक हमलोगोंका अभिप्राय भी नहीं समझ सकता है इसलिये हमारे सामने उसको
॥१६॥