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________________ स्याद्वादमं. ॥१०६॥ इस विषयमें और भी विशेष प्रष्टव्य यह है कि,- अनुमानके उपायभूत जो पक्ष, हेतु और दृष्टान्त है, वे परस्पर भिन्न है वाल रा.जे.शा. अभिन्न है । यदि वादी कहें कि,-पक्ष, हेतु तथा दृष्टान्त परस्पर भिन्न है; तब तो द्वैत सिद्ध होता है और यदि कहें कि-पक्ष, हेतु, दृष्टान्त परस्पर अभिन्न है तो इन सबके एक रूपताकी प्राप्ति होती है, और जब पक्ष-हेतु-दृष्टान्त परस्पर एकरूप होंगे तो इन पक्ष-हेतु-दृष्टान्तोंसे अनुमान अपने खरूपको कैसे प्राप्त होगा अर्थात् अनुमानकी उत्पत्ति ही न होगी । और यदि कहें कि हेतुके विना भी साध्यकी सिद्धि होती है, तो आगमसे वा कहने मात्रसे ही द्वैतकी सिद्धि भी कैसे न होगी ? अर्थात् जैसे वे हेतुके विना पुरुषाद्वैतको मानते है, उसीप्रकार द्वैतको भी क्यों नहीं मानते है ? सो ही कहा है, कि,-" हेतुसे अद्वैतको सिद्ध किया जावे तब तो हेतु और साध्य इन दोनोंका द्वैत सिद्ध होगा? और यदि हेतुके विना ही अद्वैतको सिद्ध करें तो केवल ) वचनमात्रासे द्वैतकी सिद्धि क्यों न होगी। १" अथवा यदि यहां वाड्मात्रशब्दसे आगम अर्थका ग्रहण किया जावे तो यह अर्थ होता है कि यदि हेतुके विना केवल आगमसे ही एक परमब्रह्मको सिद्ध करें तो एक तो परमब्रह्मतत्त्व है ही और दूसरा आगमतत्त्व हो जायगा, इसकारण आगमसे भी द्वैतकी सिद्धि होती है। | "पुरुष एवेदं सर्वम्" इत्यादेः," सर्व वै खल्विदं ब्रह्म" इत्यादेश्चागमादपि न तत्सिद्धिः। तस्यापि द्वैताविKe नाभावित्वेन अद्वैतं प्रति प्रामाण्यासम्भवात् । वाच्यवाचकभावलक्षणस्य द्वैतस्यैव तत्रापि दर्शनात् । तदुक्तम् । 'कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं विरुध्यते । विद्याविद्याद्वयं न स्याद्वन्धमोक्षद्वयं तथा ॥१॥” ततः कथमागमादKoपि तत्सिद्धिः। ततो न पुरुषाद्वैतलक्षणमेकमेव प्रमाणस्य विषयः। इति सुव्यवस्थितः प्रपञ्चः। इति काव्यार्थः॥१३॥ और 'यह सब पुरुष ही है' 'यह सव ब्रह्म ही है' इत्यादि जो आगमप्रमाण है, उससे भी उस एक ही परम ब्रह्मकी सिद्धि नहीं IN होती है। क्योंकि वह आगम भी द्वैतके विना नहीं हो सकता है, इसकारण अद्वैतको सिद्ध करनेके अर्थ उसको प्रमाणता नहीं हो सकती है । क्योंकि, उस आगममें भी वाच्यवाचकभावरूप ( शब्द अर्थरूप ) द्वैत ही देखा जाता है । सो ही कहा है कि ॥१०६॥ 'कर्मद्वैत, फलद्वत, लोकद्वैत, विद्या और अविद्याका द्वय तथा बंध और मोक्षका द्वय ये सब विरुद्ध होते है ॥१॥' भावार्थयदि अद्वैतहीको माना जावे तो पुण्य-पापरूपी कौंका द्वैत न होगा, उसके न होनेपर उसका फलरूप सुख-दुःखरूपी द्वैत न होगा। उसके न होनेपर इसलोक तथा परलोकरूप द्वैत न होगा। यदि अविद्याके उदयसे पुण्य-पापादिका द्वैत मानें तो पुण्य-पापके
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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