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प्रवर्तते तमेवार्थमाश्रित्याऽपवादोऽपि प्रवर्तते । तयोर्निम्नोन्नतादिव्यवहारवत्परस्परसापेक्षत्वेनैकार्थसाधनविषयत्वात् । यथा जैनानां संयमपरिपालनार्थं नवकोटिविशुद्धाहारग्रहणमुत्सर्गः । तथाविधद्रव्यक्षेत्रकालभावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराऽभावे पञ्चकादियतनयाऽनेषणीयादिग्रहणमपवादः । सोऽपि च संयमपरिपालनार्थमेव न च मरणैकशरणस्य गत्यन्तराऽभावोऽसिद्ध इति वाच्यम् । cc सव्वत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेक रक्खिज्जा । मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही नयाऽविरई । १ । ,, इत्यागमात् ।
' नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च' इस पादमें जो 'अन्यार्थ ' यह मध्यवर्ती पद है; उसका डमरुकमणिन्यायसे दोनों स्थानों पर संबंध किया गया है । " अन्यार्थ " दूसरे कार्यके लिये “ उत्सृष्टम् " प्रयोग किया हुआ उत्सर्गका वाक्य " अन्यार्थेन, " अन्य प्रयोजनके अर्थ प्रयोग किये हुए वाक्यसे "न अपोद्यते " अपवादके गोचर नहीं किया जाता है । | भावार्थ - जिस प्रयोजनको ग्रहण करके शास्त्रों में उत्सर्ग प्रवर्त्तता है; उसी अर्थको लेकर शास्त्रों में अपवाद भी प्रवर्त्तता है । क्योंकि - जैसे नीचेपन ऊंचेपन आदिका व्यवहार एक दूसरेकी अपेक्षाको धारण करनेसे एक ही कार्यका साधक है; उसीप्रकार | ये दोनों उत्सर्ग और अपवाद भी आपसमें एक दूसरेकी अपेक्षा ( जरूरत ) के धारक होनेसे एक ही प्रयोजनके साधक हैं । दृष्टान्तमें जैसे- हम जैनियोंके मतमें ' मुनिको सयमकी रक्षा करनेके लिये नवकोटियोंसे विशुद्ध अर्थात् मन, वचन और काय इन तीनोंको कृत, कारित और २ अनुमोदनासे गुणा करनेपर जो नौ भेद होते है; उनसे निर्दोष ऐसे आहारका ग्रहण करना चाहिये ' यह उत्सर्ग है । और अमुक २ प्रकारकी द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावसंबंधी आपदाओंमें गिरा हुआ मुनि दूसरा कोई मार्ग न हो, तब अर्थात् जब इस उत्सर्गकथित नवकोटि विशुद्ध आहारके न मिलनेसे मरण ही होता हो; उस अवस्थामें उक्त नवकोटियोंसे एषणा करनेके अयोग्य जो पदार्थ है; उसको पांचआदि कोटियोंसे विशुद्ध करके ग्रहण कर लेवे ' यह अपवाद है । और यह अपवाद भी संयमकी रक्षा करनेके लिये ही है । और " मरण ही है एक शरण जिसके | ऐसे मुनिके अन्य उपायका अभाव असिद्ध है अर्थात् उत्सर्गका निर्वाह न होनेपर मरण करता हुआ मुनि अपवादको ग्रहण न करके किसी दूसरे उपायको धारण करे ऐसा तुमको न कहना चाहिये । क्योंकि - " मुनि प्रथम तो सर्व प्रकारसे संयमकी १ सर्वार्थतः संयमं संयमृत आत्मानमेव रक्ष्यात् । मुच्यतेऽतिपातेभ्यः पुनर्विशुद्धिर्नचाविरतिः । १ । इति च्छाया ।