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स्याद्वादमं.
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हिंसांविधिर्दोषाय । " उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिर्वलीयान" इति न्यायात् । भवतामपि हि न खल्वेकान्तेन हिंसानिषेधः। तत्तत्कारणे जाते पृथिव्यादिप्रतिसेवनानामनुज्ञातत्वाद् ग्लानाद्यसंस्तरे आंधाकर्मादिग्रहणभणनाच्च । अपवादपदं च याज्ञिकी हिंसा देवतादिप्रीतेः पुष्टालम्बनत्वात् । इति परमाशङ्कय स्तुतिंकार आह-नोत्सृष्टमित्यादि ।
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शंका - जो यह " न हिंस्यात् सर्वभूतानि " अर्थात् 'सब जीवोंकी हिंसा मत करो।' इत्यादि वचनों से हिंसाका निषेध है, वह उत्सर्गका मार्ग है अर्थात् सामान्य प्रकारसे हिसा न करनेका उपदेश है । और जो वेदोक्त हिंसा है; वह अपवादका मार्ग है अर्थात् विशेष प्रकारसे हिंसा करनेका उपदेश है । और अपवाद के उपदेशसे उत्सर्गका उपदेश बाधित होता है; अतः वेदोक्त हिंसाका विधान दोषके अर्थ नही है अर्थात् आपने जो पहले एक वाक्यसे हिंसाका निषेध और दूसरे वाक्यसे हिंसाका विधान करने से हमारे पक्षमें स्ववचनविरोध नामक दोष दिया था; वह दोष हमारे पक्षमें नही हो सकता है । क्योंकि उत्सर्गविधि और अपवादविधि इन दोनोंमेंसे अपवादविधि बलवान् होतीं है; ऐसा न्याय है । और आप (जैनियों) के भी एकान्तसे ( सर्वथा ) हिंसाका निषेध नहीं है, क्योंकि उन २ कारणोंके उत्पन्न होनेपर पृथ्वीकाय आदिके प्रतिसेवनोंकी ( वध करनेकी आज्ञा दी गई है । और ग्लान ( रोगी) आदि मुनियोंका निर्वाह न होनेपर आधा कर्म आदिके ग्रहण करनेका कथनं किया गया है । भावार्थ —उत्सर्गमार्गसे मुनियोंको अपने निमित्त किये हुए भोजनका आहार करनेकी आज्ञा नहीं है, परंतु यदि मुनि रोगी हो और उसका निर्वाह न हो सके तो वह अपने निमित्त किये हुए भोजनका भी आहार करले ऐसा अपवादमार्गसे उपदेश किया गया है । [ अपने निमित्त किये हुए भोजनको ग्रहण करनेवाला मुनि आधाकर्म नामक दोषसे दूषित होता है ] और यज्ञमें होनेवाली जो हिंसा है; वह अपवादरूप है । क्योंकि देवताआदिकी प्रीतिका पुष्ट आलंबन है अर्थात् यज्ञआदिमें हिंसाके कियेविना देवताआदि प्रसन्न नही होते है । इसप्रकार वादियोंकी ओरसे परम आशंका करके स्तुतिके कर्ता आचार्य ९ महाराज “नोत्सृष्टम् " इत्यादि काव्यके दूसरे चरणका कथन करते है ।—
अन्यार्थमिति मध्यवर्त्तिं पदं डमरुकमणिन्यायेनोभयत्रापि सम्बन्धनीयम् । अन्यार्थमुत्सृष्टं अन्यस्मै कार्याय प्रयुक्तं उत्सर्गवाक्यमन्यार्थप्रयुक्तेन वाक्येन नापोद्यते नाऽपवादगोचरीक्रियते । यमेवार्थमाश्रित्य शास्त्रेषूत्सर्गः
१ अनिर्वाहे ।
रा. जै. शा
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