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ता है अर्थात् यदि अभव्य उपदेशवचन सुनें तो, वह उसको अच्छा नहीं लगता है । इसकारण वास्तवमें भगवान् उनके उपदेशक | जा नहीं है अर्थात् 'तेषां न येषामनुशासकस्त्वम्' (जिनके आप उपदेश दाता नहीं है, उनके ही ये दुराग्रह होते है) ऐसा जो आचा
ने कहा है वह सत्य है । क्योंकि, वैशेषिकमतवाले अभव्य होनेसे उपदेशके पात्र नहीं है । MM न चैतावता जगद्गुरोरसामर्थ्यसम्भावना । न हि कालदष्टमनुज्जीवयन समुज्जीवितेतरदष्टको विषभिषगुपाल-II म्भनीयोऽतिप्रसङ्गात् । स हि तेषामेव दोषः। न खलु निखिलभुवनाभोगमवभासयन्तोऽपि भानवीया भानवः । कौशिकलोकस्यालोकहेतुतामभजमाना उपालम्भसम्भावनास्पदम् । तथा च श्रीसिद्धसेनः-“ सद्धर्मबीजवपना-1 नघकौशलस्य यल्लोकबान्धव तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेषु सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाताः।१।”
और इस कथनसे तीन लोकके गुरु-श्रीभगवानके असामर्थ्यकी संभावना नहीं है अर्थात् कोई यह शंका करै कि, अभव्यको ||४|| उपदेश न दे सकनेसे भगवान् असमर्थ हैं, सो नहीं है । क्योंकि, अन्यके डसे हुएको जीवदान देनेवाला विषवैद्य यदि कालसर्पके IN डसेको नहीं जिला सके तो वह विषवैद्य उपालंभके योग्य नहीं है। क्योंकि, अतिप्रसंग है। भावार्थ-सब सर्पआदिके डसे हुए जीवोंall को उनका जहर दरकरके जिला देनेवाला विषवैद्य ( जहरका इलाज करनेवाला ) यदि काल जातिके सर्पसे डसे हुएको न जिला | सकै तो वह वैद्य ठपकेका पात्र नहीं है । क्योंकि, अन्य सैकडों विषोंको दूर करता है । इसकारण वह दोष उस विषवैद्यका नहीं, किन्तु उस सर्पका ही है कि, जिस पर मन्त्र आदिका प्रभाव ही नहीं गिर सकता है। इसी प्रकार अन्य सब जीवोंको उपदेश देते || Kall हुए भगवान् यदि अभव्योंको उपदेश न देसकें तो इससे भगवान् असमर्थ नहीं हो सकते है । यह दोष उन अभव्योंका ही है, कि, वे उपदेशके पात्र नहीं है । क्योंकि, संपूर्ण भुवनमंडलको प्रकाशित करनेवाली सूर्यकी किरणें यदि उलूकों (बूंधुओं) के
प्रकाशकी कारण नहीं होवें तो उपालम्भके पात्र नहीं है । भावार्थ-सूर्यकी किरणें सब जगह प्रकाश करके सब जीवोंको सब ला पदार्थ दिखलाती है, परंतु यदि घूघूको उनके प्रकाशमें न दीखे तो उसमें सूर्यकी किरणोंका कोई दोष नहीं है ! किंतु उन घूघुसाओंका ही दोष है । सो ही श्रीसिद्धसेनदिवाकरने कहा है कि "हे लोकबान्धव! उत्तम धर्मरूप वीजके बोनेमें अत्यन्त निपुणताकेत
१ अप्रहित क्षेत्रादि खिलमुच्यते। २ तमसि संचरन्त इति तामसा.।