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सद्भाव होनेसे अद्वैतमतमें द्वैतका प्रसंग होता है। यदि कदाचित् वादी कहें कि, हम लोकको प्रतीति करानेके लिये उस लोककी अपेक्षासे प्रमाणको भी मानते है; तो यह उनका कथन मिथ्या है । क्योंकि उनके मतमें लोक ही नहीं है । कारण कि;-उन्होंने नित्य तथा निरंश ऐसे एक परम ब्रह्मको ही सत्रूप माना है। I अथास्तु यथाकथंचित्प्रमाणमपि । तत्किं प्रत्यक्षमनुमानमागमो वा तत्साधकं प्रमाणमुररीक्रियते । न तावत्प्रत्यक्षम् । तस्य समस्तवस्तुजातगतभेदस्यैव प्रकाशकत्वात् । आवालगोपालं तथैव प्रतिभासनात् । यच्च 'निर्विकल्प-न के प्रत्यक्षं तदावेदकम्' इत्युक्तं तदपि न सम्यक् । तस्य प्रामाण्यानभ्युपगमात् । सर्वस्यापि प्रमाणतत्त्वस्य व्यवसायात्मकस्यैवाविसंवादकत्वेन प्रामाण्योपपत्तेः । सविकल्पकेन तु प्रत्यक्षेण प्रमाणभूतेनैकस्यैव विधिरूपस्य परब्रह्मणः स्वमेऽप्यप्रतिभासनात् ।
अथवा चाहे जिस अपेक्षासे उनके मतमें प्रमाण भी रहो। परंतु प्रत्यक्ष, अनुमान अथवा आगम; इन तीनोंमेंसे वे कौनसे प्रमाणको उसका साधक मानते है । यदि वे प्रत्यक्षप्रमाणको उस एक पर ब्रह्मका साधक मानें, तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि वह प्रत्यक्ष तो समस्त पदार्थों में प्राप्त जो भेद है; उसीका प्रकाशक है । कारण कि; बालकसे लेकर गोपाल पर्यन्त पुरुषोंको वह प्रत्यक्ष भेदका प्रकाशक ही जान पड़ता है। और जो उन्होंने पहले कहा है कि;-निर्विकल्पक प्रत्यक्ष उस पर ब्रह्मको विदित करनेवाला है' सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि उस निर्विकल्पक प्रत्यक्षका प्रमाणपना नहीं माना गया है। कारण कि व्यवसायात्मक (निश्चय करानेवाले ) के ही समस्त प्रमाणतत्त्वके अविसंवादीपनेसे संशय, विपर्यय और अनध्यवसायकी रहिततासे प्रमाणता सिद्ध होती भावार्थ-जो प्रमाण पदार्थखरूपका निश्चयरूपसे ज्ञान कराता है वही प्रमाणभूत माना जाता है, अतः व्यवसायात्मक न
निर्विकल्पक प्रत्यक्षको प्रमाणता नहीं है । और प्रमाणभूत जो सविकल्पक प्रत्यक्ष है उससे तो विधिरूप एक ही परमब्रह्मका खममें भी प्रतिभास ( ज्ञान ) नहीं हो सकता है। vil यदप्युक्तं " आहुर्विधातृ प्रत्यक्षम्” इत्यादि । तदपि न पेशलम् । प्रत्यक्षेण ह्यनुवृत्तव्यावृत्ताकारात्मकवस्तुन Hallएव प्रकाशनात् । एतच्च प्रागेव क्षुण्णम् । न ह्यनुस्यूतमेकमखण्डं सत्तामात्रं विशेषनिरपेक्षं सामान्यं प्रतिभासते।
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