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|| विधिरित्यन्ये । नियोग इत्यपरे । प्रैषादय इत्येके । तिरस्कृततदुपाधिप्रवर्तनामात्रमित्यन्ये । एवं फलतदभिलापकमादयोपि वाच्याः। एतेषां निराकरणं सपूर्वोत्तरपक्षं न्यायकुमुदचन्द्रादवसेयमिति । इति काव्यार्थः ।
परवादीलोग किस किस प्रकारसे शब्दार्थमें वाच्यवाचकपनेकी व्यवस्था करते हैं इस प्रश्नका उत्तर कहते है। कोई ऐसा मानते है कि सर्व शब्दोका अर्थ अपोह [इतरनिषेध] ही है । “शब्द तथा लिङ्गसे अपोह कहा जाता है, न कि वस्तुके प्रवर्तनसे" ऐसा वचन भी है । किसीका कहना है कि वस्तुका केवल सामान्य खरूप ही शव्दका अर्थ है। क्योंकि, सामान्य खरूप किसी एक स्थानमें निश्चित होनेपर दूसरे स्थानों में भी सुगमतासे शब्दद्वारा प्रतीतिगोचर होसकता है। क्योंकि, सभी स्थानोमें उसका दिखाव समान है ।
शब्दका अर्थ प्रत्येक पदार्थोंका विशेष विशेप आकार नहीं होसकता है । क्योंकि विशेष आकार अनंतो है इसलिये सबकी एक || KOसाथ प्रतीति न होनेसे शब्दके गोचर ही नही होसकते है। वेदोमें कही हुई विधिको माननेवाले कहते है कि कर्मों में नही प्रवर्तते
हुए मनुप्योको प्रवर्तानेवाली होनेसे विधि ही वाक्यका अर्थ है । इस विधिको भी अनेक वादी अनेक प्रकारसे मानते है । सोई
दिखाते है। कोई वादी वाक्यरूप शब्दको ही कौमें प्रवर्तन करानेवाला होनेसे विधिरूप मानते है। कोई मानते है कि वाक्यसे IBउत्पन्न हुआ व्यापार ही विधि है । इस व्यापारका दूसरा नाम भावना भी है । कोई मानते है कि नियोग ही विधि है । कोई ||
प्रैषादिक[प्रेरणादिक]को ही विधि मानते है । किसीका मानना है कि तिरस्कारपूर्वक प्रेरणा करनेका नाम ही विधि है । इसी प्रकार इस विधिका फल तथा अभिलाषा तथा कर्मादिक भी प्रत्येकने जुदे जुदे माने है । न्यायकुमुदचन्द्रनामक ग्रन्थमें इन सवोका निरूपणपूर्वक खण्डन लिखा है सो उसमेंसे समझ लेना चाहिये । इस प्रकार इस कारिकाका अर्थ पूर्ण हुआ।
इदानीं सांख्याभिमतप्रकृतिपुरुषादितत्त्वानां विरोधावरुद्धत्वं ख्यापयन् तद्वालिशताविलसितानामपरिमितत्वं दर्शयति । ___ अब जो सांख्यमतीने प्रकृतिपुरुषादिक पच्चीस तत्त्व माने है उनमें परस्पर विरोध दिखाते हुए यह भी दिखाते हैं कि उसने अपनी मूर्खतासे कितनी कितनी खोटी कल्पना की है।
चिदर्थशून्या च जडा च बुद्धिः शब्दादितन्मात्रजमम्बरादि। न बन्धमोक्षौ पुरुषस्य चेति कियजडैन ग्रथितं विरोधि ॥ १५॥