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स्थाद्वादम.
राजै.शा.
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तब भेदभाव तो मुख्य रक्खा जाता है और अभेदभाव अमुख्य रक्खा जाता है। यही संसर्ग तथा संबंधमें अपूर्वता है। (८) धू जो अस्ति अथवा है ऐसा शब्द अस्तित्व धर्मवाले वस्तुको जताता है उसीसे बाकीके अनतो धर्मोंका आश्रयभूत वस्तु भी जताया
जाता है इसलिये शब्दकी अपेक्षा भी अनंतो धर्म तथा उसका आधार वस्तु ये सर्व परस्पर अभिन्नरूप है। अर्थात् एक ही ॐ शब्दसे एक वस्तुके संपूर्ण धर्मोका बोध होजाता है इस लिये वस्तुके संपूर्ण अंश अभिन्न अथवा एकरूप ही है। जब पर्यायोंके
आविर्भावकी अपेक्षा तो अमुख्य समझी जाती हो और अखडरूप द्रव्यकी अपेक्षा रखनेवाली विवक्षाकी प्रधानता मानी जाती
हो तब यह आठों प्रकारका अभेदभाव बनसकता है। 0 द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायार्थिकप्राधान्ये तु न गुणानामभेदवृत्तिः संभवति; समकालमेकत्र नानागुणानाम
संभवात् । संभवे वा तदाश्रयस्य तावद्धाभेदप्रसङ्गात् । नानागुणानां सम्बन्धिन आत्मरूपस्य च भिन्नत्वात् आत्मरूपाऽभेदे तेषां भेदस्य विरोधात् । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वादन्यथा नानागुणाश्रयत्वस्य विरोधात् । सम्ब
न्धस्य च सम्बन्धिभेदेन भेददर्शनान्नानासम्बन्धिभिरेकत्रैकसम्बन्धाऽघटनात् । तैः क्रियमाणस्योपकारस्य च शू प्रतिनियतरूपस्याऽनेकत्वात् अनेकैरुपकारिभिः क्रियमाणस्योपकारस्य विरोधात् । गुणिदेशस्य च प्रतिगुणं भे
दात्तदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशाऽभेदप्रसङ्गात् । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गि भेदात्तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात् । शब्दस्य प्रतिविषयं नानात्वात्सर्वगुणानामेकशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्तेः शब्दान्तर
वैफल्यापत्तेश्च । को और जब द्रव्यार्थिक अपेक्षा की अप्रधानता तथा पर्यायोंके आविर्भावकी मुख्यता ली जाती है तब संपूर्ण गुणोंमें परस्पर अमे
दभाव नहीं बनसकता है । क्योंकि; (१) एक ही समयमें नाना भावोका होना असंभव है और यदि हों भी तो उन भिन्न भिन्न भावोंके आश्रयरूप जो द्रव्य है वह भी उतने ही भेदरूप होजायगा । (२) और संपूर्ण गुणोंके खरूपमें तथा उनके आश्रयरूप द्रव्यमें परस्पर अनेकपना है । यदि उन गुणोंमें परस्पर भेद न हो तो वे गुण भिन्न भिन्न न गिने जाने चाहिये । (३) और उन गुणोंका आश्रयभूत जो द्रव्य है वह भी नानाप्रकार है। यदि नानारूप न हो तो नाना गुणोंका आश्रय किस प्रकार बनसकै ? (४) और जो अनेक संबंधियोंको संबद्ध रखनेवाले संबंध है वे भी अनेक होने चाहिये । क्योंकि; एक वस्तुमें
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