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ला अनेक संबंधियोंको संबद्ध रखना एक संबंधके द्वारा नही होसकता है। (५) और उन अनेक गुणों करके किया हुआ उपकार | है वह भी प्रत्येक गुणका जुदा जुदा खरूप होनेसे अनेक प्रकार ही होगा । क्योंकि जो उपकार अनेक उपकारियोकर किया जाता है वह एकरूप नहीं होसकता। (६) जो प्रत्येक गुणका क्षेत्र है वह भी कथंचित् भिन्न भिन्न ही होना चाहिये । क्योंकि यदि क्षेत्र अभिन्न होगा तो उसमें रहनेवाले भिन्न भिन्न प्रयोजनके धारक संपूर्ण गुण भी क्षेत्रकी अपेक्षा एकरूप होजायगे।। (७) इसी प्रकार संसर्ग भी उन प्रत्येक संसर्गियोंकी अपेक्षा भिन्न भिन्न ही है जिनको कि वे मिलाये रखते है। यदि उन गुणोंको मिले हुए रखनेवाला संसर्ग एक ही होता तो मिले हुए जों अनेक गुण है वे भी संपूर्ण एक ही होजाते। (८) इसी प्रकार अस्तित्वादि प्रत्येक धर्मके वाचक शब्द भी भिन्न भिन्न है। यदि संपूर्ण गुणोंका अथवा धर्मोका वाचक एक ही
शब्द होता तो संपूर्ण धर्म एक शब्दके ही वाच्य अर्थ होजाते । और जब एक शब्दके अनेको वाच्य अर्थ होजाते तो अन्य || शब्दोंका बोलना भी व्यर्थ होजाता । III तत्त्वतोऽस्तित्वादीनामेकत्र वस्तुन्येवमभेदवृत्तेरसंभवे कालादिभिर्भिन्नात्मनामभेदोपचारः क्रियते । तदेता
भ्यामभेदवृत्त्यभेदोपचाराभ्यां कृत्वा प्रमाणप्रतिपन्नाऽनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः समसमयं यदभिधायकं वाक्यं । स सकलादेशः प्रमाणवाक्यापरपर्यायः । नयविषयीकृतस्य वस्तुधर्मस्य भेदवृत्तिप्राधान्याद् भेदोपचाराद्वा क्रमेण यदभिधायक वाक्यं स विकलादेशो नयवाक्यापरपर्याय इति स्थितम् । ततः साधूक्तमादेशभेदोदितसप्त-10 भङ्गम् । इति काव्यार्थः।
इस प्रकार पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे यदि विचार किया जाय तो यथार्थमें अस्तित्वादि जो अनेकों धर्म हैं वे एक किसी वस्तुमें| अभेदभावसे नही रहसकते है किंतु कालादि आठों कारणोंके द्वारा परस्पर भिन्नखरूप ही रहैगे। और जब ये इस प्रकार सर्वे [भिन्नखरूपही है तब इनमें कार्यवाहीरूप प्रयोजनके वश अभेदभावका उपचार अथवा आरोप अथवा कल्पना करनी पडती है । इस प्रकार द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यता लेकर पहिले दिखाये हुए अभेदभावके कारण अथवा जब पर्यायार्थिक नयकी मुख्यता लेते है तब
अभेदभाव समयमें नही बनसकता है इसलिये प्रयोजनवश आरोपित किये हुए अभेदरूपके कारण अनंतधर्मात्मक वस्तुका एक ही || कहनेवाला जो वाक्य हो वह सकलादेश है । इसीका दूसरा नाम प्रमाणवाक्य है । और नयरूप ज्ञानसे जिसका जानना होता है|