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होते अर्थात् किसी भी अशमें असत्य नहीं होते है। इस कारण उन करके कहा हुआ जो सिद्धान्त है, उसका खंडन ही नहीं |
हो सकता है समाधान-तुमने हमारा अभिप्राय नहीं जाना, इसलिये यह जो तुम शंका करते हो सो ठीक नहीं है। IY क्योंकि हमने जो यह विशेषण दिया है, सो निर्दोष पुरुष करके कहा हुआ सिद्धान्त ही बाधारहित सिद्धान्त है और असंभव आदि
दोषोंसहित होनेसे अन्य जो अपौरुषेय आदि सिद्धान्त है, वे बाधारहित नहीं है। इस बातको विदित करनेके लिये लगाया है। भावार्थ-कितने ही ऐसा मानते हैं कि, वेद आदि अपौरुषेय है अर्थात् किसी पुरुषके बनाये हुए नहीं है। परन्तु उनका यह मानना ठीक नहीं है । क्योंकि वेद अक्षररूप है । और वे अक्षर तालु आदि स्थानोंसे उत्पन्न होते है । तथा वे तालु आदि स्थान मनुप्यके होते है । इसलिये पुरुषके रचे विना वेद आदि अक्षररूप नहीं हो सकते है, यही असंभव नामा दूषण है। इसको आदि ले
और भी अनेक दोष शास्त्रोंको अपौरुषेय माननेमें होते है। इस कारण निर्दोष पुरुषसे कहा हुआ शास्त्र ही वाधारहित है, | पुरुष करके नहीं बनाये हुए शास्त्र बाधारहित नहीं है'। इस विषयको सूचित करनेके लिये 'अबाध्यसिद्धान्त' विशेषण है। अथवा एक प्रकारके मूक अन्तकृत्केवली आदि रूप मुंड अर्थात् बाह्यके अतिशयोंसे रहित केवली होते है, जो अनन्तविज्ञानके धारक भी | है और दोषरहित भी है । परन्तु वे केवल अपनी आत्माका ही उद्धार करते है, दूसरेको उपदेश देनेमें मूक ( गूगे ) रहते है। इसलिये वे भी पूर्वोक्त सिद्धान्तको रचनेमें असमर्थ है। इस कारण उनको श्रीजिनेन्द्रसे भिन्न करनेके लिये ' अबाध्यसिद्धान्त यह विशेषण दिया गया है ॥ - ___ अन्यस्त्वाह । अमर्त्यपूज्यमिति न वाच्यम् । यावता यथोद्दिष्टगुणगरिष्ठस्य त्रिभुवनविभोरमर्त्यपूज्यत्वं न कथंचन व्यभिचरतीति । सत्यम् । लौकिकानां हि अमां एव पूज्यतया प्रसिद्धास्तेषामपि भगवानेव पूज्य इति विशेषणेनाऽनेन ज्ञापयन्नाचार्यः परमेश्वरस्य देवाधिदेवत्वमावेदयति ॥ एवं पूर्वार्द्ध चत्वारोऽतिशया उक्ताः। ___ अब दूसरा बादी शंका करता है कि-'अमर्त्यपूज्य ' यह विशेषण भगवानके नहीं देना चाहिये। क्योंकि, संपूर्णरूपसे पहिले कहे हुए अनंतविज्ञान आदि गुणोंसे गरिष्ठ ( बहुत बड़े ) जो तीन लोकके खामी श्रीजिनेन्द्र है, उनके देवोंसे पूज्यता किसी प्रकारसे भी व्यभिचारको प्राप्त नहीं होती है अर्थात् वे नियमसे देवोंकरके पूजे जाते है। समाधान-एक प्रकारसे तुम्हारा कहना सत्य
१ सामस्येन।