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व्याद्वादमं. ॥४॥
व्यर्थ है । क्योंकि जब भगवान् दोषरहित हो गये, तो उनके ' अनंतविज्ञान ' अवश्य ( जुरूर ) ही होगा, फिर जुदा विशेषण क्यों देते हो । समाधान - कितनोंहीने दोपोंका अभाव होने पर भी अनन्त विज्ञान नही माना है, इसलिये तुम्हारी शंका ठीक नही । सोही वे लोग कहते है कि " हमारा ईश्वर सब पदार्थो को देखे अथवा न देखै, केवल वाछित तत्त्वोंको ही जानै । क्योंकि यदि आपके जिनेश्वर कीड़ोंकी संख्या जानते है तो उनका यह कीड़ोंकी सख्या जाननेरूप ज्ञान हमारे किस प्रयोजनमें आता है । १ । "तथा वे ही फिर कहते है कि “ इसलिये हमारे ईश्वरके अनुष्ठानमें प्राप्त हुआ ज्ञान ही विचारना चाहिये । और यदि जिसका ज्ञान उपयोगमें न आवै, ऐसे दूरदर्शीको ही आप प्रमाण मानते हो, तो लो हम गीध पक्षियोंकी सेवा करते है। क्योंकि वे भी दूरके पदार्थको देखने वाले है । तात्पर्य यह कि - अनुपयोगी पदार्थोंको जानने वाले आपके जिनेन्द्रसे हमको कोई भी प्रयोजन नही है || २ ||" इस पूर्वोक्त प्रकारसे जो कोई ईश्वरको असर्वज्ञ मानते है, उनके मतको दूर करनेके लिये जो हमने ' अनन्तविज्ञान ' यह विशेषण दिया, सो दोषरहित ही है अर्थात् व्यर्थ नहीं है । क्योकि अनन्तविज्ञानके विना एक भी पदार्थ यथार्थ रीतिसे नहीं जाना जाता है । और इस कथनमें प्रमाणभूत ऋपियोंका वचन भी है कि " जो एकको जानता है, वह सबको जानता है, जो सबको जानता है वह एकको जानता है " तथा " जिसने एक पदार्थको परिपूर्ण रीतिसे देखा, उसने सब पदार्थ पूर्ण रूपसे देखे । और जिसने सब पदार्थ सर्वथा देखे, उसने एक पदार्थ सर्वथा देखा अर्थात् जाना ॥ १ ॥ "
ननु तर्हि अबाध्यसिद्धान्तमित्यपार्थकं यथोक्तगुणयुक्तस्याऽव्यभिचारिवचनत्वेन तदुक्तसिद्धान्तस्य बाधाsयोगात् । न । अभिप्रायाऽपरिज्ञानात् । निर्दोषपुरुषप्रणीत एव अवाध्यः सिद्धान्तो नापरेऽपौरुपेयाद्या असम्भवदिदोषाघातत्वात् इति ज्ञापनार्थं, आत्ममात्रतारकमूकाऽन्तकृत्केवल्यादिरूपमुण्डे केवलिनो यथोक्तसिद्धान्तप्रणयनाऽसमर्थस्य व्यवच्छेदार्थ वा विशेषणमेतत् ॥
शंका – यदि ऐसा है तो ' अबाध्यसिद्धान्तवाले ' यह जो भगवान् के विशेषण लगाया गया है सो निरर्थक है । क्योंकि, पूर्वोक्त जो अनतविज्ञानता तथा दोपरहितता रूप दो गुण है, उन करके सहित जो कोई है उनके वचन व्यभिचारी नही
१ निरर्थक | २ ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गों वर्णात्मको वेद इति स्फुट च । पुंसश्व ताल्वादि ततः कथं स्यादपौरुपेयोऽयमिति प्रतीतिः । ३ बाह्यातिशयरहित ।
रा. जै.शा.
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