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स्याद्वादमं.
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है, ऐसी शंका भी न करनी चाहिये । क्योंकि, उस वेदोक्त हिंसा के करनेवाले याज्ञिक ( यज्ञ करनेवाले ) जन लोकमें पूज्य देखे | जाते है । भावार्थ - वेदोक्तहिंसाके कर्त्ता याज्ञिकजनोंको लोक पूजते है; अत. वेदोक्तहिसा जगतमें निन्दनीय भी नहीं है । सो | तुम्हारा यह कथन भी चतुर पुरुषोंके विचारको नही सहता है अर्थात् युक्तिरहित ही है । क्योंकि, तुमने जो लोहपिड आदि के दृष्टान्त दिये हैं, वे विषमरूप होनेसे असाधकतम है अर्थात् वेदोक्त विधिसे जीवोंको मारनेरूप दष्टर्शान्तिकमें बराबर न घटने से वेदोक्त हिंसाको निर्दोष सिद्ध करनेमें समर्थ नहीं हैं । कारण कि, लोहके पिड आदि जो है, वे पत्र (पत्तर) आदिरूप दूसरे भावों (अवस्थाओं वा पर्यायों) को प्राप्त होकर जलमें तिरने आदिरूप क्रियाके करनेमें समर्थ होते है । और वेदोक्त मंत्रो से संस्कारकरनेरूप विधिसे भी मारे जाते हुए उन पशुओंके वेदना (पीड़ा) आदिके उत्पन्न न होनेरूप किसी दूसरे भावकी उत्पत्ति प्रतीत नही होती है | अर्थात् वेदोक्त विधिसे मारे जाते हुए भी वे पशु मरते समयमै वेदनाको ही भोगते हुए देखे जाते है । यदि कहो कि; मारने के पश्चात् वे जीव देवपनेको प्राप्त हो जाते हैं यह भावान्तर है ही अर्थात् वे पशु मरकर देव हो जाते है यह एक अवस्थाका पलटना है ही है, तो हम प्रश्न करते है कि इस कथनमें क्या प्रमाण है अर्थात् तुम जो कहते हो कि; वेदोक्त हिसा से पशु मरकर देव हो जाते है, सो कौनसे प्रमाणसे कहते हो । यदि कहो कि, इस कथनमें प्रत्यक्ष प्रमाण है सो तो नहीं हो सकता है । क्योंकि " चक्षु आदि इंद्रियें अपनेसे संबधको प्राप्त हुए तथा वर्त्तमान ऐसे पढार्थका ग्रहण करती है ।" इस वचनसे वह प्रत्यक्ष इद्रियोंसे संबंधित वर्त्तमान पदार्थको ही ग्रहण करता है । और इस कथनमें अनुमान प्रमाण भी नहीं हो सकता है। क्योंकि; उस देवपनेकी प्राप्तिरूप भावांतरसे सबंधित जो लिंग ( साधन ) है; वह जाननेमें नहीं आता है । और आगम प्रमाण भी इस कथनको सिद्ध करनेवाला नहीं है । क्योंकि, वह अबतक भी विवादका स्थान है अर्थात् उसकी सत्यतामें अभीतक सदेह है । तथा अर्थापत्ति और उपमान ये दो प्रमाण तो अनुमान प्रमाणमें ही अन्तर्गत होते है अर्थात् अनुमानके ही भेद है, इसकारण अनुमानप्रमाणर्मे जो साधनकी अप्राप्तिरूप दूषण दिया है, उसीसे गतार्थ हैं अर्थात् उसी दोषके धारक है ।
अथ भवतामपि जिनायतनादिविधाने परिणामविशेषात्पृथिव्यादिजन्तुजातघातनमपि यथा पुण्याय कल्प्यत इति कल्पना । तथा अस्माकमपि किं नेष्यते । वेदोक्तविधिविधानरूपस्य परिणामविशेषस्य निर्विकल्पं तत्रापि भावात् । नैवम् । परिणामविशेषोऽपि स एव शुभफलो यत्राऽनन्योपायत्वेन यतनयाऽपकृष्टप्रतनुचैतन्यानां पृथि
रा. जै० शा ०
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