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________________ तथाहि-'हिंसा चेद्धमहेतुः कथम् ' ' धर्महेतुश्चेद्धिंसा कथम् ' " श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।” इत्यादिः । न हि भवति माता च वंध्या चेति । हिंसा कारणं, धर्मस्तु तत्कार्यमिति पराभिप्रायः । नचायं निरपायः। यतो यद्यस्यान्वयव्यतिरेकावनुविधत्ते तत्तस्य कार्यम् । यथा मृत्पिण्डादेर्घटादिः। न च धर्मो हिंसात | एव भवतीति प्रातीतिकम् । तपोविधानदानध्यानादीनां तदकारणत्वप्रसङ्गात् । इस प्रकार उन पूर्वमीमांसकोंके आशयको हृदयमें धारण करके स्तुतिके कर्ता आचार्यमहाराज न धर्म' इत्यादि श्लोकसे उनके मतका खंडन करते है; वह इसप्रकार है ।" विहिता अपि" वेदमें कही हुई भी अर्थात् वेदमें न कही हुई हिंसा तो ) दूर रहो वेदोक्त भी जीवोंके प्राणोंका त्याग करानेरूप हिंसा । " धर्महेतुः" धर्मका कारण "न" नहीं है। क्योंकि; इस || वेदोक्त हिंसाको धर्मकी कारण माननेमें उन वादियोंके अपने वचनसे विरोध प्रकट ही है । सो ही दिखाते है—यहि हिंसा है तो || धर्मकी कारण कैसे है ? और धर्मकी कारण है तो हिंसा कैसे है ? अर्थात् जो हिंसा है वह धर्मकी कारण नहीं है, जो धर्मका कारण है; वह हिंसारूप नहीं है । क्योंकि-"तुम धर्मके सर्वस्व ( सारभूत रहस्य ) को श्रवण करो और श्रवणकरके हृदयमें लाधारण करो; वह धर्मका रहस्य यह है कि; अपने प्रतिकूल दूसरोंके मत करो अर्थात् जो तुमको बुरा लगे; वह कार्य तुम दूसरों के लिये भी मत करो।१।" इत्यादि आगम हिंसाको पापकी कारण कहता है । और माता है तथा वंध्या (बांझ) है; ऐसा नहीं होता है | भावार्थ-जैसे कोई किसी स्त्रीको माता भी कहै और वंध्या भी कहै तो इसमें उसको अपने वचनसे विरोध आता है । क्योंकि जो माता हो, वह वंध्या नहीं हो सकती है और जो बंध्या हो वह माता नहीं हो सकती है, इसी प्रकार जीवोंके प्राणोंका त्याग IN करानेरूप हिंसाको पाप तथा धर्म; इन दोनोकी कारण कहते हुए उन वादियोंके भी अपने वचनसे विरोध आता है । यहां पर उन वादियोंका यह अभिप्राय है कि हिंसा तो कारण है और धर्म उस हिंसाका कार्य (फल) है सो यह निरपाय अर्थात् दोषरहित नहीं है। | क्योंकि; जो जिसका अन्वय ( सत्त्व ) होनेपर अपने अन्वयको करता है और व्यतिरेक होनेपर अपने व्यतिरेकको करता है; वही | उसका कार्य होता है । जैसे कि, मृत्पिड आदिका अन्वय तथा व्यतिरेक होनेपर घट आदि अपना अन्वय और व्यतिरेक करते है । भावार्थ-जैसे घट मृत्पिडके सत्त्वमें अपने सत्त्वको और मृत्पिडके अभावमें अपने अभावको करता है; अतः घट मृत्पिडरूप १. आत्मनः प्रतिकूलानि परेपा न समाचरेत् । १ । इत्युत्तरार्द्धः ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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