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| व्यादिजीवानां वधेऽपि स्वल्पपुण्यव्ययेनाऽपरिमितसुकृतसंप्राप्तिर्न पुनरितरः । भवत्पक्षे तु सत्स्वपि तत्तत् श्रुतिस्मृ| तिपुराणेतिहासप्रतिपादितेषु यमनियमादिषु स्वर्गावाप्त्युपायेषु तांस्तान् देवानुद्दिश्य प्रतिप्रतीकं कर्तनकदर्थनया कान्देिशीकान् कृपणपञ्चेन्द्रियान् शौनिकाधिकं मारयतां कृत्स्नसुकृतव्ययेन दुर्गतिमेवानुकूलयतां दुर्लभः शुभपरिणामविशेषः । एवं च यं कंचन पदार्थ किञ्चित्साधर्म्यद्वारेणैव दृष्टान्तीकुर्वतां भवतामतिप्रसङ्गः सङ्गच्छते ।
शंका – जैसे आप (जैनियों) के भी " जिनमंदिर आदिके बनानेमें जो पृथिवी आदि जीवोंके समूहका घात (वध) होता है, वह भी परिणामविशेषसे पुण्यके अर्थ माना गया है " ऐसी कल्पना है, उसी प्रकार आप हमारे भी क्यों नहीं मानते हैं, क्योंकि, वेदोक्तविधिके करनेरूप जो परिणामविशेष है; वह उस वेदोक्तहिंसामें निर्विकल्प ( निश्चित ) रूपसे है ही है । समाधान - ऐसा न कहना चाहिये, क्योंकि, परिणामविशेष भी वही शुभफल ( वर्ग आदिकी प्राप्तिरूप फल ) का धारक है, कि – जिसमें किसी दूसरे उपायके न होनेपर प्रवृत्ति करनेसे अत्यंत खल्प ज्ञानको धारण करनेवाले पृथिवी आदि जीवोंका वध होनेपर भी बहुत अल्प ( कम ) पुण्यका नाश होनेसे अपरिमाण ( वे अंदाज़ ) पुण्यकी प्राप्ति होती है और इससे भिन्न जो कोई परिणामविशेष है; वह | शुभफलका धारक नहीं है । और तुम्हारे मतमें तो उन उन श्रुति, स्मृति, पुराण तथा इतिहास आदिकोंमें कहे हुए यम, नियम आदि बहुतसे स्वर्गकी प्राप्ति के उपायोंको विद्यमान रहते भी उन २ देवोंका उद्देश्य करके अर्थात् मै अमुक देवके अर्थ इस अमुक पशुका वध करता हूं, ऐसा विचार करके भयसे विह्वल और कृपण ( दयाके योग्य ) ऐसे पंचेन्द्रियजीवोंको शरीरके प्रत्येक अवयवको काटनेरूप पीड़ा पहुंचानेसे कसाईसे भी अधिक निर्दयतापूर्वक मारनेवाले और समस्तपुण्यका नाश करके केवल दुर्गतिको ही अनुकूल करनेवाले अर्थात् नरक गतिका बंध बांधनेवाले ऐसे जो यज्ञके कर्त्ता पुरुष है, उनके शुभफलके धारक परिणामविशेषका | होना अत्यंत कठिन है । और इसप्रकार जिस किसीपदार्थको किसी साधर्म्यद्वारा ही दृष्टान्तगोचर करते हुए अर्थात् किसी साधर्म्यको लेकर किसी पदार्थका दृष्टान्त देते हुए तुम पूर्वमीमासकोंके अत्यंत अनिष्टकी प्राप्ति होती है ।
न च जिनायतनविधापनादौ पृथिव्यादिजीववधेऽपि न गुणः । तथाहि - तद्दर्शनाद्गुणानुरागितया भव्यानां बोधिलाभः । पूजातिशयविलोकनादिना च मनःप्रसादः, ततः समाधिः, ततश्च क्रमेण निःश्रेयसप्राप्तिरिति । तथा १. प्रत्यवयवम् । २. भयविह्वलान् । ३. कृपार्हान् । ४. बोधिः सम्यक्त्व प्रेत्य जिनधर्मावाप्तिवां । ५. समाधिश्चारित्रावाप्तिः । ६. निःश्रेयसो मोक्षः ।