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स्थाद्वादमं.
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च भगवान् पञ्चलिङ्गीकार;-"पुढवाइयाण जइवि हु होइ विणासो जिणालयाहिंतो । तबिसया वि सुदिछिस्स नाराजै.शा. णियमओ अत्थि अणुकंपा।१। एयाहिंतो वुद्धा विरया रक्खंति जेण पुढवाई। इत्तो निव्वाणगया अवाहिया
आभवमिमाणं।२।रोगिसिरावेहो इव सुविज्जकिरियाव सुप्पउताओ। परिणामसुंदरच्चिय चिठा से वाहजोगेवि" ।। । और जिनमदिर बनवाने आदिमें पृथिवी आदि जीवोंका जो वध होता है; उसमें भी गुण नहीं है अर्थात् जैसे आप वेदोक्त विधिपूर्वक हिंसाके करनेमें गुण नहीं बतलाते है, उसीप्रकार जिनमंदिर आदिके बनवानेमें भी गुण नहीं है। ऐसा न कहना चाहिये। क्योंकि श्रीजिनेन्द्रके दर्शन करनेसे श्रीजिनेन्द्रके गुणोंमें अनुराग (प्रीति ) होता है, श्रीजिनेन्द्रके गुणोमें प्रीति होनेसे जो भव्य हैं, उनको बोधि (सम्यग्दर्शन ) की प्राप्ति होती है, और श्रीजिनेन्द्रकी पूजा तथा अतिशय (प्रभाव ) को देखने आदिसे चित्त प्रसन्न ( प्रफुल्लित ) होता है, मन प्रसादके होनेसे समाधि, (समताभाव ) की प्राप्ति होती है; और फिर क्रमानुसार मोक्षकी
प्राप्ति होती है। सो ही पचलिङ्गीके का भगवान् श्रीजिनपतिसूरीश्वरजी कहते है कि-"यद्यपि जिनमदिर बनवाने आदि धू क्रियाओंके करनेसे पृथिवी आदि जीवोंका विनाश होता ही है । तथापि सम्यग्दृष्टीके उन पृथिवी आदि जीवों संबंधी दया नियमसे
है ही अर्थात् सम्यग्दृष्टी जीवके चित्तमें उन पृथिवी आदि जीवोंकी दया ही बस रही है। उसके परिणाम उन जीवोंकी दयासे शून्य जी कमी नहीं होते है। १ । क्योंकि, भव्यजीव इन जिनमंदिर बनवाने आदि क्रियाओंसे ज्ञानको प्राप्त होकर फिर संसारसे विरक्त होकर अर्थात् मुनि होकर पृथिवी आदि जीवोंकी रक्षा करते है, इसीकारण इन पृथिवी आदि जीवोको बाधा न पहुंचानेवाले इस भवमें मोक्ष गये है । भावार्थ-जिनमंदिर बनवाने आदिसे गृहस्सोंको ज्ञानकी प्राप्ति होती है, हेयोपादेयका ज्ञान होनेपर वे गृहस्थाश्रमसे तथा संसारसे विरक्त होकर मुनिपदको धारण करते है और मुनिपद धारण करके इन पृथिवी आदि जीवोंकी अधिक रक्षा करते है और जब इन पृथिवी आदि जीवोंकी पूर्ण दया पालते है तब वे इसी भवमें मोक्ष चले जाते है; अत. जिनमदिर आदिका बनवाना दयाभावका वर्धक ही है नाशक नहीं है । २ । जैसे रोगीकी नसका छेदना और उत्तमप्रकारसे प्रयोगमें लाई हुई उत्तम
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पञ्चलिङ्गीकारः श्रीजिनपतिसूरि । २. “पृथिव्यादीना यद्यपि भवत्येव (प्राकृते हु एवकारा)विनाशो जिनालयादिभ्यः । तद्विपयापि सुरष्टेनियमतोऽस्त्यनुकम्पा ।। एताभ्यः (जिनालयादिक्रियाभ्य.) बुद्धा विरता रक्षन्ति येन पृथिव्यादीन् । अतो निर्वाणगता भयाधका भाभवं (मस्मिन् भवे) एषाम् । २ । रोगिशिरावेध इव सुवैद्यक्रिया इव सुप्रयुक्ता तु । परिणामसुन्दरैव चेष्टा सा याधायोगेऽपि । ३।" इतिच्छाया।