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स्याद्वादमं.
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कौन २ से कार्य होते हैं ' इस विषयक ज्ञान न होगा और उस ज्ञानके न होनेसे जगत में जो ये योग्यकार्य देखने में आते है, |इनको वह ईश्वर उत्पन्न न कर सकेगा ।
तथा स स्ववशः स्वतन्त्रः । सकलप्राणिनां स्वेच्छया सुखदुःखयोरनुभावनसमर्थत्वात् । तथा चोक्तम्- "ईश्व| रप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा । अन्यो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । १।” इति । पारतन्त्र्ये तु तस्य परमुखप्रेक्षितचा मुख्य कर्त्तृत्वव्याघातादनीश्वरत्वापत्तिः ।
तथा फिर " " सः वह “ स्ववशः ” स्वतंत्र अर्थात् स्वाधीन है । क्योंकि, वह ईश्वर अपनी इच्छानुसार सब प्राणियोंको ! सुख और दुःखका अनुभव करानेमे समर्थ है अर्थात् अपनी इच्छासे सबको सुख तथा दुख देता है । सो ही कहा भी है कि, - 66 'यह जीव ईश्वरका भेजा हुआ ही स्वर्गको अथवा नरकको गमन करता सुख और दुःखको उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं है । १ । ” यदि उस ईश्वरको परतंत्र ( पराधीन) मानें तो वह ईश्वर जगतके । क्योंकि, ईश्वरके सिवाय जो अन्य जीव है, वे अपने बनानेमें दूसरोंका मुख देखेगा अर्थात् दूसरोंकी आज्ञा लेकर कार्य करेगा इस कारण उसके मुख्यकर्त्तापनेका नाग होनेसे अनीश्वरता हो जावेगी अर्थात् मुख्यकर्त्ता न रहनेसे ईश्वर ईश्वर न रहैगा ।
तथा स नित्य इति । अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपः । तस्य ह्यनित्यत्वे परोत्पाद्यतया कृतकत्वप्राप्तिः । अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः स्वभावनिष्पत्तौ कृतक इत्युच्यते । यश्चापरस्तत्कर्त्ता कल्प्यते स नित्योऽनित्यो वा स्यात् । नित्यश्चेदधिकृतेश्वरेण किमपराद्धम् । अनित्यश्चेत्तस्याप्युत्पादकान्तरेण भाव्यम् । तस्यापि नित्यानित्यत्वकल्पनायामनवस्थादौस्थ्यमिति ।
तथा “ सः " वह पुरुषविशेप " नित्यः " नित्य है अर्थात् अप्रच्युत ( अविनाशी ) अनुत्पन्न ( उत्पत्तिसे रहित ) और स्थिरैकरूप ( निश्चल एक स्वभावका धारक ) है । क्योंकि, यदि ईश्वरको अनित्य मानेंगे तो परसे उत्पन्न होने के कारण वह ईश्वर कृतक होजावेगा। कारण कि, जो पढार्थ अपने खरूपकी सिद्धिमें अन्य पदार्थके व्यापारकी अपेक्षा रखता है अर्थात् निजको सिद्धकरनेके लिये दूसरेकी सहायता चाहता है, वह कृतक कहलाता है। और जो तुम किसी दूसरेको ईश्वरका कर्त्ता मानो, तो हम प्रश्न करते हैं कि, वह ईश्वरका कती नित्य है ? वा अनित्य है ? यदि कहो कि, नित्य है, तब तो हमारे माने हुए इस 'ईश्वरने क्या
रा. जै.शा.
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