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स चैक इति । चः पुनरर्थे । स पुनः पुरुषविशेष एकोऽद्वितीयः । बहूनां हि विश्वविधातृत्व स्वीकारे परस्प | रविमतिसंभावनाया अनिवार्यत्वादेकैकस्य वस्तुनोऽन्यान्यरूपतया निर्माणे सर्वमसमञ्जसमापद्येत । इति ।
"च" [ यहा 'च' पुन' के अर्थमें है ] फिर "स:" वह पुरुषविशेष जो है सो “एकः " एक है अर्थात् उसके सिवाय और कोई दूसरा जगतका कर्त्ता नही है । यदि बहुतोंको जगतके कर्त्ता मानें तो उनके परस्पर संगति ( सलाह ) में भेद ( फरक ) | होने की संभावना नही रुक सकती है, इस कारण एक एक वस्तुकी अन्य अन्य प्रकारसे रचना होने पर सब अनुचित 'जावे । भावार्थ - यदि बहुतसे पुरुष विशेषोको जगतके कर्त्ता मानें तो उनके परस्पर मतिभेद हो जावेगा और उस मतिभेदके होने पर कोई तो एक वस्तुको अन्य प्रकारसे बनावेगा और कोई उसी एक वस्तुको दूसरे प्रकारसे वनावेगा और ऐसा होने पर सव अनुचित हो जायगा अर्थात् घुटाला होनेसे किसी भी वस्तुकी स्वरूपव्यवस्था न होगी ॥
तथा स सर्व इति । सर्वत्र गच्छतीति सर्वगः सर्वव्यापी । तस्य हि प्रतिनियत देशवर्त्तित्वेऽनियत देशवृत्तीनां | विश्वत्रयान्तर्वर्त्तिपदार्थसार्थानां यथावन्निर्माणानुपपत्तिः । कुम्भकारादिषु तथा दर्शनात् । अथवा सर्व गच्छति | जानातीति सर्वगः सर्वज्ञः । सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्था इति वचनात् । सर्वज्ञत्वाऽभावे हि यथोचितोपादानकारणा| द्यनभिज्ञत्वादनुरूपकार्योत्पत्तिर्न स्यात् ।
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तथा फिर " सः 'घह पुरुषविशेष " सर्वगः " सब जगह गमन करनेवाला अर्थात् सर्वव्यापी (सब पदार्थों में रहनेवाला) | है । क्योंकि, यदि उसको प्रतिनियतदेशवर्त्ती अर्थात् किसी एक नियमित ( मुकर्रर ) स्थान में रहनेवाला मानें तो उसके अनियमितस्थानों में रहनेवाले ऐसे जो तीनों लोकों में स्थित पदार्थोंके समूह है, उनको यथावत् रीतिसे ( भले प्रकारसे ) बनाने की सिद्धि न | होगी अर्थात् वह भिन्न २ स्थानों में स्थित पदार्थोंको यथार्थरीतिसे न बना सकेगा । क्योंकि, कुंभकार आदिमें ऐसा देखा जाता है। | अर्थात् जहां कुंभकार स्थित है, वहां वह घट बनाता है । अथवा वह "गतिरूप अर्थके धारक सब धातु ज्ञानरूप अर्थके धारक भी है, " इस वचनसे सर्वग अर्थात् सर्वज्ञ ( सबको जाननेवाला ) है । क्योंकि, यदि वह पुरुषविशेष सर्वज्ञ न हो तो यथायोग्य उपादान कारणोंको न जाननेसे उसके द्वारा योग्य कार्योंकी उत्पत्ति न होगी अर्थात् असर्वज्ञतासे ईश्वर के 'किन २ उपादान कारणोंसे