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स्याद्वादमं.
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क्योंकि, आप्त उसीका नाम है जो असत्यवादी न हो । सजीव हैं उनमें तो जीव मानना किसीको अनिष्ट ही जीवपना अच्छी तरह सिद्ध होता है ।
दो इन्द्रियवालोको आदि लेकर कृमि, चीटी, भ्रमर, मनुष्यादिक जो नही है । इस प्रकार जिनको जिनेन्द्रदेवने जीव कहा है उन सवोमें
यथा च भगवदुपक्रमे जीवाऽनन्त्ये न दोपस्तथा दिग्मात्रं भाव्यते । भगवन्मते हि षण्णां जीवनिकायानामेतदपबहुत्वम् । सर्व स्तोकास्त्रसकायिकाः । तेभ्योऽसंख्यातगुणास्तेजः कायिकाः । तेभ्यो विशेषाधिका पृथ्वीका - यिकाः । तेभ्यो विशेषाधिका अप्कायिकाः । तेभ्यो विशेषाधिका वायुकायिकाः । तेभ्योऽनन्तगुणा वनस्पतिकाविकास्ते च व्यावहारिका अव्यावहारिकाश्च ।
अब जिनेन्द्र ने जो जीवोका उपदेश अनंतरूपसे किया है उसमें किसी प्रकारका दोष जैसे नही आवै उसी प्रकारसे कुछ दिखाते है । भगवत ने छहो कार्यों के जीवोमें परस्पर इस प्रकार संख्याकी हीनाधिकता कही है कि सब कायोसे थोड़े त्रस कायके जीव है । त्रसोसे असंख्यात गुणे अधिक अग्निकायिक जीव है। उनसे अधिक पृथिवीकायिक है । पृथिवीकायिकोसे कुछ अधिक जलकायिक है । जलकायिकोसे कुछ अधिक वायुकायिक है । उनसे अनन्तगुणे वनस्पतिकायिक है । वे वनस्पति कुछ तो व्यवहारराशिमें रहनेवाले है और कुछ व्यवहारराशिसे भिन्न निगोदनामक राशिमें बसरहे है ।
"गोला य असंखिज्जा असंखणिग्गोय गोलओ भणिओ । इक्विक्वणिगोयम्हि अणन्तजीवा मुणेयवा । १ । सिज्झति जत्तिया खलु इह संववहारजीवरासीदो। एंति अणाइवणरसइरासीदो तत्तिआ तह्नि । २।” इति वचनात् यावन्तश्च यतो गच्छन्ति मुक्ति जीवास्तावन्तोऽनादिनिगोदवनस्पतिराशेस्तत्रागच्छन्ति ।
" गोल असंख्यातो है और एक एक गोलमें असंख्यातो निगोद है । तथा एक एक निगोदमें अनंतो अनंतो जीव मानने चाहिये । १ । व्यवहार राशिमेसे जितने जीव मुक्त होजाते है उतने ही जीव अनादि निगोद नामक वनस्पतिराशिसे निकलकर व्यवहारराशिमें आजाते है । २ ।" इस वचनके अनुसार जितने जीव व्यवहारराशिसे मोक्षको जाते है उतनोका । १ । सिध्यन्ति यावन्त खलु इह
१ गोलाश्च असख्याता असंख्य निगोद गोल. भणित । एकैकस्मिन् निगोदे अनन्तजीवा ज्ञातव्या सभ्यवहारजीवराशित. । आयान्ति अनादिवनस्पतिराशित. तावन्त तस्मिन् । २ । इतिच्छाया ।
रा. जै०या०
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