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में डककी तरह ऐसा खभाव है जैसा कि खोदी हुई भूमिका । अर्थात् मेंडकका भी खोदी हुई भूमिके समान खभाव होता है और वह सजीव है उसी प्रकार जब भूमिके जलका भी ऐसा ही स्वभाव है तो वह भी सजीव ही होना चाहिये । एवं जो आकाशमें होनेवाला जल है वह भी सजीव है। क्योंकि मेघरूप विकार उत्पन्न होनेपर जिस प्रकार अपने आप ही उपजकर मछली ऊपरसे गिरती है उसी प्रकार मेघविकार होनेपर जल भी स्वयं बनकर नीचे गिर पड़ता है । अर्थात् मछलीका ऐसा स्वभाव है और
सजीव है उसी प्रकार जब जलका भी ऐसा ही खभाव है तो इसलिये जल भी सजीव ही होना चाहिये। MT तेजोऽपि सात्मकमाहारोपादानेन वृद्ध्यादिविकारोपलम्भात् पुरुषाङ्गवत् । वायुरपि सात्मकः अपरप्रेरितत्वे तिर्यग्गतिमत्वान्दोवत् । वनस्पतिरपि सात्मकः छेदादिभिग्लान्यादिदर्शनात् पुरुषाङ्गवत् । केषांचित् स्वापाङ्गनोपश्लेषादिविकाराच्च । अपकर्षवतश्चैतन्याद्वा सर्वेषां सात्मकत्वसिद्धिराप्तवचनाच्च । त्रसेषु च कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिषु न केषांचित्सात्मकत्वे विगानमिति । | अमि भी सजीव है । क्योंकि; जिस प्रकार आहार मिलनेसे शरीरके अंग बढते है, चंचल होते है, इत्यादि और भी धर्म स्फुरा|यमाण होते हैं तथा जब आहार नही मिलता तब हतशक्ति होजाते है उसीप्रकार अग्नि भी जब लकड़ी आदि आहार मिलता है
तब बढता है, चंचल होता है, शक्तिशाली दीखता है और जब आहारादि नही मिलता तब क्षीणशक्ति निस्तेज होजाता है LG अर्थात्-ऐसे खभाववाले जब शरीरके अंग सजीक होते हैं तो ऐसे ही स्वभाववाला अग्नि भी सजीव क्यों न मानना चाहिये? एवं
वायु भी सजीव है। क्योंकि; जैसे किसी दूसरेके हांकनेपर गौ इधर उधर चलने लगती है उसी प्रकार वायु भी दूसरेकी प्रेरणासे इधर उधर चलने लगता है । अर्थात्-ऐसे धर्मवाला जैसे गौ सजीव है उसी प्रकार ऐसे खभाववाला होनेसे वायु भी सजीव ही
होना चाहिये । वनस्पति भी सजीव ही है। क्योंकि, सजीव पुरुषके अंग जिस प्रकार काटनेसे मलिनता आदि धारण करलेते है। IMAGI उसी प्रकार वनस्पति भी काटने छेदनेपर मलिनतादि धारलेता है इसलिये सजीव पुरुषके अंगोके
होनेसे यह भी सजीव ही होना चाहिये। तथा कुछ वनस्पतियोमें प्राणियोके समान निद्रासे किंवा स्त्रीके आलिङ्गनादिसे विकार | चेष्टामें होती दीखती है । और जिन जिन जीवो भी चेतना शक्ति घटती हुई है उन उन जीवोमें चेतनाकी हीनाधिकता दीखनेसे तो पृथिव्यादि सभीमें सजीवपना सिद्ध होसकता है। एवं आप्त भगवानके उपदेशसे भी सवोमें सजीवपना मानना चाहिये।
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