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________________ SADE SH ही निगोदराशिसे व्यवहार राशिमें आजाना सिद्ध है । भावार्थ-वनस्पति कायके दो भेद हैं; पहिला साधारण दूसरा प्रत्येक। जिस all वनस्पतिमें एक शरीरके अनंतो जीव खामी हो तथा उन अनंतो जीवोका एक ही आहार हो, एक ही श्वासोच्छ्रास हों उनको साधारण कहा है। साधारणोके अतिरिक्त सभी वनस्पति प्रत्येक कहेजाते हैं। साधारणका दूसरा नाम निगोद है। ये निगोद दो प्रकारके हैं, पहिले नित्य दूसरे इतर । जो जीव अनादिकालसे निगोदमें ही रहरहे हैं उनको नित्यनिगोद कहते है। नित्यनिगोद राशिसे निकलकर अन्य पर्यायोको धारकर फिर भी कभी निगोदराशिमें जो पहुंच जाता है उसको इतर निगोद कहते है। नित्यनिगोदके अतिरिक्त जितने जीव है उनको व्यवहार राशिवाले कहते है और जो नित्यनिगोदके जीव हैं उनको व्यवहारराशिसे भिन्न कहते है । निगोद जीवोके एक एक समूहकों भी निगोद ही कहते है। ऐसे असंख्यों निगोद एक एक पिंडमें रहते है। उन पिंडोंको गोल कहा है। || न च तावता तस्य काचित्परिहाणिर्निगोदजीवाऽनन्त्यस्याऽक्षयत्वात् । निगोदस्वरूपं च समयसागरादवगन्त-10 व्यम् । अनाद्यनन्तेऽपि काले ये केचिन्निवृता निर्वान्ति निर्वास्यन्ति च ते निगोदानामनन्तभागेऽपि न वर्त्तन्ते | धनाऽवर्तिषत न वय॑न्ति । ततश्च कथं मुक्तानां भवागमनप्रसङ्गः ? कथं च संसारस्य रिक्तताप्रसक्तिरिति ? अभि-1| प्रेतं चैतदन्ययूथ्यानामपि । यथा चोक्तं वार्त्तिककारेण “अत एव च विद्वत्सु मुच्यमानेषु सन्ततम् । ब्रह्माण्डलोकजीवानामनन्तत्वादशून्यता।१ । अन्त्यन्यूनातिरिक्तत्वैर्युज्यते परिमाणवत् । वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामस म्भवः । २।" इति काव्यार्थः। - इस प्रकार निगोदराशिसे सदा निकलते रहनेपर भी निगोद जीव समाप्त नहीं होसकते है। क्योंकि; उनको अक्षय अनंत कहा है। शास्त्रोंमें सागर नामक एक संख्या मानी गयी है उससे निगोद जीवोंका प्रमाण मालुम करलेना चाहिये ।। जितने कुछ जीव अनादिकालसे निकलते जारहे है और अनंतकाल तक आगे भी निकलते रहैगे वे सब मिलाकर विचारनेसे निगोदराशिके अनंतवें भागप्रमाण भी नहीं हुए हैं तथा न होंगे। इसलिये मुक्त हुए जीवोंको फिर संसारमें लौटनेका क्या। कारण है ? अन्य धर्मवालोने भी इस बातको खीकार किया है । वार्तिककारने कहा है- "इसीलिये संसारसे ज्ञानी जीवोंकी निरंतर मुक्ति होते रहने पर भी संसारी जीवराशि अनंतरूप होनेसे कभी उसका अंत नहीं आसक्ता है। १। जिस वस्तुका
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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