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रा.जै.शा.
स्याद्वादम.
२११॥
संख्यातरूप परिमाण होता है उसीका किसी समय अंत आसकता है, वही घट जाती है तथा कभी समाप्त भी होजाती है परंतु ) जो वस्तु अपरिमेय होती है उसका न तो कभी अंत ही आता है, न वह घटती ही है और न कभी समाप्त ही होती है । २।" इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। o अधुना परदर्शनानां परस्परविरुद्धार्थसमर्थकतया मत्सरित्वं प्रकाशयन् सर्वज्ञोपज्ञसिद्धान्तस्याऽन्योन्यानुगतसर्वनयमयतया मात्सर्याऽभावमाविर्भावयति ।
अब यह दिखाते हैं कि जितने अन्य दर्शन है वे सब एक दूसरेसे विरुद्ध अर्थको कहनेवाले होनेसे एक दूसरेसे द्वेष रखते है और अर्हन् सर्वज्ञ देवका कहा हुआ दर्शन सापेक्ष होकर विचारनेपर परस्पर सव दर्शनोंसे मिलता हुआ है इसलिये इसमें मत्सरभावका नाम भी नहीं है।
अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः ॥
नयानशेषानविशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥३०॥ मलार्थ-जिस प्रकार अन्य दर्शनोंमें यह हमारा पक्ष है तथा यह विरुद्ध पक्ष है ऐसा दुराग्रह होनेसे अन्य दर्शन मत्सरभाव रखते है उस प्रकार आपके दर्शनमें मत्सरभाव नहीं है। क्योंकि; संपूर्ण नयोंको या परस्पर विरुद्ध विचारोंकों आप अपेक्षावश एकसमान देखते है।
व्याख्या-प्रकर्षणोद्यते प्रतिपाद्यते स्वाभ्युपगतोऽर्थी यैरिति प्रवादाः। यथा येन प्रकारेण परे भवच्छासनादन्ये प्रवादा दर्शनानि मत्सरिणः, अतिशायने मत्वर्थीयविधानात्सातिशयाऽसहनताशालिनः क्रोधकषायकलुपितान्तःकरणाः सन्तः पक्षपातिन इतरपक्षतिरस्कारेण स्वकक्षीकृतपक्षव्यवस्थापनप्रवणा वर्तन्ते । y. व्याख्यार्थ-अपने इष्ट अर्थका जिनमें प्र अर्थात् अत्यंत, वाद अर्थात् प्रतिपादन किया जाता हो उनको प्रवाद कहते
है। मत या दर्शनको प्रवाद कहते हैं । जिस प्रकार आपके मतके सिवाय अन्य मत परस्परमें ईर्ष्या द्वेष रखते है उस प्रकार आपके y मतमें किसीके साथ भी द्वेषभाव नहीं है । मत्सरी शब्द जो मूल श्लोकमें है उसमें मतु प्रत्ययके अर्थवाला इन् प्रत्यय अतिशय
१ 'उस प्रकार' इत्यादि वचन, संबंध मिलानेकेलिये लिखा है।
॥२१॥