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रा.जै.शा.
खाद्वादम.
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अथवा लघु धातुका शोपना अर्थ है तथा जड्डालताका अर्थ शीघ्रता है। इसलिये 'जड्डालतया समुद्रं लड्डेम' का अर्थ ऐसा होना चाहिये कि समुद्रको शीघ्रतासे शोषना चाहते है। उल्लंघन करने अर्थमें जो लवि धातु है वह परस्मैपदी नहीं है और 'लड्डेम' यह शब्द परमैपदका ही बनता है इसलिये शोषणार्थक परस्मैपदी 'लघि' धातुका यह शब्द बना हुआ समझना चाहिये। अथवा यदि आत्मनेपद होना अनित्य मानाजाय तो जिसका उलंघन करना अर्थ है ऐसे लद्धि धातुका भी यह शब्द बनसकता है। इस श्लोकमें यद्यपि 'आशामहे' इस पदके देखनेसे ज्ञात होता है कि ग्रन्थकर्ता आचार्यने अपने विपयमें उद्धताका निषेध दिखाते हुए भी अपनेमें बहुवचनका उपयोग किया है परंतु इस बहुवचनसे उद्धतता नही झलकती है किंतु यह दीखता है कि जिनेन्द्रकी स्तुति करनेवाले मुझसमान मंदबुद्धि इस जगत्में बहुत है। इसलिये उद्धतताकी शंका करना तो उचित नहीं है किंतु उलटा निरभिमानतारूप महलके ऊपर इस वचनसे पताकाका आरोपण होता है ऐसा समझना चाहिये। भावार्थ-यहांपर बहुवचनान्त क्रियाशब्द कहनेसे निरहंकारताकी और भी विशेषता दीखती है । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ। अबतकके इकतीस श्लोकोमें
उपजाति नामक छन्द है। स एवं विप्रतारकैः परतीर्थिकैयामोहमये तमसि निमज्जितस्य जगतोऽभ्युद्धरणेऽव्यभिचारिवचनतासाध्येनाऽन्य
योगव्यवच्छेदेन भगवत एव सामर्थ्य दर्शयन् तदुपास्तिविन्यस्तमानसानां पुरुषाणामौचितीचतुरतांप्रतिपादयति । ॐ इस प्रकार अन्य दर्शनवाले ठगोकर विस्तारित व्यामोहरूपी अन्धकारमें डूबे हुए जगत्का उद्धार करनेमें बाधारहित असाधारण
कारणरूप आपके ही वचनोसे अन्य मतोका निराकरण होसकता है इसलिये हे भगवन् ! आपका ही ऐसा उद्धार करनेमें साममर्थ्य है ऐसा दिखाते हुए हेमचन्द्राचार्य यह कहते है कि इसलिये आपकी उपासना करने में जिन्होने मन लगा रक्खा है वे पुरुष ही अपने कर्तव्यमें चतुर समझने चाहिये।
इदं तत्त्वाऽतत्त्वव्यतिकरकरालेऽन्धतमसे जगन्मायाकारैरिव हतपरैर्हा विनिहितम् ।
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