________________
-
IMANIजाननेकी चितामें डूब जावेगा और पदार्थ खयं जडरूप है; इसकारण अपने खरूपको विदित नही करसकता है इसकारण ||
पदार्थकी कथाको भी कौन कहेगा। XI तथाप्येवं ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वे युक्त्या घटमानेऽपि परे तीर्थान्तरीयाः ज्ञानं कर्मतापन्नमनात्मनिष्ठं न विद्यत
आत्मनः स्वस्य निष्ठा निश्चयो यस्य तदनात्मनिष्ठं अस्वसंविदितमित्यर्थः प्रपेदिरे प्रपन्नाः । कुत इत्याह ।-परेभ्यो ||भयतः। परे पूर्वपक्षवादिनस्तेभ्यः सकाशात् ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वं नोपपद्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधादित्युपालनाम्भसम्भावनासम्भवं यद्भयं तस्मात्तदाश्रित्येत्यर्थः।। _ 'तथापि' इस पूर्वोक्त प्रकारसे ज्ञानके खसंविदितपना युक्तिद्वारा सिद्ध होता है तो भी 'परे' अन्यमतावलम्बी पुरुष 'ज्ञानम् ज्ञानको [ 'ज्ञानम्' यह 'प्रपेदिरे' इस क्रियाका कर्म है। ] 'अनात्मनिष्ठम्' नही है अपना निश्चय जिसके ऐसा अर्थात् अखसंविदित ( निजस्वरूपका अप्रकाशक ) “प्रपेदिरे" मानते है । अब वादियोंने ज्ञानको अस्वसंविदित क्यों माना है सो कहते हैं । “परेभ्यः” पर जो पूर्वपक्षके कहने वाले है उनसे "भयतः" ज्ञानके खसंविदितपना सिद्ध नही हो सकता है; क्योंकि-अपनी आत्मामें क्रियाका विरोध है; इस उपालंभकी संभावनासे उत्पन्न हुए भयको ग्रहण करके ही वादियोंने ज्ञानको अस्वप्रकाशक मान लिया है । भावार्थ-'यदि भट्टमतानुयायी ज्ञानको स्वप्रकाशक ( अपने प्रकाशको उत्पन्न करनेवाला ) मान लें तो उनको निज आत्मामें क्रिया अवश्य माननी पड़ेगी; क्योंकि, निज आत्मामें क्रिया माने विना ज्ञान स्वप्रकाशक कदापि नहीं होसकता है। और ऐसा माननेपर वैशेषिक आदि मतवाले उनको कहेंगे कि-ज्ञान आत्माका विशेषगुण है और 'गुणादि-18 निर्गुणक्रियः' इस वचनसे गुण क्रियारहित माना गया है, अतः तुम ज्ञानको स्वप्रकाशक नही मान सकते हो' इस प्रकार वैशेभाषिकोंसे डरकर ही भट्टोंने ज्ञानको अस्वप्रकाशक मान लिया है। __इत्थमक्षरगमनिकां विधाय भावार्थः प्रपञ्च्यते । भट्टास्तावदिदं वदन्ति । यज् ज्ञानं स्वसंविदितं न भवति, स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । न हि सुशिक्षितो ऽपि नटवटुः स्वस्कन्धमधिरोढुं पटुर्न च सुतीक्ष्णाप्यसिधारा स्वं छेत्तुमा| १ स्वप्रकाशकत्वं च स्वप्रकाशजनकत्वं तच्च स्वात्मनि क्रियामन्तरा नितरामसम्भवि 'गुणादिनिर्गुणक्रियः' इति वचनात् । ज्ञानं चात्मनो विशेषगुणः । इति वैशेषिकोपालम्भभयादिति तात्पर्यम् ।