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________________ साद्वादमं. स्थाद्वादमा ॥६३॥ उस क्रियासम वैशेषिकोंके मतमें पहले किसी करता है; उस रमाएका पूर्व आकाशप्रदेशसला कारणसे अर्थात् अदृष्टविशिष्ट भावार्थ-वैशेषिकोंके मतमें पहले किसी कारणसे अर्थात् अदृष्टविशिष्ट आत्माके संयोगसे परमाणु क्रिया उत्पन्न होती है। उस क्रियासे परमाणुका पूर्व आकाशप्रदेशसे विभाग ( वियोग ) होता है अर्थात् परमाणु एक आकाशप्रदेशको छोड़कर गमन करता है। उस विभागके द्वारा परमाणुका उत्तर आकाशप्रदेशके साथ संयोग होता है अर्थात् परमाणु पूर्व आकाशप्रदेशसे गमन कर दूसरे आकाशप्रदेशमें ठहरता है, इस रीतिसे एक आकाशप्रदेशमें जब अन्य अन्य परमाणु इकठे होते है; तव द्वयणुक, व्यणुक आदिरूप कार्य होते है। ऐसा माना गया है। इस कारण यहां वैशेषिक शंका करते है कि- यदि आत्मा सर्वव्यापक न होगा तो उस आत्माका भिन्न स्थानमें स्थित परमाणुके साथ संयोग न होनेसे वह आत्मा परमाणुमें क्रिया उत्पन्न न कर सकेगा; जिससे आद्यकर्मका अभाव हो जावेगा। क्योंकि-क्रियाका न होना ही आद्यकर्मका अभाव है; उस आद्यकर्मके अभावसे अर्थात् परमाणुका क्रियासे पूर्व आकाशप्रदेशके साथ वियोग और उत्तर आकाशप्रदेशके साथ संयोग न होनेसे अन्त्य (आखिर) के संयोगका अर्थात् जिन घणुक त्र्यणुक आदि अवयवोंका संयोग होनेसे शरीररूप अवयवी पूर्ण होता है, उस अंत्यसयोगका अभाव होगा और जब अन्त्यसयोगका अभाव हो जावेगा तब उस अत्यसयोगसे होनेवाले शरीरका अभाव होगा । और शरीरका अभाव होनेके कारण शरीरका आत्माके साथ संबंध न रहेगा, जिससे आत्मा शरीर रहित हो जावेगा और शरीरकी रहितता ही मोक्ष है, इसकारण सब जीव सदा किसी विना उपाय किये ही मोक्षको प्राप्त हो जायेंगे। समाधानऐसा नहीं है । क्योंकि; जो जिससे संयुक्त होता है अर्थात् जिसका जिसके साथ संयोग होता है, वही उसके प्रति गमन करता है, यह नियम नहीं हो सकता है । कारण कि; लोह जो है, वह चुम्बकलोहसे असंयुक्त है तथापि उस लोहका N/ चुम्बक आकर्षण कर लेता है, यह प्रत्यक्षमें देख पडता है। भावार्थ-जैसे चुम्बक अपने साथ सयोगको न धारण करनेवाले लोहेको अपनी ओर खेंच लेता है, उसीप्रकार आत्मा भी अपने साथ सयोगको न धारण करनेवाले दिशान्तर तथा देशान्तरमें विद्यमान परमाणुओंका अपने प्रति आकर्षण कर लेगा, इस कारण जो तुमने आत्माको व्यापक न मानने पर बिना उपायके सब आत्माओंका मोक्ष हो जानेरूप दोष दिया है। वह नहीं हो सकता है। अब कहो कि, यदि आत्मा अपने साथ संयोगको न धारण करनेवाले परमाणुओंका आकर्षण करेगा तो उस आत्माके शरीरको आरभकरनेके प्रति सन्मुख हुए ऐसे तीनलोकके उदर धू ( वीच ) में रहने वाले परमाणुओंके उपसर्पण ( आजाने ) का प्रसग होनेसे न जाने आत्मा कितने प्रमाणका धारक हो जावेगा; . ॥६३॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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