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तो संयुक्त परमाणुओंका आकर्षण माननेमें भी यह दोष क्यों नहीं होता है । क्योंकि, आत्मा व्यापक है; इस कारण उस आत्माका | समस्त परमाणुओंके साथ संयोग है । भावार्थ — वैशेषिक कहते है कि; यदि आत्मा असंयुक्त परमाणुओंका आकर्षण करेगा तो उस आत्मा शरीरको रचने के लिये तीनलोक के समस्त परमाणु आजायेंगे और ऐसा होगा तो न मालुम उस आत्माका शरीर कितना लम्बा, चोड़ा व मोटा हो जावेगा। क्योंकि, वह सपूर्णपरमाणुओंसे रचा जावेगा । इस पर जैनी उत्तर देते है; कि जो दोष तुम हमको देते हो, वही दोष आत्मा अपनेसे संयुक्त परमाणुओंका आकर्षण करता है, यह जो तुम्हारा पक्ष है; उसमे भी होता है । क्योंकि आत्मा व्यापक होनेसे सब परमाणुओंके साथ संयुक्त है, अत. जब संयुक्त परमाणुओंका आकर्षण करेगा तब तीन लोकके समस्त परमाणु उसका शरीर रचनेके अर्थ आ जावेंगे । अब यदि यह कहो कि, असंयुक्त तथा संयुक्त इन दोनों ही परमाणुओंका आकर्षण माननेमें कोई भेद नहीं है अर्थात् समान ही दोष है; तथापि अदृष्टके वशसे उस विवक्षित शरीरको उत्पन्न करनेके योग्य जो नियत ( मुकर्रर ) परमाणु है; वे ही उस आत्माके प्रति आगमन करते है अर्थात् आत्मा तो सभी परमाणुओंका आकर्षण कर सकता है, परंतु पुण्य-पापके बलसे जैसा शरीर उसको धारण करना है; वैसे शरीरको उत्पन्न करने में समर्थ कितने ही परमाणु आत्माके प्रति आते है, सबके सब परमाणु नही आते । तो यह तुम्हारा कथन दूसरे पक्षमें अर्थात् असंयुक्त परमाणुओंका आकर्षण करनेरूप हम जैनियोंके पक्षमें भी समान है । भावार्थ - जैसे तुम पुण्य-पापके वशसे नियत परमाणुओका ही आत्माके प्रति आना मानते हो, उसी प्रकार हम भी पुण्य-पापके अनुसार नियतपरमाणु ही आत्माके प्रति शरीर रचनेको आते है, ऐसा मानते है, इसकारण तुम जो दोष दिखाते हो, वह हमारे मतमें नही हो सकता है ।
अथास्तु यथाकथञ्चिच्छरीरोत्पत्तिस्तथापि सावयवं शरीरम् । प्रत्यवयवमनुप्रविशन्नात्मा सावयवः स्यात् । तथा | चास्य पटादिवत् कार्यत्वप्रसङ्गः । कार्यत्वे चासौ विजातीयैः सजातीयैर्वा कारणैरारभ्येत । न तावद्विजातीयैस्तेपामनारम्भकत्वात् । न हि तन्तवो घटमारभन्ते । न च सजातीयैर्यत आत्मत्वाभिसम्बन्धादेव तेषां कारणाना | सजातीयत्वम् । पार्थिवादिपरमाणूनां विजातीयत्वात् । तथा चात्मभिरात्मा आरभ्यत इत्यायातम् । तच्चाऽयुक्तम् । एकत्र शरीरेऽनेकात्मनामात्मारम्भकाणामसम्भवात् । सम्भवे वा प्रतिसन्धानाऽनुपपत्तिः । न ह्यन्येन दृष्टमन्यः | प्रतिसन्धातुमर्हति । अतिप्रसङ्गात् । तदारभ्यत्वे चास्य घटवदवयवक्रियातो विभागात्संयोगविनाशाद्विनाशः