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सावादम. ॥२०३॥
उक्तं च सोदाहरणं नयदुर्नयस्वरूपं श्रीदेवसूरिपादैः । तथा च तद्न्थः "नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयी- / राजै.शा. कृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशीदासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेपो नयः" इति । स्वाभिप्रेतादंशादितरांशापलापी पुनर्नयाभासः। स व्याससमासाभ्यां द्विप्रकारः । व्यासतोऽनेकविकल्पः। समासतस्तु द्विभेदो; द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । आद्यो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदात् त्रेधा । धर्मयोधर्मिणोधर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगमः। सञ्चैतन्यमात्मनीति धर्मयोः । वस्तुपर्यायवद्रव्यमिति धर्मिणोः। क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्मधर्मिणोः। धर्मद्वयादीनामैकान्तिकपार्थक्याभिसंधिर्नेगमाभासः। यथात्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्पर
मत्यन्तपृथग्भूते। अ उदाहरण सहित सम्यक् नय तथा दुर्नयोंका खरूप श्रीदेवमूरि महाराजने भी कहा है। उनके ग्रन्थमें इस प्रकार कहा है कि-जो श्रुत
प्रमाणके विषयभूत हुए पदार्थके एक अंशका ग्रहण करै तथा वाकीके सभी अंशोंमें उदासीन रहै ऐसे वक्ताके एक प्रकारके अभिप्राय को नय कहते है । विवक्षित अशको ग्रहणकर वाकीके अशोंका सर्वथा निषेध करनेवालेको नयाभास कहते है । वह नय विस्तार सक्षेपके भेदोंकी अपेक्षा दो प्रकारका है । विस्तारकी अपेक्षा तो अनेक भेद होते है परंतु संक्षेपसे देखा जाय तो मूल भेद दो है, * पहिला द्रव्यार्थिक दूसरा पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिकके नैगम, संग्रह, व्यवहार ये तीन भेद है। दो धर्मोंमें अथवा दो धर्मियोंमें या
एक धर्म एक धर्मीमें प्रधानताकी अपेक्षा करनेको नैगम अथवा नैकगम कहते हैं। सत्त्व और चैतन्य ये दोनों धर्म आत्मामें है ऐसे विचारमें तो दो धर्मों की प्रधानता है । तथा वस्तु और पर्याय जिसमें हों वह द्रव्य है ऐसे वचनमें दो धर्मियोंकी मुख्यता है । | क्योंकि, वस्तु भी धर्मी है तथा पर्याय भी एक प्रकारका धर्मी ही है। विपयासक्त जीव क्षणमात्रकेलिये सुखी होजाता है इस एक वाक्यमें जीव तो धर्मी तथा सुखीपना धर्म ये दोनो प्रधान है। दो धर्मोमें, धर्मधर्मियोंमें अथवा दो धर्मियों में जो सर्वथा भेदभाव | दिखावै उसको नैगमाभास अथवा खोटा नैगमनय कहते है। जैसे आत्मासे सत्त्व धर्म तथा चैतन्य धर्म सर्वथा भिन्न है। ___सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः । अयमुभयविकल्पः, परोऽपरश्च । अशेपविशेषेष्वौदासीन्यं भजमा
॥२०॥ नः शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परः संग्रहः । विश्वमेकं सदविशेपादिति यथा । सत्ताऽद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान्निराचक्षाणस्तदाभासः। यथा सत्तैव तत्त्वं ततः पृथग्भूतानां विशेषाणामदर्शनात् । द्रव्यत्वादीन्यवान्तर