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अब इन नयोंके विषयमें संग्रह किये हुए श्लोकों का अर्थ लिखते है । अभेदभावका ज्ञान करानेवाला सामान्य धर्म तो अन्य तथा विशेषरूप धर्म कुछ जुदा ही है ऐसा ज्ञान नैगमनयके द्वारा होता है । १ । सत्त्व धर्मको नही छोड़ता हुआ यह जगत् अपने अपने भावरूप प्रवर्तता है इसलिये सत्त्व धर्मकी अपेक्षा मुख्यकर संग्रह नय सभी जगत्को एकरूप ग्रहण करता है ऐसा मानागया है । २ । व्यवहारनय उसी सत्ताको प्रत्येक वस्तुमें भिन्न भिन्नरूपसे मनाता हुआ जीवोंको व्यवहार कराता है । क्योंकि, व्यवहार दृष्टिसे सभी वस्तु जुदी जुदी ही दीखती हैं । ३ । ऋजुसूत्र नय व्यवहार नयके विषयमेंसे भी जो शुद्ध वर्तमान कालवर्ती होता है उसीका आश्रय लेता है । क्योंकि, प्रत्येक पदार्थ अपनी स्थिति पूरी करके नष्ट होता हुआ ही दीखता है इसलिये संपूर्ण पदार्थ नश्वर स्वभाववाले ही है । भावार्थ- स्थिति पूर्ण करके सभी नष्ट होते है । इसलिये जिस किसीकी जितने कालकी स्थिति है। | उतने कालतक ही उस वस्तुको उसरूप मानना चाहिये । ४ । परस्पर विरोधी लिङ्ग संख्या आदिकोंका भेद होनेसे वस्तु भी भिन्न भिन्न स्वभावको धारण करती है ऐसा माननेवाला शब्द नय है । ५ । इस प्रकार के तथा क्षणस्थायी वस्तुको फिर भी संज्ञाओंके भेदसे भिन्न भिन्न माननेवाला समभिरूढ नय है । ६ । वस्तु एक ही शब्दका वाच्य सदा नही बना रहता है । क्योंकि, वस्तुमें | जैसी जैसी क्रिया बदलती है तैसी तैसी ही वस्तुकी अवस्था भी बदलती जाती हैं ऐसा एवंभूत नय मानता है । ७ ।
एत एव च परामर्शा अभिप्रेतधर्मावधारणात्मकतया शेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्तमाना दुर्नयसंज्ञामनुवते । | तद्बलप्रभावितसत्ताका हि खल्वेते परप्रवादाः । तथा हि । नैगमनयदर्शनानुसारिणौ नैयायिकवैशेषिकौ । संग्रहाभिप्रायप्रवृत्ताः सर्वेऽप्यद्वैतवादाः सांख्यदर्शनं च । व्यवहारनयानुपाति प्रायश्चार्वाकदर्शनम् । ऋजुसूत्राकूतप्रवृत्तबुद्धयस्ताथागताः । शब्दादिनयावलम्बिनो वैयाकरणादयः ।
ये सम्यक् नयोंकर दिखाये हुए अभिप्राय ही विवक्षित धर्मोंके निश्चयरूप होकर जब बाकीके अविवक्षित धर्मोका तिरस्कार करते हुए प्रवर्तते हैं तब दुर्नय नाम पाते है । परवादी लोगोंकी उत्पत्ति भी इन्ही दुर्नयरूप अभिप्रायोंकी मुख्यता धारण करनेसे हुई है । नैयायिक तथा वैशेषिक दर्शनवाले तो खोटे नैगम नयके पक्षपाती है । संपूर्ण अद्वैतवादी तथा सांख्यमती संग्रह - नयकी प्रधानता पकड़ने से प्रवृत्त हुए है । व्यवहारनयका पक्षपाती प्रायः चार्वाकदर्शनवाला है । बौद्धलोगोंने ऋजुसूत्रनयका ही केवल अवलंबन ले रक्खा है । शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत नयोंको सर्वथा माननेवाले वैयाकरणी आदिक है ।