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द्वादम.की अथवा होनेवाला हो उसकी भूत या भावी चेष्टा वर्तमानमें गधेके सीगसमान असत्रूप है अर्थात् वर्तमानमें कुछ है ही नहीं। राजै.शा.
" इसलिये ऐसी भूत या भावी पर्यायोंकी चेष्टाका बहाना लेकर किसी पदार्थमें उस भूत भावी पर्यायके वाचक शब्दका प्रयोग करना y ॥२०२॥
सर्वथा अनुचित जान पड़ता है। ॐ तथापि तद्द्वारेण शब्दप्रवर्तने सर्वत्र प्रवर्तयितव्यो विशेपाऽभावात् । किं च यद्यतीतवय॑च्चेष्टापेक्षया घटशVब्दोऽचेप्टावत्यपि प्रयुज्येत, कपालमृत्पिण्डादावपि तत्प्रवर्तनं दुर्निवारं स्याद्विशेपाऽभावात् । तस्माद्यत्र क्षणे
व्युत्पत्तिनिमित्तमविकलमस्ति तस्मिन्नेव सोऽर्थस्तच्छन्दवाच्य इति । ___ यदि वर्तमानमें किसी शब्दके वाच्यरूप पर्यायका अभाव रहनेपर भी केवल भूत भावी पर्यायोंकी कल्पनाकर उस पर्यायरूप मानकर वह उस शब्दका वाच्य मानना ठीक हो तो सभी शब्दोंका प्रयोग सभी पदार्थोंमें करना चाहिये । क्योंकि, प्रत्येक सभी
पुद्गल कभी न कभी विवक्षित पर्यायरूप होगया ही होगा; नही तो आगे होजायगा । और यदि अतीत अनागत चेष्टाओंकी 4 अपेक्षा लेकर भी वर्तमानमें घड़ेकी चेष्टा न होनेपर भी घड़े घड़ाशब्दका प्रयोग होसकता हो तो जवतक घडा बना ही नही
है तबतक कपाल मट्टी आदि अवस्थाओंमें भी घड़ाशब्द क्यों नही बोलाजाता ? क्योंकि; भूत भावी घटचेष्टाकी अपेक्षा जैसी * कपाल मट्टी आदिकोंकी अवस्था है तैसी ही जब घडा अपनेरूप चेष्टा नही कररहा हो तवकी अवस्था है । इसलिये जिस समय किसी शब्दकी व्युत्पत्तिका निमित्तकारण परिपूर्ण विद्यमान मिलता हो उसी समय उस शब्दका उपयोग करना उचित है ।
अत्र संग्रहश्लोकाः। अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नयः ।१। सद्रूपताऽनतिक्रान्तं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व संगृह्णन् संग्रहो मतः।२। व्यवहारस्तु * तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थितिम् । तथैव दृश्यमानत्वाद्व्यापारयति देहिनः । ३ । तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्याच्छुद्धपर्याय- संश्रिता । नश्वरस्यैव भावस्य भावात् स्थितिवियोगतः । ४ । विरोधिलिङ्गसंख्यादिभेदाभिन्नस्वभावताम् । तस्यैव {} मन्यमानोऽयं शब्दः प्रत्यवतिष्ठते । ५ । तथाविधस्य तस्यापि वस्तुनः क्षणवर्तिनः। ब्रूते समभिरूढस्तु संज्ञाभेदेन 0 है भिन्नताम् । ६ । एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वादेवंभूतोऽभिमन्यते । ७।
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