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वह तो मुक्तिमें है ही नहीं। क्योंकि; मुक्तात्मा कृतकृत्य है अर्थात् मुक्तजीवको कोई कार्य करना बाकी नहीं रहा है, जो कुछ करना था; उसको वह कर चुका है । और वीर्यान्तरायकर्मके क्षयसे उत्पन्न हुआ जो प्रयत्न है; वह तो मुक्तिमें है ही है। दान आदि लब्धिके समान। भावार्थ-जैसे-मुक्तजीवके दानान्तरायकर्मके क्षयसे दानलब्धि, भोगान्तरायकर्मके क्षयसे भोगलब्धि आदि लब्धियें उत्पन्न हुई हैं. उसी प्रकार वीर्यान्तरायकर्मके नाशसे उत्पन्न जो वीर्यलब्धिरूप प्रयत्न है; वह भी मुक्तात्माके है ही।
परंतु मुक्तात्मा कृतार्थ है; इस कारण वह प्रयत्न उसको कहीं उपयोग ( काम ) में नहीं आता है । तथा पुण्य और पाप है दूसरे । पर्याय जिनके ऐसे जो धर्म और अधर्म है; उनका नाश तो मुक्तात्माके है ही है । क्योंकि उन धर्म अधर्मके नाशके विना जीवको
मोक्षकी प्राप्त ही नहीं होती है। और जो संस्कार है, वह मतिज्ञानका ही भेद है और उस संस्कारका आत्माके जव मोहका नाश हुआ उसी समय नाश हो चुका है; अतः मुक्तात्माके संस्कार भी नहीं है । सो इस पूर्वोक्तप्रकारसे ' मोक्ष ज्ञान तथा सुखरूप | नहीं है ' ऐसा जो तुम्हारा कथन है; वह युक्ति रहित है अर्थात् ज्ञान-सुखरहित मोक्षको माननेमें कोई भी युक्ति तुम वैशेषि-|
कोंके पास नहीं है । इसप्रकार काव्यका अर्थ है ॥ ८॥ IN अथ ते वादिनः कायप्रमाणत्वमात्मनः स्वयं संवेद्यमानमप्यपलप्य तादृशकुशास्त्रशस्त्रसंपर्कविनष्टदृष्टयस्तस्य
विभुत्वं मन्यन्तेऽतस्तलोपालम्भमाह ।| अब उसीप्रकारके कुशास्त्ररूपी शस्त्रके लग जानेसे नष्ट होगये है नेत्र जिनके ऐसे वे वैशिषिक आत्माकी खयं जाननेमें आती लाहुई भी शरीरप्रमाणताको गुप्त करके आत्माको सर्वव्यापक मानते है भावार्थ-यद्यपि आत्मा शरीरप्रमाण है तथापि वैशेषिक उसको सर्वव्यापक मानते है। इस कारण अग्रिम काव्यसे आत्माको सर्वव्यापक माननेमें उपालंभ देते है।
यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतत् ।
तथापि देहाबहिरात्मतत्त्वमतत्त्ववादोपहताः पठन्ति ॥९॥ काव्यभावार्थः-जैसे घटके रूप आदि गुण जहां हैं, वहां ही वह घट भी रहता है, उसी |